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यशपाल की सम्पूर्ण कहानियाँ - भाग 3

यशपाल

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2355
आईएसबीएन :00000

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यशापाल की सम्पूर्ण कहानियों का तीसरा भाग.....

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Yaspal ki sampurnya kahaniyan -3

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत खण्ड में यशपाल के चार कथा संकलन ‘उत्तमी की माँ’ ‘ओ भैरवी’ ‘चित्र का शीर्षक’ और ‘उत्तराधिकारी’ संगृहीत हैं।
 इन संकलनों का प्रकाशन उस युग में हुआ था जब हिन्दी साहित्य में प्रगतिशील को लेकर एक विवाद छिड़ा हुआ था। लोग समाजिक यथार्थ और मार्क्सवादी विचारधारा तथा साहित्य पर आक्रमण कर रहे थे। वे व्यक्ति-स्वातंत्र्य की बात उठाकर यह सिद्ध कर रहे थे कि प्रगतिशील लेखक अधिनायकवाद के समर्थक हैं और सोवियत रूस से प्रेरणा लेते हैं। यशपाल ने ‘उत्तमी की माँ’ की भूमिका में इसे रेखांकित करते हुए लिखा, ‘एक लेखक के नाते सौम्य साहित्यकों से मेरा अनुरोध है कि समाजवादी अधिनायकत्व में क्या हो रहा है अथवा क्या हो जायेगा, इन कल्पनाओं में उलझने की अपेक्षा हम अपने देश और समाज की परिस्थितियों में कलाकार और साहित्य पर अनुभव होने वाले दमन और अंकुश की ही चिन्ता क्यों न करें। कलाकार और अभिव्यक्ति के लिए उस स्वतंत्र्य की ही बात क्यों न सोचें जिसका अभाव हम स्वयं अनुभव कर रहे हैं।’

    यही कारण है कि यशपाल की इस समय लिखी गयी कहानियों में समकालीनता का बोध सर्वाधिक है और वे सामाजिक संदर्भों के यथार्थ से गहराई में जुड़ी हुई हैं।

प्रकाशकीय

हिन्दी कहानी की विकास परम्परा में वस्तु और शिल्प दोनों दृष्टियों से यशपाल की कहानियों के वैशिष्ट्य के लिए आज भी कोई चुनौती नहीं है। वे अपनी तरह के अकेले सर्जक हैं जिनका समस्त साहित्य जनता के लिए समर्पित है। उनकी मान्यता भी यही थी कि सामाजिक विकास की निस्तरता से उत्पन्न वास्तविकताओं को अनावृत्त और विश्लेषित करते रहने से श्रेष्ठतर दूसरा मन्तव्य साहित्य का नहीं हो सकता। 1939 में उनका पहला कहानी संग्रह ‘‘पिंजड़े की उड़ान’’ प्रकाश में आया तब यशपाल जीवनानुभवों के मार्ग का एक पूरा घटना बहुल सफर तय कर चुके थे।

वैचरिक प्रयोगों की सफलता-असफलता से जूझते हुए, वहाँ पहुँच चुके थे जिसके आगे शायद मार्ग अवरुद्ध था। 1919 में रौलेट एक्ट का प्रभाव उन पर पहला माना गया है। तब तक वे अपनी पारिवारिक आर्य समाजी परम्परा के साथ जुड़े हुए थे और ट्यूशन करके परिवार की आर्थिक स्थित में अपना अंशदान देने लगे थे। फिरोजपुर छावनी में उस समय भी काँग्रेसी आन्दोलन चला उसमें यशपाल की सक्रिय भूमिका का उल्लेख किया जाता है। इतना ही नहीं 1921 में चौरी-चौरा काण्ड के बाद गाँधी जी द्वारा आन्दोलन की वापसी से देश के अनेक नौजवानों की तरह यशपाल को भी भारी निराशा हुई। वे सराकरी कालेज में पढ़ना नहीं चाहते थे। इसी कारण लालालाजपत राय के नेशनल कालेज में भर्ती हो गए।

