उपन्यास >> मछुआरे मछुआरेशिवशंकर पिल्लै
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इसमें केरल के तटवर्ती प्रदेश के मछुआरों के जीवन का चित्रण किया गया है.....
machhuare
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इनके सर्वोत्तम उपन्यास तीन हैं, जिनमें से एक ‘तोट्टियुडे-मग़न’ है। इसका हिन्दी में ‘चुनौती’ शीर्षक के अनुवाद हुआ है। दूसरा ‘रंटि टंगषी’ (दो सेर धान) है, जिसका साहित्य अकादेमी की ओर से कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। तीसरा महत्त्वपूर्ण उपन्यास यह ‘चेम्मीन’ (मछुआरे) है, जिसमें केरल के तटवर्ती प्रदेश के मधुआरों के जीवन का चित्रण मिलता है। यह एक सरल रोमांस की कहानी है, जिसका ताना-बाना उस अंध-विश्वास के इर्द-गिर्द बुना गया है, जो मधुआरों के दैनंदिन कार्य-कलापों को प्रभावित करता है। इन सबका अत्यन्त यथार्थवादी ढंग से चित्रण किया गया है। इस उपन्यास पर साहित्य अकादमी ने लेखक को सन् 1957 में पाँच हजार रुपये का पुरस्कार भी प्रदान किया है। इसके अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हो रहे हैं।
खण्ड एक
1
‘‘बप्पा नाव और जाल खरीदने जा रहे हैं।’’
‘‘तुम्हारा भाग्य।’’
करुत्तम्मा से कोई जवान देते नहीं बना। लेकिन उसने तुरन्त परिस्थिति पर काबू पा लिया। उसने कहा, ‘‘रुपये काफी नहीं है। क्या उधार दे सकते हो ?’’
हाथ खोलकर दिखाते हुए परी ने कहा, ‘‘मेरे पास रुपये कहा हैं ?’’
कुरुत्तम्मा हँस पड़ी और कहा, ‘‘तब अपने को छोटा मोतीलाली कहते क्यों फिरते हो ?’’
‘‘तुम मुझे छोटा मोतीलाल क्यों कहती हो ?’’
‘‘नहीं तो क्या कहकर पुकारू ?’’
‘‘सीधे परीकुट्टी कहकर पुकारा करो !’’
करुत्तम्मा ने ‘परी’ तक कहा और खिलखिलाकर हँस पड़ी। परी ने पूरा नाम कहने का अनुरोध किया। करुत्तम्मा ने हँसी को रोका और गम्भीर भाव से असहमति प्रकट करने के लिए सिर हिला दिया। उसने कहा, ‘‘ऊँ हूँ, मैं नाम लेकर नहीं पुकारूँगी।’’
‘‘तो मैं भी करुत्तम्मा कहकर नहीं पुकारूँगा ?’’
‘‘तो फिर क्या कहकर पुकारोगे ?’’
‘‘मैं तुम्हें बड़ी मल्लाहिन कहकर पुकारूँगा।’’
करुत्तम्मा हँस पड़ी। परीकुट्टी ने भी ठहाका मारा, खूब हँसा। क्यों ? दोनों इस तरह क्यों हँसे ? कौन जाने ! दोनों मानो दिल खोलकर हँसे।
‘‘अच्छा, नाव और जाल खरीदने के बाद नाव में जो मछली आयगी उसे व्यापार के लिए मुझे देने को अपने बप्पा से कहोगी ?’’
‘‘अच्छा दाम दोगे तो मछाली क्यों न मिलेगी ?’’ फिर जोरों से हँसी हुई। भला इससे इतना हँसने की क्या बात थी। कोई मज़ाक था ! कोई भी बात हो, आदमी इस तरह कहीं हँसता है ! हँसते-हँसते करुत्तम्मा की आँखें भर आई थीं। हँसते-हँसते उसने कहा, ‘‘ओह मुझे इस तरह न हँसाओ, मोतलाली !’’
‘‘मुझे भी न हँसाओ, बड़ी मल्लाहिन जी’’ –परीकुट्टी ने कहा।
‘‘बाप रे कैसा आदमी है यह छोटा मोतलाली !’’
