नाटक-एकाँकी >> कबिरा खड़ा बजार में कबिरा खड़ा बजार मेंभीष्म साहनी
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कबिरा खड़ा बजार में कबीर के मूल्यवान व्यक्तित्व को प्रस्तुत करने वाली बहुमंचित और चर्चित नाट्यकृति है।
Kabira Khara Bajar Main - A Hindi Play on Kabir by Bhisham Sahni
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बेपरवाह, दृढ़ और उग्र-संक्षेप में मस्तमौला-कबीर की व्यक्तित्व सदियों से भारतीय मन और मनीषा को प्रवाहित करता रहा है। यही करण है कि पाँच सौ वर्षों से कबीर के पद भारतीयों के जबान पर हैं और उनके विषय में कितनी ही कहानियाँ लोकविश्रुत हैं। अपने युग की तानासाही, धर्मान्धता, बाह्यचार और मिथ्या धारणाओं के विरूद्ध अनथक संघर्ष करनेवाला यह व्यक्ति हमारे बीच आज भी एक स्थायी और प्रेरक मूल्य की तरह स्थापित है।
कबिरा खड़ा बजार में कबीर की ऐसी ही मूल्यवान व्यक्तित्व को प्रस्तुत करने वाली बहुमंचित और चर्चित नाट्यकृति है। सुविख्यात प्रगतिशील कलाकार भीष्म साहनी की हानूश के बाद यह दूसरी नाट्य रचना है, जिसे हिन्दी रंगमंच पर व्यापक प्रशंसा प्राप्त हुई है।
कबीर की फक्कड़ना मस्ती, निर्मम अक्खड़ता और युगप्रवर्तक सोच इस कृति में पूरी जीवन्तता के साथ मौजूद है। साथ ही इसमें यह उजागर हुआ है कि कबीर की साहित्यक सामाजिक जड़ता को तोड़ने का ही एक माध्यम थी, जिसके सहारे उन्होंने अनेकानेक मोर्चों पर संघर्ष किया । कृति से गुजरते हुए पाठक कबीर के इस संघर्ष को उसकी तमाम तत्कालीन सामाजिकता के बावजूद समकालीन भारतीय समाज की विभिन्न विकृतियों से सहज ही जोड़ पाता है। संक्षेप में कहें तो भीष्म साहनी की यह नाट्यकृति मध्ययुगीन वातावरण में संघर्ष कर रहे कबीर को-उनके परिवारिक और सामाजिक संदर्भो सहित-आज भी प्रासंगिक बनाती है।
कबिरा खड़ा बजार में कबीर की ऐसी ही मूल्यवान व्यक्तित्व को प्रस्तुत करने वाली बहुमंचित और चर्चित नाट्यकृति है। सुविख्यात प्रगतिशील कलाकार भीष्म साहनी की हानूश के बाद यह दूसरी नाट्य रचना है, जिसे हिन्दी रंगमंच पर व्यापक प्रशंसा प्राप्त हुई है।
कबीर की फक्कड़ना मस्ती, निर्मम अक्खड़ता और युगप्रवर्तक सोच इस कृति में पूरी जीवन्तता के साथ मौजूद है। साथ ही इसमें यह उजागर हुआ है कि कबीर की साहित्यक सामाजिक जड़ता को तोड़ने का ही एक माध्यम थी, जिसके सहारे उन्होंने अनेकानेक मोर्चों पर संघर्ष किया । कृति से गुजरते हुए पाठक कबीर के इस संघर्ष को उसकी तमाम तत्कालीन सामाजिकता के बावजूद समकालीन भारतीय समाज की विभिन्न विकृतियों से सहज ही जोड़ पाता है। संक्षेप में कहें तो भीष्म साहनी की यह नाट्यकृति मध्ययुगीन वातावरण में संघर्ष कर रहे कबीर को-उनके परिवारिक और सामाजिक संदर्भो सहित-आज भी प्रासंगिक बनाती है।
दो शब्द
नाटक का मंचन पहली बार दिल्ली में श्री एम.के.रैना के कुशल निर्देशन में, अप्रैल 1981 में, त्रिवेणी के खुले नाटकगृह में हुआ था। और कबीर के पदों को श्री पंचानन पाठक ने स्वरबद्ध किया था। दोनों ही मित्र कबीर की वाणी तथा व्यक्तित्व से गहरे जुड़े हुए हैं, मंचन की सफलता का श्रेय इन दोनों उत्कृष्ट कलाकारों को है। दोनों कबीर की वाणी के प्रेमी और कबीर के विचारों-मान्यताओं के उत्साही समर्थक और उनके निर्भीक व्यक्तित्व तथा बाह्माचार विरोधी उनकी भूमिका के प्रशंसक हैं। इसी कारण वे कबीर को उनके परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते हैं, उनके पदों को मुखरित कर पाने तथा कबीर के संघर्ष के मूस सामाजिक धरातल को स्थापित करने में सफल हुए हैं।
रैना की मंशा थी कि नाटक में कबीर के पद अधिक संख्या में रखे जायें और इस तरह नाटक में संगीत का अंश बढ़ा दिया जाये, चुनाँचे, मूल नाटक में जहाँ दस पद थे, मंचन में वे सत्रह बन गये। अनेक पदों का चयन श्री रैना ने स्वयं कर लिया। पाठक जी ने वे धुनें जुटायीं जो लोक-संगीत के निकट और पदों की भावना के अनुरूप थीं।
मंचन में अनेक जगह पर छोटी-मोटी जोड़-तोड़ भी की गयी, जैसे दो दृश्यों को मिलाकर एक लम्बा दृश्य बना दिया गया (जैसे अंक दो का दूसरा और अंक तीन का पहला दृश्य)। इसी तरह पहले अंक के दूसरे दृश्य में, कोतवाल और कायस्थ के प्रगट होने से पहले, प्रभाववेला की एक छोटी-सी झाँकी प्रस्तुत की गयी, जिसमें प्रभातवेला में सड़क पर सोने-बसनेवाले काशी के दरिद्र नागरिक, अन्धा भिखारी, साधारण-स्त्री-पुरुष, भंगी-भिश्ती आदि उठ-उठ कर अपने-अपने काम पर निकलते हैं, और नेपथ्य में मन्दिरों की घण्टियाँ और घड़ियाल और मस्जिदों की अजान आदि सुनायी पड़ते हैं। इससे काशी का वातावरण तैयार करने में बड़ मदद मिली।
