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सुख और दुख का साथ

अमरकान्त

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2302
आईएसबीएन :8180310019

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अमरकान्त का रोचक कथा-संसार...

Sukh Dukh Ka Sath

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सामाजिक बाधाग्रस्त स्थितियों के प्रति प्रगीतात्मक दिलचस्पी अमरकांत की कहानियों में प्रायः नहीं मिलेगी, इसके बावजूद भावात्मक दुनिया की छोटी-बड़ी हलचलें हमें उद्वेलित करती रहती हैं। नाटकीयता घटना में भी होती है और रचनाकार के दृष्टिकोण में भी, और अमरकांत ने घटना और दृष्टिकोण के सामंजस्य के द्वारा कुछ बेहद सार्थक परिस्थितयाँ गढ़ी हैं।

अमरकांत ने इस कथा-संसार को एक जीवित जाति की सम्पत्ति की तरह देखकर ही इस सम्भावना को बल मिलता है कि उनके कथाकार ने भय और त्रास के साथ ही जीवन की सम्भावनाओं के लिए अपने संघर्ष को जीवित रखा है। राष्ट्रीय जीवन की पहचान में इन कहानियों के संसार की एक केन्द्रीय भूमिका है। जीवित जाति अपनी लड़ाई रचना की सरहदों के भीतर लड़कर भी तय करती है, इसका विश्वास इन कहानियों को पढ़कर दृढ़ होता है।

 

दो शब्द

 

 

मेरे इस संग्रह में अनेक ताजी कहानियों के साथ कुछ पुरानी भी हैं, जो गुम हो गई थीं अथवा कुछ अन्य कारणों से किसी पुस्तक में नहीं आ पाई थीं। विशेष रूप से मैं ‘कम्युनिस्ट’ कहानी की चर्चा करना चाहता हूँ।
यह कहानी सन् 1951 ई. के आरम्भ में लिखी गई और आगरा प्रगतिशील लेखक संघ की एक मीटिंग में सुनाई गई, जो डॉ. रामविलास शर्मा को बहुत पसन्द आई, लेकिन जिसकी इलाहाबाद प्रलेसं की मीटिंग में काफी आलोचना हुई। आजादी के बाद सामन्ती सोच और मानसिकता पर उक्त रचना लिखी गई थी, लेकिन इलाहाबाद में प्रगितशील लेखकों ने उसमें कम्युनिस्ट सैद्धान्तिक कठमुल्लेपन का दोष देखा।

बहरहाल, जब ‘कहानी’ मासिक पत्रिका का दुबारा प्रकाशन सरस्वती प्रेस, इलाहाबाद से शुरू हुआ तो उक्त रचना 1954 ई. के प्रथम जनवरी अंक में पहली बार छपी। कई वर्षों बाद ‘पहली’ पत्रिका पुन: प्रकाशित हुई। उस समय ‘कहानी’ सम्पादक मंडल भैरव प्रसाद गुप्त तो नहीं आए थे, लेकिन तत्कालीन एक सम्पादक श्यामू संन्यासी जी ने ‘अमृत पत्रिका’ कार्यालय में पत्र लिखकर कहानी मँगाई थी, जहाँ मैं काम करता था।
इस विस्तृत सूचना के लिए मैं क्षमा चाहता हूँ। आशा है, ये रचनाएँ शोध छात्रों के लिए भी उपयोगी होंगी, जिन्हें साहित्यिक रचनाओं की अनुलब्धता की सदा शिकायत रहती है।

 

15-07-2001  

 

-अमरकान्त

 

पोखरा

 

 

