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उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2291
आईएसबीएन :9788180313172

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प्रस्तुत है उर्वशी और पुरूरवा के आख्यानों का वर्णन....

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
१९६१ ई. में प्रकाशित इस काव्य नाटक में दिनकर ने उर्वशी और पुरुरवा के प्राचीन आख्यान को एक नये अर्थ से जोड़ना चाहा है। इस कृति में पुरुरवा और उर्वशी अलग-अलग तरह की प्यास लेकर आये हैं। पुरुरवा धरती पुत्र है और उर्वशी देवलोक से उतरी हुई नारी है। पुरुरवा के भीतर देवत्य की तृष्णा और उर्वशी सहज निश्चित भाव से पृथ्वी का सुख भोगना चाहती है।
उर्वशी प्रेम और सौन्दर्य का काव्य है। प्रेम और सौन्दर्य की मूल धारा में जीवन दर्शन सम्बन्धी अन्य छोटी-छोटी धाराएँ आकर मिल जाती हैं। प्रेम और सुन्दर का विधान कवि ने बहुत व्यापक धरातल पर किया है। कवि ने प्रेम की छवियों को मनोवैज्ञानिक धरातल पर पहचाना है।
दिनकर की भाषा में हमेशा एक प्रत्यक्षता और सादगी दिखी है, परन्तु उर्वशी में भाषा की सादगी अलंकृति और आभिजात्य की चमक पहन कर आयी है-शायद यह इस कृति को वस्तु की माँग रही हो।

 

भूमिका  

 