नाटक की भाषा में भी जो खड़ी बोली में लिखा गया है, भोजपुरी का पुट देने का प्रयास किया गया, हालाँकि कुछ मित्रों का कहना है कि वह अवधी अधिक और भोजपुरी कम बन पायी। रैनाजी के सुझाव पर ही नाटक का नाम भी ‘कबीरदास न रखकर ‘कबिरा खड़ा बाजार में’ रखा गया।
जाहिर है, मैं उनके बहुमूल्य योगदान के लिए आभारी हूँ।
कुछ मित्रों को शिकायत रही है कि नाटक कबीर के काल, तत्कालीन समाज की धर्मान्धता तथा तानाशाही, और कबीर के ब्राह्यचार-विरोधी पक्ष पर तो प्रकाश डालता है, पर कबीर के आध्यात्मिक पक्ष को अछूता छोड़ देता है, जबकि, उनके अनुसार, कबीर का अध्यात्म-पक्ष ही आज सबसे अधिक मान्य है।
मेरी समझ में कबीर का ‘अध्यात्म’, मूलतः उनकी मनुष्य-मात्र के प्रति समदृष्टि, प्रेमभाव, भक्तिभाव और व्यापक ‘धर्मेतर’ दृष्टि से ही पनपकर निकला है। उनके बाह्याचार-विरोधी पद, भक्तिभाव के पद और आध्यात्मिक पद एक ही भूमि से उत्पन्न हुए हैं, इस तरह वे एक-दूसरे से अलग न होकर, एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। जो साधक अंतरिक्ष को छूते हैं, वे धरती पर से उठकर ही अंतरिक्ष तक पहुँचते हैं। कबीर की यह मान्यता कि हिन्दू और तुर्क ‘एक ही माटी के भाण्डे’ हैं तथा उनका बाह्याचार-विरोध और सहज समाधि के मार्ग का निर्देश और अनहद नाद में लीन होना, एक ही व्यक्तित्व की रचनात्मक दृष्टि की उपज हैं।
हमारे यहाँ एक ऐसी प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाता है, जहाँ हम किसी महापुरुष को उसके काल और स्थान के सन्दर्भ से काटकर, उसकी सामाजिक भूमिका को गौण बनाते हुए, उसे अध्यात्म के आकाश में विचरते दिखाना चाहते हैं। ऐसा हाल ही में गाँधीजी के सम्बन्ध में भी जान-बूझकर किया जा रहा है। देश के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी विराट भूमिका पर बल न देकर जिसमें उन्होंने संसार की सबसे शक्तिशाली साम्राज्यवादी सरकार के विरुद्ध देश के लाखों-लाख लोगों को खड़ा कर दिया, और देशवासियों में एक नयी रूह फूँक दी, उनकी सत्य और अहिंसा संबंधी मान्यताओं को, देश और काल से काटकर, प्रमुखता देते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने की औपचारिकता निभायी जाती है। यह गाँधीजी के प्रति घोर अन्याय है। कबीर के साथ भी ऐसा ही करने की प्रवृत्ति पायी जाती है, जो हाल ही में कबीर-जयन्ती के समय प्रस्तुत रेडियो और टेलीवीजन के कार्यक्रमों में लक्षित हुई। अपने काल के यथार्थ से और उस यथार्थ के विरुद्ध उनके विकट संघर्ष को न दिखाकर कबीर को ब्रह्म में लीन अध्यात्म के गायक सन्त के रूप में दिखाना कबीर के साथ भी अन्याय करना ही है।
नाटक में उनके काल की धर्मान्धता, अनाचार, तानाशाही आदि के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में उनके विर्भीक, सत्यान्वेषी, प्रखर व्यक्तित्व को दिखाने की कोशिश है। उनके अध्यात्मपक्ष को नकारना अथवा उसकी उपेक्षा करना अपेक्षित नहीं था, उस आधार-भूमि को स्थिर कर पाना ही अपेक्षित था, जिसमें उनके विराट् व्यक्तित्व का विकास हुआ। नाटक में त्रुटियाँ और दोष तो अनेक हैं, इन्हें मैं स्वयं जानता और महसूस करता हूँ, परन्तु यदि वह तत्कालिक सामाजिक परिवेश को किसी हद तक भी स्थापित कर पाया है, जिसके संदर्भ में कबीर सक्रिय थे, तो मैं इस प्रयास को सार्थक ही मानूँगा।
रैना की मंशा थी कि नाटक में कबीर के पद अधिक संख्या में रखे जायें और इस तरह नाटक में संगीत का अंश बढ़ा दिया जाये, चुनाँचे, मूल नाटक में जहाँ दस पद थे, मंचन में वे सत्रह बन गये। अनेक पदों का चयन श्री रैना ने स्वयं कर लिया। पाठक जी ने वे धुनें जुटायीं जो लोक-संगीत के निकट और पदों की भावना के अनुरूप थीं।
मंचन में अनेक जगह पर छोटी-मोटी जोड़-तोड़ भी की गयी, जैसे दो दृश्यों को मिलाकर एक लम्बा दृश्य बना दिया गया (जैसे अंक दो का दूसरा और अंक तीन का पहला दृश्य)। इसी तरह पहले अंक के दूसरे दृश्य में, कोतवाल और कायस्थ के प्रगट होने से पहले, प्रभाववेला की एक छोटी-सी झाँकी प्रस्तुत की गयी, जिसमें प्रभातवेला में सड़क पर सोने-बसनेवाले काशी के दरिद्र नागरिक, अन्धा भिखारी, साधारण-स्त्री-पुरुष, भंगी-भिश्ती आदि उठ-उठ कर अपने-अपने काम पर निकलते हैं, और नेपथ्य में मन्दिरों की घण्टियाँ और घड़ियाल और मस्जिदों की अजान आदि सुनायी पड़ते हैं। इससे काशी का वातावरण तैयार करने में बड़ मदद मिली।
