कहानी संग्रह >> बदचलन बीवियों का द्वीप बदचलन बीवियों का द्वीपकृष्ण बलदेव वैद
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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कथासरित्सागर की कुछ संस्कृत कहानियों का संग्रह....
Badchalan Biviyon Ka Dweep a hindi book by Krishna Baldev Vaid - बदचलन बीवियों का द्वीप -कृष्ण बलदेव वैद
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यह कृष्ण बलदेव वैद सरीखे अलबेले और हठी कथाकार से ही मुमकिन था कि पुरानी, बहुत पुरानी, कहानी का भी नए नवेले, अनूठे और समसामयिक अन्दाज़ में एक बार फिर बयान सम्भव हो सके, जैसे सोमदेव रचित कथा सरित्सागर की कुछ संस्कृत कहानियों के साथ उन्होंने इस संग्रह में सफलतापूर्वक कर दिखलाया है !
यह उद्यम इस मायने में मौलिक और रचनाधर्मी है कि पारम्परिक कथाओं का रूप विन्यास करते हुए ‘पुनर्लेखक’ न जाने कितनी जगह कथा काया में एक सजग लेखक की तरह प्रवेश करता हैः न सिर्फ प्रवेश ही, बल्कि अपनी चुटीली चटपटी टिप्पणियों से कहानी की रसात्मकता को समसायिक जीवन सज्जा में ढालने की सुविचारित चेष्टा भी। यही असल में परम्परा का नवीनीकरण हैः एक सच्ची और सचमुच पुनर्रचना।
कथा वही क्लासिकल, पर भाषा और शैली अभी और आज की। पात्र वही पुराने, पर उन्हें देखने, आँकने, टाँकने का अन्दाज ‘कृष्णबलदेवी’ घटनाएँ वही पुरानी, पर उन्हें बयान करते हुए उन्हें समकालिक जीवन छवियों से जोड़ने का सपना नया। अगर कहानीकार का सरोकार, कहानी के सन्देश, पाठ या शिक्षा से कम और खुद कहानी से ज्यादा है तो यह वैद जी जैसे कहानीकार के लिए निहायत स्वाभाविक बात है, जिसकी बुनियादी दिलचस्पी का सबब कहानी ही है, कहानी का निहितार्थ नहीं।
कृष्ण बलदेव वैद हमारे समय के ऐसे इने गिने मूल्यवान और महत्त्वपूर्ण लेखकों में अग्रगण्य हैं, कथा कहने और अपनी शर्तों पर कहने की जिनकी उमंग न थकी हैं, न चुकी। कथित आलोचकों के सामने झुकी तो वह जरा भी नहीं है। प्रयोग और नएपन के प्रति उनका स्वाभाविक उल्लास और अनुराग हिन्दी की याद रखने लायक घटना है। वह इसलिए भी कि हर दफा अपने ही ढंग का कुछ अलग, कुछ नया रचना, उनकी लेखकीय फितरत में कुछ उसी तरह शरीक है जैसे इधर कम से कमतर होते जा रहे, ‘प्रयोगशील’ हिन्दी गल्प में खुद कृष्ण बलदेव वैद।
कथासरित्सागर की कुछ प्रसिद्ध कहानियों का यह रोचक ‘विचलन’ एक दफा फिर वैद जी के नवाचारी मन मस्तिष्क की रोमांचक उड़ान का असन्दिग्ध साक्ष्य है
यह उद्यम इस मायने में मौलिक और रचनाधर्मी है कि पारम्परिक कथाओं का रूप विन्यास करते हुए ‘पुनर्लेखक’ न जाने कितनी जगह कथा काया में एक सजग लेखक की तरह प्रवेश करता हैः न सिर्फ प्रवेश ही, बल्कि अपनी चुटीली चटपटी टिप्पणियों से कहानी की रसात्मकता को समसायिक जीवन सज्जा में ढालने की सुविचारित चेष्टा भी। यही असल में परम्परा का नवीनीकरण हैः एक सच्ची और सचमुच पुनर्रचना।
कथा वही क्लासिकल, पर भाषा और शैली अभी और आज की। पात्र वही पुराने, पर उन्हें देखने, आँकने, टाँकने का अन्दाज ‘कृष्णबलदेवी’ घटनाएँ वही पुरानी, पर उन्हें बयान करते हुए उन्हें समकालिक जीवन छवियों से जोड़ने का सपना नया। अगर कहानीकार का सरोकार, कहानी के सन्देश, पाठ या शिक्षा से कम और खुद कहानी से ज्यादा है तो यह वैद जी जैसे कहानीकार के लिए निहायत स्वाभाविक बात है, जिसकी बुनियादी दिलचस्पी का सबब कहानी ही है, कहानी का निहितार्थ नहीं।
कृष्ण बलदेव वैद हमारे समय के ऐसे इने गिने मूल्यवान और महत्त्वपूर्ण लेखकों में अग्रगण्य हैं, कथा कहने और अपनी शर्तों पर कहने की जिनकी उमंग न थकी हैं, न चुकी। कथित आलोचकों के सामने झुकी तो वह जरा भी नहीं है। प्रयोग और नएपन के प्रति उनका स्वाभाविक उल्लास और अनुराग हिन्दी की याद रखने लायक घटना है। वह इसलिए भी कि हर दफा अपने ही ढंग का कुछ अलग, कुछ नया रचना, उनकी लेखकीय फितरत में कुछ उसी तरह शरीक है जैसे इधर कम से कमतर होते जा रहे, ‘प्रयोगशील’ हिन्दी गल्प में खुद कृष्ण बलदेव वैद।
कथासरित्सागर की कुछ प्रसिद्ध कहानियों का यह रोचक ‘विचलन’ एक दफा फिर वैद जी के नवाचारी मन मस्तिष्क की रोमांचक उड़ान का असन्दिग्ध साक्ष्य है
कलिंगसेना और सोमप्रभा की विचित्र मित्रता
तक्षशिला के राजा कलिंगदत्त की कमल सरीखी कोमल पुत्री कलिंगसेना एक दिन राजमहल की छत पर खड़ी अपने दिवास्वप्नों में विलीन नीले आकाश को निहार रही थी कि आकाश पथ से उड़ती जाती हुई मयासुर की मोहिनी कन्या सोमप्रभा उसे देख उस पर मोहित हो गई और सोचने लगी, यह रतिरूपिणी पता नहीं कौन है, इसका कामदेव पता नहीं कहाँ है, मुझे लगता है यह अभी कुँवारी है, इसलिए इस पद पर यदि मैं मोहित हो गई हूँ तो कोई अस्वाभाविक बात नहीं हुई, सम्भव है पूर्वजन्म में भी इसकी और मेरी मित्रता रही हो, जो भी हो, इसे देख मेरा तन-मन जिस चंचलता से उछल रहा है उसे देख मुझे लगता है कि जब तक मैं इससे मिल सखी के रूप में इसका वरण नहीं कर लूँगी तब तक मुझे चैन नहीं आएगा।
