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सामाजिक >> आराम कुर्सी

आराम कुर्सी

तोप्पिल मोहम्मद मीरान

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :260
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2177
आईएसबीएन :81-260-1197-1

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तमिल से अनुदित हिन्दी उपन्यास आरामकुर्सी समुद्रतटीय गाँव तेनपत्तन की कहानी है....

Aaram Kursi a hindi book by Toppil Mohamed Miran - आराम कुर्सी - तोप्पिल मोहम्मद मीरान

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत तमिल से अनूदित प्रस्तुत हिन्दी उपन्यास आराम कुर्सी (चाट्युवु नारकली) समुद्रतटीय गाँव के तेनपत्तन की कहानी है। शहतूत के पेड़ पर पलता रेशम का कीड़ा जिस तरह अपने ही बनाए सफेद घेरे में बाहरी संसार से अलग-थलग सिमटा रहता है, उसी तरह तेनपत्तन के मुस्लिम-बहुल समाज के दिलोदिमाग पर हावी हैं अर्थहीन आचार-विचार, परम्परागत रूढ़ियाँ और घोरअन्धविश्वास- जिनके चलते यह बन्द समाज बाहरी दुनिया में हो रहे परिवर्तन और विकास को देखने से इन्कार करता है।

परिवार का मुखिया बनने से लेकर चालीस साल से अधिक समय तक बिना किसी काम-धन्धे के एक आराम कुर्सी से चिपके मुस्तफा कण्णु..अपने लकड़दादा पवुरीन पिल्ले के शौर्य-पराक्रम और खानदान की शान बघारते हुए खुदगर्जी और अय्याशी में बसर होती अपनी बेशर्म जिन्दगी..लात और तान् बर्दाश्त करते-करते गूँगे जानवरों की तरह अपमानित जीवन बिताने को मजबूर उनकी बीवी मरियम... सोने की करधनी की जिद लेकर ‘‘सउदा मन्जिल’’ की दीवान पर खड़ी उनकी बहन आसिया...परिवार का खर्च कराने के लिए एक-एक करके नारियल के बाग और ‘सऊदा मंजिल’ की बहुमूल्य धरोहर औने-पौने दाम पर बिकवाने में मददगार इसराइल दीन की दुहाई देते हुए भोली-भाली जनता को बहकाकर अपना उल्लू सीधा करते पैसेवाले और मौलवी..नारी को मात्र भोग्या और सेविका मानते हुए पीढ़ियों से उन पर चल रहे यौन-शोषण और अत्याचार.,.जुल्म के खिलाफ जरा-सा मुँह खोलने पर नारी को सलीका दिखाने के नाम पर उसकी पीठ का माँस उधेड़ने वाले ‘अदब की छड़ी’ के साथ...पाठकों के सामने एक-एक कर जिन्दगी की अजीबो-गरीब दास्तान खुलती चली जाती है। स्मृतियों और सच्चाई का ताना-बाना बुनती आरामकुर्सी कभी जादुई कम्बल की तरह आसमान पर उड़ती हुई सात समुन्दर पार हूरों और जिन्नों की तिलिस्मी कहानियाँ सुनाती हैं, तो कभी ढाई सौ साल पहले के इतिहास के क्षितिज को छूती हुई घूमती है और पाँच पीढ़ियों के झूठे प्रताप की कथा का बयान करती है।

1


अरब सागर के तट पर बसा ‘तेनपत्तन’1 गाँव सैकड़ों साल पहले यहाँ आये अरब यात्रियों की खड़ाऊँ के निशान इस रेत पर पड़े थे। समुद्र तट की खोज की उजली रेत पर आषाढ़ की बारिश का गीलापन अब भी बरक़रार है। वर्षा की शीतलता से उत्पन्न मादक सुख से पुलकित होकर वृक्ष-लताओं ने नई कोंपलों और नवल कलियों को अपने गर्भ में धारण किया है। दूर-दूर तक धूप का कहीं पता नहीं। काले बादलों के जंगल में न जाने कहाँ जाकर छिप गया है नक्सलवादी सूरज !
रीढ़ के साथ कसकर बँधी हड्डी पसलियों को भी झकझोर कर रख देनेवाली कड़ाके की ठंड ! घूम-घूमकर चल रही फूहड़पन से भरी गीली हवा !
