नाटक-एकाँकी >> माधवी माधवीभीष्म साहनी
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प्रख्यात लेखक भीष्म साहनी का यह तीसरा नाटक ‘माधवी’ महाभारत की एक कथा पर आधारित है
[महाराज ययाति का आश्रम । ययाति अपने दो आश्रमवासियों के साथ ! प्रातः काल]
ययाति : यहाँ कितना सूना-सूना है।
आश्रमवासी-1 : हमने देखा महाराज, इस वनस्थली में आपका मन अभी तक नहीं लगा।
ययाति : नहीं लगा, बन्धु, ठीक कहते हो। जिन दिनों राज-पाट के कामों में व्यस्त था तो इस दिन की बाट जोहता था कि कब राज पाट को चिन्ताओं से मुक्त होकर, एकान्त में, पूजा-आराधना में अपना समय व्यतीत करूँगा? मुस्कराकर राज-पाट तो पीछे छोड़ आया, पर मन की अशान्ति अपने साथ ले आया।
आ. वा.-2 : कहाँ राज-पाट की धूम-धाम, और कहाँ वनों का सूनापन, कहाँ सभी प्रकार की सुविधाएँ, और कहाँ वनों का कठोर जीवन ।
आ. वा.-1 : महाराज को सुख-सुविधाओं से मोह नहीं है। जो राजा सत्ता और अधिकार त्याग सकता है, उसे सुख-ऐश्वर्य से मोह क्यों होगा? पर फिर दानवीर ययाति का मन क्यों अशान्त होना चाहिए? आपने सदा धर्म का पालन किया है, पितरों की पूजा आराधना में कभी त्रुटि नहीं रही। इसी के कारण आपको यश मिला है। समस्त आर्यावर्त में आपके नाम की धूम है।
आ. वा.-2 : एक बात और भी है महाराज, जिस कारण आपको यहाँ सूना सूना लगता है।
ययाति : वह क्या? तुम्हें सदा नयी-नयी बातें सूझती रहती हैं।
आ. वा.-2 : प्रशंसा, महाराज । यहाँ प्रशंसा करनेवाले दरबारी नहीं हैं, जो सारा वक्त राजा के आस-पास घूमते रहें, इससे राजा के अहं की तुष्टि होती रहती है। प्रशंसा से राजा को अपार सुख मिलता है। यहाँ आपको वह सुख नहीं मिलता।
आ. वा.-1 : इन्हें प्रशंसा की क्या आवश्यकता है ! दानवीरों में इनका नाम सत्य हरिश्चन्द्र और दानवीर कर्ण के साथ लिया जाता है, इन्हें प्रशंसा की ललक क्यों होगी? ययाति : मैंने कर्तव्य को सदा कर्तव्य मानकर ही किया है। मैंने सदा अपनी सामर्थ्य से बढ़कर दान दिया है।
आ. वा.-2 : फिर कोई तो कारण होगा महाराज, कि आपका मन खोया खोया रहता है।
आ. वा.-1 : महाराज, क्या अपनी बेटी के कारण तो आपका मन अशान्त नहीं रहता? राज-पाट में बने रहते तो आप माधवी का स्वयंवर रचा पाते । अच्छे से अच्छा वर उमे मिल जाता। उसकी स्वर्ग वासिनी माँ की आत्मा को शान्ति मिलती। ययाति : उसका स्वयंवर तो मैं यहाँ भी रचाऊँगा। राजाओं ने मुझे भुला
दिया है, पर मैंने उन्हें नहीं भुलाया।
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