भाषा एवं साहित्य >> यशपाल रचना संचयन यशपाल रचना संचयनयशपाल
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इसमें यशपाल के द्वारा लिखे गये पत्रों का संकलन प्रस्तुत किया गया है....
Yashpal rachana sanchayan
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यशपाल के लेखन की प्रमुख विधा उपन्यास है, लेकिन अपने लेखन की शुरूआत उन्होने कहानियों से ही की। उनकी कहानियाँ अपने समय की राजनीति से उस रूप में आक्रांत नहीं हैं, जैसे उनके उपन्यास। नई कहानी के दौर में स्त्री के देह और मन के कृत्रिम विभाजन के विरुद्ध एक संपूर्ण स्त्री की जिस छवि पर जोर दिया गया, उसकी वास्तविक शुरूआत यशपाल से ही होती है। आज की कहानी के सोच की जो दिशा है, उसमें यशपाल की कितनी ही कहानियाँ बतौर खाद इस्तेमाल हुई है। वर्तमान और आगत कथा-परिदृश्य की संभावनाओं की दृष्टि से उनकी सार्थकता असंदिग्ध है। उनके कहानी-संग्रहों में पिंजरे की उड़ान, ज्ञानदान, भस्मावृत्त चिनगारी, फूलों का कुर्ता, धर्मयुद्ध, तुमने क्यों कहा था मैं सुन्दर हूँ और उत्तमी की माँ प्रमुख हैं।
जो और जैसी दुनिया बनाने के लिए यशपाल सक्रिय राजनीति से साहित्य की ओर आए थे, उसका नक्शा उनके आगे शुरू से बहुत कुछ स्पष्ट था। उन्होंने किसी युटोपिया की जगह व्यवस्था की वास्तविक उपलब्धियों को ही अपना आधार बनाया था। यशपाल की वैचारिक यात्रा में यह सूत्र शुरू से अंत तक सक्रिय दिखाई देता है कि जनता का व्यापक सहयोग और सक्रिय भागीदारी ही किसी राष्ट्र के निर्माण और विकास के मुख्य कारक हैं। यशपाल हर जगह जनता के व्यापक हितों के समर्थक और संरक्षक लेखक हैं। अपनी पत्रकारिता और लेखन-कर्म को जब यशपाल ‘बुलेट की जगह बुलेटिन’ के रूप में परिभाषित करते हैं तो एक तरह से वे अपने रचनात्मक सरोकारों पर ही टिप्पणी कर रहे होते हैं। ऐसे दुर्धर्ष लेखक के प्रतिनिधि रचनाकर्म का यह संचयन उसे संपूर्णता में जानने-समझने के लिए प्रेरित करेगा, ऐसा हमारा विश्वास है।
जो और जैसी दुनिया बनाने के लिए यशपाल सक्रिय राजनीति से साहित्य की ओर आए थे, उसका नक्शा उनके आगे शुरू से बहुत कुछ स्पष्ट था। उन्होंने किसी युटोपिया की जगह व्यवस्था की वास्तविक उपलब्धियों को ही अपना आधार बनाया था। यशपाल की वैचारिक यात्रा में यह सूत्र शुरू से अंत तक सक्रिय दिखाई देता है कि जनता का व्यापक सहयोग और सक्रिय भागीदारी ही किसी राष्ट्र के निर्माण और विकास के मुख्य कारक हैं। यशपाल हर जगह जनता के व्यापक हितों के समर्थक और संरक्षक लेखक हैं। अपनी पत्रकारिता और लेखन-कर्म को जब यशपाल ‘बुलेट की जगह बुलेटिन’ के रूप में परिभाषित करते हैं तो एक तरह से वे अपने रचनात्मक सरोकारों पर ही टिप्पणी कर रहे होते हैं। ऐसे दुर्धर्ष लेखक के प्रतिनिधि रचनाकर्म का यह संचयन उसे संपूर्णता में जानने-समझने के लिए प्रेरित करेगा, ऐसा हमारा विश्वास है।
भूमिका
यशपाल के रचनात्मक विकास में उनके बचपन में भोगी गई ग़रीबी की एक विशिष्ट भूमिका थी। उनका जन्म 3 दिसंबर, 1903 को पंजाब में, फ़ीरोज़पुर छावनी में एक साधारण खत्री परिवार में हुआ था। उनकी माँ श्रीमती प्रेमदेवी वहाँ अनाथालय के एक स्कूल में अध्यापिका थीं। यशपाल के पिता हीरालाल एक साधारण कारोबारी व्यक्ति थे। उनका पैतृक गाँव रंघाड़ था, जहाँ कभी उनके पूर्वज हमीरपुर से आकर बस गए थे। पिता की एक छोटी-सी दुकान थी और उनके व्यवसाय के कारण ही लोग उन्हें ‘लाला’ कहते-पुकारते थे। बीच-बीच में वे घोड़े पर सामान लादकर फेरी के लिए आस-पास के गाँवों में भी जाते थे। अपने व्यवसाय से जो थोड़ा-बहुत पैसा उन्होंने इकट्ठा किया था उसे वे, बिना किसी पुख़्ता लिखा-पढ़ी के, हथ उधारू तौर पर सूद पर उठाया करते थे। अपने परिवार के प्रति उनका ध्यान नहीं था। इसीलिए यशपाल की माँ अपने दो बेटों—यशपाल और धर्मपाल—को लेकर फ़िरोज़पुर छावनी में आर्य समाज के एक स्कूल में पढ़ाते हुए अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के बारे में कुछ अधिक ही सजग थीं। यशपाल के विकास में ग़रीबी के प्रति तीखी घृणा आर्य समाज और स्वाधीनता आंदोलन के प्रति उपजे आकर्षण के मूल में उनकी माँ और इस परिवेश की एक निर्णायक भूमिका रही है।
