कहानी संग्रह >> चाँदनी रात का दुखांत चाँदनी रात का दुखांतकर्त्तार सिंह दुग्गल
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प्रस्तुत है पंजाबी कथा संग्रह.....
Chadani Rat Ka Dukhant a hindi book by Kartar Singh Duggal - चाँदनी रात का दुखांत - कर्त्तार सिंह दुग्गल
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कर्तार सिंह दुग्गल (जन्म 1917) देश के एक प्रमुख साहित्यकार हैं। अपनी रचनाओं के लिए उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार, गालिब अवार्ड, भारतीय भाषा परिषद पुरस्कारऔर भारतीय साहित्य के प्रति समग्र योगदान के लिए सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिल चुके हैं। उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से भी अलंकृत किया गया है।
आकाशवाणी और नेशनल बुक ट्रस्ट में निदेशक पद पर रहने के बाद वे कुछ वर्ष योजना आयोग में सलाहकार. (सूचना) भी रहे। सम्प्रति उनका सारा समय लेखन के प्रति समर्पित है।
आकाशवाणी और नेशनल बुक ट्रस्ट में निदेशक पद पर रहने के बाद वे कुछ वर्ष योजना आयोग में सलाहकार. (सूचना) भी रहे। सम्प्रति उनका सारा समय लेखन के प्रति समर्पित है।
कोई नहीं कहता था मालिन और मिन्नी माँ-बेटी हैं। जहाँ से गुजरतीं लोग यही समझते कि दो बहनें हैं। मिन्नी बालिश्त-भर ऊँची थी अपनी माँ से। ‘‘अरी मालिन, अटूट यौवन उतरा है तेरी बेटी पर। ‘‘अड़ोसिनों-पड़ोसिनों की उसकी ओर देख-देख कर भूख न मिटती। और लड़की जैसा सच्चा मोती हो। जितनी सुन्दर, उतनी सुशील। मालिन अपनी बेटी के मुँह की ओर देखती और उसे लगता जैसे हूबहू वो खुद हो। अभी तो कल की बात थी, वो स्वयं वैसी की वैसी थी। और वो सोचती, अब भी उसका क्या बिगड़ा था। अब भी, अब भी कोई पहाड़ काटकर उसके लिए नहर निकालने को बेताब था। अब भी, अब भी कोई सात समुन्दर तैर कर उस तक पहुँचने के लिए बेकरार था।
ये कौन उसे आज याद आ रहा था ? मोतियों का व्यापारी !
ये क्यों उसकी पलकें आज भीग-भीग जा रही थीं ? उसकी बेटी अब जवान हो गई थी, अब उसे ये कुछ नहीं शोभा देता था। सारी आयु संभल-संभल कर चली, आज ये कैसे ख़्यालों में वो खोई चली जा रही थी ? नहीं, नहीं। अगले हफ़्ते मिन्नी, अपनी बेटी का उसे कारज रचाना था। नहीं, नहीं, नहीं।
‘‘पास मेरी परम प्यारी, एक पल न बिसारी।’’ कल उसने चिट्ठी लिखी थी। हर बार वो आता, ये उसे वैसे का वैसा लौटा देती; आँखें मींच कर अपना द्वार बन्द कर लेती। लेकिन वो था कि एक पल भी इसे उसने नहीं बिसारा था। मालिन उसकी जान थी। एक क्षण उसे चैन नहीं था इसके बिना। और सारी उम्र काट ली थी किसी की प्रतीक्षा में, फफक-फफक कर, सिसक-सिसक कर, तड़प-तड़प कर। सारी उम्र ! और अब परछाइयाँ ढल रही थीं; चाहे कभी पंछी उड़ जाय।
मालिन सोचती आज रात वह ज़रूर आएगा। शरद पूनम की रात वो ज़रूर इसका द्वार खटखटाता था। वर्षों से खटखटाता आ रहा था। कभी भी तो इसने अपना पट उसके लिए नहीं खोला था।
और फिर मालिन को कई वर्ष पहले शरद पूनम की वो रात याद आने लगी, जब अमराई के तले नाचते, इसकी चुनरी उसकी बाँहों के साथ लिपट गई थी। और सिर से नंगी ये उसके सामने दुहरी हो-हो गई थी। और फिर उसने इसकी चुनरी इसके कन्धों पर ला रखी थी।
हैं ! हू-बहू वैसे ही अपना दुपट्टा आज इसने अपने कन्धे पर रखा हुआ था। और मालिन सिर से पाँव तक लरज़ गई।
सामने गली में मिन्नी आ रही थी। जैसे सरू का पेड़ हो। ऊँची, लम्बी और गोरी। हाथ लगाने से मैली होती। मुँह, सिर लपेटे, आँखें नीचे डाले। मजाल है, किसी ने उसका ऊँचा बोल भी कभी सुना हो। मन्दिर से लौट रही थी। भगवान् के आगे हाथ जोड़-जोड़ कर कि उसके मन की मुराद पूरी हो। भगवान् सबके मन की मुराद पूरी करे ! और मालिन आप ही आप मुसकुराने लगी। जैसे किसी के गुदगुदी हो रही हो। उसके मन की क्या मुराद थी ?
