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आध्यात्मिक >> आनन्द वर्षा

आनन्द वर्षा

सुधीर कक्कड़

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2450
आईएसबीएन :81-267-0626-0

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इस उपन्यास के विषय़ में ‘डेकन हेराल्ड’ का मत है : ‘‘(यह कथा) कई स्तरों पर चलती है। इसमें अनेक रहस्य व्याख्याएँ निहित हैं जो विचारोत्तेजक हैं, हमारे सामने कई उद्घाटन करती हैं और अन्ततः बहुत मानवीय हैं। यह हमें दैवीय के प्रति मनुष्य की चाह का संदेश देती है। दैवीय जो मनुष्य में ही निहित है।’’

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘आनन्द-वर्षा’ एक रहस्यवादी के निर्माण और आध्यात्मिक पथ पर उसके आश्चर्यजनक अनुभवों की कथा है। यह दो ऐसे पुरुषों की कहानी है जिनका चरित्र एक-दूसरे से बिल्कुल अलग है, लेकिन एक निर्णायक मुलाकात के बाद जिनके बीच एक दुर्लभ सम्बन्ध विकसित होता है। बुजुर्ग माधवाचार्य जो सम्पूर्ण समर्पण और निर्द्वंद्व भक्ति-भाव में डूबा है, युवा गोपाल का गुरु बनता है, जबकि गोपाल का विकास पश्चिमी तर्कवाद और इस विश्वास के साथ हुआ है कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता खुद है। गुरु अपने शिष्य का परिचय आत्मा से कराता है और इस प्रकार उसके भीतर एक निहायत ही निजी युद्ध की शुरुआत कर देता है-युद्ध जो भावना और विवेक तथा विश्वास और तर्क के बीच चलता है।

इस उपन्यास के विषय़ में ‘डेकन हेराल्ड’ का मत है : ‘‘(यह कथा) कई स्तरों पर चलती है। इसमें अनेक रहस्य व्याख्याएँ निहित हैं जो विचारोत्तेजक हैं, हमारे सामने कई उद्घाटन करती हैं और अन्ततः बहुत मानवीय हैं। यह हमें दैवीय के प्रति मनुष्य की चाह का संदेश देती है। दैवीय जो मनुष्य में ही निहित है।’’
अंग्रेजी के प्रख्यात लेखक खुशवंत सिंह के अनुसार यह ‘अत्यन्त पठनीय’ पुस्तक है जिस पर ‘सभी गम्भीरचेता लोगों को ध्यान देना चाहिए।’


आनन्द वर्षा
1

 

 

गोपाल पन्द्रह साल का हुआ तो उसकी छातियाँ गोल आकार लेने लगीं। उसके सपने टूट गए। उसकी छातियाँ किसी उम्र दराज व्यक्ति जैसी मांसल नहीं, बल्कि किसी ऐसी युवा लड़की की छोटी-छोटी, सख्त और उभरे हुए गोलों जैसी थीं जिसमें अभी अपनी छातियों को लेकर विशेष अनुभूति जाग्रत नहीं हुई हो। वह गोलमटोल-सा तो बचपन से ही था, लेकिन अब उसकी छातियाँ फूलकर दो स्पष्ट उभारों की शक्ल लेने लगे थे। शुरू में वह भीष्ण गर्मी के मौसम में भी अपना ऊपर का आधा बदन कपड़े से ढँके रहता। कभी खेतों में अकेला होने पर वह अपनी छातियों को थपथपाता और कहता-‘भीतर जाओ !’

उसके शरीर में केवल एक यही बदलाव नहीं हो रहा था। उसके जननांग भी मोटे हो रहे थे और शरीर बाकी हिस्से के मुकाबले काले पड़ते जा रहे थे, स्तन तो आकार ले ही रहे थे। उसके कन्धे अगर चौड़े हो रहे थे, तो नितम्ब भी स्पष्ट रूप से फूल रहे थे। अक्सर उसे लगता कि उसके आनन्द के दिन समाप्त हो गए हैं क्योंकि भगवान उससे रूठ गए हैं और अब वह बच्चा नहीं रह गया है। लगता है, भगवान को उसके शरीर में आ रहे बदलाव पसन्द नहीं थे।