अपने बचपन में यशपाल ने अंग्रेज़ों के आतंक और विचित्र व्यवहार की अनेक कहानियाँ सुनी थीं। बरसात या धूप से बचने के लिए कोई हिन्दुस्तानी अंग्रेज़ों के सामने छाता लगाए नहीं गुज़र सकता था। बड़े शहरों और पहाड़ों पर मुख्य सड़कें उन्हीं के लिए थीं, हिन्दुस्तानी इन सड़कों के नीचे बनी कच्ची सड़क पर चलते थे। यशपाल ने अपने होश में इन बातों को सिर्फ़ सुना, देखा नहीं, क्योंकि तब तक अंग्रेज़ों की प्रभुता को अस्वीकार करनेवाले क्रांतिकारी आंदोलन की चिंगारियाँ जगह-जगह फूटने लगी थीं। लेकिन फिर भी अपने बचपन में यशपाल ने जो भी कुछ देखा, वह अंग्रेज़ों के प्रति घृणा भर देने को काफ़ी था। वे लिखते हैं, ‘‘मैंने अंग्रेज़ों को सड़क पर सर्व साधारण जनता से सलामी लेते देखा है। हिन्दुस्तानियों को उनके सामने गिड़गिड़ाते देखा है, इससे अपना अपमान अनुमान किया है और उसके प्रति विरोध अनुभव किया...’ (सिंहावलोकन-1, संस्करण 1956, पृ. 42)
अंग्रेज़ों और प्रकारांतर से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपनी घृणा के संदर्भ में यशपाल अपने बचपन की दो घटनाओं का उल्लेख विशेष रूप से करते हैं। इनमें से पहली घटना उनके चार-पाँच वर्ष की आयु की है। तब उनके एक संबंधी युक्तप्रांत के किसी क़स्बे में कपास ओटने के कारख़ाने में मैनेजर थे। कारख़ाना स्टेशन के पास ही काम करने वाले अंग्रेज़ों के दो-चार बँगले थे। आस-पास ही इन लोगों का खूब आतंक था। इनमें से एक बँगले में मुर्ग़ियाँ पली थीं, जो आस-पास की सड़क पर घूमती-फिरती थीं। एक शाम यशपाल उन मुर्ग़ियों से छेड़खानी करने लगे। बँगले में रहनेवाली मेम साहिबा ने इस हरक़त पर बच्चों के फटकार दिया। शायद ‘गधा’ या ‘उल्लू’ जैसी कोई गाली भी दी। चार-पाँच वर्ष के बालक यशपाल ने भी उसकी गाली का प्रत्युत्तर गाली से ही दिया। जब उस स्त्री ने उन्हें मारने की धमकी दी, तो उन्होंने भी उसे वैसे ही धमकाते हुए जवाब दिया और फिर भागकर कारख़ाने में छिप गए। लेकिन घटना यूँ ही टाल दी जानेवाली नहीं थी। इसकी शिकायत उनके संबंधी से की गई। उन्होंने यशपाल की माँ से शिकायत की और अनेक आशंकाओं और आतंक के बीच यह भी बताया कि इससे पूरे कारख़ाने के लोगों पर कैसा संकट आ सकता है। फिर इसके परिणाम का उल्लेख करते हुए यशपाल लिखते हैं, ‘मेरी माँ ने एक छड़ी लेकर मुझे ख़ूब पीटा मैं ज़मीन पर लोट-पोट गया परंतु पिटाई जारी रही। इस घटना के परिणाम से मेरे मन में अंग्रेज़ों के प्रति कैसी भावना उत्पन्न हुई होगी, यह भाँप लेना कठिन नहीं है।...’ (वही, पृ.43)
दूसरी घटना कुछ इसके बाद की है। तब यशपाल की माँ युक्तप्रांत में ही नैनीताल ज़िले में तिराई के क़स्बे काशीपुर में आर्य कन्या पाठशाला में मुख्याध्यापिका थीं। शहर से काफ़ी दूर, कारखा़ने से ही संबंधी को बड़ा-सा आवास मिला था और यशपाल की माँ भी वहीं रहती थी। घर के पास ही ‘द्रोण सागर’ नामक एक तालाब था। घर की स्त्रियाँ प्रायः ही वहाँ दोपहर में घूमने चली जाती थीं। एक दिन वे स्त्रियाँ वहाँ नहा रही थीं कि उसके दूसरी ओर दो अंग्रेज़ शायद फ़ौजी गोरे, अचानक दिखाई दिए। स्त्रियाँ उन्हें देखकर भय से चीख़ने लगीं और आत्मरक्षा में एक-दूसरे से लिपटते हुए, भयभीत होकर उसी अवस्था में अपने कपड़े उठाकर भागने लगीं। यशपाल भी उनके साथ भागे। घटित कुछ विशेष नहीं हुआ लेकिन अंग्रेज़ों से इस तरह डरकर भागने का दृश्य स्थायी रूप से उनकी बाल-स्मृति में टँक गया...‘अंग्रेज़ से वह भय ऐसा ही था जैसे बकरियों के झुंड को बाघ देख लेने से भय लगता होगा अर्थात् अंग्रेज़ कुछ भी कर सकता था। उससे डरकर रोने और चीख़ने के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं था...’ (वही, पृ.44)