वही हुआ। मैंने मेधा से कई बार कहा था, मौसम अच्छा है, कोई झंझट न करो, समय पर निकल चलेंगे तो शाम तक वीरगंज पहुँचकर रात भर विश्राम करेंगे और अगले दिन आराम से पोखरा के लिए रवाना हो जायेंगे, लेकिन वह एक ही तरीका जानती है- आँखें न मिलाओ, हूँ-हूँ के पश्चात् अन्त में अपनी वाली ही करो।
मेरी समझ में नहीं आया कि क्या जरूरत थी उसी दिन तड़के ही उठकर उतने कपड़ों और मोटी चादरों की लादी फींच-कचार कर सुखाओ और प्रेस करो। फिर नाश्ते में सबको दलिया और पराठे तथा भोजन में खिचड़ी खिलाकर रास्ते के लिए पूड़ियाँ, मोएन डालकर मीठे ठेकुए तथा आलू परवल की मसालेदार लटपट तरकारी बनाने बैठ गई। मोमबत्ती, माचिस की डिबिया, अगरबत्ती, अंजन-मंजन, साबुन, कंघी, तेल, कई प्रकार के साफ, फटे कपड़े, अखबारी कागज़ों में सबकी चप्पलें तथा अन्य कई अटरम-सटरम समान सहेज कर रखने में उसने काफी समय लगा दिया। भारी होल्डाल देखकर मैं तो चिल्लाने ही लगा- ‘‘क्या तुम हमेशा धर्मशाला में ठहरने की इच्छा लेकर यात्रा करोगी ? क्या तुम कभी नहीं समझ सकोगी कि सराय और धर्मशाला का समय गया, आज आधुनिक से आधुनिक होटल खुल गये हैं, जहाँ ओढ़ना-बिछौना की जरूरत नहीं होती ?’’

यही नहीं, समय-सीमा के उल्लंघन के काफी देर बाद जब महरी वादा के बाद भी नहीं आई तो उसने स्वयं जूठे बर्तन चमाचम साफ करके करीने से सजाए कि लौटने पर यह सब कौन करेगा ! और अन्त में बच्चों को ठेल-ठेल कर बारी-बारी से टायलेट में घुसाया कि रास्ते में वे कोई परेशानी न पैदा कर दें।
जमाना तेजी से बदल रहा है, ऐसे समय में कोल्हू का बैल बनने की क्या जरूरत है ? मैं जो चाहती हूँ कि मेरी पत्नी और बच्चे स्मार्ट, चालाक, आधुनिक बनें। अपने परिवार जनों को नई-नई जगहें घुमाने का ऐसा शौक और किसके पास होगा ? काठमांडू तो उन्हें विमान-मार्ग से पहले ही ले जा चुका हूँ और इस बार नई कार पर सड़क-मार्ग से जाने का कार्यक्रम है- पहले रक्सौल-वीरगंज, फिर पोखरा और अन्त में वहाँ से नेपाल की राजधानी।

पिछले वर्ष दशहरा की छुट्टियों में ही जाने का प्रोग्राम था, मगर बनारस से मेरे साले साहब अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आ गये। उसके बाद गर्मी में बच्चों के स्कूल बन्द होने पर यह अवसर मिला है। गर्मी जरूर पड़ने लगी है, मगर बच्चे जिद्द करने लगे। फिर पोखरा और काठमांडू में इतनी गर्मी थोड़े ही पड़ेगी।
काफी विलम्ब के बावजूद जब हम पटना से रवाना हुए तो वर्तमान, भारी जिम्मेदारी की वजह से आन्तरिक तनाव के काँटे स्वत: ही नीचे बैठ गये। शहर से बाहर निकलने पर पसीने की वजह से हवा के तेज़ झोके सुख देने लगे। बाल-बच्चों के साथ जल्दबाजी वैसे भी ठीक नहीं होती। मैं आराम से धीरे-धीरे ड्राइव कर रहा था। बिहार के विभिन्न  अंचलों की हरियाली दर्शनीय होती है और उस हरे रंग के अनगिनत शेड्स पेड़-पौधों, झाड़ी-झंखाड़ों, खेतों, जंगलों से झलक रहे थे और उनके और भी कई रंग घुले-मिले थे, जैसे पकी या पकती फसलों के धूसर पीले या ललौंछ रंग। आम वृक्षों पर लदे टिकोरे या कुछ अन्य पेड़ों पर देर से आई बौरों के लाल-पीले-हरे और अन्य रंग। इसके पहले कभी भी प्रकृति के इन विविध रंगों की ओर ध्यान गया ही न था।

