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कविता संग्रह >> पत्थरों का क्या है

पत्थरों का क्या है

विनय विश्वास

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2463
आईएसबीएन :81-267-1000-4

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युवा कवि विनय विश्वास का यह पहला कविता संग्रह है।

Pattharon Ka Kya Hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

युवा कवि विनय विश्वास का यह पहला कविता संग्रह है। अपने समय के सच से टकराते संवेदनशील मनुष्य के अनुभव इनकी कविताओं का आधार हैं। न यह सच एक जैसा है, न इससे टकराव के अनुभव-इसलिए ये कविताएं भी एकायामी नहीं। न इनमें प्रकृति और मनुष्य को अलग-अलग किया जा सकता है, न युगीन वास्तव और व्यक्तिगत संसार को। न राजनीति और परिवार को अलग-अलग किया जा सकता है, न शब्द और जीवन को। अनुभव की बहुलता और बहुस्तरीयता इनका ऐसा सच है, जिसने इन्हें दम्भी मुद्राओं की बनावट, कलात्मक दिखाई देने वाली निरीहता और वहशी अराजकता से बचाकर जिन्दगी के प्रति सच्ची कविताएँ बनाया है।

इन कविताओं की सच्चाई उन पर बड़ी सहजता से व्यंग्य करती है, जो धर्म-ईमान की सौदागरी बड़े गर्व से किया करते हैं, दूसरों की मौत से अपनी साँसें खींचा करते हैं, पानी की तरह हर रंग में मिल जाया करते हैं और इंसान होते हुए भी कभी मक्खियों तो कभी केचुओं को मात दिया करते हैं। इन कविताओं की सच्चाई उन सपनों की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाए जूझती है, जिनका भरोसा ईमानदारी और मेहनत की अप्रासंगिक होती पूँजी पर अब भी कायम हैं। इन कविताओं की सच्चाई सम्बन्धों के लगातार क्रूर होते इस्तेमाल का विरोध भी करती है और टूट-टूटकर बनते हुए नए मनुष्य के सौन्दर्य को जीती भी है। इन कविताओं की सच्चाई संवेदनात्मक उद्देश्य की मिट्टी से फूटते वैचारिक भावों के उन अंकुरों की पक्षधर है, जो हवा के जहर को ऑक्सीजन की तरह सर्जनात्मक चुनौती देने के लिए ही जन्मे हैं। इन कविताओं की सच्चाई रचना के हर स्तर पर अनुभव से नाभिनालबद्ध होने के कारण अतिरिक्त तराश या सपाटता से मुक्त है। इसीलिए इनमें से बहुत-सी कविताओं को जिस उत्सुकता के साथ पढ़ा गया है, उसी उत्साह के साथ सुना भी गया है।

सम्प्रेषण के संकट से दो-चार होती समकालीन कविता के दौर में ये कविताएँ प्रमाण हैं कि पाठकों और श्रोताओं को एक साथ प्रभावित करने वाली कविताई बिना कोई रचनागत समझौता किए अब भी सम्भव है। निःसंकोच कहा जा सकता है कि पढ़ी और सुनी जाने वाली कविताओं के बीच की गहरी खाई को पाटते हुए सम्प्रेषण के संकट को सर्जनात्मक तरीके से हल करने में इन कविताओं की भूमिका उल्लेखनीय है।

शब्द


तुम हवाओं में शब्द उछालते हो
सत्य
और मुझ तक पहुँचते-पहुँचते वो बन जाता है
गिरगिट

तुम लिखते हो
आदमी
मैं पढ़ता हूँ
शैतान
तुम बोलते हो
ज़िन्दगी
मैं सुनता हूँ
हत्या

और यहीं से शुरू होते हैं
शब्द।


माँ


माँ
आज तू उदास है
पर तेरी उदासी देखने का समय किसके पास है
बूढ़ी हड्डियाँ लिए
तू भले ही पिसती रह चूल्हे-चक्की में
मैं तो व्यस्त हूँ
सिर्फ़ अपनी तरक़्क़ी में

मुझे याद नहीं कि बेरोज़गारी में भी
मेरी सुन्दरता तूने ही बताई
या मेरे लिए
कभी कटे अँगूठे से नींबू निचोड़कर
शिकंजी बनाई
मुझे याद नहीं कि मेरे छोटे से छोटे काम के लिए
तेरा समूचा वजूद सिर्फ़ हाथ बन गया
और मेरी हर एक चमकती सुबह के लिए
धीरे-धीरे तेरा पूरा जीवन रात बन गया

तूने इसके लिए कभी कोई शिकवा नहीं किया
तू चुपचाप आँख बन गई
और मुझे हमेशा रोशनी की तरह जीया

रीढ़ में दर्द होने पर भी
सुबह से देर रात तक तू खड़ी रही चुनौती की तरह
तेरे घर में हमेशा रही
दूसरों की थकान के लिए जगह

तुझे तसल्ली है कि तू चप्पुओं की तरह डूबती रही
और मैं नाव की तरह बढ़ता रहा आगे
तुझे ख़ुशी है कि तू चूल्हे की लकड़ी बनी रही
ताकि मेरी भूख
सदा शान्त होने के लिए जागे

मैं भूल गया कि बहुत-से अपनों ने
मुझे समय-समय पर छल दिए हैं
और माँ
सच कहा जाता है कि तूने पेड़ की तरह
पत्थर पड़ने पर भी फल दिए हैं

गरम रोटी
तेरे पेट से हमेशा रूठी है
सचमुच एक तू ही बनी है
जो सब कुछ जानने के लिए
तिल-तिल टूटी है
वो दिन आएगा माँ
जब मैं भी तेरी तरह
जीना सीख जाऊँगा
और शायद उसी दिन
‘माँ’ शब्द का सही-सही अर्थ समझ पाऊँगा !


