विविध उपन्यास >> एकाकीपन के सौ वर्ष एकाकीपन के सौ वर्षगाब्रिएल गार्सीया मार्केज
|
6 पाठकों को प्रिय 99 पाठक हैं |
"वास्तविकता की सीमाओं से परे, जादुई कथाओं में इतिहास की गूंज।"
Ekant Ke Sau Varsh
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
एकान्त के सौ वर्ष ऐसा उपन्यास है जो विभिन्न आयामों के बीच एक द्वंद्वात्मक खिंचाव बनाए रखता है। सर्वप्रथम तो यह एक हास्य उपन्यास है, संपूर्ण मनोरंजन जो साहित्य के प्रति इस अवमाननाकारी रुख को लेकर चलता है कि साहित्य एक उम्दा खिलौना है, उसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। लेकिन साथ ही, यह एक बेहद संजीदा और महत्वाकांक्षी पुस्तक भी है जो एक ओर लैटिन अमेरिका के इतिहास के पुनर्लेखन का बीड़ा उठाती है तो दूसरी ओर अन्त में पाठक को आगाह कर देती है कि उपन्यास महज एक कल्पित संरचना है, एक सृजन, एक आईना नहीं जो वास्तविकता को बारीकी से प्रतिबिम्बित करता हो।
वास्तविकता को समझने और उसका वर्णन कर पाने की मनुष्य की क्षमता पर परम्परागत यथार्थवादी लेखन के भरोसे को स्वीकारने में असमर्थ, मार्केज ने एक ऐसी शैली अपनाई जो यथार्थवादी उपन्यासों की दस्तावेज़ी विधि से हटकर थी और जिसे ‘मैजिकल रीयलिज़्म’ यानी जादुई यथार्थवाद का नाम दिया गया।
यह समझ लेना ज़रूरी है कि एकान्त के सौ वर्ष का तथाकथित जादुई यथार्थवाद यह नहीं जतलाता कि लैटिन अमेरिकी वास्तविकता का नैसर्गिक चरित्र ही जादुई है। यद्यपि उपन्यास वहाँ के प्राकृतिक माहौल के अपूर्व आयामों और राजनैतिक जनजीवन की अतिशयोक्तियों का खुलासा अवश्य करता है। ‘अतिकल्पना’ के प्रयोग के विषय में भी कहना होगा कि एकान्त के सौ वर्ष में यह पूरी तरह से लागू नहीं होता क्योंकि प्रत्येक वर्णित घटना का, चाहे वह कितनी भी अद्भुत क्यों न हो, एक नितान्त तर्कसंगत स्पष्टीकरण भी है। उपन्यास में घटनाएं जब प्रस्तुत की जाती हैं तो वैसे नहीं जैसी वे वास्तव में घटित हुई, बल्कि जैसे वहाँ के लोगों, ने उन्हें अनुभव किया और समझा। इसी प्रकार अतिशयोक्तियों का प्रयोग भी उदाहरण के लिए खोसे आर्कादियों की विलक्षण वीर्यवत्ता, कर्नल औरेलियानो बुएनदीया के बत्तीस सशस्त्र, विद्रोह बहत्तर चिलमचियाँ खाली करने के लिए कतार में खड़ी बहत्तर बालिकाएँ-सब उस विधि के अनुरूप हैं जिसके चलते लोक-स्मृति आम घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा देती है। वास्तव में एकान्त के सौ वर्ष माकोन्दो के इतिहास को उसी रूप में पेश करता है जैसा कि वह मौखिक लोक-परम्परा में दर्ज हुआ और पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद किया गया।
वास्तविकता को समझने और उसका वर्णन कर पाने की मनुष्य की क्षमता पर परम्परागत यथार्थवादी लेखन के भरोसे को स्वीकारने में असमर्थ, मार्केज ने एक ऐसी शैली अपनाई जो यथार्थवादी उपन्यासों की दस्तावेज़ी विधि से हटकर थी और जिसे ‘मैजिकल रीयलिज़्म’ यानी जादुई यथार्थवाद का नाम दिया गया।
यह समझ लेना ज़रूरी है कि एकान्त के सौ वर्ष का तथाकथित जादुई यथार्थवाद यह नहीं जतलाता कि लैटिन अमेरिकी वास्तविकता का नैसर्गिक चरित्र ही जादुई है। यद्यपि उपन्यास वहाँ के प्राकृतिक माहौल के अपूर्व आयामों और राजनैतिक जनजीवन की अतिशयोक्तियों का खुलासा अवश्य करता है। ‘अतिकल्पना’ के प्रयोग के विषय में भी कहना होगा कि एकान्त के सौ वर्ष में यह पूरी तरह से लागू नहीं होता क्योंकि प्रत्येक वर्णित घटना का, चाहे वह कितनी भी अद्भुत क्यों न हो, एक नितान्त तर्कसंगत स्पष्टीकरण भी है। उपन्यास में घटनाएं जब प्रस्तुत की जाती हैं तो वैसे नहीं जैसी वे वास्तव में घटित हुई, बल्कि जैसे वहाँ के लोगों, ने उन्हें अनुभव किया और समझा। इसी प्रकार अतिशयोक्तियों का प्रयोग भी उदाहरण के लिए खोसे आर्कादियों की विलक्षण वीर्यवत्ता, कर्नल औरेलियानो बुएनदीया के बत्तीस सशस्त्र, विद्रोह बहत्तर चिलमचियाँ खाली करने के लिए कतार में खड़ी बहत्तर बालिकाएँ-सब उस विधि के अनुरूप हैं जिसके चलते लोक-स्मृति आम घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा देती है। वास्तव में एकान्त के सौ वर्ष माकोन्दो के इतिहास को उसी रूप में पेश करता है जैसा कि वह मौखिक लोक-परम्परा में दर्ज हुआ और पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद किया गया।
अनुवादकीय
1928 में जन्मे गाब्रिएल गार्सीया मार्केज़ ने अपने बाल्यकाल के निर्णायक वर्ष कोलोम्बिया के उत्तरी तट के उष्णप्रदेशीय कैरिबी क्षेत्र में स्थित अराकाताका नामक एक छोटे से शहर में बिताए। बीसवीं शताब्दी के उन आरम्भिक वर्षों में उत्तर अमरीकी यूनाइटेड फ्रूट कम्पनी उस इलाके की केला-उत्पादन क्षमता का लाभ उठाने के लिए वहाँ घुस चुकी थी और 1910 की दहाई में अराकाताका एक धूम-भरा शहर बन गया था। लेकिन लेखक के जन्म के समय तक धूम गुजर चुकी थी, पर शहर अब भी समृद्ध था। किन्तु 1941 में यूनाइटेड फ्रूट कम्पनी के कोलोम्बिया से वापस चले जाने के बाद, क्षेत्र की अर्थव्यवस्था नष्ट हो गई और कुछेक सालों बाद, जब लेखक अपनी माँ के साथ नाना-नानी के घर की बिक्री के सिलसिले में वहाँ वापस आए तो उन्होंने पाया कि एक जमाने का फला-फूला और सम्पन्न अराकाताका एक ध्वस्त भुतहा नगरी बन चुका था।