नाटक की भाषा में भी जो खड़ी बोली में लिखा गया है, भोजपुरी का पुट देने का प्रयास किया गया, हालाँकि कुछ मित्रों का कहना है कि वह अवधी अधिक और भोजपुरी कम बन पायी। रैनाजी के सुझाव पर ही नाटक का नाम भी ‘कबीरदास न रखकर ‘कबिरा खड़ा बाजार में’ रखा गया।
जाहिर है, मैं उनके बहुमूल्य योगदान के लिए आभारी हूँ।
कुछ मित्रों को शिकायत रही है कि नाटक कबीर के काल, तत्कालीन समाज की धर्मान्धता तथा तानाशाही, और कबीर के ब्राह्यचार-विरोधी पक्ष पर तो प्रकाश डालता है, पर कबीर के आध्यात्मिक पक्ष को अछूता छोड़ देता है, जबकि, उनके अनुसार, कबीर का अध्यात्म-पक्ष ही आज सबसे अधिक मान्य है।
मेरी समझ में कबीर का ‘अध्यात्म’, मूलतः उनकी मनुष्य-मात्र के प्रति समदृष्टि, प्रेमभाव, भक्तिभाव और व्यापक ‘धर्मेतर’ दृष्टि से ही पनपकर निकला है। उनके बाह्याचार-विरोधी पद, भक्तिभाव के पद और आध्यात्मिक पद एक ही भूमि से उत्पन्न हुए हैं, इस तरह वे एक-दूसरे से अलग न होकर, एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। जो साधक अंतरिक्ष को छूते हैं, वे धरती पर से उठकर ही अंतरिक्ष तक पहुँचते हैं। कबीर की यह मान्यता कि हिन्दू और तुर्क ‘एक ही माटी के भाण्डे’ हैं तथा उनका बाह्याचार-विरोध और सहज समाधि के मार्ग का निर्देश और अनहद नाद में लीन होना, एक ही व्यक्तित्व की रचनात्मक दृष्टि की उपज हैं।
हमारे यहाँ एक ऐसी प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाता है, जहाँ हम किसी महापुरुष को उसके काल और स्थान के सन्दर्भ से काटकर, उसकी सामाजिक भूमिका को गौण बनाते हुए, उसे अध्यात्म के आकाश में विचरते दिखाना चाहते हैं। ऐसा हाल ही में गाँधीजी के सम्बन्ध में भी जान-बूझकर किया जा रहा है। देश के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी विराट भूमिका पर बल न देकर जिसमें उन्होंने संसार की सबसे शक्तिशाली साम्राज्यवादी सरकार के विरुद्ध देश के लाखों-लाख लोगों को खड़ा कर दिया, और देशवासियों में एक नयी रूह फूँक दी, उनकी सत्य और अहिंसा संबंधी मान्यताओं को, देश और काल से काटकर, प्रमुखता देते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने की औपचारिकता निभायी जाती है। यह गाँधीजी के प्रति घोर अन्याय है। कबीर के साथ भी ऐसा ही करने की प्रवृत्ति पायी जाती है, जो हाल ही में कबीर-जयन्ती के समय प्रस्तुत रेडियो और टेलीवीजन के कार्यक्रमों में लक्षित हुई। अपने काल के यथार्थ से और उस यथार्थ के विरुद्ध उनके विकट संघर्ष को न दिखाकर कबीर को ब्रह्म में लीन अध्यात्म के गायक सन्त के रूप में दिखाना कबीर के साथ भी अन्याय करना ही है।
नाटक में उनके काल की धर्मान्धता, अनाचार, तानाशाही आदि के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में उनके विर्भीक, सत्यान्वेषी, प्रखर व्यक्तित्व को दिखाने की कोशिश है। उनके अध्यात्मपक्ष को नकारना अथवा उसकी उपेक्षा करना अपेक्षित नहीं था, उस आधार-भूमि को स्थिर कर पाना ही अपेक्षित था, जिसमें उनके विराट् व्यक्तित्व का विकास हुआ। नाटक में त्रुटियाँ और दोष तो अनेक हैं, इन्हें मैं स्वयं जानता और महसूस करता हूँ, परन्तु यदि वह तत्कालिक सामाजिक परिवेश को किसी हद तक भी स्थापित कर पाया है, जिसके संदर्भ में कबीर सक्रिय थे, तो मैं इस प्रयास को सार्थक ही मानूँगा।
दृश्य-1
(जुलाहों की बस्ती। छोटे-छोटे झोंपड़े। कहीं सूत पकाया जा रहा है, कहीं खड्डी चल रही है। एक झोंपड़े के सामने नूरा सूत पका रहा है। एक जुलाहा कन्धे पर थान रखे बाहर से आता है। और नूरा के पास ठहर जाता है।
नूरा: बड़ी जल्दी बहुरे बाजार से।
जुलाहा: सभी दुकानदार कहते हैं अभी पहला ही माल नहीं बिका तो और माल लेकर क्या करेंगे।
नूरा: कुछ कमाई तो कर लाये होगे ?
जुलाहा: एक फूटी कौड़ी नहीं मिली; इसरार करो तो कहते हैं, तुम्हारा माल धरा है, उठाकर ले जाओ, हमें नहीं बेचना है। ऐसी मन्दी आयी है कुछ पूछो नहीं, बाजार में उल्लू बोल रहे हैं।
नूरा: कबीरवा मिला रहा ? उसका भी कुछ माल बिका-उका या नहीं ? घर से तो सवेरे ही निकल गया था।
जुलाहा: ये थान तुम्हारा ही माल है, वही दिये हैं।
नूरा: कबीर ने ? कबीर ने तुम्हें क्यों दिया ? सवेरे तो बेचने गया था।
जुलाहा: कहता था घर पहुँचा देना, और यह भी सँदेसा दिया है कि शाम तक घर लौट आयेगा।
नूरा: तुमसे कहाँ मिला थ ?
