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दूध के दाँत

राजेन्द्र राव

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2575
आईएसबीएन :81-85828-65-2

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प्रस्तुत है कहानी-संग्रह...

Doodh ke Daant

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कुछ लोग राजेन्द्र प्रसाद को दिलजलों की सोसाइटी का मसीहा मानते हैं तो कुछ उन्हें निरंकुश और बेपरवाह जैसे अलंकरणों से नवाजते हैं। जो भी हो, वह हिन्दी कहानी की प्रायः विलुप्त प्रजाति के लेखक हैं, जो अपनी रचना के जरिए एक बड़ा पाठक समुदाय तलाश करने में यकीन करते हैं। मानव नियति की बिडंबनाओं के इस अनोखे चितेरे की कहानियों में निरंतर दुर्लभ होती जा रही पठनीयता है।
उत्तर आधुनिक बोध जादुई यथार्थ जैसे लटकों झटकों से अलग और विदेशी कथा साहित्य की लम्बी छायाओं से दूर इस सहज, सादी और सीधी जिंदगी के सरकस से उठाई गई इन कहानियों में पाठक या पाठिका स्वयं को ढूँढ़ ले तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हम तो यही कह सकते हैं कि आपको इन कहानियों को पढ़ने में आनन्द की अनुभूति होगी।

यशोधरा ही ठीक है !

बदरीविशाल जल्दबाजी के कायल नहीं; बल्कि उनका खयाल तो यह है कि ‘सहज पके सो मीठा होय।’ यही कारण था कि नरेश की नौकरी लगने के दो वर्ष तक उन्होंने शादी ब्याह के बारे में गंभीरता से काम नहीं लिया। उन्हें पक्की उम्मीद थी कि जैसे-जैसे लोगों को नरेश के बारे में पता लगता जाएगा, उनके दरवाजे पर लड़कीवालों की भीड़ लग जाएगी। तब उनमें से किसी अच्छे आदमी को पकड़ेंगे। लेकिन इक्का-दुक्का कमजोर-से लगनेवाले रिश्तों को छोड़कर कोई उल्लेखनीय प्रस्ताव उन तक नहीं पहुँचा। नरेश परमानेंट हो गया उसका फंड कटने लगा-यहाँ तक कि एक सालाना इंक्रीमेंट भी लग गया; मगर लक्ष्मीजी ने उनके घर दस्तक नहीं दी।

उन्हें लगा कि समय यों ही हाथ से निकला जा रहा है। कहीं ऐसा न हो कि ये एक-दो आदमी, जो शादी के बारे में खतोकिताबत किया करते हैं, ये भी हाथ से निकल जाएँ। क्या तब किसी के घर लड़की माँगने जाना पड़ेगा ? इस विचार से ही उनको फुरफुरी उठ आई। लगा कि तुरंत ही कुछ करना चाहिए।
उन्होंने सोचा-कमाल है ! हमेशा से तो यही सुनते आए कि नौकरीशुदा लडकों का अकाल है। चिराग लेकर ढूँढ़ने पर नहीं मिलते और मिलते हैं तो उनके बाप सुरसा की तरह मुँह फाड़ देते हैं। हर तरफ दहेज को लेकर त्राहि-त्राहि मची हुई है। रोजाना अखबारों में बहू जलाए जाने के समाचार पढ़ने में आते हैं। सरकार को मजबूर होकर सख्त कानून लागू करना पड़ा है। फिर, नरेश के मामले में लड़कीवाले का रुख ठंडा क्यों है ? हममें कौन कमी है ? कुल-खानदान अच्छा है, लड़का सरकारी नौकरी में ही। ठीक है, किसी बड़ी पोस्ट पर नहीं है; मगर आई.टी.आई. का मास्टर भी अपना अलग ही रुतबा रखता है। इम्तिहान के दिनों में जाने कितने लड़के भेंट-सौगात लेकर चक्कर लगाया करते हैं। फेल-पास करना तो इसके हाथ में है...और तो और, अभी तो मैं खुद भी नौकरी में हूँ।