यहीं उनका परिचय भगत सिंह, सुखदेव और भगवतीचरण से हुआ। जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए गाँधीवाद मार्ग से अलग क्रान्तिकारी रास्ते पर चलकर स्वतन्त्रता के निमित्त अपना जीवन अर्पित करने का निश्चय लिया था। वे लोग तो कुछ ही दिन बाद भूमिगत हो गए लेकिन यशपाल नेशनल कालेज में पढ़ाते हुए दल सूत्र संभालने लगे।

भगत सिंह और यशपाल दोनों की साहित्य में गहरी दिलचस्पी थी। उदयशंकर भट्ट उसी कालजे में अध्यापक थे। और उन्हीं की प्रेरणा से यशपाल की पहली कहानी हिन्दी के मासिक पत्र में प्रकाशित हुई। कानपुर के ‘प्रताप’ ने भी उनकी कुछ भावात्मक गद्य की तरह की रचनाएँ छापीं लेकिन इसे यशपाल के लेखकीय जीवन की शुरुआत मानना भूल होगी। वे तो दिन पर दिन क्रान्तिकारी आन्दोलन की भारी जिम्मेदारियों में व्यस्त होते जा रहे थे। जहाँ कुछ निश्चय थे और उनसे निसृत कार्यक्रमों का व्यस्तता भरा दौर था।

1928 में लाला लाजपत राय पर आक्रमण करने वाले सार्जेण्ट साण्डर्स को गोली मारी गयी। 1929 मार्च में भगत सिंह ने दिल्ली असेम्बली में बम फेंका। 1929 में लाहौर में एक बम फैक्ट्री पकड़ी गई। तनाव इतना बढ़ा कि यशपाल भूमिगत हो गये। कहते हैं 1929 में ही वायसराय की गाड़ी के नीचे क्रान्तिकारियों ने जो बम विस्फोट किया वह यशपाल के हाथों हुआ था।

जाहिर है कि यशपाल को एक लम्बे समय का भूमिगत जीवन बिताते हुए ‘हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातन्त्र सेना’’ का काम सम्भालना पड़ा। 1931 में इस सेना के कमाण्डर इन चीफ चन्द्रशेखर आजाद को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में गोली मार दी गयी। यशपाल सेना के कमाण्डर इन चीफ बनाये गये इसी समय लाहौर षड्यन्त्र का मुकदमा चल रहा था। यशपाल उनके प्रधान अभियुक्त थे।। 1932 में यशपाल और दूसरे क्रान्तिकारी भी गिरफ्तार हो गये। उन्हें चौदह वर्ष का सख्त कारावास हुआ। 1938 में कांग्रेसी मन्त्रिमण्डाल आने पर राजनैतिक कैदियों की रिहाई हुई और यशपाल 2 मार्च 1938 को जेल से छूट गये। उन्हें लाहौर जाने की मनाही थी इसलिए लखनऊ को उन्होंने अपना निवास स्थान बना लिया। विप्लव का प्रकाश और उनके साहित्यिक जीवन के शुरुआत का यही काल है।

ध्यान देने की बात है कि ऊपर दिया गया एक विहंगम विवरण यशपाल के महान समरगाथा जैसे जीवन का मात्र एक ट्रेलर है। जिसके अन्यत्र अन्तर मार्गों में न जाने कितना कुछ ऐसा होगा, जिसमें भावात्मक और संवेदनात्मक तनावों के साथ वास्तविक अनुभवों के एक विराट संसार छिपा होगा—चरित्रों और घटनाओं की विपुलता के साथ मानवीय प्रकृति के बारीक अनुभवों के उल्टे-सीधे तन्तुओं का महाजाल फैला होगा जो उनके विशाल कहानी साहित्य में फैला हुआ है।

