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पौराणिक >> अवधेश्वरी

अवधेश्वरी

शंकर मोकाशी पुणेकर

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :308
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2178
आईएसबीएन :81-260-0506-8

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प्रस्तुत है कन्नड़ उपन्यास जो वेदकालीन राजनीति से सम्बद्ध है....

Awadheswari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत उपन्यास वेदकालीन राजनीति से सम्बद्ध है। इसका मुख्य पात्र है—पुरुकुत्स। अन्य पात्र हैं—त्रसदस्यु, वृषजानु, पुरुकुत्सानी और शबरासुर। इन सबका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। ये आरम्भ के तीन सूक्तों के रचयिता हैं, अयोध्या के श्रीरामचन्द्र के पूर्वज हैं और उनकी बयालीसवीं पीढ़ी में गिने जाते हैं। उपन्यास की केन्द्रीय घटना है त्रसदस्यु और वृष के बीच का मानसिक संघर्ष, जो त्रक्षारुण्य (जो पुरुकुत्स का पोता है) के समय में घटित हुआ था।

वर्ष 1988 के लिए कन्नड में लिखित श्रेष्ठ कृति के नाते अवधेश्वरी को साहित्य अकादेमी का पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। यह वैदिक काल तथा वेदों और पुराणों में उल्लिखित आख्यानों पर आधारित एक विशिष्ट राजनीतिक उपन्यास है, जो उपन्यासकार के स्वाध्याय तथा उनकी विद्वत्ता का परिचायक है। अतीत के उस विशिष्ट कालखण्ड को भारतीय इतिहस के अनउघड़े पृष्ठों पर उनकी गहन अन्तर्दृष्टि और उसे जीवन्त कर देनेवाले रचना कौसल के नाते यह कृति अपने पाठकों में पहले ही काफ़ी प्रशंसित हो चुकी है।

आमुख

यह उपन्यास वेदकालीन राजनीति के सम्बद्ध है। इसका मुख्य पात्र है—पुरुकुत्स। त्रसदस्यु, वृषजानु, पुरुकुत्सानी और शबरासुर। इन सबका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। ये आरम्भ के तीन सूक्तों के रचयिता हैं, अयोध्या के श्रीरामचन्द्र के पूर्वज हैं और 42वीं पीढ़ी में गिने जाते हैं। मुख्य घटना है त्रसदस्यु और वृष के बीच का मानसिक संघर्ष, जो त्रक्षारुण्य के समय में (यह पुरुकुत्स का पोता है) घटित हुआ था। वृहद्देवता में इस बात का उल्लेख है। लेकिन कतिपय पुराण एवं निरुक्त में कहा गया है कि त्रसदस्यु और त्रसारुण्य दोनों एक ही हैं। त्रिदस, त्रसत्थ, त्रित आदि अनेक लिपियों के रूप में सात बार हड़प्पा की सौ मुद्राओं में वह हमें दिखाई देता है और इन सौ मुद्राओं को पहचानने का प्रयत्न मैंने किया है। ‘त्रित’ वर्तनी (Spelling) के आधार पर मैंने निर्णय किया है कि ‘कुत्स’ अथवा त्रित आप्त के नाम पर उल्लिखित सूक्त कर्ता पुरुकुत्स ही है और इसी आधार पर मैंने उसके द्वारा रचित सूक्त का अनुवाद प्रस्तुत किया है। (अन्तिम अध्याय देखिए) इस अनुवाद को पूर्ण करने के लिए यद्यपि मैंने सायण, Oldenberg, Griffith आदि प्रभृति से सहायता ली है, तथापि मुझे पूरा विश्वास है कि मेर अनुवाद बहुत दूर तक सही है। वेदकाल में ही ‘अक्षपाद’ नामक लिपि का विकास हो चुका था। हड़प्पा से प्राप्त सीलों में यही लिपि प्रयुक्त है। (अरबी की तरह दायें से बांये की ओर। ये सारे सील वेदकालीन सामग्री हैं, यह बात निर्विवाद है। ब्राह्मण, उपनिषद्, निरुक्त, वृहद्देवता ये सभी बाद की चीज़ें हैं। वेदों का भाष्य प्रस्तुत करने वाले स्कन्दस्वामी, सायण और जर्मन पण्डितों को हड़प्पा की मुद्राओं का परिचय था नहीं। ‘अक्षपाद’ लिपि (Syllabic) Spelling का था।

