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जनसंख्या प्रदूषण और पर्यावरण

हरिशचन्द्र व्यास

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2571
आईएसबीएन :81-85828-22-9

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जनसंख्या प्रदूषण और पर्यावरण पर आधारित पुस्तक...

Janshnakya Pradushan Aur Paryavaran

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बिगड़ते पर्यावरण का प्रमुख कारण द्रुतगति ये बढ़ती जनसंख्या है, जिसकी प्राथमिक आवश्यक्ताओं की पूर्ती नहीं हो पा रही है। इसके लिए आधुनिक विज्ञान की तकनीक का अत्यधिक इस्तेमाल किया जा रहा है। जिसमें पर्यावरण प्रदूषण हो रहा है। मानव युद्ध शुद्ध पर्यावरण के लिए हमें इकोनामी एवं इकोलाजी को संतुलित करना होगा। इन कठिन समस्याओं के बारे में हिन्दी में पर्याप्त साहित्य उपलब्ध नहीं है। परिणाम स्वरूप हमें सही ढंग से सोचने व जन समुदाय को प्रशिक्षण करने का अवसर नहीं मिल पा रहा है।

जनसंख्या प्रदूषण और पर्यावरण पुस्तक में लेखक ने कड़ी मेहनत कर गम्भीर समस्याओं के कारणों और निदान को सरल ढंग से प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। उन्होंने मानव मूल्यों का पर्यावरण के सापेक्ष में सुन्दर ढंग से आकलन किया है। नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों के जीवन का विभिन्न पहलुओं में पर्यावरण से क्या सम्बन्ध रहा है , इसको अनुपम एव सरल ढंग से इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है। इस औद्योगिक युग में प्रकृति को नष्ट करके मानव अधिकतम सुख सुविधाएँ प्राप्त कर रहा है, जो उसके अस्तित्व के लिए चिन्ता का कारण हो सकती है।

यह पुस्तक न केवल परिस्थिति की विज्ञान व पर्यावरण को सैद्धान्तिक रूप से समझने में सहायक होगी बल्कि पर्यावरण के संरक्षण एवं इष्टम उपयोग (Optinization) से भी पाठकों को अवगत कराएगी

भूमिका


प्रदूषण आज सारी दुनिया के लिए एक जटिल समस्या बन गई है। गत 5 जून को पर्यावरण दिवस पर रेडियो, टी. वी., पत्र-पत्रिकाओं में इसके बारे में बहुत कुछ सुनने-देखने को मिला परन्तु जन-साधारण को इस विषय में बहुत कम जानकारी है। मशीनी युग में हमारा वातावरण काफी़ दूषित हो चुका है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम वायु, जल, थल, ध्वनि, नाभिकीय प्रदूषण आदि के बारे में जन-साधारण को सचेत करें और इसके खतरों से उन्हें बचाने की कोशिश करें।
 
‘जनसंख्या प्रदूषण एवं पर्यावरण’ लेखक श्री हरिश्चन्द्र व्यास की एक नयी पुस्तक है जिसमें पर्यावरण पर बहुत गम्भीरतापूर्वक विचार किया गया  है वरण और प्रदूषण अध्ययन में वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, थल प्रदूषण, प्रदूषण और नाभिकीय प्रदूषण पर प्रकाश डाला गया है। वायु प्रदूषण का खराब प्रभाव जीवधारियों पर पड़ता है। इसके नियन्त्रण हेतु कई उपाय लेखक ने बताये हैं जिस तरह जल प्रदूषण से कई बीमारियाँ हो जाती हैं जिनसे बचने के लिए कई सुझाव लेखक ने दिए हैं। भू-प्रदूषण से बचने के लिए भूमि के कटाव की जरूरत है। ध्वनि प्रदूषण तो बहुत बड़ा अभिशाप बन गया है बढ़ती संख्या, उद्योगों को विकास और आवागमन से बढ़ते साधनों ने इस समस्या को और बढ़ा दिया है। लाउडस्पीकरों के शोर पर नियंत्रण करना जरूरी हो इसी प्रकार परमाणु विखण्डन या नाभिकीय प्रदूषण ने रेडियो-एक्टिव’ के माध्यम से हमारा बहुत नुकसान किया है। आज परमाणु परिक्षणों/ विस्फोटों पर रोक लगाये जाने की बहुत आवश्यकता है।