हाथी की शक्ल की चट्टान, मस्जिद वाली चट्टान, हरिहर मन्दिर की ओर अरसनकुलम की चढ़ाई को पार करती हुई अल्हड़ हवा जहाँ-जहाँ से गुज़री अपनी बदमाशियों से बाज न आयी। दुकानों के बाहर लगे इश्तहारी बैनर उड़ गये थे। मछुआरिनों के सिर पर से मछली गिराकर मज़ा लेने के बाद नटखट हवा ने अरगनियों पर सूखने के लिए टँगे कपड़ों को गेंद की तरह लपेटकर कीचड़ में लुढ़का दिया। इतने से भी मन न भरा तो ग़रीब लोगों की झोपड़ियों में दाख़िल होकर अलमूनियम के बर्तनों को आपस में भिड़ाकर कहकहे भरने लगी।
रात में चले बवंडर में गाँव और बस्ती के छोटे-बड़े पेड़ गिर गये। घर के अहातों पर सहजन और कनेर के पेड़ आड़े-तिरछे गिर पड़े थे।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी उस गाँव की ख़ुशियों और गमियों का गवाह बनकर गाँव की रखवाली करता भीमकाय ताड़ का पेड़ जड़मूल से उखड़ा और बवंडर के साथ ऊपर को उठा। अगले क्षण में जब वह काला पेड़ धड़ाम से गिर पड़ा, वह ख़ौफ़नाक आवाज़ सुनकर तेनपत्तन गाँव चौंक उठा। रात के अँधेरे में लालटेन लिये हुए लोग हड़बड़ाकर भागे-भागे आये-यह जानने के लिए कि माज़रा क्या है। उन्होंने देखा, सदियों पुराना काला ताड़, जो आसमान से बातें करता शान से खड़ा था, अब ज़मीन पर चित्त पड़ा है। ख़ुदा का शुक्र, जानोमाल का कोई नुक़सान नहीं हुआ। पेड़ ने हकले शेम्मद (शेख़ मुहम्मद) के अहाते की कच्ची दीवार को चकनाचूर कर दिया था। सर्दी बर्दाश्त से बाहर थी। कानों पर मफ़लर और बदन पर ऊनी कपड़े पहनने के बावजूद लोग ठंड में खड़े ठिठुर रहे थे। सब लोग मौन खड़े थे, मानों शताब्दियों के इतिहास के साक्षी उस ताड़-दादा के आकस्मिक निधन पर मौन श्रद्धांजलि अदा कर रहे हों।

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान चली भीषण आँधी ने समूचे तेनपत्तन को झकझोर डाला था, जिसकी यादें आज भी रूह में कँपकँपी पैदा करती है। ऐसे प्रचंड तूफ़ान में भी यह दिलेर ताड़ धराशायी नहीं हुआ, अपना सिर ऊँचा किये शान से खड़ा था। फ़िरंगी डच सेना की तोपें ‘आनप्पारै’ चट्टान को चीरती हुई आग उगल रही थीं, उस वक़्त भी यह सूरमा अपना सीना ताने खड़ा था, मानों फ़िरंगियों को चुनौती दे रहा हो-
‘‘हिम्मत हो तो आओ मेरे सामने।’’
यहाँ पर एक भारी-भरकम चट्टान पड़ी थी-गोलाकार चट्टान-हज़ारों लोग मिलकर कोशिश करें तो भी उसे हिला भी नहीं सकते। उस समय की आँधी में वह भीमकाय चट्टान भी लुढ़क पड़ी। किन्तु यह बहादुर ताड़ सीना ताने खड़ा रहा, इसे झुकाने की हिम्मत किसी में नहीं थी।
लेकिन-
शिला को भी लुढ़का देनेवाली उस समय की आँधी की तुलना में आज की आँधी कुछ भी नहीं है। फिर भी यह ताक़तवर ताड़ कैसे जड़मूल से उखड़ गया, उसका मर्म किसी की समझ में नहीं आया।
सब कुछ रब की कुदरत है !