जब से वह दस साल का हुआ था, गाँव के धार्मिक समारोहों और त्योहारों में उसकी माँग काफ़ी बढ़ गई थी। जिस देवी देवता का त्योहार होता, वह उसके भजन गाकर लोगों को मन्त्र मुग्ध कर देता। लोग उसकी आवाज़ के माधुर्य या सुर और लय अथवा ऊँची तान से ही मुग्ध नहीं होते, बल्कि उसके गीतों, खासकर अपने प्रिय देवता कृष्ण के भजनों में जो भावनाओं की तीव्रता और गहराई होती उससे भी आकर्षित होते तीन बार ऐसा हुआ था कि श्रृद्धालुओं के सामने दूसरे के साथ गाते हुए उसने देव की प्रतिमा को सजीव होते देखा था। वह स्वतः उठ खड़ा हुआ था और उसने देवता के आगे बाँहें फैला दी थीं। श्रद्धालुओं की भीड़ स्तब्ध और शान्त हो गई थी, उसका शरीर लय में डोलने लगा था और भजन उसके अन्तर मन से फूट रहे थे। उसे न तो किसी विशेष भजन को चुनने का प्रयास करना पड़ा था, न उसके बोलों को याद करने का। आनन्दातिरेक की अवस्था में उसकी अधमुँदी पलकों से खुशी के अश्रु निरन्तर बह रहे थे। कुछ क्षण बाद आनन्द इतने चरम पर पहुँच गया कि भजन बीच में ही रुक गया। उसके अंग तन गए, शरीर मूर्तिवत जड़ हो गया, लोगों को उसे थामना पड़ा कि कहीं वह गिर कर आहत न हो जाए।

वह लगभग चौदह साल का हो चुका था जब उसे अन्तिम बार अपनी किशोरावस्था का अहसास हुआ था। बरसात की एक शाम थी, आसमान अभी काले बादलों से पूरी तरह ढँका नहीं था। बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े एक दूसरे का पीछा करते मानो अठ- खेलियाँ कर रहे थे। वह मूढ़ी फांकता हुआ खेतों के बीच संकरी मेड़ पर चलता घर लौट रहा था। तभी उसे डूबते सूरज को आच्छादित करते काले बादल के आगे सफेद सारसों का एक झुंड अर्द्धवृत्ताकार घेरे में उड़ता नज़र आया। पूरा दृश्य इतना सुन्दर था कि वह आश्चर्य से भर उठा और घुटनों के बल ज़मीन पर झुक गया। वह उस पूरे दृश्य में खुद को शामिल करने के लिए घुटनों के बल बैठने का असाध्य प्रयास कर रहा था और कोई शक्ति उसे ज़मीन से धकेल रही थी। बादल और सारस उसके दृश्य पटल पर गोलाकार छा गए थे । जुते हुए खेतों में पसरे ढेले और बाएँ खड़ा बाजरे के डंठलों से बना बिजूका दृश्य से गायब हो गया था। उसे लगा कि वह बादल को छू लेगा, उससे चमकती बिजली में हाथ डाल देगा। वह आसन्न बारिश को भाँप सकता था, उस ठण्डी बयार को महसूस कर सकता था, जो बहने ही वाली थी। लेकिन उसके पैर नम ज़मीन को छूने की उम्मीद से झनझना रहे थे।

फिर उसे लगा उसकी दृष्टि के पोर धुँधला रहे हैं। बादल और सारसों का झुँड इस धुँध में खो गए। मगर यह सब बिल्कुल क्षण भर के लिए हुआ और अचानक जैसे भीतर से प्रकाश फूट पड़ा मानो सुबह का सूरज तेजी से चढ़ रहा हो। उसकी दृष्टि जगमगा सी गई। अब उसे भगवान कृष्ण का श्याम-नीलवर्णी सीना दिख रहा था। जिस पर सफ़ेद चमेली की माला झूल रही थी। भगवान का श्यामवर्ण शरीर उसे आमन्त्रित कर रहा था कि वह अपना माथा उनके सीने पर टिका दे। जैसे ही उसके गाल ने भगवान के शरीर का स्पर्श किया, उसके अंगों में आनन्दातिरेक की लहर-सी दौड़ गयी। उसके शरीर में ऐसा विस्फोट हुआ कि लगा वह अपने शरीर में है ही नहीं। उस शाम जब वह इस संसार में वापस लौटा तो मूर्छित नहीं था, केवल खोया-सा था, आनन्दातिरेक के कारण खोया-सा। उसने स्वयं को घर में पाया, अपनी झोपड़ी की गोबरलिपी ज़मीन पर बिछी चिर-परिचित चटाई पर लेटे हुए। एक कोने में ढिबरी जल रही थी जिसकी काँपती लौ के साथ उसकी माँ और ज़मीन पर बैठे दो लोगों की परछाईं सामने की दीवार पर हिल रही थी, उसका सिर माँ की नरम गोद में था। माँ दुख से रिरिया रही थी और उसके शरीर का ऊपरी हिस्सा आगे-पीछे झूल रहा था। जिन दो किसानों ने गोपाल को खेतों में बेहोश पड़ा पाया था और उसे उठाकर घर ले आये थे, वह माँ को ढाँढस बंधाने की असफल कोशिश कर रहे थे कि लड़के को कुछ हुआ नहीं है, वह केवल मूर्छित हो गया था। माँ ने जब उसे आँखें खोलते हुए देखा तो उसके सिर को बाँहों में समेट कर अपनी धड़कती हुई छाती में भींच लिया। आश्वस्त होकर रोते हुए वह उसके चेहरे को चूमने लगी। ऊष्म आंसुओं से उसका चेहरा भीग गया।