दोनों फिर ऐसे हँसे पड़े मानों एक दूसरे को गुदगुदा दिया हो। हँसी भी कैसी चीज़ है ! आदमी को कभी गम्भीर बना देती है, तो कभी रुलाकर छोड़ती है। करुत्तम्मा का चेहरा लाल हो गया था। इसने शिकायत के तौर पर नहीं, गुस्से में कहा, ‘‘मेरी तरफ इस तरह मत ताको !’’ उसकी हँसी खत्म हो चुकी थी। भाव बदल गया था। ऐसा लगा, मानो परीकुट्टी ने अनजाने में कोई गलती कर दी हो।’’
‘‘करुत्तम्मा के मुँह से मिकला। वह अपनी छाती को हाथों से ढकती हुई घूमकर खड़ी हो गई। वह एकाएक सकुचा गई। उसकी कमर में सिर्फ एक लुंगी थी।
‘‘ओह, यह क्या है ? छोटे मोतलाली !’’
इतने में घर से करुत्तम्मा को बुलाने की आवाज़ सुनाई पड़ी। चक्की, उसकी माँ, जो मछली बेचने के लिए पूरब गई थी, लौट आई थी। करुत्तम्मा नाराज होकर चली गई है। वह दुखी हुआ। उधर करुत्तम्मा को भी लगा कि वह परीकुट्टी के ही सामने क्यों, कहीं भी इस तरह नहीं हँसी थी। वह एक अजीब तरह का अनुभव था। कैसी थी वह हँसी ! दम घुटाने वाली छाती फाड़-डालने वाली। करुत्तम्मा को लगा था कि वह नग्न रूप में खड़ी है और एकदम अदृश्य हो जाना चाहती है। ऐसा अनुभव इसके पहले उसे कभी नहीं हुआ था। उस अनुभूति की तीव्रता में दिल को चुभने वाले कड़े शब्द उसके मुँह से निकल गए थे।
करुत्तम्मा का यौवन मानो जाग उठा था और प्रतिक्षण पूर्णत्व की ओर बढ़ रहा था। परी की नजर अचानक जब करुत्तम्मा की छाती पर जा टिकी था तब उसे लगा उसका सारा शरीर सिहर उठा है। क्या इसी से हँसी की शुरूआत हुई थी ? करुत्तम्मा एक ही कपड़ा पहने हुए थी वह भी पतला !
परीकुट्टी को लगा कि करुत्तम्मा नाराज होकर चली गई। उसे भी डर लगा कि करुत्तम्मा फिर उसके पास नहीं आयेगी।
परी ने सोचा कि वह करुत्तम्मा से माँफी माग ले और उससे कह दे कि फिर ऐसी गलती नहीं होगी।
दोनों को एक दूसरे से क्षमा माँगने की ज़रूरत महसूस हुई। करुत्तम्मा जब समुद्र-तट पर सीप बटोरकर खेलने वाली चार-पाँच साल की एक छोटी बच्ची थी तब उसे जो एक छोटा साथी मिला था वह साथी परीकुट्टी ही था। पाजामे के ऊपर पीला कुर्ता पहने, गले में रेशमी रुमाल बाँधे और सिर पर तुर्की टोपी लगाये परीकुट्टी को अपने बाप का हाथ पकड़े समुद्र-तट पर पहले-पहल जैसा उसने देखा था उसे खूब याद था। उसके घर के दक्खिन की तरफ उन लोगों ने डेरा डाला था। अब वह डेरा वहीं पर था। पर अब परीकुट्टी ही वहाँ का व्यापार चलाता था।
समुद्र के किनारे पड़ोस में रहते हुए दोनों बड़े हुए थे।
रसोईघर में बैठी चूल्हा जलाती हुई करुत्तम्मा को एक-एक बात याद हो आई। आग चूल्हे के बाहर जलने लगी। उसी समय माँ आई और करुत्तम्मा की अन्यमनस्कता और बाहर जलने वाली लकड़ी-दोनों को थोड़ी देर तक देखती रही।
तब चक्की ने करुत्तम्मा को एक लात लगा दी। करुत्तम्मा मानो सपने में से चौंक उठी। नाराजगी के साथ चक्की ने पूछा, ‘‘किसके बारे में बैठी-बैठी सोच रही है री ?’’