लालन-पालन की असामान्य परिस्थितियों के चलते गार्सीय मार्केज़ को जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में ही एकान्त का गहरा अनुभव हुआ। इलाके के एक जाने-माने खानदान की बेटी, उनकी माँ लुइसा ने गाब्रिएल एलीखियो गार्सीया नामक एक साधारण टेलिग्राफिस्ट से अपने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध विवाह किया था लेकिन उन्हें शान्त करने के लिए वे अपनी पहली जचगी के लिए मायके आ गई थीं और बेटे को उन्हीं के पास लालन-पालन के लिए छोड़ आईं। तीन मौसियों के साथ, ननिहाल के उस विशाल मकान में वे प्रौढ़ संबंधियों के बीच एकाकी बालक की तरह बड़े हुए। बाद में अनुभव एकाकीपन की उस गहरी भावना को और पैना करते गए जो उनके लेखन में निरन्तर देखने को मिलती है। बहरहाल, उनका बचपन खुशहाल बीता और नाना के साथ विशेष गहरा संबंध बना, और वे कथा-कहानियों के ऐसे माहौल में पले जिसमें बड़े-बूढ़े शहर और खानदान के इतिहास से जुड़े अनेकानेक वाकये सुनाया करते। उनके नाना, कर्नल निकोलास मार्केज़, उदारवादी पक्ष की ओर से सत्ताधारी रूढ़िवादियों के विरुद्ध 1899 से 1902 के ‘‘सहस्रदिवसीय युद्ध’’ में लड़े थे जो कोलोम्बिया को चीरनेवाले गृहयुद्धों की श्रृंखला में आखिरी था और वे अक्सर उस सनसनीखेज जमाने के वृतान्त उन्हें सुनाते थे। दूसरी ओर उनकी नानी और मौसियाँ भोली और अन्धविश्वासी महिलाएँ थीं जो दैवी चमत्कार में विश्वास रखती थीं और अनेकों तिलस्मी वारदातों का वर्णन यों करती थीं मानो वे रोजमर्रा की आम घटनाएँ हों, और गार्सीया मार्केज़ ने अक्सर कहा है कि उन्होंने अपनी लेखन शैली अपनी नानी से ही सीखी।
किन्तु 1936 में उनके नाना के देहान्त के साथ बचपन की उस दुनिया का भी अन्त हो गया और गार्सीया मार्केज़ ने कई बार कहा है कि उनके जीवन का अन्य कोई अन्तराल पहले आठ वर्षों के अनुभवों की तुलना में बेहतर नहीं हुआ।
गार्सीया मार्केज़ ने अगले दस वर्ष राजधानी बोगोता के करीब सिपाकिरा शहर में एक छात्रावास में रहते हुए गुजारे और 1947 में बोगोता के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में कानून के अध्ययन के लिए दाखिला लिया। कैरिबी क्षेत्र से आनेवाले गार्सीया मार्केज़ को एन्डीज के पहाड़ी इलाके का औपचारिकता-भरा परम्परावादी माहौल कतई रास न आया। उन्होंने किताबों में शरण ली, जिनमें से वे काफ़्का की मेटामोरफोसिस का विशेष प्रभाव स्वीकार करते हैं। 1948 में उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और उत्तर के तटीय क्षेत्र वापस चले गए जहाँ पहले कर्ताखेना और फिर 1950 से बारांकील्या में पत्रकार रहे। बारांकील्या के वे वर्ष उनके साहित्यिक विकास में निर्णायक रहे, क्योंकि वहाँ वे कला व साहित्य के जानकारों के संपर्क में आए जिन्होंने आधुनिक लेखन, विशेषकर जेम्स जॉयस, वर्जीनिया वुल्फ तथा विलियम फॉकनर इत्यादि ऐंग्लोसैक्सन लेखकों की कृतियों से उनका परिचय करवाया। एकान्त के सौ वर्ष के आखिरी भाग में उनका चित्रण कर गार्सीया मार्केज़ ने इसी बारांकील्या मित्र मंडली को श्रद्धांजलि अर्पित की है।
बारांकील्या में ही उन्होंने अपनी आरंभिक कहानियाँ लिखीं और अपना पहला उपन्यास, ला ओखारास्का (Leaf storm) भी। यह उपन्यास अन्तत: 1955 में छपा, किन्तु उपन्यासकार के रूप में स्थापित करने में उन्हें खासी कठिनाई का सामना करना पड़ा, जबकि इस दौरान पत्रकार के रूप में उनका काफी नाम हुआ। 1954 में वे राजधानी बोगोता के एल एस्पेक्तादोर नामक अखबार में काम करने लगे और शीघ्र ही उनकी गिनती कोलोम्बिया के नामी पत्रकारों में होने लगी।
कोलोम्बिया में अपने अन्य साथियों की तरह गार्सीया मार्केज़ पर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार उदारवादी खोर्खे एलिएसेर गाइतान की 1948 में हत्या के परिणामस्वरूप फैली राजनैतिक हिंसा ने गहरा असर छोड़ा। 1949 से 1962 के बीच के अर्से में 2 से 3 लाख लोगों की जानें गईं और 1953-57 के बीच कोलोम्बिया तानाशाही के सख़्त शिकंजे में रहा। गार्सीया मार्केज़ का राजनैतिक झुकाव निर्धारित करने में ये अनुभव महत्त्वपूर्ण रहे। बचपन में ही वे अपने नाना के क्रान्तिकारी उदारवाद के प्रभाव में आए थे और अपने जन्म के वर्ष, यानी 1928 में, सिएनागा में यूनाइटेड फ्रूट कम्पनी के हड़ताली मजदूरों के कत्लेआम के विवरणों ने उनेक मन पर गहरी छाप छोड़ी थी। सिपाकिरा के स्कूली वर्षों में भी वामपंथी अध्यापकों ने मार्क्सवादी चिन्तन से उनका परिचय करवाया था। गार्सीया मार्केज़ तब से निरन्तर वामपक्ष से जुड़े रहे हैं और दृढ़तापूर्वक कहते आए हैं कि मानवता का भविष्य समाजवाद के साथ जुड़ा है।
1955 में एल एस्पेक्तादोर ने गार्सीया मार्केज़ को विदेशी संवाददाता की हैसियत से यूरोप भेजा किन्तु पेरिस पहुँचने के कुछ ही समय बाद उन्हें पता चला कि सरकार ने अखबार बन्द करवा दिया है। कई महीनों तक कठिनाई और मुसीबतों का सामना करने के बाद, 1957 में वे वेनेजुएला की राजधानी काराकास पहुँचे और वहाँ लगभग दो साल तक पत्रकारिता की। 1959 में क्यूबन क्रान्ति के बाद उन्होंने क्यूबन समाचार एजेन्सी ‘प्रेन्सा लातीना’ में काम शुरू किया, पहले बोगोता और फिर क्यूबा व न्यूयॉर्क में। 1958 में विवाह हुआ और 1961 में वे मेक्सिको सिटी पहुँचे जहाँ पत्रकारिता के साथ-साथ फिल्मी पटकथाएँ लिखीं। इस दौरान लिखना जारी रहा था और अपने लघु उपन्यास एल कोरोनल नो तिएन किएन ले एस्क्रीबा (1961, No One Writes To The Colonel) और एक अन्य उपन्यास, ला माला ओरा (1962, In Evil Hour) तथा कहानियों के एक संकलन, लोस फूनेरोलेस दे मामा ग्रान्दे (1961, Big Nama’s funeral) के साथ उन्हें थोड़ी बहुत सफलता भी मिली। लेकिन 1967 में अपनी महान कृति सिएन आन्योस दे सोलेदाद- ‘एकान्त के सौ वर्ष’- के साथ रातोंरात उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।
एकान्त के सौ वर्ष की सफलता के बाद, गार्सीया मार्केज़ की बढ़ती प्रतिष्ठा अन्य कई उपन्यासों से और दृढ़ हुई: ला इन्क्रेईब्ले इ त्रीस्ते इस्तोरिया दे ला कांदिदा एरेन्दिरा इ दे सू आबुएला देसाल्मादा (1972, Innocent Erendira), ऐल ओतोन्यो देल पात्रियार्का (1975,The Autumn of the Patiarch), क्रोनिका दे ऊना मुएर्ते आनुन्सियादा (1981, Chronicle of a Death Foretold), आमोर एन लोस तिएम्पोस दे कोलेरा (1985, Love in the Times of Cholera), एल खेनेराल एन सू लाबेरिन्तो (1989, The General in His Labyrinth), दे आमोर इ ओत्रोस देमोनियोस (1994, Of Love And Other Demons) इत्यादि। हाल ही में उनके संस्मरणों का पहला खंड प्रकाशित हुआ है: विवीर पारा कोन्तारला (2003)। गार्सीया मार्केज़ का आरम्भिक लेखन अपने आप में महत्त्वपूर्ण होते हुए भी उनकी सर्वोत्कृष्ट एवं परिपक्व कृति एकान्त के सौ वर्ष के सृजन के लिए मानो अभ्यास मात्र था। इन कहानियों व उपन्यासों में से लगभग सभी, माकोन्दो नाम के एक दूरदराज, दलदली कस्बे का अन्वेषण करते हैं। लेखक की कल्पना में ईंट उन आरम्भिक कृतियों में बनते आए इसी माकोन्दो के सौ वर्षों का एकाकी इतिहास एकान्त के सौ वर्ष में अन्तत: बखूबी दर्ज़ किया गया है। 1982 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किए जाने पर उन्हें विश्व के महानतम् उपन्यासकारों में गिने जाने का गौरव प्राप्त हुआ।