शहर


रह लेता हूँ मैं
एक लगातार ख़ूबसूरत होते जाते शहर में
रह लेता हूँ
एक लगातार बंजर होते जाते शहर में

मेरे शहर में भी हैं पेड़
पर जंगली नहीं
सड़कों के किनारे खड़े हैं क़तारबद्ध
एक-दूसरे की टहनियों के दर्द से बेख़बर
बतियाते हैं एक-दूसरे से
ज़रूरत पड़ने पर

नदी भी है यहाँ
पुलों के नीचे
शरारती बच्चों की तरह नहीं उछलती जिसकी लहरें
बहती-सी लगती हैं
सुन्दर किनारों की सुरक्षा के बीच
किनारे
जो उसके ऊपर भी हैं।

यों तो हवा भी चलती है यहाँ
पर ऐसे कि अहसास तक नहीं होता किसी को
खिड़कियों के लगातार छोटे होते जाने का
न उनमें उतरता आसमान
फिर भी संतुष्ट-से हैं लोग

देखो लोगो
कितना ख़ूबसूरत होता जा रहा है मेरा शहर
जिसमें एक मैं हूँ—भाड़ में चना
एक मेरा घर है—जूतों का बन्द डिब्बा
एक मेरा भाई है—फ़लों के इन्तज़ार में सूखता जाता पेड़
एक मेरी बहन है—ऊपर से मज़बूत दिखती चट्टान
एक मेरी माँ है—दवा की बड़ी-सी शीशी
एक मेरा पिता है—दीवारों से झरता पलस्तर
जिससे बात हुए ग़ुजर जाते हैं महीनों
बिना बताए

बीयर की बोतलों से प्यासी थकान तक
खाली पेटों से काजू-भरे नान तक
सड़क पे सोती धड़कनों से बन्द पड़े मकान तक
और मुकम्मल इंसान से
हिन्दू-मुसलमान तक

बहुत-कुछ है इस शहर में लोगो
जो तुम्हारे देखने लायक़ है
सिर्फ़ देखने लायक़ !


इस दुनिया में



अँधेरे से अब डर लगता है
पता नहीं किस-किस के फेफड़ों में पसर गया
पता नहीं कौन-कौन लुटा
पता नहीं कौन किसे चाकू मारकर
टहलने निकल गया पान खाने

रौशनी से भी डर लगता है अब
पता नहीं कहाँ क्या जल गया
पता नहीं कौन कैसे
 झुलसा

रहना ही पड़ता है यहाँ
इस दुनिया में
या तो अँधेरा है
या
रौशनी।


तड़प


उन्हें मैं कभी खा नहीं सका
चखता रहा ज्ञानेन्द्रियों को जीभ में समेट
हर बार
धीरे-धीरे
पता लगा—धरती का वात्सल्य हैं सिंघाड़े

वह बचाकर रखती रही रस
चट्टानों की रगड़ से
आग के ताप से
धुएँ की जलन से
बूँद-बूँद

दल के दल बादल दूध-भरे
गूँथकर जैसे हो गए हों ठोस
मुँह में बिखर जाने के लिए

एक बार भी ख़्याल नहीं आया
इस  रस में
कहीं पोखरों और नदियों के सूखते जाने की
तड़प भी है।


निहत्था


तेरे पास बँगले-गाड़ियाँ हैं
मेरे पास दुःख है
तेरे पास रिश्ते-नाते हैं
मेरे पास दुःख है
तेरे पास न्याय है
मेरे पास दुःख है
तेरे पास सब कुछ है
मेरे पास दुःख है

तुझे किसने बहका दिया कि एकदम
निहत्था हूँ मैं !


कमेरा सपना


निपट चुके थे सारे घरों के बर्तन
गली में खड़ी वो
अपनी हथेलियाँ पढ़ रही थी
उससे छोटी लड़कियाँ भी
स्कूल गई हुई थीं तब

हाथों ने बरतन घिसे
या बरतनों ने हाथ
पर देखो
किसी मैडम से भी गोरी-चिट्टी हथेलियाँ
कैसे काया ही पलट देता है काम

कितने सुन्दर होते
ऊपर से भी हाथ
अगर माँजते बरतन !


क़ुसूर


धूप का इसमें क्या क़ुसूर
उसने तो कोशिश की
टोहने की दिन-भर
पर कहीं होता तो मिलता
रामदास के घर में आँगन

बंगलों में न खिलती
तो क्या करती
मासूम

रामदास को तो मारा ही जाना था
दिन के अँधेरे में
इसमें
धूप का क्या कुसूर !


समझदार


उसे कुत्ता मत कहो

गली में कूड़ा बीनते बच्चों का कोई नाम
हो न हो
उसका बाक़ायदा एक नाम है
टाइगर

टाइगर अंग्रेज़ी समझता है
समझदार है
वह हिन्दी में नहीं भौंकता
अंग्रेज़ी में गुर्राता है
हिन्दी का मुहावरा तक उसके सामने लाचार है

वह ब्रैड नहीं
आदमी की टाँग सूँघता है
और सीधे दाँत गड़ा देता है चुपचाप
गहरे मुनाफ़े में
यह उसकी आधुनिकता है

समझदार हैं जो उसे देखते ही
अपनी दुम
रीढ़ से बाहर निकालते हैं
और हिलाने लगते हैं।

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