अरब सागर में भूत सवार हो गया। इसलिए लारेन्स बाग़ के लोग मछली पकड़ने के लिए समुन्दर में अपने कट्टुमरम2 नहीं उतार पाये। समुद्र तट का एक हिस्सा ठूँठ-सा नज़र आ रहा था, इसलिए कि वहाँ की रेत, मिट्टी को समुद्र लील गया था। कुषितुरै नदी में ज्वार। लग रहा था, नदी अपना घूँघट हटाकर अरब सागर के गाल को चूम रही है। नील-नीलिम गालों पर नदी की मटियाली धारा एक लम्बी लकीर-सी दिख रही थी। आधे ताड़ ऊँचाई तक उठान भरती लहरें, चीख़ती चीत्कार करती लहरें।
लारेन्स बाग़ में रहनेवाले लोग समुन्दर नहीं गये। इसलिए तेनपत्तन के निवासी अपने पेट को घुटनों से दबाए जहाँ-तहाँ बैठे बीड़ी सुलगाते रहे। बीड़ी के टुकड़े होंठ से होंठ बदल रहे थे। दूर से देखने पर ऐसा लग रहा था कि चिनगारियों का नाच हो रहा हो।
नाव खेनेवाले नैनाम्मद (नयिना-मुहम्मद) के घर में छौंक लगने की महक छप्पर फाड़कर ऊपर को उठी। वह सुगन्ध चारों ओर बह रही हवा में फैली। आसपास के भूखे-नंगे बच्चे इसी महक को सूंघकर खुश हो रहे थे।
नदी में पूरे एक महीने से बाढ़ आई हुई है, उतरने का नाम नहीं लेती। तिसपर उत्तर से लगातार आ रहा जल का प्रवाह, ऊपर से घनघोर वर्षा !
चारों तरफ़ जेठ-आषाढ़ का अकाल। भाँति-भाति की बीमारियाँ-सर्दी-जुकाम, बुख़ार खाँसी, सिरदर्द, पेचिश और जाने क्या-क्या ! सरकारी अस्पताल में सीमेंट के चिकने फ़र्श पर चमचमाती सफ़ेद वर्दी में नर्स पोन्नम्मा मटकती चाल से इधर-उधर डग भरती नजर आती। केवल उसे देखने के लिए अस्पताल में ‘मरीजों’ का एक जमावड़ा रहता। आँखों में इश्क़, ओठों पर बीड़ी और कंधे पर अंगोछा। मुस्कान बिखेरती परी-सी पोन्नम्मा नर्स काँच के बड़े-बड़े मर्तबानो में तैयार रखी हुई दवाई निकालकर देती। इसी से लोगों का हर मर्ज़ दूर हो जाता।
नमी से भरी सर्द हवा ने तेनपत्तन गाँव में तहलका मचा दिया था।
गाँव के पश्चिम की ओर मस्जिद। मस्जिद के अहाते में एक मदरसा था।
मदरसा क्या था ? कच्ची ईंटों की दीवारें और उनके ऊपर नारियल पत्तों से छाया छप्पर। टूटी-फूटी बेंचें जिनकी टाँगें बुरी तरह हिलती थीं। इन पर बैठे बच्चे सही मायनों में झूला-झूलते दिखाई देते थे, इस अवस्था मैं बैठे वे क़ायदा (अरबी व्याकरण) रट रहे थे। मूसा मोयलियार के हाथ में नीम की छड़ी थी। जिसे ऊपर उठाते हुए वे ऊँचे लहजे में बोलते रहते। बच्चे गला फाड़-फाड़कर क़ायदा दुहराते रहे।
बाहर जुकाम से पीड़ित आसमान की नाक बह रही थी। रह-रहकर हवा के झोंके बारिश की झाड़ियों के साथ चलते। हर झोंक पर बच्चों के जबड़े आपस में टकराते। जबड़ों को गर्माहट देने के लिए बच्चे अपनी नन्नी-नन्ही हथेलियाँ रगड़कर गाल के नीचे रखते।
मूसा मोयलियार की छड़ी बार-बार बेंच पर नाचकर आवाज़ उठाती। यह आवाज़ बच्चों में कँपकँपी पैदा करती। इस कँपकँपी के बाद क़ायदे के बोल ज़ोर पकड़ते और थोड़ी देर बाद धीमे हो जाते।
दक्खिनी कोने पर जहाँ आसमान समुन्दर पर औंधा पड़ा था, वह जगह कजरारे बादलों से स्याह होने लगी। मोयलियार ने ग़ौर किया कि बादल के पेट का निचला भाग फूल रहा है।