‘‘माँ, लहैजी आज नहीं आये ?’’ मिन्नी माँ से पूछ रही थी।
‘‘तेरे लहैजी आज नहीं आयेंगे। वो तो कहीं कल भी आ जायँ तो लाख शुक्र। कितना सारा कपड़ा लत्ता और कितना सारा अनाज उसे खरीदना है। शादी-ब्याह में चीज़ बच जाय तो अच्छी, कम पड़ गई तो बड़ा झंझट होता है।’’ मालिन बेटी को समझा रही थी। मिन्नी चूल्हे-चौके में व्यस्त होने से पहले धीरे से आई और अपनी मकैश वाली चुनरी माँ के कन्धों पर रख उसका दुपट्टा उतार कर ले गई। कहीं उसकी रेशमी चुनरी मैली न हो जाय।
कितनी महीन मकैश उसने टाँकी थी अपनी चुनरी पर ! धुँधलका हो रहा था। अकेली आँगन में बैठी मालिन कल्पनाओं में खो गई थी। कई चक्कियाँ बड़ा महीन आटा पीसती हैं। मालिन सोचती, वो भी तो एक चक्की की तरह थी जो सारी उम्र अपनी धुरी पर चलती रही। कभी भी तो उसकी चाल नहीं डगमगाई थी ! अपने-आप को उसने मलीदा कर लिया था। रोक-रोक कर, भींच-भींच कर खतम कर दिया था अपने आप को।
पूरे चाँद की चाँदनी अमराई में से छन-छन कर उसके ऊपर पड़ रही थी। ये कैसे विचारों में वो बहती जा रही थी आज ! मालिन को लगता जैसे एक नशा-सा उसको चढ़ रहा हो। पूरे चाँद की चाँदनी हमेशा उस पर एक जादू-सा कर दिया करती थी।
चार दिन और, और फिर इस आँगन में गीत बैठेंगे। मालिन सोच रही थी। और फिर मेंहदी रचाई जायगी। और फिर मिन्नी दुल्हन बनेगी। सिर से लेकर पाँव तक गहनों से लदी हुई। लाल रेशमी जोड़े में कैसी बहू लगेगी मिन्नी ! और फिर कोई घोड़े पर चढ़ कर आयगा और डोले में डाल कर उसे ले जायगा अपने घर; अपनी अटारी में। और उसकी हथेलियाँ चूम-चूम कर उसकी मेंहदी का सारा रंग पी लेगा।
मालिन सोचती, अभी तो कल की बात थी, उसने भी मेंहदी लगाई थी। पर मिन्नी के लहैजी ने तो एक बार भी उसकी हथेलियों को उठा कर अपने होठों से नहीं लगाया था। एक बार भी उसने कभी इसके हाथों को उठा कर अपनी आँखों से नहीं छुआ था। थका-हारा वो काम से लौटता, खाना खाता और खाकर सो जाता। एक बेटे की लालसा, कभी-कभी आधी रात को उसकी आँख खुल जाती। तब, जब मुश्किल से तारे गिन-गिन कर मालिन को नींद आई होती। और फिर हर वर्ष, हर दूसरे वर्ष इनके एक-न-एक बेटी आ जाती। बिन बुलाई लड़कियाँ आप ही आप आतीं, आप-ही-आप जाती रहीं। बस, एक मिन्नी बची थी। इकलौती। बड़ी-बड़ी, काली-काली आँखें। मालिन की आंखें। गोरे-गोरे गालों के नीचे तिल। मालिन का तिल ! गज़-गज़ लम्बे बाल। मालिन के बाल ! मालिन सोचती, जैसे इस जीवन की उसकी सारी भूख ने उसकी बेटी में पुर्नजन्म ले लिया हो, अपनी पूर्ति करने के लिए। मालिन सोचती, उसका हुस्न जैसे फिर साकार हो गया हो गया था अपनी कोख-जायी में, अपना मूल्य चुकवाने के लिए। मालिन को हमेशा महसूस होता जैसे उनके अंग-अंग , पोर-पोर में एक भूख बसी हुई हो। एक प्यास में उसके होंठ बेक़रार हो रहे थे।
पूरे चाँद की रात मालिन से कभी कुछ खाया नहीं जाता था। और मिन्नी कब की चूल्हा-चौका सँभाल, सामने ड्योढ़ी के दरवाज़े को कुंडी लगा, अन्दर कमरे में सो गई थी।
रात भी कितनी हो रही थी ! चाँद जैसे सारे का सारा उसके आँगन में आन उतरा हो। रात ठंडी थी। अभी ठंड कहाँ ? यों ही हल्का-हल्का जाड़ा था। पूरे चाँद की रात अकेला आँगन। मालिन सोचती—वो क्यूँ यूँ बैठी थी ? किसके इन्तज़ार में ? मिन्नी अन्दर सो चुकी थी। मिन्नी के लहैजी को आज ही क्यों शहर जाना था ? पूनम की रात तो वह अपने-आप को बाँध-बाँध रखती थी। और मालिन ने मकैश वाली मिन्नी की चुनरी के साथ अपना मुँह, सिर लपेट लिया। चाँद की चाँदनी में दमक-दमक पड़ते मकैश के दाने; उसे लगा जैसे आसमान के तारे उसके बालों में उतर आए हों; उसके गालों पर, उसके कन्धों पर आकर खेलने लग गये हों। सामने अमराई पर फिर कोई पंछी आकर बोल रहा था। हुक, हुक, हुक। सारी रात पुकारता रहेगा। पूनम की सारी रात। सारी आयु यों ही पुकारता रहा था, और जिसने आना था, वह नहीं आया था।
ये किन विचारों में वो आज बहती जा रही थी ? मालिन सोचती, शायद इसलिए कि वो अकेली लड़की थी। अकेली क्यों थी ? अन्दर मिन्नी उसकी जवान-जहान बेटी सोई थी। अगले हफ़्ते जिसका उसने कारज रचाना था। सात दिन, और वो चली जायगी। और फिर मालिन अकेली रह जायगी। इतना बड़ा आँगन और वो अकेली ! मालिन का अंग-अंग लरज़ गया। ये आँगन उसे खाने को दौड़ा करेगा। मिन्नी क्यों इसके यहाँ आयेगी ? वो तो अपना घर बसायगी। गाँव के चौधरी की बहू, वो तो अपने सहन का सिंगार बनेगी। और मालिन सोचती वो अकेली रह जायगी। बिलकुल अकेली। मिन्नी के लहैजी की तो सारी उम्र सूद-सौदे में कट गई थी। एक अटूट दौड़ ! घर का मर्द, शाम को हर रोज़ थक-हार कर जैसे वो आता था। और निढाल अपनी चारपाई पर ढेर हो जाता था। कई बार उसे ये कहती, आखिर इतने झमेले किस लिए ? काहे को उसने झंझट पाल लिये थे ? लेकिन उसे कोई बात नहीं समझ आती थी।
