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बसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं

विद्यानिवास मिश्र

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :107
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2387
आईएसबीएन :00000

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आधुनिक जीवन की भीतरी विसंगतियों को उजागर करते निबन्ध...

Basant Aa Gaya Per Koi Utakantha Nahin a hindi book by Vidyanivas Mishra - बसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं - विद्यानिवास मिश्र

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निबन्ध मन की जिस तरंगायित अभिव्यक्ति का नाम है, श्री विद्यानिवास मिश्र के ये निबन्ध अत्यन्त सच्चाई और सूक्ष्मता के साथ इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। पं० रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद हिन्दी निबन्ध को लोक तत्त्व और परम्परा की गहन अनुभूति से समृद्ध करने वाला नाम पं० विद्यानिवास मिश्र का ही है।
इन निबंधों में विषय तो मात्र बहाना है। उस बहाने से निबंधकार आधुनिक जीवन की भीतरी विसंगतियों को बड़ी सूक्ष्मता से उजागर करता है। उसकी भाषा लोकोन्मुखी होने के साथ-ही-साथ संस्कृत और पाश्चात्य साहित्य के गहरे अध्ययन से अत्यन्त काव्यमयी हो उठी है। भाषा की इस काव्यमयता के भीतर ही जीवन के वे छलछलाते प्रसंग छिपे हैं जो बार-बार निबंधकार को एक मुक्त-आवेश की सृष्टि करने को विवश करते हैं। लेखक के व्यक्तित्व और अभिव्यक्ति से सन्निहित यह मुक्त आवेश ही उनके निबंधों को उस नैतिक अनुशासन से समृद्ध करता है जो हर आधुनिक लेखन की पहली शर्त है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में जब गद्य की अन्य विधायें आज अधिक प्रमुख और महत्वपूर्ण मानी जाने लगी हैं यह निबंध-संग्रह-विधा को पुनरूज्जीवित करने का एक महत्वपूर्ण और सफल प्रयास है।

 

स्वगत

 

आज मैं काफी लम्बें अरसे के बाद नया निबन्ध-संग्रह लेकर उपस्थित हो रहा हूँ, तब सोचता हूँ निबन्ध क्यों और किसके लिए लिखता हूँ। कभी-कभी अनदेखी अनचीन्ही गलियों में घसीट रहे हैं, जिनमें जाते हुए डर लगता है। और कभी-कभी लगता है निबन्ध लिखना मेरी लाचारी है, अपने अस्तित्व को कायम रखने का एकमात्र साधन है। इसलिए ढेर सारे कार्यों में डूब जाता हूँ तब भी निबन्ध के माध्यम से साँस लेने की छटपटाहट ही ऊपर ला देती है। यह सही है, बहुत कम लिख पाता हूँ, क्योंकि बहुत कम मैं अपना हूँ। सारी जिन्दगी, लगता है,
गहन (बन्धक) रख दी गई है, एक धुँईले घुटन भरे कुहासे के यहाँ, एक बतास-गुम सन्नाटे के नीरव क्रन्दन के मोल। इस कुहासे को चीरने की जब कोशिश करता हूँ, तब-तब लगता है कुहासे के पार से आने वाली किरन मुझे ही चीरने को दौड़ी आ रही है और मैं कुहासे की एक पर्त ओढ़ कर अपने बचाव की बचकानी कोशिश करता हूँ। एक औसत बुद्धिजीवी की जिन्दगी में कुहासा बन्धक भी है, बचाव भी है, क्योंकि दूसरा बचाव कोई है भी तो नहीं।

मेरे पाठक सोचते होंगे कि भारतीय आशावादी परम्परा की बात करने वाला यह आदमी कितना बेईमान है कि धुन्ध और कुहासे में गर्क़ है, और बात करता है कालातीत-देशातीत आसीम आनन्द के बोध की। ऐसा सोचना बेचा नहीं, पर क्या करूँ मैं स्वयं नहीं समझ पाता, मेरा सत्य-सा है, सर्वग्रास घुप्प अँधेरा या उजास का दूर से दिखने वाला हल्का इशारा। हो सकता है दोंनों ही सत्य मेरे हों, मैं दोनों ही के प्रति बेईमान होऊँ,। शायद मेरे शब्द दोनों के साथ छल करते रहते हों। पर एक द्विधाभक्त नियति का वध्य हूँ, इसलिए मेरे सत्य भी मुझे केवल आतंकित करते हैं, आश्वासन नहीं देते।