कहना न होगा कि पहली नज़र के प्यार की तरह पहली नज़र की मित्रता भी आदिकाल से चली आ रही है, और इन दोनों अनुभवों में कोई तात्त्विक भेद शायद नहीं।
अब हमारी वह सोमप्रभा आकस्मिक आसक्ति के कारण व्याकुल तो हो उठी थी, लेकिन अकस्मात् प्रकट हो वह कलिंगसेना को चौंकाना नहीं चाहती थी, इसलिए वह धीरे-धीरे आकाश से उतरी, फिर उसने मनुष्य कन्या का रूप धारण किया, और तब वह चुपके से कलिंगसेना के पास जा खड़ी हुई। कलिंगसेना को लगा, मानो उसके किसी दिवास्वप्न में से ही कोई देवी या अप्सरा साकार हो गई हो। वैसे भी उस समय की कन्याओं को हर चमत्कार में मीनमेख निकालने की बुरी आदत नहीं हुआ करती थी। सो कलिंगसेना सहज ही सोमप्रभा के साथ लिपट गई। फिर उसने उसे अपने पास बिठाकर ऐसे निहारना आरम्भ कर रही हो। तब सोमप्रभा अपार स्नेह से बोली-‘‘सखि, ऐसे मत देखो नहीं तो मेरा रहा सहा कवच भी उतर जाएगा, फिर मैं क्या करूँगी।’’ कलिंगसेना उसकी मधुर आवाज़ सुन मदहोश हो गई, बोली-‘‘कवच की अब हम दोनों को कोई ज़रूरत नहीं, अब हम हमेशा हमेशा के लिए अभिन्न हो गई हैं।’’ सोमप्रभा यह सुन सिर से पाँव तक सिहर तो गई लेकिन अपनी सिहरन को यथासम्भव संयत कर बोली-‘‘सखि, तुम ठहरीं राजपुत्री और राजपुत्री से मित्रता का जोखिम कितना बड़ा होता है, इस, आशय की एक कहानी मैं तुम्हें सुनाती हूँ, सुनोगी ?’’ कलिंगसेना ने उत्सुकता से उत्तर दिया-‘‘सुनाओ ना, सुनूँगी क्यों नहीं।’’ और फिर उसने सोमप्रभा के दोनों हाथों को अपने हाथों में बाँध आँखें ऐसे मूँद लीं जैसे कोई दैवी राग सुनने जा रही हो।
सोमप्रभा ने सखीस्पर्शसुखविभोर हो कहानी शुरू कर दी।।
कहना न होगा कि पहली नज़र के प्यार की तरह पहली नज़र की मित्रता भी आदिकाल से चली आ रही है, और इन दोनों अनुभवों में कोई तात्त्विक भेद शायद नहीं।
अब हमारी वह सोमप्रभा आकस्मिक आसक्ति के कारण व्याकुल तो हो उठी थी, लेकिन अकस्मात् प्रकट हो वह कलिंगसेना को चौंकाना नहीं चाहती थी, इसलिए वह धीरे-धीरे आकाश से उतरी, फिर उसने मनुष्य कन्या का रूप धारण किया, और तब वह चुपके से कलिंगसेना के पास जा खड़ी हुई। कलिंगसेना को लगा, मानो उसके किसी दिवास्वप्न में से ही कोई देवी या अप्सरा साकार हो गई हो। वैसे भी उस समय की कन्याओं को हर चमत्कार में मीनमेख निकालने की बुरी आदत नहीं हुआ करती थी। सो कलिंगसेना सहज ही सोमप्रभा के साथ लिपट गई। फिर उसने उसे अपने पास बिठाकर ऐसे निहारना आरम्भ कर रही हो। तब सोमप्रभा अपार स्नेह से बोली-‘‘सखि, ऐसे मत देखो नहीं तो मेरा रहा सहा कवच भी उतर जाएगा, फिर मैं क्या करूँगी।’’ कलिंगसेना उसकी मधुर आवाज़ सुन मदहोश हो गई, बोली-‘‘कवच की अब हम दोनों को कोई ज़रूरत नहीं, अब हम हमेशा हमेशा के लिए अभिन्न हो गई हैं।’’ सोमप्रभा यह सुन सिर से पाँव तक सिहर तो गई लेकिन अपनी सिहरन को यथासम्भव संयत कर बोली-‘‘सखि, तुम ठहरीं राजपुत्री और राजपुत्री से मित्रता का जोखिम कितना बड़ा होता है, इस, आशय की एक कहानी मैं तुम्हें सुनाती हूँ, सुनोगी ?’’ कलिंगसेना ने उत्सुकता से उत्तर दिया-‘‘सुनाओ ना, सुनूँगी क्यों नहीं।’’ और फिर उसने सोमप्रभा के दोनों हाथों को अपने हाथों में बाँध आँखें ऐसे मूँद लीं जैसे कोई दैवी राग सुनने जा रही हो।
सोमप्रभा ने सखीस्पर्शसुखविभोर हो कहानी शुरू कर दी।।
सोमप्रभा की कहानी
‘‘पुष्करावती नाम की एक नगरी के राजा गूढ़सेन का इकलौता पुत्र बहुत बिगड़ा हुआ था। इकलौते पुत्र अक्सर बिगड़ जाते हैं, इकलौती पुत्रियाँ अक्सर सुघड़ हो जाती हैं। राजा गूढ़सेन को अपने पुत्र का बिगड़ना बुरा तो बहुत लगता था लेकिन पुत्रमोह का मारा हुआ वह राजा उसकी सारी करतूतों को चुपचाप सहन कर लिया करता था और मन ही मन सोचता रहता था, काश कि भगवान ने मुझे एक और पुत्र दे दिया होता, तब मैं इस नालायक को शायद सीधा कर सकता।
एक बार क्या हुआ कि वह बिगड़ा हुआ राजकुमार अपने बाप के एक बाग में विचर रहा था कि उसे वहाँ अपने ही जैसा एक सुन्दर युवक दिखाई दिया जिस पर वह तत्काल मोहित हो गया और उसने मित्र के रूप में उस युवक का वरण कर लिया। और उसी दिन से वे दोनों अभिन्न मित्र बन गए।
यहाँ यह बता देना ज़रूरी है कि वह युवक एक धनी बनिए का बेटा था, कोई राजकुमार वगैरह नहीं था।
वे दोनों मित्र दिन भर साथ साथ घूमते, रात को साथ साथ सोते, जो खाते पीते आपस में बाँटकर खाते पीते, एक दूसरे को दुनिया जहान की प्रेम कहानियाँ सुनाते, एक अगर बीमार पड़ता तो दूसरा साथ बीमार पड़ जाता, एक उदास होता तो दूसरा साथ उदास हो जाता, लोग उनके बारे में तरह तरह की बातें बनाते कहते-‘ऐसी दोस्ती तो हमने कभी नहीं देखी, और वह भी एक राजपुत्र और वैश्यपुत्र में !’