पुरूरवा और उर्वशी की कथा कई रूपों में मिलती है और उसकी व्याख्या भी कई प्रकार से की गयी है।
राजा पुरुरवा सोम-वंश के आदि पुरुष हुए हैं। उनकी राजधानी प्रयाग के पास, प्रतिष्ठानपुर में थी। पुराणों में कहा गया है कि जब मनु और श्रद्धा को सन्तान की इच्छा हुई, उन्होंने वसिष्ठ ऋषि से यज्ञ करवाया। श्रद्धा की मनोकामना थी कि वे कन्या की माता बनें, मनु चाहते थे कि उन्हें पुत्र प्राप्त हो। किन्तु, इस यज्ञ से कन्या ही उत्पन्न हुई। पीछे, मनु की निराशा से द्रवित होकर वसिष्ठ ने उसे पुत्र बना दिया। मनु के इस पुत्र का नाम सुद्युम्न पड़ा।
युवा होने पर सुद्युम्न, एक बार, आखेट करते हुए किसी अभिशप्त वन में जा निकले और शापवश, वे युवा नर से युवती नारी बन गये और उनका नाम इला हो गया। इसी इला का प्रेम चन्द्रमा के नवयुवक पुत्र बुध से हुआ, जिसके फलस्वरूप, पुरूरवा की उत्पत्ति हुई। इसी कारण, पुरूरवा को ऐल भी कहते हैं और उनसे चलनेवाले वंश का नाम चन्द्रवंश है।
उर्वशी की उत्पत्ति के विषय में दो अनुमान हैं। एक तो यह कि जब अमृत-मन्थन के समय समुद्र से अप्सराओं का जन्म हुआ, तब उर्वशी भी उन्हीं के साथ जनमी थी। दूसरा यह कि नारायण ऋषि की तपस्या में विघ्न डालने के निमित्त जब इन्द्र ने उनके पास अनेक अप्सराएँ भेजीं, तब ऋषि ने अपने ऊरु को ठोंक कर उसमें से एक ऐसी नारी उत्पन्न कर दी, जो उन सभी अप्सराओं से अधिक रूपमती थी। यही नारी उर्वशी हुई और उर्वशी नाम उसका इसलिए पड़ा कि वह ऊरु से जनमी थी।
भगीरथ की जाँघ पर बैठने के कारण गंगा का भी एक नाम उर्वशी है। देवी भागवत के अनुसार, बदरी धाम में जो देवी-पीठ है, उसे उर्वशी-तीर्थ कहते हैं। नर-नारायण की तपस्या-भूमि बदरी धाम में ही थी। सम्भव है, उर्वशी-तीर्थ उसी का स्मारक हो।
इस कथा का प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। किन्तु, उस सूक्त से इतना ही विदित होता है कि उर्वशी पुरूरवा को छोड़कर चली गयी थी और विरहोन्मत्त पुरूरवा उसके सन्धान में थे। एक दिन उर्वशी जब उन्हें मिली, उसने यह तो बताया कि वह गर्भवती है, किन्तु, लौटकर फिर उनके साथ रहना उसने अस्वीकार कर दिया। पीछे चलकर, शतपथ ब्राह्मण में और, उसके आधार पर, पुराणों में इस कथा का जो पल्लवन हुआ, उसमें कहा गया है कि उर्वशी के गर्भ से पुरूरवा के छह पुत्र हुए थे, जिनमें सबसे बड़े का नाम आयु था।
कहते हैं, निरुक्त अनुसार, आयु का अर्थ भी मनुष्य होता है (डॉ.फतह सिंह)। इस दृष्टि से, मनु और इडा तथा पुरूरवा और उर्वशी, ये दोनों ही कथाएँ, एक ही विषय को व्यंजित करती हैं। सृष्टि-विकास की जिस प्रक्रिया के कर्त्तव्य-पक्ष का प्रतीक मनु और इडा का आख्यान है, उसी प्रक्रिया का भावना-पक्ष पुरूरवा और उर्वशी की कथा में कहा गया है।
सर विलियम विलसन ने अनुमान लगाया था कि पुरूरवा-उर्वशी की कथा अन्योक्तिपरक है। इस कथा का वास्तविक नायक सूर्य और नायिका ऊषा है। इन दोनों का मिलन कुछ ही काल के लिए होता है; बाद में, वे प्रति दिन बिछुड़ जाते हैं।