आधुनिक लैटिन अमरीकी उपन्यासों में किसी अन्य उपन्यास ने जनता की इतनी स्वीकृति नहीं पाई है जितना एकान्त के सौ वर्ष ने। लौटिन अमरीकी और स्पेन में इसकी प्रतियाँ बिकीं और उनसे कहीं अधिक अनेकों भाषाओं में हुए इसके अनुवादों की।
एकान्त के सौ वर्ष ऐसा उपन्यास है जो विभिन्न आयामों के बीच एक द्वन्द्वात्मक खिंचाव बनाए रखता है। सर्वप्रथम तो, यह एक हास्य उपन्यास है, सम्पूर्ण मनोरंजन, जो साहित्य के प्रति यह अवमाननाकारी रुख अपनाता है कि वह एक उम्दा खिलौना है इसलिए उसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। लेकिन साथ ही, यह एक बेहद संजीदा और उच्चाकांक्षी पुस्तक भी है जो एक ओर लैटिन अमेरिका के इतिहास के पुनर्लेखन का बीड़ा उठाती है तो दूसरी ओर अन्त में पाठक को आगाह कर देती है कि उपन्यास महज एक कल्पित संरचना है, एक सृजन, एक आईना नहीं जो वास्तविकता को बारीकी से झलकाता हो।
वास्तविकता को समझने और उसका वर्णन कर पाने की मनुष्य की क्षमता पर परम्परागत यथार्थवादी लेखन के भरोसे को स्वीकारने में असमर्थ, गार्सीया मार्केज़ ने एक ऐसी शैली अपनाई जो यथार्थवादी उपन्यासों की दस्तावेजी विधि से हटकर थी और जिसे ‘मैज़िकल रियलिज्म’ यानी ‘जादुई यथार्थवाद’ का नाम दिया गया। जादुई यथार्थवाद एक तरह से लैटिन अमेरिका शैली को वर्णित करने का सार्वभौमिक पद बन गया है: विजातीय व उष्णप्रदेशीय, अतिविकसित व अनिरोधित, मायिक व भ्रमात्मक; हाल ही में इस पद का प्रयोग सलमान रुश्दी, बेन ओकरी, टोनी मोरीसन या इसाबेल आल्येन्दे जैसे तीसरी दुनिया के लेखकों के लिए हुआ है।
यूँ तो जादुई यथार्थवाद इस धारणा पर आधारित है कि लैटिन अमेरिकी वास्तविक्ता है ही अजीबोगरीब, असामान्य व चमत्कारी यानी, अपनी विलक्षण ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, अविश्वसनीय मानव विविधता, विषमांग भूगोल और इस सबसे कहीं अधिक, मिथक एवं पौराणिकता पर आधारित लोगों की सोच, इन सबके कारण लैटिन अमेरिका की वास्तविकता अतिकाल्पनिक व जादुई है। और इन सभी को पेश करने की सफल शैली है जादुई यथार्थवाद, नई दुनिया की वास्तविकता की अभिव्यक्ति जो यूरोपीय सभ्यता के तार्किक आयामों को आदिम लैटिन अमेरिका के अपरिमेय आयामों से जोड़ती है। लेकिन यहाँ गार्सीया मार्केज़ व जादुई यथार्थवाद से जुड़ी बहस व्यापक होनी शुरू हो जाती है: क्या यह अतिकल्पना लैटिन अमेरिका की उर्वरता, उसके प्राचुर्य की अभिव्यक्ति है या फिर इस सबके परे यह यथार्थवाद उपन्यास की पश्चिमी परम्परा में यथार्थ के अभिप्राय को ही संदेहास्पद समझकर उस पर सवालिया निशान लगा रही है। यह समझ लेना जरूरी है कि एकान्त के सौ वर्ष का तथाकथित जादुई यथार्थवाद यह नहीं जतलाता कि लैटिन अमेरिका वास्तविकता का नैसर्गिक चरित्र ही अद्भुत व जादुई है यद्यपि उपन्यास वहाँ के प्राकृतिक माहौल के अपूर्व आयामों और राजनैतिक जन-जीवन की अतिशयोक्तियों का खुलासा अवश्य करता है।
उपन्यास में ‘अतिकल्पना’ के प्रयोग के विषय में भी कहना होगा कि एकान्त के सौ वर्ष में यह पूरी तरह से लागू नहीं होता क्योंकि प्रत्येक वर्णित घटना का, चाहे वह कितना भी अद्भुत क्यों न हो, एक नितान्त तर्कसंगत स्पष्टीकरण है। उपन्यास में घटनाएँ जब प्रस्तुत की जाती हैं तो जैसी वे वास्तव में घटीं वैसे नहीं बल्कि जैसे वहाँ के लोगों ने उन्हें महसूस किया और समझा। उदाहरण के लिए, रेमेदियोसका स्वर्गारोहण: एक दोपहर बगीचे में कपड़े सुखाते समय रेमेदियोस चादर थामे हवा के झोंके के साथ ऊपर उड़ जाती है और आकाश में लोप हो जाती है। कथानक रेमेदियोस के गायब हो जाने के असली कारण की ओर यह बताते हुए संकेत करता है कि कुछ लोगों का मानना था कि वह किसी मर्द के साथ भाग गई थी और उसके परिवार द्वारा पेश की गई कहानी बदनामी से बचने के लिए गढ़ी गई थी। किन्तु उपन्यास में परिवार द्वारा पेश उसके स्वर्गारोहण के वृत्तान्त का सत्य लगनेवाले विस्तार के साथ वर्णन है- क्योंकि यहीं ब्यौरा व्यापक रूप से लोगों को स्वीकार था। इसी प्रकार, अतिशयोक्तियों का नियमित प्रयोग- उदाहरण के लिए खोसे आर्कादियो की विलक्षण वीर्यवत्ता, कर्नल औरेलियानो बुएनदीया के बत्तीस सशस्त्र विद्रोह, बहत्तर चिलमचियाँ खाली करने के लिए कतार में खड़ी बहत्तर स्कूली बालिकाएँ- सब उस विधि के अनुरूप हैं जिसके चलते सामूहिक लोक-स्मृति आम घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा देती है। वास्तव में, एकान्त के सौ वर्ष माकोन्दो के इतिहास को उसी रूप में पेश करता है जैसा कि वह मौखिक लोक परम्परा में दर्ज हुआ और पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद किया गया।
लेकिन एकान्त के सौ वर्ष एक लिखित कृति है, और जो कहानी, लगता है जैसे कोई मुँहजुबानी सुना रहा हो, अन्तिम पन्नों में मेल्कीयादेस की संस्कृति पाण्डुलिपि में पाई जाती है। उपन्यास में तनाव की एक और परत है लिखित और मौखिक लोक परम्परा का समन्वय कर, गार्सीया मार्केज़ उसे लिखित शब्द से जुड़ी प्रतिष्ठा व गौरव प्रदान करते हैं। साथ ही वे विभिन्न नजरियों की सापेक्षता को भी रेखांकित करते हैं, क्योंकि जो घटनाएँ एक परिष्कृत पाठक को अतिकाल्पनिक लगती हैं, वे माकोन्दो के सांस्कृतिक माहौल में दैनिक यथार्थ के रूप में मान्य होती हैं और इसके विपरीत, आधुनिक टेक्नालॉजी जिसे परिष्कृत पाठक बिना प्रमाण के मान लेता है- बर्फ, चुम्बक, नकली दाँत, ट्रेन, सिनेमा-माकोन्दोवासियों को कृत्रिम व अद्भुत महसूस होती हैं। इस प्रकार एकान्त के सौ वर्ष यथार्थ क्या है न केवल इसकी रूढ़िगत अवधारणाओं को चुनौती देता है बल्कि उपन्यास की परम्परागत यूरा-केन्द्रित शैली, वस्तुत: समूची पश्चिम तर्कणावादी सांस्कृतिक परम्परा को उलट देता है। हालाँकि, साथ ही साथ, कथावाचक ऐसी व्यंग्यात्मक व तीखी धार के साथ लिखता है जो उसे उस मौखिक इतिहास से भी परे कर देती है जिसे वह प्रकट कर रहा है। जैसे कि रेमेदियोस के स्वर्गारोहण के वृत्तान्त को ही लें जो पूरी गंभीरता से बताया जाता है किन्तु वास्तविक व अधिक नीरस तथ्यों के परोक्ष संकेत उसे खोखला भी कर देते हैं। देखा जाए, तो यदि एकान्त के सौ वर्ष यूरो-केन्द्रित रवैयों को उलटने निकलता है तो साथ ही लैटिन अमेरिकियों के खुद के इतिहास के बोध पर भी चोट करता है।