जुलाहा: कोतवाली चौक के पास खड़ा था। उसे बहुत से लोग घेरे खड़े थे।
(थान को चबूतरे पर रखकर बैठ जाता है)
कबीरे को समझाओ, बहुत बड़बोला हो गया है। बाजार में माल बेचने जाता है, माल बेच-खोंच कर सीधे लौट आया करे।
नूरा: क्यों ? क्या फिर कोई बात हुई है ?
जुलाहा: सराफों के बाजार में से निकलकर मैं मस्जिद शरीफ की तरफ जा रहा था तब मैंने कबीर को पहली बार देखा। पूरा मजमा जमा कर रहा था।
नूरा: क्या कह रहा था ?
जुलाहा: वही रोज की बक-झक, और क्या ? कुछ लोग उसकी बात सुन-सह लेते हैं, कुछ नहीं सह पाते। किसी ने जाकर कोतवाल से शिकायत कर दी तो लेने के देने पड़ जायेंगे।
नूरा: तुम कुछ छिपा रहे हो। सच-सच बताओ कबीरवा क्या कर रहा था।
जुलाहा: आज बड़े महन्त की झाँकी-सवारी निकल रही थी। वहाँ महन्त के आदमियों ने किसी लौंडे को बेंत मारे। कबीरा बीच में कूद पड़ा। वे बच्चे को तो छोड़ दिये, उल्टे कबीरे पर टूट पड़े। उससे पहले एक मौलवी के साथ भी उलझ रहा था।
(कबीर की माँ दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती है)
देख तो रहे हो जुग-जमाना कैसा आ गया है।
नूरा: नीमा से
सुन ली बेटे की बातें ?
जुलाहा: कोतवाल तो ऐसा आदमी है कि जिन्दा गाड़ देता है। पहला कोतवाल सीलदार आदमी था, भला मानुस था, बकस देता था। मगर इस कोतवाल का कोई भरोसा नहीं। सुनते हैं इसका दादा तैमूर लंग की फौज के साथ आया था। दिल्ली के खून-खराबे में उसने खूब हाथ रँगे थे।
नूरा: मैं क्या कहूँ, इस नालायक की वजह से जान साँसत में आ गयी है।
जुलाहा: मुझसे पूछो तो तुम्हें उसके साथ खुद जाना चाहिए। मण्डी में काम निबटाया और घर लौट आये। और मैं तो सल्लाह दूँगा इसका ब्याह कर दो, अपने आप पैरों में बेड़ियाँ पड़ जायेंगी, मुँह बाये सड़क पर नहीं घूमा करेगा।
नूरा: हमारी कहाँ सुनता है। दो बार घर से भाग चुका है। एक बार तो कहाँ, हरिद्वार के पास से पकड़कर लाये थे। सच पूछो तो मैं उसे लिवाने भी नहीं जाता लेकिन इसकी माँ रो-रोकर आधी हुई जा रही थी। आठ पहर का रोना कौन सुने। मैं जंगलों की खाक छानता, मिन्नत-समाजत करके इसे लौटा लाया तो सात महीने बाद फिर भाग खड़ा हुआ। अब इसे रस्सियों से बाँधकर तो नहीं रखा जा सकता ना ! कहीं बाँधे गाँव बसा है ?
नीमा: हम तो डरते हैं, उससे कुछ नहीं कहते, कि कहीं फिर न भाग जाये। हमारे तो धुकधुकी लगी रहती है कि कहीं कोई बात मुँह से न निकल जाये कि फिर भाग खड़ा। अबकी भागेगा तो मैं गंगा में डूब मरूँगी।
नूरा: गुस्से से
चबड़-चबड़ बोले जा रही है। तूने ही इसे बिगाड़ा है।
जुलाहा: मेरी मानो, इसका ब्याह कर दो। अपने आप सँभल जायेगा। रोज-रोज लोगों से झगड़ा-टंटा अच्छा नहीं। अच्छा, अब चलूँगा। ये थान-वान सँभाल लो।
नूरा: बड़ी जल्दी बहुरे बाजार से।
जुलाहा: सभी दुकानदार कहते हैं अभी पहला ही माल नहीं बिका तो और माल लेकर क्या करेंगे।
नूरा: कुछ कमाई तो कर लाये होगे ?
जुलाहा: एक फूटी कौड़ी नहीं मिली; इसरार करो तो कहते हैं, तुम्हारा माल धरा है, उठाकर ले जाओ, हमें नहीं बेचना है। ऐसी मन्दी आयी है कुछ पूछो नहीं, बाजार में उल्लू बोल रहे हैं।
नूरा: कबीरवा मिला रहा ? उसका भी कुछ माल बिका-उका या नहीं ? घर से तो सवेरे ही निकल गया था।
जुलाहा: ये थान तुम्हारा ही माल है, वही दिये हैं।
नूरा: कबीर ने ? कबीर ने तुम्हें क्यों दिया ? सवेरे तो बेचने गया था।
जुलाहा: कहता था घर पहुँचा देना, और यह भी सँदेसा दिया है कि शाम तक घर लौट आयेगा।
नूरा: तुमसे कहाँ मिला थ ?
जुलाहा: कोतवाली चौक के पास खड़ा था। उसे बहुत से लोग घेरे खड़े थे।
(थान को चबूतरे पर रखकर बैठ जाता है)
कबीरे को समझाओ, बहुत बड़बोला हो गया है। बाजार में माल बेचने जाता है, माल बेच-खोंच कर सीधे लौट आया करे।
नूरा: क्यों ? क्या फिर कोई बात हुई है ?