माँ को उसकी चिन्ता लगी रहती। अम्बा खुद भी बहुत धार्मिक प्रवृत्ति की थी। घर में कुल देवता की दैनिक पूजा में उसका बेटा उत्साह से भाग लेता तो उसे बहुत अच्छा लगता, लेकिन पड़ोसियों के यहाँ अनुष्ठानों में उसका जाना उसे कतई अच्छा नहीं लगता। उसे लगता, इतनी कम उम्र में किसी लड़के का इतना धार्मिक होना सामान्य लक्षण नहीं है। गाँव की औरतें जब कहतीं कि उसके बच्चे पर दैवी कृपा है तो वह नाराज़ हो जाती। वे कहतीं, ‘अरे गोपाल की माँ ! अगर हम भगवान का भजन नहीं गाते तो हम पशु के समान हैं। सन्त सूरदास ने कहा है कि भजन गाते हुए भगवान के चरणों में गिरना ही काफ़ी है, पत्थर को समुद्र में तैराने के लिए। तुम्हारे बेटे को तो भगवान ने वरदान दिया है कि वह भजन गाकर उन्हें छू सकता है, वह तो सूर और कबीर जैसा महान सन्त बनेगा।’ अम्बा को सन्तों आदि के बारे में बातें नहीं सुहातीं ।

एक पड़ोसन को तो उसने झिड़क दिया था, ‘सन्त लोग घर छोड़ देते हैं। वे परिवार चलाने लायक कमाई नहीं कर पाते। सन्त बने मेरे गोपाल के दुश्मन !’

गोपाल को जो मूर्छाएँ आतीं उनसे वह काफ़ी परेशान हो जाती। इस तरह की समाधिस्थ हो जाने वाली मुर्छाएँ भला बच्चों को आती हैं ! ये तो युवा स्त्रियों या गाँजे के नशे में धुत साधुओं को आती हैं। उसे शक था कि इन मूर्छाओं के पीछे कहीं कोई शारीरिक व्याधि तो नहीं छिपी है। उस शाम वह खेत में बेहोश हो गया तो यह चिन्ता और पुष्ट होती लगी। उसने उसे तब तक स्कूल न भेजने का फैसला किया जब तक गाँव में तीन हफ्ते पर आने वाला डॉक्टर उसकी जाँच नहीं कर लेता। अंग्रेजी दवाएँ देने वाला यह डॉक्टर तीस मील दूर जयपुर से आता था। अम्बा को गाँव के वैद्य पर भरोसा न था। वह ऐसी दवाएँ बनाने के लिए बदनाम था जिनमें अल्कोहल का अनुपात अधिक होता था। वैद्य को गोपाल में कोई गड़बड़ी नहीं नज़र आयी थी।

साँसों से अल्कोहल और जड़ी-बूटियों की गन्ध छोड़ते और पीले दाँत दिखाकर मुस्कुराते हुए वैद्य ने कहा था, ‘गोपाल की माँ तुम तो, भाग्यशाली हो। लड़के की मूर्छाएँ ईश्वर प्रदत्त हैं, वे किसी शारीरिक गड़बड़ी के कारण नहीं आतीं।’

अपनी बेदाग सलोनी त्वचा, लम्बी भौंहों और नाजुक नाक-नक्श के कारण वह सुन्दर लड़की जैसा दिखता। दूसरे लड़के उस पर फब्तियाँ कसते और गन्दे इशारे करते तो शर्म के मारे उसकी आँखों से आँसू निकल आते। जब कोई लड़का कुछ ज़्यादा ही अश्लील हो जाता तो गोपाल के गले में बेहद घटिया स्वाद वाला पीला-सा द्रव-पवित्र हृदय में हताशा की भौतिक अभिव्यक्ति-उफनने लगता जिसे दबाने की इच्छा प्रबल हो जाती। एक दिन, अपने सौम्य और भीरु स्वभावगत धैर्य की सीमा से पार धकेले जाने पर गोपाल ने अपने एक उत्पीड़क को कोसा, ‘‘भगवान करे आज तुम्हें साँप डस ले। सुबह तक मर जाओगे। यह ब्राह्मण का श्राप है। जिसकी अवहेलना करने का साहस भगवान भी नहीं कर पाते।’’ लड़के चुप हो गए, उनके चेहरे चिन्तित हो गये। ब्राह्मण चाहे वह बालक ही क्यों न हो, उसका श्राप देना गम्भीर बात थी। सताने वाले लड़के ने अपनी चिन्ता छिपानी चाही, लेकिन जब उसने मुड़कर जाते हुए अकड़ने की कोशिश की तो लगा कि गिर पड़ेगा।

