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अपराजेय

श्यामसुन्दर भट्ट

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :285
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2582
आईएसबीएन :81-88140-00-7

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परशुराम के जीवन पर आधारित उपन्यास...

Aparajeya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

परशुराम अर्थव्य वेद के मंत्रद्रष्टा जमदग्नि और विश्वामित्र के समकालीन व्यक्तित्व हैं। वह कश्यप जैसे प्राचीनतम ऋषि से शिक्षा ग्रहण करते हैं, अर्थात वैदिक काल में वह उपस्थित हैं। रावण के समकालीन कार्तवीर्य पराभूत करने वाले वह पशुधारी दाशरथी राम के संभाषण कर त्रेतायुग में जीवित हैं। वह जामदग्नेय राम भीष्म पितामह से युद्ध करते हैं। महाभारत के संग्राम के पूर्व कौरवों की उप सभा में, जिसमें श्रीकृष्ण दूत बनकर पांडवों का प्रतिनिधित्व करते हैं, परशुराम महर्षि कण्व एवं नारद के साथ उपस्थिति हैं। सतयुग से द्वापर तक वह ताल ठोंककर मैदान में खड़े दिखाई देते हैं। इस कारण उन्हें चिरजीवि मानना पड़ता है।
परशुराम की इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार कर समस्त-भूमंडल को क्षत्रिय-विहीन कर दिया था, ऐसा जाना जाता है। यह सच है कि सत्तासेवियों की श्रेणी में क्षत्रिय कुल के लोगों का वर्चस् स्थापित था। सत्ता के साथ पनपने वाले दुर्गणों का प्राधान्य राजाओं में व्याप्त हो गया था। सत्ताजन्य अहं के प्रतीक कीर्तवीर्य के पतन के परशुराम संपूर्ण राष्ट्र के जन सामान्य को राजजन्य पीड़ाओं से मुक्ति दिलाने वाले एक जननायक बन चुके थे।
इस औपन्यासिक कृति में आततायियों का संहार करनेवाले अपराजेय परशुराम के बारे में प्रायः अनुत्तरित प्रश्नों का समाधान भी मिलता है।

आत्मनिवेदन

सत्ता और स्वार्थ प्रायः एक ही सिक्के के दो प्रतिरूपों के फलक माने जाते हैं; जबकि यथार्थ यह है कि शुद्ध सत्ता का स्व और अर्थ से कोई लेना-देना नहीं होता है। राज्य सत्ता भी है तो उस सत्ता का ही एक अंग। वह असीम, निर्विकार एवं प्रकाशमय सत्ता ही पार्थिव स्वरूप धारण कर राज्य सत्ता के रूप में भासित होती है, ऐसा कुछ लोगों का विचार है। नाम साम्य के आधार पर ही सही, यह स्थापित किया जा सकता है कि शुद्ध सत्ता और राज्य सत्ता में कहीं-न-कहीं कोई सकारात्मक सह संबंध अवश्य होता है। राज्य सत्ता अपने शुद्धतम रूप में तब प्रकट होती है, जब वह जनसामान्य के चिंतन, मनन एवं चरित्र को निरंतर शुद्धता की ओर ले जाए। राज्य सत्ता की भौगोलिक सीमा में रहनेवाला नागरिक संपन्न हो, स्वस्थ हो, भयमुक्त हो और समय आने पर देश की सुरक्षा हेतु खड़ा हो-ये लक्ष्य प्रत्येक राज्य ने वैदिक काल से लेकर आज तक, थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ, दोहराए हैं।