राजकुमार को अपने बाप की परवाह नहीं थी, लोगों की बातों की परवाह क्या होती ! वैसे राजागूढ़सेन खुश था कि उसका बिगड़ा हुआ पुत्र उस वैश्यपुत्र की सुसंगत में रहकर सुधर जाएगा। और जब उसे पता चला कि राजकुमार ने अपने मित्र का कहीं विवाह पक्का कर दिया है और अब अपने विवाह के लिए उहिच्छत्रा नगरी जा रहा है तो वह आश्वस्त हो गया कि उसका पुत्र जल्द ही सीधे रास्ते पर चलना शुरू कर देगा।
सखि, मैं तो समझ नहीं पाती कि सभी माँ बाप क्यों अपनी सन्तान के विवाह के बारे में न सिर्फ़ इतने चिन्तित रहते हैं बल्कि यह भी समझते हैं कि विवाह होते ही उनकी सन्तान सीधे रास्ते पर चलना शुरू कर देगी।
खैर ! तो हुआ यह कि राजकुमार अपने मित्र और सैनिकों को साथ ले हाथी पर सवार हो वहाँ से चल पड़ा। शाम हुई तो उसने इक्षुमती नदी के तट पर रात बिताने का फैसला किया। थोड़ी ही देर में जब चाँद निकल आया तो मदिरा के दौर शुरू हो गए। वैश्यपुत्र तो सँभलकर पी रहा था, राजकुमार कुछ ही देर में धुत हो शय्या पर लेट गया। उसकी एक मुँह लगी सेविका ने उसे जगाए रखने के लिए उससे एक कहानी सुनने की जिद पकड़ ली तो राजकुमार ने नशीली आवाज़ में एक कहानी शुरू तो कर दी लेकिन शीघ्र ही वह गहरी नींद के झोंकों से ऐसे गुल हो गया जैसे तेज़ हवा के झोंकों से दीया गुल हो जाता है। उसे बुझते देख वह सेविका और वैश्यपुत्र एक दूसरे की ओर देख मुस्कुराए, मानो कह रहे हों, राजपुत्रों का कोई भरोसा नहीं। वे शायद कुछ कहते या करते लेकिन कुछ ही देर में वह सेविका भी सो गई और वैश्यपुत्र अपने मित्र के सिरहाने बैठ पहरा सा देने लगा। बैठा बैठा वह आकाश की सैर कर ही रहा था कि उसे दूर ऊपर कहीं कुछ स्त्रियों की खुसर पुसर सुनाई दी। वह सतर्क हो ध्यान से उनकी बातें सुनने की कोशिश करने लगा। रात की साँय साँय में उसे उनकी बातें साफ सुनाई दे रही थीं।
‘अजीब राजपुत्र है यह कि अपनी कहानी को पूरा किए बगैर ही सो गया। इसलिए मैं इसे शाप देती हूँ कि कल प्रातःकाल इसे हीरों का एक हार दिखाई देगा, जिसे अगर इसने उठाकर अपने गले में डाल लिया तो इसकी मृत्यु तत्काल हो जाएगी।’
इतना कहकर जब पहली स्त्री चुप हो गई तो दूसरी बोली-‘अब अगर यह किसी तरह बच गया तो कुछ आगे जाने पर इसे एक आम का पेड़ दिखाई देगा, जिसकी शाखों से लटकते हुए सुन्दर सिन्दूरी आम देख इसके मुँह में पानी भर आएगा और जब यह आम तोड़कर उसे चूसना शुरू करेगा तो इसके प्राण निकल जाएँगे।’
दूसरी के चुप होते ही तीसरी चटखारा लेते हुए बोली-‘और अगर यह फिर भी बच गया तो जैसे ही यह विवाह में प्रवेश करेगा तो वह धड़ाम से गिर जाएगा और यह दबकर मर जाएगा।’
तीसरी के बाद चौथी बोली-‘और अगर यह फिर भी बच गया तो विवाह के बाद जैसे ही यह अपनी नई पत्नी को भोगने के लिए शयन कक्ष में प्रवेश करेगा तो यह छींकना शुरू कर देगा, इसे पूरी एक सौ छींकें आएँगी, और हर छींक के बाद किसी ने ‘जीओ’ नहीं कहा तो इसकी साँस वहीं रुक जाएगी। और हाँ, अगर नीचे बैठ इसका कोई मित्र या सैनिक हमारी बातें सुन रहा है तो उसे मैं यह चेतावनी देती हूँ कि अगर उसने राजकुमार को यह सब बता दिया तो उसकी अपनी जान की ख़ैर नहीं।’
चौथी के चुप होते ही वे चारों परियाँ, या वे जो भी थीं, वहाँ से उड़ गईं लेकिन राजकुमार के सिरहाने बैठा वैश्य पुत्र गहरी चिन्ता में डूब गया और सुबह होने तक डूबा रहा। वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे क्या करना चाहिए रह रहकर उसे उन परियों या अप्सराओं पर गुस्सा आ रहा था और वह सोच रहा था कि कहानी सुनने की इतनी भी क्या लत कि अगर कोई बेचारा नींद से मजबूर हो कहानी सुनाते सुनाते सो जाए तो उसे मौत की सज़ा दे दी जाए, धिक्कार है ऐसी लत पर और धिक्कार है ऐसी परियों या अप्सराओं पर। फिर उसे ख्याल आया कि अगर उन परियों या अप्सराओं ने उसकी उस मौन मानसिक धिक्कार को सुन लिया तो वह मारा जाएगा, इसलिए उसने उन्हें कोसना तो बन्द कर दिया लेकिन नींद उसे रात भर नहीं आई। आ भी नहीं सकती थी क्योंकि उसे अपने मित्र की जान तो बचानी ही थी, अपने को भी किसी तरह बचाना था और कोई कारगर तरकीब उसे सूझ नहीं रही थी।
सुबह हुई तो दोनों मित्र तैयार होकर चलने ही वाले थे कि राजपुत्र को कुछ ही कदमों की दूरी पर हीरों का एक हार गिरा पड़ा दिखाई दे गया। राजपुत्र को वह अच्छा लगा और उसने उसे उठाकर अपने गले में डालने की इच्छा जाहिर की। वैश्यपुत्र ने उसे रोक दिया और समझाया कि वह हार असली नहीं, मायावी है, अगर असली होता तो औरों को भी दिखाई दे जाता। राजपुत्र अपने मित्र की बात मान गया। कुछ दूर आगे जाकर उसे आम का एक पेड़ दिखाई दिया। उसकी शाखों से लटकते हुए सुन्दर सिन्दूरी आमों को देख राजकुमार सुन्दर गोरे उरोजों की कल्पना करने लगा। और जब उसने एक आम तोड़ने के लिए हाथ उठाया तो वैश्यपुत्र ने फिर उसे रोककर कहा कि वे जंगली आम उसका गला खराब कर देंगे, वैसे भी वे कच्चे दिखाई देते हैं। राजपुत्र को कुछ खिन्नता तो हुई लेकिन उसने फिर अपने मित्र की बात मान ही ली। जब वे उहिच्छत्रा नगरी पहुँचे तो राजपुत्र विवाह गृह में कदम रखने ही वाला था कि वैश्यपुत्र ने उसका हाथ पकड़ उसे पीछे खींच लिया, और तभी वह विवाह गृह धड़ाम से गिर गया। राजपुत्र की जान तो बच गई और वह अपने मित्र की सतर्कता पर प्रसन्न भी हुआ लेकिन साथ ही उसे यह सोचकर कोफ्त भी हो रही थी कि कमबख्त वैश्यपुत्र आज सुबह से कुछ भी करने क्यों नहीं दे रहा।
