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शेष कादम्बरी

अलका सरावगी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :199
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2503
आईएसबीएन :9788126708574

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एक भिन्न स्तर पर रूबी गुप्ता के अपने जीवन की कादम्बरी ढूँढने की प्रचेष्ठा होने के कारण शेष कादम्बरी एक ऐसी औपन्यासिक कृति है जिसमें जीवन और उपन्यास आपस में गड्ड-मड्ड हो जाते हैं। कादम्बरी शायद अपने खिलन्दड़ अन्दाज में नानी की कहानी के बारे में कह सकती है कि वह जीवन ही क्या, जिसमें उपन्यास न हो और वह उपन्यास क्या, जिसमें जीवन न हो।

Shesh kadambari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 ‘‘अब सच पूछो नानी, तो तुम्हारे जीवन में ऐसा क्या खास है कि उस पर कोई कथा लिखी जा सके ? मेरा मतलब है कि तुम्हारे पास हमेशा पैसा था, और कम था, तो भी देश की आधी आबादी से तो बहुत ज्यादा था’- कादम्बरी मीठे स्वर में समझाती हुई बोल रही थी, जैसे उसे भय हो कि रूबी दी को बुरा न लग जाए...’’
अपने होने के अर्थ को सत्तर साल की उम्र में ‘परामर्श’ जैसी संस्था के जरिये अब भी खोजने की कोशिश करती रूबी गुप्ता के ‘सोशल वर्क’ का उनकी नातिन कादम्बरी की दृष्टि में कोई मोल नहीं, क्योंकि कादम्बरी के अखबारी मुहावरे में, उससे कोई ‘सोशल जस्टिस’ हासिल नहीं होता। नानी की कहानी लिखने की कोशिश पर भी कादम्बरी प्रश्नचिह्न लगाती है और इस तरह रूबी दी के लिए अपनी माँ जैसी ही एक कष्टदायक कसौटी बनती जाती है-कादम्बरी, जिसका एक अर्थ कथा या उपन्यास भी है।

खुद कादम्बरी को लाइब्रेरियों, गैजेटियरों में छिपी हुई दुनियाओं को खोज निकालना है और इसके लिए वह चुनती है, 1900 ईस्वी में जनमें रूबी के मामा देवीदत्त के जीवन को-वही देवदत्त, जिन पर शायद प्रेमचन्द्र भी कोई उपन्यास लिखना चाहते थे। रूबी दी को लगता है कि उनकी कथा के सामने देवीदत्त की कथा को रख देना ऐसा है जैसे एक छोटी लकीर के आगे एक बड़ी लकीर खींच देना, और यह भी, कि उनकी ‘आइडेंटिटी क्राइसिस’ जिसकी शुरुआत ग्यारह साल की उम्र में एक सच को जानने से शुरू हुई थी, उनका कभी पीछा नहीं छोड़ेगी।

शायद कादम्बरी के उनके जीवन पर उठाएँ सवालों की ही एक परिणति यह होती है कि रूबी दी समाज कल्याण के ता उम्र माने हुए नियमों को तोड़कर सविता नाम की एक लड़की का ‘सचमुच कल्याण भरने को उद्यत हो जाती हैं-अलबत्ता उनका यह कदम उन्हें एक बार फिर आदमी और आदमी के बीच खड़ी दीवारों तक लाकर छोड़ देता है। दूसरी परिणति होती है अपनी एक रेखीय कथा में कादम्बरी (उपन्यास ?) को पार्टनर बनाने की, क्योंकि शेष कथा वही लिखेगी-अपनी शैली में, जिसे समझना रूबी दी के वश की बात नहीं है।

अलका सरावगी का यह दूसरा उपन्यास एक सदी तक के समय और स्मृतियों के इतिहास के तनाव से नई उत्सुकता जगाता है और साथ ही उपन्यास के परिचित ढाँचे को एक बार फिर तोड़ने की चुनौती भी पैदा करता है। आज के उपभोक्तावादी मूल्यों के बरक्स यह उपन्यास बीती सदी के उदारवादी मूल्यों और जीवन संस्कृति (जिनका एक उत्स सम्भवतः आंग्ल शिक्षा और पश्चाताप सभ्यता से सम्पर्क रहा है) को रखता है, जहाँ वस्तुओं से जीवन में सौन्दर्य और लालित्य का प्रवेश था, महज लालसा का नहीं।

