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द्वापर

मैथिलीशरण गुप्त

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2507
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है मैथिलीशरण गुप्त साहित्य.....

Dwaper

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

गुप्त जी के काव्य में मानव-जीवन की प्रायः सभी अवस्थाओं एवं परिस्थितियों का वर्णन हुआ है। अतः इनकी रचनाओं में सभी रसों के उदाहरण मिलते हैं। प्रबन्ध काव्य लिखने में गुप्त जी को सर्वाधिक सफलता प्राप्त हुई है। गुप्त जी की प्रसिद्ध काव्य-रचनाएँ-साकेत,यशोधरा,द्वापर,सिद्धराज, पंचवटी, जयद्रथ-वध, भारत-भारती, आदि हैं। भारत के राष्ट्रीय उत्थान में भारत-भारती का योगदान अमिट है।

कर्म-विपाक कंस की मारी
दीन देवकी-सी चिरकाल,
लो, अबोध अन्तःपुरि मेरी !
अमर यही माई का लाल।

चतुर्थावृत्ति की भूमिका


‘द्वापर’ का आरम्भ ‘सुदामा’ को लेकर हुआ था, परन्तु पुस्तक में उसे इस कारण नहीं दिया गया था कि लिखते-लिखते उसे तीन खण्डों में समाप्त करने का विचार किया गया था। पहला खण्ड ‘गोपाल’ दूसरा ‘द्वारकाधीश’ और तीसरा ‘योगिराज’, परन्तु अनेक कारणों से अब तक कुछ न हो सका। आगे भी कोई बड़ी आशा नहीं है। अस्तु, इस बार पुस्तक के अन्त में वह आरम्भ का अंश भी जोड़ दिया गया है।
आशा न होने पर भी लेखक को असन्तोष नहीं। जो कार्य उससे न हो सकेगा, प्रभु चाहेंगे तो वह दूसरे कुशल कृतियों द्वारा और भी अच्छे रूप में सम्पन्न होगा।
चिरगाँव सम्वत्सर 2003 वि.

लेखक

निवेदन


द्वापर के चित्रण के लिए जिस विशाल पट की आवश्यकता है उसकी पूर्ति इन परिमित पृष्ठों से क्या हो सकती है। परन्तु जिस परिस्थिति में यह पुस्तक लिखी गई है, यह लेख जीवन में बहुत संकल्प-विकल्प पूर्ण रही। क्या जानें, इसी कारण से यह नाम आ गया अथवा अन्य किसी कारण से यह भी द्वापर—सन्देह की ही बात है।

श्रीमद्भागवत से दशमस्कन्द के तेइसवें अध्याय में एक कथा है। श्रीकृष्ण अपनी मण्डली के साथ वन में दूर निकल गये थे। वहाँ उनके बन्धुओं को भूख लगी। निकट ही एक स्थान पर यज्ञ हो रहा था। उन्होंने भोजन की प्राप्ति के लिए, उन्हें वहीं भेजा, परन्तु याज्ञिक ब्राह्मणों ने उन्हें दुत्कार दिया। भगवान ने फिर भी उन्हें यज्ञशाला में भेजा, परन्तु इस बार पुरुषों के नहीं स्त्रियों के निकट। वहाँ उनकी अभिलाषा पूरी हो गई। स्त्रियों ने विधिवत् व्यंजन लाकर भगवान को भी भोग अर्पण किया। इसी कथा के अन्तर्गत एक कथा और है। एक ही श्लोक में वह कह दी गई है। एक ब्राह्मण ने बलपूर्वक अपनी वनिता को रोक लिया। नैवेद्य समर्पण तो दूर, वह भगवान के दर्शन भी न पा सकी। इस दुःख से उसने शरीर छोड़ दिया। शुकदेव ने लिखा है