इसके बाद भाषा की सारी ध्वनियों को संकेतित कर पाने की सामर्थ्य से युक्त खरोष्ठी, ब्राह्मी, नागरी लिपियों के आविर्भाव के बाद अक्षपाद की अर्थध्वनित-परन्तु व्यंजनापूर्ण शैली वाली लिपि लुप्त हो गयी। यह लिपि यज्ञ फलकों के सन्दर्भ में पाणिनि के समय तक प्रयोग में रही। इन फलककारों पर पाणिनि ने लिपिकार नाम से व्यंग्य किया है। मृत्तिका फलक को शुभकार्य के सन्दर्भ में शुभ चित्त समझा जाता रहा और यह परम्परा वर्षों तक जारी रही। हड़प्पा की मुद्राओं में ऋग्वेद के अनेक रचयिताओं के नाम सुरक्षित हैं, यह एक विशेषता है। ऋग्वेद के सारे सूक्तकर्ता ऋषि नहीं थे। वहाँ का वृषजानु हमेशा गालियाँ देता रहता है। इसके बावजूद भी वह एक सूक्तकारक है और यह बात मुद्राओं में उल्लिखित है। अश्वमेघ की कीर्ति से सम्पन्न राजा लोग यज्ञकर्ता ऋषिगण, हत्याकार्य के लिए उद्यत रक्षक जैसे हत्यारे बढ़ई, गजशाला के रक्षकगण, सिपाही अधिकारियों के आधीन यातना भुगतने वाले सेवकगण, शाप के उद्देश्य से रचित तांत्रिक यज्ञों के स्मृति चिह्न, इन सारे चिह्नों के साथ हड़प्पा की मुद्राएँ वेदकाल को हमारे सामने साकार कर सजीव रूप में प्रस्तुत कर देती हैं। वेदकाल में लिखित लोग सारे ऋषि नहीं थे। उनमें कुछ लोग अपने व्यक्तिगत द्वेष और असूया को सूक्तों का रूप देते पाये जाते हैं। (पुरु) कुत्स का वित्तं मे अस्य रोदसी-हे, द्यावा पृथ्वी, मेरे आर्तनाद सुनो-जैसे आक्रन्दन जीवन गर्त में यातना मुक्तजीवी की आर्तवाणी जैसी लगती है। ऋग्वेद की सूक्ति के नाम पर इसे याज्ञिक एवं आध्यात्मिक अर्थ से संयुक्त करने का प्रयत्न उसकी काव्य शक्ति के प्रति अपचार है। संवेदनशील, त्रसदस्यु ने वृष की निन्दा के कारण घायल हो अपने स्वाभिमान को वाणी का रूप देते हुए अपने आपको ‘‘अर्धदेव’’ कहा है।

हैमलेट के समान यह अस्मिता के संकट (Identity crisis) के भारी आघात से संत्रस्त है, इस बात को समझे बिना उसके इस सूक्त को विरोधाभास ग्रस्त कहा गया है। उस हालत में उसकी आत्मनिन्दा एवं आत्मस्तुति, दोनों बातें उसके वश में नहीं हैं यह existentialist predicament है जिससे वह ग्रस्त है। इस बात को समझ पाने पर हम उसके सूक्त के औचित्य को समझ पाने में समर्थ हो सकते हैं। त्रसदस्यु ने वृष को जो उत्तर दिया वह लिपि रहित दो मूक मुद्राओं में व्यक्त है। पहली मुद्र में एक विशालकाय हाथी दीन मुखभाव से दो बिच्छुओं का डंक सह रहा है (बिच्छू-वृश्चिक-वृषजानु) दूसरी में एक जंगली सुअर दो नक्षत्रों में अपनी आँखें गड़ाकर लम्बे कदम भर रहा है। उसके पीछे दो बिच्छू हैं। एक लड़का (जन) बीच में खड़ा है। इन दोनों मुद्राओं पर लिपि नहीं है। वृषजानु नाम के साथ श्लेष स्थापित कर उसके द्वारा ‘वृश्चिक’ को व्यंग्य रूप से प्रकट कर पाने की इच्छा से यहाँ यह मूक चित्र प्रस्तुत किया गया है। इसे वेदकाल का श्रेष्ठ व्यंग्यचित्र कहा जा सकता है।

यहाँ की वस्तु वेदकालीन होने के कारण इसे वैदिक भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयत्न व्यर्थ होगा। आठ सौ बरस पुरानी भाषा को अनुकृत करने वाला Walter Scott आज हँसी-मजाक का पात्र बन गया है। वैदिक भाषा के बारे में हम जानते भी क्या हैं। वैदिक भाषा के बारे में हम जानते भी क्या हैं ? सच्ची ऐतिहासिक यथार्थवादी (Historical Realism) शैली धूमिल घटनाओं के माध्यम से ही प्रकट की होती है। पुरुकुत्सानी के अलावा शेष जो राजकुमारियाँ हैं उनका वर्णन पितृ कन्या के नाम से किया गया है। सुमेर में ई.पू. 4500 में ही नाण्य पद्धति प्रचार में थी; उससे पूर्व मिस्र में भी। श्रीसूक्त में भारतीय नाण्यों का ब्योरा देखने को मिलता है। कांस्यस्थिता’ हिरण्य प्राकाराम् ‘राम’ शब्द का बहुल प्रयोग वेदों में ब.व. के रूप में ही हुआ है। स्वर्णनाण्य का प्रचार गायब हो जाने के बाद यही आगे चलकर रुपया बन गया। वेदकाल में ही हमारे सारे द्यूत प्रचार में आ गये थे। गोधूम को द्यूत में इस्तेमाल करना हास्यास्पद समझा जाता था। पार्जिटर ने अपने Dynastors of Kali Age नामक ग्रंथ में एक बड़ी संभावना की ओर संकेत किया है उसका कहना है कि सारे मूल पुराण प्राकृत में थे। ई.पू. 3500 के आसपास आज की संस्कृत भाषा का आविर्भाव हुआ और इसी भाषा को अधिक प्रचार दे पाने के उद्देश्य से अखिल भारतीय स्तर पर प्राकृत पुराणों का संस्कृतीकरण बड़े पैमाने पर हो गया। हैहय (भाह्या) भागीरथ (युग) आदि मध्य प्राच्य प्रदेश के नामों की जगह उसी के सदृश्य संस्कृत नामों को इन पुराणों में प्रचार में लाया गया। मिस्र संस्कृति का भारतीयकरण कर पाने के उद्देश्य से ही यह सब कुछ हुआ था।