एक भिन्न स्तर पर रूबी गुप्ता के अपने जीवन की कादम्बरी ढूँढने की प्रचेष्ठा होने के कारण शेष कादम्बरी एक ऐसी औपन्यासिक कृति है जिसमें जीवन और उपन्यास आपस में गड्ड-मड्ड हो जाते हैं। कादम्बरी शायद अपने खिलन्दड़ अन्दाज में नानी की कहानी के बारे में कह सकती है कि वह जीवन ही क्या, जिसमें उपन्यास न हो और वह उपन्यास क्या, जिसमें जीवन न हो।

 

ओ गो आमार एई जीबनेर शेष परिपूर्णता...

 

 

मैं, मुसद्दी लाल, वल्द कन्हाई लाल, उम्र तिरपन वर्ष, धर्म से हिन्दू, व्यवसायी; 108 बी, चक्रबेरिया लेन, कलकत्ता-20 का रहने वाला, इस आवेदन के द्वारा पूरी ईमानदारी और विस्तार के साथ यह घोषित करता हूँ-
1.    कि अजय लाल, उम्र बीस वर्ष, मेरी पत्नी ज्ञानवती देवी के पहले पति स्वर्गीय प्रभुदयाल गुप्ता का पुत्र है और ‘सामाजिक विवाह कानून, 1954’ के तहत ज्ञानवती देवी से मेरी शादी के बाद से, यानी 15 जुलाई, 1994 से मेरे साथ रहा है: उस अजय लाल का भविष्य में मेरी सम्पत्ति पर कोई कानूनी हक नहीं रहेगा।
2.    कि उपरोक्त अजय लाल ने कुछ दिनों से सामाजिक कायदों और मर्यादाओं की परवाह न करते हुए एक आवारा किस्म की जिन्दगी चुन ली है। उसके आचरण ने मुझे निरन्तर मानसिक कष्ट पहुँचाया है।
3.    कि इस आवेदन के साथ-साथ अजय लाल ने दिए गए सभी हक, जो उसे मेरे विवाह के एक साल बाद मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए एक आवेदन के द्वारा दिए गए थे, तुरन्त वापस लिए जाते हैं....

रूबी दी ने सादे कागज पर लिखा आवेदन पढ़ते-पढ़ते अपने आश्चर्य को दबाते हुए टेबल के पार बैठी दुबली-साँवली लड़की की ओर अपने हाथ की रेखाओं को देखती हुई उनके पहले प्रश्न का इन्तजार कर रही थी। रूबी दी को जोर की चिढ़ हुई। इस लड़की से पाँच-सात बार मिल लेने के कारण वे इतना जान गई थीं कि यह लड़की कुछ भी कहने के पहले प्रश्न पूछे जाने का इन्तजार करती है और फिर इतना छोटा जवाब देती है कि उससे पूरी बात समझने के लिए कम-से-कम चार प्रश्न और करने पड़ें। लड़की ने अपनी हस्तरेखाओं को अपने पच्चीस-छब्बीस साल के जीवन में शायद हजारवीं बार पढ़कर-या जैसे कि रूबी दी के पिताजी हर बात पर कहा करते था, ‘सतरह सौ साठवीं’ बार पढ़कर-रूबी दी की ओर पिटी हुई निगाहों से देखा। रूबी दी को तुरन्त ग्लानि हुई। छब्बीस सालों से तरह-तरह की दुखियारी, जमाने की मारी, बेचारी औरतों के लिए यह संस्था ‘परामर्श’ चलाकर- जिसे चलाते-चलाते वे खुद अपने लिए तक रूबी गुप्ता से रूबी दी बन गई थीं-अब भी उनमें कितना अधैर्य बचा रह गया था।