उधर वैश्यपुत्र अपनी चतुराई पर मन ही मन गर्व तो कर रहा था लेकिन एक मरहला अभी बाकी था और वह सबसे ज्यादा कठिन भी था। वह विवाह वगैरह के बाद जब राजपुत्र उस शयनकक्ष की तरफ चला जहाँ उसकी पत्नी उसकी प्रतीक्षा में तड़प रही थी तो उसे अपना मित्र आसपास कहीं दिखाई नहीं दिया। वह मुस्कुराया और फिर मन ही मन खैर मनाई क्यों कि उसे खतरा था कि वह वैश्यपुत्र उसे उधर जाने से भी रोक देगा। हुआ यह था कि वैश्यपुत्र पहले से ही उस पलंग के नीचे जा छिपा था जिसके ऊपर पड़ी उसके मित्र की पत्नी तड़प रही थी। जब राजकुमार आया तो उसकी वधू की निगाहें नीची हो गईं और वैश्यपुत्र का खून खुश्क हो गया। वह जानता था कि अगर वह वहाँ पकड़ लिया गया तो राजकुमार को यह समझाना असम्भव होगा कि वहाँ छिपा पड़ा कर क्या रहा था। फिर जैसे ही राजकुमार पलंग पर बैठा और उसे पहली छींक आई तो वैश्यपुत्र ने धीमी आवाज़ में कह दिया, जीओ। पहली और दूसरी छींक के बीच के छोटे से अन्तराल के दौरान राजकुमार की नई नवेली दुलहिन ने सोचा, मेरी सुहागरात छींक से शुरू हो रही है, ख़ुदा ख़ैर करे ! दूसरी छींक के साथ ही दुलहिन के मुँह से निकला ‘उई माँ’ और पलंग के नीचे छिपे वैश्यपुत्र के मुँह से निकला जीओ। बस फिर तो राजकुमार ने पूरी एक सौ छींकें मारीं और हर छींक के साथ दुलहिन अनायास पुकार उठती, उई माँ, और वैश्यपुत्र सायास कहता जीओ।
जब छींके बन्द हुईं तो राजकुमार और उसकी पत्नी की कामुक छटपटाहटें शुरू हो गईं जिनका आभास उनके पलंग के नीचे लेटे पड़े वैश्यपुत्र को बराबर होता रहा और उसका कलेजा बार बार उसके मुँह तक आता रहा, यह सोचकर कि कहीं भूले से उससे कोई ऐसी हरकत न हो जाए जिससे उसकी उपस्थिति का आभास उन दोनों को मिले। इसलिए उसने जो जो सुना और जिस जिस अनसुने और अनदेखे की उसने कल्पना की उसका बखान मैं नहीं करूँगी, तुम चाहो तो उस सब की कल्पना खुद कर लो।
और जब फिर वैश्यपुत्र के अनुमाननुसार उसके मित्र और उसकी पत्नी की आँख लग गई तो वह बड़ी सावधानी से पलंग के नीचे से निकल दबे पाँव दरवाजे की तरफ बढ़ ही रहा था कि राजकुमार की आँख खुल गई और उसने वैश्यपुत्र को पहचान लिया। बस फिर क्या था, उसने चिल्लाना और उस बेचारे को धिक्कारना शुरू कर दिया। उसका राजसी आक्रोश और अहंकार जोश मारने लगा। उसने अपने मित्र की एक न सुनी। वह भूल गया था कि वह उसका मित्र था, शत्रु नहीं। और उसने अपने सैनिकों को बुलाकर आदेश दिया कि उसे बाकी की रात कारागार में बन्द कर दिया जाए और दूसरे दिन उसे फाँसी दे दी जाए।
सखि, तुम कह सकती हो कि उस राजकुमार की जगह कोई साधारण पति होता तो वह भी अपने किसी मित्र को पलंग के नीचे से निकलते देख इसी तरह पागल हो जाता, लेकिन मैं इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं, क्योंकि मैं समझती हूँ इस तरह का ग़ुस्सा सिर्फ़ राजकुमारों को ही आता है, इस तरह की जल्दबाजी वही कर सकते हैं।
ख़ैर ! बाकी की कहानी ज़्यादा दिलचस्प नहीं, हुआ यह कि अगली सुबह जब राजकुमार के सैनिक वैश्यपुत्र को फाँसी देने लगे तो उसने हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना की कि वे उसे राजकुमार के पास ले जाए ताकि वह अपनी सफ़ाई देने का प्रयास कर सके। सैनिकों को उस पर दया आ गई और वे उसे राजकुमार के पास ले गए। उस वक्त तक राजकुमार भी कुछ ठंडा हो चुका था। यह भी सम्भव है कि उसकी पत्नी ने उसे समझाया हो कि उसे अपने मित्र की नीयत पर शक नहीं करना चाहिए। जो भी हो, जब वैश्यपुत्र ने उसे सारी बात बताई तो राजकुमार को लगा कि वह सच बोल रहा था। विवाह गृह के गिर जाने का घटना को याद करने पर उसका विश्वास लौट आया और उसने अपने मित्र की जान बख़्श दी।
यह तो उसने ठीक ही किया, लेकिन, सखि, इस कहानी का केन्द्रीय सन्देश यह है कि राजकुमार अक्सर क्रोध के कारण पिशाच बन जाते हैं और साधारण व्यक्ति के लिए उनकी मित्रता एक अभिशाप। यह कहानी सुनाकर मैं तुम्हारा मनोरंजन ही नहीं करना चाहती थी-हालाँकि यह स्वीकार कर लेने में मुझे कोई संकोच नहीं कि कहानीकार एक ऊँचे दर्जे का मनोरंजनकार भी होता है-बल्कि तुमसे यह आश्वासन भी चाहती थी कि तुम्हारी मित्रता कभी मेरे लिए अभिशाप नहीं बनेगी।’’
कलिंगसेना ने अपनी नई और सौम्य सखी से सावेश लिपटकर उसे मौन किन्तु मुखर आश्वासन दे दिया और कहा, ‘‘सखि ये राजपुत्र प्रायः पिशाच ही होते हैं, इन्हें वश में रखने के लिए स्त्री को कभी कभी काफी अशोभनीय चालें भी चलनी पड़ती हैं। इसी आशय की एक कहानी मैं तुम्हें सुनाना चाहती हूँ, सुनोगी ?’’ सोमप्रभा पुलकित हो बोली, ‘‘सुनाओ ना, सुनूँगी क्यों नहीं ?’’ और फिर उसने कलिंगसेना के दोनों हाथ अपने हाथों में बाँध आँखें ऐसे मूँद लीं जैसे कोई कहानी नहीं, रागिनी सुनने जा रही हो।
कलिंगसेना ने सखीस्पर्शसुखविभोर हो कहानी शुरू कर दी।
एक बार क्या हुआ कि वह बिगड़ा हुआ राजकुमार अपने बाप के एक बाग में विचर रहा था कि उसे वहाँ अपने ही जैसा एक सुन्दर युवक दिखाई दिया जिस पर वह तत्काल मोहित हो गया और उसने मित्र के रूप में उस युवक का वरण कर लिया। और उसी दिन से वे दोनों अभिन्न मित्र बन गए।
यहाँ यह बता देना ज़रूरी है कि वह युवक एक धनी बनिए का बेटा था, कोई राजकुमार वगैरह नहीं था।
वे दोनों मित्र दिन भर साथ साथ घूमते, रात को साथ साथ सोते, जो खाते पीते आपस में बाँटकर खाते पीते, एक दूसरे को दुनिया जहान की प्रेम कहानियाँ सुनाते, एक अगर बीमार पड़ता तो दूसरा साथ बीमार पड़ जाता, एक उदास होता तो दूसरा साथ उदास हो जाता, लोग उनके बारे में तरह तरह की बातें बनाते कहते-‘ऐसी दोस्ती तो हमने कभी नहीं देखी, और वह भी एक राजपुत्र और वैश्यपुत्र में !’