जुलाहा: सराफों के बाजार में से निकलकर मैं मस्जिद शरीफ की तरफ जा रहा था तब मैंने कबीर को पहली बार देखा। पूरा मजमा जमा कर रहा था।
नूरा: क्या कह रहा था ?
जुलाहा: वही रोज की बक-झक, और क्या ? कुछ लोग उसकी बात सुन-सह लेते हैं, कुछ नहीं सह पाते। किसी ने जाकर कोतवाल से शिकायत कर दी तो लेने के देने पड़ जायेंगे।
नूरा: तुम कुछ छिपा रहे हो। सच-सच बताओ कबीरवा क्या कर रहा था।
जुलाहा: आज बड़े महन्त की झाँकी-सवारी निकल रही थी। वहाँ महन्त के आदमियों ने किसी लौंडे को बेंत मारे। कबीरा बीच में कूद पड़ा। वे बच्चे को तो छोड़ दिये, उल्टे कबीरे पर टूट पड़े। उससे पहले एक मौलवी के साथ भी उलझ रहा था।
(कबीर की माँ दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती है)
देख तो रहे हो जुग-जमाना कैसा आ गया है।
नूरा: नीमा से
सुन ली बेटे की बातें ?
जुलाहा: कोतवाल तो ऐसा आदमी है कि जिन्दा गाड़ देता है। पहला कोतवाल सीलदार आदमी था, भला मानुस था, बकस देता था। मगर इस कोतवाल का कोई भरोसा नहीं। सुनते हैं इसका दादा तैमूर लंग की फौज के साथ आया था। दिल्ली के खून-खराबे में उसने खूब हाथ रँगे थे।
नूरा: मैं क्या कहूँ, इस नालायक की वजह से जान साँसत में आ गयी है।
जुलाहा: मुझसे पूछो तो तुम्हें उसके साथ खुद जाना चाहिए। मण्डी में काम निबटाया और घर लौट आये। और मैं तो सल्लाह दूँगा इसका ब्याह कर दो, अपने आप पैरों में बेड़ियाँ पड़ जायेंगी, मुँह बाये सड़क पर नहीं घूमा करेगा।
नूरा: हमारी कहाँ सुनता है। दो बार घर से भाग चुका है। एक बार तो कहाँ, हरिद्वार के पास से पकड़कर लाये थे। सच पूछो तो मैं उसे लिवाने भी नहीं जाता लेकिन इसकी माँ रो-रोकर आधी हुई जा रही थी। आठ पहर का रोना कौन सुने। मैं जंगलों की खाक छानता, मिन्नत-समाजत करके इसे लौटा लाया तो सात महीने बाद फिर भाग खड़ा हुआ। अब इसे रस्सियों से बाँधकर तो नहीं रखा जा सकता ना ! कहीं बाँधे गाँव बसा है ?
नीमा: हम तो डरते हैं, उससे कुछ नहीं कहते, कि कहीं फिर न भाग जाये। हमारे तो धुकधुकी लगी रहती है कि कहीं कोई बात मुँह से न निकल जाये कि फिर भाग खड़ा। अबकी भागेगा तो मैं गंगा में डूब मरूँगी।
नूरा: गुस्से से
चबड़-चबड़ बोले जा रही है। तूने ही इसे बिगाड़ा है।
जुलाहा: मेरी मानो, इसका ब्याह कर दो। अपने आप सँभल जायेगा। रोज-रोज लोगों से झगड़ा-टंटा अच्छा नहीं। अच्छा, अब चलूँगा। ये थान-वान सँभाल लो।
प्रस्थान
नूरा: जुलाहे के चले जाने पर
घर में खाने को अन्न का दाना नहीं, इधर लड़का आवारा हो गया। हमारी जान लेकर रहेगा।
नीमा: कुछ सोचकर बोला करो जी। कैसी कुबात मुँह से निकाली है।
नूरा: न जाने किसको उठा लायी। तब तो बड़ी मोहगर बनी थी, अब किये को भुगतो। यह तो साँप पालते रहे। न दीन के रहे, न जहान के।
नीमा: क्यों उसे गाली देते हो। वह तो तुम्हें सिर पर उठाये रखता है, और एक तुम हो कि....
नूरा: अबकी बार बाहर गया तो मैं उसकी टँगरी तोड़ दूँगा। मैं उसे घर से बाहर ही नहीं निकलने दूँगा।
नीमा: रो पड़ती है।
आये-दिन तुम मुझे कोसते रहते हो। कबीरवा भी कहता था, मैं घर से चला जाऊँगा। मेरी वजह से तुम लोग परेशान रहते हो।
नूरा: उस वक्त भी मेरी बायीं आँख फड़की थी जिस वक्त तू उसे उठा लायी थी। अन्दर से मेरे दिल ने कहा था कि नूरा, भूल कर रहे हो, पर तू मेरे सिर पर सवार हो गयी, मैं क्या करता !