यह नहीं कि उनके रिश्तोदारों या परिचितों में नरेश के लिए उपयुक्त लड़कियाँ नहीं थी। दूर क्यों जाना उनके परम मित्र माताप्रसाद के यहाँ ही एक नहीं, तीन-तीन ब्याहने योग्य कन्याएँ तैयार बैठी थीं।  देखने-सुनने में भी अच्छी, पढ़ी-लिखी। माताप्रसाद उनके लिए अखबार में विज्ञापन देकर लंबी खतोकिताबत करते रहते थे। ताज्जुब की बात कि बगल में लड़का और जगत् ढिंढोरा। एक बार भी माताप्रसाद ने उनसे यह नहीं कहा कि शोभा, शारदा, सरस्वती में से किसी को नरेश के लिए चुन लो। बदरीविशाल समझे कि ये मित्रता के कारण संकोच में पड़े हैं, इसलिए एक रोज उन्होंने खुद ही बात चलाई। माताप्रसाद ने साफ कह दिया, ‘देखो भई, बुरा मत मानना, मैं तो अपनी लड़कियों के लिए कम-से-कम जूनियर इंजीनियर या बैक इंप्लाई चाहता हूं।’

बदरीविशाल अपने मित्र की फिलॉसफी सुनकर आसमान से गिरे। घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने ! ये मुँह और मसूर की दाल ! जूनियर इंजीनियर और बैंक के क्लर्क का सपना देख रहे हो और घर में भूँजी भांग भी नहीं। उन्हें मालूम था कि अपनी खुद की और परिवार की शौकीनी तथा फैशनपरस्ती की वजह से माताप्रसाद आकंठ कर्ज में डूबे हुए हैं। दफ्तर से जितनी तरह के कर्जे होते हैं, ले ही रखे हैं। बाजार में कोई दुकान नहीं, जिसके खाते में उनके नाम सैकड़ों की बकाया न दर्ज हो। उनकी बीवी और लड़कियाँ शैंपू-तेल-फुलेल में उड़ाती हैं, तो माताप्रसाद शराब-कबाब में। ऐसी कौन जन्नत की हूर हैं, जो बगैर दहेज कोई ऊपर की इन्कमवाला इन्हें ले जाएगा। कुछ नहीं, सब लीपापोती का खेल है, बकवास !

बदरीविशाल शुरू से ही घरघुसरे थे। उन्हें परिवार के दायरे से बाहर झाँकने की फुरसत ही नहीं मिली। शायद उन्होंने चाहा भी नहीं। उनकी पत्नी घर-गृहस्थी के कामों में भले ही सुघड़ रही हो, मगर सुंदर तो बिलकुल नहीं थी। फिर भी पति को अच्छी तरह से बांधकर रखा उसने। भगवान् की ऐसी कृपा हुई कि उनके एक के बाद एक चार पुत्र जनमे। एक दफे तो मोहल्ले में धूम मच गई। लोग उन्हें मजाक में राजा दशरथ कहने लगे।
नरेश सबसे बड़ा था। पहले तो ठीक चला, लेकिन बाद की क्लासों में लुढ़कते हुए चलने लगा तो बदरीविशाल को कुछ निराशा हुई। उन्होंने उसे किसी तरह हाई स्कूल पास करवाया और आई.टी.आई. में भरती करवा दिया वेल्डर ट्रेड में। मजे की बात यह है कि स्कूल की पढ़ाई में फिसड्डी रहनेवाला नरेश वेल्डिंग के काम में सबसे अव्वल साबित हुआ। उसके प्रिंसिपल ने उसे आई.टी.आई. पास करने के बाद सी.टी.आई. में इंस्ट्रक्टर ट्रेनिंग के लिए भेज दिया। वहाँ से निकलते ही उसके लिए नौकरी तैयार थी। उसके हुनर की ऐसी कद्र हुई।