अपने बचपन की दुनिया का साहित्यिक चित्रण प्रस्तुत करने में गार्सीया मार्केज़ ने माकोन्दो के कल्पित समुदाय में समूचे संसार का एक लघु प्रतिरूप रचा है। माकोन्दो की कहानी लैटिन अमेरिका के इतिहास का आम स्वरूप झलकाती है। माकोन्दो यूटोपिया के स्वप्न में जन्मा, उस स्थान पर बसाया गया जहाँ खोसे आर्कादियो ने एक आईने जड़े प्रकाशमय शहर की संकल्पना की थी। लेकिन आखिरी पृष्ठ तक पहुँचने पर, आईनों का शहर मरीचिकाओं की नगरी बन जाता है। यदि माकोन्दो उस नए संसार का स्वप्न था जिसे औपनिवेशिक इतिहास ने रौंद डाला तो एकान्त के सौ वर्ष लैटिन अमेरिका महाद्वीप के भ्रमित इतिहास का साहसी पुनर्लेखन है।
खोसे आर्कादियो बुएनदीया एवं उर्सुला इगुआरान
1.कर्नल औरेलियानो बुएनदीया एवं रेमेदियोस मॉस्कोते
• औरेलियानो खोसे (पीलार तेर्नेरा से)
• 17 ऑरेलियानो
2.खोसे आर्कादियो एवं रेबेका
• आर्कादियो (पीलार तेर्नेरा से) एवं सान्ता सोफीया दे ला पिएदाद
रूपवती रेमेदियोस
• ऑरैलियानो सेगुन्दो एवं फेर्नान्दा देल कार्पियो
रेनाता रेमेदियोस (मेमे)
औरेलियानो (मॉरीसियो बाबिलोनिया से)
खोसे आर्कादियो
अमारान्ता उर्सुला एवं गास्तोन
औरेलियानो (औरेलियानो से)
• खोसे आर्कादियो सेगुन्दो
3.अमारान्ता
कई साल बाद, तोपों का सामना करते हुए कर्नल औरेलियानो बुएनदीया को वह सुदूर शाम याद आनी थी जब उनके पिता उन्हें बर्फ से परिचित कराने ले गए थे। माकोन्दो तब एक गाँव हुआ करता था, मिट्टी और सरकंड़ों से बने बीस-एक घरों का-एक नदी किनारे, जिसके साफ सुथरे पानी तले बड़े-बड़े चिकने सफेद पत्थर ऐसे दीख पड़ते थे जैसे प्रागैतिहासिक अंडे। सृष्टि इतनी नवीन थी कि कई चीजों का नाम तक नहीं पड़ा था, और उनका जिक्र करने के लिए उँगली से संकेत करना पड़ता था। प्रति वर्ष, मार्च के महीने में, फटेहाल बंजारों का एक परिवार गाँव के समीप अपना खेमा लगा लेता था, और शहनाई व नक्कारों के विपुल घोष के साथ नए आविष्कारों का प्रदर्शन करता था। सबसे पहले वे चुम्बक लाए। मेल्कीयादेस के नाम से अपना परिचय देनेवाला अधकचरी दाढ़ी और गौरैया के-से हाथोंवाले एक भारी-भरकम बंजारे ने लोगों के सामने एक ऐसा चमत्कारी प्रदर्शन किया जिसे स्वयं उसने मैसेडोनिया के ज्ञानी कीमियागरों का आठवाँ अजूबा करार दिया। वह दो धातु-निर्मित शिलिकाओं को घसीटकर घर-घर ले गया, और सभी यह देखकर अपनी जगह से लुढ़कने लगीं, लकड़ी की कड़ियाँ कीलों और पेचों के उखड़ पड़ने की कसक के साथ चरमराने लगीं, यहाँ तक कि बहुत अरसे से खोई हुई चीजें ठीक वहीं से अवतरित होने लगीं जहाँ उन्हें सबसे अधिक ढूँढ़ा गया था, और मेल्कीयादेस के करिश्माई लोहों के पीछे एक छितरे हुए जुलूस की शक्ल में घिसटती चली गईं। ‘‘चीजों में अपनी खुद की जान होती है,’’ बंजारे ने कर्कश स्वर में ऐलान किया, ‘‘बस उनकी आत्मा जगाने- भर की बात है।’’ खोसे आर्कादियो बुएनदीया, जिनकी अपार कल्पनाशक्ति सदा प्रकृति की मेधा से परे, यहाँ तक कि तिलिस्म और चमत्कार के भी आगे जाती थी, ने सोचा कि इस व्यर्थ के आविष्कार का इस्तेमाल धरती के भीतर से सोना खींच निकालने के लिए किया जा सकता है। मेल्कीयादेस ने, जो एक ईमानदार आदमी था, उन्हें हिदायत दी:
‘‘यह इस मतलब का नहीं है।’’ किन्तु खोसे आर्कादियों बुएनदीया को उस समय बंजारों की ईमानदारी पर कतई विश्वास नहीं था, चुनाँचे उन्होंने अपने खच्चर और दो बकरियों के बदले में वे दो चुम्बकीय छड़े ले लीं। उर्सुला इगुआरान, उनकी पत्नी, जो अभावग्रस्त परिवार की आमदानी में इजाफा करने के लिए उन जानवरों पर निर्भर थीं, उन्हें रोकने में नाकाम रहीं। ‘‘बहुत जल्द हमारे पास घर लीपने तक के लिए सोना होगा,’’ उनके पति का जवाब था। कई महीनों तक वे अपने दावे की सत्यता दर्शाने के लिए घनघोर परिश्रम करते रहे। लोहे की दोनों छड़ों को घसीटते हुए और मेल्कीयादेस के मन्त्र का ऊँचे स्वर में जाप करते हुए उन्होंने इलाके का चप्पा-चप्पा, यहाँ तक कि नदी कि तली तक जाँच डाली। उनकी एकमात्र उपलब्धि रही पन्द्रहवीं शताब्दी का एक लौह कवच जिसके अलग-अलग हिस्सों को जंग की परत ने आपस में टाँक रखा था और जिसके अन्दर पत्थरों से भरे विशाल तूँबे की-सी खोखली गूँज थी। जब खोसे आर्कादियो बुएनदीया एवं उनके अभियान दल के चार व्यक्ति कवच को खोलने में कामयाब हुए तो भीतर उन्हें एक भुरभुरा कंकाल मिला। उसके गले में काँसे का एक लॉकेट लटका था जिसमें औरत के बालों का एक छल्ला था।
मार्च में बंजारे वापस आए। इस बार वे एक दूरबीन और ढोल की नाप का एक लेंस लाए थे जिसे उन्होंने एम्स्टरडैम के यहूदियों के नवीनतम आविष्कार के रूप में प्रदर्शित किया। उन्होंने एक बंजारन को गाँव के एक छोर पर बिठाया और तम्बू के द्वार पर दूरबीन प्रतिष्ठापित की। पाँच रेयाल की अदायगी पर लोग दूरबीन से झाँककर बंजारन को एक हाथ की दूरी पर देख सकते थे। ‘‘विज्ञान ने दूरियाँ मिटा दी हैं,’’ मेल्कीयादेस ने ऐलान किया, ‘‘थोड़े ही समय में मनुष्य दुनिया के किसी भी कोने में घटनेवाले दृश्य घर बैठे ही देख सकेगा।’’ एक चिलचिलाती दोपहर उस विशाल लेंस से एक अजीबोगरीब करतब दिखाया गया: गली के बीचोबीच सूखी घास का एक ढेर रखा गया और सूर्य-किरणों को उस पर केन्द्रित कर उसमें आग लगाई गई। खोसे आर्कादियो बुएनदीया ने, जिन्हें अपने चुम्बकों की विफलता से अभी तसल्ली नहीं हुई थी, उस अविष्कार को युद्ध के शस्त्र के रूप में प्रयोग करने की सोची। मेल्कीयादेस ने पुन: उन्हें रोकने का प्रयास किया। परन्तु अन्नत: लेंस के बदले में उसने वे दो चुम्बकीय छड़ें एवं तीन उपनिवेशी सिक्के स्वीकार कर लिये।