राजकुमार को अपने बाप की परवाह नहीं थी, लोगों की बातों की परवाह क्या होती ! वैसे राजागूढ़सेन खुश था कि उसका बिगड़ा हुआ पुत्र उस वैश्यपुत्र की सुसंगत में रहकर सुधर जाएगा। और जब उसे पता चला कि राजकुमार ने अपने मित्र का कहीं विवाह पक्का कर दिया है और अब अपने विवाह के लिए उहिच्छत्रा नगरी जा रहा है तो वह आश्वस्त हो गया कि उसका पुत्र जल्द ही सीधे रास्ते पर चलना शुरू कर देगा।
सखि, मैं तो समझ नहीं पाती कि सभी माँ बाप क्यों अपनी सन्तान के विवाह के बारे में न सिर्फ़ इतने चिन्तित रहते हैं बल्कि यह भी समझते हैं कि विवाह होते ही उनकी सन्तान सीधे रास्ते पर चलना शुरू कर देगी।
खैर ! तो हुआ यह कि राजकुमार अपने मित्र और सैनिकों को साथ ले हाथी पर सवार हो वहाँ से चल पड़ा। शाम हुई तो उसने इक्षुमती नदी के तट पर रात बिताने का फैसला किया। थोड़ी ही देर में जब चाँद निकल आया तो मदिरा के दौर शुरू हो गए। वैश्यपुत्र तो सँभलकर पी रहा था, राजकुमार कुछ ही देर में धुत हो शय्या पर लेट गया। उसकी एक मुँह लगी सेविका ने उसे जगाए रखने के लिए उससे एक कहानी सुनने की जिद पकड़ ली तो राजकुमार ने नशीली आवाज़ में एक कहानी शुरू तो कर दी लेकिन शीघ्र ही वह गहरी नींद के झोंकों से ऐसे गुल हो गया जैसे तेज़ हवा के झोंकों से दीया गुल हो जाता है। उसे बुझते देख वह सेविका और वैश्यपुत्र एक दूसरे की ओर देख मुस्कुराए, मानो कह रहे हों, राजपुत्रों का कोई भरोसा नहीं। वे शायद कुछ कहते या करते लेकिन कुछ ही देर में वह सेविका भी सो गई और वैश्यपुत्र अपने मित्र के सिरहाने बैठ पहरा सा देने लगा। बैठा बैठा वह आकाश की सैर कर ही रहा था कि उसे दूर ऊपर कहीं कुछ स्त्रियों की खुसर पुसर सुनाई दी। वह सतर्क हो ध्यान से उनकी बातें सुनने की कोशिश करने लगा। रात की साँय साँय में उसे उनकी बातें साफ सुनाई दे रही थीं।
‘अजीब राजपुत्र है यह कि अपनी कहानी को पूरा किए बगैर ही सो गया। इसलिए मैं इसे शाप देती हूँ कि कल प्रातःकाल इसे हीरों का एक हार दिखाई देगा, जिसे अगर इसने उठाकर अपने गले में डाल लिया तो इसकी मृत्यु तत्काल हो जाएगी।’
इतना कहकर जब पहली स्त्री चुप हो गई तो दूसरी बोली-‘अब अगर यह किसी तरह बच गया तो कुछ आगे जाने पर इसे एक आम का पेड़ दिखाई देगा, जिसकी शाखों से लटकते हुए सुन्दर सिन्दूरी आम देख इसके मुँह में पानी भर आएगा और जब यह आम तोड़कर उसे चूसना शुरू करेगा तो इसके प्राण निकल जाएँगे।’
दूसरी के चुप होते ही तीसरी चटखारा लेते हुए बोली-‘और अगर यह फिर भी बच गया तो जैसे ही यह विवाह में प्रवेश करेगा तो वह धड़ाम से गिर जाएगा और यह दबकर मर जाएगा।’
तीसरी के बाद चौथी बोली-‘और अगर यह फिर भी बच गया तो विवाह के बाद जैसे ही यह अपनी नई पत्नी को भोगने के लिए शयन कक्ष में प्रवेश करेगा तो यह छींकना शुरू कर देगा, इसे पूरी एक सौ छींकें आएँगी, और हर छींक के बाद किसी ने ‘जीओ’ नहीं कहा तो इसकी साँस वहीं रुक जाएगी। और हाँ, अगर नीचे बैठ इसका कोई मित्र या सैनिक हमारी बातें सुन रहा है तो उसे मैं यह चेतावनी देती हूँ कि अगर उसने राजकुमार को यह सब बता दिया तो उसकी अपनी जान की ख़ैर नहीं।’
चौथी के चुप होते ही वे चारों परियाँ, या वे जो भी थीं, वहाँ से उड़ गईं लेकिन राजकुमार के सिरहाने बैठा वैश्य पुत्र गहरी चिन्ता में डूब गया और सुबह होने तक डूबा रहा। वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे क्या करना चाहिए रह रहकर उसे उन परियों या अप्सराओं पर गुस्सा आ रहा था और वह सोच रहा था कि कहानी सुनने की इतनी भी क्या लत कि अगर कोई बेचारा नींद से मजबूर हो कहानी सुनाते सुनाते सो जाए तो उसे मौत की सज़ा दे दी जाए, धिक्कार है ऐसी लत पर और धिक्कार है ऐसी परियों या अप्सराओं पर। फिर उसे ख्याल आया कि अगर उन परियों या अप्सराओं ने उसकी उस मौन मानसिक धिक्कार को सुन लिया तो वह मारा जाएगा, इसलिए उसने उन्हें कोसना तो बन्द कर दिया लेकिन नींद उसे रात भर नहीं आई। आ भी नहीं सकती थी क्योंकि उसे अपने मित्र की जान तो बचानी ही थी, अपने को भी किसी तरह बचाना था और कोई कारगर तरकीब उसे सूझ नहीं रही थी।
सुबह हुई तो दोनों मित्र तैयार होकर चलने ही वाले थे कि राजपुत्र को कुछ ही कदमों की दूरी पर हीरों का एक हार गिरा पड़ा दिखाई दे गया। राजपुत्र को वह अच्छा लगा और उसने उसे उठाकर अपने गले में डालने की इच्छा जाहिर की। वैश्यपुत्र ने उसे रोक दिया और समझाया कि वह हार असली नहीं, मायावी है, अगर असली होता तो औरों को भी दिखाई दे जाता। राजपुत्र अपने मित्र की बात मान गया। कुछ दूर आगे जाकर उसे आम का एक पेड़ दिखाई दिया। उसकी शाखों से लटकते हुए सुन्दर सिन्दूरी आमों को देख राजकुमार सुन्दर गोरे उरोजों की कल्पना करने लगा। और जब उसने एक आम तोड़ने के लिए हाथ उठाया तो वैश्यपुत्र ने फिर उसे रोककर कहा कि वे जंगली आम उसका गला खराब कर देंगे, वैसे भी वे कच्चे दिखाई देते हैं। राजपुत्र को कुछ खिन्नता तो हुई लेकिन उसने फिर अपने मित्र की बात मान ही ली। जब वे उहिच्छत्रा नगरी पहुँचे तो राजपुत्र विवाह गृह में कदम रखने ही वाला था कि वैश्यपुत्र ने उसका हाथ पकड़ उसे पीछे खींच लिया, और तभी वह विवाह गृह धड़ाम से गिर गया। राजपुत्र की जान तो बच गई और वह अपने मित्र की सतर्कता पर प्रसन्न भी हुआ लेकिन साथ ही उसे यह सोचकर कोफ्त भी हो रही थी कि कमबख्त वैश्यपुत्र आज सुबह से कुछ भी करने क्यों नहीं दे रहा।
