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तपस्विनी

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :595
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2416
आईएसबीएन :81-267-0072-6

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मुंशी जी की एक अमर रचना...

Tapaswani

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय साहित्य में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का अप्रतिम महत्त्व है। वे केवल गुजराती भाषा के नहीं, अपितु समस्त भारतीय भाषाओं के प्रतिनिधि रचनाकारों में से एक हैं। हिंदी भाषी समाज के लिए तो वे जैसे अपने ही रचनाकार हैं। भारतीय पौराणिक आख्यान और इतिहास उनकी रचनाभूमि है। एक ओर उन्होंने भगवान परशुराम और कृष्णावतार जैसे पौराणिक आख्यानों का सृजन किया, वहीं जय सोमनाथ जैसे वृहत् ऐतिहासिक उपन्यास की रचना की है।
तपस्विनी मुंशी जी की एक ऐसी अमर रचना है जिसमें 1857 से लेकर 1947 तक का कालखण्ड समाहित है।

भारतीय स्वतंत्रता के स्वर्ण जयंती वर्ष में इस कृति का इसलिए भी अधिक महत्त्व है कि इसमें स्वतंत्रतापूर्व की राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियाँ समाहित हैं। इतिहासबद्ध न होने पर भी इस कृति के ऐतिहासिक महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। स्वतंत्रतापूर्व और स्वतंत्रता-पश्चात् की स्थितियों के तुलनात्मक अध्ययन में यह कृति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। मानवीय संवेदनाओं का सूक्ष्म चित्रण और भाषिक सरलता मुंशी जी के लेखन की विशिष्टता है। इतिहास को विषय वस्तु बनाते हुए भी मानवीय व्यवहार को घटनाओं से अधिक महत्त्व देकर एक तरह के समाजशास्त्रीय इतिहास की रचना करते हैं। प्रस्तुत उपन्यास भी इसी तरह का सामाजिक इतिहास रचता है।
निस्संदेह, यह कथाकृति लेखकीय दायित्व-बोध, विलक्षण प्रतिभा और कमनीय कल्पना का अपूर्व सामंजस्य प्रस्तुत करती है।

 

रवि त्रिपाठी

 

 

रवि त्रिपाठी के पर झनझना रहे थे। उसने अपने बाबा की पालथी की ओर नजर डाली और फिर अपने छोटे पैरों को देखा। उसके मन ने बहुत चाहा कि पालथी छोड़कर पैर सीधे कर ले, पर ऐसा करने की उसकी हिम्मत न हुई।
गणपति शकंर पचासी वर्ष के होने पर भी तने हुए बैठे थे। उनका कसा हुआ शरीर, वृद्धावस्था में भी, बचपन से किये हुए जप, आसन और नमस्कार के कारण सीधी घड़ी-जैसा था।
रवि सदैव बाबा के शरीर की झुर्रियाँ गिनने का प्रयत्न करता रहता था। उनके माथे पर सात आड़ी रेखाएँ थीं। उन्हें उसने कई बार गिना था। सारे शरीर पर कितनी थीं, इसका हिसाब वह अभी तक नहीं लगा पाया था।
इस समय रवि को जो जँभाई आ रही थी, उसे उसने बड़ी मुश्किल से रोका। बाबा के बेदोच्चारण सिखाते समय उसका जँभाई लेना उन्हें पसन्द न था। उस समय यदि उसे जँभाई आ जाती, तो बाबा उसे डाटते तो नहीं, पर उसके मुख पर निराशा का भाव आ जाता तब रवि समझ जाता कि बाबा उसे आलसी और मूर्ख समझते हैं। इससे उसका अभिमान आहत हो जाता। इसलिए वह जहाँ तक होता, जँभाई को रोकता।