करुत्तम्मा का भाव देखकर कोई भी उससे ऐसा ही सवाल करता। चक्की का इसमें कोई दोष नहीं था। करुत्तम्मा दूसरी ही दुनिया में थी।
‘‘अम्मा, समुद्र-तट पर रखी हुई उस बड़ी नाव की आड़ में दिदिया खड़ी-खड़ी छोटे मोतलाली के सात हँस रही थी’’- उसकी छोटी बहन पंचमी ने कहा। उसकी बात सुनकर करुत्तम्मा एकदम चौंक गई। वह दोषपूर्ण भेद- जो किसी को नहीं मालूम था, खुल गया। पंचमी नहीं रुकी। उसके आगे कहा, ‘‘ओहो, कैसी हँसी थी अम्मा, कुछ कहा नहीं जा सकता।’’ इतना कहकर वह कुरुत्तम्मा को इशारे से जताती हुई कि उसके पीछे पड़ने का यही नतीजा है, वहाँ से भाग गई।
करुत्तम्मा पंचमी को घर पर छोड़कर नाव की तरफ गई थी। इस कारण पंचमी पडो़स के बच्चों के साथ खेलने के लिए नहीं जा सकी थी। चेम्पन (बाप) का आदेश था कि कभी ऐसा न हो कि घर में एक आदमी भी न रहे। नाव और जाल खरीदने के लिए वह कुछ रुपये बचाकर घर में रखे हुए था। इस कारण पंचमी को घर पर रहना पड़ा था। उसी का उसने करुत्तम्मा से गुस्सा उतारा।
इस तरह की बात सुनकर क्या कोई मां चुप रह सकती है ! चक्की ने करुत्तम्मा से पूछा, अरे मैं क्या सुन रही हूँ ?’’
करुत्तम्मा ने कोई उत्तर नहीं दिया।
‘‘तू क्या करने पर लुती है री ?’’
करुत्तम्मा के लिए जवाब देना जरूरी हो गया। एक जवाब उसे सूझ गया ‘‘यों ही समुद्र तट पर जब गई......’’
‘‘छोटे मोतलाली नाव पर बैठे थे।’’
‘‘उसमें तेरे हँसने की क्या बात थी ?’’
करुत्तम्मा को एक और जवाब सूझा, ‘‘नाव और जाल खरीदने के लिए रुपया जो कम है वह मैं मोतीलाली से माँग रही थी।’’
‘‘अरी उससे रुपये माँगने का तेरा क्या काम था ?’’
‘‘उस, दिन बप्पा और तुम आपस में बातें कर रहे थे कि मोतीलाली से रुपया माँगना है ?’’
वह सब तर्क व्यर्थ था। वह जवाब में कुछ-न-कुछ कहने की करुत्तम्मा की कोशिश-मात्र थी। चक्की ने बेटी को एड़ी से चोटी तक ध्यान से देखा।
चक्की भी उस उम्र से होकर गुज़र चुकी थी। यह भी हो सकता है कि जब चक्की करुत्तम्मा की उम्र की थी तब तट पर डेरा डाले कुछ मोतलाली लोग भी रहते होंगे। उन्होंने भी किनारे पर रखी नाव की आड़ में चक्की के मन को गुदगुगदाकर उसे हँसाया होगा। लेकिन चक्की एक ऐसी मल्लाहिन थी, जो उसी समुद्र-तट पर जन्म लेकर बड़ी हुई थी। इसलिए वह वहाँ को परम्परागत तत्त्वज्ञान की अधिकारिणी थी।
प्रथम मल्लाह जब पहले-पहल लकड़ी के एक टुकड़े पर चढ़कर समुद्र की लहरों और ज्वार-भाटे का अतिक्रमण करके क्षितिज के उस पार गया तब उसकी पत्नी ने तट पर व्रत-निष्ठा के साथ पश्चिम की ओर देखकर खड़े-खड़े तपस्या की। समुद्र में तूफान उठा शार्क मुँह बाये नाव के पास पहुँचे, ह्वेल ने नाव को पूँछ से मारा और जल की अन्तर-धारा ने नाव को एक भँवर में खींच लिया। लेकिन आश्चर्यजनक रीति से वह मल्लाह सब संकटों से बचाकर एक बड़ी मछली के साथ किनारे पर लौट आया। उस तूफान के खतरों से वह कैसे बचा ? शार्क उसे क्यों नहीं निगल गया ? ह्वेल की मार से उसकी नाव क्यों डूब गई। भँवर से उसकी नाव कैसे निकल आई ? यह सब कैसे हुआ ? समुद्र-तट पर खड़ी उस पतिव्रता नारी की तपस्या का ही वह फल था।’