किन्तु, इस कथा को लेने में वैदिक आख्यान की पुनरावृत्ति अथवा वैदिक प्रसंग का प्रत्यावर्तन मेरा ध्येय नहीं रहा। मेरी दृष्टि में पुरूरवा सनातन नर का प्रतीक है और उर्वशी सनातन नारी का।
उर्वशी शब्द का कोषगत अर्थ होगा उत्कट अभिलाषा, अपरिमित वासना, इच्छा अथवा कामना। और पुरूरवा शब्द का अर्थ है वह व्यक्ति जो नाना प्रकार का रव करे, नाना ध्वनियों से आक्रान्त हो।
उर्वशी चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक् तथा श्रोत्र की कामनाओं का प्रतीक है; पुरूरवा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द से मिलनेवाले सुखों से उद्देलित मनुष्य।
पुरूरवा द्वन्द्व में है, क्योंकि द्वन्द्व में रहना मनुष्य का स्वभाव है। मनुष्य सुख की कामना भी करता है और उससे आगे निकलने का प्रयास भी।
नारी नर को छूकर तृप्त नहीं होती, न नर नारी के आलिंगन में सन्तोष मानता है। कोई शक्ति है जो नारी को नर तथा नर को नारी से अलग रहने नहीं देती, और जब वे मिल जाते हैं, तब भी, उनके भीतर किसी ऐसी तृषा का संचार करती है, जिसकी तृप्ति शरीर के धरातल पर अनुपलब्ध है।
नारी के भीतर एक और नारी है, जो अगोचर और इन्द्रियातीत है। इस नारी का सन्धान पुरुष तब पाता है, जब शरीर की धारा, उछालते-उछालते, उसे मन के समुद्र में फेंक देती है, जब दैहिक चेतना से परे, वह प्रेम की दुर्गम समाधि में पहुँच कर निस्पन्द हो जाता है।
और पुरुष के भीतर भी एक और पुरुष है, जो शरीर के धरातल पर नहीं रहता जिससे मिलने की आकुलता में नारी अंग-संज्ञा के पार पहुँचना चाहती है।
परिरम्भ-पाश में बँधे हुए प्रेमी, परस्पर एक दूसरे का अतिक्रमण करके, उसे ऐसे लोक में पहुँचना चाहते हैं, जो किरणोज्जवल और वायवीय है।
इन्द्रियों के मार्ग से अतीन्द्रिय धरातल का स्पर्श, यही प्रेम की आध्यात्मिक महिमा है।
देश और काल की सीमा से बाहर निकलने का एक मार्ग योग है, किन्तु उसकी दूसरी राह नर-नारी-प्रेम के भीतर से भी निकलती है, मनुष्य का यह अनुमान अत्यन्त प्राचीन है। तन्त्र-साधना के मूल में ऐसा कोई-न-कोई विश्वास रहा होगा; सहजमार्गियों के मन में ऐसी कोई-न-कोई भावना काम करती होगी; अभिनव मनोविज्ञान के भीतर भी ऐसी कोई-न-कोई प्रेरणा क्रियाशील है।
काम-सुख की इन्हीं निराकार झंकृतियों का आख्यान मनोविज्ञान उदात्तीकरण की भाषा में करता है। प्रेम की एक उदात्तीकृत स्थिति वह भी है जो समाधि से मिलती-जुलती है। जिसके व्यक्तित्व का देवोपम विकास हुआ है, जिसके स्नायविक तार चेतन और सजीव हैं तथा जिसका मन, स्वभाव से ही, ऊर्ध्वगामी और उड्डयनशील है, उसे काम के स्पर्श मात्र से इस समाधि का बोध होता है।
तत्पारिणस्पर्शसौख्यं परमनुभवति सच्चिदानन्दरूपम्
तत्रासीत् वारणभिन्ना रमरणतिरपे: योगनिद्रां गतेव।  