दशरथ (तुसरत) के हस्ताक्षर से युक्त एक पत्र मिस्र के राजपत्रागार से प्राप्त हुआ है, ऐसा मैंने पढ़ा है। उस जमाने में हिमालय इतना ऊँचा नहीं था। एशिया तथा अफ्रीका उपखण्डों के साथ हमारा भूमार्गीय सम्बन्ध वर्तमान था। काकेशस् से घोड़े, चीन से काँच और कागज, तुर्की और आरमेनिया से चाकू और छुरी भूमार्ग से ही भारत में आया करते थे। उस काल की संस्कृति को भाषा शैली की दृष्टि से पुन: साकार कर पाना मेरी दृष्टि में संभव नहीं है। वर्तमान भाषा शैली में उन घटनाओं का निरूपण करता हुआ उन घटनाओं के बीच जो कार्य कारण संबद्ध है उसकी कल्पना करने का भार मैं पाठकों पर छोड़ देता हूँ। सिर्फ़ इतना कहना चाहता हूँ कि यह भी एक प्रकार का Historical Realism है। परिचित भाषा संदर्भ के माध्यम से अपरिचित प्राचीन घटनाओं को प्रस्तुत कर दूँ तो उसमें अनौचित्य को जाँचने की ज़रूरत नहीं है, ऐसी मेरी धारण है। रेल और ट्रेनों को यहाँ चित्रित कर पाने की ज़रूरत है ही नहीं। ‘‘वे लोग हमारे जैसे थे’’ ऐसी धारणा ही ऐतिहासिक वास्तविकता का आधार है।

मात्र भाषाशास्त्र के आधार पर यह स्थापित कर कि आर्य लोग ख़ैबर के रास्ते भारत आये कुछ जर्मन विद्वान हमारे बीच एक दिव्य जन्म को भ्रम दे गये। रहने दीजिये ये बात ! क्या इस स्थानान्तर का उल्लेख कहीं देखने को मिलेगा ? इस प्रश्न पर मैंने बहुत सोच-विचार किया। आज भी मैं इस भ्रम से मुक्त नहीं हूँ। आज से पचास लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका का पश्चिमी हिस्सा खंडित होकर हजारों मीलों तक तैरता हुआ आज का दक्षिण अफ्रीका बना। यह कथन भूगर्भ वेत्ताओं का है। वे लोग यह भी बताते हैं कि ज्वालामुखी या भूकम्प इसके कारण हैं। इसे Drift of Continent कहा गया है। हड़प्पा की मुद्राएँ सुमेरु तथा बैबीलोनियाँ में भी मिलती हैं। यह कैसे हुआ ? क्या, ख़ैबर के रास्ते ? या जहाज के रास्ते ? क्या उस समय स्वेज नहर थी ? वेदों में उक्त सभी राजाओं के नाम इस्लाम पूर्व मध्य प्राच्य के हैं, वह क्यों ? इक्ष्वाकु (इसाक) पुरुकुत्स (फारुक) त्रसदस्यु (तौसीफ) नभनेदिष्टे (नेबुचेडनजर) नरसिंह (नरम्-सिन-बैबीलोन का राजा) ये सारे नाम भारत में कैसे प्रचार में आये ? उसके बाद कैसे ग़ायब हो गये ? एक ज़माने में इजिप्त की ऐतिहासिक भूमि-कर्नाक-आज भारत में कर्नाटक, Elom यहाँ की देवी (एल्लम्मा) बन बैठी है। भीब्सा नामक नगर देवता यहाँ भिब्बा देवी बन बैठी है। ग्रीस का ओयदिपस यहाँ का अय्यप्पा है। (मुद्राओं में यह बात लिखित है।) अलेक्ज़ेण्डर यहाँ का शिवपुत्र स्कन्द बनकर पुराणों में समाविष्ट है। इन सारे भौगोलिक एवं ऐतिहासिक परिवर्तनों के पीछे एक ही सत्य कार्यरत है। और वह है Drifting of Continents; खण्डांतर-सिद्धांत। अफ्रीका के पश्चिमी तट के समान उसका पूर्व तट पूर्ण रूप से तैरता हुआ नहीं चला गया। वह अनेक उपद्वीपों में बँट गया। और ये द्वीप ही आगे पीछे जुड़कर कहीं पर्वताकार रूप धारण कर, आज का भारत बना है। इसका प्रत्यक्ष साक्षी है मनु, पुराना बैबल, श्रीसियस (ग्रीस का एक प्राचीन वीर)। ये सभी ई.पू. 5000 के आसपास रहने वाले थे। इसके बाद इन लोगों को लेकर जो कहानियाँ बनी हैं, वे अद्भुत एवं रम्य अंशों के समावेश के कारण बड़ी ही आकर्षक बन बैठी हैं। आज तक भूगर्वेत्ताओं का विश्वास था कि यह भूकवच जब बड़ा ही मृदुल था, तब ज्वालामुखी के विस्फोट के कारण इस तरह खण्डांतर संभव हो सका। यह बात पचास लाख वर्ष पुरानी है। लेकिन Gold नामक अमेरिकी वैज्ञानिक की स्थापना है कि इस तरह के खण्डांतर के लिए ज्वालामुखी जैसी घटना अनिवार्य नहीं है। यह Methane नामक गैस के आंतरिक दबाव से भी हो सकता है। उसकी इस स्थापना से सारा संसार चकित हो गया है। यह प्रक्रिया आज भी प्रशान्त महासागर (पैसिफिक) समुद्र के गर्भ में जारी है। इसी समुद्र के गर्भ से उठने वाले एक द्वीप को आधार बनाकर Richard Chase ने एक उपन्यास की रचना की है।