कुछ दिनों तक लड़के को कुछ नहीं हुआ, यद्यपि शुरू में उसने जरूर कुछ रातें जागते हुए बिताईं। एक सप्ताह बाद जब वह एक दोपहर आम के पेड़ के नीचे ऊँघ रहा था, एक बिच्छू ने उसे डस लिया। वह दर्द से बेहोश हो गया। दूसरे लड़कों को यही लगा कि उसे गोपाल का श्राप लग गया है। इस घटना के बाद वे गोपाल से कतराने लगे। उनकी नापसन्द अब डर में बदल गई।

अपने उत्पीड़क को शाप देने में गोपाल की ब्राह्मणीय शक्ति के प्रदर्शन से भयाक्रन्त लड़कों ने उसकी छातियों और उसके शरीर के स्त्रैण पर खुली फब्तियाँ कसना छोड़ दिया। अब वे उसे जब भी देखते, एक दूसरे को देखकर मुस्कुराते और इशारे-भर करते। लेकिन जब वह उनके आगे से निकल जाता तो पीठ पीछे वह उन्हें ठी-ठी करते हुए और ऐसी लड़की के चीखने की नकल करते सुनता जिसके स्तनों को किसी ने चुपके से दबा दिया हो। वह सभी लड़कों से नफरत करने लगा।

दूसरे लड़कों से अलग-थलग पड़ने पर वह बेवजह घबराया नहीं। उसने औरतों के साथ रहना किसी तरह पसन्द किया। सुबह में उसे अपनी माँ के साथ गाँव के पनघट पर जाना अच्छा लगता, जहाँ से वह पानी भरकर लाती और गाँव की औरतों से गप्प करती। जब वह झोंपड़ी में झाड़ू लगाती तो उसके पीछे-पीछे डोलना उसे अच्छा लगता । जब वह खाना पकाती तो सब्जी काटना और सब लोगों के खा लेने के बाद मिट्टी से बरतन माँजना उसे अच्छा लगता। प्रातः और सन्ध्या बेला में पूजा के समय माँ के साथ भजन गाना उसके लिए दिन का सबसे महत्वपूर्ण काम था।

देर शाम गए जब पूरा गाँव विश्राम कर रहा होता, चिड़ियों-मवेशियों और लोगों की आवाज़ें शान्त हो जातीं और उनकी जगह कभी-कभी कुत्तों के भौंकने या किसी उल्लू के चीखने की आवाज़ आती तब गोपाल चटाई पर अपनी माँ के बगल होता, मगर जागता रहता। नींद आने से पहले वह माँ से बातें करते रहना चाहता या अपने सवालों के जवाब में उसकी हाँ-हूँ सुनते रहना चाहता। यह हाँ-हूँ मानो अंधेरे को परे धकेलते रहते। दिन-भर उसके साथ जो कुछ हुआ उसके बारे में वह सोने से पहले बात करना चाहता। अपनी आवाज़ और अपनी उँगलियों की छुअन में वह माँ के लिए अपना सारा प्यार उड़ेल देना चाहता। एक बच्चे के हृदय में छिपे असंगत से रहस्यों को खोलकर रख देना चाहता। पूरी रात वह माँ की पीठ से सटकर सोया रहता, मां की त्वचा उसकी त्वचा पर जैसे गोदने की तरह गुद जाती।

पिछले कुछ वर्षों से गोपाल गाँव की उन औरतों से सतर्क रहने लगा था, जो उसे अपने यहाँ पूजा में भजन गाने को कहतीं। युवा औरतें उसे वे भजन गाने को कहतीं जिनमें राधा कृष्ण के प्रति अनुरक्ति व्यक्त करती है। जब वह ऐसे भजन गाता तो वे आपस में फुसफुसातीं और रह-रह कर खिलखिला उठतीं। वे उसे छू भी लिया करतीं उसकी कमर पर उनकी उँगलियाँ जब पंख की तरह हल्के से छू जातीं तो उसे लगता कि उसकी त्वचा में नुकीले छड़ घुस रहे हों, और वह झुक जाता। बुजुर्ग औरतों का अनुभव तो और बुरा था। अपनी रसोई में जब वे उसे सामने बैठाकर भोजन परोस रही होतीं तो उनकी आँखों की चमक उसे आनन्दित करती। लेकिन जब वे उसे अतिशय प्यार से अपनी छाती में भींच लेतीं तो उसकी आँखों की चमक से उसे नफरत होने लगती। उसे वे क्षण बड़े डरावने लगते, जब कोई महिला अचानक उसे अपनी बाँहों के घेरे में लेकर उसके चेहरे को अपने सीने में दबा देती। उसकी नाक महिला की नरम त्वचा में धँस जाती और वह अपना चेहरा घुमाने के लिए छटपटाने लगता, ताकि हल्दी, मसालों और प्याज के साथ पसीने की बदबू से वह छुटकारा पा ताजा हवा ले सके।