मालिन घड़ी की घड़ी के लिए अन्दर कमरे में गई। मिन्नी सचमुच सो गई थी। अल्हड़ जवानी की नींद, बेसुध सोई पड़ी थी। लाल चूड़ियों को उतार, सिरहाने रख, सो गई थी। कहाँ चूड़ियाँ रखी थीं उसने ! ज्यों ही करवट लेगी, कच-कच टूट जायेंगी। और मालिन ने सोचा वो उठा कर चूड़ियों को सामने ताक में रख दे। लेकिन उसने तो चूड़ियाँ पहन ली थीं। ताक में सँभालने की जगह उसने तो चूड़ियाँ अपनी कलाइयों में सजा ली थीं। छह एक ओर, छह दूसरी ओर। चमक-चमक पड़ती चूड़ियाँ, अभी तो कल ही मिन्नी ने गली में बैठकर चूड़ी वाले से चढ़ाई थीं।
और मालिन बाहर आँगन में लौट आई। सिर पर रेशमी मकैश वाली चुनरी, बाँहों में लाल-लाल चूड़ियाँ, पूरे चाँद की रात, मालिन को लगा जैसे एक ऐंठन-सी उसके अंग-अंग में फैलती चली जा रही हो।
और फिर उसकी ड्योढ़ी का दरवाज़ा किसी ने खटखटाया। वही था। वही था। सहमा हुआ, झिझकता हुआ। वही था। जैसे उसने चिट्ठी में लिखा था, अपने वक्त पर आन पहुँचा था। ‘‘शरद पूनम की रात मैं तुम्हारा किवाड़ खटखटाऊँगा। तुम्हारी मरज़ी हो, खोल देना, तुम्हारी मरज़ी न हो, न खोलना; तुम्हारा किवाड़ खटखटाने का मेरा हक़ वैसे का वैसा बना हुआ है।’’ ठक ! ठक ! ठक ! अत्यन्त कोमल, अत्यन्त मधुर, प्यारी-सी ये दस्तक उसी की थी। वही था। चाँदनी रात का चोर। जैसे किसी ने एकदम बत्ती बुझा दी हो। घोर काले बादलों का पहाड़-सा चाँद के सामने आ गया था। बादलों पर बादल चढ़ते आ रहे थे।
और रात के उस अँधेरे में मालिन के क़दम ड्योढ़ी की ओर चल दिए। अँधेरा-अँधेरा, चक्कर-चक्कर, ठंड-ठंड, पसीना-पसीना। काँपते हुए हाथ, धीरे से उसने कुंडी खोली और अपने-आप को तड़प रही बाँहों में ढेर कर दिया। और फिर होंठों पर होंठ, दाँतों में दाँत, बीस वर्षों का रुका हुआ एक बाँध जैसे फूट कर टूट पड़ा हो। जैसे कोई फूल की पत्ती किसी बवंडर की लपेट में आ गई हो।
मालिन को नहीं पता था कब चलते-चलते वो गाँव के बाहर बरगद के नीचे जा खड़े हुए, कितनी देर वहाँ खड़े रहे। मालिन को नहीं पता था, कब वो बरगद के साथ लगते खेत में जा बैठे, कितनी देर वहाँ छिपे रहे। तड़के मुँह-अँधेरे गाड़ी दूर सड़क के पार चीख़ती-चिल्लाती गुज़र रही थी कि उसकी आँख खुली, और मालिन धीरे से उसकी बाँहों में से निकल, मुँह सिर लपेटे तेज़ तेज़ क़दम अपने घर लौट आई।
चूड़ियों को उतार कर उसने वैसे का वैसे मिन्नी के सिरहाने रख दिया। उसकी रेशमी चुनरी उसकी चारपाई पर धरी, और अपना दुपट्टा लेकर सामने बिस्तर पर जा लेटी। मालिन अपने पलंग पर आकर पड़ी और उसकी आँख लग गई। यूँ तो उसे कभी नींद नहीं आई थी। जैसे सारी उम्र का किसी का रतजगा हो।
धूप निकल आई थी और तब कहीं उसकी आँख खुली।
‘‘कैसे अल्हड़ लड़कियों की तरह तू आज सोई है माँ !’’ मिन्नी ने उसे छेड़ा।
जवान-जहान लड़की, उसने घर की झाड़-पोंछ देख ली थी। चूल्हा-चौका निपटा लिया था। और नहा-धोकर अब मन्दिर जा रही थी, मोतियों की कलियाँ अपनी चुनरी के पल्लू के साथ बाँधे, अपने इष्ट की भेंट चढ़ाने के लिए।
मिन्नी आँख से ओझल हुई और मालिन अलसाई हुई, लाख सपने अपने पलकों में लिए, सामने आँगन में जा बैठी। मीठी-मीठी पुरवैया चल रही थी। हल्की-हल्की धूप सामने मुंडेर से नीचे उतर आई थी। एक खुमार-सा था आस पास में। मालिन को लगा जैसे वो दूध की लबरेज़ कटोरी हो। दूध और उस पर तैर रही चमेली की कलियाँ। एक उन्माद में उसकी पलकें जुड़-जुड़ जातीं, खुल-खुल जातीं।
‘‘अरी मालिन, कहाँ है तुम्हारी ये काइयाँ बेटी ?’’ जैसे उसको किसी ने आकर चाँटा दे मारा हो, मालिन की ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे रह गई।
‘‘ये अनर्थ कभी नहीं किसी ने सुना। चार दिन इसके डोले को रह गये हैं और ये लड़की यूँ उथल पड़ी !’’ लाज़ो पड़ोसन हथेलियाँ मलती मालिन के पास आकर बैठ गई।
‘‘क्या हुआ है मेरी बेटी को ? वह तो निरी गौ है !’’ मालिन भभक कर उसे काटने को पड़ी।
‘‘तेरी गौ सारी रात कल मुँह काला करवाती रही है।’’
मालिन ने सुना और उसके जैसे सोते सूख गये। काटो तो लहू नहीं। नीली-पीली। उसका अंग-अंग जैसे मुड़ रहा हो।
‘‘उधर रात हुई, इधर ये किसी अपने यार के साथ बाहर निकल गई। सारी रात तेरी ड्योढ़ी खुली रही है। मैंने खुद इन आँखों से देखा, ड्योढ़ी के बाहर किसी की बाँहों में ये ढेर पड़ी हुई थी। मैं बाहर ‘छोटी’ करने निकली थी और मैंने वैसे का वैसा किवाड़ भिड़का लिया। और फिर ये हौले-हौले कदम, बाँह में बाँह डाले बाहर खेतों की ओर निकल गए। सारी रात मेरी आँख नहीं लगी। बेटियाँ सब की साँझी होती हैं। यूँ पहले कभी किसी ने अपने माँ-बाप का मुँह काला नहीं किया। यूँ कभी किसी ने अपने बड़े बूढ़ों की पत नहीं उतारी। हम तो कहीं मुँह दिखाने के लिए नहीं रहे।’’ और लाजो छल-छल अश्रु रो रही थी। रोए जाती और हथेलियों को मले जाती।