‘प्रदूषण और स्वास्थ्य’ अध्याय में लेखक ने प्रकृति और मानव जीवन की एकता पर बल दिया है। खाने-पीने की चीजों में सूक्ष्म जीवों के प्रवेश से विषाक्तता पैदा हो जाती है। इंजाइमल वैक्टीरिया, फफूँदी, अधिक नमी आदि से हमारे शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इन सब चीजों का ज्ञान हर एक को होना चाहिए। इसलिए संरक्षण का महत्त्व हर एक को जानना चाहिए। इसका मतलब यह है कि हम कुदरती सम्पदाओं को बनाये रखें और उसका सदुपयोग भी करें। वन संरक्षण पर आज बहुत बल दिया जा रहा है क्योंकि जंगलों की बेतहाशा कटाई से कई समस्याएं उत्पन्न हो गईं हैं। वृक्षारोपण को राष्ट्रीय कार्यक्रम मानकर ही चलना चाहिए। इसके साथ वन्य जीवों का संरक्षण भी आवश्यक है।

संस्कृति और पर्यावरण का घनिष्ठ सम्बन्ध है। संस्कृति मानवीय चेतना से जुड़ी है। भारत  की भौगोलिक रूपरेखा ने देश की सांस्कृतिक एकता को बनाये रखने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की है। यज्ञ, अग्नि, तुलसी आदि का सम्बन्ध पर्यावरण की शुद्धि से ही है। इसी प्रकार कला और सौंदर्य को भी पर्यावरण के संदर्भ में देखने की कोशिश इस पुस्तक में की गई है।
पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य के अस्तित्व से जुड़ा है। इसलिए हमें इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। जनसंख्या के विस्फोट ने हमारी कई योजनाओं पर पानी फेर दिया है। धरती अब खेती लायक नहीं रह गयी है। जबकि हमारी अर्थ व्यवस्था का आधार ही खेती है। ग्रामीण लोगों को सौर ऊर्जा, बायोगैस, निर्धूम चूल्हे व पवन चक्कियों को जल्दी अपनाना चाहिए, जिससे प्रदूषण पर नियंत्रण हो सके।

धरती पर सुरक्षा और देश की खुशहाली के लिए पर्यावरण-संतुलन बनाये रखने हेतु हमें राष्ट्रीय अभियान के रूप में हरसंभव प्रयास करना चाहिए। यह पुनीत कार्य शासन एवं स्वयंसेवी संस्थानों को मिल-जुलकर करने की आवश्यकता है मुझे विश्वास है कि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में इस पुस्तक की महत्ता स्वयंसिद्ध है।

प्राक्कथन


वर्तमान जीव-स्वरूप का विकाश लगभग तीन अरब वर्ष पूर्व हुआ। यह विकास बदलते हुए पर्यावरण में जाति-उद्भवन (Speciation) एवं विलोपन का (Extinction) के आधार पर हुआ। जीव तथा उसका  पर्यावरण प्रकृति के एक तंत्र के रूप में सह-संतुलन कायम करते हैं।

प्रकृति एक निश्चित नियमबद्धता से कार्य करती है। ऐसी दशा को यदि उसके किसी अवयव या क्रिया के साथ जबरदस्ती हो तो पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ जाता है। अतएव औद्योगीकरण में प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग बुद्धियुक्त व न्यायसंगत होना चाहिए।