नरेश ठीक-ठिकाने लग गया तो माँ-बाप के मन में लड्डू फूटने लगे। बदरीविशाल रात का खाना खाकर बदस्तूर पत्नी से घंटे-भर गप्प-सड़ाका किया करते थे। उनकी इस अंतरंग महफिल में बच्चे दखल न देते थे। नरेश की नौकरी के तुरंत बाद ही वे दोनों उसकी शादी के प्रसंग पर तोता-मैना संवाद करने लगे थे। बदरीविशाल पत्नी को खिजाने के लिए कहते, ‘‘भई, अभी कम-से कम पाँच साल तक शादी-ब्याह का नाम मत लो। उसे चार पैसे कमाने दो, जमा करने दो, कुछ दिन आजाद रहने दो, फिर सोचेंगे।’ पत्नी तुनककर कहती, ‘तो क्या बूढ़ा हो जाएगा तब करोगे उसकी शादी ? अपनी दफे तो बहुत जल्दी मचाई थी।’ फिर दोनों दिल खोलकर हंसते या फिर वे कहते कि ‘देख लेना, नरेश के ब्याह में एक पैसा नहीं लूंगा लड़कीवाले से। बस लड़की देखने में सुंदर हो, काम-काज में होशियार हो; भले ही गरीब घर की हो।’ पत्नी भड़ककर कहती, ‘वाह-वाह ! सारी दुनिया तो अपना-अपना घर भर रही है। लूट मची है जमाने में, तो क्या हम ही बचे हैं गरीब आदमी की बेटी के लिए ! नहीं जी, नहीं। मेरे लड़के में कौन कमी है ? ठीक है, किसी को सताना नहीं, मगर मोटर साइकिल लिए बिना तो मैं नहीं मानूँगी।’

जाहिर है कि उन्हें इस तरह की छेड़छाड़ में मजा मिलता था; लेकिन चतुराई से वे अपना निश्चित मत जाहिर नहीं होने देते थे कि दहेज लेंगे या सिर्फ लड़की के गुण-रूप शिक्षा आदि को देखकर ही रिश्ता तय करेंगे। सोचते थे, जब मौका आएगा, तब देखा जाएगा। वैसे मोटे तौर पर बेटे के विवाह की एक पूर्व कल्पना-सी उनके मन में कहीं गहरे में थी। उसे अगर ज्यों-का-त्यों उतारकर बाहर दिखाया जाता तो लोग उन्हें शेखचिल्ली का छोटा भाई समझते।
अब कुछ नरेश के बारे में भी बता दिया जाए। वह माँ-बाप के बीच अपनी शादी को लेकर चलनेवाली बातचीत को चोरी-छुपे सुना करता था। वह समझ चुका था कि ये लोग बातें ही किया करेंगे, करेंगे-धरेंगे कुछ नहीं। इसलिए उसने इस विषय पर स्वतंत्र चिंतन करना शुरू कर दिया।

नरेश नए जमाने का लड़का था, कोई शेखचिल्ली नहीं जो खयाली पुलाव पकाता रहे। उसने अपने सपनों की रानी यानी ख्वाबों की मलिका वगैरह को अच्छी तरह से सोच-विचारकर चुन लिया था। जाति-बिरादरी से बगावत करने का उसका कोई इरादा नहीं था। न ही उसने दूर किसी इलाके की हसीना की चाहत ही पाली थी। उसने तो पास-पड़ोस की सजातीय और बराबरी की लड़की शारदा को अपनी भावी पत्नी के रूप में देखा था, जो कि उसके पिता के परम मित्र माताप्रसाद की मझली लड़की थी।