शादय इसलिए ये निबन्ध मेरे इने-गिने पठाकों को बहुत न रुचें, इनमें उन्हें रस न मिले, मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। मेरा इन निबन्धों पर कोई दावा नहीं। कब कैसे कुछ लिख देता हूँ, मुझे खुद अचरज होता है। पेशा ऐसा है जो लिखने (और अब पढ़ने का भी) साक्षात् विरोधी है, परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिनमें प्रतिबद्घता सबसे बड़ा अपराध है और मन ऐसा है, जिसमें लालित्य का चाव नहीं। तब भी विडम्बना यह कि अनुकम्पावश गाहे-बगाहे याद किया जाता हूँ ललित निबन्धकार के रूप में, बद अच्छा बदनाम बुरा। निबन्ध लिखने का उत्साह जगे ? पर एक बेहयाई है जो कुछ लिखा लेती है।

एक बात और है। निपट निराशा में भी लगता है, इमारत खड़ी हो न हो, ईंट रख दो, शायद कोई खड़ी कर सके, उसे दूर न जाना पड़े। मेरे ऊपर अहेतुक स्नेह रखने वाले स्व० डॉक्टर लोहिया कभी-कभी कहा करते थे-प्रोफेसर जानते हो, मेरी जिन्दगी में कुछ परिवर्तन आने वाला है या मेरे साथ के लोग इस परिवर्तन को लाने वाले होंगे, इसकी मुझे तनिक भी आशा नहीं है। मैं तो सिद्धान्तों की कड़ी जीवित रहे इसलिए अपनी बात दुहराता हूँ। मैं इतना चीखता-चिल्लाता हूँ,

महज इसलिए कि इसकी गूँज बहरी दिशाओं में मौजूद रहे, मैं अपना विरोध लिखा जाता हूँ, आज इस पर ध्यान न दिया जाये, कल न दिया जाये, परसों न दिया जाये, पर जब भी ध्यान दिया जाये, यह विरोध मानसून की तरह सारे आकाश में छा जाये। बस यह अपना कुछ लिखा लेता है और सपना टूटता है तो लगता है, यह मैंने क्या लिख डाला और यह मैंने ही लिखा, इस पर विश्वास नहीं होता।

इसलिए इन निबन्धों में कहीं तमक मिलती है तो यकीन मानिए मेरा नहीं शायद मेरे आने वाले पाठक की हो, और कहीं बाहरी निराशा मिलती है तो वह भी मेरी नहीं, मोहभंग की खुमारी में निढाल मेरे पहले के पाठक की हो। मेरे निबन्ध विचारों का दावा नहीं करते, इसलिए मैं उन्हें वैचारिक कहूँ तो भी कोई पाठक, कोई आलोचक क्यों पतियायेगा ?

और ये ललित कहे जायें, इसमें और भी असमंजस लगता है। व्यक्ति जब गुम हो तो उन्हें व्यव्यंजक भी क्यों कहूँ। ये बस कोर निबन्ध हैं, जिन्हें आपके सामने रख रहा हूँ, आपकों बहुत शिकायत विश्वस्त मानकर। आप से कोई दुराव नहीं, ये निबन्ध जितने मेरे हैं, उससे अधिक आपके या आपके किसी भाई-बन्धु के हैं। वैसे ये निबन्ध किसी एक किस्म के नहीं, जैसे आप या आपके साथी-संघाती भी एक किस्म के नहीं हैं। इनमें से अधिकतम आदरीण भैया साहब (पं० श्रीनीरायण चतुर्वेदी) और प्रियवर धर्मवीर भारती के कारण लिखे गये हैं, इनके प्रति आभारी हूँ और आभारी हूँ लोकभारती के प्रति जिसने देर में सही इसे छापकर प्रस्तुत किया

 

दिसम्बरः 1970

 