लेकिन उसकी इन परेशानियों से बेखबर महिला ‘‘मेरे गोपाल’,’ ‘‘मेरे गोपाल’’ उसे कहते हुए उसे और भी बार-बार अपनी गोद में भींचने लगती और वह उसकी त्वचा की परतों में धँसने से बचने के लिए जद्दोजहद करने लगता। इससे बचने का एक ही उपाय था कि महिला को जोर से धक्का दे और इस अपमान को ढँकने के लिए अपनी आँखे बन्द करके भजन गाने लगे। तब महिला पीछे हटकर भजन सुनने लगती, उसे जोर से गले लगाने के आवेग को नियंत्रित कर लेती और गोपाल भजन गाते हुए उस दैवी जगत में चला जाता, जो उसका दूसरा घर जैसा बन चुका था।


2

 


देवगढ़ के पास की पहाड़ी पर विष्णु मन्दिर का निर्माण वणिक परिवार के उसी सेठ लोढमल ने कराया था जिसने गाँव में स्कूल भी बनवाया था। शुरू में यह योजना थी कि मन्दिर ऐसा बनवाया जाय कि वह उन भव्य मन्दिरों की बराबरी का हो जिन्हें कलकत्ता जा बसे बिड़ला जैसे प्रसिद्ध व्यवसायियों ने शेखावटी के गाँवों में बनवाया है। लेकिन देवगढ़ के मन्दिर को देखकर ऐसा लगता था कि इसे बनाने वाले को निर्माण के अन्तिम चरण में पैसे की या फिर आस्था की भारी कमी पड़ गई। दरअसल लोढमल को प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जूट की कीमत में भारी गिरावट के कारण सट्टे में भारी घाटा हो गया और मन्दिर के निर्माण पर खर्च घटाना पड़ा। इसलिए मन्दिर का गुम्बद और मुख्य दालान के खम्भे सामान्य पत्थर के बनवाने पड़े। पहले लोढमल ने उन्हें चमकदार मकराणा संगमरमर का बनवाने के बारे में सोचा था। मन्दिर में लकड़ी की चीज़ें शानदार सागवान की नहीं, देवदार की सस्ती लकड़ी से बनवाई गईं। फर्श जैसलमेर की शहद जैसे रंग की टाइल्स से नहीं, अनजान खानों के सलेटी पत्थर से बनाया गया। गोपाल के जन्म के पाँच वर्ष पहले 1925 में जब मन्दिर का अभिषेक किया गया तब भी वह अधूरा सा दिखता था। सौभाग्य से, लोढमल की मूल योजना के अनुसार पहाड़ी के नीचे तीर्थ यात्रियों और साधुओं के लिए धर्मशाला तभी बन गई थी जब उन्हें घाटा नहीं हुआ था। यह धर्मशाला घुमन्तू साधुओं के बीच लोक प्रिय हो गई थी क्योंकि यह शीतलामाता के मन्दिर शील डुंगरी के रास्ते के ही करीब नहीं थी, बल्कि दादूपन्थ के सन्तों के धाम नारायणा और पहाड़ी के ऊपर बने सूर्य मन्दिर एवं जयपुर तथा पुष्कर के दक्षिण के पवित्र स्थलों के समीप भी थी। सूर्य मन्दिर वाली पहाड़ी जयपुर के पास गाल्टा घाटी के बिलकुल करीब थी।

गोपाल जब बच्चा था तब विष्णु मन्दिर पूरे साल लगभग वीरान ही रहता था, यहाँ केवल राम, कृष्ण जैसे बड़े देवताओं के जन्मदिन के भव्य समारोहों पर देवगढ़ और पास के गाँवों के लोग जुटते थे। गाँव में हर जाति के लोग दैनिक पूजा या स्थानीय तथा कुल देवताओं की पूजा के लिए अपने-अपने मन्दिर में जाते थे। निचली जाति के लोग खुले पूजा स्थलों में ही पूजा करके संतुष्ट रहते। धर्मशाला रमणीय जगह थी, जहाँ मीठे पानी का कुआँ भी था, जो इस रेतीले इलाके के लिए दुर्लभ चीज़ थी। इसलिए साधुओं के बीच वह धर्मशाला ऐसे विश्राम स्थल के रुप में विख्यात थी, जहाँ हर पन्थ के साधु-सन्तों का स्वागत होता था। मन्दिर बनने के कुछ ही वर्षों के भीतर देवगढ़ के लोग तरह-तरह के वेश भूषा में तमाम तरह के साधुओं को बाज़ार से होकर धर्मशाला तक जाते हुए देखने के अभ्यस्त हो चुके थे। कुछ साधु केवल वस्त्र लपेटे रहते तो कुछ गेरुआ चोंगा धारण किये रहते और कुछ साधु बस धूसर-से लाल कपड़े की पट्टी इस तरह से लपेटे रहते कि नग्न ही दिखते।