 

मनुष्य के इस द्वन्द्व का, साकार से ऊपर उठकर निराकार तक जाने की इस आकुलता अथवा ऐन्द्रियता से निकलकर अतीन्द्रिय जगत् में आँख खोलने की इस उमंग का प्रतीक पुरूरवा है।
किन्तु, उर्वशी द्वन्द्वों से सर्वथा मुक्त है। देवियों में द्वन्द्व नहीं होता, वे त्रिकाल अनुद्विग्न, निर्मल और निष्पाप होती हैं। द्वन्द्वों की कुछ थोड़ी, अनुभूति उसे तब होती है, जब वह माता अथवा पूर्ण मानवी बन जाती है, जब मिट्टी का रस उसे पूर्ण रूप से अभिसिक्त कर देता है।
भावना और तर्क, हृदय और मस्तिष्क, कला और विज्ञान अथवा निरुद्देश्य आनन्द और सोद्देश्य साधना, मानवीय गुणों के ये जोड़े नवीन मनुष्य को भी दिखाई देते हैं और वे प्राचीन मानव को भी दिखाई पड़े थे। मनु और इडा का आख्यान तर्क, मस्तिष्क, विज्ञान और जीवन की सोद्देश्य साधना का आख्यान है; वह पुरुषार्थ के अर्थ-पक्ष को महत्त्व देता है। किन्तु पुरूरवा-उर्वशी का आख्यान भावना, हृदय कला और निरुद्देश्य आनन्द की महिमा का आख्यान है; वह पुरुषार्थ के काम-पक्ष का महात्म्य बताता है।
जैसे पुरुषार्थ के तीन अंग कहे गये हैं, वैसे ही, मनुष्य के आन्तरिक व्यक्तित्व के धरातल भी तीन है। मनुष्य के सारे व्यक्तित्व समग्र जीवन का आधार उसकी जैव भावनाओं का धरातल है। यह वह धरातल है जिसपर मनुष्य और पशुओं में भेद नहीं है और यही धरातल सब से प्रबल और सबसे प्राचीन भी है। मनुष्य को पशुओं से भिन्न करनेवाले, बुद्धि और आत्मा के दो धरातल, बाद को, उत्पन्न हुए। वैसे आत्मा तो पशुओं में भी है, किन्तु सदसद् विवेक की शक्ति, जो मानवता का प्रधान गुण है, पशुओं में नहीं होती।
किन्तु मनुष्य ने जिस परिमाण में बुद्धि अर्जित की, उसी परिमाण में उसने सहज प्रवृत्ति (इंस्टिक्ट) की शक्ति को खो दिया। तब भी, बुद्धि थोड़ी पशुओं में भी है और सहज प्रवृत्ति, कभी-कभी, मनुष्य में भी झलक मारती है। भेद यह है कि पशु का सारा जीवन सहज प्रवृत्ति से चलता है, केवल उसके किनारे-किनारे बुद्धि की हलकी झालर विद्यमान है। और मनुष्य के सारे जीवन का आधार बुद्धि है, सहज प्रवृत्ति, कभी-कभी ही, बिजली की तरह उसमें कौंध जाती है।
तब भी, मनुष्य का सर्वोत्तम काव्य सर्वोच्च दर्शन और विज्ञान के आशातीत आविष्कार, ये सब-के-सब सम्बुद्धि (इनटुइशन) से संकेतित होते हैं, जो बहुत कुछ सहज प्रवृत्ति के ही समान है।
अर्थ और काम, ये जैव धरातल के पुरुषार्ष हैं, किन्तु धर्म का जन्म आत्मा के धरातल पर होता है। बुद्धि इन दोनों धरातलों की सेविका और सहायक है। किन्तु, अर्थ की सेवा वह जिस सहजता से करती है, उसी सहजता से वह धर्म और काम की सेवा नहीं कर सकती।
अर्थ के उपकरण, भोजन, छाजन, मोटर, महल, सेना, समाज और मनुष्य के सारे भौतिक अभियान हैं, जो बुद्धि के वृत्त में पड़ते हैं। किन्तु, काम के अंग कला, सुरुचि, सौन्दर्यबोध और प्रेम हैं, जो, मुख्यत: सम्बुद्धि से संकेतिक होते हैं। इसी प्रकार बुद्धि, धर्म को भी सिद्ध नहीं करती। धर्म बराबर सम्बुद्धि से प्रेरणा पाता है।