आर्य समाज और कांग्रेस वे पड़ाव थे जिन्हें पार करके यशपाल अंततः क्रांतिकारी संगठन की ओर आए। उनकी माँ उन्हें स्वामी दयानंद के आदर्शों का एक तेजस्वी प्रचारक बनाना चाहती थीं। इसी उद्देश्य से उनकी आरंभिक शिक्षा गुरुकुल कांगड़ी में हुई। आर्य समाजी दमन के विरुद्ध उग्र प्रतिक्रिया के बीज उनके मन की धरती पर यहीं पड़े। यहीं उन्हें पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियों को भी निकट से देखने-समझने का अवसर मिला। अपनी निर्धनता का कचोट-भरा अनुभव भी उन्हें यहीं हुआ। अपने बचपन में भी ग़रीब होने के अपराध के प्रति वे अपने को किसी प्रकार उत्तरदायी नहीं समझ पाते। इन्हीं संस्कारों के कारण वे ग़रीब के अपमान के प्रति कभी उदासीन नहीं हो सके।
कांग्रेस यशपाल का दूसरा पड़ाव थी। अपने दौर के अनेक दूसरे लोगों की तरह वे भी कांग्रेस के माध्यम से ही राजनीति में आए। राजनैतिक दृष्टि से फ़िरोज़पुर छावनी एक शांत जगह थी। छावनी से तीन मील दूर शहर के लेक्चर और जलसे होते रहते थे। खद्दर का प्रचार भी होता था। 1921 में, असहयोग आंदोलन के समय यशपाल अठारह वर्ष के नवयुवक थे—देश-सेवा और राष्ट्रभक्ति के उत्साह से भरपूर, विदेशी कपड़ों की होली के साथ वे कांग्रेस के प्रचार-अभियान में भी भाग लेते थे। घर के ही लुग्गड़ से बने खद्दर के कुर्त्ता-पायजामा और गांधी टोपी पहनते थे। इसी खद्दर का एक कोट भी उन्होंने बनवाया था। बार-बार मैला हो जाने से ऊबकर उन्होंने उसे लाल रँगवा लिया था। इस काल में अपने भाषणों में, ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी आँकड़ों के स्रोत के रूप में, वे देश-दर्शन नामक जिस पुस्तक का उल्लेख करते हैं वह संभवतः 1904 में प्रकाशित सखाराम गणेश देउस्कर की बाङ्ला पुस्तक देशेरकथा है, भारतीय जन-मानस पर जिसकी छाप व्यापक प्रतिक्रिया और लोकप्रियता के कारण ब्रिटिश सरकार ने जिस पर पाबंदी लगा दी थी।
महात्मा गाँधी और गाँधीवाद से यशपाल के तात्कालिक मोहभंग का कारण भले ही 12 फ़रवरी सन् 22 को, चौरा-चौरी काण्ड के बाद महात्मा गाँधी द्वारा आंदोलन के स्थगन की घोषणा रहा हो, लेकिन इसकी शुरुआत और पहले हो चुकी थी। यशपाल और उनके क्रांतिकारी साथियों का सशस्त्र क्रांति का जो एजेंडा था, गाँधी का अहिंसा का सिद्धांत उसके विरोध में जाता था। महात्मा गाँधी द्वारा धर्म और राजनीति का घाल-मेल उन्हें कहीं बुनियादी रूप से ग़लत लगता था। मैट्रिक के बाद लाहौर आने पर यशपाल नेशनल कॉलेज में भगतसिंह, सुखदेव और भगवतीचरण बोहरा के संपर्क में आए। नौजवान भारत सभा की गतिविधियों में उनकी व्यापक और सक्रिय हिस्सेदारी वस्तुतः गाँधी और गाँधीवाद से उनके मोहभंग का ही एक अनिवार्य परिणाम थी। नौजवान भारत सभा के मुख्य सूत्राधार भगवतीचरण और भगत सिंह थे।