-विद्यानिवास मिश्र

 

पुनश्च

 

‘‘बसन्त आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं’’ का नया संस्करण निकल रहा है। इससे स्वाभावतः प्रसन्नता होती है। श्री दिनेश जी ने मुझसे कुछ भूमिका में जोड़ने को कहा। लगभग 32 वर्ष बाद जब इसका प्रस्तुत संस्करण निकल रहा है, मेरी रचना यात्रा के कई पड़ाव पीछे छूट चुके हैं और बसन्त अपने अर्थ के साथ आज भी आवेधन बना हुआ है। इस रचना को मैंने स्व० डा० लोहिया को समर्पित किया था। डा. लोहिया के निराशा के बीच भी न मरने वाली आशा के कुछ शब्द मैंने उस समय की भूमिका में लिखे थे। आज वे शब्द यथार्थ होकर सामने उपस्थित हो रहे हैं।

पता नहीं डा. लोहिया होते तो अपने को कितने अकेले पाते और कितना आज की परिस्थिति में राजनीति के लिए संकल्प शक्ति कार्यान्वित कर पाते। मैं नहीं मानता कि जो कुछ उन्होंने कहा वह व्यर्थ गया। व्यर्थ जाने लायक उन्होंने कुछ किया ही नहीं, पर उसकी अर्थ कहीं ऐसी अन्धी गुफा में ढकेल दिया गया है जहाँ से वह निकलने के लिए छटपटा रहा है। बसन्त उपलक्षण है, ऐसी सिसृक्षा का जो अपने को निःस्व बनाने का जोखिम उठाती है और जो रचती है उसमें स्वयं को विलीन करने का उल्लसित भाव रखती हैं। इसी रूप में बसन्त वेधक भी है और मोहक भी। मैं उसी बसन्त का आवाहन करना चाहता हूँ। एक निःस्व हो रहे देश में और निःस्वता की कीमत अदा कर असली स्व को पहचानने के लिए छटपटा रहे देश में।

हिन्दी साहित्य सम्मेलन का मैं आभारी हूँ कि उन्होंने इस पुस्तक को मंगलाप्रसाद पारितोषिक से सम्मानित किया। मेरे लिए हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सम्मान बहुत मूल्य रखता है क्योंकि मैंम ऐसे यशस्वी रचनाकारों की पंक्ति में खड़ा होता हूँ जो मुझसे कहीं अधिक ऊँचे पद वाले हैं, पर उनके आगे लघुता की भी बोध मुझे किंचित बड़ा बना दिया। दिनेश जी का आभारी हूँ कि उन्होंने इस संस्करण को निकालने का संकल्प लिया।

 

विद्यानिवास मिश्र

 

परम्परा : आधुनिक भारतीय सन्दर्भ

 

परम्परा शब्द धीरे-धीरे बुद्धिजीवी लोगों के बीच में वर्जित होता जा रहा है। मैं समझता हूँ, यह एक खतरनाक स्थिति है। परन्परा का खण्डन एक अलगद बात है क्योंकि उस खण्डन से ही परम्परा का विकास होता है; परन्तु परम्परा को नकारना एक दूसरी ही स्थिति है, जो चिंतन और सर्जन में खोखलेपन और परायेपन को जन्म देती है। आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवी या तो परम्परा से ग्रस्त हैं या भागने की कोशिश में परेशान। वह परम्परा को स्वीकार करने में हिचकता है, इसलिए सही परम्परा और गलत परम्परा के विवेचन के पचड़े में वह नहीं पड़ना चाहता। वह परम्परा को चूँकि जानना भी नहीं चाहता, इसलिए उसका जोरदार खण्डन भी नहीं कर पाता। जो लोग परम्परा को हथियार के रूप में अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए उपयोग कर रहे हैं, उनको भी टेकने की हिम्मत औसत बुद्धिजीवी नहीं करते।