धर्म का जन्म आत्मा के धरातल पर होता है, किन्तु, सार्थकता उसकी तब है, जब वह जैव धरातल पर आकर हमारे आचरणों को प्रभावित करे।
कला, सुरुचि, सौन्दर्यबोध और प्रेम, इनका जन्म जैव धरातल पर होता है, किन्तु, सार्थकता उनकी तब सिद्ध होती है, जब वे ऊपर उठकर आत्मा के धरातल का स्पर्श करते हैं।
साहित्य के नौ मूल भावों में से रति, क्रोध, भय और घृणा, ये मूल भाव भैंस में भी होते हैं, किन्तु पशुओं में जो भाव अनगढ़ और कुरूप हैं, मनुष्य में आकर वे अनेक रंग-रूपों में बदल कर निस्सीम हो गये हैं, क्योंकि मनुष्य में बुद्धि और कल्पना की शक्ति है, जो पशुओं में नहीं है।
पशुओं में जो प्रेरणा ऋतु-धर्म से एकाकार है, मनुष्यों में वह ऋतु-धर्म का बन्धन नहीं मानती, न वह प्रजासृष्टि की सीमा पर समाप्त होती है। काम-शक्ति पशु-जगत् में आवश्यकता और उपयोग की सीमा में है। मनुष्य में आकर वह ऐसे आनन्द का कारण बन गयी है जो निष्प्रयोजन, निस्सीम और निरुद्देश्य है। वह नित्य नये-नये पुलकों की रचना करती है, नयी-नयी कल्पनाओं को जन्म देती है और मनुष्य को नित्य नवीन स्फुरणों से अनुप्राणित रखती है। यह सच है कि काम के क्षेत्र में पशुओं को जो स्वाधीनता प्राप्त है, वह मनुष्यों को नहीं है। किन्तु, कामजन्य स्फुरणों, प्रेरणाओं और सुखों का जो अनन्त-व्यापी प्रसार मनुष्य में है, वह कल्पनाहीन जन्तुओं में नहीं हो सकता। और मनुष्य में भी जो लोग पशुता से जितनी दूर हैं, वे काम के सूक्ष्म सुखों का स्वाद उतना ही अधिक जानते हैं।
कामजन्य प्रेरणाओं की व्याप्तियाँ सभ्यता और संस्कृति के भीतर बहुत दूर तक पहुँची है। यदि कोई युवक किसी युवती को प्रशंसा की आँखों से देख ले, तो दूसरे ही दिन से उस युवती के हाव-भाव बदलने लगते हैं, उसे पोशाक और प्रसाधन में नवीनता की आवश्यकता अनुभूत होने लगती है, उसके बोलने, चलने और देखने में एक नयी भंगिमा उत्पन्न हो जाती है।
और, इसी प्रकार, जब कोई नारी प्रशंसा-भरी दृष्टि से किसी पुरुष को देख लेती है, तब अनगढ़ पुरुष के भीतर भी कोई कल्पक जाग उठता है, कोई कविता सुगबुगाने लगती है, सौन्दर्य की कोई तृषा जग कर उसे आइने के पास ले जाती है।
काम की ये जो निराकार झंकृतियाँ हैं, वे ही उदात्तीकरण के सूक्ष्म सोपान हैं। त्वचाएँ, स्पर्श के द्वारा, सुन्दरता का जो परिचय प्राप्त करती हैं, वह अधूरा और अपूर्ण होता है। पूर्णता पर वह तब पहुँचता है, जब हम सौन्दर्य के निदिध्यासन अथवा समाधि में होते हैं।
कला, साहित्य और, विशेषत:, काव्य में भौतिक सौन्दर्य से परे भौतिकोत्तर सौन्दर्य का संकेत देती है, फिजिकल को लाँघ कर ‘मेटा-फ़िजिकल’ हो जाती है।
प्रेम में भी भूत से ऊपर उठकर भूतरोत्तर होने की शक्ति होती है, रूप के भीतर डूब कर अरूप का सन्धान करने की प्रेरणा होती है।
अपने स्थूल से स्थूल रूप में भी, प्रेम एक मानव का दूसरे मानव के साथ एकाकार होने का सबसे सहज, सबसे स्वाभाविक मार्ग है; किन्तु, विकसित और उदात्त हो जाने पर तो वह मनुष्य को बहुत कुछ वही शीतलता प्रदान करता है, जो धर्म का अवदान है।
धर्मादर्थो अर्थत: काम: कामाद्धर्म-फलोदय:।  