पिता और पुत्र की सोच में फर्क सिर्फ यह था कि नरेश को बदरीविशाल की तरह कतई उम्मीद नहीं थी कि माताप्रसाद उसके साथ अपनी लड़की ब्याहने के लिए स्वयं बातचीत चलाएँगे। वह जानता था कि उनकी तीनों लड़कियों के प्रेम विवाह करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं है; क्योंकि उनका बाप लड़कियों के ब्याह पर पैसा खर्च करने को तैयार नहीं था। इसकी वजह यह थी कि उसके पास पैसा था ही नहीं और होता तो भी उसे इस निमित्त बचाकर नहीं रखा जा सकता था।

नरेश जब आई.टी.आई. में पढ़ रहा था, तभी से उसने शारदा के चक्कर लगाने शुरू कर दिए थे। वह जिंदगी भर चक्कर ही लगाता रहता, अगर उसकी नौकरी लग जाने के बाद शारदा हाथ बढ़ाकर उसे खींच न लेती। नरेश ने भी फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपनी नकेल उसने शारदा के हाथ में थमा दी, जो कि बेहद चतुर और चाक-चौबंद थी। दोनों महीने में कम-से-कम दो बार सिनेमा देखने जाते थे, मगर मजाल है कि मोहल्ले-पड़ोस में किसी को भनक भी लगी हो कि उनके बीच कोई चक्कर चल रहा है।

रात को खाना खाने के बाद पति-पत्नी बैठे तो बदरीविशाल ने दाँत कुरेदते हुए पूछा, ‘‘तो तुमने आखिर क्या सोचा ?’’
‘‘उसमें सोचने की क्या बात है ? मैं तो कहती हूँ कि कल करते हो तो आज कर लो। मुझसे क्यों पूछते हो ?’’
‘‘क्यों ऐसी उखड़ी-उखड़ी बातें कर रही हो ? मैं तो तुम्हारी राय पूछ रहा हूँ। मैंने कब कहा कि यही रिश्ता करना है। हां, इस समय जितने ऑफर हमारे पास हैं, मेरी समझ में यह उनमें सबसे बेहतर है।’’
पत्नी ने मुँह बनाकर कहा, ‘‘जैसे तुम नहीं जानते कि इनकी लड़की का रंग काला है। वही बची है क्या नरेश के लिए ?’’ तो वे नरम होकर बोले, ‘‘देखो, अब बहुत हो चुका। कब तक किसी धन्नासेठ की अप्सरा जैसी बिटिया की राह देखें। ऐसा न हो कि सब लोग यह समझ लें कि हमें तो शादी करनी ही नहीं है। बद अच्छा, बदनाम बुरा। सबने मुँह फेर लिया तो थूककर चाटना पड़ेगा। माँगकर लड़की लेंगे तो बहुत बेइज्जती होगी।’’

‘‘अजी, अच्छी लड़की हो तो माँगकर लाने में भी कोई हर्ज नहीं है। कम-से-कम देखने-सुनने में तो भली हो। ये गोपालपुरवाला कुछ देगा-लेगा भी या यों ही अपनी काली कलूटी हमारे गले मढ़ देगा ?’’
‘‘यही तो तुम्हें सोचना था, मगर अब क्या कहूँ ?-कुछ कह दूँगा तो मुँह फुलाकर बैठ जाओगी। भली मानस, वह उसकी इकलौती लड़की है। उसे जो कुछ देना होगा, इसी को देगा। उसका दहेज बाँटनेवाली और कोई नहीं है उसके घर में। मैं तो कहता हूँ, बिना माँगे सबकुछ देगा। हो सकता है, मोटर साइकिल की ही तुम्हारी तमन्ना पूरी हो जाए।’’
‘‘इस भरोसे न रहना। उसके तीन लड़के जो हैं बाँटनेवाले। हाँ, यही इकलौती औलाद होती तो कुछ उम्मीद रखते। खैर, तुम जरूर देख-सुन आओ। रंग तो जैसा है सो है, कुछ रूप भी है कि नहीं। नैन-नक्श तो सुंदर होने ही चाहिए।’’
‘‘क्यों, तुम नहीं चलोगी ? मेरा विचार तो यह था कि कल शनिवार की छु्टटी है। दोनों आदमी निकल चलते। तुम्हें समझ आ जाती तो वहीं बात पक्की करके इतवार को लौट आते। न हो तो नरेश को भी लेती चलो; पर जाने संगमललाल इसमें बुरा माने। अभी गाँव-कस्बों में बेपरदगी नहीं हुई है। शायद ही वहाँ कोई लड़का लड़की देखने जाता हो। खैर, इस बारे में जैसा तुम तय करो।’’