उर्सुला विस्मय के आँसू रोई। वो पैसा सोने के सिक्कों की एक सन्दूकची में से था जो उसके पिता ने आजीवन अभावों में रहकर जमा किया था और जो उसने सही वक्त पर इस्तेमाल करने की आस में पलंग के नीचे दबा छोड़ा था। खोसे आर्कादियो बुएनदीया ने उसे सान्त्वना देने तक कि कोशिश नहीं की। वे एक वैज्ञानिक के समर्पण के साथ अपने रणनीतिक प्रयोगों में पूर्णत: रत रहे, अपनी जान तक जोखिम में डालकर। दुश्मन की फौज पर लेंस का प्रभाव दिखाने के लिए, सूर्य-किरणों के केन्द्रीकरण का लक्ष्य वे स्वयं बने और ऐसे जले कि घावों के छाले बन गए जिन्हें ठीक होने में काफी समय लगा। इतने अनिष्टकारी अन्वेषण से आतंकित अपनी पत्नी के प्रतिवादों के जवाब में वे घर में आग लगाने पर उतारू हो गए। इस नवीन उपकरण की सामरिक सम्भावनाओं के गणित में मग्न वे अपने कमरे में घंटों बिता देते, यहाँ तक कि उन्होंने असाधारण शिक्षात्मक स्पष्टता एवं दृढ़ विश्वास की विधेयक शक्ति से ओत-प्रोत एक पुस्तिका लिख डाली।
उसके साथ अपने प्रयोगों के अनेक वृत्तान्त एवं व्याख्यात्मक रेखाचित्रों के कई पृष्ठ जोड़े उन्होंने उसे सरकार के पास भेजा, एक हरकारे के हाथ में जो पहाड़ों के पार गया, अनन्त दलदलों में भटका, उफनती नदियाँ पाँझी और जंगली जानवरों, महामारी व हताशा के प्रहारों तले खत्म ही हो जाता कि उसे वह रास्ता मिल गया जो डाक लेकर जानेवाले खच्चरों के रास्ते से जाकर मिलता था। इसके बावजूद कि राजधानी तक की यात्रा उन दिनों लगभग असम्भव ही थी, खोसे आर्कादियो बुएनदीया ने वचन लिया कि सरकार का बुलावा पाते ही वे रवाना हो जाएँगे ताकि सैन्य अधिकारियों के समक्ष अपने अविष्कार का वास्तविक प्रदर्शन कर सकें और सौर युद्ध की जटिल विधाओं में उन्हें प्रशिक्षित कर सकें। कई वर्षों तक वे उत्तर की बाट देखते रहे। अन्तत:, प्रतीक्षा से थककर उन्होंने मेल्कीयादेस से अपने उद्योग की विफलता का विलाप किया, और बंजारे ने तब अपनी ईमानदारी का विश्वसनीय प्रमाण दिया: उसने लैंस लेकर उनके सिक्के वापस लौटा दिए, और साथ ही कुछ पुर्तगाली नक्शे व नौवहन के अनेक उपकरण भी उन्हें दिए। सन्त हरमान के अध्ययन का संक्षिप्त संश्लेषण अपने हाथ से लिखकर उनके लिए छोड़ दिया ताकि वे उन्नतांशमापी, दिक्सूचक व पष्टक का सही प्रयोग कर सकें।
लालन-पालन की असामान्य परिस्थितियों के चलते गार्सीय मार्केज़ को जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में ही एकान्त का गहरा अनुभव हुआ। इलाके के एक जाने-माने खानदान की बेटी, उनकी माँ लुइसा ने गाब्रिएल एलीखियो गार्सीया नामक एक साधारण टेलिग्राफिस्ट से अपने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध विवाह किया था लेकिन उन्हें शान्त करने के लिए वे अपनी पहली जचगी के लिए मायके आ गई थीं और बेटे को उन्हीं के पास लालन-पालन के लिए छोड़ आईं। तीन मौसियों के साथ, ननिहाल के उस विशाल मकान में वे प्रौढ़ संबंधियों के बीच एकाकी बालक की तरह बड़े हुए। बाद में अनुभव एकाकीपन की उस गहरी भावना को और पैना करते गए जो उनके लेखन में निरन्तर देखने को मिलती है। बहरहाल, उनका बचपन खुशहाल बीता और नाना के साथ विशेष गहरा संबंध बना, और वे कथा-कहानियों के ऐसे माहौल में पले जिसमें बड़े-बूढ़े शहर और खानदान के इतिहास से जुड़े अनेकानेक वाकये सुनाया करते। उनके नाना, कर्नल निकोलास मार्केज़, उदारवादी पक्ष की ओर से सत्ताधारी रूढ़िवादियों के विरुद्ध 1899 से 1902 के ‘‘सहस्रदिवसीय युद्ध’’ में लड़े थे जो कोलोम्बिया को चीरनेवाले गृहयुद्धों की श्रृंखला में आखिरी था और वे अक्सर उस सनसनीखेज जमाने के वृतान्त उन्हें सुनाते थे। दूसरी ओर उनकी नानी और मौसियाँ भोली और अन्धविश्वासी महिलाएँ थीं जो दैवी चमत्कार में विश्वास रखती थीं और अनेकों तिलस्मी वारदातों का वर्णन यों करती थीं मानो वे रोजमर्रा की आम घटनाएँ हों, और गार्सीया मार्केज़ ने अक्सर कहा है कि उन्होंने अपनी लेखन शैली अपनी नानी से ही सीखी।
किन्तु 1936 में उनके नाना के देहान्त के साथ बचपन की उस दुनिया का भी अन्त हो गया और गार्सीया मार्केज़ ने कई बार कहा है कि उनके जीवन का अन्य कोई अन्तराल पहले आठ वर्षों के अनुभवों की तुलना में बेहतर नहीं हुआ।
गार्सीया मार्केज़ ने अगले दस वर्ष राजधानी बोगोता के करीब सिपाकिरा शहर में एक छात्रावास में रहते हुए गुजारे और 1947 में बोगोता के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में कानून के अध्ययन के लिए दाखिला लिया। कैरिबी क्षेत्र से आनेवाले गार्सीया मार्केज़ को एन्डीज के पहाड़ी इलाके का औपचारिकता-भरा परम्परावादी माहौल कतई रास न आया। उन्होंने किताबों में शरण ली, जिनमें से वे काफ़्का की मेटामोरफोसिस का विशेष प्रभाव स्वीकार करते हैं। 1948 में उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और उत्तर के तटीय क्षेत्र वापस चले गए जहाँ पहले कर्ताखेना और फिर 1950 से बारांकील्या में पत्रकार रहे। बारांकील्या के वे वर्ष उनके साहित्यिक विकास में निर्णायक रहे, क्योंकि वहाँ वे कला व साहित्य के जानकारों के संपर्क में आए जिन्होंने आधुनिक लेखन, विशेषकर जेम्स जॉयस, वर्जीनिया वुल्फ तथा विलियम फॉकनर इत्यादि ऐंग्लोसैक्सन लेखकों की कृतियों से उनका परिचय करवाया। एकान्त के सौ वर्ष के आखिरी भाग में उनका चित्रण कर गार्सीया मार्केज़ ने इसी बारांकील्या मित्र मंडली को श्रद्धांजलि अर्पित की है।
बारांकील्या में ही उन्होंने अपनी आरंभिक कहानियाँ लिखीं और अपना पहला उपन्यास, ला ओखारास्का (Leaf storm) भी। यह उपन्यास अन्तत: 1955 में छपा, किन्तु उपन्यासकार के रूप में स्थापित करने में उन्हें खासी कठिनाई का सामना करना पड़ा, जबकि इस दौरान पत्रकार के रूप में उनका काफी नाम हुआ। 1954 में वे राजधानी बोगोता के एल एस्पेक्तादोर नामक अखबार में काम करने लगे और शीघ्र ही उनकी गिनती कोलोम्बिया के नामी पत्रकारों में होने लगी।
