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झंकार

मैथिलीशरण गुप्त

प्रकाशक : साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2527
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है झंकार काव्य-संग्रह...

jhankar-

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निर्बल का बल

निर्बल का बल राम है।
हृदय ! भय का क्या काम है।।

राम वही कि पतित-पावन जो
    परम दया का धाम है,
इस भव – सागर से उद्धारक
    तारक जिसका नाम है।
हृदय, भय का क्या काम है।।

तन-बल, मन-बल और किसी को
    धन-बल से विश्राम है,
हमें जानकी – जीवन का बल
    निशिदिन आठों याम है।
हृदय, भय का क्या काम है।।


झंकार


इस शरीर की सकल शिराएँ
    हों तेरी तन्त्री के तार,
आघातों की क्या चिन्ता है,
    उठने दे ऊँची झंकार।
नाचे नियति, प्रकृति सुर साधे,
    सब सुर हों सजीव, साकार,
देश देश में, काल काल में
    उठे गमक गहरी गुंजार।
कर प्रहार, हाँ, कर प्रहार तू
    मार नहीं यह तो है प्यार,
प्यारे, और कहूँ क्या तुझसे,
    प्रस्तुत हूँ मैं, हूँ तैयार।
मेरे तार तार से तेरी
    तान तान का हो बिस्तार।
अपनी अंगुली के धक्के से
    खोल अखिल श्रुतियों के द्वार।
ताल ताल पर भाल झुका कर
    मोहित हों सब बारम्बार,
लय बँध जाय और क्रम क्रम से
    सम में समा जाय संसार।।


विराट-वीणा



    तुम्हारी वीणा है अनमोल।।
हे विराट ! जिसके दो तूँबे
    हैं   भूगोल  -  खगोल।

दया-दण्ड पर न्यारे न्यारे,
चमक रहे हैं प्यारे प्यारे,
कोटि गुणों के तार तुम्हारे,
    खुली प्रलय की खोल।
    तुम्हारी वीणा है अनमोल।।

हँसता है कोई रोता है—
जिसका जैसा मन होता है,
सब कोई सुधबुध खोता है,
    क्या विचित्र हैं बोल।
    तुम्हारी वीणा है अनमोल।।

इसे बजाते हो तुम जब लों,
नाचेंगे हम सब तब लों,
चलने दो-न कहो कुछ कब लों,-
    यह क्रीड़ा  -  कल्लोल।
    तुम्हारी वीणा है अनमोल।।


अर्थ



कुछ न पूछ, मैंने क्या गाया
    बतला कि क्या गवाया ?
जो तेरा अनुशासन पाया
    मैंने   शीश   नवाया।
क्या क्या कहा, स्वयं भी उसका
    आशय  समझ  न  पाया,
मैं इतना ही कह सकता हूँ—
    जो  कुछ  जी  में  आया।
जैसा वायु बहा वैसा ही
    वेणु – रन्ध्र – रव छाया;
जैसा धक्का लगा, लहर ने
    वैसा  ही  बल  खाया।
जब तक रही अर्थ की मन में
    मोहकारिणी           माया,
तब तक कोई भाव भुवन का
    भूल  न  मुझको  भाया।
नाचीं कितने नाच न जानें
    कुठपुतली  -  सी   काया,
मिटी न तृष्णा, मिला न जीवन,
    बहुतेरे     मुँह     बाया।
अर्थ भूल कर इसीलिए अब,
    ध्वनि  के  पीछे  धाया,
दूर किये सब बाजे गाजे,
    ढूह  ढोंग  का  ढाया।
हृत्तन्त्री का तार मिले तो
    स्वर  हो  सरस  सवाया,
और समझ जाऊँ फिर मैं भी—
    यह  मैंने  है  गाया।।


बाल-बोध



वह बाल बोध था मेरा  
निराकार निर्लेप भाव में
    भान हुआ जब तेरा।
तेरी मधुर मूर्ति, मृदु ममता,
रहती नहीं कहीं निज समता,
करुण कटाक्षों की वह क्षमता,
    फिर जिधर भव फेरा;
अरे सूक्ष्म, तुझमें विराट ने
    डाल दिया है डेरा।
    वह बाल-बोध था मेरा ।।
पहले एक अजन्मा जाना,
फिर बहु रूपों में पहचाना,
वे अवतार चरित नव नाना,
        चित्त हुआ चिर चेरा;
निर्गुण, तू तो निखिल गुणों का
        निकला वास  -  बसेरा।
        वह बाल-बोध था मेरा।

डरता था मैं तुझसे स्वामी,
किन्तु सखा था तू सहगामी,
मैं भी हूँ अब क्रीड़ा-कामी,
        मिटने लगा अँधेरा;
दूर समझता था मैं तुझको
        तू समीप हँस-हेरा।
        वह बाल-बोध था मेरा।

अब भी एक प्रश्न था--कोऽहं ?
कहूँ कहूँ जब तक दासोऽहं
तन्मयता बोल उठी सोऽहं !
        बस हो गया सवेरा;
दिनमणि के ऊपर उसकी ही
        किरणों का है घेरा
        वह बाल-बोध था मेरा।।


रमा है सबमें राम



रमा है सबमें राम,
वही सलोना श्याम।

जितने अधिक रहें अच्छा है
        अपने  छोटे  छन्द,
अतुलित जो है उधर अलौकिक
        उसका   वह   आनन्द
    लूट लो, न लो विराम;
    रमा है सबमें राम।