जल्दी ही गोपाल ने विभिन्न सम्प्रदायों के साधुओं की पहचान कर ली। शाम को जब वह धर्मशाला से घर लौटता तो मां को अपनी नयी-नयी खोजों के बारे में उत्साह पूर्वक बताता। सबसे ज़्यादा संख्या दसनामी सम्प्रदाय के एक-दो वर्गों के साधुओं की थी। वे प्रायः गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते। हर सुबह वे ललाट पर राख से तीन या दो क्षैतिज रेखाएँ बना लेते थे। तीन रेखाएँ शिव के त्रिशूल का प्रतीक होतीं, दो रेखाओं के साथ एक बिन्दी ऊपर या नीचे बनाते, जो शिवलिंग का प्रतीक होती।

विष्णु के भक्त श्वेत वस्त्र पहनते, सिर मुँड़ाकर रखते, जबकि दसनामी जटाएँ धारण करते। दसनामियों की तरह वैष्णवों के भी कई मठ थे। सीता और राम के भक्त तुलसी के 108 मनकों की अपनी माला, तीन कोनों वाली लाठी और ललाट पर दो सफेद और एक ऊर्ध्वाकार धारियों से पहचाने जाते थे। राधाकृष्ण के भक्त ललाट पर नाल के आकार की सफेद या काली धारी बनाते थे और गले में एक ही तुलसी की माला पहनते थे।
हर मठ के अनुयायियों के बीच प्रत्येक साधु को उसकी आध्यात्मिक उपलब्धियों के मुताबिक दर्जा प्राप्त था-नौसिखुआ से लेकर अवधूत और परमहंस तक। गोपाल को बताया गया था कि पूरे देश में परमहंस दर्जन भर से ज़्यादा नहीं है। कुछ लोगों का कहना था कि पिछले सौ वर्षों में सबसे महान परमहंस थे दक्षिणेश्वर के सन्त रामकृष्ण। वैसे, कुछ लोग इस दावे का खंडन करते थे।

गोपाल को पता चला कि जो परमहंस होता है वह अध्यात्म के मार्ग पर काफ़ी आगे बढ़ चुका होता है और अपने स्व का इतना गहरा ज्ञान प्राप्त कर चुका होता है कि किसी सन्त के लिए आवश्यक मानी जाने वाली सामान्य शर्तें मसलन, निरामिष भोजन, उसके लिए बन्धन नहीं रह जातीं। अगर अधिकतर परमहंस शाकाहारी थे तो बस अपनी मर्जी से।

एक साधु ने कहा, ‘दूसरे के विपरीत, परमहंस वही करते हैं जो उन्हें करना चाहिए।’
दूसरे ने कहा, ‘अरे भाई ! वे अपनी मर्जी से इसलिए काम करते हैं क्योंकि वे जो चाहते हैं, वह नहीं करते।’ गोपाल की उलझन और बढ़ जाती। साधु लोग ऐसी गूढ़ बातें करने में मजा लेते, जिन्हें उस समय गोपाल समझ नहीं पाता और परेशान हो जाता। बाद में बड़ा होने पर वह इन बातों को समझने लगा था।
गोपाल ने पूछा था, ‘‘किसी परमहंस को कैसे पहचानूँगा ?’’

उसे एक असन्तोषजनक उत्तर मिला था, ‘‘जब समय आएगा तो तुम उन्हें अपनी आध्यात्मिक दृष्टि से पहचान सकोगे।’’

दूसरे साधू ने कहा, बाज़ार में वे तुम्हारे सामने से गुज़र जाएँगे, मगर तुम उन्हें पहचान नहीं पाओगे। वे सबसे समझदार व्यक्ति होते हैं जिन्हें निज स्व और सार्वभौमिक आत्मा के बीच अन्तर का ज्ञान है, मगर वे किसी पागल व्यक्ति जैसा आचरण कर सकते हैं।’
‘‘उनमें आत्म संयम इतना पक्का होता है कि समचित्तता को कोई भी चीज़ डिगा नहीं सकती, बशर्ते वे खुद इसके लिए तैयार न हों। वे इतने पवित्र होते हैं कि सबसे खराब चीज़ भी उन्हें प्रदूषित नहीं कर सकती। वे शिव व विष्णु या दोनों के उपासक हो सकते हैं।’
वे अद्वैतवादी या आस्तिक दोनों में से कुछ भी नहीं हो सकते हैं। वे निजी ईश्वर में विश्वास करते हैं या निराकार ईश्वर में या फिर ईश्वर की बात करना उनके लिए ज़रूरी नहीं है।’’