हमारे लिए उनके कथा-संकलनों को कुछ एक भागों में संकलित करते हुए अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा अन्ततः निश्चय यह हुआ कि 1939 से 1979 के बीच प्रकाशित उनके 18 कथा संकलनों को काल-क्रमानुसार चार भागों में बाँट कर प्रकाशित किया जाय। कथा साहित्य के मर्मज्ञ आलोचकों और विद्वानों ने भी इसी को उचित बताया। इससे उनके रचनात्मक विकास का एक सम्पूर्ण चित्र हिन्दी पाठकों को प्राप्त हो सकेगा। इन संकलनों के बारे में आपके सुझाव और सम्मति की हमें सदा प्रतीक्षा रहेगी।

-प्रकाशक

उत्तमी की माँ


उत्तमी के पिता बाबू दीनानाथ खन्ना की मृत्यु चालीस वर्ष की अवस्था में हो गयी थी। परिवार-बिरादरी और गली-मुहल्ले के सभी लोगों ने उनकी भरी जवानी में, असमय मृत्यु पर शोक किया और उत्तमी की माँ के प्रति सहानुभूति प्रकट की परन्तु विधवा हो जाने के कारण गरीब स्त्री पर विपत्ति का कितना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा था, इसे तो आहिस्ता-आहिस्ता उसी ने जाना।

बाबू दीनानाथ का लड़का बिशन उस समय एफ.एस.-सी. में पढ़ रहा था। उत्तमी की सगाई एक वर्ष पहले, तेरह वर्ष की आयु में, करमचंद सर्राफ के लड़के जयकिशन से हो चुकी थी। करमचंद सेठ की पत्नी केवल अच्छी जात और उत्तमी का खिलती कली जैसा रूप देखकर ही संतुष्ट हो गयी थी। बाबू दीनानाथ खन्ना के यहाँ से बड़े भारी दान-दहेज की आशा तो नहीं थी परन्तु उनके घराने की प्रतिष्ठा अच्छी थी। उनके दादा और पिता दोनों के समय ‘उच्ची-गली’ के खन्ना लोगों का बड़ा नाम था। उत्तमी की सगाई के समय लड़के वालों ने कहा था—ब्याह की कोई जल्दी नहीं है। हमारा लड़का अभी पढ़ रहा है। कम-से-कम बी.ए. तो पास कर ही ले...।’’

विधाता ने उत्तमी की माँ के लिए घटनाओं का न जाने कैसा व्यूह रचा था। उसके पति की मृत्यु के नौ मास बाद लाहौर में शीतला का भयंकर प्रकोप हुआ। शीतला माता कई घरों से बोलते खिलौने झपट ले गयीं। उत्तमी पर भी उनकी कृपा-दृष्टि पड़ी। वे उसे छोड़ तो गयीं परन्तु उसके चेहरे पर अपनी कृपा के चिह्न छोड़ गयीं। उत्तमी के गोरे रंग पर शीतला के हल्के-हल्के दाग ऐसे लगते थे मानो बरसी हुई चाँदनी की बूँदों के चिह्न बन गये हों। गली-मुहल्ले के ताक-झाँक करने वाले लड़के आपस में कहते—‘‘यार, यह तो दगे हुए पीतल की तरह और दमक गयी....!’’

चेहरे पर शीतला के दाग हो जाने से उत्तमी इतनी दुखी और लज्जित थी कि उसने गली में निकलना ही छोड़ दिया। इसके पहले माँ कभी किसी काम के लिए या दो-चार पैसे की चीज बाजार से ले आने के लिए कहती थी तो उत्तमी छँलागें लगाती हुई जाती और गली में लड़के-लड़कियों से कोई न कोई शरारत या चुहल जरूर कर आती। पर अब वह बाहर जाने के नाम से ही कोई न कोई बहाना बना देती। कई बार माँ चिढ़ भी जाती—‘‘हाँ, सारी दुनिया तुझे ही देखने को बैठी है।’’ उत्तमी ने स्कूल जाना भी छोड़ दिया था। मिडिल की परीक्षा देने को थी सो वह भी न दे पायी।