अगर यह बात सच है तो हमारी अवतार विषयक परिकल्पना को Geological Phenomenon मानकर इतिहास में जोड़ देना चाहिए। मनु एक ऐतिहासिक व्यक्ति है—कथा नहीं। मोहनजोदड़ो की मुद्राओं में उसका नाम देखने को मिलता है। अब यह कह पाना कि अपने पशुओं को चराने के लिए आर्य लोग ख़ैबर के रास्ते भारत आये—हास्यापद लगता है। बाहर से कोई नहीं आया। सब-के-सब अपने भूखण्डों के साथ यहाँ आए। अपने-अपने प्रदेशों में विकसित भाषा, नागरिकता, विद्या आदि को वे लोग साथ लाये। मनु के सामने जो जलप्रलय हुआ, उसी के साथ हिमालय का उत्थान शुरू हो गया। भारत के उत्तर में मज़बूत किले के समान वह पर्वत खड़ा हो गया। मत्स्य देश तैरता हुआ अपने से पहले स्थित त्रस्तु साम्राज्य को वह आगे पूरब की ओर सरकाकर हिमालय के निर्माण का कारण बन गया। यही मतस्यावतार है। भृगुकच्छ नामक भूखण्ड तैरता हुआ आया और उसने मत्स्य देश के पश्चिम भाग के साथ अपने को जोड़ लिया। यही कूर्मावतार है। वराह अवतार में वराहट का भूखण्ड तैरता हुआ चला आया और उसके नीचे जुड़कर विन्ध्य पर्वत के निर्माण का कारण बन बैठा। यही विन्ध्य आगे बढ़ता हुआ सूरज के रास्ते में वह एक बाधा बन बैठा तब अगस्त मुनि ने आकर उसको रोक दिया, ऐसी कथा पुराणों में देखने को मिलती है। नरसिंह के अवतार काल में सुमेरु और बैबीलोनिया का मध्य-प्राच्य भूखण्ड Narom-Sin की स्मृति के साथ भारत में आकर हिरण्यकशिपु की स्मृति के साथ कश्मीर के नाम पर उत्तर में स्थिर हो गया। वामन अवतार के सन्दर्भ में बलिचक्रवर्ती की स्मृति के साथ जो भूखण्ड आये, वे ही आगे चलकर बलूचिस्तान और बाह्लीक के नाम से प्रसिद्ध हो गये। एक द्वीप खण्ड तैरता चला गया और बाली द्वीप के नाम से प्रसिद्ध हो गया। परशुराम के अवतार में कोंकण क्षेत्र और आस्ट्रिक भूक्षेत्र दक्षिणापथ में आकर जुड़ गये। राम के अवतार काल में एकीकृत भूखण्ड का सांस्कृतिक ऐक्य संभव हुआ। कृष्ण के अवतार काल में द्वारका भारत का प्रवेश द्वार बनकर प्रसिद्ध हुआ। बुद्ध के अवतार काल में अहिंसा भारत का एकमात्र धर्म बनकर प्रचार में आया। आज कल्कि के इस अवतार में हम सब इतिहास की कठपुतली बने हुए हैं।
हमारे लिये कोई भी चीज़ नयी नहीं है, कोई भी चीज़ अपरिचित नहीं है। सहिष्णुता एवं सहजीवन हमारे इतिहास और हमारे भूगोल से ही हमें प्राप्त हैं। विष्णु का वि+क्रम (अनेक भूखण्डों का क्रमहीन सम्बन्ध) है। इसका परिणाम यह हुआ कि विविध संस्कृति, जाति, जनजाति, भाषाओं के तलस्पर्शी संगम से यह सब हमें उपलब्ध हुआ है। वेद में जो विष्णु सूक्त है, उसका मतितार्थ भी तो यही है—
विस्णोर्नु कं वीर्माणि प्रबोचंए यः पार्थिवानि विभवे रजांसि।
यो अस्कभायदुत्तरं सदस्यं, विचक्रमाणस्त्रे धोरुगायः।।
प्र तद्विष्णु स्तवते बीर्येण, मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः।
प्र विष्णवे शूषमेतु मन्म गिरिक्षित, उरुगायाम वृष्णे।
य इदं दीर्घं प्रयतं सदस्यमेको, विमये त्रिभिरित्यदेभिः।।
ता वां वास्तून्यु इमसि गमध्ये, यत्र गावो भूरिशृंगा आभासः।
अत्राह तदुरुगास्य वृष्णः परमं पदमव भाति भूरि।।

