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उपन्यास >> ओस की बूँद

ओस की बूँद

राही मासूम रजा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2429
आईएसबीएन :9788126701988

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"मजहब और राजनीति की सीमाओं से परे, दिल की सच्ची भावनाओं को उजागर करती इंसानियत की कहानी।"

Os Ki Boond

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गाँव’ लिखकर हिन्दी उपन्यास में अपना स्थान बनाया था। ‘टोपी शुक्ला’ उनका दूसरा सफल उपन्यास था और यह उनका तीसरा उपन्यास है। यह उपन्यास हिन्दू-मुस्लिम समस्याओं को लेकर शुरू होता है लेकिन आखिर तक आते-आते पाठकों को पता चलता है कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या वास्तव में कुछ नहीं है, यह सिर्फ राजनीति का एक मोहरा है, और जो असली चीज है वह है इंसान के पहलू में धड़कने वाला दिल और उस दिल में रहने वाले ज़ज्बात, और इन दोनों का मजहब और जात से कोई ताल्लुक नहीं। इसलिए साम्प्रदायिक दंगों के बीच सच्ची इंसानियत की तलाश करने वाला यह उपन्यास एक शहर और एक मजहब का होते हुए भी हर शहर और हर मजहब का है ! एक छोटी-सी जिन्दगी की दर्द भरी दास्तान जो ओस की बूँद की तरह चमकीली और कम उम्र है।

 

भूमिका

 

 

बड़े-बूढ़ों ने कई बार कहा कि गालियाँ न लिखो, जो ‘आधा गाँव’ में इतनी गालियाँ न होतीं तो तुम्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार अवश्य मिल गया होता, परंतु मैं यह सोचता हूँ कि क्या मैं उपन्यास इसीलिए लिखता हूँ कि मुझे साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिले ? पुरस्कार मिलने में कोई नुक़सान नहीं, फ़ायदा ही है। परंतु मैं साहित्यकार हूँ। मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे तो मैं गीता के श्लोक लिखूँगा। और वह गालियाँ बकेंगे तो मैं अवश्य उनकी गालियाँ भी लिखूँगा। मैं कोई नाज़ी साहित्यकार नहीं हूँ कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊँ और हर पात्र को एक शब्दकोश थमाकर हुक्म दे दूँ कि जो एक शब्द भी अपनी तरफ से बोले तो गोली मार दूँगा। कोई बड़ा-बूढ़ा यह बताए कि जहाँ मेरे पात्र गाली बकते हैं, वहाँ मैं गालियाँ हटाकर क्या लिखूँ। डॉट-डॉट-डॉट ? तब तो लोग अपनी तरफ से गालियाँ गढ़ने लगेंगे ! और मुझे गालियों के सिलसिले में अपने पात्रों के सिवा किसी पर भरोसा नहीं है।
गालियाँ मुझे भी अच्छी नहीं लगतीं। मेरे घर में गाली की परंपरा नहीं है। परंतु लोग सड़कों पर गालियाँ बकते हैं। पड़ोस से गालियों की आवाज़ आती है और मैं अपने कान बंद नहीं करता। यही आप करते होंगे। फिर यदि मेरे पात्र गालियाँ बकते हैं, तो आप मुझे क्यों दौड़ाते हैं ? वे पात्र अपने घरों में गालियाँ बक रहे हैं। वे न मेरे घर में हैं, न आपके घर में। इसलिए साहब, साहित्य अकादमी के इनाम के लिए मैं अपने पात्रों की जबान नहीं काट सकता। इस उपन्यास के पात्र भी कहीं-कहीं गालियाँ बकते हैं। यदि आपने कभी गाली सुनी ही न हो तो आप यह उपन्यास न पढ़िए। मैं आपको ब्लश करवाना नहीं चाहता।

 

-राही मासूम रज़ा

 

 

डायरी का एक पन्ना

 

 

डायरी लिखना बड़ी बेवक़ूफी की बात है; क्योंकि डायरी में सत्य लिखना पड़ता है, और कभी-कभी सत्य लिखना नहीं होता। कभी-कभी तो यह जानना भी असंभव हो जाता है कि सत्य क्या है और असत्य क्या है। परंतु सत्य परछाईं की तरह साथ लगा रहता है। कोई लाख चाहे कि परछाईं से पिंड छूट जाए, परंतु यह संभव नहीं। जब तक आत्मा का सूर्य अस्त नहीं हो जाता, ये परछाइयाँ साथ लगी रहती हैं; इसलिए इन परछाइयों से जान छुड़ाने की सिर्फ़ एक शक्ल है कि मनुष्य इनकी आँखों में आँखें डाल दे और कहे : हाँ-हाँ, मुझे मालूम है...