इस क्षेत्र में बढ़ते हुए ज्ञान के साथ नवीन जानकारियों से युक्त पुस्तकों का आभाव बराबर महसूस होता रहा है। इस पुस्तक में डा. हरिश्चन्द्र व्यास ने कठोर परिश्रम व उद्भट विद्वता से इसमें नयी जानकारियाँ दी हैं। विषय-विवेचन संक्षिप्त एवं सुगठित है। लेखन-शैली सरल, सुन्दर , स्वाभाविक एवं विशिष्ट है। लेखक ने मानव मूल्यों का पर्यावरण-सापेक्ष आकलन बड़े सुन्दर ढंग से किया है। मानव भूतकाल में अपने पर्यावरण से कैसे साहचर्य बनाए रखता था और तब धर्म का जीवन के विभिन्न पहलुओं से क्या संबंध था, इसका तर्कपूर्ण विवेचन इस पुस्तक में दिया गया है। विद्यार्थियों एवं जनसाधारण में पर्यावरण के बारे में चेतना जाग्रत करने का डॉ. व्यास का यह प्रयास स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने योग्य है।

आज के औद्योगिक युग में मानव प्रकृति का दोहन कर सुख सुविधाएं जुटाना चाहता है; किंतु उसका यह अंध-प्रयास खुद उसके अस्तित्व के लिए खतरा बन सकता है। इस मत को लेखक ने इस पुस्तक में बड़े वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया है।
मुझे विश्वास है कि यह पुस्तक न केवल पारिस्थितिकी विज्ञान व पर्यावरण को ही सैद्धांतिक रूप से समझने में उपयोगी होगी, बल्कि पर्यावरण के संरक्षण एवं इष्टतम उपयोग से भी उन्हें अवगत कराएगी।

सुनिश्चित तकनीकी शब्दों का अभाव होने के कारण हिन्दी में विज्ञान की पुस्तक लिखना कठिन कार्य है। इस दृष्टि से भी डॉ. व्यास का इसे हिन्दी में प्रस्तुत करना विशेष सराहनीय है।
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
जीव-विज्ञान विभाग
सौराष्ट्र विश्वविद्यालय, राजकोट -एस. सी, पांडेय

पर्यावरण और उसका प्रदूषण


पर्यावरण शब्द दो शब्दों परि+आवरण से मिलकर बना है जिसका अर्थ परि=चारों ओर, आवरण=घेरा, यानि हमें चारों ओर से घेरने वाला पर्यावरण ही है। प्राचीन काल में मानव बहुत सीधा-सादा जीवन व्यतीत करता था, उस समय पर्यावरण के बारे में इतना सब नहीं समझता था लेकिन मानव ने जब से उत्पादन-क्षमता बढ़ाई है, विश्व में पर्यावरण की एक नई समस्या उभरकर सामने आई है। मनुष्य ने पर्यावरण को जब तक अपने हिस्सेदार की तरह समझकर अनुकूल रखा तो लाभ भी लिया। लेकिन जब से मानव ने पर्यावरण के साथ अल्पावधि लाभ हेतु इसके साथ छेड़छाड़ की और अदूरदर्शिता से प्राकृतिक सम्पदाओं का उपयोग किया और उसे नष्ट किया है तभी से वातावरण में अवांछित परिवर्तन हुए जिसके बारे में मानव ने कभी सोचा नहीं और यह हानि उठानी पड़ी है।

मानव ने बिना सोच-विचार के अपनी सुविधा हेतु मोटर-वाहनों का प्रयोग, औद्योगीकरण, कृषि, जनसंख्या वृद्धि, बढ़ती आवश्यकताएँ, वनों की कटाई, वन्य जीवों का शिकार, प्लास्टिक उद्योग, परमाणु परीक्षण आदि से वातावरण में अनचाहे परिवर्तन हुए हैं और हमारी भूमि, जल व वायु के भौतिक, रासायानिक व जैविक गुणों में ऐसा परिवर्तन हुआ है जो कि पूरी मानव सभ्यता के लिए अलाभकारी सिद्ध हुआ है।