आज तक सभी वैदिक ऋचाओं को याज्ञिक अर्थ प्रदान करने की जो प्रथा चली आ रही है, उसे एक क्षण के लिए त्याग दें तो उस ऋचा से जो सहज अर्थ प्राप्त होता है, उससे हमारी आँखों के सामने एक वृहद् वास्तुशिल्प बनकर अनेक उन्नत श्रंगों से युक्त गाय के समान यह हिमालय उठता हुआ-सा दिखाई देता है। यह घटना मनु के समय घटित हुई। वेद काल के बाद जितने वाद-प्रवीण लोग सामने आये, वे सब यह देखना भूल गये कि यह एक नितान्त भौगोलिक घटना थी और उन्होंने सूक्त के शब्दार्थ में स्थिति सच्चे अर्थ को नज़रंदाज कर उसे यज्ञार्थपरक मोड़ दे दिया। अगर कालिदास का कवि हृदय इन्हें प्राप्त हुआ होता तो उस आश्चर्यजनक घटना को ये लोग अपनी आँखों के सामने साकार कर सकते थे। ‘‘पूर्वापरो तोयनिधि बगार्ह्य स्थितः’’—पूरब और पश्चिम के सागरों को हटाकर यह हिमालय खड़ा हुआ है। कितना वैचित्र्य भरा रम्य चित्र है यह ! ‘‘सभी वेदवाक्य देववाक्यों का स्थान पारकर यज्ञ कार्य के लिये प्रयुक्त हुए’’ वाली बात के साथ हम अगर ‘‘सभी वेदों की रचना यज्ञ कार्य के लिये ही हुई थी’’ वाली बातों की तुलना करें तो अंतर अपने आप स्पष्ट हो जायेगा। ऋग्वेद में वृषजानु की जो निंदा पायी जाती है, उससे किस यज्ञ का उपकार होगा ? जो लोग वेदों की अपौरुषेयता में विश्वास करते हैं उन्हें भी अपने यज्ञ की सफलता के लिये वेदों से उचित सूक्तों को ढूँढ़ लेना पड़ता है। उनके योग्य सूक्त भी वहाँ पाये जाते हैं। लेकिन यह कह पाना कि सारे सूक्त यज्ञ कार्य की दृष्टि से ही रहित हैं, निम्नस्तरीय सोच का द्योतक होगा।

गीता में वर्णित विवस्वत, मनु, इक्ष्वाकु राजर्षि लोग (Priest King) मिस्र के रहने वाले थे। कविवर द.रा. बेन्द्रे जी ने पहली बार मेरा ध्यान इस ओर आकर्षित किया था। वे चैतन्य पुरुष अब नहीं रहे। ‘गंगव्वा गंगामाई’ नामक मेरे उपन्यास को पढ़ने के बाद उन्हें तीन दिनों तक नींद नहीं आयी, यह बात मुझे उन्हीं से मालूम हुई थी। उन्होंने जिन दिशाओं की ओर संकेत रूप से मेरा ध्यान आकर्षित किया था, उसी के बल पर मैं आजकल Unifide theory of Oriental Pabography की रचना में अपने को लगाने को जा रहा हूँ। येट्स का कहना है कि चैतन्य जीवियों को मृत्यु का सामना नहीं करना पड़ेगा। मेरी प्रार्थना है कि कविवर बेन्द्रे जी, अनुपस्थित रहकर भी मेरे इन प्रयत्नों को धैर्य प्रदान करें। और इसी प्रार्थना के साथ मैं अपनी इस कृति को उन्हें अर्पत कर रहा हूँ।
हमारी संस्कृति की गहराइयों को उसके सारे स्तरों को महामना श्री बेन्द्रे, गोविन्द पै.बी.एम. श्री वीरकेसरी, देवुड़, कुवेम्पु, पुतिन, पुट्टस्वाम्य्या, मास्ति और विनायक जैसे महान लोग चित्रित करते आये हैं। मेरी यह कृति उस स्तर की नहीं है, यह भी सच है। लेकिन उद्देश्य तो वही है। इन विभूतियों का यहाँ स्मरण करना मेरा कर्तव्य है। कर्नाटक की साधना-परम्परा में अपना स्वर जोड़ने वाली इस कृति को उपन्यास के रूप में ही पढ़ना चाहिए, अनुसंधान की दृष्टि से नहीं—यही मेरी प्रार्थना है।

भाग एक पुरुकुत्स

श्रीरामचन्द के नाम से पुनीत आयोध्या आजकल एक उजड़ा हुआ गाँव है। श्री राम के आगमन से पहले वह आज जैसा कुग्राम नहीं था। उसे एक साम्राज्य का दर्जा भी प्राप्त नहीं था। तीस चालीस ग्रामों पर अधिपति बनकर राज्यभार वहन करने वाले पुरुकुत्स की वह राजधानी थी। पुरुकुत्स सुख लोलुप था। उसकी महारानी का नाम था नर्मदा। लेकिन पत्नी के साथ उसका कोई सम्बन्ध था नहीं। इसका यह कारण था कि वह पुरुकुत्सानी महाराजा पुरुकुत्स की बहन थी। सूर्यवंश के नियम के अनुसार बचपन में ही उसका और उसकी बहन का परस्पर विवाह सम्पन्न हो चुका था। राजघराने में दूसरों के प्रवेश को रोक पाने का यह एक उपाय था। मिस्र के राजघराने में यह प्रथा जारी थी।
महाराज पुरुकुत्स अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक यह नहीं भूल सका कि पुरुकुत्सानी उसकी बहन है। इसका परिणाम यह हुआ कि उन दोनों की कोई सन्तान नहीं हुई। राजघराने की प्रतिष्ठित अधिकारिणी वह पुरुकुत्सानी अपने बल पर भ्रातृ-पति के सारे राज्य-सूत्रों को अपने वश में कर सच्ची रानी के रूप में शासन चला रही थी। लेकिन वह दाम्पत्य सुख से वंचित रह गयी। इसी बात को लेकर यह उपन्यास आगे बढ़ता है।