कोलोम्बिया में अपने अन्य साथियों की तरह गार्सीया मार्केज़ पर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार उदारवादी खोर्खे एलिएसेर गाइतान की 1948 में हत्या के परिणामस्वरूप फैली राजनैतिक हिंसा ने गहरा असर छोड़ा। 1949 से 1962 के बीच के अर्से में 2 से 3 लाख लोगों की जानें गईं और 1953-57 के बीच कोलोम्बिया तानाशाही के सख़्त शिकंजे में रहा। गार्सीया मार्केज़ का राजनैतिक झुकाव निर्धारित करने में ये अनुभव महत्त्वपूर्ण रहे। बचपन में ही वे अपने नाना के क्रान्तिकारी उदारवाद के प्रभाव में आए थे और अपने जन्म के वर्ष, यानी 1928 में, सिएनागा में यूनाइटेड फ्रूट कम्पनी के हड़ताली मजदूरों के कत्लेआम के विवरणों ने उनेक मन पर गहरी छाप छोड़ी थी। सिपाकिरा के स्कूली वर्षों में भी वामपंथी अध्यापकों ने मार्क्सवादी चिन्तन से उनका परिचय करवाया था। गार्सीया मार्केज़ तब से निरन्तर वामपक्ष से जुड़े रहे हैं और दृढ़तापूर्वक कहते आए हैं कि मानवता का भविष्य समाजवाद के साथ जुड़ा है।
1955 में एल एस्पेक्तादोर ने गार्सीया मार्केज़ को विदेशी संवाददाता की हैसियत से यूरोप भेजा किन्तु पेरिस पहुँचने के कुछ ही समय बाद उन्हें पता चला कि सरकार ने अखबार बन्द करवा दिया है। कई महीनों तक कठिनाई और मुसीबतों का सामना करने के बाद, 1957 में वे वेनेजुएला की राजधानी काराकास पहुँचे और वहाँ लगभग दो साल तक पत्रकारिता की। 1959 में क्यूबन क्रान्ति के बाद उन्होंने क्यूबन समाचार एजेन्सी ‘प्रेन्सा लातीना’ में काम शुरू किया, पहले बोगोता और फिर क्यूबा व न्यूयॉर्क में। 1958 में विवाह हुआ और 1961 में वे मेक्सिको सिटी पहुँचे जहाँ पत्रकारिता के साथ-साथ फिल्मी पटकथाएँ लिखीं। इस दौरान लिखना जारी रहा था और अपने लघु उपन्यास एल कोरोनल नो तिएन किएन ले एस्क्रीबा (1961, No One Writes To The Colonel) और एक अन्य उपन्यास, ला माला ओरा (1962, In Evil Hour) तथा कहानियों के एक संकलन, लोस फूनेरोलेस दे मामा ग्रान्दे (1961, Big Nama’s funeral) के साथ उन्हें थोड़ी बहुत सफलता भी मिली। लेकिन 1967 में अपनी महान कृति सिएन आन्योस दे सोलेदाद- ‘एकान्त के सौ वर्ष’- के साथ रातोंरात उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।
एकान्त के सौ वर्ष की सफलता के बाद, गार्सीया मार्केज़ की बढ़ती प्रतिष्ठा अन्य कई उपन्यासों से और दृढ़ हुई: ला इन्क्रेईब्ले इ त्रीस्ते इस्तोरिया दे ला कांदिदा एरेन्दिरा इ दे सू आबुएला देसाल्मादा (1972, Innocent Erendira), ऐल ओतोन्यो देल पात्रियार्का (1975,The Autumn of the Patiarch), क्रोनिका दे ऊना मुएर्ते आनुन्सियादा (1981, Chronicle of a Death Foretold), आमोर एन लोस तिएम्पोस दे कोलेरा (1985, Love in the Times of Cholera), एल खेनेराल एन सू लाबेरिन्तो (1989, The General in His Labyrinth), दे आमोर इ ओत्रोस देमोनियोस (1994, Of Love And Other Demons) इत्यादि। हाल ही में उनके संस्मरणों का पहला खंड प्रकाशित हुआ है: विवीर पारा कोन्तारला (2003)। गार्सीया मार्केज़ का आरम्भिक लेखन अपने आप में महत्त्वपूर्ण होते हुए भी उनकी सर्वोत्कृष्ट एवं परिपक्व कृति एकान्त के सौ वर्ष के सृजन के लिए मानो अभ्यास मात्र था। इन कहानियों व उपन्यासों में से लगभग सभी, माकोन्दो नाम के एक दूरदराज, दलदली कस्बे का अन्वेषण करते हैं। लेखक की कल्पना में ईंट उन आरम्भिक कृतियों में बनते आए इसी माकोन्दो के सौ वर्षों का एकाकी इतिहास एकान्त के सौ वर्ष में अन्तत: बखूबी दर्ज़ किया गया है। 1982 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किए जाने पर उन्हें विश्व के महानतम् उपन्यासकारों में गिने जाने का गौरव प्राप्त हुआ।
आधुनिक लैटिन अमरीकी उपन्यासों में किसी अन्य उपन्यास ने जनता की इतनी स्वीकृति नहीं पाई है जितना एकान्त के सौ वर्ष ने। लौटिन अमरीकी और स्पेन में इसकी प्रतियाँ बिकीं और उनसे कहीं अधिक अनेकों भाषाओं में हुए इसके अनुवादों की।
एकान्त के सौ वर्ष ऐसा उपन्यास है जो विभिन्न आयामों के बीच एक द्वन्द्वात्मक खिंचाव बनाए रखता है। सर्वप्रथम तो, यह एक हास्य उपन्यास है, सम्पूर्ण मनोरंजन, जो साहित्य के प्रति यह अवमाननाकारी रुख अपनाता है कि वह एक उम्दा खिलौना है इसलिए उसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। लेकिन साथ ही, यह एक बेहद संजीदा और उच्चाकांक्षी पुस्तक भी है जो एक ओर लैटिन अमेरिका के इतिहास के पुनर्लेखन का बीड़ा उठाती है तो दूसरी ओर अन्त में पाठक को आगाह कर देती है कि उपन्यास महज एक कल्पित संरचना है, एक सृजन, एक आईना नहीं जो वास्तविकता को बारीकी से झलकाता हो।
वास्तविकता को समझने और उसका वर्णन कर पाने की मनुष्य की क्षमता पर परम्परागत यथार्थवादी लेखन के भरोसे को स्वीकारने में असमर्थ, गार्सीया मार्केज़ ने एक ऐसी शैली अपनाई जो यथार्थवादी उपन्यासों की दस्तावेजी विधि से हटकर थी और जिसे ‘मैज़िकल रियलिज्म’ यानी ‘जादुई यथार्थवाद’ का नाम दिया गया। जादुई यथार्थवाद एक तरह से लैटिन अमेरिका शैली को वर्णित करने का सार्वभौमिक पद बन गया है: विजातीय व उष्णप्रदेशीय, अतिविकसित व अनिरोधित, मायिक व भ्रमात्मक; हाल ही में इस पद का प्रयोग सलमान रुश्दी, बेन ओकरी, टोनी मोरीसन या इसाबेल आल्येन्दे जैसे तीसरी दुनिया के लेखकों के लिए हुआ है।