आज यदि हम पर्यावरण की सच्चाई से जाँच करें तो हमें सच का पता लग जायेगा कि मनुष्य ने जिस गति से मशीनीकरण के युग में पैर रखा है तभी से हमारे वातावरण पर बुरा प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा। हमारा देश भारत जहाँ पुराने समय में प्रकृति का स्वच्छ स्थान माना जाता था साथ ही प्रकृति की हम पर अपार कृपा थी। यहाँ पर पेड़-पौधे, वन्य जीव काफी संख्या में पाए जाते थे। वनों का क्षेत्रफल भी अधिक था लेकिन मानव ने अपने स्वार्थ से वशीभूत  होकर अपने हाथों से जिस बेरहमी से प्रकृति को नष्ट किया है उसी से प्रदूषण की गम्भीर समस्या उत्पन्न हुई है। मानव के क्षणिक लाभ के आगे हमारी पवित्र गंगा-यमुना नदी भी नहीं बच पायी। अतः कहा जा सकता है कि मानव ने जिस तरह प्रकृति या पर्यावरण के ऊपर अपने क्रूर हाथ चलाए हैं उससे प्रकृति तो नष्ट हुई है परन्तु मानव भी सुरक्षित नहीं रह सका। मानव ने अपने क्रूर हाथों से अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। यह सच है कि मानव जीवन-हेतु साफ-सुथरा पर्यावरण अति आवश्यक है और पर्यावरण प्रकृति का अनुशासन है, जब यह अनुशासन भंग होगा तो सन्तुलन बिगडे़गा और सन्तुलन बिगड़ने पर प्रदूषण उत्पन्न होगा।

प्रदूषण


पर्यावरण के अंगों जल, थल, नभ, वायु आदि में ऐसा परिवर्तन जो कि उपरोक्त अंगों के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों में परिवर्तित कर दें, प्रदूषण कहलाता है। प्रदूषण निम्न प्रकार के होते हैं-
1.    वायु प्रदूषण,
2.    जल प्रदूषण,
3.    भू प्रदूषण या थल प्रदूषण,
4.    ध्वनि प्रदूषण,
5.    परमाणु विखण्डन या नाभिकीय प्रदूषण।

वायु प्रदूषण


वायुमण्डल पर्यावरण का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। मानव जीवन के लिए वायु का होना अति आवश्यक है। वायुरहित स्थान पर मानव जीवन की कल्पना करना करना भी बेकार है क्योंकि मानव वायु के बिना 5-6 मिनट से अधिक जिन्दा नहीं रह सकता। एक मनुष्य दिन भर में औसतन 20 हजार बार श्वास  लेता है। इसी श्वास के दौरान मानव 35 पौण्ड वायु का प्रयोग करता है। यदि यह प्राण देने वाली वायु शुद्ध नहीं होगी तो यह प्राण देने के बजाय प्राण ही लेगी।

पुराने समय में मानव के आगे वायु प्रदूषण जैसी समस्या सामने नहीं आई क्योंकि प्रदूषण का दायरा सीमित था साथ ही प्रकृति भी पर्यावरण को संतुलित रखने का लगातार प्रयास करती रही। उस समय प्रदूषण सीमित होने के कारण प्रकृति ही संतुलित कर देती थी लेकिन आज मानव विकास के पथ पर अग्रसर है और उत्पादन क्षमता बढ़ा रहा है। मानव ने अपने औद्योगिक लाभ हेतु बिना सोचे-समझे प्राकृतिक साधनों को नष्ट किया जिससे प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ने लगा और वायुमंडल भी इससे न बच सका। वायु प्रदूषण केवल भारत की समस्या हो ऐसी बात नहीं, आज विश्व की अधिकांश जनसंख्या इसकी चपेट में है।

हमारे वायुमण्डल में नाइट्रोजन, आक्सीजन, कार्बन डाई आक्साइड, कार्बन मोनो आक्साइड आदि गैस एक निश्चित अनुपात में उपस्थित रहती हैं। यदि इनके अनुपात के सन्तुलन में परिवर्तन होते हैं तो वायुमण्डल अशुद्ध हो जाता है, इसे अशुद्ध करने वाले प्रदूषण कार्बन डाई आक्साइड, कार्बन मोनो आक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड, हाइड्रोकार्बन, धूल मिट्टी के कण हैं जो वायुमण्डल को प्रदूषित करते हैं।