‘‘तो तुम्हारे पापा ने तुम्हारी दूसरी माँ-आय मीन टू से-उस दूसरी औरत के लड़के को अपनी चिहुँकते देखकर तुरन्त अपनी गलती सुधारते हुए नरमी से अपना पहला प्रश्न पूछ डाला। उसका जवाब सुनने के लिए उसकी तरफ देखते-देखते वे खुद इस प्रश्न से जूझती रहीं कि इस लड़की का नाम आखिर क्या है ? विनीता, कविता या अमिता ? अब सत्तर की उम्र में स्मृति का यह हाल है । क्या नाम पूछने से इसे बुरा लगेगा ?-रूबी दी सोचती रहीं। क्या पता पिछली बार भी उन्होंने इससे इसका नाम पूछा हो।

लड़की ने न जाने कैसे उनकी परेशानी को भाँप लिया। उसने कहा, ‘‘हाँ, शायद। पापा ने मुझे वकील का कागज देकर कहा, सविता, इसका अंग्रेजी से हिन्दी करना होगा, फिर इसे हिन्दी के किसी अखबार में निकालना पड़ेगा। ऐसा ही वकील ने बोला करने को। आप देखिए ना, हिन्दी ठीक तो है क्या ?’’

सविता नाम की इस लड़की को अपने नाम का अर्थ भी मालूम होगा क्या ?- रूबी दी ने उसकी हिन्दी से कु़ढ़ते हुए सोचा। क्या यह जानती होगी कि गायत्री मन्त्र में इसका नाम है- ‘तत् सवितु: वरेण्यं....।’ सविता यानी सूर्य। पर इस लड़की के जीवन में तो अन्धकार ही अन्धकार है। कहीं कोई प्रकाश नहीं। क्या नाम में सचमुच कुछ नहीं रखा ? वैसे उनके खुद के नाम में क्या आनी-जानी है ? सारी-जिन्दगी वे यही सोचती रही कि उनके अन्दर क्या कुछ भी ऐसा कीमती नहीं कि किसी को वाकई उनकी जरूरत हो ? ऊपर से ऐसा नाम कि लोगों को लगे कि वे क्रिश्चियन हैं। अब किस-किस को बताएँ, कि रूबी गुप्ता में कहीं कोई अंग्रेजी या ऐंग्लो-इण्डियन खून की मिलावट नहीं है-कि उनके सिरफिरे मामा देवीदत्त ने, जिन्होंने कभी शादी नहीं की और जो दूसरे महायुद्ध में अंग्रेजी सेना में भरती होकर लापता हो गए थे और उसके बाद सारे जीवन कभी प्रकट होने और कभी गायब होने का खेल खेलते रहे, उनका नाम अपने किसी असफल प्रेम की याद को जिन्दा रखने के लिए रूबी रख दिया था।

‘‘अनुवाद तो तुमने अच्छा किया है। क्या खुद किया है ?’’ रूबी दी ने सविता को अपनी हस्त रेखाओं में दुबारा डूबने को तैयार देखकर हड़बड़ी में पूछा।
‘‘नहीं, वो मेरी एक दूर की मौसी हैं न, जिन्होंने हिन्दी-विन्दी में एम.ए. किया है......’’ सविता ने धीरे-धीरे कहा।
‘‘वही न, जिन्होंने तुम्हारी शादी उस दुष्ट से करवाई थी’’- रूबी दी ने ठीक काम कर रही अपनी स्मृति के प्रसन्न होते हुए पूछा।

सविता ने एक बार उनकी ओर देखकर आँखें नीची कर लीं। रूबी दी को अचानक आज सुबह यहाँ आते वक्त दिखीं वे दर्जनों मुर्गियाँ याद आई जिन्हें पंजों से बांधकर एक साइकिल वाले ने साइकिल के दोनों तरफ लटका रखा था। कितना कष्ट होता होगा इन मुर्गियों को-क्या मेनका गाँधी ने इन मुर्गियों के लिए कहीं कुछ लिखा है ? एकदम बिना हिले- डुले, बेआवाज, मरी-हुई-सी उलटी लटकी रहती हैं। रूबी दी ने सामने बैठी लड़की को गौर से देखा। कितनी अजीब लड़की है। रूबी दी के समझ में नहीं आया कि सविता के चेहरे पर दिख रही हलकी-सी खिन्नता का कारण उनका अपनी स्मृति पर प्रसन्न होना था या उसके दुष्ट पति को उनका दुष्ट कहना या तथाकथित मौसी पर आरोप लगाना।