सच पूछिए तो मैं यह डायरी इसीलिए लिख रहा हूँ कि समय की आँखों में आँखें डालकर यह कह दूँ : हाँ-हाँ, मुझे मालूम है कि कल पाकिस्तान बन गया; मुझे यह भी मालूम है कि आज भारत स्वतंत्र हो गया है; और मुझे यह भी मालूम है कि मेरा नाम मुहम्मद वक़ारुल्लाह अंसारी है...

परंतु क्या सच केवल इतना ही है कि कल पाकिस्तान बना और आज भारत स्वतंत्र हुआ और यह कि मेरा नाम मुहम्मद वक़ारुल्लाह अंसारी है ? क्या वे पिछली शताब्दियाँ सत्य नहीं हैं जो गुज़र गईं ? और क्या वह क्षण सत्य नहीं है, जो अभी-अभी गुज़रा है ? और आनेवाली शताब्दियाँ भी क्या सत्य नहीं हैं ?

मेरे घर पर तिरंगा लहरा रहा है, और घर में सबको यह फिक्र है कि बड़े भाई ‘दिल्ली में हैं’ कहा जाए या ‘दिल्ली में थे’ कहा जाए ? क्या यह प्रश्न भी उतना ही बड़ा सत्य नहीं है, जितना बड़ा सत्य यह है कि कल पाकिस्तान बन गया और आज भारत स्वतंत्र हो गया है ?
....और आज का सबसे बड़ा सत्य तो यह है कि मैं आज बहुत खुश हूँ और बहुत परीशान भी।

 

(वहशत अंसारी की डायरी का एक पन्ना)

 

 

अ पर ओ की मात्रा

 

 

मुस्लिम ऐंग्लो वर्नाक्युलर हाई स्कूल’ का नाम बदलकर ‘मुस्लिम  ऐंग्लो हिंदुस्तानी हायर सेकेंड्री स्कूल’ रख दिया गया। पुराना टिनवाला बोर्ड उतर गया और दीवार पर सीमेंट के शब्दों से यह नया नाम लिख दिया गया, ताकि शहरवालों को मालूम हो जाए कि यही नाम अब मुस्तक़िल हो गया है।

यह फ़ैसला बहुत सोच-विचार के बाद किया गया था। स्कूल की वर्किंग कमेटी के प्रेसिडेंट श्री हयातुल्लाह अंसारी ने कमेटी के दूसरे लोगों को बहुत देर तक समझाया कि देश के स्वतंत्र हो जाने के बाद ‘वर्नाक्युलर’ बहुत बुरा लगेगा, और सरकार को खुश करने के लिए ‘वर्नाक्युलर’ की जगह ‘हिदुस्तानी’ कर देना आवश्यक है। कमेटी के एक मेंबर श्री वजीर हसन ने प्रश्न उठाया कि ‘हिंदुस्तानी’ तो ठीक, लेकिन जब स्कूल में हायर सेकेंड्री तक पढ़ाई नहीं होगी, तो ‘हायर सेकेंड्री’ का दुमछल्ला क्यों लगाया जाए ? परंतु हयातुल्लाह अंसारी के पास हर सवाल की तरह इस सवाल का जवाब भी तैयार था। बोले :

‘‘आप लोग भी कमाल करते हैं। कांग्रेस सरकार को चूतिया बनाने का यही मौका है। बलवों में इतने मुसलमान मारे जा रहे हैं कि बलवों के बाद सरकार मुसलमानों को फुसलाना शुरू करेगी। ओही लपेट में ई इस्कूलों हायर सेकेंड्री हो जइहै।’’
परंतु वज़ीर हसन भी चूकनेवाले नहीं थे। बोले :

तो ऐसा क्यों न किया जाए कि इस्कूल का नाम मुस्लिम ऐंग्लो हिंदुस्तानी युनिवर्सिटी रख दिया जाए ! शहर में कोई युनिवर्सिटी है भी नहीं। सरकार सोचेगी, चलो नाम पहले से मौजूद है, तो युनिवर्सिटी खोल ही दिया जाए।’’
श्री हयातुल्लाह अंसारी ने अपनी गाँधी टोपी को सिर पर ठीक से जमाते हुए वज़ीर हसन की तरफ़ देखा। वह अपनी टोपी और वज़ीर हसन दोनों ही से खुश नहीं थे।
बात यह है कि वह और वज़ीर हसन दोनों ही साथ-साथ मुस्लिम लीग में शामिल हुए थे। वजीर हसन बड़ी ही जोशीली तकरीरें किया करते थे। श्री अंसारी को भाषण के ख़याल ही से कँपकँपी लग जाया करती थी। नतीज़ा यह हुआ कि वज़ीर हसन मुस्लिम लीग की ज़िला कमेटी के सेक्रेट्री हो गए और अंसारी साहब सिर्फ नायब सदर बन सके ! नायब सदर कहने में तो सेक्रेट्री से भला लगता है, परंतु नायब सदर की हैसियत ही क्या ! सदर न हो तो नायब सदर को मौका मिले। और ऐसा कभी होता ही नहीं था कि सदर न हो।