समुद्र-माता की पुत्रियों ने इस तपश्चर्या का पाठ पढ़ा चक्की को भी इस, तत्त्व-ज्ञान की सीख मिली थी। यह भी सम्भव हो सकता है कि जब चक्की एक नवयुवती थी तब एक मोतलाली ने उसे भी आँख गड़ाकर देखा होगा और चक्की की माँ ने उस समय उसको भी समुद्र-माता की पुत्रियों की तपश्चर्या की कहानी और जीवन का तत्त्व-ज्ञान समझाया होगा।
चक्की ने करुत्तम्मा की गलती समझी हो या नहीं उससे आगे कहा, ‘‘बिटिया अब तू छोटी बच्ची नहीं है। एक मल्लाहिन हो गयी है।’’ परीकुट्टी के शब्द ‘बड़ी मल्लाहिन’ करुत्तम्मा के कानों में गूँज गये।
चक्की ने आगे कहा, ‘‘इस महासागर में सब कुछ है बिटिया, सब कुछ। इसमें जाने वाले लोग कैसे लौटकर आते हैं यह तुझे क्या मालूम ! तट पर उनकी स्त्रियों के पवित्रता से रहने से ही यह होता है। वे पवित्रता का पालन न करें तो मल्लाह नाव सहित भँवर में पड़कर खत्म हो जाए। मछुआरों का जीवन वास्तव में में तट पर रहने वाली उनकी स्त्रियों के हाथ में ही है।’’
यह पहला अवसर नहीं था जब कि करुत्तम्मा ने उपयुक्त आशय की बात सुनी हो। जहाँ चार मल्लाहिन इकट्ठी होती हैं वहां इन शब्दों को दुहराना मामूली बात थी।
फिर भी परीकुट्टी के साथ हँसने में क्या गलती हुई थी ? किसी मछुआरे का जीवन उसे सौंपा तो गया नहीं था। जब सौंपा जाएगा तब उसकी रक्षा वह ज़रूर करेगी। कैसे करना है यह भी उसे मालूम था। मल्लाहिनों को यह बात किसी से सीखने की ज़रूरत नहीं है।
चक्की ने आगे कहा, ‘‘क्या तुझे मालूम है कि यह समुद्र कभी-कभी क्यों रंग बदलता है ? समुद्र-माता क्रोध आ जाने पर एक साथ सब नष्ट कर डालती है। नहीं तो अपनी सन्तान के लिए सब-कुछ देती है। उसमें सोने की खान है बेटी, सोने की खान।’’ चक्की ने बेटी को फिर एक बड़ा उपदेश दिया, ‘‘पवित्रता ही सबसे बड़ी चीज़ है, बेटी ! मल्लाह की असली सम्पत्ति मल्लाहिन की पवित्रता ही है। कभी-कभी छोटे मोतलाली लोग समुद्र-तट को अपवित्र कर देते हैं। पूर्व से स्त्रियाँ झिंगी पीटने और सूखी मछली को बोरों में भरने के लिए आया करती हैं और वह तट को अपवित्र कर देती हैं। समुद्र-तट की पवित्रता का महत्त्व उन्हें क्या मालूम ! वे समुद्र-माता की सन्तान तो हैं नहीं। लेकिन उसका फल भोगना पड़ता है मछुआरों को। ...तट पर रखी हुई नावों की आड़ और यहाँ की झाड़ियां बहुत खतरनाक जगह हैं वहां सतर्क रहने की जरूरत है।’’
इतना कहकर चक्की ने बेटी को गम्भीरतापूर्वक सावधान किया, ‘‘तेरी अब उम्र हो गई है। छाती भर आई है। चेहरा-मोहरा सब हृष्ट-पुष्ट है। हो सकता है, छोटे मोतलाली लोग और दूसरे नासमझ लोग जवान लड़के तेरी ओर नजर गड़ाकर देखें।’’ यह सुनकर करुत्तम्मा चौंक गई। नाव की आड़ में ठीक वही बात हुई थी। उसके मन में उस, समय विरोध की जो भावना उठी थी, वह शायद परम्परा से प्राप्त भवना थी। यदि कोई छाती की ओर या नितम्बों की ओर आँख गड़ाकर देखे तो वह बात समुद्र-माता की सन्तान की मर्यादा के विरुद्ध होगी ही।
‘‘बिटिया मेरी, तू समुद्र में तूफ़ान उठाकर मछुआरों की जीविका नष्ट न कर !’’