उधर वैश्यपुत्र अपनी चतुराई पर मन ही मन गर्व तो कर रहा था लेकिन एक मरहला अभी बाकी था और वह सबसे ज्यादा कठिन भी था। वह विवाह वगैरह के बाद जब राजपुत्र उस शयनकक्ष की तरफ चला जहाँ उसकी पत्नी उसकी प्रतीक्षा में तड़प रही थी तो उसे अपना मित्र आसपास कहीं दिखाई नहीं दिया। वह मुस्कुराया और फिर मन ही मन खैर मनाई क्यों कि उसे खतरा था कि वह वैश्यपुत्र उसे उधर जाने से भी रोक देगा। हुआ यह था कि वैश्यपुत्र पहले से ही उस पलंग के नीचे जा छिपा था जिसके ऊपर पड़ी उसके मित्र की पत्नी तड़प रही थी। जब राजकुमार आया तो उसकी वधू की निगाहें नीची हो गईं और वैश्यपुत्र का खून खुश्क हो गया। वह जानता था कि अगर वह वहाँ पकड़ लिया गया तो राजकुमार को यह समझाना असम्भव होगा कि वहाँ छिपा पड़ा कर क्या रहा था। फिर जैसे ही राजकुमार पलंग पर बैठा और उसे पहली छींक आई तो वैश्यपुत्र ने धीमी आवाज़ में कह दिया, जीओ। पहली और दूसरी छींक के बीच के छोटे से अन्तराल के दौरान राजकुमार की नई नवेली दुलहिन ने सोचा, मेरी सुहागरात छींक से शुरू हो रही है, ख़ुदा ख़ैर करे ! दूसरी छींक के साथ ही दुलहिन के मुँह से निकला ‘उई माँ’ और पलंग के नीचे छिपे वैश्यपुत्र के मुँह से निकला जीओ। बस फिर तो राजकुमार ने पूरी एक सौ छींकें मारीं और हर छींक के साथ दुलहिन अनायास पुकार उठती, उई माँ, और वैश्यपुत्र सायास कहता जीओ।
जब छींके बन्द हुईं तो राजकुमार और उसकी पत्नी की कामुक छटपटाहटें शुरू हो गईं जिनका आभास उनके पलंग के नीचे लेटे पड़े वैश्यपुत्र को बराबर होता रहा और उसका कलेजा बार बार उसके मुँह तक आता रहा, यह सोचकर कि कहीं भूले से उससे कोई ऐसी हरकत न हो जाए जिससे उसकी उपस्थिति का आभास उन दोनों को मिले। इसलिए उसने जो जो सुना और जिस जिस अनसुने और अनदेखे की उसने कल्पना की उसका बखान मैं नहीं करूँगी, तुम चाहो तो उस सब की कल्पना खुद कर लो।
और जब फिर वैश्यपुत्र के अनुमाननुसार उसके मित्र और उसकी पत्नी की आँख लग गई तो वह बड़ी सावधानी से पलंग के नीचे से निकल दबे पाँव दरवाजे की तरफ बढ़ ही रहा था कि राजकुमार की आँख खुल गई और उसने वैश्यपुत्र को पहचान लिया। बस फिर क्या था, उसने चिल्लाना और उस बेचारे को धिक्कारना शुरू कर दिया। उसका राजसी आक्रोश और अहंकार जोश मारने लगा। उसने अपने मित्र की एक न सुनी। वह भूल गया था कि वह उसका मित्र था, शत्रु नहीं। और उसने अपने सैनिकों को बुलाकर आदेश दिया कि उसे बाकी की रात कारागार में बन्द कर दिया जाए और दूसरे दिन उसे फाँसी दे दी जाए।
सखि, तुम कह सकती हो कि उस राजकुमार की जगह कोई साधारण पति होता तो वह भी अपने किसी मित्र को पलंग के नीचे से निकलते देख इसी तरह पागल हो जाता, लेकिन मैं इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं, क्योंकि मैं समझती हूँ इस तरह का ग़ुस्सा सिर्फ़ राजकुमारों को ही आता है, इस तरह की जल्दबाजी वही कर सकते हैं।
ख़ैर ! बाकी की कहानी ज़्यादा दिलचस्प नहीं, हुआ यह कि अगली सुबह जब राजकुमार के सैनिक वैश्यपुत्र को फाँसी देने लगे तो उसने हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना की कि वे उसे राजकुमार के पास ले जाए ताकि वह अपनी सफ़ाई देने का प्रयास कर सके। सैनिकों को उस पर दया आ गई और वे उसे राजकुमार के पास ले गए। उस वक्त तक राजकुमार भी कुछ ठंडा हो चुका था। यह भी सम्भव है कि उसकी पत्नी ने उसे समझाया हो कि उसे अपने मित्र की नीयत पर शक नहीं करना चाहिए। जो भी हो, जब वैश्यपुत्र ने उसे सारी बात बताई तो राजकुमार को लगा कि वह सच बोल रहा था। विवाह गृह के गिर जाने का घटना को याद करने पर उसका विश्वास लौट आया और उसने अपने मित्र की जान बख़्श दी।
यह तो उसने ठीक ही किया, लेकिन, सखि, इस कहानी का केन्द्रीय सन्देश यह है कि राजकुमार अक्सर क्रोध के कारण पिशाच बन जाते हैं और साधारण व्यक्ति के लिए उनकी मित्रता एक अभिशाप। यह कहानी सुनाकर मैं तुम्हारा मनोरंजन ही नहीं करना चाहती थी-हालाँकि यह स्वीकार कर लेने में मुझे कोई संकोच नहीं कि कहानीकार एक ऊँचे दर्जे का मनोरंजनकार भी होता है-बल्कि तुमसे यह आश्वासन भी चाहती थी कि तुम्हारी मित्रता कभी मेरे लिए अभिशाप नहीं बनेगी।’’
कलिंगसेना ने अपनी नई और सौम्य सखी से सावेश लिपटकर उसे मौन किन्तु मुखर आश्वासन दे दिया और कहा, ‘‘सखि ये राजपुत्र प्रायः पिशाच ही होते हैं, इन्हें वश में रखने के लिए स्त्री को कभी कभी काफी अशोभनीय चालें भी चलनी पड़ती हैं। इसी आशय की एक कहानी मैं तुम्हें सुनाना चाहती हूँ, सुनोगी ?’’ सोमप्रभा पुलकित हो बोली, ‘‘सुनाओ ना, सुनूँगी क्यों नहीं ?’’ और फिर उसने कलिंगसेना के दोनों हाथ अपने हाथों में बाँध आँखें ऐसे मूँद लीं जैसे कोई कहानी नहीं, रागिनी सुनने जा रही हो।
कलिंगसेना ने सखीस्पर्शसुखविभोर हो कहानी शुरू कर दी।
कलिंगसेना की कहानी
‘‘एक ज़माने का ज़िक्र है कि यज्ञस्थल नाम का एक गाँव हुआ करता था। उसमें एक बेचारा सा ब्राह्मण रहा करता था। एक बार क्या हुआ कि वह ब्राह्मण लकड़ियाँ बटोरने के लिए जंगल में गया। गरीब ब्राह्मण ही नहीं, सभी गरीब लोग अभी तक लकड़ियाँ बटोरने के लिए जंगल में जाते हैं और सदियों तक जाते रहेंगे, ऐसा मेरा अनुमान है।
खैर ! जंगल में पहुँचकर उस ब्राह्मण ने एक गिरे हुए पेड़ के तने पर अपना कुल्हाड़ा चलाना शुरू कर दिया। उसकी किसी लापरवाही से या वैसे ही फाड़ी जाती हुई लकड़ी का एक तेज़ टुकड़ा उसकी जाँघ में जा घुसा। कुल्हाड़ा ब्राह्मण के हाथ से छूट गया। जाँघ में घुसा हुआ वह तेज़ टुकड़ा किसी भाले की नोक से कम कष्टकर नहीं था। बेचारा ब्राह्मण और बेचारा हो विलाप करने लगा। लकड़ी के उस तेज़ टुकड़े को जब उसने जैसे तैसे बाहर खींचा तो खून की धाराएँ उसकी जाँघ से फूट निकलीं, जिन्हें देखते ही वह बेहोश हो गया। संयोगवश उसके गाँव का ही एक हट्टा कट्टा आदमी उधर से गुजर रहा था। वह उसे उठाकर उसके घर छोड़ आया।
उसकी पत्नी उसकी दशा देख घबराई तो बहुत, मन ही मन उसने अपनी किस्मत को भी बहुत कोसा, लेकिन एक कुशल पत्नी की तरह उसने उसी वक्त उसके घाव को साफ पानी से धो डाला और उसकी जाँघ पर साफ पट्टी बाँधने के बाद पहले उसके मुँह पर पानी के छींटे मारे फिर उसे गर्म गर्म दूध पिलाया, और फिर बोली-‘तुम इतने लापरवाह क्यों हो, सभी लोग लकड़ियाँ लेने जंगल में हर रोज जाते हैं, और तो कोई इस तरह घायल होकर नहीं लौटता, मेरी ही किस्मत में तुम जैसा बुद्धू ब्राह्मण क्यों लिखा था !’’