बातचीत में आकर शामिल होने वाले एक वृद्ध साधु ने कहा, ‘‘अरे भाई ! इस बच्चे को उलझन में मत डालो। सुनो बेटे ! एक दिन मेरे भाई का पाँच साल का पोता गाँव के किनारे बने पोखर के पास टिड्डे को पकड़ने की कोशिश कर रहा था। तेज हवा चल रही थी। पत्तों का झूलना बन्द करने के लिए उसने पेड़ से कहा, ‘शान्त हो जाओ ! मैं टिड्डे को पकड़ना चाहता हूँ।’’ दूसरे दिन तूफ़ान-सा था और बिजली चमक रही थी। खिड़की से झाँककर उसने घरवालों को कहा-‘‘देखो ! वे लोग फिर माचिस जला रहे हैं !’’ बेटे परमहंस उस पाँच साल के बच्चे के समान होते हैं। वे सभी चीजों पर सजग दृष्टि डालते हैं।’’

उस शाम चूल्हे के सामने बैठकर भोजन करते हुए गोपाल ने अपनी माँ से पूछा, ‘‘माँ, क्या मैं परमहंस बन सकता हूँ ? मैं बनना चाहता हूँ।’’

माँ ने तुरंत कोई जवाब नहीं दिया क्योंकि वह उसकी पीतल की थाली में उस समय और दाल डाल रही थी। वह बड़ा प्यारा, मासूम बच्चा था। उसकी मासूमियत तब भी खत्म नहीं हुई थी जब वह बड़ा हो गया और जवानी में कदम रखने वाला था। माँ को उसके बारे में दो ही चिंताएँ थीं-एक तो वह धार्मिक मामलों में असामान्य दिलचस्पी लेता था, दूसरे वह स्कूल नहीं जाना चाहता था क्योंकि लड़के उसे परेशान करते थे। किस्मत ने युवावस्था में ही उसे विधवा तो बना दिया था, मगर एक बेटा भी दे दिया था जिसकी दुनिया अपनी माँ के इर्द-गिर्द ही घूमती थी। वह उससे अलग होने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी।

उसने गोपाल के सवाल का जवाब तो दिया, मगर उसका मन आशंका से भारी था। उसने गोपाल से धीरे से कहा, ‘‘मैं तो बस गोपाल चाहती हूँ परमहंस नहीं।’’

बीसवीं शदी के चौथे दसक में गोपाल जिस देवगढ़ गाँव में पला-बढ़ा वह जयपुर से 25 मील उत्तर था। सूखी झाड़ियों और छितराए से जंगल से ढंकी चट्टानी पहाड़ी के नीचे फैला देवगढ़ करीब दो सौ घरों वाला गाँव था। गाँव में अधिकतर पुरुष काश्तकार थे जिनके पास दरबार यानी जयपुर के महाराजा से पट्टे पर मिली छोटी-छोटी काश्त थी। पन्द्रह एकड़ से ज़्यादा की काश्त शायद ही किसी की हो। वे साल में दो फसलें लेते थे-जाड़े में गेहूँ और गर्मी में ज्वार, वह भी तभी जबकि इस इलाके पर प्रायः कुपित रहने वाले इन्द्रदेवता मेहरबान होते। लेकिन ताकतवर लोगों के लालच के सामने देवताओं की सनक कुछ भी नहीं थी।

इन इलाकों में सूखा सामान्य बात थी और जब भी बारिश कम होती, गाँव के लोग महाजनों से बेहद ऊँची ब्याज-दर पर कर्ज लेते। अच्छे दिनों में भी वे शादी ब्याह जैसे विशेष पारिवारिक आयोजनों पर कर्ज लेने से नहीं हिचकते। ऐसे मौकों पर खास कर राजपूत लोग शान की खातिर बेतहाशा खर्च करते। सो, हर फसल कटाई के बाद महाजन और दरबार के कारकुन मिलकर तय करते थे कि किसान भी जिन्दा रहे। यों तो दरबार ने अपना हिस्सा पैदावार का आधा तय कर रखा था, मगर ये दोनों उससे कहीं ज़्यादा हिस्सा वसूल लेते थे।