जिला कमेटी के सदर श्री गुलाम मुहम्मद उमर थे। यह ज़िला कमेटी के सदर और गुलाम मुहम्मद उमर होने के साथ-साथ हाजी भी थे-और दौलतमंद भी तंबाकू और गुलाब-जल का कारोबार करते थे; जबकि श्री हयातुल्लाह अंसारी एम-ए., एल.एल.बी. (अलीगढ़) केवल एक वकील थे, जिनकी वकालत किसी तरह चलती ही नहीं थी। अड़ियल टट्टू की तरह थान ही पर हिनहिनाया करती थी। और ईमान की बात तो यही है कि अंसारी मुसलमान जमींदारों को फाँसने के लिए ही मुस्लिम लीग में आए थे। और हुआ भी यही। मुस्लिम लीग में आते ही उनकी वकालत चल निकली। बाबू चंद्रिका प्रसाद और बशीर हसन आबदी-जैसे वकील धरे रहे गए।

 जमींदारों को यह तो बहुत बाद में मालूम हुआ कि मुक़दमा इस लीगी इस्लाम से बड़ा होता है। परंतु इस बीच में वह ज़िला बार अशोसिएशन के नायब सदर भी हो गए। और उन्होंने काज़ीटोले में एक पक्का मकान भी बनवा लिया। और इसी झटके में उनकी बड़ी लड़की की शादी भी एक बड़े अच्छे घर में हो गई। बड़ा बेटा अपना मज़े में अलीगढ़ में पढ़ रहा था और शायरी कर रहा था। मुस्लिम लीग के जलसों में नज़्में सुना-सुनाकर वह ख़ासा मशहूर भी हो गया था और मुशायरों में बुलाया जाने लगा था और उसने बड़े-बड़े शायरों की ऐसी-तैसी कर रखी थी ! हाजी ग़ुलाम मुहम्मद उमर अपनी बड़ी लड़की से उसका ब्याह करना चाहते थे...बहशत अंसारी का बाप होना कोई मामूली बात नहीं है साहब...
ग़रज़ कि श्री अंसारी के जीवन में हर तरफ़ खैरियत-ही-खैरियत थी..

फिर भी एक दुख था कि लीडरी वज़ीर हसन ही कर रहा था। और लीडरी वज़ीर हसन इसलिए कर रहा था कि उसे भाषण देना आता था। और इसीलिए वह ज़िला कमेटी का जनरल सेक्रेट्री हो गया और वह नायब सदर के नायब सदर रह गए। जब भी कोई ‘आल इंडिया लीडर’ आता तो वह वज़ीर हसन ही से बातें करता; क्योंकि ज़िला कमेटी के सदर हाजी ग़ुलाम मुहम्मद उमर तो एक अँगूठा-टेक व्यापारी थे। वह सुर्ती और चोट के भाव पर बातें कर सकते थे। पाकिस्तान के बारे में तो उन्हें केवल यह मालूम था कि क़ायदे-आज़म कर रहे हैं तो कोई अच्छी ही चीज़ होगी।

वज़ीर हसन ने हाजी साहब को एक और पते की बात भी समझा रखी थी। वह बात यह है कि पंजाब के लोग बहुत हुक्का पीते हैं। इसलिए जब लाहौर में उनकी दुकान पर यह बोर्ड बनेगा कि ‘हाजी गुलाम’ मुहम्मद उमर ताजिर तंबाकू कशीदनी व खुर्दनी व अर्क-ए-गुलाब (ग़ाजीपुरवाला) साबिक सदर जिला कमेटी आल इंडिया मुस्लिम लीग, ग़ाजीपुर’ तो कारोबार चमक जाएगा। यह बात हाजी साहब की समझ में आ गई थी। और इसलिए पाकिस्तान एक तरह से उनका कारोबार भी हो गया था। वह जी-जान से पाकिस्तान बनवाने में लग गए थे।

परंतु इसका मतलब यह तो नहीं था कि वह चौधुरी ख़लीक

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