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नाटक-एकाँकी >> हानूश

हानूश

भीष्म साहनी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2471
आईएसबीएन :9788126718801

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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।


दृश्य : 2

[पर्दा खुलने पर हानूश के घर में उसकी बेटी यान्का खिड़की में से बाहर देख रही है। कमरा वसन्त की धूप से खिला है। धीरे से जेकब का प्रवेश। दबे पाँव चलता हुआ ऐन यान्का के पास जा खड़ा होता है और यान्का की आँखें बन्द कर देता है।]

यान्का : कौन होगा? जेकब है, और कौन है! छोड़ो जेकब, गली में से लोग देख रहे हैं। जेकब ही तो हो। अब बहुत बनो नहीं। मुझे यह बचपना अच्छा नहीं लगता। छोड़ो, माँ आती होंगी। उस दिन की तरह फिर डाँट देंगी।

[जेकब यान्का की आँखों पर से हाथ हटा लेता है।]

यान्का : बस, डर गए?

जेकव : आज माँ कुछ नहीं कहेंगी। आज तो वह बड़े-से-बड़ा कसूर भी माफ़ कर देंगी।

यान्का : आज न जाने माँ को क्या हो गया है! सुबह से, कभी हँसती हैं, कभी रोती हैं।...देखो जेकब, गली में कितनी रौनक है! सभी लोग बापू की घड़ी देखने जा रहे हैं। तुम्हें एक चीज़ दिखाऊँ ? (पीछे मेज़ पर से फूलों का एक गुलदस्ता उठा लाती है) किसी ने खिड़की में से ये फूल अन्दर फेंके हैं।

जेकब : तुम्हें देखकर फेंके होंगे!

यान्का : नहीं, जेकब! पहले कोई नीचे बापू को पुकारता रहा। तीन-चार आदमी थे। फिर खिड़की में से यह गुलदस्ता फेंककर चले गए। (खिड़की में से बाहर की ओर देखते हुए, किसी परिचित को देखकर हाथ हिलाती है) तुम भी क्या चौक में जा रही हो?

नीचे से लड़की की आवाज़ : और तुम क्या घर पर बैठी रहोगी?

यान्का : माँ नहीं जाने देतीं। कहती हैं, घर पर मेहमान आएँगे, तुम घर पर रहो।

आवाज़ : नहीं, नहीं, चलो हमारे साथ। मैं भी तुम्हारे साथ लौट आऊँगी और दोनों मिलकर माँ को मदद कर देंगी। आ जाओ। जल्दी करो-अच्छा ! अब समझी, तुम क्यों नहीं आना चाहतीं। वह तुम्हारे पीछे कौन खड़ा है? माँ का बहाना बनाती हो?

यान्का : हाय, नहीं, माँ ने सच रोक दिया है। तुम चलो। माँ ने इजाज़त दी तो मैं भी आऊँगी।

आवाज़ : (हँसकर) तुम नहीं आओगी।

यान्का : (घूमकर) तुम खिड़की के पास क्यों चले आए, जी? तुम मर्द लोग कितने बेवकूफ़ होते हो! मेरे पीछे खिड़की में से झाँकने की क्या ज़रूरत थी?

जेकब : अच्छी बात है, तो मैं जा रहा हूँ।

यान्का : बिगड़ गए? एक तो भूल करते हो, इस पर बिगड़ने भी लगते हो। हाय, हाय! (हाथ बढ़ाकर उसके बाल बिखेर देती है) इतने बड़े हो गए और बच्चों की तरह रूठते हो! वाह जी! कहो, घड़ी लग गई?

[सहसा जेकब का चेहरा खिल उठता है।]

अब तो तुम भी घड़ीसाज़ बन गए। क्या तुम्हें भी इनाम मिलेगा?

जेकब : क्या मालूम!

यान्का : लो जी, यह भी इनाम के ख़्वाब देखने लगे! तुमने किया ही क्या है? बापू कहते थे, हथौड़ी पकड़ा दो तो तुम हथौड़ी पकड़ा देते थे और बापू कहते थे, वह पुर्जा पकड़ा दो तो वह पुर्जा पकड़ा देते थे। इसे घड़ी बनाना कहते हैं?

जेकब : मैं घड़ी का एक-एक पुर्जा जानता हूँ, तुम समझती क्या हो?

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