जैसे, दरबार की घुड़साल के घोड़ों के लिए, मवेशियों के लिए; अनाज, चारा, अथवा मवेशी, बीज बाहर भेजने या बाहर से मँगाने पर। इनके अलावा महाराज के जन्मदिन, दीपावली, दशहरा या अन्य त्योहारों, शादी-ब्याह या श्राद्ध के भोज जैसे विशेष आयोजनों पर भी रियाया से वसूली की जाती थी। जयपुर के महाराज अपने राज्य के ठाकुरों या दूसरे सूबेदारों के मुकाबले सदाशयी माने जाते थे। शेखावटी में सीकर उनकी बड़ी रियासतों में एक थी। उसका सामन्त मनमाने ढंग से भूराजस्व तय करता था। निहायत बोदा किस्म का होने के कारण वह अपनी जरूरतों का सही अंदाज नहीं लगा पाता था। उसके राजपूत दरबारियों को छोड़ सभी किसानों को राजा की मर्जी से उसके खेतों में हल चलाना पड़ता, फसल बोनी पड़ती, पैदावार को भंडार में पहुँचाना पड़ता और जब भी जरूरत पड़ती महल में मजबूरन चाकरी करनी पड़ती। ठाकुर जब भी मौका मिलता, किसानों से अबवाब वसूलते, चाहे वह ठाकुर साहब या उनकी सन्तान का जन्मदिन हो या देवी देवता का जन्मदिन हो या महल में शादी-ब्याह हो या किसी बच्चे का जन्म हुआ हो या कोई मर गया हो। यहाँ तक की राजपूत सामन्त जो अकसर शिकार करने जाते तो उन पर आने वाले खर्च किसानों से कर लगाकर वसूले जाते। जब दिल्ली से मोटर से आया कोई अंग्रेज साहब अपनी मेम और मेजबान सामन्त और उसके कारकुनों के साथ शिकार पर जाता तो उसे शायद ही पता होता कि शिकार, लजीज भोजन और स्कॉच व्हिस्की तथा फ्रांसीसी आदि का खर्च बड़ी पगड़ी पहनने वाले, लम्बी-दुबली टाँगों वाले लोग देते हैं, जिन्हें भरपेट खाना भी नहीं नसीब होता और जो उन धूल-भरे रास्तों पर तब तक दण्डवत कर रहे होते हैं जब तक हाथियों पर उनका काफ़िला गुज़र नहीं जाता। वैसे, मेहमानों को शिकार के मजे में तब भी कोई कमी नहीं आती जब उन्हें पता चलता है कि जिस शेर का वे शिकार करना चाहते हैं उसे घेर कर उनकी बन्दूकों की जद में लाने के लिए जो लोग ढोल-नगाड़े बजा रहे हैं उन्हें अपने खेतों का काम छोड़कर वहाँ आने को मजबूर किया गया है ताकि वे अपने स्वामी का बेगार कर सकें।
इसका नतीजा यह था कि भूमिपति राजपूत जो अब भी अपनी पैतृक सम्पत्ति के मालिक थे, उन्हें छोड़ बाकी किसान गुलाम जैसे ही थे और अपनी ज़मीन के मालिक ज़्यादा उसके बन्धक थे।

पहाड़ी की तलहटी से शुरू होकर धूल-भरी सड़क गाँव के बीच बाज़ार में तब्दील हो जाती थी और आगे निकलकर खेतों के बीच से होती हुई पाँच मील दूर दिल्ली-जयपुर राजमार्ग से जा मिलती थी। बाज़ार में इसके दोनों तरफ अनाज और कपड़े की दुकानों के अलावा पीतल-ताँबे के बर्तन तेल, चाय, नमक, गुड़, और घरेलू चीज़ों की दुकानें थीं। बाज़ार पूरे गाँव के मजमे और गप्पबाजी का अड्डा था कृशकाय मवेशी और रोएँदार बकरे इस रास्ते से भटकते हुए इस पहाड़ी की ढलान तक जाते थे चरने के लिए। कभी-कभी ऊँटों पर सवारी करने वाले यात्री भी इस रास्ते पर चाय की दुकानों के सामने अपने ऊँट खड़े कर देते और गरम दूध में बनी चाय पीते या लम्बी-लम्बी नलियों वाले हुक्के से एक दो कश ले लिया करते।


यह बाज़ार आस-पास के आधा दर्जन गाँवों के लिए साप्ताहिक बाज़ार का काम भी करता। गोपाल को यहाँ उस दिन जाना अच्छा लगता जब बाज़ार लगता था और दूसरे गाँवों के लोगों के कारण काफ़ी भीड़-भाड़ रहती थी। उसे किसी परिवार के बड़े झुँड को देखना अच्छा लगता जिसमें औरतें छोटी रंगीन चोली और लम्बा घाघरा पहने होतीं और बीच में चल रहे बच्चे बड़ों जैसी पोशाक पहने होते और यह झुंड दुकान-दुकान रुक-रुक कर आगे बढ़ता। लम्बे मरियल-से पुरुष मटमैले सफेद कुरते पहने होते, मगर उनकी पगड़ी चटख लाल, पीली, गुलाबी रंग की होती। वे झुंड घेर कर चलते। कोई बच्चा किसी दुकान पर ज़्यादा देर ठहर जाता तो वे चौकस भेड़िये की तरह उसे खदेड़कर साथ ले लेते।

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