‘‘बच्चो ! दुहराते रहना....मैं...अभी आया।’’
मूसलाधार वर्षा के पहले पेशाब से निपटकर आने के ख़याल से मोयलियार बाहर निकले। बाहर निकलते हुए टूटी बाल्टी से खपरैल का टुकड़ा लेना नहीं भूले। हवा एकाएक तेज़ हो गयी। नारियल के पेड़ ज़ोर-ज़ोर से हवा में हिचकोले खाने लगे। ऊँचे-ऊँचे नारियलों के शीर्ष हवा के झोंके खाकर आपस में यों टकराते जैसे बैल एक दूसरे से लड़ रहे हों। आपस में टकराकर पीछे हटते, फिर आगे बढ़कर टकराते। नारियल के लम्बे पत्ते हवा के पंख पाकर मनचाही दिशा में उड़ते। भारी-भारी गुच्छे ज़मीन पर गिरकर नारियल चारों और बिखेरते।
कान फाड़नेवाली आवाज़ सुनकर मूसा मोयलियार पेशाबघर से भागे-भागे आये।
देखते क्या हैं कि मदरसे के पास खड़ा नारियल का पेड़ छप्पर के ऊपर गिर पड़ा है। मदरसे की दीवार टूट गयी है। ‘‘बचाओ बचाओ’’ की चीख़-पुकार। बहुत-से बच्चे मदरसे के बाहर कूद रहे हैं।
‘‘या रब...’’ मूसा मोयलियार पागलों की तरह चिल्ला उठे।
मदरसे पर पेड़ गिरने की दुर्घटना की ख़बर चारों ओर फैल गयी। गाँव के लोग रोते-कलपते मदरसे पर जमा हो गये। मर्द, औरतें, बच्चे जिस जिसने सुना, सारे के सारे।
माँ-बाप अपने बच्चों का नाम ले-लेकर पुकारते हुए उन्हें ढूँढ़ने लगे। जिनके बच्चे सही-सलामत मिल गये, वे उन्हें गले लगाकर दुलारहने-पुचकारने लगे। चूम-चूमकर निहाल हो रहे थे और उनका सिर सहलाते हुए आकाश की ओर देखकर खुदा को शुक्र अदा करने लगे-‘‘रब ने बचाया।’’
इस ख़बर ने तेनपत्तन और आसपास के गाँवों को झकझोर डाला। गाँव के गाँव हमदर्दी जताने के लिए आने लगे। यह ख़बर तेनपत्तन गाँव में पीढ़ियों से बस रहे नामी-गरामी ख़ानदान ‘सऊदा मंज़िल’ में भी पहुँची। सुनकर मरियम बीवी ज़ोर से रोई। उसकी रोने की आवाज़ सऊदा मंज़िल की दीवारों से टकराकर चारों ओर से प्रतिध्वनि निकली, जिसकी दीवारों पर ज़माने के चपेटों से दरारें पड़ी हुई थीं।
आराम कुर्सी पर पाँव हिलाते हुए लेट रहे मुस्तफ़ा कण्णु ने घर के अन्दर झाँकते हुए कहा, ‘‘अरी ओ कुट्टी...काहे रो रही हो ?...’’
मरियम बीबी अपने पति के पास भागी हुई आई और घबराई आवाज़ में बोली, ‘‘मदरसे के ऊपर नारियल का पेड़ गिर पड़ा। कई मासूम बच्चों की मौत हो गयी।’’
बीबी ने जो ख़बर सुनाई, उसे मुस्तफ़ा ने इस अन्दाज़ से सुना जैसे कहीं कुछ छिपकलियाँ या तिलचट्टे मर गये हों। उनके चेहरे पर कोई बदलाव नहीं आया।
उन्होंने धीरे से अपने पैर आराम कुर्सी से उठाकर नीचे रखे और तनकर बैठ गये। फिर पायदान के तिपाये पर से सिगरेट निकालकर सुलगा लिया। कश खींचते हुए खाँसे। ज़माने से काई लगे काँच के पीकदान में खखारकर बलगम थूक दिया।
‘‘ज़रा चलकर देखिए तो...हमारे ही तो बच्चे हैं !....’’मरियम बीबी ने पति से मिनन्त की।
मुस्तफ़ा कण्णु ने अपने हाथ से दाढ़ी के बालों को एक ओर हटाया। फिर अपने सामनेवाली पलस्तर उतरी पुरानी दीवार पर चालीस साल पहले टँगी घड़ी देखकर बोले, ‘‘आठ बज रहे हैं..खाने के लिए कुछ है ?’’