‘हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे’- जैसे शुद्ध स्वर के साथ उच्चारित गणपति शंकर त्रिपाठी के शब्द रवि के कान में पड़े, तो नित्य के अभ्यासानुसार उसने भी उन शब्दों का सस्वर उच्चारण किया। फिर भी आज उसका मन वेदोच्चारण पर जम नहीं पा रहा था।
कल शाम को पाठशाला से आकर वह माधवबाग के लक्ष्मीनारायण के मन्दिर में एकादशी का पैसा और सुपारी लेने गया था। उस समय एक उसके ही जितना लड़का मोटर में से उतरकर दर्शन करने आया। उसने चमचमाते कपड़े पहन रखे थे, सिर पर जरी की टोपी थी और माथे पर बड़ा टीका था। रवि को लगा कि उसका जन्म-दिन अथवा ऐसा ही कोई शुभ प्रसंग होना चाहिए। उस लड़के के साथ हीरों के गहनों में जगमगाती उसकी माँ आयी थी। दोनों ने भगवान् के दर्शन किये। लौटते वक्त उस लड़के की नजर रवि पर पड़ी।

‘‘माँ, मुझे पाँच रुपये दे,’’ उस लड़के ने माँ से कहा।
‘‘क्यों बेटा ?’’
‘‘मुझे ब्राह्मण को दक्षिण देनी है।’’
माँ ने बालक को पाँच रुपये दिये और उसने वे रवि को दे दिये। रवि ने बाबा की तरफ हाथ बढ़ाकर ‘शतं जीव शरद:’ कहकर आशीर्वाद दिया। लड़का तो अपनी माँ के साथ चला गया, पर उसकी शान, उसके कपड़े, उसके गले में पड़ी मोतियों की माला और उसका गर्व के साथ रुपये देना, इन सबकी छाप रवि के हृदय पर पड़ी; उसके हृदय में असन्तोष की आग भड़क उठी। क्या कभी उसके जीवन में भी ऐसा दिन आयेगा, जब वह भी ऐसे कपड़े पहनकर ठाठ से पाँच रुपये का दान करेगा ? रवि ने आह भरी।

रवि को एक बार में इससे अधिक दक्षिणा कभी नहीं मिली थी। उसके हाथ में कभी एक रुपया तक नहीं आया था, इसलिए, वह बड़ी देर तक पाँच रुपयों को देखता रहा। इसके बाद इस डर से कि कहीं कोई देख न ले, उसने उनको अण्टी में लगा लिया। उसकी समझ में यह नहीं आया कि इन रुपयों का क्या करे। लेकिन साथ ही बाबा को देने का मन भी नहीं हुआ।

वह माधवबाग से भोईवाड़े की गली में पाँचवीं मंजिल की अटारी में अपने घर आया। उसके बाबा ने पहली मंजिल में स्थित पाठशाला में चालीस वर्ष तक आचार्य का काम किया था और वृद्ध होने पर उसके ट्रेस्टियों ने यह अटारी उनको जीवन भर के लिए रहने को दे दी थी। उसमें रवि और उसके बाबा रहते थे।
आज रवि की आँखों में उन रुपयों की चमक आ गयी थी। उसे यह मकान पुराना लगा; जीना टूटा-फूटा दिखायी दिया। इस अटारी के अलावा उसने और कोई घर नहीं देखा था, फिर भी आज उसमें पैर रखते हुए उसे कष्ट का अनुभव हुआ। नीचे से शौचालय और उल्टे-सीधे फेंके हुए अन्न की दुर्गन्ध उसे पहली बार आयी और असह्य लगने लगी।

रवि बाबा को परम श्रद्धा की दृष्टि से देखता था। जब वह छोटा था, तभी उसके माँ और बाप मर गये थे। माँ-बाप, सगे सम्बन्धी, जो भी समझिए, उनमें अकेले उसके बाबा ही थे। बड़े-बड़े विद्वान शिष्य-भाव से उनकी पूजा करते। कभी-कभी बड़े-बड़े सेठ भी उनके चरण स्पर्श करने आते। वे सब बाबा को देवता समझते, इसलिए किसी शुभ अवसर पर उनके स्त्री-बच्चे भी उनके चरण-स्पर्श करने आते।