 

(पद्मपुराण)  

 

धर्म से अर्थ और अर्थ से काम की प्राप्ति होती है, किन्तु, काम से फिर हमें धर्म के ही फल प्राप्त होते हैं।
जीवन में सूक्ष्म आनन्द और निरुद्देश्य सुख के जितने भी सोते है, वे, कही-न-कहीं, काम के पर्वत से फूटते हैं। जिसका काम कुण्ठित, उपेक्षित अथवा अवरूद्ध है, वह आनन्द के अनेक सूक्ष्म रूपों से वंचित रह जाता है। हीन केवल वही नहीं है, जिसने धर्म और काम को छोड़कर केवल अर्थ को पकड़ा है; न्यायत: उकठा काठ तो उस साधक को भी कहना चाहिये, जो धर्म-सिद्धि के प्रयास में अर्थ और काम दोनों से युद्ध कर रहा है।
धर्मार्थकामं सममेव सेव्यं,
य: एकसेवी स नरो जघन्य:।
पुरूरवा और उर्वशी का प्रेम मात्र शरीर के धरातल पर नहीं रुकता, वह शरीर से जन्म लेकर मन और प्राण के गहन, गुह्य लोकों में प्रवेश करता है, रस के भौतिक आधार से उठकर रहस्य और आत्मा के अन्तरिक्ष में विचरण करता है।
पुरूरवा के भीतर देवत्व की तृषा है। इसलिए, मर्त्य लोक के नाना सुखों में वह व्याकुल और विषण्ण है।
उर्वशी देवलोक से उतरी हुई नारी है। वह सहज, निश्चिन्त भाव से पृथ्वी का सुख भोगना चाहती है।
पुरूरवा की वेदना समग्र मानव-जाति की चिरन्तन वेदना से ध्वनित है।
किन्तु, मानवता की यह वेदना उत्पन्न कहाँ से होती है ? मानव-मन का यह दु:साध्य संघर्ष आता है कहाँ से ?
आत्मा का धरातल मनुष्य को ऊपर खींचता है और जैव धरातल का आकर्षण नीचे की ओर है। जब पशुओं से अलग होने लगा, यह वेदना तभी से उसके साथ हो गयी। मानवता ही मनुष्य की वेदना का उत्तम नाम है।
मनुष्य ने देवताओं की जो कल्पना कर रखी है, उसके गज से अपने-आपको नापने में वह असमर्थ है।
यदि मनुष्य अपनी गरदन तानकर मस्तक से नक्षत्रों को छूने का प्रयास करे, तो उसके पाँव जमीन से उखड़ जाते हैं, वह वायु में निस्सहाय उड़ने वाला पत्ता बन जाता है।
और यदि वह पाँव जमा कर धरती पर खड़ा रहे, तो अपने मस्तक से वह नक्षत्र तो क्या, सामान्य वृक्षों के मौलि को भी नहीं छू सकता।
मनुष्य की कल्पना का देवता वह है, जो जल में उतरने पर भी जल से नहीं भींगता, जिसकी गरदन, समुद्र की ऊँची-से-ऊँची लहरों से भी हाथ भर ऊँची दिखाई देती है।
किन्तु, मनुष्य का भाग्य ऐसा नहीं है। वह तरंगों से लड़ते-लड़ते भी उनसे भींग जाता है और बहुधा लहरें उसे बहा कर औघट घाट में फेंक देती हैं, भँवर का जाल बनकर उसे नीचे पाताल में गाड़ देती हैं।
तब भी, संघर्ष करना मनुष्य का स्वभाव है।
वह जल के समान सूर्य की किरणों पर चढ़कर आकाश पहुँचता है और बादलों के साथ पृथ्वी पर लौट आता है। और सूर्य की किरणें, एक बार फिर, उसे आकाश पर ले जाती हैं।
स्वर्ग और पृथ्वी के बीच घटित इस निरन्तर आवागमन से मनुष्य का निस्तार कभी होगा या नहीं, इसका विश्वसनीय ज्ञान नये मनुष्य को छोड़कर चला गया है। इसलिए मैं इस विषय में मौन हूँ कि पुरूरवा जब संन्यास लेकर चले गये, तब उनका क्या हुआ।
एक ओर देवत्व की ऊँची-ऊँची कल्पनाएँ; दूसरी ओर उफनाते हुए रक्त की अप्रतिहत पुकार और पग-पग पर घेरनेवाली ठोस वास्तविकता की अभेद्य चट्टानें, जो हुक्म नहीं मानतीं, जो पिघलना नहीं जानतीं।
आदमी हवा और पत्थर के दो छोरों के बीच झटके खाता है, और झटका खाकर, कभी इस ओर, और कभी उस ओर को मुड़ जाता है।
कभी प्रेम ! कभी संन्यास !
और संन्यास प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर सकता न प्रेम संन्यास को क्योंकि प्रेम प्रकृति और परमेश्वर संन्यास है और मनुष्य को सिखलाया गया है कि एक ही व्यक्ति परमेश्वर और प्रकृति, दोनों को प्राप्त नहीं कर सकता।