मालिन जैसे पत्थर का पत्थर हो, उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। और फिर यूँ बिलखती-बिलखती लाजो चली गई।
लाजो अभी गई थी कि गाँव का चौकीदार जुम्मा पिछवाड़े की ओर से उतर आया।
‘‘भाभी ! अरी भाभी मालिन !’’ कब का वो उसके पास खड़ा उसे बुला रहा था।
‘‘क्या है जुम्मा ?’’ जैसे कुएँ में से निकली आवाज़ हो, मालिन ने चौकीदार को आँगन में खढ़ा देख कर सँभलने लगी।
‘‘भाभी। बात करने वाली तो नहीं पर कल रात बड़ा जुलम हुआ है इस गाँव में। मैंने तो बाल सफेद कर लिये चौकीदारी करते हुए, ऐसा अंधेर मैंने कभी नहीं देखा। तेरी बेटी मिन्नी किसी के साथ बरगद के तले मुँह काला करती रही। रात चाँदनी थी, लेकिन आकाश बादलों से अँटा हुआ था। दो बार मैं दस कदम की दूरी पर इनके पास से गुज़र गया। होंठों पर होंठ जमाए, एक-दूसरे को चिपटे, इनको कुछ पता नहीं लगा। बरगद के तले खड़े-खड़े थक गए और फिर खेत में जा छिपे। मैं तो सारी रात तेरे घर की आकर रखवाली बैठा रहा हूँ। खुली ड्योढ़ी, चार दिन इसके ब्याह को रह गए हैं। ब्याह वाला घर गहनों-कपड़ों से भरा होता है। सवेर हुई तो मैं यहाँ से हिला। पता नहीं कब ये झक मार कर लौटी। कमज़ात, मैंने तो इसे गोद में खिला-खिला कर पाला है। मेरी बेटी होती तो मैं इसका गला घोंट देता। मैं तो पिछली दीवार फाँदकर आया हूँ। मैंने सोचा कोई पूछेगा कि तुम सुबह-सुबह किधर चल दिए, तो मैं क्या जवाब दूँगा ?’’
मालिन के मुँह में आवाज़ नहीं थी। बिट-बिट आँखें जुम्मा चौकीदार की ओर देख रही थी।
और जुम्मा जिस राह आया था, उसी राह दीवार लाँघ कर लौट गया।
जुम्मा गया और सामने गली में रतना ज़मींदार दहाड़ता, फुँकारता, सिर जितनी ऊँची लट्ठ उठाए उसके आँगन में आ धमका। क्रोध में उबल रहा था।
‘‘कहाँ है तुम्हारी लड़की ?’’ ड्योढ़ी में घुसते ही वो गरजा, ‘‘कहाँ है ये बदज़ात छिनाल ? मेरा ही खेत रह गया था इसे खराब करने के लिए !’’ रतना उछल-उछल पड़ रहा था। मन-मन की सलवातें सुनाता, सारा मुहल्ला उसने इकट्ठा कर लिया। अडो़सी-पड़ोसी मुंडेरों पर आ खड़े हुए।
‘‘मैंने खुद अपनी आँखों से देखा है। तड़के मैं कुएँ की ओर जा रहा था। मैंने खुद अपनी आँखों से देखा, पहले ये निकली मेरे खेत में से मकैशवाली चुनरी ओढ़े हुए। मैंने सोचा लड़की शायद ‘बाहर बैठने’ आई है। और फिर एक क्षण गुज़रा और इसका यार कोई दूसरी ओर से नीचे उतर गया।’’
‘‘क्यों झूठ बोलते हो चाचा ?’’ बिजली की तरह कड़क कर मिन्नी भीड़ को हटाती हुई आगे बढ़ी। देर से वो मन्दिर से लौटी हजूम के पीछे खड़ी सब कुछ सुन रही थी।
‘‘मैं झूठ बोलता हूँ बदज़ात ? मैं झूठ बोलता हूँ कुलक्षणी ? ये लाल चूड़ी किसकी टूटी हुई थी मेरे खेत में ?’’ और अपनी चादर के पल्लू में बँधी लाल चूड़ी उसने मिनी की हथेली पर रखी। एक आँख झपकने में मिन्नी ने अपनी कलाइयों पर चूड़ियों को गिना। ग्यारह थीं। और वो ठिठक कर रह गई। उसकी आँखों के सामन अँधेरा छा गया।
और फिर मुहल्ले वालियाँ आँखों ही आँखों में एक-दूसरे से कहने लगीं, उन्होंने स्वयं मिन्नी को पिछले दिन चूड़ियाँ चढ़ाते देखा था, दस के ऊपर दो चूड़ियाँ। लाल रंग चुन कर उसने निकलवाया था।
लोगों से आँगन भर गया था। और फिर मालिन का समधी आया भीड़ को चीरता हुआ। उसके पीछे मिन्नी की होने वाली सास थी, और उन्होंने सारे वो थाल, सारे वो कपड़े, सारे वो नोट, और सगाई की अँगूठी मालिन के सामने ला पटके। हक्के-बक्के लोग एक-दूसरे के मुँह की ओर देख रहे थे। औरते बार-बार कानों को हाथ लगातीं। जवान-जहान लड़कियाँ मुँह में उँगलियाँ लिए काट रही थीं।
और फिर धड़ाम से किसी की पड़ोस के कुएँ में गिरने की आवाज़ आई। सबकी ऊपर की साँस ऊपर और तले की साँस तले रह गई। लोगों ने आगे-पीछे देखा, मालिन की गौ जैसी सुशील बेटी कहीं भी नहीं थी। वो बेटी जिसका ऊँचा बोल कभी किसी ने नहीं सुना था। सच्चा मोती। जो सुबह शाम भगवान् के सामने हाथ जोड़-जोड़ नहीं थकती थी, वो बेटी कहीं भी नहीं थी। और लोग एक साँस कुएँ की ओर दौड़ पड़े।
मालिन तख्ते का तख्ता वैसी की वैसी पड़ी थी। उसका आँगन भाँय-भाँय कर रहा था। अड़ोसी-पड़ोसी अल्ले-मुहल्ले वाले सारे कुएँ की ओर दौड़ गये थे। किसी तरह लड़की बच सके।
ये कौन उसे आज याद आ रहा था ? मोतियों का व्यापारी !