वायु प्रदूण के कारण


विश्व की बढ़ती जनसंख्या ने प्राकृतिक साधनों का अधिक उपयोग किया है। औद्योगीकरण से बड़े-बड़े शहर बंजर बनते  जा रहे हैं। इन शहरों व नगरों की जनसंख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, इससे शहरों व नगरों में आवास-समस्या उत्पन्न हो गई है। इस आवास-समस्या को सुलझाने के लिए लोगों ने बस्तियों का निर्माण किया और वहाँ पर जल-निकासी, नालियों आदि की समुचित व्यवस्था नहीं होने से गन्दी बस्तियों ने वायुप्रदूषण को बढ़ावा दिया है। उद्योगों से निकलने वाला धुआँ, कृषि में रासायनों के उपयोग से भी वायु प्रदूषण बढ़ा है। साथ ही कारखानों की दुर्घटना भी भयंकर होती है। भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने की दुर्घटना गत वर्षों की बड़ी दुर्घटना थी जिससे एक ही समय हजारों व्यक्तियों को असमय मरना पड़ा था और जो जिन्दा रहे वो भी  विकंलाग और विकृत होकर इस दुर्घटना या गैस त्रासदी की कहानी बताते हैं।

आवागमन के साधनों की वृद्धि आज बहुत अधिक हो रही है। इन साधनों की वृद्धि से इंजनों, बसों, वायुयानों, स्कूटरों आदि की संख्या बहुत बढ़ी है। इन वाहनों से निकलने वाले धुएँ वायुमण्डल में लगातार मिलते जा रहे हैं जिससे वायुमण्डल में असन्तुलन हो रहा है।

वनों की कटाई से वायु प्रदूषण बढ़ा है क्योंकि वृक्ष वायुमण्डल के प्रदूषण को निरन्तर कम करते हैं। पौधे हानिकारक प्रदूषण गैस कार्बन डाई आक्साइड को अपने भोजन के लिए ग्रहण करते हैं और जीवनदायिनी गैस आक्सीजन प्रदान करते हैं, लेकिन मानव ने आवासीय एवं कृषि सुविधा हेतु इनकी अन्धाधुन्ध कटाई की है और हरे पौधों की कमी होने से वातावरण को शुद्ध करने वाली क्रिया जो प्रकृति चलाती है, कम हो गई है।
परमाणु परीक्षण से नाभिकीय कण वायुमण्डल में फैलते हैं जो कि वनस्पति व प्राणियों पर घातक प्रभाव डालते हैं।

वायु प्रदूषण के प्रभाव


1.    यदि वायुमण्डल में लगातार अवांछित रूप से कार्बन डाइ आक्साइड, कार्बन मोनो आक्साइड, नाइट्रोजन, आक्साइड, हाइड्रो कार्बन आदि मिलते रहें तो स्वाभाविक है कि ऐसे प्रदूषित वातावरण में श्वास लेने से श्वसन सम्बन्धी बीमारियाँ होंगी। साथ ही उल्टी घुटन, सिर दर्द, आँखों में जलन आदि बीमारियाँ होनी सामान्य  बात है।

2.    वाहनों व कारखानों से निकलने वाले धुएँ में सल्फर डाइ आक्साइड की मात्रा होती है जो कि पहले सल्फाइड व बाद में सल्फ्यूरिक अम्ल (गंधक का अम्ल) में परिवर्तित होकर वायु में बूदों के रूप में रहती है। वर्षा के दिनों में यह वर्षा के पानी के साथ पृथ्वी पर गिरती है जिसमें भूमि की अम्लता बढ़ती है और उत्पादन-क्षमता कम हो जाती है। साथ ही सल्फर डाइ आक्साइड से दमा रोग हो जाता है।

3.    कुछ रासायनिक गैसें वायुमण्डल में पहुँच कर वहाँ ओजोन मण्डल से क्रिया कर उसकी मात्रा को कम करती हैं। ओजोन मण्डल अन्तरिक्ष से आने वाले हानिकारक विकरणों को अवशोषित करती है। हमारे लिए ओजोन मण्डल ढाल का काम करता है लेकिन जब ओजोन मण्डल की कमी होगी तब त्वचा कैंसर जैसे भयंकर रोग से ग्रस्त हो सकती है।