‘मैं तो कहीं जाऊँगी नहीं। आज तक किसी के घर मुँह उघाड़कर नहीं गई तो अब बुढ़ापे में क्या जाऊँगी। फिर तुम तो खुद ही मुझे काली निखट्टू समझते हो तो दुनिया को अपना अच्छा-बुरा क्यों दिखाने जाऊँ ? हाँ, नरेश जाने को राजी हो तो लेते जाओ; लेकिन जब तुम्हें जँच गई है कि वहीं उसे ब्याहना है तो फिर झूठमूठ नाटक करने से क्या फायदा ? करोगे तो अपने मन की ही।’’

रास्ते में बस खराब हुई तो ठीक होते-होते शाम के पाँच बजे गोपालपुर पहुँची। बदरीविशाल रास्ते की धूल झाड़ते हुए उतरे तो बस-अड्डे पर यूरीनल की गंध के जोरदार भभके ने उनका स्वागत किया।
उन्हें आसपास भिनकती मक्खियाँ देखकर बेहद कोफ्त हुई। बाजार में एक भी ढंग की दुकान नजर नहीं आई कि कुछ फल-मिठाई खरीद सकें। एक फलवाले ठेले से दागी संतरे और अधपके केले खरीदकर झोले में रखे। एक दुकानदार से संगमलाल कंपाउंडर का घर पूछा तो उसने एक लंबा पेचदार रास्ता बताया। वे रिक्शा तलाश करने लगे, मगर वहाँ रिक्शा कहाँ ? घुटने के जोड़ के दर्द की वजह से उनको ज्यादा दूर तक पैदल चलने की आदत नहीं थी। उधर शाम झुकी जा रही थी। किसी भले आदमी के घर पहुँचने के लिए न तो वक्त सही था, न उनका हुलिया। अब तो रात-भर यहीं रुकना पड़ेगा, उन्होंने झल्लाते हुए सोचा। घरसे यह सोचकर सुबह-सुबह चले थे कि लड़की या घर पसंद नहीं होंगे तो शाम तक वापस लौट आएँगे।

यह कस्बे का पुराना हिस्सा था। जन संकुल। गली इतनी तंग कि सीवर वहाँ ला सकना संभव ही न हो पाया होगा। हर मकान में पुराने ढंग के पाखाने थे, जिनकी संक्षिप्त मगर प्रभावी झलक लबे सड़क उन्हें मिलती जाती थी। उनका जी मिचलाने लगा। घुटने में टीस उठ रही थी, जो लहर की तरह उठकर नीचे से आती और कलेजे से टकराकर टूट जाती थी। उस बुरी साइत को कोसने लगे जिसमें घर से चले थे। सोचने के अलावा वे कर ही क्या सकते थे ! दहेज का इतना शोर मचा हुआ है। समाज में अलग-अलग लड़कों के अलग-अलग रेट फिक्स हो गए हैं। डॉक्टर की, इंजीनियर की, क्लास वन अफसर की, बैंक के क्लर्क की-हर एक की एक कीमत है, जो लड़कीवाले को चुकानी पड़ती है। यह नरेश का बच्चा किसी लायक नहीं हुआ, नहीं तो आज इस मामूली कस्बे की शैतान की आँत जैसी लंबी और गंदी गली में पैर घसीटने नहीं पड़ते। मैं भी कैसा बौड़म हूँ कि आई.टी.आई. की मास्टरी को बहुत बड़ी तोप समझे हाथ-पैर धरे बैठा रहा। कुछ भाग-दौड़ की होती तो कोई-न-कोई अच्छी पार्टी फँस ही जाती। मगर ऐसा भी क्या, कोई बड़ी नौकरी नहीं है तो छोटी भी नहीं है। सरकारी मुलाजिम है। चार आदमी इज्जत करते हैं। हर साल बीसियों लड़के उसके हाथ से फेल-पास होकर रोजी-रोटी कमाने लायक बनते हैं। कद्र करनेवाला हो तो मेरा लड़का हीरा है। कैसा नेक और सुशील बालक है ! आज तलक कभी भी मेरे सामने उसने जुबान नहीं खोली। हर महीने पूरी तनख्वाह लाकर अपनी माँ के हाथ पर धर देता है और क्या, सुर्खाब के पर लगे होते हैं, अच्छे लड़कों में ?