इसके लक्ष्यों पर टप्पणी करते हुए यशपाल लिखते हैं, ‘नौजवान भारत सभा का कार्यक्रम गाँधीवादी कांग्रेस की समझौतावादी नीति की आलोचना करके जनता को उस राजनैतिक कार्यक्रम की प्रेरणा देना और जनता में क्रांतिकारियों और महात्मा गाँधी तथा गाँधीवादियों के बीच एक बुनियादी अंतर की ओर संकेत करना उपयोगी होगा। लाला लाजपतराय की हिन्दूवादी नीतियों से घोर विरोध के बावजूद उनपर हुए लाठी चार्ज के कारण, जिससे ही अंततः उनकी मृत्यु हुई, भगतसिंह और उनके साथियों ने सांडर्स की हत्या की। इस घटना को उन्होंने एक राष्ट्रीय अपमान के रूप में देखा जिसके प्रतिरोध के लिए आपसी मतभेदों को भुला देना जरूरी था। भगतसिंह द्वारा असेम्बली में बम-कांड इसी सोच की एक तार्किक परिणति थी, लेकिन भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की फाँसी के विरोध में महात्मा गाँधी ने जनता की ओर से व्यापक दबाव के बावजूद, कोई औपचारिक अपील तक जारी नहीं की।
अपने क्रांतिकारी जीवन के जो संस्मरण यशपाल ने सिंहावलोकन में लिखे, उनमें अपनी दृष्टि से उन्होंने उस आंदोलन और अपने साथियों का मूल्यांकन किया। तार्किकता, वास्तविकता और विश्वसनीयता पर उन्होंने हमेशा ज़ोर दिया है। यह संभव है कि उस मूल्यांकन से बहुतों को असहमति हो या यशपाल पर तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने का आरोप हो। आज भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो यशपाल को बहुत अच्छा क्रांतिकारी नहीं मानते। उनके क्रांतिकारी जीवन के प्रसंग में उनके चरित्रहनन की दुरभसंधियों को ही वे पूरी तरह सच मानकर चलते हैं और शायद इसीलिए यशपाल की ओर मेरी निरंतर और बार-बार वापसी को वे ‘रेत की मूर्ति’ गढ़ने-जैसा कुछ मानते हैं।
‘क्रांति’ को भी वे बम-पिस्तौलवाली राजनीति क्रांति तक ही सीमित करके देखते हैं। राजनीतिक क्रांति यशपाल के लिए सामाजिक व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन का ही एक हिस्सा थी। साम्राज्यवाद को वे एक शोषणकारी व्यवस्था के रूप में देखते थे, जो भगतसिंह के शब्दों में, ‘मनुष्य के हाथों मनुष्य के और राष्ट्र के हाथों राष्ट्र के शोषण का चरम रूप है’..(भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज (सं.) जगमोहन और चमनलाल, संस्करण ’19, पृ.321) इस व्यवस्था के आधार स्तंभ-जागीरदारी और ज़मींदारी व्यवस्था भी उसी तरह उनके विरोध के मुख्य एजेंडे के अंतर्गत आते थे। देश में जिस रूप में स्वाधीनता आई, और बहुतों की तरह, वे भी संतुष्ट नहीं थे। स्वाधीनता से अधिक वे इसे सत्ता का हस्तांतरण मानते थे। और यह लगभग वैसा ही था जिसे कभी प्रेमचंद ने जॉन की जगह गोविंद को गद्दी पर बैठ जाने के रूप में अपनी आशंका व्यक्त की थी।
क्रांतिकारी रष्ट्र भक्ति और बलिदान की भावना से प्रेरित-संचालित युवक थे। अवसर आने पर उन्होंने हमेशा बलिदान से इसे प्रमाणित भी किया। लेकिन यशपाल अपने साथियों को ईर्ष्या-द्वेष, स्पर्धा-आकांक्षावाले साधारण मनुष्यों के रूप में देखे जाने पर बल देते हैं। अपने संस्मरणों में आज राजेन्द्र यादव जिसे आदर्श घोषित करते हैं—‘वे देवता नहीं हैं’—उसकी शुरुआत हिन्दी में वस्तुतः यशपाल के इन्हीं संस्मरणों से होती है। ये क्रांतिकारी सामान्य मनुष्यों से कुछ अलग, विशिष्ठ और अपने लक्ष्यों के लिए एकांतिक रूप से समर्पित होने पर भी सामान्य मानवीय अनुभूतियों से अछूते नहीं थे। हो भी सकते थे। शरतचंद्र ने पथेरदावी में क्रांतिकारियों का जो आदर्श रूप प्रस्तुत किया, यशपाल उसे आवास्तविक मानते थे, जिससे राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा मिलती हो, उसे क्रांतिकारी आंदोलन और उस जीवन को वास्तविकता का एक प्रतिनिधि और प्रामाणिक चित्र नहीं माना जा सकता। सुबोधचंद्र सेन गुप्त पथेरदावी में बिजली पानीवाली झंझावाती रात में सव्यसाची के निषक्रमण को भावी महानायक सुभाषचंद्र बोस के पलायन के एक रूपक के तौर पर देखते हैं, जबकि यशपाल सव्यसाची के अतिमानवीय से लगने वाले कार्य-कलापों और खोह-खंडहरों में बिताए जानेवाले जीवन को वास्तविक और प्रामाणिक नहीं मानते। क्रांतिकारी जीवन के अपने लंबे अनुभवों को ही वे अपनी इस आलोचना के मुख्य आधार के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