करुत्तम्मा डर गई। चक्की ने आगे कहा, ‘‘वह तो विधर्मी है। उसे इन बातों की क्या परवाह होगी !’’
चक्की इस तरह बोल रही थी मानो वह सारी बातें समझ गई हो। उस रात तो करुत्तम्मा को नींद नहीं आई। पंचमी पर, जिसने उसका भेद खोल दिया था,
‘‘तुम्हारा भाग्य।’’
करुत्तम्मा से कोई जवान देते नहीं बना। लेकिन उसने तुरन्त परिस्थिति पर काबू पा लिया। उसने कहा, ‘‘रुपये काफी नहीं है। क्या उधार दे सकते हो ?’’
हाथ खोलकर दिखाते हुए परी ने कहा, ‘‘मेरे पास रुपये कहा हैं ?’’
कुरुत्तम्मा हँस पड़ी और कहा, ‘‘तब अपने को छोटा मोतीलाली कहते क्यों फिरते हो ?’’
‘‘तुम मुझे छोटा मोतीलाल क्यों कहती हो ?’’
‘‘नहीं तो क्या कहकर पुकारू ?’’
‘‘सीधे परीकुट्टी कहकर पुकारा करो !’’
करुत्तम्मा ने ‘परी’ तक कहा और खिलखिलाकर हँस पड़ी। परी ने पूरा नाम कहने का अनुरोध किया। करुत्तम्मा ने हँसी को रोका और गम्भीर भाव से असहमति प्रकट करने के लिए सिर हिला दिया। उसने कहा, ‘‘ऊँ हूँ, मैं नाम लेकर नहीं पुकारूँगी।’’
‘‘तो मैं भी करुत्तम्मा कहकर नहीं पुकारूँगा ?’’
‘‘तो फिर क्या कहकर पुकारोगे ?’’
‘‘मैं तुम्हें बड़ी मल्लाहिन कहकर पुकारूँगा।’’
करुत्तम्मा हँस पड़ी। परीकुट्टी ने भी ठहाका मारा, खूब हँसा। क्यों ? दोनों इस तरह क्यों हँसे ? कौन जाने ! दोनों मानो दिल खोलकर हँसे।
‘‘अच्छा, नाव और जाल खरीदने के बाद नाव में जो मछली आयगी उसे व्यापार के लिए मुझे देने को अपने बप्पा से कहोगी ?’’
‘‘अच्छा दाम दोगे तो मछाली क्यों न मिलेगी ?’’ फिर जोरों से हँसी हुई। भला इससे इतना हँसने की क्या बात थी। कोई मज़ाक था ! कोई भी बात हो, आदमी इस तरह कहीं हँसता है ! हँसते-हँसते करुत्तम्मा की आँखें भर आई थीं। हँसते-हँसते उसने कहा, ‘‘ओह मुझे इस तरह न हँसाओ, मोतलाली !’’
‘‘मुझे भी न हँसाओ, बड़ी मल्लाहिन जी’’ –परीकुट्टी ने कहा।
‘‘बाप रे कैसा आदमी है यह छोटा मोतलाली !’’
दोनों फिर ऐसे हँसे पड़े मानों एक दूसरे को गुदगुदा दिया हो। हँसी भी कैसी चीज़ है ! आदमी को कभी गम्भीर बना देती है, तो कभी रुलाकर छोड़ती है। करुत्तम्मा का चेहरा लाल हो गया था। इसने शिकायत के तौर पर नहीं, गुस्से में कहा, ‘‘मेरी तरफ इस तरह मत ताको !’’ उसकी हँसी खत्म हो चुकी थी। भाव बदल गया था। ऐसा लगा, मानो परीकुट्टी ने अनजाने में कोई गलती कर दी हो।’’
‘‘करुत्तम्मा के मुँह से मिकला। वह अपनी छाती को हाथों से ढकती हुई घूमकर खड़ी हो गई। वह एकाएक सकुचा गई। उसकी कमर में सिर्फ एक लुंगी थी।
‘‘ओह, यह क्या है ? छोटे मोतलाली !’’