2

‘‘कालिय !’’ महाराज पुरुकुत्स ने आवाज़ दी।
‘‘जी आज्ञा, महाराज !’’ कालिय दौड़ता हुआ आया और नतमस्तक हो सामने खड़ा हो गया।
‘‘क्यों, तारक्ष्य लौटा ?’’ मधु का एक और घूँट चढ़ाते हुए पुरुकुत्स ने पूछा ? उसकी वाणी में उत्कंठा थी।
‘‘महास्वामी, वह अभी तक नहीं लौटा !’’ कालिय ने कहा।
‘‘उसको लौटते ही भीतर भेज देना।’’ महाराज की आज्ञा थी। महाराजा ने आज यह चौथी बार जवाब दिया था।
‘‘शिरोधार्य है, महाप्रभु।’’
इधर दो बरसों से कालिय यही बात सुनता आ रहा था। बार-बार वह यही जवाब देता आ रहा था। उन दोनों की बतचीत यहीं पर समाप्त हो जाती थी।
सत्रह बरस का कालिय बार-बार यही प्रश्न सुनता ऊब गया था।

आम्रवन के बीच एक विशाल झोपड़ी थी उसके चारों ओर कँटीली झाड़ी थी। उस झाड़ी से लगकर खड़े हुए छह सैनिक पहरा दे रहे थे। झोंपड़ी के अन्दर महाराजा अकेला ही बैठा हुआ था। कालिय उसका विश्वास पात्र सेवक था। पन्द्रह बरस की आयु में काली महाराजा की सेवा में आया। राजा के परिवार में उसे एक विशेष स्थान प्राप्त हो गया था। उन लोगों में वह नया था। किसी से उसका परिचय नहीं था। राज्यभवन में जिस वह शिष्ट भाषा का प्रयोग होता था, उससे वह परिचित नहीं था। वह नाग जाति का लड़का था, इसलिए उसकी बोली को समझ पाने में वहाँ के लोगों को कष्ट होता था। इसके अलावा, वह बहुत ही सुन्दर था। बिल्कुल मासूम-सा लगता था। इधर कुछ दिनों से उसे राजा की दिनचर्या का परिचय होने लगा था। रथ या घोड़े पर वह तारक्ष्य गणिकाओं को उठा लाता था। वे लड़कियाँ राजा के साहचर्य प्राप्त होने पर आप ही खूब पीकर उसके साथ उसके शयन कक्ष में चली जाती थीं। उन लड़कियों को शय्या कक्ष से उठा लाकर और जगाकर वहाँ से भगा देना या उन्हें पहरेदारों को सौंप देना—यह कालिय का प्रतिदिन का उत्तर दायित्व था। वे लड़कियाँ कहां से आयी थीं, ये सारी बातें वह नहीं जानना चाहता था। वह उनकी बोली समझ नहीं सकता था। इसकी बोली वे लड़कियाँ नहीं समझ पाती थीं। अकेले महाराजा कालिय की बोली समझ सकते थे, क्योंकि वे उसकी बोली बचपन से ही अच्छी तरह से जानते थे। माँ के पास ही वे इस भाषा को सीख चुके थे। माँ बिन्दुमती देवी नागक्षत्रिय वंश की कन्या थी। उसके ज़माने में ही उसकी नागपूजा में सहायता देने के लिए अनेकों नागब्राह्मण अयोध्या चले आये थे। कुछ ही दिनों में ये लोग उन्नत पदों पर आसीन हो गए थे। इसी कारण पुरुकुत्सानी ने कालिय की नियुक्ति कर उसे राजा के परिवार का आप्त सेवक बना दिया था। नागभाषा और आर्यभाषा में उल्लेखनीय अन्तर तो नहीं था। उच्चारण के स्वरूप में थोड़ा-बहुत अन्तर रह गया था। आकार वहाँ ओंकार बन जाता। हर वाक्य के अन्त में एक साँस समाप्त होकर दूसरी साँस शुरू हो जाती थी। ‘आ’ नामक निदर्शक स्वर वहां जुड़ जाने के कारण सुनने वालों की समझ में बात का बैठ पाना कठिन हो जाता था।
मिस्र देश के पेरु राजाओं के दूर के सम्बन्धी महाराज मांधाता ने उन्हें संदेश भिजवाकर युवराज पुरुकुत्स के विवाह के बारे में उनका अभिप्राय पूछा था। दो बरस के बाद उनसे प्रत्युत्तर मिला था—‘‘हमारी प्रथा के अनुसार राजवंश के शुद्ध रक्त को कायम रखना है। जहाँ तक हो सके, सभी बन्धुओं में ही विवाह पक्का करना चाहिए। इसी से वंश का उद्धार होगा। ‘‘मिस्र में सगोत्रीय कोई थे नहीं। अब रह गयी छोटी बहन पुरुकुत्सानी। जनन रहस्य के आधार पर अयोध्या के वशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मणों ने कहा कि ऐसा विवाह अवांछनीय होगा। नाग ब्राह्मणों ने कहा कि उनकी परम्परा की दृष्टि से ऐसा सम्बन्ध अग्राह्य होगा। बिन्दुमती देवी को लगा कि ऐसा सम्बन्ध धर्म को अमान्य होगा। लेकिन राज्यवंश के शुद्ध रक्त को बनाये रखने के पक्ष में जो क्षत्रिय थे, उन्होंने इस सम्बन्ध को स्वीकृति दे दी। बारह बरस वाले पुरुकुत्स और आठ बरस वाली नर्मदा पुरुकुत्सानी के बीच विवाह सम्पन्न हो गया।