ये क्यों उसकी पलकें आज भीग-भीग जा रही थीं ? उसकी बेटी अब जवान हो गई थी, अब उसे ये कुछ नहीं शोभा देता था। सारी आयु संभल-संभल कर चली, आज ये कैसे ख़्यालों में वो खोई चली जा रही थी ? नहीं, नहीं। अगले हफ़्ते मिन्नी, अपनी बेटी का उसे कारज रचाना था। नहीं, नहीं, नहीं।
‘‘पास मेरी परम प्यारी, एक पल न बिसारी।’’ कल उसने चिट्ठी लिखी थी। हर बार वो आता, ये उसे वैसे का वैसा लौटा देती; आँखें मींच कर अपना द्वार बन्द कर लेती। लेकिन वो था कि एक पल भी इसे उसने नहीं बिसारा था। मालिन उसकी जान थी। एक क्षण उसे चैन नहीं था इसके बिना। और सारी उम्र काट ली थी किसी की प्रतीक्षा में, फफक-फफक कर, सिसक-सिसक कर, तड़प-तड़प कर। सारी उम्र ! और अब परछाइयाँ ढल रही थीं; चाहे कभी पंछी उड़ जाय।
मालिन सोचती आज रात वह ज़रूर आएगा। शरद पूनम की रात वो ज़रूर इसका द्वार खटखटाता था। वर्षों से खटखटाता आ रहा था। कभी भी तो इसने अपना पट उसके लिए नहीं खोला था।
और फिर मालिन को कई वर्ष पहले शरद पूनम की वो रात याद आने लगी, जब अमराई के तले नाचते, इसकी चुनरी उसकी बाँहों के साथ लिपट गई थी। और सिर से नंगी ये उसके सामने दुहरी हो-हो गई थी। और फिर उसने इसकी चुनरी इसके कन्धों पर ला रखी थी।
हैं ! हू-बहू वैसे ही अपना दुपट्टा आज इसने अपने कन्धे पर रखा हुआ था। और मालिन सिर से पाँव तक लरज़ गई।
सामने गली में मिन्नी आ रही थी। जैसे सरू का पेड़ हो। ऊँची, लम्बी और गोरी। हाथ लगाने से मैली होती। मुँह, सिर लपेटे, आँखें नीचे डाले। मजाल है, किसी ने उसका ऊँचा बोल भी कभी सुना हो। मन्दिर से लौट रही थी। भगवान् के आगे हाथ जोड़-जोड़ कर कि उसके मन की मुराद पूरी हो। भगवान् सबके मन की मुराद पूरी करे ! और मालिन आप ही आप मुसकुराने लगी। जैसे किसी के गुदगुदी हो रही हो। उसके मन की क्या मुराद थी ?
‘‘माँ, लहैजी आज नहीं आये ?’’ मिन्नी माँ से पूछ रही थी।
‘‘तेरे लहैजी आज नहीं आयेंगे। वो तो कहीं कल भी आ जायँ तो लाख शुक्र। कितना सारा कपड़ा लत्ता और कितना सारा अनाज उसे खरीदना है। शादी-ब्याह में चीज़ बच जाय तो अच्छी, कम पड़ गई तो बड़ा झंझट होता है।’’ मालिन बेटी को समझा रही थी। मिन्नी चूल्हे-चौके में व्यस्त होने से पहले धीरे से आई और अपनी मकैश वाली चुनरी माँ के कन्धों पर रख उसका दुपट्टा उतार कर ले गई। कहीं उसकी रेशमी चुनरी मैली न हो जाय।
कितनी महीन मकैश उसने टाँकी थी अपनी चुनरी पर ! धुँधलका हो रहा था। अकेली आँगन में बैठी मालिन कल्पनाओं में खो गई थी। कई चक्कियाँ बड़ा महीन आटा पीसती हैं। मालिन सोचती, वो भी तो एक चक्की की तरह थी जो सारी उम्र अपनी धुरी पर चलती रही। कभी भी तो उसकी चाल नहीं डगमगाई थी ! अपने-आप को उसने मलीदा कर लिया था। रोक-रोक कर, भींच-भींच कर खतम कर दिया था अपने आप को।
पूरे चाँद की चाँदनी अमराई में से छन-छन कर उसके ऊपर पड़ रही थी। ये कैसे विचारों में वो बहती जा रही थी आज ! मालिन को लगता जैसे एक नशा-सा उसको चढ़ रहा हो। पूरे चाँद की चाँदनी हमेशा उस पर एक जादू-सा कर दिया करती थी।
चार दिन और, और फिर इस आँगन में गीत बैठेंगे। मालिन सोच रही थी। और फिर मेंहदी रचाई जायगी। और फिर मिन्नी दुल्हन बनेगी। सिर से लेकर पाँव तक गहनों से लदी हुई। लाल रेशमी जोड़े में कैसी बहू लगेगी मिन्नी ! और फिर कोई घोड़े पर चढ़ कर आयगा और डोले में डाल कर उसे ले जायगा अपने घर; अपनी अटारी में। और उसकी हथेलियाँ चूम-चूम कर उसकी मेंहदी का सारा रंग पी लेगा।