2


तेनपत्तन गाँव में हुई उस दुर्घटना में छह नन्हीं जानें चली गयी थीं। जुमा मस्जिद के बड़े पेड़ के नीचे गड्ढे खोदकर उन मुलायम जिस्मों को एक ही क़तार में दफ़नाया गया।
दुधमुँहे बालकों के शवों को माटी के नीचे दफ़नाते वक़्त वहाँ पर मौजूद सभी लोगों की आँखों पर आँसू थे। मूसा मोयलियार बेहोश पड़े थे।
एक तरफ़ मछुआरों का झुंड। अंगोछे बग़ल में दबाये वे लोग अदब से हाथ बाँधकर खड़े थे। मासूम बच्चों की लाशों को क़ब्रों में दफ़नाने के बाद नाडार जाति के लोगों ने ऊपर देखकर हाथ जोड़े। उनकी आँखें लबालब भरी थीं।
थोड़ी दूर पर स्थित गिरजाघर के घंटे बज उठे। जब वह घंटा-नाद समूचे गाँव की पीड़ा और वेदना को आसमान पर बैठे ‘बाबा’ के पास पहुँचा रहा था, तब-
सऊदा मंज़िल के मुखिया मुस्तफ़ा कण्णु आराम कुर्सी पर तनकर बैठे। दीवार पर जुगाली कर रही घड़ी पर अपनी नज़र गड़ाई। ओह, चार बज गये ! पेट के अन्दर ख़ालीपन-सा महसूस हुआ। उन्होंने अपनी बीवी को बुलाया।
‘‘अरी हो कुट्टी....’’। कोई जवाब नहीं मिला।
‘‘चार बज गये हैं..चाय मिलेगी ?’’
कोई जवाब नहीं।
‘‘अरी, तू कहाँ जा मरी ?’’...
‘‘बीवी जी गमीवाले घर गयी हुई हैं...’’ सऊदा मंज़िल की रसोई में काम कर रही रैहानत ने दरवाज़े का पर्दा हटाते हुए जवाब दिया।
‘‘वह नासपीटी कब निकली ?’’
‘‘जी, अभी ।’’
‘‘कब लौटेगी ?’’ मुस्तफ़ा कण्णु की आवाज़ में अब काफ़ी नरमी आ गयी थी। रैहानत ने देखा, सिगरटे उनकी सफ़ेद दाढ़ी की तरफ़ झुकी हुई है और धुएँ की वजह से स्याह बने लबों पर मुस्कान का प्रेत सिर उठा रहा है। उसने दरवाज़े का पर्दा खींच दिया और नफ़रत के साथ रसोई में चली गयी।
‘‘असर (शाम) का वक़्त हो गया, फिर भी चाय नहीं मिल रही है।’’ कहते हुए आराम कुर्सी पर लुढ़क गये।
‘‘अरी ओ लड़की...’’ मुस्तफ़ा कण्णु ने आवाज़ दी।
ग़ौर से देखने लगे, पर्दा कब हटेगा। लेकिन पर्दा हटा नहीं। थोड़ी देर तक इंतज़ार करने के बाद फिर आवाज़ दी।
‘‘अरी ओ लड़की !’’
आँखें पर्दे पर गड़ी थीं। स्याह ओठों पर मुस्कान प्रेत ज्यों का त्यों पड़ा था।
पर्दा हटने की आहट पाते ही बड़ी उत्सुकता से उस ओर देखा। फन फैला रहे काले नाग जैसी दृष्टि और ज़हरीली मुस्कान।
‘‘वह कब आयेगी ...?’’ कफ से रुँधे हुए गले को खखारकर साफ़ कर लिया।
‘‘अभी आ जायेगी...’’
‘‘आसिया...क्या कर रही है ?’’
‘‘सो रही है...’’
‘‘नींद में हैं ?....’’
‘‘हाँ...’’
‘‘तू क्या कर ही है ?’’