नीमा: मैं सिर पर सवार हो गयी थी ? तुम खुद उसे उठाने मेरे साथ गये थे।
नूरा: मैं गया था तेरे दिल की बात पूरी करने के लिए। तू मन में कैसी-कैसी मनौतियाँ मनाती रहती थी। पराये कभी अपने नहीं हुए, सदा पराये ही रहते हैं।
नीमा: इसे हमें अल्लाह-ताला ने दिया है। खबरदार जो मुँह से एक भी बुरा लफ़ज़ निकाला।
नूरा: इसे न उठा लाती तो क्या मालूम मैं दूसरा निकाह कर लेता। घर में अपना बच्चा तो होता। इसे पाल-पोसकर बड़ा किया तो यह फल भोग रहे हैं। दो दिन चैन के नहीं मिलते। करेजे पर होरहा भुनता रहता है।
नीमा: अब कुछ मत कहो जी। उस जैसा बेटा तो दिया लेकर भी ढूँढे़ नहीं मिलेगा। किस्मतवाले थे जो ऐसा सोना बेटा पाया। हमारा घर उज्जर हो गया। कभी ऊँची आवाज में बोलता नहीं है।
नूरा: हाँजी, उसके मुँह में तो जबान ही नहीं। हर ऐसे-गैरे से उलझता फिरता है।...जुलाहे का बेटा है तो जुलाहा बनकर रहे। घर से कपड़ा बेचने जाता है तो घण्टों अपने निगोड़े साथियों के साथ बैठकबाजी करता फिरता है। जहाँ देखो, कबिरवा का दरबार लगा रहता है।
नीमा: हमजोलियों के साथ ही उठता-बैठता है ना, इसमें बेजा क्या है ? भाँग-धतूरा तो नहीं पीता, जुआ तो नहीं खेलता।
नुरा: सास्तरार्थ करता फिरता है। लट्ठ लिये लोग इसके पीछे घूमते रहते हैं।
नीमा: अच्छा-अच्छा, सास्तरार्थ करता है ना, भाँग-धतूरा तो नहीं पीता।
नूरा: बस, एक ही बात रगेदे जा रही है। मुझसे पूछ, भाँग धतूरा इतना बुरा नहीं है जितना यह सास्तरार्थ। यह तो कभी छूटता ही नहीं, घरों के घर तबाह हो जाते हैं। सिर-फुटौव्वल अलग होती है।
नीमा: बस, बस, यह तुम क्या बक्के जा रहे हो ?
नूरा: आज तो मैं साफ़-साफ़ बात कह दूँगा।
नीमा: घबरा जाती है
क्या कह दोगे ? खबरदार जो तुम उससे कुछ उल्टी-पुल्टी बोले तो। जो वह हमें छोड़कर फिर अलोप हो गया तो ?
नूरा: अलोप हो जाये, मेरी बला से। अगर उसे हमारा ख्याल होता तो वह ऐसे करम करता ही नहीं।
नीमा: नूरा की चापलूसी करते हुए
मैं तुम्हें जानती नहीं हूँ क्या ? पहली बार कबीरा घर छोड़कर भाग गया था तो तुम उसी रोज उसे ढूँढ़ने निकल पड़े थे। घर में बैठे ही नहीं सकते थे।
नूरा: अबकी नहीं जाऊँगा।
नीमा: तुम नहीं जाओगे ? तुम चैन से बैठ ही नहीं सकोगे। मैं तुम्हें जानती नहीं क्या ?
नूरा: अपने अपने होते हैं, और पराये पराये। आदमी की तरह रहे तो भी कोई बात है। यह तो नयी-नयी खुड़ुच करता फिरता है।
(कबीर का प्रवेश। कुछ थका हुआ है।)
नीमा: आ गया बेटा ?
आगे बढ़कर उसकी ओर जाती है।
कबीर: हाँ, माँ !
नीमा: आ, इधर बैठ जा। मैं सत्तू बना लाती हूँ तेरे लिये।
अन्दर चली जाती है।
नूरा: तीनों थान बिक गये ? हमसाया तो कह रहा था बाजार में बड़ी मन्दी है। उसका एक भी नहीं बिका।
कबीर: नहीं तो।
हैरान होकर
क्या कोई आदमी यहाँ थान नहीं पहुँचा गया ?
नूरा: थान तो तू लेकर गया था।
कबीर: नहीं, बाजार में मैंने एक से कहा था कि ये थान घर पर पहुँचा दे, बापू को दे आये। मैंने सोचा, पहुँचा दिये होंगे।
नूरा: तू अच्छा ब्यौपार करने जाता है। थान किसी दूसरे के हवाले कर आया है। कौन था वह ?
कबीर: बस्ती का ही तो है। मैंने सोचा अब तक ले आया होगा।
नूरा: कहाँ पर दिये थे ?
कबीर: ले आयेगा बापू, चिन्ता की कोई बात नहीं। सर्राफों के बाजर के चौक में, बनवारी की दुकान के पास खड़ा था।
नूरा: तेरे लिए तो चिन्ता-फिकर की कोई बात नहीं। आगे से मैं खुद जाया करूँगा। भर पायी है तुमसे।
(हाथ पोंछकर बड़बड़ाता हुआ जल्दी से अन्दर चला जाता है। जाने से पहले मुड़कर)
दे गया है थान ! करमदीन लाया था। वे रखे हैं। यह धन्धा ब्यौपार करने चले हैं। इतना भी नहीं मालूम कि थान किसे दे दिये थे। जान साँसत में आ गयी है।
घर में खाने को अन्न का दाना नहीं, इधर लड़का आवारा हो गया। हमारी जान लेकर रहेगा।
नीमा: कुछ सोचकर बोला करो जी। कैसी कुबात मुँह से निकाली है।
नूरा: न जाने किसको उठा लायी। तब तो बड़ी मोहगर बनी थी, अब किये को भुगतो। यह तो साँप पालते रहे। न दीन के रहे, न जहान के।
नीमा: क्यों उसे गाली देते हो। वह तो तुम्हें सिर पर उठाये रखता है, और एक तुम हो कि....
नूरा: अबकी बार बाहर गया तो मैं उसकी टँगरी तोड़ दूँगा। मैं उसे घर से बाहर ही नहीं निकलने दूँगा।
नीमा: रो पड़ती है।
आये-दिन तुम मुझे कोसते रहते हो। कबीरवा भी कहता था, मैं घर से चला जाऊँगा। मेरी वजह से तुम लोग परेशान रहते हो।
नूरा: उस वक्त भी मेरी बायीं आँख फड़की थी जिस वक्त तू उसे उठा लायी थी। अन्दर से मेरे दिल ने कहा था कि नूरा, भूल कर रहे हो, पर तू मेरे सिर पर सवार हो गयी, मैं क्या करता !