ब्राह्मण जानता था कि यह उसकी ब्राह्मणी का गुस्सा ही नहीं, प्यार भी बोल रहा था, इसलिए वह उसके उलाहने और कटुबोल चुपचाप सुनता रहा और गर्म गर्म दूध पीता रहा। साथ ही साथ यह सोचकर परेशान भी होता रहा कि अगर वह जल्द ही ठीक न हुआ तो उसका घर कैसे चलेगा, ब्राह्मणी दूध वग़ैरह कहाँ से लाएगी, उसकी फाड़ी हुई लकड़ियाँ जंगल से कौन उठाकर लाएगा ? उधर उसकी ब्राह्मणी बेचारी ने उसके इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, फिर भी वह घाव दिन ब दिन और घिनावना होता जा रहा था। और फिर एक दिन उन दोनों ने देखा कि वह घाव नासूर में बदल गया था।
ब्राह्मण बेचारे ने तो मान लिया कि अब उसका बचना मुश्किल है लेकिन उसकी पत्नी उसकी ढाँढस बँधाए रखने में जुटी रही। ब्राह्मण के नासूर की खबर सारे गाँव में फैल चुकी थी।
कुछ लोग तो घर बैठे ही उस पर तरस खाते रहते लेकिन कुछ ऐसे भी थे जो उसके घर जाकर उसे और उसकी पत्नी को हौसला देते, कहते-‘भगवान पर भरोसा रखो, सब ठीक हो जाएगा।’ एक ब्राह्मण ने एक दिन उसकी पत्नी से कहा कि वह एकान्त में उसके पति से बात करना चाहता है। पत्नी को कुछ बुरा तो लगा लेकिन उसने कुछ कहा नहीं, चुपचाप अन्दर चली गई। तब उस ब्राह्मण ने अपने नासूर पीड़ित ब्राह्मण दोस्त से कहा-‘देखो, यज्ञदत्त को तो तुम जानते ही हो, कितना बुरा हाल हुआ करता था उसका फूटी कौड़ी भी नहीं होती थी उसके पास, और अब उसके पास सब कुछ है, लेकिन तुम शायद यह नहीं जानते कि यह सब कुछ उसके पास आया कैसे, तो ध्यान से सुनो मेरी बात, यज्ञदत्त ने पिशाच की साधना से ही सब कुछ पा लिया है, और उसने वह साधना मुझे बता दी है, और मैं तुम्हें बताने के लिए तैयार हूं, इस नासूर का इलाज वह पिशाच ही कर सकता है, तुम वह साधना मुझसे सीख लो।’
ब्राह्मण कुछ क्षण तो पसोपेश में पड़ा रहा, फिर बोला-‘सिखाओ, अपनी जान बचाने के लिए मैं उस पिशाच साधना के लिए भी तैयार हूँ, हालाँकि ब्राह्मण को क़ायदे से ऐसी साधना करनी नहीं चाहिए।’
ब्राह्मण के मित्र ने अपने मित्र की बात को अनसुना करते हुए कहा-‘पहले तो इस मन्त्र को कंठस्थ कर लो, ब्राह्मण हो, आसानी से कर लोगे, फिर रात के पिछले पहर उठना, अपने केशों को खोल देना, अपने सब कपड़े उतार देना, स्नान नहीं करना, दो मुट्ठी चावल हाथों में लेकर मन्त्र का जाप करते हुए चौराहे तक जाना, दो मुट्ठी चावल वहाँ रख देना, मन्त्र जपना बन्द कर देना, और फिर वहाँ से घर लौट आना, एक बात का खास ख्याल रखना कि लौटते समय मुड़कर पीछे नहीं देखना, और जब तक पिशाच प्रकट होकर तुमसे यह कहे नहीं कि वह तुम्हारा घाव भर देगा, तब तक एकदम मौन रहना होगा, अगर गलती से भी कोई शब्द तुम्हारे मुँह से निकल गया तो साधना विफल हो जाएगी।’
नासूर पीड़ित ब्राह्मण ने इसी रात वह सब किया जो उसके मित्र ने करने के लिए कहा था। पिशाच प्रकट हुआ, उसने ब्राह्मण को वचन दिया कि वह उसका घाव भर देगा। तब ब्राह्मण ने उसका अभिनन्दन किया। पिशाच उसी क्षण हिमालय की ओर उड़ गया। वहाँ से वह जो औषधि लाया उससे ब्राह्मण का वह रोग तो कुछ ही क्षणों में दूर हो गया लेकिन अब वह पिशाच एक रोग में बदल गया-उसने ब्राह्मण से आग्रह करना शुरु कर दिया-‘मुझे और घाव चाहिए, जब तक मुझे और घाव नहीं दोगे भरने के लिए, मैं तुम्हारी जान नहीं छोड़ूँगा, तुम्हें मार डालूँगा या कोई और अनर्थ कर डालूँगा, मैं पिशाच हूँ, साधारण वैद वगैरह नहीं, मुझे अब नित नया घाव चाहिए...!’
ब्राह्मण भी परेशान, उसकी पत्नी भी। ब्राह्मण ने पिशाच से कुछ मोहलत माँगी तो वह बोला-‘मैं कल रात आऊँगा, तब तक मेरे लिए नया घाव तैयार रखना, फिर मैं हर रात आया करूँगा, नए घाव के लिए।’ यह कहकर वह तो चला गया, ब्राह्मणी ने अपने पति को कोसना शुरू कर दिया, और मानो अपने उस मूर्ख मित्र की बात, कोई बुद्धिमान ब्राह्मण कभी पिशाच साधना नहीं करता, एक नासूर का इलाज करवा लिया और अब सारी उम्र उस पिशाच के लिए कहाँ से लाओगे नासूर !