उत्तमी के साथ तो शीतला ने जो कुछ किया तो किया ही; सबसे अधिक संताप था उत्तमी के मँगेतर जयकिशन की माँ को। उत्तमी देखने में अब भी चाहे जैसी लगती हो कहने को तो चेहरे पर ऐब आ ही गया था। जयकिशन की माँ ने गहरी साँस लेकर कहा—‘‘हमें क्या मालूम था कि इस उम्र में भी इसे शीतला निकल आएगी और फिर ऐसी...?’’
कई दिन सोच-विचार करने के बाद जयकिशन की माँ ने लड़के का ब्याह तुरन्त कर देने की बात उठा दी।

उस समय उत्तमी की माँ के लिये लड़की का ब्याह तुरन्त कर देना कैसे सम्भव होता ? पति की मृत्यु को अभी दो बरस भी नहीं हुए थे। दीनानाथ रेलवे में दो-सौ रुपये मासिक कमाते थे। माना, उस जमाने में दो सौ रुपये बड़ी बात थी पर उनका खर्च भी खुला था। मकान घर का जरूर था परन्तु रहने भर को ही था; कोई हवेली तो थी नहीं। लड़की के ब्याह के लिए कम-से-कम आधा मकान रेहन रखकर कर्ज लिए बिना चारा नहीं था। पति की मृत्यु के बाद उत्तमी की माँ घर के एक तिहाई भाग में सिमिट कर शेष स्थान के किराये से ही गुजारा चला रही थी। उसके भविष्य का एक मात्र सहारा लड़का अब बी.एस.सी में पढ़ रहा था। लड़के का भविष्य कैसे बिगाड़ देती ?    
बहुत सोचकर उत्तमी की माँ ने कहा—‘‘अभी लड़की की उम्र ही क्या है, चौदह की ही तो है—बरस-दो-बरस ठहर जायें। उनका स्वर्गवास हुए तीन बरस तो हो जाएँ।’’

कुमारी लड़कियों की माताएँ प्रायः ही बेटी के चौदह की हो जाने पर बेटियों की आयु में दिन और मास नहीं छोड़तीं।
जयकिशन की माँ को नाराज हो जाने का कारण मिल गया। उसने बिरादरी में घूम-घूम कर कहना शुरू किया—‘‘इतना ही मिजाज है तो बैठे अपने घर। बाद में उसे कोई दोष न दे। हमें अपनी लड़की की भी तो शादी करनी है...।’’ और उसने जयकिशन के सगुन में आये एक सौ रुपये और नारियल लौटा दिया।

उत्तमी की माँ ने सिर पीट कर कहा—‘‘अगर ऐसा ही था तो, हमें छः महीने का समय तो दिया होता। मैं मकान गिरवी रखकर ही लड़की का ब्याह कर देती।’’ अब वह बिरादरी की दुहाई देती तो इस बात की डोंडी और पिटती कि लड़की में तो कोई ऐब होगा तभी तो सगाई छूट गयी।

उत्तमी ने जयकिशन को कभी देखा नहीं था परंतु उसने भयंकर अपमान महसूस किया कि कुरूप हो जाने के कारण उसकी सगायी टूट गयी। उसके भविष्य का फैसला हो गया। उसका मन चाहा की मर जायें। पहले वह बुनने या बीनने के लिए बैठती थी तो मकान की गली में खुलने वाली खिड़की में। यदि कोई लड़का संकेत से शरारत करता तो वह धमकाने के लिए भौंहें चढ़ा लेती या मुँह चिढ़ाकर अँगूठा दिखा देती थी। इन खेलों में खुलने वाली खिड़की में उसे भी मजा आता था। अब वह हवा या रोशनी के लिए बैठती थी तो आँगन में खुलने वाली खिड़की में। केशों में फूल और चिड़िया बनाना, दंदासे से दाँत उजले और होंठ लाल करना और कलफ लगी रंगीन चुन्नियों का शौक भी उसने छोड़ दिया था।