2, मार्च सन् 38 को जेल से रिहाई के बाद, जब उसी वर्ष नवंबर में यशपाल ने विप्लव का प्रकाशन-संपादन शुरू किया तो अपने इस काम को उन्होंने ‘बुलेट बुलेटिन’ के रूप में परिभाषित किया। जिस अहिंसक और समतामूलक समाज का निर्माण वे राजनीतिक क्रांतिकारी के माध्यम से करना चाहते थे, उसी अधूरे काम को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने लेखन को अपना आधार बनाया। अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं के केन्द्र में रखकर लिखे गए साहित्य को प्रायः हमेशा ही विचारवादी कहकर लांछित किया जाता है। नंद दुलारे वाजपेयी का प्रेमचंद के विरुद्ध बड़ा आरोप यही था। अपने ऊपर लगाए गए प्रचार के आरोप का यशपाल ने उत्तर भी लगभग प्रेमचंद की ही तरह दिया।
अपने पहले उपन्यास दादा कॉमरेड की भूमिका में उन्होंने लिखा, ‘कला के प्रेमियों को एक शिकायत मेरे प्रति है कि (मैं) कला को गौण और प्रचार को प्रमुख स्थान देता हूँ। मेरे प्रति दिए गए इस फ़ैसले के विरुद्ध मुझे अपील नहीं करनी। संतोष है अपना अभिप्राय स्पष्ट कर पाता हूं...(दादा कॉमरेड, संस्करण’ 59, पृ.4) अपने लेखकीय सरोकारों पर और विस्तार से टिप्पणी करते हुए बाद में उन्होंने लिखा, ‘मनुष्य के पूर्ण विकास और मुक्ति के लिए संघर्ष करना ही लेखक की सार्थकता है। जब लेखक अपनी कला के माध्यम से मनुष्य की मुक्ति के लिए पुरानी व्यवस्था और विचारों में अंतर्विरोध दिखाता है और नए आदर्श सामने रखता है तो उस पर आदर्शहीन और भौतिकवादी होने का लांछन लगाया जाता है। आज के लेखक की जड़ें वास्तविकता में हैं, इसलिए वह भौतिकवादी तो है ही परंतु वह आदर्शहीन भी नहीं है। उसके आदर्श अधिक यथार्थ हैं। आज का लेखक जब अपनी कला द्वारा नए आदर्शों का समर्थन करता है तो उस पर प्रचारक होने का लांछन लगाया जाता है। लेखक सदा ही अपनी कला से किसी विचार या आदर्श के प्रति सहानुभूति या विरोध पैदा करता है। साहित्य विचारपूर्ण होगा।
अपने बचपन में यशपाल ने अंग्रेज़ों के आतंक और विचित्र व्यवहार की अनेक कहानियाँ सुनी थीं। बरसात या धूप से बचने के लिए कोई हिन्दुस्तानी अंग्रेज़ों के सामने छाता लगाए नहीं गुज़र सकता था। बड़े शहरों और पहाड़ों पर मुख्य सड़कें उन्हीं के लिए थीं, हिन्दुस्तानी इन सड़कों के नीचे बनी कच्ची सड़क पर चलते थे। यशपाल ने अपने होश में इन बातों को सिर्फ़ सुना, देखा नहीं, क्योंकि तब तक अंग्रेज़ों की प्रभुता को अस्वीकार करनेवाले क्रांतिकारी आंदोलन की चिंगारियाँ जगह-जगह फूटने लगी थीं। लेकिन फिर भी अपने बचपन में यशपाल ने जो भी कुछ देखा, वह अंग्रेज़ों के प्रति घृणा भर देने को काफ़ी था। वे लिखते हैं, ‘‘मैंने अंग्रेज़ों को सड़क पर सर्व साधारण जनता से सलामी लेते देखा है। हिन्दुस्तानियों को उनके सामने गिड़गिड़ाते देखा है, इससे अपना अपमान अनुमान किया है और उसके प्रति विरोध अनुभव किया...’ (सिंहावलोकन-1, संस्करण 1956, पृ. 42)
अंग्रेज़ों और प्रकारांतर से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपनी घृणा के संदर्भ में यशपाल अपने बचपन की दो घटनाओं का उल्लेख विशेष रूप से करते हैं। इनमें से पहली घटना उनके चार-पाँच वर्ष की आयु की है। तब उनके एक संबंधी युक्तप्रांत के किसी क़स्बे में कपास ओटने के कारख़ाने में मैनेजर थे। कारख़ाना स्टेशन के पास ही काम करने वाले अंग्रेज़ों के दो-चार बँगले थे। आस-पास ही इन लोगों का खूब आतंक था। इनमें से एक बँगले में मुर्ग़ियाँ पली थीं, जो आस-पास की सड़क पर घूमती-फिरती थीं। एक शाम यशपाल उन मुर्ग़ियों से छेड़खानी करने लगे। बँगले में रहनेवाली मेम