‘‘चाय बनानेवाली हूँ।’’
मुस्तफ़ा कण्णु ने उस पर मुहब्बत भरी निगाह डाली। स्याह ओठों पर मुस्कान का प्रेत।
उनकी टेढ़ी नज़र और सड़ी-गली मुस्कान को वह क़तई बर्दाश्त नहीं कर सकी उफ, घिनौनी थी वह नज़र, उबकाई लानेवाली मुस्कान। रैहानत ने पर्दा खींच दिया।
‘‘छिः...कैसा घटिया इन्सान है...’’ रैहानत ने मन ही मन कहा।
पर्दा खींचते हुए रैहानत की बाईं कलाई पर फाकी काँच की चूड़ियों की खनक ने मुस्तफ़ा कण्णु के कानों में शहद घोल दिया। वह रागिनी सुनकर हृदय के किसी बिल के अन्दर गाढ़ी नींद में सोए चूहे ने नाख़ून से खरोंच दिया। इस खरोंच से प्रेरणा पाकर मुस्तफ़ा ने अपनी छाती के घने बालों के जंगल में काले सागौन की तलाश की। इक्के-दुक्के ही सही, मौजूद तो हैं। मुट्ठी बाँधकर आराम कुर्सी के लम्बे हत्थे पर मुक्का मारकर आज़माया। हाँ, अभी भी ताक़त है। बुढ़ापा पूरे तौर से हावी नहीं हुआ है। जवानी अभी भी बाक़ी है।
आराम कुर्सी पर तनकर लेट गये। घड़ी देखी। चार बजकर बीस मिनट हुए हैं। खनकती चूड़ियोंवाले मुलायम हाथ से चाय लेकर पीने के लिए तड़पता दिल मन में योजना बनाकर तैयार बैठे थे। रैहानत के हाथ से चाय का गिलास लेते वक़्त अनजान बनकर उसका हाथ छू लेंगें। कोमल हाथों के स्पर्श से जो मदमाता सुख मिलेगा, उसके नशे में दुनिया को ज़रा देर के लिए भूल जाएँगे। उस शुभ घड़ी के इन्तजार में दिल बेक़रार हो रहा था।
मरियम भी कम ख़ूबसूरत नहीं थी। सुहागरात वाले दिन शयन-कक्ष की ड्योढ़ी पर दूध लेकर खड़ी थी। सहेलियों ने उसे अन्दर धकेलकर कमरा बन्द कर दिया था। दूध की कटोरी हाथ में लिए हुए लजाती हुई खड़ी रही। उस शर्मीली लड़की के लाल-लाल ओठों के अन्दर आँख मिचौनी करती मुस्कान। अंजन लगे नील-नयनों की कनखियाँ चित्रित थीं। हाथ में दूध की कटोरी लेते समय पहली बार उसके मुलायम हाथ का स्पर्श किया था।
अहा ! उस समय रोमांच की जो अनुभूति हुई, आज तक उसकी याद ताज़ा है। मुस्तफ़ा कण्णु ने बीते दिनों की यादों की जुगाली की। उनके दिलो दिमाग़ में बेहद ख़ुशी छा गयी। क्या वे दिन फिर से लौटेंगे ?
मरियम बीबी के ओठों की चमड़ी सूखकर फट गयी थी-मछली के शल्कों की तरह भद्दी दिख रही थीं, उन ओठों की याद भी घिनौनी लग रही थी।
‘‘चुड़ैल कहीं की !’’ मुस्तफ़ा बुदबुदाए। उनके लिए वह बेकार खड़ी बूढ़ी गाय थी- नारियल का मीठा दूध निचोड़ लेने के बाद बाक़ी बचा खुरचन।
मरियम के आने से पहले चाय पी लेनी है। असल में चाय की तलब की अपेक्षा रैहानत को देखने का उतावलापन ज़्यादा था। न जाने क्यों, यह लड़की आजकल पास नहीं फटकती।
मुमकिन है, मरियम ने मना कर रखा हो। ऐसी ही औरत है वह।
‘‘लड़की, चाय बन गयी ?’’
आषाढ़ की गीली हवा। दोनों हाथों को छाती के अलग-बग़ल में दबा लिया ठण्ड से राहत पाने के लिए मांसल देह की गर्मी चाहिए।
रैहानत चाय के प्याले के साथ किसी भी समय आ सकती है। देखना यह है कि वह चेहरे पर मुस्कान के साथ आयेगी या मुँह बनाते हुए तिपाये पर चाय रखने के बाद भाग जायेगी ?
सामने पड़े तिपाये को परे हटा दिया। फिर तनकर बैठ गये। जब एक गाना हो जाये...फिल्मी गीत। पहले कभी सुनी हुई बात उन्हें याद हो आयी- ‘मर्द जब तान भरता है, औरत उस पर रीझ उठती है।’ बात सही भी है।
जिन दिनों उनकी मूँछें उग रही थीं, एक बार फ़िल्म देखने चले थे। बाप के अनजाने में, चोरी छिपे। कोई कमसिन लड़की कलसा लेकर पनघट पर पानी भरने जा रही है। तब उसका आशिक़ गाना गाता है-‘मापला गीत’ के तर्ज पर।
जाने कितनी लड़कियों को रिझाने के लिए पहले भी कई बार उन्होंने इसी गीत का आलाप किया था। वह भी एक ज़माना था।
उस गीत की नाद-लहरी में नायिका मुग्ध हो जाती है। अपने नयनों के कोर से नायक को देखती है। प्यास भरी निगाह। दातों पर पूनम की चाँदनी ! चेहरे पर लज्जा के लाल-लाल फूल !