इसलिए परम्परा के साछ डजो अनाचार वैदुषिक क्षेत्र में आज भारत में हो रहा है, वह एक भयंकर मानसिक विभाजन को जन्म दे रहा है, परम्परा की धरोहर और परदेश से उदासीन वर्ग एक तरफ और परम्परा से एकदम असम्पृक्त और देश के साथ सम्पृक्त विशाल समुदाय दूसरी तरफ। बहुत प्रकार की प्रतिबद्धताओं की बात की जाती है, पर किसी भी देश के लिए, विशेष रूप से, विकास शील देश के लिए, देश के स्वाभाव के अनुकूल और देश की सम्भावना के प्रेरक संस्कार के प्रति प्रतिबद्धता की बात बहुत कम की गयी है। जिन लोगों ने इस प्रकार की प्रतिबद्धता की चर्चा भी की है, वे अब

अव्यवस्थावादी, मतान्ध और मूर्तिभंजक करार दिये गये हैं। जिन लोगों नें देश की प्रतिमा बाहर बिक्री के लिए गढ़ी है, वे लोग बाहर की नजर को ही महत्त्व देते हैं। उनकी अपनी नजर या तो है नहीं या है भी तो उसपर उन्हें इत्मीनान नहीं है। खुजराहो के केन्द्रीय सरकार के आरामगाह में बिक्री के लिए खजुराहों के शिल्प की अनुकृतियाँ रखी थीं, मेरे एक अमरीकी कवि मित्र स्मृति-चिह्न के रूप में एकाध अनुकृति खरीदना चाहते थे, पर चुनाव की कोई गुंजाइश वहाँ नहीं थी।

वहाँ सभी मूर्तियाँ केवल कुछ विशेष रचित मुद्राओं की अनुकृतियाँ थीं जिनका अर्थ उनके सन्दर्भ के बाहर के वल निरी जुगुप्सित कामुकता के सिवाय कुछ नहीं और जो ढलती उम्र वाले पर्यटक-पर्यटिकाओं के चित्त को उत्तेजना के अनुकूल करने में तीव्र प्रभावकारी हैं। बेचनेवाला यह कल्पना कर ही नहीं सकता कि खजुराहो देखने के लिए हजारों मील सफर करने वाला कोई दूसरा भी नजर रख सकता है या वह भी उसकी तरह खजुराहो के धार्मिक प्रायोजन से सतह पर नहीं, गहराई

में जाकर जुड़ सकता है। खजुराहो का वह विक्रेता एक प्रतीक है हमारी संस्कृति का, हमारी परंपरा के सफल कहे जाने वाले व्याख्याता का। वह भी अपनी परम्परा का प्रामाण्य पश्चिम के मूल्यों में ढूँढ़ता है। वह शंकर और नागार्जुन को कांट और हेगेल के माध्यम से पढ़ना चाहता है, वह सार्त्र और कामू की अस्तित्ववादी घोषणा को अपने साहित्य पर लादना चाहता है और एक मरी हुई नस्लपरस्ती से दूषित ऐतिहासिक बोध को हिन्दुस्तान के इतिहास-निरपेक्ष वैज्ञानिक चिन्तन पर लादना चाहता है।
ऐसे समझदारों को समझाने के विए उन्हीं की भाषा का थोड़ी देर तक उपयोग करना चाहता हूँ। ‘आलोचना’ के 38वें अंक में श्री निर्मल का एक लेख है ‘परम्परा’ परायापन और प्रतिबद्धता’। यह लेख कुछ चेक लेखकों के किए गए कुछ प्रश्नों के उत्तरों पर आधारित हैं। इस लेख की चर्चा का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि किसी न किसी रूप में ये सभी लेखक अपने देश की संस्कृति परम्परा के अस्तित्व, प्रभाव और जीवनदायिनी शक्ति को स्वीकार करते हैं, पर साथ ही ‘सांस्कृतिक परम्परा का निर्माण नकली तरीकों से कीटाणुओं की संस्कृति की तरह किया जा सकता है’, इसमें विश्वास नहीं करते। इनमें से यारोस्लाम प्रतीक और विस्कोचिल परम्परा के प्रति दायित्व भी महसूस नहीं करते, पर वे भी यह मानते हैं कि जिस