यूँ तो जादुई यथार्थवाद इस धारणा पर आधारित है कि लैटिन अमेरिकी वास्तविक्ता है ही अजीबोगरीब, असामान्य व चमत्कारी यानी, अपनी विलक्षण ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, अविश्वसनीय मानव विविधता, विषमांग भूगोल और इस सबसे कहीं अधिक, मिथक एवं पौराणिकता पर आधारित लोगों की सोच, इन सबके कारण लैटिन अमेरिका की वास्तविकता अतिकाल्पनिक व जादुई है। और इन सभी को पेश करने की सफल शैली है जादुई यथार्थवाद, नई दुनिया की वास्तविकता की अभिव्यक्ति जो यूरोपीय सभ्यता के तार्किक आयामों को आदिम लैटिन अमेरिका के अपरिमेय आयामों से जोड़ती है। लेकिन यहाँ गार्सीया मार्केज़ व जादुई यथार्थवाद से जुड़ी बहस व्यापक होनी शुरू हो जाती है: क्या यह अतिकल्पना लैटिन अमेरिका की उर्वरता, उसके प्राचुर्य की अभिव्यक्ति है या फिर इस सबके परे यह यथार्थवाद उपन्यास की पश्चिमी परम्परा में यथार्थ के अभिप्राय को ही संदेहास्पद समझकर उस पर सवालिया निशान लगा रही है। यह समझ लेना जरूरी है कि एकान्त के सौ वर्ष का तथाकथित जादुई यथार्थवाद यह नहीं जतलाता कि लैटिन अमेरिका वास्तविकता का नैसर्गिक चरित्र ही अद्भुत व जादुई है यद्यपि उपन्यास वहाँ के प्राकृतिक माहौल के अपूर्व आयामों और राजनैतिक जन-जीवन की अतिशयोक्तियों का खुलासा अवश्य करता है।
उपन्यास में ‘अतिकल्पना’ के प्रयोग के विषय में भी कहना होगा कि एकान्त के सौ वर्ष में यह पूरी तरह से लागू नहीं होता क्योंकि प्रत्येक वर्णित घटना का, चाहे वह कितना भी अद्भुत क्यों न हो, एक नितान्त तर्कसंगत स्पष्टीकरण है। उपन्यास में घटनाएँ जब प्रस्तुत की जाती हैं तो जैसी वे वास्तव में घटीं वैसे नहीं बल्कि जैसे वहाँ के लोगों ने उन्हें महसूस किया और समझा। उदाहरण के लिए, रेमेदियोसका स्वर्गारोहण: एक दोपहर बगीचे में कपड़े सुखाते समय रेमेदियोस चादर थामे हवा के झोंके के साथ ऊपर उड़ जाती है और आकाश में लोप हो जाती है। कथानक रेमेदियोस के गायब हो जाने के असली कारण की ओर यह बताते हुए संकेत करता है कि कुछ लोगों का मानना था कि वह किसी मर्द के साथ भाग गई थी और उसके परिवार द्वारा पेश की गई कहानी बदनामी से बचने के लिए गढ़ी गई थी। किन्तु उपन्यास में परिवार द्वारा पेश उसके स्वर्गारोहण के वृत्तान्त का सत्य लगनेवाले विस्तार के साथ वर्णन है- क्योंकि यहीं ब्यौरा व्यापक रूप से लोगों को स्वीकार था। इसी प्रकार, अतिशयोक्तियों का नियमित प्रयोग- उदाहरण के लिए खोसे आर्कादियो की विलक्षण वीर्यवत्ता, कर्नल औरेलियानो बुएनदीया के बत्तीस सशस्त्र विद्रोह, बहत्तर चिलमचियाँ खाली करने के लिए कतार में खड़ी बहत्तर स्कूली बालिकाएँ- सब उस विधि के अनुरूप हैं जिसके चलते सामूहिक लोक-स्मृति आम घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा देती है। वास्तव में, एकान्त के सौ वर्ष माकोन्दो के इतिहास को उसी रूप में पेश करता है जैसा कि वह मौखिक लोक परम्परा में दर्ज हुआ और पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद किया गया।
लेकिन एकान्त के सौ वर्ष एक लिखित कृति है, और जो कहानी, लगता है जैसे कोई मुँहजुबानी सुना रहा हो, अन्तिम पन्नों में मेल्कीयादेस की संस्कृति पाण्डुलिपि में पाई जाती है। उपन्यास में तनाव की एक और परत है लिखित और मौखिक लोक परम्परा का समन्वय कर, गार्सीया मार्केज़ उसे लिखित शब्द से जुड़ी प्रतिष्ठा व गौरव प्रदान करते हैं। साथ ही वे विभिन्न नजरियों की सापेक्षता को भी रेखांकित करते हैं, क्योंकि जो घटनाएँ एक परिष्कृत पाठक को अतिकाल्पनिक लगती हैं, वे माकोन्दो के सांस्कृतिक माहौल में दैनिक यथार्थ के रूप में मान्य होती हैं और इसके विपरीत, आधुनिक टेक्नालॉजी जिसे परिष्कृत पाठक बिना प्रमाण के मान लेता है- बर्फ, चुम्बक, नकली दाँत, ट्रेन, सिनेमा-माकोन्दोवासियों को कृत्रिम व अद्भुत महसूस होती हैं। इस प्रकार एकान्त के सौ वर्ष यथार्थ क्या है न केवल इसकी रूढ़िगत अवधारणाओं को चुनौती देता है बल्कि उपन्यास की परम्परागत यूरा-केन्द्रित शैली, वस्तुत: समूची पश्चिम तर्कणावादी सांस्कृतिक परम्परा को उलट देता है। हालाँकि, साथ ही साथ, कथावाचक ऐसी व्यंग्यात्मक व तीखी धार के साथ लिखता है जो उसे उस मौखिक इतिहास से भी परे कर देती है जिसे वह प्रकट कर रहा है। जैसे कि रेमेदियोस के स्वर्गारोहण के वृत्तान्त को ही लें जो पूरी गंभीरता से बताया जाता है किन्तु वास्तविक व अधिक नीरस तथ्यों के परोक्ष संकेत उसे खोखला भी कर देते हैं। देखा जाए, तो यदि एकान्त के सौ वर्ष यूरो-केन्द्रित रवैयों को उलटने निकलता है तो साथ ही लैटिन अमेरिकियों के खुद के इतिहास के बोध पर भी चोट करता है।
अपने बचपन की दुनिया का साहित्यिक चित्रण प्रस्तुत करने में गार्सीया मार्केज़ ने माकोन्दो के कल्पित समुदाय में समूचे संसार का एक लघु प्रतिरूप रचा है। माकोन्दो की कहानी लैटिन अमेरिका के इतिहास का आम स्वरूप झलकाती है। माकोन्दो यूटोपिया के स्वप्न में जन्मा, उस स्थान पर बसाया गया जहाँ खोसे आर्कादियो ने एक आईने जड़े प्रकाशमय शहर की संकल्पना की थी। लेकिन आखिरी पृष्ठ तक पहुँचने पर, आईनों का शहर मरीचिकाओं की नगरी बन जाता है। यदि माकोन्दो उस नए संसार का स्वप्न था जिसे औपनिवेशिक इतिहास ने रौंद डाला तो एकान्त के सौ वर्ष लैटिन अमेरिका महाद्वीप के भ्रमित इतिहास का साहसी पुनर्लेखन है।
खोसे आर्कादियो बुएनदीया एवं उर्सुला इगुआरान
1.कर्नल औरेलियानो बुएनदीया एवं रेमेदियोस मॉस्कोते
• औरेलियानो खोसे (पीलार तेर्नेरा से)
• 17 ऑरेलियानो
2.खोसे आर्कादियो एवं रेबेका
• आर्कादियो (पीलार तेर्नेरा से) एवं सान्ता सोफीया दे ला पिएदाद
रूपवती रेमेदियोस
• ऑरैलियानो सेगुन्दो एवं फेर्नान्दा देल कार्पियो
रेनाता रेमेदियोस (मेमे)
औरेलियानो (मॉरीसियो बाबिलोनिया से)
खोसे आर्कादियो
अमारान्ता उर्सुला एवं गास्तोन
औरेलियानो (औरेलियानो से)
• खोसे आर्कादियो सेगुन्दो
3.अमारान्ता