उर्वशी पूछती है, क्या ईश्वर और प्रकृति दो हैं ?
क्या ईश्वर प्रकृति का प्रतिबल है, उसका प्रतियोगी है ?
क्या दोनों एक साथ नहीं चल सकते ?
क्या प्रकृति ईश्वर का शत्रु बनकर उत्पन्न हुई है ?
अथवा क्या ईश्वर ही प्रकृति से रुष्ट है ?
प्रकृति और परमेश्वर की एकता की एक अनुभूति, संन्यास और प्रेम के बीच सन्तुलन की एक झाँकी महर्षि च्यवन के चरित्र में झलक मारती है। जो नदी पुरूरवा के भीतर बेचैन होकर गरज रही है, वही च्यवन में आकर स्वच्छ, सुस्थिर, शीतल और मौन है।
संन्यास में समाकर प्रेम से और प्रेम में समाकर संन्यास से बचना जितना कठिन है, संन्यास और प्रेम के बीच सन्तुलन बिठाना, कदाचित्, उससे भी कठिन कार्य है।
मनोविज्ञान जिस साधना का संकेत देने लगा है, वह वैराग्य नहीं, रागों से मैत्री का संकेत है; वह निषेध नहीं, स्वीकृति और समन्वय का संकेत हैं; वह संघर्ष नहीं, सहज, स्वच्छ, प्राकृतिक जीवन की साधना है।
देवता वह नहीं, जो सब कुछ को पीठ देकर, सबसे भाग रहा है। देवता वह है, जो सारी आसक्तियों के बीच अनासक्त है, सारी स्पृहाओं को भोगते हुए भी निस्पृह और निर्लिप्त है।
फिर वही बात ! पानी पर चलो, पानी का दाग़ नहीं लगे।
किन्तु, पानी पर चलकर भी पानी के दाग़ से बचता कौन है ?
क्या वह, जो औशीनरी और सुकन्या के साथ है ? अथवा वह भी, जो उर्वशी के प्रेम में है ?
क्या वह, जो च्यवन की पत्नी है ? अथवा वह भी, जो पुरूरवा की गोद में है ?
प्रश्नों के उत्तर, रोगों के समाधान मनुष्यों के नेता दिया करते हैं।
कविता की भूमि केवल दर्द को जानती है, केवल बेचैनी को जानती है, केवल वासना की लहर और रुधिर के उत्ताप को पहचानती है।
और वेदना की भूमि चूँकि पुरूरवा के संन्यास पर समाप्त नहीं हुई, इसलिए, औशीनरी की व्यथा ने कविता को वहाँ समाप्त होने नहीं दिया।
किन्तु, नेता-की-सी एक बात एक जगह मैं भी कह गया हूँ।
जब देवी सुकन्या यह सोचती हैं कि नर-नारी के बीच सन्तुलन कैसे लाया जाए, तब उनके मुँह से यह बात निकल पड़ती है कि यह सृष्टि, वास्तव में, पुरुष की रचना है। इसीलिए, रचयिता ने पुरुषों के साथ पक्षपात किया, उन्हें स्वत्व-हरण की प्रवृत्तियों से पूर्ण कर दिया। किन्तु, पुरुषों की रचना यदि नारियाँ करने लगें, तो पुरुष की कठोरता जाती रहेगी और वह अधिक भावप्रणव एवं मृदुलता से युक्त हो जाएगा।
इस पर आयु यह दावा करता है कि मैं ही तो वह पुरुष हूँ, जिसका निर्माण नारियों ने किया है।
आयु का कहना ठीक था। और वह प्रसिद्ध राजा भी हुआ, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में आया है। किन्तु, उल्लेख इस बात का भी है कि युवक राजा सुश्रवा ने आयु को जीतकर उसे अपने अधीन कर लिया था।
फिर वही बात !
पुरुष की रचना पुरुष करे तो वह त्रासक होता है; और पुरुष की रचना नारी करे तो लड़ाई में वह हार जाता है।
समस्या युद्ध की हो अथवा प्रेम की, कठिनाइयाँ सर्वत्र समान हैं।
एकान्त में कोई नहीं मानता कि बघनखा पहनना अच्छा काम है। किन्तु, बाहर आते ही हर कोई उसे पहनना चाहता है, क्योंकि और लोग बघनखे पहने हुए हैं।
युक्ति तो यही कहती है कि नक़ाब पहन कर असली चेहरे को छिपा लेने से पुण्य नहीं बढ़ता होगा। फिर भी, हर आदमी नक़ाब लगाता है, क्योंकि नक़ाब पहने बिना घर से निकलने की, समाज की ओर से, मनाही है।
किन्तु, उस प्रेरणा पर तो मैंने कुछ कहा ही नहीं जिसने आठ वर्ष तक ग्रसित रख कर यह काव्य मुझ से लिखवा लिया।
अकथनीय विषय !
शायद अपने से अलग करके मैं उसे देख नहीं सकता; शायद, वह अलिखित रह गयी; शायद, वह इस पुस्तक में व्याप्त है।
रामधारी सिंह दिनकर
पटना
23 जून, 1961 ई.  