4.    वायु प्रदूषण से भवनों, धातु व स्मारकों आदि का क्षय होता है। ताजमहल को खतरा मथुरा तेल शोधक कारखाने से हुआ है।
5.    वायुमण्डल में आक्सीजन का स्तर कम होना भी प्राणियों के लिए घातक है क्योंकि आक्सीजन की कमी से प्राणियों को श्वसन में बाधा आयेगी।
6.    कारखानों से निकलने के बाद रासायनिक पदार्थ व गैसों का अवशोषण फसलों, वृक्षों आदि पर करने से प्राणियों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।

वायु प्रदूषण को नियन्त्रित करने के उपाय


1.    कारखानों को शहरी क्षेत्र से दूर स्थापित करना चाहिए, साथ ही ऐसी तकनीक उपयोग में लाने के लिए बाध्य करना चाहिए जिससे कि धुएँ का अधिकतर भाग अवशोषित हो और अवशिष्ट पदार्थ व गैसें अधिक मात्रा में वायु में न मिल पायें।

2.    जनसंख्या शिक्षा की उचित व्यवस्था की जाए ताकि जनसंख्या वृद्धि को बढ़ने से रोका जाए।
3.    शहरी करण की प्रक्रिया को रोकने के लिए गाँवों व कस्बों में ही रोजगार व कुटीर उद्योगों व अन्य सुविधाओं को उपलब्ध कराना चाहिए।

4.    वाहनों में ईंधन से निकलने वाले धुएँ को ऐसे समायोजित, करना होगा जिससे की कम-से-कम धुआँ बाहर निकले।
5.    निर्धूम चूल्हे व सौर ऊर्जा की तकनीकि को प्रोत्साहित करना चाहिए।
6.    ऐसे ईंधन के उपयोग की सलाह दी जाए जिसके उपयोग करने से उसका पूर्ण आक्सीकरण हो जाय व धुआँ कम-से-कम निकले।

7.    वनों की हो रही अन्धाधुन्ध अनियंत्रित कटाई को रोका जाना चाहिए। इस कार्य में सरकार के साथ-साथ स्वयंसेवी संस्थाएँ व प्रत्येक मानव को चाहिए कि वनों को नष्ट होने से रोके व वृक्षारोपण कार्यक्रम में भाग ले।
8.    शहरों-नगरों में अवशिष्ट पदार्थों के निष्कासन हेतु सीवरेज सभी जगह होनी चाहिए।
9.    इसको पाठ्यक्रम में शामिल कर बच्चों में इसके प्रति चेतना जागृत की जानी चाहिए।
10.    इसकी जानकारी व इससे होने वाली हानियों के प्रति मानव समाज को सचेत करने हेतु प्रचार माध्यम जैसे दूरदर्शन, रेडियो पत्र-पत्रिकाओं आदि के माध्यम से प्रचार करना चाहिए।

जल प्रदूषण


जल भी पर्यावरण का अभिन्न अंग है। मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। मानव स्वास्थ्य के लिए स्वच्छ जल का होना नितांत आवश्यक है। जल की अनुपस्थित में मानव कुछ दिन ही जिन्दा रह पाता है क्योंकि मानव शरीर का एक बड़ा हिस्सा जल होता है। अतः स्वच्छ जल के अभाव में किसी प्राणी के जीवन की क्या, किसी सभ्यता की कल्पना, नहीं की जा सकती है। यह सब आज मानव को मालूम होते हुए भी जल को बिना सोचे-विचारे हमारे जल-स्रोतों में ऐसे पदार्थ मिला रहा है जिसके मिलने से जल प्रदूषित हो रहा है। जल हमें नदी, तालाब, कुएँ, झील आदि से प्राप्त हो रहा है। जनसंख्या वृद्धि, औद्योगीकरण आदि ने हमारे जल स्रोतों को प्रदूषित किया है जिसका ज्वलंत प्रमाण है कि हमारी पवित्र पावन गंगा नदी जिसका जल कई वर्षों तक रखने पर भी स्वच्छ व निर्मल रहता था लेकिन आज यही पावन नदी गंगा क्या कई नदियाँ व जल स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं। यदि हमें मानव सभ्यता को जल प्रदूषण के खतरों से बचाना है तो इस प्राकृतिक संसाधन को प्रदूषित होने से रोकना नितांत आवश्यक है वर्ना जल प्रदूषण से होने वाले खतरे मानव सभ्यता के लिए खतरा बन जायेंगे।