इतने में घर से करुत्तम्मा को बुलाने की आवाज़ सुनाई पड़ी। चक्की, उसकी माँ, जो मछली बेचने के लिए पूरब गई थी, लौट आई थी। करुत्तम्मा नाराज होकर चली गई है। वह दुखी हुआ। उधर करुत्तम्मा को भी लगा कि वह परीकुट्टी के ही सामने क्यों, कहीं भी इस तरह नहीं हँसी थी। वह एक अजीब तरह का अनुभव था। कैसी थी वह हँसी ! दम घुटाने वाली छाती फाड़-डालने वाली। करुत्तम्मा को लगा था कि वह नग्न रूप में खड़ी है और एकदम अदृश्य हो जाना चाहती है। ऐसा अनुभव इसके पहले उसे कभी नहीं हुआ था। उस अनुभूति की तीव्रता में दिल को चुभने वाले कड़े शब्द उसके मुँह से निकल गए थे।
करुत्तम्मा का यौवन मानो जाग उठा था और प्रतिक्षण पूर्णत्व की ओर बढ़ रहा था। परी की नजर अचानक जब करुत्तम्मा की छाती पर जा टिकी था तब उसे लगा उसका सारा शरीर सिहर उठा है। क्या इसी से हँसी की शुरूआत हुई थी ? करुत्तम्मा एक ही कपड़ा पहने हुए थी वह भी पतला !
परीकुट्टी को लगा कि करुत्तम्मा नाराज होकर चली गई। उसे भी डर लगा कि करुत्तम्मा फिर उसके पास नहीं आयेगी।
परी ने सोचा कि वह करुत्तम्मा से माँफी माग ले और उससे कह दे कि फिर ऐसी गलती नहीं होगी।
दोनों को एक दूसरे से क्षमा माँगने की ज़रूरत महसूस हुई। करुत्तम्मा जब समुद्र-तट पर सीप बटोरकर खेलने वाली चार-पाँच साल की एक छोटी बच्ची थी तब उसे जो एक छोटा साथी मिला था वह साथी परीकुट्टी ही था। पाजामे के ऊपर पीला कुर्ता पहने, गले में रेशमी रुमाल बाँधे और सिर पर तुर्की टोपी लगाये परीकुट्टी को अपने बाप का हाथ पकड़े समुद्र-तट पर पहले-पहल जैसा उसने देखा था उसे खूब याद था। उसके घर के दक्खिन की तरफ उन लोगों ने डेरा डाला था। अब वह डेरा वहीं पर था। पर अब परीकुट्टी ही वहाँ का व्यापार चलाता था।
समुद्र के किनारे पड़ोस में रहते हुए दोनों बड़े हुए थे।
रसोईघर में बैठी चूल्हा जलाती हुई करुत्तम्मा को एक-एक बात याद हो आई। आग चूल्हे के बाहर जलने लगी। उसी समय माँ आई और करुत्तम्मा की अन्यमनस्कता और बाहर जलने वाली लकड़ी-दोनों को थोड़ी देर तक देखती रही।
तब चक्की ने करुत्तम्मा को एक लात लगा दी। करुत्तम्मा मानो सपने में से चौंक उठी। नाराजगी के साथ चक्की ने पूछा, ‘‘किसके बारे में बैठी-बैठी सोच रही है री ?’’
करुत्तम्मा का भाव देखकर कोई भी उससे ऐसा ही सवाल करता। चक्की का इसमें कोई दोष नहीं था। करुत्तम्मा दूसरी ही दुनिया में थी।
‘‘अम्मा, समुद्र-तट पर रखी हुई उस बड़ी नाव की आड़ में दिदिया खड़ी-खड़ी छोटे मोतलाली के सात हँस रही थी’’- उसकी छोटी बहन पंचमी ने कहा। उसकी बात सुनकर करुत्तम्मा एकदम चौंक गई। वह दोषपूर्ण भेद- जो किसी को नहीं मालूम था, खुल गया। पंचमी नहीं रुकी। उसके आगे कहा, ‘‘ओहो, कैसी हँसी थी अम्मा, कुछ कहा नहीं जा सकता।’’ इतना कहकर वह कुरुत्तम्मा को इशारे से जताती हुई कि उसके पीछे पड़ने का यही नतीजा है, वहाँ से भाग गई।
करुत्तम्मा पंचमी को घर पर छोड़कर नाव की तरफ गई थी। इस कारण पंचमी पडो़स के बच्चों के साथ खेलने के लिए नहीं जा सकी थी। चेम्पन (बाप) का आदेश था कि कभी ऐसा न हो कि घर में एक आदमी भी न रहे। नाव और जाल खरीदने के लिए वह कुछ रुपये बचाकर घर में रखे हुए था। इस कारण पंचमी को घर पर रहना पड़ा था। उसी का उसने करुत्तम्मा से गुस्सा उतारा।
इस तरह की बात सुनकर क्या कोई मां चुप रह सकती है ! चक्की ने करुत्तम्मा से पूछा, अरे मैं क्या सुन रही हूँ ?’’