फिर वह नायक के वक्षस्थल पर कोमलता से अपना सिर रखती है-‘मेरे आका।’
मुस्तफा। कण्णु ने वही गीत गुनगुनाया। ज़ोर से गाने का मन हुआ। पर नहीं, आसिया की नींद खुल जायेगी।
आराम कुर्सी के हत्थे पर ताल बजाते हुए वे गीत गुनगुनाते रहे।
जितनी पंक्तियाँ याद थीं, कई बार उन्हें दुहरा चुके थे। अब गाने के लिए कोई फितर बाक़ी नहीं।
वह नहीं आयी। दीवार की ओर देखा। पाँच बज रहे थे।
रैहानत को दिल में बसाकर मीठे सपनों में बहते हुए उन्हें समय का बोध नहीं रहा। वे चाय को भूल गये, चारों तरफ़ में माहौल को भूल गये।
देखा, पर्दा हट रहा है। उतावलेपन के साथ देखा।
मरियम बीबी !
‘‘फिर यह मुई !’’ मन में कोसा। चेहरे पर थिरकता उल्लास ओझल हो गया। ओठों पर मुस्कान के प्रेत ने गलकर दुर्गन्ध फैलाई। मन का भौंरा जिन-जिन चमनों में उड़ता फिरा था, सारे के सारे फूल कुम्हलाकर ज़मीन पर बिखर गये।
‘‘अरे, आप भी कोई इन्सान हैं ? फूलों की तरह पाँच-छह बच्चे तड़पकर मर गये...मैयतों को दफ़नाया गया...उस गमी में शरीक हुए बिना, बाबा आदम के ज़माने की इस कुर्सी पर बैठे रहते हो...क़यामत तक इस तरह बैठे रहोगे...छिः....कैसा आदमी है !’’ दूर रखे हुए तिपाये को उनके सामने सरकाया और उस पर चाय रखी। नफ़रत से मुँह फेरते हुए अन्दर चली गयी।
मुस्तफ़ा कण्णु ने चाय के प्याले को छूकर देखा।
‘‘यह तो ठण्डी है...‘‘अन्दर की ओर देखते हुए बोले, ‘‘खाने के लिए कुछ नहीं है ?’’
फिर एक ही चुस्की में प्याला ख़त्म किया। कुर्सी पर लुढ़के। सिगरेट सुलगा लिया।
‘‘चूल्हे के ऊपर छत चू रही है। रसोई पानी से लथपथ है। पानी में खड़े-खड़े सर्दी लग गयी।’’ पति के पास आकर मरियम बीबी ने फ़रियाद की।
पति ने ‘‘हूँ....’’ किया।
‘‘कोई राज या मिस्त्री बुलाकर खपरैल बदलवा देते !’’
‘‘हूँ...’’
‘‘कुछ भी कहो, हूँ..हूँ...करते हुए इस मुई कुर्सी पर बैठे रहो...बाहर कहीं न निकलो...’’ मरियम बीबी घर के अन्दर चली गयी। दीवान पर सोई आसिया को बुलाया।
‘‘भाभी..ओ भाभी !’’
आसिया ने लेटे ही लेटे बिल्ली की तरह आँखें खोल लीं..‘हूँ ?’
‘‘चाय पियो...’’
‘‘या अल्लाह...!’’ आसिया बिस्तर से यों उठी, जैसे कोई बिस्तर के साथ चिपकी उस देह को यत्नपूर्वक उठा रहा हो। बिखरे बालों को सँवारकर बाँध लिया।
‘‘क्या असर (शाम) का वक़्त हो गया..?’’ जंभाई लेते हुए पूछा। खिड़की से देखते हुए अहाते में फैले दिन के उजाले का अंदाज़ा लगाया। पीली धूप भी ग़ायब हो चुकी थी।
‘‘असर की नमाज़ को बहुत देर हो गयी।’’
‘‘कुल्ला करने के लिए ज़रा-सा पानी दे।’’
मरियम बीबी ने लोटे में पानी दिया। आसिया ने लोटे को पल पलटकर देखने के बाद कुल्ला किया। बैठे ही बैठे खिड़की से पानी बाहर थूका। फिर चाय का प्याला उठा लिया।
‘‘अच्छी तरह से साफ़-सूफ़ किया है न ?’’