साहिबा ने इस हरक़त पर बच्चों के फटकार दिया। शायद ‘गधा’ या ‘उल्लू’ जैसी कोई गाली भी दी। चार-पाँच वर्ष के बालक यशपाल ने भी उसकी गाली का प्रत्युत्तर गाली से ही दिया। जब उस स्त्री ने उन्हें मारने की धमकी दी, तो उन्होंने भी उसे वैसे ही धमकाते हुए जवाब दिया और फिर भागकर कारख़ाने में छिप गए। लेकिन घटना यूँ ही टाल दी जानेवाली नहीं थी। इसकी शिकायत उनके संबंधी से की गई। उन्होंने यशपाल की माँ से शिकायत की और अनेक आशंकाओं और आतंक के बीच यह भी बताया कि इससे पूरे कारख़ाने के लोगों पर कैसा संकट आ सकता है। फिर इसके परिणाम का उल्लेख करते हुए यशपाल लिखते हैं, ‘मेरी माँ ने एक छड़ी लेकर मुझे ख़ूब पीटा मैं ज़मीन पर लोट-पोट गया परंतु पिटाई जारी रही। इस घटना के परिणाम से मेरे मन में अंग्रेज़ों के प्रति कैसी भावना उत्पन्न हुई होगी, यह भाँप लेना कठिन नहीं है।...’ (वही, पृ.43)
दूसरी घटना कुछ इसके बाद की है। तब यशपाल की माँ युक्तप्रांत में ही नैनीताल ज़िले में तिराई के क़स्बे काशीपुर में आर्य कन्या पाठशाला में मुख्याध्यापिका थीं। शहर से काफ़ी दूर, कारखा़ने से ही संबंधी को बड़ा-सा आवास मिला था और यशपाल की माँ भी वहीं रहती थी। घर के पास ही ‘द्रोण सागर’ नामक एक तालाब था। घर की स्त्रियाँ प्रायः ही वहाँ दोपहर में घूमने चली जाती थीं। एक दिन वे स्त्रियाँ वहाँ नहा रही थीं कि उसके दूसरी ओर दो अंग्रेज़ शायद फ़ौजी गोरे, अचानक दिखाई दिए। स्त्रियाँ उन्हें देखकर भय से चीख़ने लगीं और आत्मरक्षा में एक-दूसरे से लिपटते हुए, भयभीत होकर उसी अवस्था में अपने कपड़े उठाकर भागने लगीं। यशपाल भी उनके साथ भागे। घटित कुछ विशेष नहीं हुआ लेकिन अंग्रेज़ों से इस तरह डरकर भागने का दृश्य स्थायी रूप से उनकी बाल-स्मृति में टँक गया...‘अंग्रेज़ से वह भय ऐसा ही था जैसे बकरियों के झुंड को बाघ देख लेने से भय लगता होगा अर्थात् अंग्रेज़ कुछ भी कर सकता था। उससे डरकर रोने और चीख़ने के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं था...’ (वही, पृ.44)
आर्य समाज और कांग्रेस वे पड़ाव थे जिन्हें पार करके यशपाल अंततः क्रांतिकारी संगठन की ओर आए। उनकी माँ उन्हें स्वामी दयानंद के आदर्शों का एक तेजस्वी प्रचारक बनाना चाहती थीं। इसी उद्देश्य से उनकी आरंभिक शिक्षा गुरुकुल कांगड़ी में हुई। आर्य समाजी दमन के विरुद्ध उग्र प्रतिक्रिया के बीज उनके मन की धरती पर यहीं पड़े। यहीं उन्हें पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियों को भी निकट से देखने-समझने का अवसर मिला। अपनी निर्धनता का कचोट-भरा अनुभव भी उन्हें यहीं हुआ। अपने बचपन में भी ग़रीब होने के अपराध के प्रति वे अपने को किसी प्रकार उत्तरदायी नहीं समझ पाते। इन्हीं संस्कारों के कारण वे ग़रीब के अपमान के प्रति कभी उदासीन नहीं हो सके।
कांग्रेस यशपाल का दूसरा पड़ाव थी। अपने दौर के अनेक दूसरे लोगों की तरह वे भी कांग्रेस के माध्यम से ही राजनीति में आए। राजनैतिक दृष्टि से फ़िरोज़पुर छावनी एक शांत जगह थी। छावनी से तीन मील दूर शहर के लेक्चर और जलसे होते रहते थे। खद्दर का प्रचार भी होता था। 1921 में, असहयोग आंदोलन के समय यशपाल अठारह वर्ष के नवयुवक थे—देश-सेवा और राष्ट्रभक्ति के उत्साह से भरपूर, विदेशी कपड़ों की होली के साथ वे कांग्रेस के प्रचार-अभियान में भी भाग लेते थे। घर के ही लुग्गड़ से बने खद्दर के कुर्त्ता-पायजामा और गांधी टोपी पहनते थे। इसी खद्दर का एक कोट भी उन्होंने बनवाया था। बार-बार मैला हो जाने से ऊबकर उन्होंने उसे लाल रँगवा लिया था। इस काल में अपने भाषणों में, ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी आँकड़ों के स्रोत के रूप में, वे देश-दर्शन नामक जिस पुस्तक का उल्लेख करते हैं वह संभवतः 1904 में प्रकाशित सखाराम गणेश देउस्कर की बाङ्ला पुस्तक देशेरकथा है, भारतीय जन-मानस पर जिसकी छाप व्यापक प्रतिक्रिया और लोकप्रियता के कारण ब्रिटिश सरकार ने जिस पर पाबंदी लगा दी थी।