इस लड़की में भला ऐसा क्या है दोष है कि कोई इसे अपने अपने साथ नहीं रखना चाहता- न पिता, न बड़े भाई-भाभी, न पति ? रूबी दी को हर बार की तरह आज भी इस बात पर घोर आश्चर्य हुआ-हम लोगों में क्या कभी ऐसा देखा-सुना गया है कि इस तरह जवान लड़की पेइंग-गेस्ट बनकर किसी अनजानी जगह में अकेली पड़ी रहे ? पहले तो हर तीसरे-चौथे घर में कोई-न-कोई दूर की ऐसी रिश्तेदार लड़की रहती हुई मिल जाती थी जिसके अनाथ होने पर या और कोई समस्या होने पर उसके रहने-खाने की जिम्मेदारी ले ली जाती थी और उसका विवाह तक अच्छी तरह दान-दहेज देकर कर दिया जाता था। रूबी दी के अपने चाचा के घर में क्या कम्मों नहीं थी। सबके बटन लगाती, कभी किसी को गमछा पकड़ाती, कभी किसी के बच्चे को नहलाती-सब सारे दिन कम्मो-कम्मो पुकारते रहते। क्या धूम-धाम से उसकी शादी की गई थी ! हालाँकि थीं तो चरित्र की कुछ गड़बड़-एक बार अफवाह उड़ी थी कि उसके बच्चा रह गया था, पर किससे रहा, इस बारे में उसने कभी मुँह नहीं खोला।

रूबी दी ने अपने को एक झटका दिया-यह क्या हो रहा है उनके साथ। ऐसे-ऐसे लोग जब-तब दिमाग में चले आते हैं, जिनके बारे में पिछले चालीस वर्षों में एक बार सोचा तक नहीं; जिनके बारे में सोचने से लगता है कि कहीं वे पिछले जन्म में मिले हुए लोग तो नहीं। लेकिन अच्छा भी लगता है, अपने दिमाग में इन खोए हुए लोगों को फिर से पाकर। वे लोग एकदम अपने लगते हैं- स्मृतियों के सगे लोग। लेकिन अब तो अपने सगे लोग भी निभाव नहीं करते-रूबी दी ने एक लंबी साँस लेकर लड़की की ओर देखा, जो मौका मिलते ही फिर अपनी हस्तरेखाओं में डूब गई थी।

तब और अब। तब और अब। रूबी दी को लगा कि वे अब हर बात को इसी तरीके से बाँटकर देखने लगी हैं। लेकिन तब और अब के बीच कौन-सा साल उन्हें अलग-अलग करता था, यह उन्हें ठीक-ठीक मालूम नहीं। बस कहीं दूर तक पसरा एक ‘तब’ था, जिसमें दुनिया को समझने के लिए कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ती थी और बाकी का ‘अब’ था, जिसमें दुनिया में होने की जरूरत को भी बार-बार समझना पड़ता था। क्या पच्चीस साल पहले पति की मौत के पहले ‘तब’ था और उसके बाद ‘अब’ ? लेकिन वह तो उनके अपने जीवन का ‘तब और अब’ था-उसका बाकी सारी बातों से क्या लेना-देना ? और खासकर इस लड़की से, जो न जाने क्यों उन्हें अपने पिता का कोर्ट में दिया जानेवाला एफेडेविट पढ़ाने आई है।