उधेड़बुन में कब वे संगमलाल के यहाँ जा पहुँचे, उन्हें पता ही नहीं चला। दरवाजे पर सन्नाटा था। उन्होंने साँकल पकड़कर बजाई।
कुछ देर बाद एक लड़की ने दरवाजा खोला। उन्हें देखकर पहले तो सकुचाई, फिर श्रद्धा सहित प्रणाम किया। उन्हें लगा कि वह उन्हें पहचान गई है, फिर भी उन्होंने पूछ लिया, ‘संगमलालजी घर में हैं ?’’
‘‘जी, वे बाहर गए हैं, अभी आते ही होंगे। आप कानपुर से आए हैं ?’’
उन्होंने ध्यान से लड़की को देखा। झुटपुटे और कम रोशनी के बावजूद उन्होंने देख लिया कि वह कुछ नाटे कद की साँवली-सी लड़की है। उसका शरीर भरा हुआ था और चेहरा गोल था। निहायत ही साधारण किस्म की उस लड़की को पहली नजर में देखकर उन्हें निराशा-सी हुई। वह धीमे स्वर में फिर बोली, ‘‘पिताजी सवेरे से आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे। बाद में यह सोचकर कि शायद आप कल आएँ, अभी-अभी बाहर गए हैं। आप अंदर आइए।’’
बदरीविशाल को घुटने का दर्द और प्यास का जो अहसास था वह सहसा कहीं खो गया। एक कचोट-सी मन में उठी। पत्नी का ध्यान हो आया। वह ठीक ही कहती थी, यह लड़की किसी दृष्टि से भी सुंदर नहीं कही जा सकती। अब, उलटे लौटकर जाया भी तो नहीं जा सकता। कहाँ आ फँसे ! वही मसल हुई कि सिर मुँड़ाते ही ओले पड़े।

गलियारे में होकर भारी कदमों से वे बैठक में पहुंचे। लड़की एक ट्रे में पानी का जग और एक शीशे का गिलास ले आई। उन्होंने दो गिलास पानी पिया और कुरसी पर आराम से टिककर बैठ गए। लड़की फिर आई और ट्रे वापस ले गई।
बैठक में कुरसी पर बैठकर वे एक बार फिर विचारों में डूब गए। उन्होंने तय कर लिया कि यहाँ रिस्ता नहीं करना है। घर में पहली बहू ही असुंदर आए, यह उन्हें गंवारा नहीं। रंग ही सबकुछ नहीं है, मगर इसका तो कद भी छोटा है। नाक-नक्शा भी बिलकुल मामूली है। यह नहीं चल पाएगा। वे अपने आपसे संवाद करने में जुटे थे कि वह लड़की चाय लेकर उपस्थित हुई।
उनके विचारों का सिलसिला टूट गया। एक तमाशाई की नजर से लड़की के क्रियाकलापों को देखने लगे। ट्रे में साफ-सुथरे प्याले थे। एक टीकोजी से ढकी हुई केतली थी और एक तश्तरी में बरफी के टुकड़े रखे थे। लड़की ने बड़ी सुघड़ता से चाय का सामान लगाया।