मालिन सोचती, अभी तो कल की बात थी, उसने भी मेंहदी लगाई थी। पर मिन्नी के लहैजी ने तो एक बार भी उसकी हथेलियों को उठा कर अपने होठों से नहीं लगाया था। एक बार भी उसने कभी इसके हाथों को उठा कर अपनी आँखों से नहीं छुआ था। थका-हारा वो काम से लौटता, खाना खाता और खाकर सो जाता। एक बेटे की लालसा, कभी-कभी आधी रात को उसकी आँख खुल जाती। तब, जब मुश्किल से तारे गिन-गिन कर मालिन को नींद आई होती। और फिर हर वर्ष, हर दूसरे वर्ष इनके एक-न-एक बेटी आ जाती। बिन बुलाई लड़कियाँ आप ही आप आतीं, आप-ही-आप जाती रहीं। बस, एक मिन्नी बची थी। इकलौती। बड़ी-बड़ी, काली-काली आँखें। मालिन की आंखें। गोरे-गोरे गालों के नीचे तिल। मालिन का तिल ! गज़-गज़ लम्बे बाल। मालिन के बाल ! मालिन सोचती, जैसे इस जीवन की उसकी सारी भूख ने उसकी बेटी में पुर्नजन्म ले लिया हो, अपनी पूर्ति करने के लिए। मालिन सोचती, उसका हुस्न जैसे फिर साकार हो गया हो गया था अपनी कोख-जायी में, अपना मूल्य चुकवाने के लिए। मालिन को हमेशा महसूस होता जैसे उनके अंग-अंग , पोर-पोर में एक भूख बसी हुई हो। एक प्यास में उसके होंठ बेक़रार हो रहे थे।
पूरे चाँद की रात मालिन से कभी कुछ खाया नहीं जाता था। और मिन्नी कब की चूल्हा-चौका सँभाल, सामने ड्योढ़ी के दरवाज़े को कुंडी लगा, अन्दर कमरे में सो गई थी।
रात भी कितनी हो रही थी ! चाँद जैसे सारे का सारा उसके आँगन में आन उतरा हो। रात ठंडी थी। अभी ठंड कहाँ ? यों ही हल्का-हल्का जाड़ा था। पूरे चाँद की रात अकेला आँगन। मालिन सोचती—वो क्यूँ यूँ बैठी थी ? किसके इन्तज़ार में ? मिन्नी अन्दर सो चुकी थी। मिन्नी के लहैजी को आज ही क्यों शहर जाना था ? पूनम की रात तो वह अपने-आप को बाँध-बाँध रखती थी। और मालिन ने मकैश वाली मिन्नी की चुनरी के साथ अपना मुँह, सिर लपेट लिया। चाँद की चाँदनी में दमक-दमक पड़ते मकैश के दाने; उसे लगा जैसे आसमान के तारे उसके बालों में उतर आए हों; उसके गालों पर, उसके कन्धों पर आकर खेलने लग गये हों। सामने अमराई पर फिर कोई पंछी आकर बोल रहा था। हुक, हुक, हुक। सारी रात पुकारता रहेगा। पूनम की सारी रात। सारी आयु यों ही पुकारता रहा था, और जिसने आना था, वह नहीं आया था।
ये किन विचारों में वो आज बहती जा रही थी ? मालिन सोचती, शायद इसलिए कि वो अकेली लड़की थी। अकेली क्यों थी ? अन्दर मिन्नी उसकी जवान-जहान बेटी सोई थी। अगले हफ़्ते जिसका उसने कारज रचाना था। सात दिन, और वो चली जायगी। और फिर मालिन अकेली रह जायगी। इतना बड़ा आँगन और वो अकेली ! मालिन का अंग-अंग लरज़ गया। ये आँगन उसे खाने को दौड़ा करेगा। मिन्नी क्यों इसके यहाँ आयेगी ? वो तो अपना घर बसायगी। गाँव के चौधरी की बहू, वो तो अपने सहन का सिंगार बनेगी। और मालिन सोचती वो अकेली रह जायगी। बिलकुल अकेली। मिन्नी के लहैजी की तो सारी उम्र सूद-सौदे में कट गई थी। एक अटूट दौड़ ! घर का मर्द, शाम को हर रोज़ थक-हार कर जैसे वो आता था। और निढाल अपनी चारपाई पर ढेर हो जाता था। कई बार उसे ये कहती, आखिर इतने झमेले किस लिए ? काहे को उसने झंझट पाल लिये थे ? लेकिन उसे कोई बात नहीं समझ आती थी।
मालिन घड़ी की घड़ी के लिए अन्दर कमरे में गई। मिन्नी सचमुच सो गई थी। अल्हड़ जवानी की नींद, बेसुध सोई पड़ी थी। लाल चूड़ियों को उतार, सिरहाने रख, सो गई थी। कहाँ चूड़ियाँ रखी थीं उसने ! ज्यों ही करवट लेगी, कच-कच टूट जायेंगी। और मालिन ने सोचा वो उठा कर चूड़ियों को सामने ताक में रख दे। लेकिन उसने तो चूड़ियाँ पहन ली थीं। ताक में सँभालने की जगह उसने तो चूड़ियाँ अपनी कलाइयों में सजा ली थीं। छह एक ओर, छह दूसरी ओर। चमक-चमक पड़ती चूड़ियाँ, अभी तो कल ही मिन्नी ने गली में बैठकर चूड़ी वाले से चढ़ाई थीं।
और मालिन बाहर आँगन में लौट आई। सिर पर रेशमी मकैश वाली चुनरी, बाँहों में लाल-लाल चूड़ियाँ, पूरे चाँद की रात, मालिन को लगा जैसे एक ऐंठन-सी उसके अंग-अंग में फैलती चली जा रही हो।
और फिर उसकी ड्योढ़ी का दरवाज़ा किसी ने खटखटाया। वही था। वही था। सहमा हुआ, झिझकता हुआ। वही था। जैसे उसने चिट्ठी में लिखा था, अपने वक्त पर आन पहुँचा था। ‘‘शरद पूनम की रात मैं तुम्हारा किवाड़ खटखटाऊँगा। तुम्हारी मरज़ी हो, खोल देना, तुम्हारी मरज़ी न हो, न खोलना; तुम्हारा किवाड़ खटखटाने का मेरा हक़ वैसे का वैसा बना हुआ है।’’ ठक ! ठक ! ठक ! अत्यन्त कोमल, अत्यन्त मधुर, प्यारी-सी ये दस्तक उसी की थी। वही था। चाँदनी रात का चोर। जैसे किसी ने एकदम बत्ती बुझा दी हो। घोर काले बादलों का पहाड़-सा चाँद के सामने आ गया था। बादलों पर बादल चढ़ते आ रहे थे।