तत्रैका विधृता भर्ता भगवन्तं यथा श्रुतम्
हृदोगुह्य विजहौ देहं कर्मानुबन्धनम्।

इस सम्बन्ध में इतना ही है। खेद है इस ‘विधृता’ का नाम नहीं मिला। अतएव इसके सम्बन्ध की रचना का सही शीर्षक देना पड़ा।
इसी घटना के अनन्तर इन्द्र-यज्ञ छोड़कर गोवर्धन-यज्ञ की कथा आती है और बलराम का भाषण उसी की भूमिका के रूप में है। इसमें सन्देह नहीं, यज्ञों की तत्कालीन परिपाटी से श्रीकृष्ण संतुष्ट न थे, परन्तु पशुबलि के विरोध में ही ‘अन्नकूट’ खड़ा किया गया है या नहीं, यह विद्वानों के विचार का विषय है। लेखक की भावना स्वतन्त्र होकर निराधार नहीं। उसे स्वयं भगवान का बल प्राप्त है

‘‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्ते तांस्तथैव भजाम्याम्।’’

।। श्रीगणेशाय नमः।।
द्वापर
(गोपाल)
मंगलाचरण


धनुर्बाण वा वेणु लो श्याम रूप के संग,
मुझ पर चढ़ने से रहा राम ! दूसरा रंग।

श्रीकृष्ण

राम भजन कर पाँचजन्य ! तू,
वेणु बजा लूँ आज अरे,
जो सुनना चाहे सो सुन ले,
स्वर में ये मेरे भाव भरे—
कोई हो, सब धर्म छोड़ तू
आ, बस मेरा शरण धरे,
डर मत, कौन पाप वह, जिसे
मेरे हाथों तू न तरे ?

राधा

शरण एक तेरे मैं आई,
धरे रहें सब धर्म हरे !
बजा तनिक तू अपनी मुरली,
नाचें मेरे मर्म हरे !
नहीं चाहती मैं विनिमय में
उन वचनों का वर्म हरे !
तुझको—एक तुझी को—अर्पित
राधा के सब कर्म हरे !
यह वृन्दावन, यह वंशीवट,
यह यमुना का तीर हरे !
यह तरते ताराम्बर वाला
नीला निर्मल नीर हरे !
यह शशि रंजित सितघन-व्यंजित
परिचित, त्रिविध समीर हरे !
बस, यह तेरा अंक और यह
मेरा रंक शरीर हरे !
कैसे तुष्ट करेगी तुझको,
नहीं राधिका बुधा हरे !
पर कुछ भी हो, नहीं कहेगी
तेरी मुग्धा मुधा हरे !
मेरे तृप्त प्रेम से तेरी
बुझ न सकेगी क्षुधा हरे !
निज पथ धरे चला जाना तू,
अलं मुझे सुधि-सुधा हरे !
सब सह लूँगी रो-रोकर मैं,
देना मुझे न बोध हरे !
इतनी ही विनती है तुझसे,
इतना ही अनुरोध हरे !
क्या ज्ञानापमान करती हूँ,
कर न बैठना क्रोध हरे !
भूले तेरा ध्यान राधिका,
तो लेना तू शोध हरे !
झुक, वह वाम कपोल चूम ले
यह दक्षिण अवतंस हरे !
मेरा लोक आज इस लय में
हो जावे विध्वंस हरे !
रहा सहारा इस अन्धी का
बस यह उन्नत वंश हरे !
मग्न अथाह प्रेम-सागर में
मेरा मानस-हंस हरे !