लड़की ने करीने से चाय प्याले में डालकर उन्हें पेश की। दूसरा प्याला खाली पड़ा रहा। उन्हें आशा थी कि वह दूसरा प्याला भी भरेगी। चाय हाथ में पकड़कर टोह लेने के लिए पूछा, ‘‘लो बिटिया, तुम भी पियो।’
‘‘जी, मैं चाय नहीं पीती। अभी पिताजी आते ही होंगे, वे आपका साथ देंगे।’’
वे चाय पीने लगे। लड़की सामने खड़ी रही। वह सिर झुकाए जैसे किसी आज्ञा की प्रतीक्षा में खड़ी थी।
उन्हें अपने गलत अनुमान पर और थोड़ी देर पहले लिये गए कठोर निर्णय पर थोड़ी-सी ग्लानि महसूस हुई। व्यावहारिकता जागी। सोचा, एक कुशल अभिनेता की भांति मुझे इस मंच पर अपनी भूमिका निभानी चाहिये। अपने मनोभाव जल्दी जाहिर कर देने से मैं इन लोगों के मन में बेवजह एक कटुता छोड़ जाऊँगा।
इस नीति के तहत उन्होंने बड़ी मुलायमियत से काम लेते हुए पूछा, ‘‘तुम संगमलालजी की बिटिया हो ?’’
‘‘जी।’’

‘‘तुम्हारा नाम क्या है, बेटी ?’’
‘‘जी, यशोधरा’’
‘‘पढ़ती हो ?’’
‘‘जी हाँ, मैं बी.ए. फाइनल में हूँ।’’
‘‘कौन से विषय लिये हैं ?’’
‘‘जी, जनरल इंग्लिश, इंग्लिश लिटरेचर, सोशियोलॉजी और इकोनॉमिक्स।’
‘‘वाह, इंग्लिश लिटरेचर लिया है तुमने ! तब तो तुम्हारी अंग्रेजी बहुत अच्छी होगी। इंटरमीडिएट में कितने परसेंट मार्क्स पाए थे अंग्रेजी में ?’’
‘‘जी, सिक्सटी सिक्स परसेंट।’’
‘‘वेरी गुड, वेरी गुड ! तुम तो बहुत होशियार मालूम पड़ती हो। और क्या-क्या सीखा है तुमने ? खाना बनाना जानती हो ?’’

‘‘जी, खाना तो मैं ही बनाती हूँ। सिलाई-कढ़ाई का कोर्स भी किया है। डॉल मेंकिंग का भी कोर्स किया है।’’
‘‘अरे, ये सब कोर्सेज भी होते हैं यहाँ ? मैं तो इसे मामूली कस्बा समझ रहा था।’’
‘‘जी, हमारे कॉलेज की प्रिंसिपल बहुत अच्छी हैं। उन्होंने कई तरह के कोर्सेज यहाँ लड़कियों के लिए करवाए हैं।’’
‘‘अच्छा यशोधरा, बी.ए. पास करने के बाद क्या करोगी ? एम.ए. या बी.एड.?’’
‘‘जी, यह तो आगामी परिस्थितियों पर निर्भर करता है। मैं तो इंग्लिश लिटरेचर लेकर एम.ए. करना चाहती हूँ, मगर....शायद पिताजी आ गए।’’

वह दरवाजा खोलने चली गई। संगमलाल अंदर आए और बदरीविशाल के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए, ‘‘हजूर, हजूर, आज तो कृपा कर ही दी आपने। हम लोग तो सवेरे से रास्ता ताक रहे थे। फिर निराश होकर बैठ गए। बड़ा ही अच्छा हुआ कि आप आ गए। आपकी चरण-रज से मेरा घर पवित्र हो गया। मुझ बेसहारा पर आपकी कृपा हो गई, अब और क्या चाहिए !’’