खैर ! जंगल में पहुँचकर उस ब्राह्मण ने एक गिरे हुए पेड़ के तने पर अपना कुल्हाड़ा चलाना शुरू कर दिया। उसकी किसी लापरवाही से या वैसे ही फाड़ी जाती हुई लकड़ी का एक तेज़ टुकड़ा उसकी जाँघ में जा घुसा। कुल्हाड़ा ब्राह्मण के हाथ से छूट गया। जाँघ में घुसा हुआ वह तेज़ टुकड़ा किसी भाले की नोक से कम कष्टकर नहीं था। बेचारा ब्राह्मण और बेचारा हो विलाप करने लगा। लकड़ी के उस तेज़ टुकड़े को जब उसने जैसे तैसे बाहर खींचा तो खून की धाराएँ उसकी जाँघ से फूट निकलीं, जिन्हें देखते ही वह बेहोश हो गया। संयोगवश उसके गाँव का ही एक हट्टा कट्टा आदमी उधर से गुजर रहा था। वह उसे उठाकर उसके घर छोड़ आया।
उसकी पत्नी उसकी दशा देख घबराई तो बहुत, मन ही मन उसने अपनी किस्मत को भी बहुत कोसा, लेकिन एक कुशल पत्नी की तरह उसने उसी वक्त उसके घाव को साफ पानी से धो डाला और उसकी जाँघ पर साफ पट्टी बाँधने के बाद पहले उसके मुँह पर पानी के छींटे मारे फिर उसे गर्म गर्म दूध पिलाया, और फिर बोली-‘तुम इतने लापरवाह क्यों हो, सभी लोग लकड़ियाँ लेने जंगल में हर रोज जाते हैं, और तो कोई इस तरह घायल होकर नहीं लौटता, मेरी ही किस्मत में तुम जैसा बुद्धू ब्राह्मण क्यों लिखा था !’’
ब्राह्मण जानता था कि यह उसकी ब्राह्मणी का गुस्सा ही नहीं, प्यार भी बोल रहा था, इसलिए वह उसके उलाहने और कटुबोल चुपचाप सुनता रहा और गर्म गर्म दूध पीता रहा। साथ ही साथ यह सोचकर परेशान भी होता रहा कि अगर वह जल्द ही ठीक न हुआ तो उसका घर कैसे चलेगा, ब्राह्मणी दूध वग़ैरह कहाँ से लाएगी, उसकी फाड़ी हुई लकड़ियाँ जंगल से कौन उठाकर लाएगा ? उधर उसकी ब्राह्मणी बेचारी ने उसके इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, फिर भी वह घाव दिन ब दिन और घिनावना होता जा रहा था। और फिर एक दिन उन दोनों ने देखा कि वह घाव नासूर में बदल गया था।
ब्राह्मण बेचारे ने तो मान लिया कि अब उसका बचना मुश्किल है लेकिन उसकी पत्नी उसकी ढाँढस बँधाए रखने में जुटी रही। ब्राह्मण के नासूर की खबर सारे गाँव में फैल चुकी थी।
कुछ लोग तो घर बैठे ही उस पर तरस खाते रहते लेकिन कुछ ऐसे भी थे जो उसके घर जाकर उसे और उसकी पत्नी को हौसला देते, कहते-‘भगवान पर भरोसा रखो, सब ठीक हो जाएगा।’ एक ब्राह्मण ने एक दिन उसकी पत्नी से कहा कि वह एकान्त में उसके पति से बात करना चाहता है। पत्नी को कुछ बुरा तो लगा लेकिन उसने कुछ कहा नहीं, चुपचाप अन्दर चली गई। तब उस ब्राह्मण ने अपने नासूर पीड़ित ब्राह्मण दोस्त से कहा-‘देखो, यज्ञदत्त को तो तुम जानते ही हो, कितना बुरा हाल हुआ करता था उसका फूटी कौड़ी भी नहीं होती थी उसके पास, और अब उसके पास सब कुछ है, लेकिन तुम शायद यह नहीं जानते कि यह सब कुछ उसके पास आया कैसे, तो ध्यान से सुनो मेरी बात, यज्ञदत्त ने पिशाच की साधना से ही सब कुछ पा लिया है, और उसने वह साधना मुझे बता दी है, और मैं तुम्हें बताने के लिए तैयार हूं, इस नासूर का इलाज वह पिशाच ही कर सकता है, तुम वह साधना मुझसे सीख लो।’
ब्राह्मण कुछ क्षण तो पसोपेश में पड़ा रहा, फिर बोला-‘सिखाओ, अपनी जान बचाने के लिए मैं उस पिशाच साधना के लिए भी तैयार हूँ, हालाँकि ब्राह्मण को क़ायदे से ऐसी साधना करनी नहीं चाहिए।’
ब्राह्मण के मित्र ने अपने मित्र की बात को अनसुना करते हुए कहा-‘पहले तो इस मन्त्र को कंठस्थ कर लो, ब्राह्मण हो, आसानी से कर लोगे, फिर रात के पिछले पहर उठना, अपने केशों को खोल देना, अपने सब कपड़े उतार देना, स्नान नहीं करना, दो मुट्ठी चावल हाथों में लेकर मन्त्र का जाप करते हुए चौराहे तक जाना, दो मुट्ठी चावल वहाँ रख देना, मन्त्र जपना बन्द कर देना, और फिर वहाँ से घर लौट आना, एक बात का खास ख्याल रखना कि लौटते समय मुड़कर पीछे नहीं देखना, और जब तक पिशाच प्रकट होकर तुमसे यह कहे नहीं कि वह तुम्हारा घाव भर देगा, तब तक एकदम मौन रहना होगा, अगर गलती से भी कोई शब्द तुम्हारे मुँह से निकल गया तो साधना विफल हो जाएगी।’
नासूर पीड़ित ब्राह्मण ने इसी रात वह सब किया जो उसके मित्र ने करने के लिए कहा था। पिशाच प्रकट हुआ, उसने ब्राह्मण को वचन दिया कि वह उसका घाव भर देगा। तब ब्राह्मण ने उसका अभिनन्दन किया। पिशाच उसी क्षण हिमालय की ओर उड़ गया। वहाँ से वह जो औषधि लाया उससे ब्राह्मण का वह रोग तो कुछ ही क्षणों में दूर हो गया लेकिन अब वह पिशाच एक रोग में बदल गया-उसने ब्राह्मण से आग्रह करना शुरु कर दिया-‘मुझे और घाव चाहिए, जब तक मुझे और घाव नहीं दोगे भरने के लिए, मैं तुम्हारी जान नहीं छोड़ूँगा, तुम्हें मार डालूँगा या कोई और अनर्थ कर डालूँगा, मैं पिशाच हूँ, साधारण वैद वगैरह नहीं, मुझे अब नित नया घाव चाहिए...!’
ब्राह्मण भी परेशान, उसकी पत्नी भी। ब्राह्मण ने पिशाच से कुछ मोहलत माँगी तो वह बोला-‘मैं कल रात आऊँगा, तब तक मेरे लिए नया घाव तैयार रखना, फिर मैं हर रात आया करूँगा, नए घाव के लिए।’ यह कहकर वह तो चला गया, ब्राह्मणी ने अपने पति को कोसना शुरू कर दिया, और मानो अपने उस मूर्ख मित्र की बात, कोई बुद्धिमान ब्राह्मण कभी पिशाच साधना नहीं करता, एक नासूर का इलाज करवा लिया और अब सारी उम्र उस पिशाच के लिए कहाँ से लाओगे नासूर !
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