करुत्तम्मा ने कोई उत्तर नहीं दिया।
‘‘तू क्या करने पर लुती है री ?’’
करुत्तम्मा के लिए जवाब देना जरूरी हो गया। एक जवाब उसे सूझ गया ‘‘यों ही समुद्र तट पर जब गई......’’
‘‘छोटे मोतलाली नाव पर बैठे थे।’’
‘‘उसमें तेरे हँसने की क्या बात थी ?’’
करुत्तम्मा को एक और जवाब सूझा, ‘‘नाव और जाल खरीदने के लिए रुपया जो कम है वह मैं मोतीलाली से माँग रही थी।’’
‘‘अरी उससे रुपये माँगने का तेरा क्या काम था ?’’
‘‘उस, दिन बप्पा और तुम आपस में बातें कर रहे थे कि मोतीलाली से रुपया माँगना है ?’’
वह सब तर्क व्यर्थ था। वह जवाब में कुछ-न-कुछ कहने की करुत्तम्मा की कोशिश-मात्र थी। चक्की ने बेटी को एड़ी से चोटी तक ध्यान से देखा।
चक्की भी उस उम्र से होकर गुज़र चुकी थी। यह भी हो सकता है कि जब चक्की करुत्तम्मा की उम्र की थी तब तट पर डेरा डाले कुछ मोतलाली लोग भी रहते होंगे। उन्होंने भी किनारे पर रखी नाव की आड़ में चक्की के मन को गुदगुगदाकर उसे हँसाया होगा। लेकिन चक्की एक ऐसी मल्लाहिन थी, जो उसी समुद्र-तट पर जन्म लेकर बड़ी हुई थी। इसलिए वह वहाँ को परम्परागत तत्त्वज्ञान की अधिकारिणी थी।
प्रथम मल्लाह जब पहले-पहल लकड़ी के एक टुकड़े पर चढ़कर समुद्र की लहरों और ज्वार-भाटे का अतिक्रमण करके क्षितिज के उस पार गया तब उसकी पत्नी ने तट पर व्रत-निष्ठा के साथ पश्चिम की ओर देखकर खड़े-खड़े तपस्या की। समुद्र में तूफान उठा शार्क मुँह बाये नाव के पास पहुँचे, ह्वेल ने नाव को पूँछ से मारा और जल की अन्तर-धारा ने नाव को एक भँवर में खींच लिया। लेकिन आश्चर्यजनक रीति से वह मल्लाह सब संकटों से बचाकर एक बड़ी मछली के साथ किनारे पर लौट आया। उस तूफान के खतरों से वह कैसे बचा ? शार्क उसे क्यों नहीं निगल गया ? ह्वेल की मार से उसकी नाव क्यों डूब गई। भँवर से उसकी नाव कैसे निकल आई ? यह सब कैसे हुआ ? समुद्र-तट पर खड़ी उस पतिव्रता नारी की तपस्या का ही वह फल था।’
समुद्र-माता की पुत्रियों ने इस तपश्चर्या का पाठ पढ़ा चक्की को भी इस, तत्त्व-ज्ञान की सीख मिली थी। यह भी सम्भव हो सकता है कि जब चक्की एक नवयुवती थी तब एक मोतलाली ने उसे भी आँख गड़ाकर देखा होगा और चक्की की माँ ने उस समय उसको भी समुद्र-माता की पुत्रियों की तपश्चर्या की कहानी और जीवन का तत्त्व-ज्ञान समझाया होगा।
चक्की ने करुत्तम्मा की गलती समझी हो या नहीं उससे आगे कहा, ‘‘बिटिया अब तू छोटी बच्ची नहीं है। एक मल्लाहिन हो गयी है।’’ परीकुट्टी के शब्द ‘बड़ी मल्लाहिन’ करुत्तम्मा के कानों में गूँज गये।