यशोदा

मेरे भीतर तू बैठा है,
बाहर तेरी माया;
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
मेरे पति कितने उदार हैं,
गद्गद हूँ यह कहते—
रानी-सी रखते हैं मुझको,
स्वयं सचिव-से रहते।
इच्छा कर झिड़कियाँ परस्पर
हम दोनों हैं सहते,
थपकी-से हैं अहा ! थपेड़े,
प्रेमसिन्धु में बहते।
पूर्णकाम मैं, बनी रहे बस
तेरी छत्रच्छाया।
तेरा दिया राम सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
जिये बाल-गोपाल हमारा,
वह कोई अवतारी;
नित्य नये उसके चरित्र हैं;
निर्भय विस्मयकारी।
पड़े उपद्रव की भी उसके
कब-किसके घर वारी,
उलही पड़ती आप, उलहना
लाती है जो नारी।
उतर किसी नभ का मृगांक-सा
इस आँगन में आया;
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
गायक बन बैठा वह, मुझसे
रोता कण्ठ मिला के;
उसे सुलाती थी हाथों पर
जब मैं हिला हिला के।
जीने का फल पा जाती हूँ,
प्रतिदिन उसे खिला के;
मरना तो पा गई पूतना,
उसको दूध पिला के !
मन की समझ गया वह समझो,
जब तिरछा मुसकाया !
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
खाये बिना मार भी मेरी
वह भूखा रहता है।
कुछ ऊधम करके तटस्थ-सा
मौन भाव गहता है।
आते हैं कल-कल सुनकर वे
तो हँस कर कहता है—
‘देखो यह झूँठा झुँझलाना,
क्या सहता-सहता है !’
हँस पड़ते हैं साथ साथ ही
हम दोनों पति-जाया;
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
मैं कहती हूँ—बरजो इसको,
नित्य उलहना आता,
घर की खाँड़ छोड़ यह बाहर
चोरी का गुड़ खाता।
वे कहते हैं—‘आ मोहन अब
अफरी तेरी माता;
स्वादु बदलने को न अन्यथा
मुझे बुलाया जाता !’
वह कहता है ‘तात, कहाँ-कब
मैंने खट्टा खाया ?’
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
मेरे श्याम-सलौने की है,
मधु से मीठी बोली ?
कुटिल-अलक वाले की आकृति
है क्या भोली-भाली
मृग से दृग हैं, किन्तु अनी-सी
तीक्ष्ण दृष्टि अनमोली,
बड़ी कौन-सा बात न उसने
सूक्ष्म बुद्धि पर तोली ?
जन्म-जन्म का विद्या-बल है
संग संग वह लाया;
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
उसका लोकोत्तर साहस सुन,
प्राण सूख जाता है;
किन्तु उसी क्षण उसके यश का
नूतन रस पाता है
अपनों पर उपराग देखकर
वह आगे आता है;
उलझ नाग से, सुलझ आग से,
विजय-भाग लाता है।
‘धन्य कन्हैया, तेरी मैया !’
आज यही रव छाया,
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
काली-दह में तू क्यों कूदा,
डाँटा तो हँस बोला—
‘‘तू कहती थी और चुराना
तुम मक्खन का गोला।
छींके पर रख छोड़ेगी सब
अब भिड़-भरा मठोला !’
निकल उड़ीं वे भिड़ें प्रथम ही,
भाग बचा मैं भोला !’’
बलि जाऊँ ! बंचक ने उल्टा
मुझको दोष लगाया;
तेरा दिया राम, सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
उसे व्यापती है तो केवल
यही एक भय-बाधा—
‘कह दूँगी, खेलेगी तेरे
संग न मेरी राधा।
भूल जायगा नाच-कूद सब
धरी रहेगी धा-धा।
हुआ तनिक उसका मुँह भारी
और रहा तू आधा !’
अर्थ बताती है राधा ही,
मुरली ने क्या गाया,
तेरा दिया राम सब पावें,
जैसा मैंने पाया।
बचा रहे वृन्दावन मेरा,
क्या है नगर-नगर में !
मेरा सुरपुर बसा हुआ है
ब्रज की डगर-डगर में।
प्रकट सभी कुछ नटनागर की
जगती जगर-मगर में;
कालिन्दी की लहर बसी है
क्या अब अगर-तगर में।
चाँदी की चाँदनी, धूप में
जातरूप लहराया;

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