और रात के उस अँधेरे में मालिन के क़दम ड्योढ़ी की ओर चल दिए। अँधेरा-अँधेरा, चक्कर-चक्कर, ठंड-ठंड, पसीना-पसीना। काँपते हुए हाथ, धीरे से उसने कुंडी खोली और अपने-आप को तड़प रही बाँहों में ढेर कर दिया। और फिर होंठों पर होंठ, दाँतों में दाँत, बीस वर्षों का रुका हुआ एक बाँध जैसे फूट कर टूट पड़ा हो। जैसे कोई फूल की पत्ती किसी बवंडर की लपेट में आ गई हो।
मालिन को नहीं पता था कब चलते-चलते वो गाँव के बाहर बरगद के नीचे जा खड़े हुए, कितनी देर वहाँ खड़े रहे। मालिन को नहीं पता था, कब वो बरगद के साथ लगते खेत में जा बैठे, कितनी देर वहाँ छिपे रहे। तड़के मुँह-अँधेरे गाड़ी दूर सड़क के पार चीख़ती-चिल्लाती गुज़र रही थी कि उसकी आँख खुली, और मालिन धीरे से उसकी बाँहों में से निकल, मुँह सिर लपेटे तेज़ तेज़ क़दम अपने घर लौट आई।
चूड़ियों को उतार कर उसने वैसे का वैसे मिन्नी के सिरहाने रख दिया। उसकी रेशमी चुनरी उसकी चारपाई पर धरी, और अपना दुपट्टा लेकर सामने बिस्तर पर जा लेटी। मालिन अपने पलंग पर आकर पड़ी और उसकी आँख लग गई। यूँ तो उसे कभी नींद नहीं आई थी। जैसे सारी उम्र का किसी का रतजगा हो।
धूप निकल आई थी और तब कहीं उसकी आँख खुली।
‘‘कैसे अल्हड़ लड़कियों की तरह तू आज सोई है माँ !’’ मिन्नी ने उसे छेड़ा।
जवान-जहान लड़की, उसने घर की झाड़-पोंछ देख ली थी। चूल्हा-चौका निपटा लिया था। और नहा-धोकर अब मन्दिर जा रही थी, मोतियों की कलियाँ अपनी चुनरी के पल्लू के साथ बाँधे, अपने इष्ट की भेंट चढ़ाने के लिए।
मिन्नी आँख से ओझल हुई और मालिन अलसाई हुई, लाख सपने अपने पलकों में लिए, सामने आँगन में जा बैठी। मीठी-मीठी पुरवैया चल रही थी। हल्की-हल्की धूप सामने मुंडेर से नीचे उतर आई थी। एक खुमार-सा था आस पास में। मालिन को लगा जैसे वो दूध की लबरेज़ कटोरी हो। दूध और उस पर तैर रही चमेली की कलियाँ। एक उन्माद में उसकी पलकें जुड़-जुड़ जातीं, खुल-खुल जातीं।
‘‘अरी मालिन, कहाँ है तुम्हारी ये काइयाँ बेटी ?’’ जैसे उसको किसी ने आकर चाँटा दे मारा हो, मालिन की ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे रह गई।
‘‘ये अनर्थ कभी नहीं किसी ने सुना। चार दिन इसके डोले को रह गये हैं और ये लड़की यूँ उथल पड़ी !’’ लाज़ो पड़ोसन हथेलियाँ मलती मालिन के पास आकर बैठ गई।
‘‘क्या हुआ है मेरी बेटी को ? वह तो निरी गौ है !’’ मालिन भभक कर उसे काटने को पड़ी।
‘‘तेरी गौ सारी रात कल मुँह काला करवाती रही है।’’
मालिन ने सुना और उसके जैसे सोते सूख गये। काटो तो लहू नहीं। नीली-पीली। उसका अंग-अंग जैसे मुड़ रहा हो।
‘‘उधर रात हुई, इधर ये किसी अपने यार के साथ बाहर निकल गई। सारी रात तेरी ड्योढ़ी खुली रही है। मैंने खुद इन आँखों से देखा, ड्योढ़ी के बाहर किसी की बाँहों में ये ढेर पड़ी हुई थी। मैं बाहर ‘छोटी’ करने निकली थी और मैंने वैसे का वैसा किवाड़ भिड़का लिया। और फिर ये हौले-हौले कदम, बाँह में बाँह डाले बाहर खेतों की ओर निकल गए। सारी रात मेरी आँख नहीं लगी। बेटियाँ सब की साँझी होती हैं। यूँ पहले कभी किसी ने अपने माँ-बाप का मुँह काला नहीं किया। यूँ कभी किसी ने अपने बड़े बूढ़ों की पत नहीं उतारी। हम तो कहीं मुँह दिखाने के लिए नहीं रहे।’’ और लाजो छल-छल अश्रु रो रही थी। रोए जाती और हथेलियों को मले जाती।
मालिन जैसे पत्थर का पत्थर हो, उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। और फिर यूँ बिलखती-बिलखती लाजो चली गई।
लाजो अभी गई थी कि गाँव का चौकीदार जुम्मा पिछवाड़े की ओर से उतर आया।
‘‘भाभी ! अरी भाभी मालिन !’’ कब का वो उसके पास खड़ा उसे बुला रहा था।