चक्की ने आगे कहा, ‘‘इस महासागर में सब कुछ है बिटिया, सब कुछ। इसमें जाने वाले लोग कैसे लौटकर आते हैं यह तुझे क्या मालूम ! तट पर उनकी स्त्रियों के पवित्रता से रहने से ही यह होता है। वे पवित्रता का पालन न करें तो मल्लाह नाव सहित भँवर में पड़कर खत्म हो जाए। मछुआरों का जीवन वास्तव में में तट पर रहने वाली उनकी स्त्रियों के हाथ में ही है।’’
यह पहला अवसर नहीं था जब कि करुत्तम्मा ने उपयुक्त आशय की बात सुनी हो। जहाँ चार मल्लाहिन इकट्ठी होती हैं वहां इन शब्दों को दुहराना मामूली बात थी।
फिर भी परीकुट्टी के साथ हँसने में क्या गलती हुई थी ? किसी मछुआरे का जीवन उसे सौंपा तो गया नहीं था। जब सौंपा जाएगा तब उसकी रक्षा वह ज़रूर करेगी। कैसे करना है यह भी उसे मालूम था। मल्लाहिनों को यह बात किसी से सीखने की ज़रूरत नहीं है।
चक्की ने आगे कहा, ‘‘क्या तुझे मालूम है कि यह समुद्र कभी-कभी क्यों रंग बदलता है ? समुद्र-माता क्रोध आ जाने पर एक साथ सब नष्ट कर डालती है। नहीं तो अपनी सन्तान के लिए सब-कुछ देती है। उसमें सोने की खान है बेटी, सोने की खान।’’ चक्की ने बेटी को फिर एक बड़ा उपदेश दिया, ‘‘पवित्रता ही सबसे बड़ी चीज़ है, बेटी ! मल्लाह की असली सम्पत्ति मल्लाहिन की पवित्रता ही है। कभी-कभी छोटे मोतलाली लोग समुद्र-तट को अपवित्र कर देते हैं। पूर्व से स्त्रियाँ झिंगी पीटने और सूखी मछली को बोरों में भरने के लिए आया करती हैं और वह तट को अपवित्र कर देती हैं। समुद्र-तट की पवित्रता का महत्त्व उन्हें क्या मालूम ! वे समुद्र-माता की सन्तान तो हैं नहीं। लेकिन उसका फल भोगना पड़ता है मछुआरों को। ...तट पर रखी हुई नावों की आड़ और यहाँ की झाड़ियां बहुत खतरनाक जगह हैं वहां सतर्क रहने की जरूरत है।’’
इतना कहकर चक्की ने बेटी को गम्भीरतापूर्वक सावधान किया, ‘‘तेरी अब उम्र हो गई है। छाती भर आई है। चेहरा-मोहरा सब हृष्ट-पुष्ट है। हो सकता है, छोटे मोतलाली लोग और दूसरे नासमझ लोग जवान लड़के तेरी ओर नजर गड़ाकर देखें।’’ यह सुनकर करुत्तम्मा चौंक गई। नाव की आड़ में ठीक वही बात हुई थी। उसके मन में उस, समय विरोध की जो भावना उठी थी, वह शायद परम्परा से प्राप्त भवना थी। यदि कोई छाती की ओर या नितम्बों की ओर आँख गड़ाकर देखे तो वह बात समुद्र-माता की सन्तान की मर्यादा के विरुद्ध होगी ही।
‘‘बिटिया मेरी, तू समुद्र में तूफ़ान उठाकर मछुआरों की जीविका नष्ट न कर !’’
करुत्तम्मा डर गई। चक्की ने आगे कहा, ‘‘वह तो विधर्मी है। उसे इन बातों की क्या परवाह होगी !’’
चक्की इस तरह बोल रही थी मानो वह सारी बातें समझ गई हो। उस रात तो करुत्तम्मा को नींद नहीं आई। पंचमी पर, जिसने उसका भेद खोल दिया था,
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