सीमा तक ‘वह (राष्ट्रीय परम्परा) जीवन्त है, उसने अचेतन रूप से हमारी संस्कृति के आध्यात्मिक वातावरण के निर्माण करने में योग दिया है।’ और वे परम्परा के चाहे शिकार होकर या निर्माता होकर बँधे हुए हैं, मुक्त नहीं हैं। ये सभी समाजवादी लेखक हैं और संसार के व्यापक सास्कृतिक स्थिति के व्यापक सांस्कृतिक स्थिति के दबाव को भी महसूस करने वाले लेखक हैं, परन्तु ये ‘कास्मापालिटन’ या विश्वजनीय लेखक की सत्ता को अवास्तविक मानते हैं और राजनीतिक फार्मूले के आधार पर तैयारी की गयी अर्थ (कंटेंट) में समाजवादी और रूप में राष्ट्रीय साहित्य की खिचड़ी को भी अवास्तविक

मानते हैं। क्या यह छोटा-सा विवरण भी इसका पर्याप्त संकेत नहीं है कि परम्परा का संदर्भ किसी भी देश की सांस्कृतिक रचना का एक अनिवार्य और अपरिहार्य संदर्भ है, बल्कि सन्दर्भ ही क्यों, उसका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण उपादान भी है, सन्दर्भ तो वस्तुतः आधुनिकता है और आधुनिकता की संघर्षजन्य संवेदना है।

परम्परा के खण्डन का उत्साह कुछ बुद्धिजीवियों में उसी प्रकार का दिखता है, जिस प्रकार राँड़ औरतों में अपने पति की मृत्यु के असंभव से असंभव कारणों के प्रति आक्रोश में देखने को मिलता है। वे भी अपनी जेठानी की नजर को कोसेंगी कि इसी ने मेरा सुहाग छीन लिया, कभी दरवाजे पर ससुर के द्वारा लगाए गये पेड़ को कोसेंगी कि इसी के लगाने से मेरे ऊपर यह वज्रपात हुआ। कुछ इसी प्रकार की भाषा में हमारे देश के कुछ सूत्रधार भी बोलते हैं। श्री अशोक मेहता ने एक

दीक्षान्त-समारोह में फरमाया कि उत्तर प्रदेश के विकास में बाधा है उसकी परंपराग्रस्तता। श्री हुमायूँ कबीर ने भी विद्यार्थियों के बीच एक फतवा दिया था कि अंग्रेजी को माध्यम के रूप में न स्वीकार करने के कारण ही उत्तर प्रदेश पिछड़ा हुआ है। प्रगति के व्याख्याता अपना अपराध परम्परा के ऊपर लादकर पापमुक्त होना चाहते हैं। पर वे यह भूल जाते हैं कि पाप से भी बड़ी गठरी उनके सिर पर विदेशी परम्परा के भूत के रूप में बराबर सवार है और उनकी प्रत्येक क्रिया उस भीत से संचालित है।

ऐसे लोगों के मोह के कारण अपनी परम्परा का अज्ञान और अपनी सही परम्परा से शक्ति ग्रहण करने की अक्षमता है। परम्परा वस्तुतः कोई कालबद्ध चेतना नहीं है और हमारी परम्परा तो जातिबद्ध, कालबद्ध और यहाँ तक कि देशबद्ध चेतना भी नहीं है। वह शुद्ध अर्थ में आचारबद्ध चेतना है। मसीही, इस्लामी और यहूदी इतिहास-चिन्तन से हमरा चिन्तन बहुत ही विलग है। यह सही है कि गत डेढ़ सौ वर्षों में पश्चिमी शिक्षा में दीक्षित होने के कारण हमारे ऊपर पश्चिमी

इतिहास-चिन्तन का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है; पर यह भी सही है कि हम इस प्रभाव से अभी भी भीतर ही भीतर संघर्षरत हैं और इस प्रभाव से अभिभूत होने के कारण हम अधिसंख्यक भारतीय जनता से विच्छिन्न हैं, जो कि अभी से अमुखर रूप में एक जीवित और संपन्न संस्कृति को वहन कर रही है। हममे से जो लोग जरा और संकीर्ण हैं, वे अपना कुनबा बढ़ाने के लिए विदेशी आचार, विदेशी भाषा और विदेशी विचार को देश में प्राधान्य देना चाहते हैं