महात्मा गाँधी और गाँधीवाद से यशपाल के तात्कालिक मोहभंग का कारण भले ही 12 फ़रवरी सन् 22 को, चौरा-चौरी काण्ड के बाद महात्मा गाँधी द्वारा आंदोलन के स्थगन की घोषणा रहा हो, लेकिन इसकी शुरुआत और पहले हो चुकी थी। यशपाल और उनके क्रांतिकारी साथियों का सशस्त्र क्रांति का जो एजेंडा था, गाँधी का अहिंसा का सिद्धांत उसके विरोध में जाता था। महात्मा गाँधी द्वारा धर्म और राजनीति का घाल-मेल उन्हें कहीं बुनियादी रूप से ग़लत लगता था। मैट्रिक के बाद लाहौर आने पर यशपाल नेशनल कॉलेज में भगतसिंह, सुखदेव और भगवतीचरण बोहरा के संपर्क में आए। नौजवान भारत सभा की गतिविधियों में उनकी व्यापक और सक्रिय हिस्सेदारी वस्तुतः गाँधी और गाँधीवाद से उनके मोहभंग का ही एक अनिवार्य परिणाम थी। नौजवान भारत सभा के मुख्य सूत्राधार भगवतीचरण और भगत सिंह थे।
इसके लक्ष्यों पर टप्पणी करते हुए यशपाल लिखते हैं, ‘नौजवान भारत सभा का कार्यक्रम गाँधीवादी कांग्रेस की समझौतावादी नीति की आलोचना करके जनता को उस राजनैतिक कार्यक्रम की प्रेरणा देना और जनता में क्रांतिकारियों और महात्मा गाँधी तथा गाँधीवादियों के बीच एक बुनियादी अंतर की ओर संकेत करना उपयोगी होगा। लाला लाजपतराय की हिन्दूवादी नीतियों से घोर विरोध के बावजूद उनपर हुए लाठी चार्ज के कारण, जिससे ही अंततः उनकी मृत्यु हुई, भगतसिंह और उनके साथियों ने सांडर्स की हत्या की। इस घटना को उन्होंने एक राष्ट्रीय अपमान के रूप में देखा जिसके प्रतिरोध के लिए आपसी मतभेदों को भुला देना जरूरी था। भगतसिंह द्वारा असेम्बली में बम-कांड इसी सोच की एक तार्किक परिणति थी, लेकिन भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की फाँसी के विरोध में महात्मा गाँधी ने जनता की ओर से व्यापक दबाव के बावजूद, कोई औपचारिक अपील तक जारी नहीं की।
अपने क्रांतिकारी जीवन के जो संस्मरण यशपाल ने सिंहावलोकन में लिखे, उनमें अपनी दृष्टि से उन्होंने उस आंदोलन और अपने साथियों का मूल्यांकन किया। तार्किकता, वास्तविकता और विश्वसनीयता पर उन्होंने हमेशा ज़ोर दिया है। यह संभव है कि उस मूल्यांकन से बहुतों को असहमति हो या यशपाल पर तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने का आरोप हो। आज भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो यशपाल को बहुत अच्छा क्रांतिकारी नहीं मानते। उनके क्रांतिकारी जीवन के प्रसंग में उनके चरित्रहनन की दुरभसंधियों को ही वे पूरी तरह सच मानकर चलते हैं और शायद इसीलिए यशपाल की ओर मेरी निरंतर और बार-बार वापसी को वे ‘रेत की मूर्ति’ गढ़ने-जैसा कुछ मानते हैं।
‘क्रांति’ को भी वे बम-पिस्तौलवाली राजनीति क्रांति तक ही सीमित करके देखते हैं। राजनीतिक क्रांति यशपाल के लिए सामाजिक व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन का ही एक हिस्सा थी। साम्राज्यवाद को वे एक शोषणकारी व्यवस्था के रूप में देखते थे, जो भगतसिंह के शब्दों में, ‘मनुष्य के हाथों मनुष्य के और राष्ट्र के हाथों राष्ट्र के शोषण का चरम रूप है’..(भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज (सं.) जगमोहन और चमनलाल, संस्करण ’19, पृ.321) इस व्यवस्था के आधार स्तंभ-जागीरदारी और ज़मींदारी व्यवस्था भी उसी तरह उनके विरोध के मुख्य एजेंडे के अंतर्गत आते थे। देश में जिस रूप में स्वाधीनता आई, और बहुतों की तरह, वे भी संतुष्ट नहीं थे। स्वाधीनता से अधिक वे इसे सत्ता का हस्तांतरण मानते थे। और यह लगभग वैसा ही था जिसे कभी प्रेमचंद ने जॉन की जगह गोविंद को गद्दी पर बैठ जाने के रूप में अपनी आशंका व्यक्त की थी।