बाबा शायद ही कभी नीचे उतरकर किसी के घर जाते। वे रोज तीन जीने उतरकर पाठशाला जाते, किसी पण्डित के कठिन प्रश्न का निराकरण करते और सबको आशीर्वाद देकर धीरे-धीरे कटहरा पकड़ते हुए वापस अटारी में आ जाते। बाबा किसी का पैसा नहीं लेते थे। यदि कोई दो जनों लायक सीधा भेज देता, तो स्वीकार कर लेते परन्तु दो दिन से ज्यादा चले, इतना सीधा भी न लेते। यदि कभी सीधा न आता, तो बाबा और रवि उपवास रख लेते। लेकिन ऐसा बहुत कम होता। एकादशी के दिन भी कोई इन दोनों के लायक फलाहार दे ही जाता। सारा दिन और आधी रात तक बाबा जप करते रहते और जिस दिन रवि को वेद न पढ़ाते, उस दिन ‘कौमुदी’ के सूत्र बताते या काव्य समझाते।

बाबा सवेरे अँधेरे उठकर नहा लेते। रवि देर से उठता, तो भी बाबा नहा-धोकर सन्ध्या करने बैठ ही जाते। रवि भी नहाकर सन्ध्या करने बैठ तो जाता, पर कभी-कभी ऐसा करते हुए वह ऊब जाता। इसके बाद बाबा और वह दोनों मिलकर आये हुए सीधे को पकाते। भोजन करके रवि तो पाठशाला जाता और बाबा जरा लेट जाते।
पाठशाला का समय पूरा होने पर रवि लक्ष्मीनारायण और भूलेश्वर के मन्दिरों के दर्शन करने जाता। जब वापस आता, तो कोई न कोई पण्डित बाबा के पास कुछ पूछने के लिए आया होता। तब रवि चुपचाप अटारी की सब चीजों को ठोक से जमाता, अँगीठी सुलगाकर अपने लायक भोजन बनाता और फिर अपने कपड़े धोने में लग जाता। बाबा अपने कपड़े खुद धोते। रात को बाबा तो कुछ खाते नहीं थे, इसलिए भोजन तैयार होते ही रवि खा लेता और फिर बाबा के पास ‘कौमुदी’ पढ़ने बैठ जाता।

आज सवेरे रवि का मन उस लड़के और अपने कुरते की जेब में पड़े रुपयों में लगा था। रात को उसे ठीक से नींद आयी थी, इसलिए सवेरे जँभाइयाँ भी आने को होतीं और आँखें भी झुकी पड़तीं।
‘‘बेटा, कल ठीक से नींद नहीं आयी क्या ?’’ वेदमन्त्र  बोलते हुए बाबा ने रुककर कहा। रवि ने चौंककर आँखें मिचमिचायीं। बाबा के प्रश्न से उसके मन में घुमड़ते हुए विचार के दो टुकड़े हो गये।
‘‘क्या नींद आ रही है ?’’ बाबा ने फिर पूछा। उनकी आवाज में अधीरता या क्रोध न था, प्रत्युत ममतामयी माँ के वात्सल्य की झंकार थी। ‘‘तो जा, थोड़ी देर सो ले। मैं अँगीठी सुलगा लूँगा।’’

रवि को आज सोना न था। वह तो अपने मन में घुमड़ते हुए विचार को प्रकट करना चाहता था। लेकिन अपने मूर्खतापूर्ण विचार को कहकर बाबा की शान्ति भंग करने का साहस भी वह नहीं सँजो पाता था।
रवि अपने बाबा से डरता था। वह सोचता था कि उसके पागलपन के विचार से न जाने वे क्या कहेंगे ? कहीं डाँटेंगे तो नहीं ? यदि मना कर दिया तो ? क्या उस पर तरस खायेंगे ? ऐसे अनेक प्रश्न उसके मस्तिष्क में उठते।
अन्त में रवि ने आँखें मलीं, गला खँखारा, कन्धे सीधे किये और काँपती आवाज में कहाँ, ‘‘बाबा !’’
‘‘हाँ बेटा !’’
‘‘एक बात पूछूँ ?’’
‘‘हाँ, पूछ,’’ बाबा ने कहा।
‘‘मुझे पाँच रुपये की दक्षिणा मिली है,’’ रवि ने कहा। उसे हृदय की धड़कन उसके कानों को जोर से सुनायी दे रही थी और उसका हाथ भी काँप रहा था।

‘‘किसने दी, बेटा ?’’
रवि ने देखा कि बाबा उसकी बात पर विश्वास नहीं कर रहे हैं। उसने तुरन्त उठकर क

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