क्या यह लड़की हस्तरेखाएँ पढ़ना जानती है ? क्या देखती रहती है यह अपने हाथों में ? रूबी दी ने लड़की से हर बार यह प्रश्न पूछना चाहा था और कभी नहीं पूछ पाईं थीं। जिस दुनिया में वे बड़ी हुई थीं, वहाँ इस तरह की कोई निजी बात, जिसको पूछने का कोई विशेष मकसद न हो, किसी से पूछना अमर्यादित व्यवहार था। रूबी दी को आज भी लॉरेटों स्कूल की सिस्टर मार्गरेट की चश्मे से झाँकती बड़ी-बड़ी स्नेह भरी आँखों का फैलकर कठोर हो जाना याद है, जब बारह साल की उम्र में उन्होंने सिस्टर मार्गरेट से पूछ डाला था- ‘वर यू एवर इन लव, सिस्टर ?’ यह उन दिनों की बात है जब वे और वह पारसी लड़की रोशन फिल्म-अभिनेता अशोक कुमार की दीवानी हुआ करती थीं और उसकी फोटो जहाँ-तहाँ से काटकर एक डायरी में चिपकाया करती थीं। सारी लड़किया गुप-चुप सिस्टर मार्गरेट की सुन्दरता पर रीझती हुईं उनके बारे में तरह-तरह के मनगढंत बातें किया करती थीं। जिनमें, लॉरेटो से नजदीक के एक पादरियों के स्कूल तक गुप्त सुरंग होने की खबर भी शामिल थी। रोशन ने सबसे मिलकर शायद उन्हें उकसाने के लिए शर्त बदी थी कि सिस्टर मार्गरेट का बहुत चहेती और मुँह लगी होने के बावजूद रूबी उनसे इस प्रश्न का उत्तर नहीं जान सकेगी।

सिस्टर से कैसे पूछने की हिम्मत हुई थी उनकी, रूबी दी हस्तरेखाओं में डूबी लड़की को देखते हुए सोचती रहीं। आज सोचने पर लगता है कि क्या इस हिम्मत के पीछे वह लम्बी चमकते हुड वाली काली रॉल्स-रॉयस गाड़ी नहीं थी, जिसमें बैठ कर वे रोज स्कूल जाती थीं। वे ठुनककर पिताजी से कहतीं-‘‘हम अब से गाड़ी में नहीं जाएँगे। सब हमारी तरफ देखते हैं।’’ पिताजी मुसकराते।
कहीं-न-कहीं रूबी जानती होती थी कि पिताजी सबके उनकी गाड़ी को देखने की बात पर खुश होते हैं। फिर पिताजी कहते, ‘‘हमारी बेटी हो। हमारी गाड़ी में ही तो स्कूल जाओगी।’’ उसके दिल पर मलहम-सा लग जाता-हाँ पिताजी, मैं आपकी ही बेटी हूँ- उस दिल से आवाज आती। लेकिन फिर तुरन्त दिल बुझ जाता- माँ तो कभी नहीं कहतीं कि हमारी बेटी हो, तो हमारे जैसे घने, घुटने के नीचे तक लम्बे बाल तो होंगे ही। या कि हमारी बेटी हो, तो हमारे जैसा उजला रंग तो होगा ही। गाड़ी में न जाने की बात माँ के कान में यदि पड़ जाती, तो वे यही कहतीं-‘‘तो क्या भिखमंगों की तरह पैदल जाओगी ?’’ या इसी तरह की कुछ जली-कटी, जिसके पीछे छुपा अर्थ रूबी दी को आज भी चीर जाता है-कलकत्ते के सबसे पुराने रईस परिवार का खून तुम्हारे में नहीं है। तुम्हारा खून अलग है।

सिस्टर मार्गरेट ने बाद में रूबी दी को बहुत प्यार से जो सबक दिया था, उसे वे कभी नहीं भूलीं-किसी से कोई ऐसी बात कभी मत पूछो, जिससे वह असुविधा में पड़े। रूबी दी को ऐसा-का-ऐसा याद है जैसे कल की ही बात हो। इन सब को मन-ही-मन दोहराते-दोहराते वे दो दिनों तक इतना रोई थीं कि माँ-पिताजी घबरा गए थे। संयोग से पहले दिन रवीन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु हुई थी, जिनको वे उन दिनों अंग्रेजी में हर समय पढ़ती रहती थीं। शुक्र था कि उन लोगों ने रवीन्द्रनाथ की विराट शव-यात्रा में रोनेवालों में से ही उन्हें एक समझ लिया था। पर सिस्टर मार्गरेट का सबक रूबी दी को कितना महँगा पड़ा था, यह तो रूबी दी जानती हैं या फिर उनका कृष्ण, जिसे बचपन से वे अपने कमरे में बिना थके राधा के साथ झूलते देखती आई हैं। न वे कभी पति से कोई असुविधा जनक प्रश्न पूछ पाईं और न ही अपनी दोनों बेटियों से, जिन्होंने अपने जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण निर्णय में उन्हें शामिल तक नहीं किया।


   

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