मेरा हृदय आनन्द से भर गया। मैंने मेधा और दोनों बच्चों की ओर देखा। उनकी आँखें अपूर्व अनुभव के आश्चर्य, खुशी एवं ताजगी से चाहा की तरह फैली हुई थीं। मेरा पुत्र अभिषेक आगे मेरे ही पार्श्व में बैठा है। वह अपनी उम्र के अनुपात से कुछ अधिक ही लम्बा है। उसे क्रिकेट, वीडियो गेम्स, फिल्मी नायक, नायिकाओं के पिक्चर कार्डस, चाकलेट और कोल्ड-डिंक्स से अतिशय प्रेम है। पीछे की सीट पर मेरी पुत्री नमिता अपनी माँ के साथ बैठी है, जो पन्द्रह वर्ष की उम्र के हिसाब से अधिक गम्भीर है जिसे साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ, कामिक्स पढ़ना पसन्द है और जो मेधा की तरह विनम्रतापूर्वक मुस्कराती रहती है।

किन्तु मुजफ्फरपुर के पहले ही कार में कोई मामूली खराबी आ गई और मरम्मत कराने में और भी विलम्ब हो गया। वहाँ से बाहर निकलने पर पता नहीं कब सारे रंग तेजी से उतरती शाम के गहरे धुँधलके में डूब गये। मैंने कार स्पीड़ कुछ तेज कर दी। मोतीहारी के आगे आकाश पर बादल घिर आये। हवा में भी तेजी थी। कुछ ठंडा-सा एक हाफ स्वेटर निकाल कर सबको दे दिया।

रक्सौल हम रात में करीब साढ़े नौ बजे पहुँचे, लेकिन वहाँ सीमा चुंगी ने कार रोक ली। इस समय किसी वाहन के सीमा के पार वीरगंज जाने की अनुमति न देना आश्चर्यजनक लगा। कुछ गुस्सा भी आया। ‘‘सबेरे आठ बजे आकर कार ले जाइयेगा’’ यह कहकर उसने एक कहकर उसने एक कागज पर कुछ लिखकर मुझे थमा दिया।

मैं पहले एक ट्रैवलिंग एजेन्सी चला सका हूँ जिससे यहाँ से काठमांडू तक अनेक होटल-मालिकों से मेरी घनिष्ठता है और वे सब भी मुझे एक कमरा दे देते हैं मुफ्त। स्वागत-बात अलग। वीरगंज के होटल में आराम ही आराम था, लेकिन होटल मालिक अजय राय ने एक दूसरे दिन सुबह मेरे लिए एक पहाड़ी ड्राइवर वाली अच्छी गाँड़ी मँगा ही और कहा, ‘‘पहाड़ पर तुम खुद ड्राइव न करो, इसके लिए अनुभवी ड्राइवर चाहिए। लौटते समय अपनी कार मुझसे ले लेना।’’

पोखरा के लिए प्रस्थान करने के कुछ देर मुझे दवाइयों की अपनी उस पेटी की याद आ गई, जिसमें जरूरत की कुछ एलोपैथिक गोलियाँ, होम्योपैथिक और आयुर्वेदिक दवाइयाँ थीं, जिनके बीच चाइना बम भी अनिवार्य रूप से रखा रहता है, जो हर तरह के दर्द, फोड़ा, फुन्सी, कटे-फटे, मामूली हरारत-बुखार तथा अन्य कई अबूझ तकलीफों में ‘रामबाण’ समझ कर दे दिया जाता था। पेटी मैं ही अपने ड्राइंग रूम में रखता और किसी को भी छूने नहीं देता था। कहीं जाना हो तो मैं ही उसे अपने साथ ले जाता था, लेकिन इस बार पता नहीं कैसे साथ ले आना भूल गया।
‘‘अरे दवाइयों की पेटी साथ में रख ली थी न’’ मैंने मेधा को चिड़चिड़ाई दृष्टि से देखा।
‘‘अरे कहाँ ? वह तो-मैंने समझा आपने रख ली होगी-’’ वह घबराहट में पूरी बात कह न सकी और उसकी आंखों में डर की स्याही फैल गयी।