क्रांतिकारी रष्ट्र भक्ति और बलिदान की भावना से प्रेरित-संचालित युवक थे। अवसर आने पर उन्होंने हमेशा बलिदान से इसे प्रमाणित भी किया। लेकिन यशपाल अपने साथियों को ईर्ष्या-द्वेष, स्पर्धा-आकांक्षावाले साधारण मनुष्यों के रूप में देखे जाने पर बल देते हैं। अपने संस्मरणों में आज राजेन्द्र यादव जिसे आदर्श घोषित करते हैं—‘वे देवता नहीं हैं’—उसकी शुरुआत हिन्दी में वस्तुतः यशपाल के इन्हीं संस्मरणों से होती है। ये क्रांतिकारी सामान्य मनुष्यों से कुछ अलग, विशिष्ठ और अपने लक्ष्यों के लिए एकांतिक रूप से समर्पित होने पर भी सामान्य मानवीय अनुभूतियों से अछूते नहीं थे। हो भी सकते थे। शरतचंद्र ने पथेरदावी में क्रांतिकारियों का जो आदर्श रूप प्रस्तुत किया, यशपाल उसे आवास्तविक मानते थे, जिससे राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा मिलती हो, उसे क्रांतिकारी आंदोलन और उस जीवन को वास्तविकता का एक प्रतिनिधि और प्रामाणिक चित्र नहीं माना जा सकता। सुबोधचंद्र सेन गुप्त पथेरदावी में बिजली पानीवाली झंझावाती रात में सव्यसाची के निषक्रमण को भावी महानायक सुभाषचंद्र बोस के पलायन के एक रूपक के तौर पर देखते हैं, जबकि यशपाल सव्यसाची के अतिमानवीय से लगने वाले कार्य-कलापों और खोह-खंडहरों में बिताए जानेवाले जीवन को वास्तविक और प्रामाणिक नहीं मानते। क्रांतिकारी जीवन के अपने लंबे अनुभवों को ही वे अपनी इस आलोचना के मुख्य आधार के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
2, मार्च सन् 38 को जेल से रिहाई के बाद, जब उसी वर्ष नवंबर में यशपाल ने विप्लव का प्रकाशन-संपादन शुरू किया तो अपने इस काम को उन्होंने ‘बुलेट बुलेटिन’ के रूप में परिभाषित किया। जिस अहिंसक और समतामूलक समाज का निर्माण वे राजनीतिक क्रांतिकारी के माध्यम से करना चाहते थे, उसी अधूरे काम को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने लेखन को अपना आधार बनाया। अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं के केन्द्र में रखकर लिखे गए साहित्य को प्रायः हमेशा ही विचारवादी कहकर लांछित किया जाता है। नंद दुलारे वाजपेयी का प्रेमचंद के विरुद्ध बड़ा आरोप यही था। अपने ऊपर लगाए गए प्रचार के आरोप का यशपाल ने उत्तर भी लगभग प्रेमचंद की ही तरह दिया।
अपने पहले उपन्यास दादा कॉमरेड की भूमिका में उन्होंने लिखा, ‘कला के प्रेमियों को एक शिकायत मेरे प्रति है कि (मैं) कला को गौण और प्रचार को प्रमुख स्थान देता हूँ। मेरे प्रति दिए गए इस फ़ैसले के विरुद्ध मुझे अपील नहीं करनी। संतोष है अपना अभिप्राय स्पष्ट कर पाता हूं...(दादा कॉमरेड, संस्करण’ 59, पृ.4) अपने लेखकीय सरोकारों पर और विस्तार से टिप्पणी करते हुए बाद में उन्होंने लिखा, ‘मनुष्य के पूर्ण विकास और मुक्ति के लिए संघर्ष करना ही लेखक की सार्थकता है। जब लेखक अपनी कला के माध्यम से मनुष्य की मुक्ति के लिए पुरानी व्यवस्था और विचारों में अंतर्विरोध दिखाता है और नए आदर्श सामने रखता है तो उस पर आदर्शहीन और भौतिकवादी होने का लांछन लगाया जाता है। आज के लेखक की जड़ें वास्तविकता में हैं, इसलिए वह भौतिकवादी तो है ही परंतु वह आदर्शहीन भी नहीं है। उसके आदर्श अधिक यथार्थ हैं। आज का लेखक जब अपनी कला द्वारा नए आदर्शों का समर्थन करता है तो उस पर प्रचारक होने का लांछन लगाया जाता है। लेखक सदा ही अपनी कला से किसी विचार या आदर्श के प्रति सहानुभूति या विरोध पैदा करता है। साहित्य विचारपूर्ण होगा।
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