अपनी स्वर-विभिन्नता का है
        क्या ही रम्य रहस्य;
बढ़े राग-रञ्जकता उसकी
        पाकर    सामञ्जस्य।
    गूँजने दो भवधान,
    रमा है सबमें राम।

बढ़े विचित्र वर्ण वे अपने
        गढ़ें स्वतन्त्र चरित्र;
बने एक उन सबसे उसकी
        सुन्दरता  का  चित्र।
    रहे जो लोक ललाम,
    रमा है सबमें राम।

अयुत दलों से युक्त क्यों न हों
        निज  मानस  के   फूल;
उन्हें बिखरना वहाँ जहाँ है
        उस  प्रिय  की  पद-धूल।
    मिले बहुविधि विश्राम,
    रमा है सबमें राम।
अपनी अगणित धाराओं के
        अगणित हों विस्तार;
उसके सागर का भी तो है
    बढ़ो बस आठों याम,
    रमा है सबमें राम।

हुआ एक होकर अनेक वह
        हम  अनेक  से  एक,
वह हम बना और हम वह यों
        अहा !  अपूर्व  विवेक।
    भेद का रहे न नाम,
    रमा है सबमें राम।


बन्धन



सखे, मेरे बन्धन मत खोल,
आप बँधा हूँ आप खुलूँ मैं,
    तू   न   बीच   में   बोल।

जूझूँगा, जीवन अनन्त है,
    साक्षी  बन  कर  देख,
और खींचता जा तू मेरे
    जन्म-कर्म   की   रेख।

        सिद्धि का है साधन ही मोल,
        सखे, मेरे बन्धन मत खोल।

खोले-मूँदे प्रकृति पलक निज,
    फिर  एक  दिन  फिर  रात,
परमपुरुष, तू परख हमारे
    घात     और     प्रतिघात।
        उन्हें निज दृष्टि-तुला पर तोल,
        सखे, मेरे बन्धन मत खोल।

कोटि कोटि तर्कों के भीतर
    पैठी   तैरी   युक्ति,
कोटि-कोटि बन्धन-परिवेष्टित
    बैठी    मेरी    मुक्ति,
        भुक्ति से भिन्न, अकम्प, अडोल,
        सखे, मेरे बन्धन मत खोल।

खींचे भुक्ति पटान्त पकड़ कर
    मुक्ति    करे    संकेत,
इधर उधर आऊँ जाऊँ मैं
    पर   हूँ   सजग   सचेत।
        हृदय है क्या अच्छा हिण्डोल,
        सखे, मेरे बन्धन मत खोल।

तेरी पृथ्वी की प्रदक्षिणा
    देख  रहे  रवि सोम,
वह अचला है करे भले ही
    गर्जन   तर्जन   व्योम।
        न भय से, लीला से हूँ लोल,
        सखे, मेरे बन्धन मत खोल।

ऊबेगा जब तक तरा जा
    देख  देख  यह  खेल,
हो जावेगा तब तक मेरी
    भुक्ति-मुक्ति   का   मेल।
        मिलेंगे हाँ, भूगोल-खगोल,
        सखे, मेरे बन्धन मत खोल।।


असन्तोष



            नहीं, मुझे सन्तोष नहीं।
            मिथ्या मेरा घोष नहीं।
वह देता जाता है ज्यों ज्यों,
लोभ वृद्धि पाता है त्यों त्यों,
    नहीं  वृत्ति-घातक  मैं,
    उस घन का चातक मैं,
            जिसमें रस है रोष नहीं।
            नहीं, मुझे सन्तोष नहीं।
पाकर वैसा देने वाला—
शान्त रहे क्या लेने वाला ?
    मेरा मन न रुकेगा,
    उसका मन न चुकेगा,
            क्या वह अक्षय-कोष नहीं ?
            नहीं, मुझे सन्तोष नहीं।

माँगू क्यों न उसी को अब,
एक साथ पाजाऊँ सब,
    पूरा दानी जब हो
    कोर-कसर क्यों तब हो ?
            मेरा कोई दोष नहीं।
            नहीं, मुझे सन्तोष नहीं।


जीवन का अस्तित्व


जीव, हुई है तुझको भ्रान्ति;
शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !

अरे, किवाड़ खोल, उठ, कब से
        मैं  हूँ  तेरे  लिए  खड़ा,
सोच रहा है क्या मन ही मन
        मृतक-तुल्य  तू  पड़ा  पड़ा।
    बढ़ती ही जाती है क्लान्ति,
    शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !
अपने आप घिरा बैठा है
        तू छोटे से घेरे में,
नहीं ऊबता है क्या तेरा
        जी भी इस अन्धेरे में ?
    मची हुई है नीरव क्रान्ति,
    शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !

द्वार बन्द करके भी तू है
        चैन नहीं पाता डर से,
तेरे भीतर चोर घुसा है,
        उसको तो निकाल घर से।
    चुरा रहा है वह कृति-कान्ति,
    शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !

जिस जीवन के रक्षणार्थ है
        तूने यह सब ढंग रचा,
होकर यों अवसन्न और जड़
        वह पहले ही कहाँ बचा ?
    जीवन का अस्तित्व अशान्ति,
    शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !

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