पुरुकुत्स अभी चौदह बरस का था कि उसकी माता बिन्दुमती देवी भारी चिन्ता के कारण चल बसी। जब वह सोलह बरस का हुआ तो उसके पिता महाराजा मांधाता राजयक्ष्मा रोग के कारण चल बसे। नागब्राह्मणों की सहायता लेकर सामंतों ने पुरुकुत्स को राजगद्दी पर बिठा दिया। पुरुकुत्सानी तब बारह बरस की थी।

सामान्य राजकुमारियों की तरह पुरुकुत्सानी भी पुरुषों जैसा व्यवहार किया करती। अपने पति के साथ वह सखा-भाव से खेला करती। घोड़े पर चढ़ती। पेड़ों पर चढ़ती वृक्षवानर के खेल में अपने पति को हराकर वह उसे रोने के लिये मजबूर कर देती। कुश्ती लड़ते समय वह उसे ज़मीन पर पटक देती और छाती पर चढ़कर बैठ जाया करती। बेंत की लड़ाई में उसकी पीठ पर इस तरह हाथ चला देती कि उसके दोनों गाल आँसू से भीग जाया करते थे। बेटी के भविष्य को लेकर चिन्तित बिन्दुमतीदेवी उसी को ताड़कर दोनों के बीच के खेल को बारबर करार देती। तब पुरुकुत्सानी रोती हुई अपने पिता मांधाता के पास चली जाती और उसे अपना असंतोष सुना देती। इसका परिणाम यह होता कि महाराजा मांधाता बिन्दुमती देवी पर कुपित होता। इस तरह महाराज के एक-दो बार कुपित हो जाने पर बिन्दुमती देवी ने अपनी बेटी के असम्मत विवाह का प्रश्न उठाकर महाराजा की बोली को बन्द कर दिया था। इसके बाद पुरुकुत्सानी को सांत्वना देकर महाराजा ने अपनी पत्नी के सामने इस विषय पर चर्चा करना ही बन्द कर दिया। एक बार यह झगड़ा सीमा से बाहर चला गया तो राजा ने अपनी रानी को गालियाँ सुनाते हुए कहा—‘‘गद्दावी’’ (गर्धभी), उसकी गाली अवध की ग्रामीण बोली में थी।

‘‘हाँ, सच है, आपका घराना ही गद्दावी का घराना है।’’—कहकर राजा ने इस बात का मुँहतोड़ जवाब दे दिया। उस दिन के बाद रानी दिन-ब-दिन जीर्ण-शीर्ण होती हुई छह महीने की अवधि में चल बसी।
पुरुकुत्स ने सोचा कि अपनी माँ मृत्यु का कारण उसकी अपनी बहन ही है। सामान्यतौर पर अन्य राजकुमारियों की भाँति पुरुकुत्सानी भी कुछ देरी से यौवन को प्राप्त हुई। चौदहवें बरस में वह बड़ी हुई। माँ की मृत्यु के बाद दो महीने बीत चुके थे। सूतक के कारण निषेक कार्यक्रम के लिये रोक दिया गया था। उस महीने में तीन दिनों को छोड़कर बाकी सभी दिनों में वह अपने पति के साथ हमेशा खेलती रही। उन सभी खेलों में वह हमेशा जीतती रही। पुरुकुत्स के साथ खेलने कि लिये किसी दूसरे को लाने के विषय में राजाज्ञा की सहमति नहीं थी।

महाराजा मांधाता का राजयक्ष्मा रोग जैसे-जैसे तीव्र होने लगा, वह बेटे के निषेक के लिए अपना आग्रह बढ़ाने लगा। सूतक का एक वर्ष समाप्त होने पर एक शुभ मुहूर्त के दिन निषेक का कार्यक्रम निर्धारित किया गया। माँ की गुप्त सलाह के अभाव में और राजमहल में गुप्त सलाह देने वालों के अभाव के कारण पुरुकुत्सानी अपने कक्ष के अन्दर अपने पुराने खेलों में ही हमेशा मग्न रहा करती थी। पुरुकुत्स एक कोने में पड़ा हुआ था। उसकी सारी पीठ घावों से लथपथ थी। जैसे ही दरवाज़ा खुला वह द्रुत गति से बाहर दौड़ा और अपनी पीठ के घावों को तथा हाथों पर लगी दन्त मुद्राओं को अपने पिता के सामने प्रदर्शित करने लगा। वे एक बार हँस दिये। ‘‘अभी बचपन मरा नहीं !’’ समय ही एक दिन सिखा देगा।’’ वे अपने मन में सोचने लगे लेकिन समय कोई परिवर्तन न ला सका। उसके एक बरस बाद महाराजा मांधाता चल बसे।