 

प्रथम अंक 

 

साधारणोऽयमुभयो: प्रणय: स्मरस्य,
तप्तेन तप्तमयसा घटनाय योग्यम्।  

 

-विक्रमोर्वशीयम्  

 

[राजा पुरूरवा की राजधानी, प्रतिष्ठानपुर के समीप एकान्त पुष्प-कानन; शुक्ल पक्ष की रात; नटी और सूत्रधार चाँदनी में प्रकृति की शोभा का पान कर रहे हैं।]
सूत्रधार

नीचे पृथ्वी पर वसन्त की कुसुम-विभा छायी है,
ऊपर है चन्द्रमा द्वादशी का निर्मेघ गगन में।
खुली नीलिमा पर विकीर्ण तारे यों दीप रहे हैं,
चमक रहे हों नील चीर पर बूटे ज्यों चाँदी के।
या प्रशान्त, निस्सीम जलधि में जैसे चरण-चरण पर
नील वारि को फोड़ ज्योति के द्वीप निकल आये हों।

नटी

इन द्वीपों के बीच चन्द्रमा मन्द-मन्द चलता है,
मन्द-मन्द चलती है नीचे वायु श्रान्त मधुवन की;
मद-विह्वल कामना प्रेम की, मानो, असलायी-सी
कुसुम-कुसुम पर विरम मन्द मधु-गति में घूम रही हो।

सूत्रधार

सारी देह समेट निविड़ आलिंगन में भरने को
गगन खोल कर बाँह विसुध वसुधा पर झुका हुआ है।

नटी

सुख की सुगम्भीर वेला, मादकता की धारा में
समाधिस्थ संसार अचेतन बहता-सा लगता है।

सूत्रधार

स्वच्छ कौमुदी में प्रशान्त जगती यों दमक रही है,
सत्य रूप तज कर जैसे हो समा गयी दर्पण में।
शान्ति, शान्ति सब ओर, मंजु, मानो, चन्द्रिका-मुकुर में
प्रकृति देख अपनी शोभा अपने को भूल गयी हो।

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