‘‘क्या है जुम्मा ?’’ जैसे कुएँ में से निकली आवाज़ हो, मालिन ने चौकीदार को आँगन में खढ़ा देख कर सँभलने लगी।
‘‘भाभी। बात करने वाली तो नहीं पर कल रात बड़ा जुलम हुआ है इस गाँव में। मैंने तो बाल सफेद कर लिये चौकीदारी करते हुए, ऐसा अंधेर मैंने कभी नहीं देखा। तेरी बेटी मिन्नी किसी के साथ बरगद के तले मुँह काला करती रही। रात चाँदनी थी, लेकिन आकाश बादलों से अँटा हुआ था। दो बार मैं दस कदम की दूरी पर इनके पास से गुज़र गया। होंठों पर होंठ जमाए, एक-दूसरे को चिपटे, इनको कुछ पता नहीं लगा। बरगद के तले खड़े-खड़े थक गए और फिर खेत में जा छिपे। मैं तो सारी रात तेरे घर की आकर रखवाली बैठा रहा हूँ। खुली ड्योढ़ी, चार दिन इसके ब्याह को रह गए हैं। ब्याह वाला घर गहनों-कपड़ों से भरा होता है। सवेर हुई तो मैं यहाँ से हिला। पता नहीं कब ये झक मार कर लौटी। कमज़ात, मैंने तो इसे गोद में खिला-खिला कर पाला है। मेरी बेटी होती तो मैं इसका गला घोंट देता। मैं तो पिछली दीवार फाँदकर आया हूँ। मैंने सोचा कोई पूछेगा कि तुम सुबह-सुबह किधर चल दिए, तो मैं क्या जवाब दूँगा ?’’
मालिन के मुँह में आवाज़ नहीं थी। बिट-बिट आँखें जुम्मा चौकीदार की ओर देख रही थी।
और जुम्मा जिस राह आया था, उसी राह दीवार लाँघ कर लौट गया।
जुम्मा गया और सामने गली में रतना ज़मींदार दहाड़ता, फुँकारता, सिर जितनी ऊँची लट्ठ उठाए उसके आँगन में आ धमका। क्रोध में उबल रहा था।
‘‘कहाँ है तुम्हारी लड़की ?’’ ड्योढ़ी में घुसते ही वो गरजा, ‘‘कहाँ है ये बदज़ात छिनाल ? मेरा ही खेत रह गया था इसे खराब करने के लिए !’’ रतना उछल-उछल पड़ रहा था। मन-मन की सलवातें सुनाता, सारा मुहल्ला उसने इकट्ठा कर लिया। अडो़सी-पड़ोसी मुंडेरों पर आ खड़े हुए।
‘‘मैंने खुद अपनी आँखों से देखा है। तड़के मैं कुएँ की ओर जा रहा था। मैंने खुद अपनी आँखों से देखा, पहले ये निकली मेरे खेत में से मकैशवाली चुनरी ओढ़े हुए। मैंने सोचा लड़की शायद ‘बाहर बैठने’ आई है। और फिर एक क्षण गुज़रा और इसका यार कोई दूसरी ओर से नीचे उतर गया।’’
‘‘क्यों झूठ बोलते हो चाचा ?’’ बिजली की तरह कड़क कर मिन्नी भीड़ को हटाती हुई आगे बढ़ी। देर से वो मन्दिर से लौटी हजूम के पीछे खड़ी सब कुछ सुन रही थी।
‘‘मैं झूठ बोलता हूँ बदज़ात ? मैं झूठ बोलता हूँ कुलक्षणी ? ये लाल चूड़ी किसकी टूटी हुई थी मेरे खेत में ?’’ और अपनी चादर के पल्लू में बँधी लाल चूड़ी उसने मिनी की हथेली पर रखी। एक आँख झपकने में मिन्नी ने अपनी कलाइयों पर चूड़ियों को गिना। ग्यारह थीं। और वो ठिठक कर रह गई। उसकी आँखों के सामन अँधेरा छा गया।
और फिर मुहल्ले वालियाँ आँखों ही आँखों में एक-दूसरे से कहने लगीं, उन्होंने स्वयं मिन्नी को पिछले दिन चूड़ियाँ चढ़ाते देखा था, दस के ऊपर दो चूड़ियाँ। लाल रंग चुन कर उसने निकलवाया था।
लोगों से आँगन भर गया था। और फिर मालिन का समधी आया भीड़ को चीरता हुआ। उसके पीछे मिन्नी की होने वाली सास थी, और उन्होंने सारे वो थाल, सारे वो कपड़े, सारे वो नोट, और सगाई की अँगूठी मालिन के सामने ला पटके। हक्के-बक्के लोग एक-दूसरे के मुँह की ओर देख रहे थे। औरते बार-बार कानों को हाथ लगातीं। जवान-जहान लड़कियाँ मुँह में उँगलियाँ लिए काट रही थीं।
और फिर धड़ाम से किसी की पड़ोस के कुएँ में गिरने की आवाज़ आई। सबकी ऊपर की साँस ऊपर और तले की साँस तले रह गई। लोगों ने आगे-पीछे देखा, मालिन की गौ जैसी सुशील बेटी कहीं भी नहीं थी। वो बेटी जिसका ऊँचा बोल कभी किसी ने नहीं सुना था। सच्चा मोती। जो सुबह शाम भगवान् के सामने हाथ जोड़-जोड़ नहीं थकती थी, वो बेटी कहीं भी नहीं थी। और लोग एक साँस कुएँ की ओर दौड़ पड़े।
मालिन तख्ते का तख्ता वैसी की वैसी पड़ी थी। उसका आँगन भाँय-भाँय कर रहा था। अड़ोसी-पड़ोसी अल्ले-मुहल्ले वाले सारे कुएँ की ओर दौड़ गये थे। किसी तरह लड़की बच सके।
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