ताकि साधारण आदमी के लिए ये सारी चीजें असुलभ होने के कारण राष्ट्रीय जीवन में प्रधान्य उनके कुनबे का हो, पर साधारण आदमी आज फिर स्वाधीनता के बीस वर्षों बाद अंगड़ाई ले रहा है और वह शान्ति और व्यवस्था के नाम पर विश्वबन्धुता के नाम पर मुट्ठीभर लोगों के द्वारा शाशित होने से बगावत कर रहा है। उसके मन में कोई नक्शा ही नहीं है। इसीलिए आशंका है कि भाषा देने के नाम पर बुद्धिजीवी लोग नक्शा ही न बदल डालें, क्योंकि वह नक्शा उनके विए अप्रत्याशित है।

वे लोग तो इसे हिन्दुस्तान की कमजोरी मानते हैं कि उसमें इतिहास का बोध या दायित्व नहीं है। ये यह नहीं जानते कि इतिहास का बोध नस्ल के बोध से सम्बद्ध है और यह नस्ल का भी बोध है, जो अपने खानदान के खून का बदला खून से चुकाने के लिए लाचार बनाये रखता है। स्पेंगलर की यह बात कि ‘‘रक्त के साथ काल और लालसा सम्बद्ध है’’ इसी सन्दर्भ में कही गयी है। इसके विपरीत भारतीय चिन्तन में रक्त का कोई महत्त्व नहीं है। महाभारत में अजगर के साथ बहस करते युधिष्ठिर ने यह स्थापना की कि

 

जातिरत्र महासर्प मनुष्यत्वे महामते।
संकरात् सर्ववर्णानां दुष्परीक्ष्येति में मतिः।।
सर्वे सर्वास्वपत्यानि जनयन्ति सदा नराः।
वाड्मैथुनमथो जन्म मरणञ्च सघं नृणाम्।।
इदमार्ष प्रमाणञ्च ये यजामह इत्यपि।
तस्माच्छीलं प्रधानेष्टं विदर्य्ये तत्त्वदर्शिनः।।

 

मेरा यह निश्चित मत है कि मनुष्य की नस्ल की परीक्षा नहीं हो सकती, क्योंकि सारे वर्णों की मिलावट हो चुकी है। बहुत पहले से सारे मनुष्य सभी जातियों की स्त्रियों से सन्तान उत्पन्न करते चले आये हैं। भाषा, मैथुन; जन्म और मृत्यु ये सभी मनुष्यों में समान रूप से बँटी हुई हैं। पूर्वकाल में ऋषियों में भी इसीलिए इस पर बल दिया है कि जो अपनी आहुति देते हैं, वे ही श्रेष्ठ हैं और शील ही सबसे बड़ा मूल्य है।’
इसके विपरीत यहूदी चिन्तन में यह पाते हैं कि इज़राइल की जेहोवा के चुने हुए लोगों का है। इज़राइल का या यहूदियों का अधिकार भी है और कर्त्तव्य भी और संसार के वर्तमान स्वरूप में परमात्मा की सदिच्छा की पूर्ति करे और उनके राज्य की स्थापना बिना इसके मानव इतिहास के स्तर पर आने वाली नहीं है (दि आइडिया आफ हिस्ट्री इन एनश्येंट नियर

ईस्ट—मिलर बरोज़—एन्श्येंट इज़राइल)। इस्लामी चिन्तन में भी नस्ल या रक्त की प्राचीनता पर जो उतना ही ज़्यादा है। मोहम्मद साहब ने अरब के संकीर्ण कबीलों पर परस्पर युद्धों के अन्त के लिए सृष्टि के आररम्भ में आने वाली वंश-परम्परा से अपने अनुयायियों को, वंश को, एक विस्तृत आयाम तो जरूर दिया है, पर अरब की वास्तविकता की सीमा में रहते हुए वे नस्लपरस्ती से अरबों को मुक्त न कर सके। इसी का परिणाम था कति इस्लाम ‘समानता और भ्रातृभाव’ का विकास तो किया और अपने साये में बहुत-सी दुर्बल और अप्रतिरोधी जातियों को भी ले लिया, पर रक्त के प्रति दायित्व की भावना से