नीमा: मैं सिर पर सवार हो गयी थी ? तुम खुद उसे उठाने मेरे साथ गये थे।
नूरा: मैं गया था तेरे दिल की बात पूरी करने के लिए। तू मन में कैसी-कैसी मनौतियाँ मनाती रहती थी। पराये कभी अपने नहीं हुए, सदा पराये ही रहते हैं।
नीमा: इसे हमें अल्लाह-ताला ने दिया है। खबरदार जो मुँह से एक भी बुरा लफ़ज़ निकाला।
नूरा: इसे न उठा लाती तो क्या मालूम मैं दूसरा निकाह कर लेता। घर में अपना बच्चा तो होता। इसे पाल-पोसकर बड़ा किया तो यह फल भोग रहे हैं। दो दिन चैन के नहीं मिलते। करेजे पर होरहा भुनता रहता है।
नीमा: अब कुछ मत कहो जी। उस जैसा बेटा तो दिया लेकर भी ढूँढे़ नहीं मिलेगा। किस्मतवाले थे जो ऐसा सोना बेटा पाया। हमारा घर उज्जर हो गया। कभी ऊँची आवाज में बोलता नहीं है।
नूरा: हाँजी, उसके मुँह में तो जबान ही नहीं। हर ऐसे-गैरे से उलझता फिरता है।...जुलाहे का बेटा है तो जुलाहा बनकर रहे। घर से कपड़ा बेचने जाता है तो घण्टों अपने निगोड़े साथियों के साथ बैठकबाजी करता फिरता है। जहाँ देखो, कबिरवा का दरबार लगा रहता है।
नीमा: हमजोलियों के साथ ही उठता-बैठता है ना, इसमें बेजा क्या है ? भाँग-धतूरा तो नहीं पीता, जुआ तो नहीं खेलता।
नुरा: सास्तरार्थ करता फिरता है। लट्ठ लिये लोग इसके पीछे घूमते रहते हैं।
नीमा: अच्छा-अच्छा, सास्तरार्थ करता है ना, भाँग-धतूरा तो नहीं पीता।
नूरा: बस, एक ही बात रगेदे जा रही है। मुझसे पूछ, भाँग धतूरा इतना बुरा नहीं है जितना यह सास्तरार्थ। यह तो कभी छूटता ही नहीं, घरों के घर तबाह हो जाते हैं। सिर-फुटौव्वल अलग होती है।
नीमा: बस, बस, यह तुम क्या बक्के जा रहे हो ?
नूरा: आज तो मैं साफ़-साफ़ बात कह दूँगा।
नीमा: घबरा जाती है
क्या कह दोगे ? खबरदार जो तुम उससे कुछ उल्टी-पुल्टी बोले तो। जो वह हमें छोड़कर फिर अलोप हो गया तो ?
नूरा: अलोप हो जाये, मेरी बला से। अगर उसे हमारा ख्याल होता तो वह ऐसे करम करता ही नहीं।
नीमा: नूरा की चापलूसी करते हुए
मैं तुम्हें जानती नहीं हूँ क्या ? पहली बार कबीरा घर छोड़कर भाग गया था तो तुम उसी रोज उसे ढूँढ़ने निकल पड़े थे। घर में बैठे ही नहीं सकते थे।
नूरा: अबकी नहीं जाऊँगा।
नीमा: तुम नहीं जाओगे ? तुम चैन से बैठ ही नहीं सकोगे। मैं तुम्हें जानती नहीं क्या ?
नूरा: अपने अपने होते हैं, और पराये पराये। आदमी की तरह रहे तो भी कोई बात है। यह तो नयी-नयी खुड़ुच करता फिरता है।
(कबीर का प्रवेश। कुछ थका हुआ है।)
नीमा: आ गया बेटा ?
आगे बढ़कर उसकी ओर जाती है।
कबीर: हाँ, माँ !
नीमा: आ, इधर बैठ जा। मैं सत्तू बना लाती हूँ तेरे लिये।
अन्दर चली जाती है।
नूरा: तीनों थान बिक गये ? हमसाया तो कह रहा था बाजार में बड़ी मन्दी है। उसका एक भी नहीं बिका।
कबीर: नहीं तो।
हैरान होकर
क्या कोई आदमी यहाँ थान नहीं पहुँचा गया ?
नूरा: थान तो तू लेकर गया था।
कबीर: नहीं, बाजार में मैंने एक से कहा था कि ये थान घर पर पहुँचा दे, बापू को दे आये। मैंने सोचा, पहुँचा दिये होंगे।
नूरा: तू अच्छा ब्यौपार करने जाता है। थान किसी दूसरे के हवाले कर आया है। कौन था वह ?
कबीर: बस्ती का ही तो है। मैंने सोचा अब तक ले आया होगा।
नूरा: कहाँ पर दिये थे ?
कबीर: ले आयेगा बापू, चिन्ता की कोई बात नहीं। सर्राफों के बाजर के चौक में, बनवारी की दुकान के पास खड़ा था।
नूरा: तेरे लिए तो चिन्ता-फिकर की कोई बात नहीं। आगे से मैं खुद जाया करूँगा। भर पायी है तुमसे।
(हाथ पोंछकर बड़बड़ाता हुआ जल्दी से अन्दर चला जाता है। जाने से पहले मुड़कर)
दे गया है थान ! करमदीन लाया था। वे रखे हैं। यह धन्धा ब्यौपार करने चले हैं। इतना भी नहीं मालूम कि थान किसे दे दिये थे। जान साँसत में आ गयी है।
प्रस्थान
नीमा: अन्दर आते हुए
ले, खा ले, बेटा !
कबीर: मेरे दोस्तों में से कोई आया था माँ ? रैदास, पीपा, सेना कोई तो आया होगा ?
नीमा: सुन बेटा, तू लोगों से उलझता फिरता है, यह ठीक नहीं है। तू किसी से कुछ न कहा कर।
कबीर: मैंने क्या कहा माँ ?
नीमा: आज बाजार में क्या हुआ था ?