‘‘हाँ।’’
आसिया चाय गटककर बिस्तर पर लुढ़क गयी।
‘‘सारी मैयतें दफ़न हो गयीं ?’’ लेटे ही लेटे उसने पूछताछ की।
‘‘हाँ।’’
‘‘सारी गली में गन्दगी फैली होगी। हाथ-पैर ठीक तरह साफ़ करके ही तो चाय बनाई है न ?’’
मरियम बीबी जवाब देने के लिए वहाँ खड़ी न रही। रसोई में चली गयी, रात के भोजन के लिए अँगीठी पर चावल चढ़ाया।
रैहानत सिलबट्टे पर मसाला पीसने बैठ गयी।
‘‘अरी ओर कुट्टी...’’ पति का बुलावा। मरियम बीबी जल्दी से बैठक की ओर चली।
आसिया का पति सैयदहम्मद बैठक की दक्खिनी तरफ़ पड़ी चारपाई पर घुटने बाँधे हुए बैठे थे।
‘‘जीजा के लिए चाय लाओ...’’ मुस्तफ़ा कण्णु ने हुक्म दिया। सैयदहम्मद ने मरियम द्वारा लाई चाय को एक ही चुस्की में खींचने के बाद प्याला चारपाई पर रखा। उठकर अपना अंगोछा ठीक कर लिया। फिर कुछ भी बोले बिना उठकर चल पड़े।
सन्नाटे में डूबी सऊदा मंज़िल। रसोई में रैहानत द्वारा सिलबट्टे पर पीसने की आवाज़। दीवार पर टंगी घड़ी की टिक-टिक आवाज़। अगर ये दोनों आवाज़ें न रहें, मंज़िल में पूरी तरह सन्नाटा रहता।
मुस्तफ़ा कण्णु की उंगलियों के बीच सिगरेट की गर्दन दबी थी। उसमें से निकल रहा धुआँ पेड़ पर टेढ़े-मेढ़े चढ़नेवाले साँप की तरह ऊपर को उठ रहा था। दीमकों द्वारा खाई छत पर जहाँ-तहाँ छेद हुए पड़े थे। सिगरेट का धुआँ उन छेदों में भर गया, मकड़ी के जालों पर भी।
मरियम बीबी और रैहानत ने जब चटाई बिछाकर अपने थके-माँदे शरीर लढ़ुकाए उस वक़्त रात के बारह बज चुके थे। जीर्ण-जर्जर घर के हर कोने पर अँधेरे का राज्य...आधी रात का सन्नाटा...ऐसे में डरावने सपने न आएँ, इसके लिए मन में कुरान की आयतें पढ़ते हुए मिन्नतें माँगने लगीं। बाहर मूसलाधार वर्षा।
घर के अन्दर कड़ाके की ठण्ड। फ़र्श पर जहाँ तहाँ से सीमेंट उतर चुका था। फ़र्श के अन्दर से रिसते पानी के सोते।
ऊनी चादर के अन्दर से मुस्तफ़ा कण्णु के खर्राटों की आवाज़..जैसे-कुएँ पर रहट चल रहा हो।
मरियम बीबी को नींद नहीं आई। दिल के हर कोने पर तड़प-तड़प कर मरे नन्हें बच्चों के प्यारे-प्यारे चेहरे।
आराम कुर्सी पर पाँव हिलाते हुए लेटे रहनेवाले पति की दाढ़ी, उस दाढ़ी के अन्दर छिपा उनका चेहरा और बेरहम दिल।
‘या खुदा ! मुझे क्यों इस नरक में धकेल दिया...’ मरियम बीबी के दिल की टीस पानी के बुदबुदों की तरह ऊपर को उठी, अंतोणियार गिरजाघर का घंटा नाद गूँज उठा !
इसके साथ मस्जिद की अज़ान भी।
रैहानत नींद से जाग पड़ी। उसका और एक दिन शुरू होनेवाला है।
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1.तेनपत्तन-दक्षिण पत्तन, कन्याकुमारी के पास स्थित प्राचीन बन्दरगाह।
2.कट्टुमरम-लम्बे-लम्बे लट्ठों को बाँधकर बनाया जानेवाला बेड़ा, जिस पर सवार होकर मछली पकड़ने के लिए समुन्दर में जाते हैं। (अंग्रेज़ी-कट्टमारान)

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