विधवा हो जाने के बाद से ही उत्तमी का माँ ने धर्म-कर्म का नियम आरम्भ कर लिया था। मुँह अंधेरे ही रावी पर स्नान करने चली जाती थी। लौटते समय ग्वाले के यहाँ से दूध और चौक से सब्जी भी लेती आती थी। बिशनदास नौ बजे कालिज चला जाता था इसलिए झटपट चूल्हा जलाकर लड़के के लिए खाना बना देती थी। अब उत्तमी भी सयानी हो गई थी। भाई के लिए खाना बना कर उसे खिला देने का काम लड़की पर छोड़कर उत्तमी की माँ पति के शोक में काला लहँगा पहने और राख से रँगी चादर ओढ़ लड़की के लिए वर की तलाश में बाहर निकल जाती। लाहौर, अमृतसर में विवाह के सम्बन्ध प्रायः स्त्रियाँ ही आपस में तय कर लेती थीं। पुरुषों को स्वीकृति भर देनी होती थी। उत्तमी की माँ ने सूरतमंडी, पापड़मंडी, मच्छीहट्टा, सैदमिट्ठा, गुमटी-बाजार, लुहारीमंडी, मोहलों के मुहल्ले में ऊँची जाति वालों का एक घर न छोड़ा। वह सबको तो समझाया करती—‘‘लड़की के बाप को मरे अभी दो बरस नहीं हुए, लड़की का ब्याह मैं कैसे कर दूँ ? लड़की को शीतला जरूर निकली थी पर अब भी कोई चल कर देख ले उनका रूप-रंग। हजारों में एक है...।’’

लड़कों की माताएँ अपना पीछा छुड़ाने के लिए सहानुभूति से बेबसी प्रकट कर कह देतीं—‘‘तुम तो जानती ही हो बहिन, आजकल के लड़के सुनते कहाँ हैं। कह देते हैं, पढ़ाई कर लें तो ब्याह करेंगे।’’ कोई लड़के की पढ़ाई का भारी खर्चा बताकर बहुत बड़े दहेज के लिए चेतावनी दे देती। उत्तमी की माँ गाल पर उंगली रखे सुनती और सिर झुकाकर गहरी साँस से लौट आती।
उत्तमी की माँ ने मकान की निचली मंजिल तो रेलवे में काम करने वाले एक बुजुर्ग सिक्ख बाबू को किराये पर दे दी थी और ऊपर की आधी मंजिल का भीतरी भाग, समीप ही लड़कियों के स्कूल में पढ़ाने वाली एक ब्राह्मण विधवा अध्यापिका को दे दिया था। अध्यापिका का लड़का शिवराम भी लगभग बिशन की ही आयु का था और डी.ए.वी. कालेज में, बी.ए. में पढ़ रहा था। बिशन और शिवराम में जल्दी ही मेल हो गया। जैसा कि लाहौर में कायदा था, दोनों के यहाँ बनी दाल-सब्जी इधर-उधर दी-ली जाने लगी। शिवराम अंग्रजी में तेज था। बिशन को मदद भी देता रहता था। शिवराम कोई भी चीज माँगने के लिए बिशन को पुकार लेता और चीज लेने-देने के लिए उस के हिस्से की ओर भी चला जाता। उत्तमी की माँ को वह ‘मासीजी’ पुकारने लगा था।

पहले तो उत्तमी सामना होने पर भी कोई उत्तर न देती; या सामने से हट कर भाई को पुकार देती या चुप ही रह जाती कि उत्तर न मिलने पर अपने आप समझ जाएगा कि बिशन नहीं है। एक दिन एकान्त देखकर शिवराम ने इतना कह दिया—‘‘मुँह का बोल इतना मँहगा है कि पुकारने पर जवाब भी नहीं मिलता; ना-हाँ ही कह दिया करो।’’
उत्तमी मुस्कराये बिना न रह सकी और फिर शिवराम के पुकारने पर जवाब दे देने लगी।
कुछ दिन बाद फिर एक दिन उत्तमी नीचें आँगन में नल से पानी भर रही थी। शिवराम भी अपनी गागर लेकर पहुँच गया। एकान्त देखकर उसने कहा—‘‘ओहो, इतना घमण्ड है ?’’




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