बदरीविशाल ने मन-ही-मन सोचा, यह आदमी जरूर किसी रामलीला पार्टी या नौटंकी में काम करता रहा है। तभी ऐसे नाटकीय ढंग से बोलता है। उन्होंने उठकर संगमलाल को बिठाना चाहा, मगर वह शख्स बैठने के लिए तैयार नहीं, ‘‘हजूर, यह कैसे हो सकता है हजूर ! मैं भला आपके सामने कैसे बैठ सकता हूं ! मैं तो आपका दासानुदास हूँ। सेवक हूँ। कहिए, रास्ते में आपको कुछ कष्ट तो नहीं हुआ ?’’
उन्हें खींचकर बिठाते हुए बदरीविशाल बोले, ‘‘नहीं, वैसे तो कोई खास कष्ट नहीं हुआ, मगर रास्ते में बस बिगड़ गई और दो-तीन घंटे रुके रहना पड़ा। इसीलिए यहाँ पहुँचने में देर हो गई।’’
‘‘हें ! रास्ते में दो-तीन घंटे रुके रहना पड़ा और आप कहते हैं कोई कष्ट नहीं हुआ ! कृपानिधान, आप बहुत ही दयालु हैं। मेरी कुटिया धन्य हो गई। जो कुछ रूखा-सूखा मेरे पास है, वह हाजिर है; मगर आपके लिए तो वह सुदामा के तंडुल की तरह होगा। भला मैं किस योग्य हूँ !’’

संगमलाल के लंबे पत्र आते रहे थे, मगर उनसे मिलने का यह पहला मौका था। बदरीविशाल उनकी बातचीत के ढंग से कुछ ज्यादा ही सतर्क हो गए। उन्हें लगा कि यह लच्छेदार बातें करके उन्हें फँसाना चाहता है और सुदामा बनकर बिना किसी खास दान-दहेज के अपनी काली लड़की मेरे मत्थे मढ़ना चाहता है। जिस हिसाब से यह आते ही चिपक गया है, उससे लगता है कि इससे पीछा छुड़ाना बहुत मुश्किल होगा।

उधर संगमलाल कह रहे थे, ‘‘प्रभु ! स्नान-ध्यान करना चाहें तो गरम पानी हाजिर है। आप लंबी यात्रा करके आए हैं, संध्यापूजन से निबट लीजिए तो आपकी सेवा करने का कुछ अवसर मुझे और मेरे परिवार को प्राप्त हो।’’
बदरीविशाल ने सोचा, इसकी बक-बक सुनने से तो संध्या-पूजनवाला ढोंग ठीक रहेगा। कम-से-कम दो घंटे का एकांत तो मिल जाएगा। फिर बाकी समय किसी तरह खाकर सोकर गुजार लेंगे और सुबह होते ही यहाँ से रवाना। इस बीच किसी तरह भी इस धूर्त को यह आभास नहीं होने देना है कि इस रिश्ते में मेरी जरा भी रुचि है।

उनके साफ-सुथरे गुसलघर में वे आराम से पटरे पर बैठकर गरम पानी से नहाए। तबीयत ताजा हुई। फिर उनकी दी हुई शाल ओढ़कर पूजा करने बैठ गए। उनका पूजा करने का कोई नित्य नियम नहीं था। हाँ, हर मंगल को हनुमान चालीसा का पाठ कर लेते थे। यहाँ संगमलाल से जान छुड़ाने की गरज से बहुत देर तक आँखें मूँदे ठाकुरजी के सामने बैठे रहे।
उन्होंने पूजा का नाटक करते समय देखा कि पूजन-सामग्री, फूल, अर्घ्यजल आदि लाने और रखने का काम यशोधरा ने ही किया। उन्हें कुछ ऐसा लगा कि भले ही उसका चेहरा-मोहरा साधारण हो, मगर उसमें कुछ आकर्षण जरूर था। उसके चेहरे पर जो चमक थी, वह साधारण लड़कियों में नहीं होती।









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