‘‘दुनिया का हर गैर-जरूरी काम तुम्हें याद आ गया और एक बेहद जरूरी चीज पर तुम्हारा ध्यान नहीं गया। तुमसे यही उम्मीद थी।’’ मैंने अपने गुस्से को किसी तरह दबाया।
‘‘ए नमिता, तुमने भी खयाल नहीं कराया।’’ मेधा ने मेरी लापरवाही पर कोई टिप्पणी करने की जगह अपनी आरोपित जिम्मेदारी लड़की पर थोपने की कोशिश की।

‘‘चलते समय तो कोई एक काम की भी मदद आपकी नहीं करता। दवाई की पेटी छूने पर आपकी कई बार नसीहत भी हो चुकी है। आप हर बात के लिए अपने को ही जिम्मेदार क्यों समझती हैं !’’
मैं सन्न रह गया। मेरी आँखें स्वत: ही नीचे झुक गईं। नमिता में कई अच्छाइयाँ हैं, काम भी खूब करती है, विनम्र भी है, मगर वह अन्याय की कोई बात बर्दाश्त नहीं कर पाती और कटु सत्य के रूप में जैसे विष ही उगल देती है। मेरा गुस्सा बुझ गया और मेरे होंठ एक समझौतावादी और दब्बू किस्म की घरेलू हँसी से फैल गये।
‘‘अच्छा, छोड़ो, पोखरा में दवाइयाँ ले लेंगे....’’ मैंने कहा।

काठमांडू-मार्ग पर तो पोखरा नहीं है, बल्कि एक स्थान पर दूसरा मार्ग उससे अलग होकर थोड़ा नीचे की ओर जाता है। वीरगंज से खा-पीकर आराम करने के बाद ही हम रवाना हुए थे, इसलिए अपने गन्तव्य पर करीब दस बजे रात में पहुँचे। बाजार बंद हो चुका था। चारों ओर घोर अंधकार, जिसे मेधा और बच्चे डरी-डरी दृष्टि से घूर रहे थे जो अपने अन्दर छिपी पर्वत श्रेणियों की गहरी, धब्बानुमा रहस्यमयी आकृतियों का आभास दे रहा था।

होटल का द्वार चौकीदार ने खोला। वह एक नया, नेपाली युवक था। पहले भी इस होटल में दो-तीन बार आ चुका हूँ। तब मेरे सभी पर्याटक इसी होटल में भेजे जाते थे। लम्बी-चौड़ी लाबी में काउन्टर पर बैठा व्यक्ति मुझे जानता था। मुझे देखकर वह अभिवादन करते हुए कुर्सी से उठ खड़ा हुआ ‘‘अरे, आइये साहब।’’ उसने तत्काल और सहर्ष दो-बिस्तरों का एकाएक कमरा ऊपर की मंजिल पर एलाट करके चौकीदार को हिदायत दी। चौकीदार सामान ले जाते वक्त स्वत: बड़बड़ाने लगा-
‘‘पोखरा का सबसे अच्छा होटल है शाब। यहाँ शब-कुछ मिलता, शब आराम। जहाँ दूर-दूर से लोग आता-पाकिस्तान, अमरीकी, अंग्रेज, चीनी, जापानी शाब खूब शैर-शपाटा करता। सुबह अन्नपूर्णा की चोटी पर ‘श्नो व्यू’ देखता। शुबह होने में कुछ समय बाकी रहे, तभी होटल की सबसे ऊपरी छत पर पहुँचना होता। इन्तजार करना होता शाब। उधर गहरी घाटी में सूरज का लाल-लाल गोला निकलता और अन्नपूर्णा की बर्फीली चोटी पर शोना पिघल कर फैल जाता। यही शमय है, शाब। बड़े भाग्य से देखने को मिलता। अन्नपूर्णा देवी हैं शाब, उनका दर्शन करके मन पवित्र हो जाता है......।’’

हम काफी थक गये थे। कमरा सचमुच अच्छा था। अभिषेक एक बिस्तरे पर बिना कपड़े बदले और जूते उतारे नीचे पैर लटका लेट गया। मैं भी पीठ सीधे करने के लिए दूसरे बिस्तरे पर उसी तरह लेटा और जल्दी ही खर्राटे लेने लगा।  

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