राजा बनकर सिंहासन पर बैठते ही पुरुकुत्स ने पुरुकुत्सानी का साथ छोड़ दिया। वह अब दूसरे कक्ष में सोने लगा। अब उसके आसपास कुछेक आर्यक्षत्रिय, कुछेक नागक्षत्रिय और कुछेक वणिक पुत्र जुड़ने लगे। शुरू-शुरू में अपने भोजन की आशा के कारण, अपनी जह्वा लोभ को पूरा करने के लिए वह लोगों को पालने लगा। दासियाँ उसके स्त्री सुख की व्यवस्था करने लगीं। गणिकाएँ और वार वनिताएँ सुख चाहती हुईं उसके पास आने लगी। पुरुकुत्स स्वतः राजा था, इसलिए अब उसके सामने बाधा रही नहीं।

खेल की अभिलाषा लेकर अब तक पुरुकुत्सानी जिस पर विश्वास किये बैठी थी, अब उसी पुरुष के दूर हट जाने के कारण उसे कुछेक क्षणों के लिए व्यथा होने लगी। परन्तु अपने खेल में साथ देने के लिए वह सुन्दरी नामक एक सरदार पुत्री तथा उसके वज्र नामक बारह वर्षीय भाई को अपने साथ लेकर खेलों में मग्न हो गई। सुन्दरी तब सोलह बरस की थी। उन दोनों का स्नेह अन्योन्य रहा। लेकिन दुर्भाग्यवश छह महीने में ही उसी नगर के दूसरे सरदार के पुत्र के साथ सुन्दरी की शादी पक्की हो गयी। वत्सराज उसका नाम था। बाइस बरस का हट्टा-कट्टा युवक और विशेष अनुभवी, छोटी उम्रवाली सुन्दरी की सारी कामनाओं को पूरा कर वह उसके प्यार का पात्र बन गया।

विवाह के पन्द्रह दिनों बाद सुन्दरी अपनी सहेली से मिलने आयी।
पुरुकुत्सानी अब पहले की भाँति खेलने के लिए उसके सामने पद्मासन शैली में बैठ गयी। परन्तु सुन्दरी इस तरह खेलने के लिये तैयार नहीं थी। ‘‘अब मेरी शादी हो चुकी है। बचपने के खेल अब समाप्त।’’ सुन्दरी की बातों में स्पष्टता थी। ‘‘हाँ मेरी भी शादी हो चुकी है।’’ पुरुकुत्सानी ने कहा। सुन्दरी के विवाह के सारे ब्योरे के बारे में उसने पूछा। अच्छी सहेली होने के नाते सुन्दरी ने उसके सामने कुछ भी न छुपा रखा।
पुरुकुत्सानी ने अपने उरुओं को छूकर देखा। उसका अपना कौमार्य अभी तक अक्षत था। इस बात को वह अब पहचानने लगी।

सुन्दरी का कहना कि ‘‘दो एक दिनों तक चलते समय लड़खड़ाना पड़ता है। लेकिन अब तो मन वही चाहता है।’’—पुरुकुत्सानी के मन पर मुद्रित हो गया। उसमें कामोदय होने लगा।
इसके साथ सुन्दरी की वह दूसरी बात कि ‘‘मुझे तो दिन-रात पति की ही याद सताती है। किसी भी चीज़ से मन नहीं भरता। अब पहले की तरह खेलों की ओर लगन नहीं होती। वे ही मेरे यजमान हैं। आगे चलकर चार महीनों में ही सुन्दरी गर्भवती हो गयी।’’ अब वह कब गर्भवती होने वाली है ?’’ पुरुकुत्सानी का मन आक्रांत हो गया।
पुरुकुत्स पर निगरानी रखने के उद्देश्य से उसने अपनी दो सेविकाओं को पति पर नियुक्त कर दिया। वे सेविकाएँ सब कुछ जानती थीं। स्वामिनी की आज्ञा के अनुसार वे महाराजा पर निगरानी रखने लगीं।

महाराजा के कक्ष में जाने वाली सभी वारवनिताएँ वत्सराज-सुन्दरी का अनुभव और उसके फलस्वरूप बहुमूल्य उपहार प्राप्त कर वहाँ से लौटने लगी थीं। यह समाचार सुनकर पुरुकुत्सानी और अधिक व्यथा-ग्रस्त हो गयी। अपनी सेविकाओं को बुलाकर उसने उनसे सलाह माँगी। उन्होंने एक मत होकर कहा-‘‘आप महारानी हैं वारवनिताओं का इस तरह राजमहल में आना आपका अपमान है। अब उन्हें रोक देना चाहिए। जो सरदार इस तरह वारांगनाओं को राजभवन में लाया करता है उसे यहाँ बुलाकर निर्बन्धित करना चाहिए। उन्हें अब तुम्हारी बात माननी पड़ेगी।’’

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