कई साल बाद, तोपों का सामना करते हुए कर्नल औरेलियानो बुएनदीया को वह सुदूर शाम याद आनी थी जब उनके पिता उन्हें बर्फ से परिचित कराने ले गए थे। माकोन्दो तब एक गाँव हुआ करता था, मिट्टी और सरकंड़ों से बने बीस-एक घरों का-एक नदी किनारे, जिसके साफ सुथरे पानी तले बड़े-बड़े चिकने सफेद पत्थर ऐसे दीख पड़ते थे जैसे प्रागैतिहासिक अंडे। सृष्टि इतनी नवीन थी कि कई चीजों का नाम तक नहीं पड़ा था, और उनका जिक्र करने के लिए उँगली से संकेत करना पड़ता था। प्रति वर्ष, मार्च के महीने में, फटेहाल बंजारों का एक परिवार गाँव के समीप अपना खेमा लगा लेता था, और शहनाई व नक्कारों के विपुल घोष के साथ नए आविष्कारों का प्रदर्शन करता था। सबसे पहले वे चुम्बक लाए। मेल्कीयादेस के नाम से अपना परिचय देनेवाला अधकचरी दाढ़ी और गौरैया के-से हाथोंवाले एक भारी-भरकम बंजारे ने लोगों के सामने एक ऐसा चमत्कारी प्रदर्शन किया जिसे स्वयं उसने मैसेडोनिया के ज्ञानी कीमियागरों का आठवाँ अजूबा करार दिया। वह दो धातु-निर्मित शिलिकाओं को घसीटकर घर-घर ले गया, और सभी यह देखकर अपनी जगह से लुढ़कने लगीं, लकड़ी की कड़ियाँ कीलों और पेचों के उखड़ पड़ने की कसक के साथ चरमराने लगीं, यहाँ तक कि बहुत अरसे से खोई हुई चीजें ठीक वहीं से अवतरित होने लगीं जहाँ उन्हें सबसे अधिक ढूँढ़ा गया था, और मेल्कीयादेस के करिश्माई लोहों के पीछे एक छितरे हुए जुलूस की शक्ल में घिसटती चली गईं। ‘‘चीजों में अपनी खुद की जान होती है,’’ बंजारे ने कर्कश स्वर में ऐलान किया, ‘‘बस उनकी आत्मा जगाने- भर की बात है।’’ खोसे आर्कादियो बुएनदीया, जिनकी अपार कल्पनाशक्ति सदा प्रकृति की मेधा से परे, यहाँ तक कि तिलिस्म और चमत्कार के भी आगे जाती थी, ने सोचा कि इस व्यर्थ के आविष्कार का इस्तेमाल धरती के भीतर से सोना खींच निकालने के लिए किया जा सकता है। मेल्कीयादेस ने, जो एक ईमानदार आदमी था, उन्हें हिदायत दी:
‘‘यह इस मतलब का नहीं है।’’ किन्तु खोसे आर्कादियों बुएनदीया को उस समय बंजारों की ईमानदारी पर कतई विश्वास नहीं था, चुनाँचे उन्होंने अपने खच्चर और दो बकरियों के बदले में वे दो चुम्बकीय छड़े ले लीं। उर्सुला इगुआरान, उनकी पत्नी, जो अभावग्रस्त परिवार की आमदानी में इजाफा करने के लिए उन जानवरों पर निर्भर थीं, उन्हें रोकने में नाकाम रहीं। ‘‘बहुत जल्द हमारे पास घर लीपने तक के लिए सोना होगा,’’ उनके पति का जवाब था। कई महीनों तक वे अपने दावे की सत्यता दर्शाने के लिए घनघोर परिश्रम करते रहे। लोहे की दोनों छड़ों को घसीटते हुए और मेल्कीयादेस के मन्त्र का ऊँचे स्वर में जाप करते हुए उन्होंने इलाके का चप्पा-चप्पा, यहाँ तक कि नदी कि तली तक जाँच डाली। उनकी एकमात्र उपलब्धि रही पन्द्रहवीं शताब्दी का एक लौह कवच जिसके अलग-अलग हिस्सों को जंग की परत ने आपस में टाँक रखा था और जिसके अन्दर पत्थरों से भरे विशाल तूँबे की-सी खोखली गूँज थी। जब खोसे आर्कादियो बुएनदीया एवं उनके अभियान दल के चार व्यक्ति कवच को खोलने में कामयाब हुए तो भीतर उन्हें एक भुरभुरा कंकाल मिला। उसके गले में काँसे का एक लॉकेट लटका था जिसमें औरत के बालों का एक छल्ला था।
मार्च में बंजारे वापस आए। इस बार वे एक दूरबीन और ढोल की नाप का एक लेंस लाए थे जिसे उन्होंने एम्स्टरडैम के यहूदियों के नवीनतम आविष्कार के रूप में प्रदर्शित किया। उन्होंने एक बंजारन को गाँव के एक छोर पर बिठाया और तम्बू के द्वार पर दूरबीन प्रतिष्ठापित की। पाँच रेयाल की अदायगी पर लोग दूरबीन से झाँककर बंजारन को एक हाथ की दूरी पर देख सकते थे। ‘‘विज्ञान ने दूरियाँ मिटा दी हैं,’’ मेल्कीयादेस ने ऐलान किया, ‘‘थोड़े ही समय में मनुष्य दुनिया के किसी भी कोने में घटनेवाले दृश्य घर बैठे ही देख सकेगा।’’ एक चिलचिलाती दोपहर उस विशाल लेंस से एक अजीबोगरीब करतब दिखाया गया: गली के बीचोबीच सूखी घास का एक ढेर रखा गया और सूर्य-किरणों को उस पर केन्द्रित कर उसमें आग लगाई गई। खोसे आर्कादियो बुएनदीया ने, जिन्हें अपने चुम्बकों की विफलता से अभी तसल्ली नहीं हुई थी, उस अविष्कार को युद्ध के शस्त्र के रूप में प्रयोग करने की सोची। मेल्कीयादेस ने पुन: उन्हें रोकने का प्रयास किया। परन्तु अन्नत: लेंस के बदले में उसने वे दो चुम्बकीय छड़ें एवं तीन उपनिवेशी सिक्के स्वीकार कर लिये।
उर्सुला विस्मय के आँसू रोई। वो पैसा सोने के सिक्कों की एक सन्दूकची में से था जो उसके पिता ने आजीवन अभावों में रहकर जमा किया था और जो उसने सही वक्त पर इस्तेमाल करने की आस में पलंग के नीचे दबा छोड़ा था। खोसे आर्कादियो बुएनदीया ने उसे सान्त्वना देने तक कि कोशिश नहीं की। वे एक वैज्ञानिक के समर्पण के साथ अपने रणनीतिक प्रयोगों में पूर्णत: रत रहे, अपनी जान तक जोखिम में डालकर। दुश्मन की फौज पर लेंस का प्रभाव दिखाने के लिए, सूर्य-किरणों के केन्द्रीकरण का लक्ष्य वे स्वयं बने और ऐसे जले कि घावों के छाले बन गए जिन्हें ठीक होने में काफी समय लगा। इतने अनिष्टकारी अन्वेषण से आतंकित अपनी पत्नी के प्रतिवादों के जवाब में वे घर में आग लगाने पर उतारू हो गए। इस नवीन उपकरण की सामरिक सम्भावनाओं के गणित में मग्न वे अपने कमरे में घंटों बिता देते, यहाँ तक कि उन्होंने असाधारण शिक्षात्मक स्पष्टता एवं दृढ़ विश्वास की विधेयक शक्ति से ओत-प्रोत एक पुस्तिका लिख डाली।
उसके साथ अपने प्रयोगों के अनेक वृत्तान्त एवं व्याख्यात्मक रेखाचित्रों के कई पृष्ठ जोड़े उन्होंने उसे सरकार के पास भेजा, एक हरकारे के हाथ में जो पहाड़ों के पार गया, अनन्त दलदलों में भटका, उफनती नदियाँ पाँझी और जंगली जानवरों, महामारी व हताशा के प्रहारों तले खत्म ही हो जाता कि उसे वह रास्ता मिल गया जो डाक लेकर जानेवाले खच्चरों के रास्ते से जाकर मिलता था। इसके बावजूद कि राजधानी तक की यात्रा उन दिनों लगभग असम्भव ही थी, खोसे आर्कादियो बुएनदीया ने वचन लिया कि सरकार का बुलावा पाते ही वे रवाना हो जाएँगे ताकि सैन्य अधिकारियों के समक्ष अपने अविष्कार का वास्तविक प्रदर्शन कर सकें और सौर युद्ध की जटिल विधाओं में उन्हें प्रशिक्षित कर सकें। कई वर्षों तक वे उत्तर की बाट देखते रहे। अन्तत:, प्रतीक्षा से थककर उन्होंने मेल्कीयादेस से अपने उद्योग की विफलता का विलाप किया, और बंजारे ने तब अपनी ईमानदारी का विश्वसनीय प्रमाण दिया: उसने लैंस लेकर उनके सिक्के वापस लौटा दिए, और साथ ही कुछ पुर्तगाली नक्शे व नौवहन के अनेक उपकरण भी उन्हें दिए। सन्त हरमान के अध्ययन का संक्षिप्त संश्लेषण अपने हाथ से लिखकर उनके लिए छोड़ दिया ताकि वे उन्नतांशमापी, दिक्सूचक व पष्टक का सही प्रयोग कर सकें।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book