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कविता संग्रह >> अणिमा

अणिमा

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2404
आईएसबीएन :9788180319495

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प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

इस पुस्तक में निराला द्वारा रचित चवालिस कविताओं का वर्णन किया गया है।

एक

नूपुर के सुर मन्द रहे,
जब न चरण स्वच्छन्द रहे।
उतरी नभ से निर्मल राका,
पहले जब तुमने हँस ताका
बहुविध प्राणों को झंकृत कर
बजे छन्द जो बन्द रहे।
नयनों के ही साथ फिरे वे
मेरे घेरे नहीं घिरे वे,
तुमसे चल तुममें ही पहुँचे
जितने रस आनन्द रहे।
(1941)

दो

बादल छाये,
ये मेरे अपने सपने
आँखों से निकले, मँडलाये।
बूँदें जितनी
चुनी अधखिली कलियाँ उतनी;
बूँदों की लड़ियों के इतने
हार तुम्हें मैंने पहनाये !
गरजे सावन के घन घिर घिर,
नाचे मोर बनों में फिर फिर
जितनी बार
चढ़े मेरे भी तार
छन्द से तरह तरह तिर,
तुम्हें सुनाने को मैंने भी
नहीं कहीं कम गाने गाये।
(1941)

तीन

जन-जन के जीवन के सुन्दर
हे चरणों पर
भाव-वरण भर
दूँ तन-मन-धन न्योछावर कर।
दाग़-दग़ा की
आग लगा दी
तुमने जो जन-जन की, भड़की;
करूँ आरती मैं जल-जल कर।
गीत जगा जो
गले लगा लो, हुआ ग़ैर जो, सहज सगा हो,
करे पार जो है अति दुस्तर।
(1939)

चार

उन चरणों में मुझे दो शरण।
इस जीवन को करो हे मरण।
बोलूँ अल्प, न करूँ जल्पना,
सत्य रहे, मिट जाय कल्पना,
मोह-निशा की स्नेह-गोद पर
सोये मेरा भरा जागरण।
आगे-पीछे दायें-बायें
जो आये थे वे हट जायें
उठे सृष्टि से दृष्टि, सहज मैं
करूँ लोक-आलोक-सन्तरण।
(1939)

पाँच

सुन्दर हे, सुन्दर !
दर्शन से जीवन पर
बरसे अनिश्वर स्वर।
परसे ज्यों प्राण,
फूट पड़ा सहज गान,
तान-सुरसरिता बही
तुम्हारे मंगल-पद छू कर।
उठी है तरंग,
बहा जीवन निस्संग,
चला तुमसे मिलन को
खिलने को फिर फिर भर भर।
(1939)

छः

दलित जन पर करो करुणा।
दीनता पर उतर आये
प्रभु, तुम्हारी शक्ति अरुणा।
हरे तन-मन प्रीति पावन,
मधुर हो मुख मनोभावन,
सहज चितवन पर तरंगित
हो तुम्हारी किरण तरुणा
देख वैभव न हो नत सिर,
समुद्धत मन सदा हो स्थिर,
पार कर जीवन निरन्तर
रहे बहती भक्ति-वरुणा।
(1939)

सात

भाव जो छलके पदों पर,
न हों हलके, न हों नश्वर।
चित्त चिर-निर्मल करे वह,
देह-मन शीतल करे वह,
ताप सब मेरे हरे वह
नहा आई जो सरोवर।
गन्धवह हे, धूप मेरी।
हो तुम्हारी प्रिय चितेरी,
आरती की सहज फेरी
रवि, न कम कर दे कहीं कर।
(1939)

आठ

धूलि में तुम मुझे भर दो।
धूलि-धूसर जो हुए पर
उन्हीं के वर वरण कर दो
दूर हो अभिमान, संशय,
वर्ण-आश्रम-गत महामय,
जाति-जीवन हो निरामय
वह सदाशयता प्रखर दो।
फूल जो तुमने खिलाया,
सदल क्षिति में ला मिलाया,
मरण से जीवन दिलाया सुकर जो वह मुझे वर दो।
(1940)

नौ

तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर,
जो द्वार-द्वार फिर कर
भीख माँगता कर फैला कर।
भूख अगर रोटी की ही मिटी,
भूख की जमीन न चौरस पिटी,
और चाहता है वह कौर उठाना कोई
देखो, उसमें उसकी इच्छा कैसे रोई,
द्वार-द्वार फिर कर
भीख माँगता कर फैला कर-
तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर।
देश का, समाज का
कर्णधार हो किसी जहाज का
पार करे कैसा भी सागर
फिर भी रहता है चलना उसे
फिर भी रहता है पीछे डर;
चाहता वहाँ जाना वह भी
नहीं चलाना जहाँ जहाज, नहीं सागर,
नहीं डूबने का भी जहाँ डर।
तुम्हें चाहता है वह, सुन्दर,
जो द्वार-द्वार फिर कर
भीख माँगता कर फैला कर।
(1940)

दस

मैं बैठा था पथ पर,
तुम आये चढ़ रथ पर।
हँसे किरण फूट पड़ी,
टूटी जुड़ गई कड़ी,
भूल गये पहर-घड़ी,
आई इति अथ पर।
उतरे, बढ़ गही बाँह,
पहले की पड़ी छाँह,
शीतल हो गई देह,
बीती अविकथ पर।
(1940)

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