जल प्रदूषण के कारण


1.    औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप आज कारखानों की संख्या में वृद्धि हुई है लेकिन इन कारखानों को लगाने से पूर्व इनके अवशिष्ट पदार्थों को नदियों, नहरों, तालाबों आदि किसी अन्य स्रोतों में बहा दिया जाता है जिससे जल में रहने, वाले जीव-जन्तुओं व पौधों पर तो बुरा प्रभाव पड़ता ही है साथ ही जल पीने योग्य नहीं रहता और प्रदूषित हो जाता है।
2.    जनसंख्या वृद्धि से मलमूत्र हटाने की एक गम्भीर समस्या का समाधान नासमझी में यह किया गया कि मल-मूत्र को आज नदियों व नहरों आदि में बहा दिया जाता है, यही मूत्र व मल हमारे जल स्रोतों को दूषित कर रहे हैं।
3.    जब जल में परमाणु परीक्षण किये जाते हैं तो जल में इनके नाभिकीय कण मिल जाते हैं और ये जल को दूषित करते हैं।
4.    गाँव में लोगों के तालाबों, नहरों में नहाने, कपड़े धोने, पशुओं को नहलाने बर्तन साफ करने आदि से भी ये जल स्रोत दूषित होते हैं।
5.    कुछ नगरों में जो कि नदी के किनारे बसे हैं वहाँ पर व्यक्ति के मरने के बाद उसका शव पानी में बहा दिया जाता है। इस शव के सड़ने व गलने से पानी में जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है, जल सड़ाँध देता है और जल प्रदूषित होता है।

जल प्रदूषण के प्रभाव


1.समुद्रों में होने परमाणु परीक्षण से जल में नाभिकीय कण मिलते हैं जो कि समुद्री जीवों व वनस्पतियों को नष्ट करते हैं और समुद्र के पर्यावरण सन्तुलन को बिगाड़ देते हैं।
2.प्रदूषित जल पीने से मानव में हैजा, पेचिस, क्षय, उदर सम्बन्धी आदि रोग उपन्न होते हैं।
दूषित जल के साथ ही फीताकृमि, गोलाकृमि आदि मानव शरीर में पहुँचते हैं जिससे व्यक्ति रोगग्रस्त होता है।
4. जल में कारखानों से मिलने वाले अवशिष्ट पदार्थ, गर्म जल, जल स्रोत को दूषित करने के साथ-साथ वहाँ के वातावरण को भी गर्म करते हैं जिससे वहाँ की वनस्पति व जन्तुओं की संख्या कम होगी और जलीय पर्यावरण असन्तुलित हो जायेगा।
5. स्वच्छ जल जो कि सभी सजीवों को अति आवश्यक मात्रा  में चाहिए, इसकी कमी हो जायेगी।

जल प्रदूषण से बचने के उपाय


1.    कारखानों व औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले अवशिष्ट पदार्थों के निष्पादन की समुचित व्यवस्था के साथ-साथ इन अवशिष्ट पदार्थों को निष्पादन से पूर्व दोषरहित किया जाना चाहिए। 2. नदी या अन्य किसी जल स्रोत में अवशिष्ट बहाना या डालना गैरकानूनी घोषित कर प्रभावी कानून कदम उठाने चाहिए।
3.    कार्बनिक पदार्थों के निष्पादन से पूर्व उनका आक्सीकरण कर दिया जाए।
4.    पानी में जीवाणुओं को नष्ट करने के लिए रासायनिक पदार्थ, जैसे ब्लीचिंग पाउडर आदि का प्रयोग करना चाहिए।
5.    अन्तर्राष्टीय स्तर पर समुद्रों में किये जा रहे परमाणु परीक्षणों पर रोक लगानी चाहिए।
6 समाज व जन साधारण में जल प्रदूषण के खतरे के प्रति चेतना उत्पन्न करनी चाहिए। 


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