नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
माँ, क्या घड़ी की आवाज़ सचमुच यहाँ तक पहुंची थी?
कात्या : हाँ तो, साफ़ सुनाई दे रही थी।
यान्का : मेरे सामने जो लोग चले जा रहे थे, झट से ठिठककर खड़े हो गए। मेरे नज़दीक एक औरत प्रार्थना के शब्द बुदबुदाने लगी और बार-बार छाती पर सलीब का निशान बनाने लगी। जब घड़ी बज चुकी तो लोग सहसा ऊँचा-ऊँचा बोलने लगे और एक-दूसरे से बग़लगीर होने लगे। हाय, मुझे बड़ा अच्छा लगा! जब घड़ी बजी तो मैं तो घर की ओर भागने लगी। मैंने कहा, भागकर जाऊँ और आपको बताऊँ कि घड़ी बज रही है। मुझे क्या मालूम कि उसकी आवाज़ यहाँ तक पहुँचेगी!
हानूश : (नए जूते पहनते हुए) वाह, बहुत अच्छे जूते हैं! जूता पादरी का, लबादा व्यापारी का!
[हँसता है। दरवाजे पर दस्तक होती है। दो आदमी कन्धों पर बीयर के दो कैग उठाए दहलीज़ पर खड़े हैं।]
एक : यह हानूश कुफ़्लसाज़ का घर है?
कात्या : जी, कहिए, क्या बात है?
दूसरा : शहर के कुफ़्लसाज़ों ने बीयर का कनस्तर भेजा है।
एक : और यह नगरपालिका की ओर से है। कहाँ रखें?
[एक ओर कोने में रख देते हैं।]
कात्या : आज हमारे यहाँ मेहमान आएँगे। आप भी आइए।
एक : एक गिलास तो हमें अभी पिला दो बहन। बीयर का क्या भरोसा, बाद में मिले, नहीं मिले।
कात्या : पियो, पियो!
[गिलास लाकर कनस्तर खोलने लगती है।]
एक : लेकिन इसे क्यों खोलती हो? इसे जश्न के वक़्त खोलना।
कात्या : एक ही बात है, तुम पियो!
एक : क्या घर में बीयर नहीं है?
[इधर-उधर देखता है। घर की गरीबी का भास पाकर]
नहीं, नहीं, हम बाद में पिएँगे। ऐसी भी क्या जल्दी है!
कात्या : नहीं, नहीं, तुम पीकर जाओगे।
[दो गिलास भर देती है। दोनों व्यक्ति स्टूलों पर बैठ जाते हैं।
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