कबीर: मुस्करा देता है
कुछ भी तो नहीं माँ ! दूकान में सेठिया पड़ा सो रहा था। मैंने सोचा, जागेगा तो थान बेचने की बात करूँगा। उधर दो कसाई एक गाय को बाँधे लिये जा रहे थे, पीछे-पीछे गाय का बछड़ा चला जा रहा था। मुझे बहुत बुरा लगा।
नीमा: और तू बीच में कूद पड़ा।
कबीर: नहीं तो, मैंने उनसे कुछ नहीं कहा। पर मुझे एक कवित्त सूझ गया। मैंने खड़े-खड़े कवित्त बोल दिया, माँ ! मुझे सूझ गया मैंने कह दिया।
नीमा: लोग तेरे कवित्तों से बिगड़ते हैं तो तू क्यों कहता है ? क्या कहा था ?
कबीर: मैंने कहा था :
ले, खा ले, बेटा !
कबीर: मेरे दोस्तों में से कोई आया था माँ ? रैदास, पीपा, सेना कोई तो आया होगा ?
नीमा: सुन बेटा, तू लोगों से उलझता फिरता है, यह ठीक नहीं है। तू किसी से कुछ न कहा कर।
कबीर: मैंने क्या कहा माँ ?
नीमा: आज बाजार में क्या हुआ था ?
कबीर: मुस्करा देता है
कुछ भी तो नहीं माँ ! दूकान में सेठिया पड़ा सो रहा था। मैंने सोचा, जागेगा तो थान बेचने की बात करूँगा। उधर दो कसाई एक गाय को बाँधे लिये जा रहे थे, पीछे-पीछे गाय का बछड़ा चला जा रहा था। मुझे बहुत बुरा लगा।
नीमा: और तू बीच में कूद पड़ा।
कबीर: नहीं तो, मैंने उनसे कुछ नहीं कहा। पर मुझे एक कवित्त सूझ गया। मैंने खड़े-खड़े कवित्त बोल दिया, माँ ! मुझे सूझ गया मैंने कह दिया।
नीमा: लोग तेरे कवित्तों से बिगड़ते हैं तो तू क्यों कहता है ? क्या कहा था ?
कबीर: मैंने कहा था :
दिन भर रोजा रहत हैं, रात हनत हैं गाय
यह तो खून वह बन्दगी, कैसे खुसी खुदाय
यह तो खून वह बन्दगी, कैसे खुसी खुदाय
नीमा: तुझे कवित्त ही बोलना था तो मस्जिद के सामने तो नहीं बोलता !
कबीर : उस वक्त मस्जिद के सामने कहाँ था ?
मुस्कराकर
मस्जिद के पास तो बाद में खड़ा था। और माँ, तुम्हें किसने कहा कि कोई मुझ पर बिगड़ा था।
नीमा: यह आज की बात थोड़े ही है, आये-दिन ऐसा ही होता है। तू क्यों लोगों से सवाल पूछता फिरता है ? मौलवी-मुल्लाओं ने भी कभी कोई सवाल पूछता है ! वे चिढ़ जाते हैं। इन लोगों के हाथ में हमारी रोटी है, कबीर, तू कब समझेगा ? क्यों अपने माँ-बाप को भूखों मारता है ?
कबीर: मैंने क्या कहा है, माँ ?
नीमा: कुछ सोच-समझकर बात किया कर। यह काशी है बेटा, हिन्दुओं का तीरथ। और यहाँ का कोतवाल मुसलमान है। सभी कहते हैं बड़ा बेरहम आदमी है, जिन्दा दफना देता है। तू हर किसी से दुश्मनी मोल लेता फिरता है, बेटा, मेरा दिल बहुत डरता है।
कबीर: उठ खड़ा होता है
सुन माँ, एक बात पूछूँ ?
नीमा: क्या है ?
कबीर: सच-सच बतायेगी ?
नीमा: क्या है ? बुझौवल बुझाता है।
कबीर: पहले तिरवाचा दे कि सच-सच बतायेगी। मेरे सिर पर हाथ रखकर कह।
नीमा: कहने की बात हुई तो कहूँगी। ऐसी कसमें मैं नहीं खाती। पूछ, क्या पूछता है।
कबीर: जब मैं बाहर से आया तो बापू कुछ कह रहे थे, वह क्या कह रहे थे ?
कबीर : उस वक्त मस्जिद के सामने कहाँ था ?
मुस्कराकर
मस्जिद के पास तो बाद में खड़ा था। और माँ, तुम्हें किसने कहा कि कोई मुझ पर बिगड़ा था।
नीमा: यह आज की बात थोड़े ही है, आये-दिन ऐसा ही होता है। तू क्यों लोगों से सवाल पूछता फिरता है ? मौलवी-मुल्लाओं ने भी कभी कोई सवाल पूछता है ! वे चिढ़ जाते हैं। इन लोगों के हाथ में हमारी रोटी है, कबीर, तू कब समझेगा ? क्यों अपने माँ-बाप को भूखों मारता है ?
कबीर: मैंने क्या कहा है, माँ ?
नीमा: कुछ सोच-समझकर बात किया कर। यह काशी है बेटा, हिन्दुओं का तीरथ। और यहाँ का कोतवाल मुसलमान है। सभी कहते हैं बड़ा बेरहम आदमी है, जिन्दा दफना देता है। तू हर किसी से दुश्मनी मोल लेता फिरता है, बेटा, मेरा दिल बहुत डरता है।
कबीर: उठ खड़ा होता है
सुन माँ, एक बात पूछूँ ?
नीमा: क्या है ?
कबीर: सच-सच बतायेगी ?
नीमा: क्या है ? बुझौवल बुझाता है।
कबीर: पहले तिरवाचा दे कि सच-सच बतायेगी। मेरे सिर पर हाथ रखकर कह।
नीमा: कहने की बात हुई तो कहूँगी। ऐसी कसमें मैं नहीं खाती। पूछ, क्या पूछता है।
कबीर: जब मैं बाहर से आया तो बापू कुछ कह रहे थे, वह क्या कह रहे थे ?
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