इस्लाम बँधा रहा और वह विचारों के आग्रह में जकड़ा रहा। मसीही चिन्तन ने तो एक तरह से पश्चिमी इतिहास-चिन्तन को जन्म ही दिया है, क्योंकि उसी ने मनुष्य की इतिहासबद्धता इस माने में स्थापित की कि मनुष्य जितना अपने अतीत से प्रतिबद्ध है उतना है अपने भविष्य से भी। ईसामसीह में विश्वास का अर्थ होता है कि ईसामसीह की जीवन-घटना ईसाई की जीवन घटना है, क्योंकि वह ईसाई के लिए है। भविष्य से मनुष्य इसलिए प्रतिबद्ध है कि यह ‘ऊर्ध्वमुखी प्रकार के

पुरस्कार के रूप में निश्चित गन्तव्य’ है और वर्तमान को सार्थक करने वाली वास्तविकता है, कोरी कल्पना नहीं (दि आइडिया आफ हिस्ट्री इन एन्श्येंट नियर ईस्ट—एरिख डिंकलर-अर्लियेस्ट क्रिश्चियेनिटी)। इस चिन्तन का परिणाम यह है कि इतिहास एक प्रकार से ईसामसीह की जीवन घटना के समान समाप्त या कृतकार्य हो चुका है। उसके बाद केवल उसका बोध बोझ के रूप में ढोने को रह गया है।
हमारी परम्परा रक्त या किसी जाति पर आदृत न होकर उस जाति को जोड़नेवाली भाषा पर आधृत है। उसमे जाति या रक्त का विचार कुछ बहुत सीमित सम्बन्धों तक के लिए सीमित है। भाषा-क्रन्द्रित चेतना नहीं, बल्कि प्रबोध सत्ता-केन्द्रित चेतना है। जाति चेतना की तरह यह बाहरी अवयव-रचना पर आधृत नहीं है। यह उसके विपरीत भीतरी संघटना पर आधृत है। भाषा का व्यापार ही दूसरे के लिए अपने भीतर होता है। इसलिए भाषा में मैं का एक संवादी तुम भी रहता है।

भाषा का आयाम काल न होकर देश, इतिहास न होकर धर्म होता है। हमारी परम्परा वाक्-केन्द्रित परम्परा है। उसके लिए हम प्राचीनकाल में प्रचलित पर्याय ही देना चाहें तो वह पर्याय वाक् होगा। वाक् परस्पर व्यवहार का प्रकृष्ट साधन है, परस्पर व्यवहार का एक प्रकार से प्रतीक है। बिना ‘संवदध्वम्’ के ‘सं वो मनांसि जायताम्’ की स्थिति सम्भव नहीं है।

इसलिए हमारी वाचिक परम्परा ने भाषा के संस्कार पर निरन्तर बल दिया है। यह संस्कार और कुछ नहीं, सत्य और ऋत की साधनी है। सत्य का स्वीकार, चाहे वह कहीं से आये और उस सत्य को ऋत अर्थात् मानवीय व्यवस्था के अमनुकूल बनाने का प्रयत्न, हमारी संस्कृति यात्रा के ही दो कूल हैं। कभी एक किनारा ढहा है, कभी दूसरा।

बराबर दो नये किनारे बनते रहे हैं, सामाजिक व्यवस्थाएँ बदली हैं, जीवन के आदर्श बदले हैं, पर व्यवस्था का आदर्श के साथ समन्वयन बराबर स्थापित किया गया है।
हमारे लिए कोई सत्य विदेशी या विजातीय नहीं है, पर उसे स्वीकार करते समय यह सोचना पड़ता है कि वह हमारी व्यवस्था के लिए कितना अनुकूल है। आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवी की विडम्बना यह है कि वह या तो परम्परा से भयभीत है और सत्यनारायण कथा की मनौती मानकर उसके दायित्व से मुक्त होने की बात सोचता है या वह परम्परा को इतना हेय समझता है कि बार-बार घर से रद्दी के रूप में उसे निकालकर ही स्वस्ति की साँस लेता है

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