जब सभी देशों का लक्ष्य जनकल्याण, जनचेतना का विकास और जनसामान्य के व्यक्तित्व को निखारना होता है तो फिर ये महायुद्ध क्यों होते हैं ? व्यक्ति व्यक्ति का शत्रु क्यों बनता है ? भौगोलिक सीमाएँ स्थायी क्यों नहीं रहती हैं ? यह समभवतया इस कारण होता है कि सत्ता पर आसीन लोगों की व्यक्तिगत, जातिगत अथवा धर्मगत महत्त्वाकांक्षाएँ जनहित की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। उस समय सत्ताधीश सामान्य जन को घास-फूस समझने का अंहकार मन में पाल लेता है, तब भूलुंठित लोगों में से कोई-न-कोई परशुराम संघर्ष के किसी अंतहीन अध्याय का पृष्ठ खोल देता है।
आर्यों ने आश्रम, यज्ञ और स्वाध्याय की त्रिवेणी के माध्यम से मानवमात्र को संस्कारित करने का दुरूह प्रयास किया था। आश्रमवासियों के चरित्र में सत्य, न्याय एवं निर्भयता के सद्गुणों को सुदृढ़ किया। आश्रम के अधिष्ठाताओं ने राज्य सत्ता पर बैठे व्यक्ति को राजदंड तो थमा दिया, किंतु न्यायदंड स्वयं के पास सुरक्षित रखा। उन्होंने न्याय के आसन को स्वयं के चरित्र, तपबल और अध्ययन के आधार पर पवित्रतम बनाए रखने का प्रयास किया। अगस्त्य, विश्वामित्र, वसिष्ठ, ऋचीक, जमदग्नि, चायमान जैसे तपस्वियों ने राज्य सत्ता के ध्वज धारण करनेवाले राजाओं का पुरोहित पद स्वीकार कर अपनी शुद्धता और सत्यता का परिचय दिया। किंतु सत्ताधीशों का अहं इन सात्त्विक ऋषियों को नहीं सह पाया। सत्ता संपन्न लोगों ने तपस्वियों के तप भंग किए। उनके आश्रमों, ग्रंथों एवं शिष्यों तक को समाप्त करने का सामूहिक प्रयास किया। अगस्त्यादि ऋषि सरस्वती तट को छोड़कर अन्यत्र पलायन कर गए। सत्ता का अहं सामान्य जन का भी विद्वेषी बन गया। कंचन, कामिनी, और कृषि योग्य भूमि का लोभ सत्तासीनों की संपूर्ण जाति में फैल गया। नागों, व्रात्यों, दस्युओं, जैसे शब्दों द्वारा प्रताड़ित मानव जाति का एक बड़ा अंग वनों की ओर ढकेल दिया गया।

क्या सत्ता स्वार्थियों के ऐसे खुले बीभत्स खेल को सभी ने स्वीकार कर लिया ? संभवतया अधिकतर लोगों ने इस घुटन को मन-ही-मन अनुभव भी किया होगा। कुछ नपुंसक बुद्धिजीवियों ने अपने मित्रों की गृहगोष्ठियों में इस दमन के विरुद्ध वक्तव्य भी दिए होंगे; किंतु स्वयं के जीवन को दाँव पर लगाकर सत्तासेवियों से संघर्ष करने का मनोबल केवल एक ही व्यक्ति जुटा पाया, उसका नाम था-परशुराम।

परशुराम

भारतीय संस्कृति का अजस्त्र एवं अप्रतिम प्रकाश-पुंज। सतयुग से लेकर द्वापर तथा प्रस्सरित मन्वंतरों का कालजयी पुरुष।
वैदिक एवं पैराणिक कथाकल्पों का दुर्धर्ष नायक। धीर किंतु उद्धत, शांत किंतु, क्रांत, सर्जक किंतु संवरक, मौन किंतु मुखरित ब्रह्म तेजस का कीर्तिपुरुष।
कर्म-समुच्चय, दुराधर्ष तपस्या एवं चारित्रिक उत्कृष्टता का प्रयाग रूप साक्षात् श्री विग्रह।
वसुंधरा का देवोपम चिरजीवी कथा पात्र। युगद्रष्टा एवं युगस्रष्टा की गरिमा से पूर्ण एक विराट् महापुरुष, जिसे युग-युग तक स्मरण किया जाएगा।
उस महामानव के महावृत्त के सार संक्षेप को औपन्यासिकता के कच्चे धागों में बाँधने का प्रयास किया गया है। कहाँ कीर्तिपुरुष परशुराम और कहाँ एक अल्पजीवी हस्ताक्षर का टिटहरी प्रयास ! यह एक लघुपुरश्चरण है उस प्रातः स्मरणीय मेधा, बल एवं साहस की जीवंत त्रिवेणी का। उस अजस्त्र तप्त लावा को अपनी अँगुलियों के पाशा में बाँधने का यह क्षुद्र प्रयास मात्र है।

विभिन्न पौराणिक एवं वैदिक ग्रंथों के माध्यम से परशुराम को पढ़ने के बाद भी कई प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं। परशुराम ‘अर्थववेद’ के मंत्रद्रष्टा जमदग्नि और विश्वामित्र का समकालीन व्यक्तित्व है। वह कश्यप जैसे प्राचीनतम ऋषि से शिक्षा ग्रहण करता है, अर्थात् वैदिक काल में वह उपस्थित है। रावण के समकालीन कार्तवीर्य को पराभूत करनेवाला वह परशुधारी दाशरथी राम से संभाषण कर त्रेतायुग में जीवित है। वही जामदग्नेय राम भीष्म पितामह से युद्ध करता है। महाभारत के संग्राम के पूर्व धृतराष्ट्र की उस सभा में, जिसमें श्रीकृष्ण दूत बनकर पांडवों का प्रतिनिधित्व करते हैं, परशुराम महिर्ष कण्व एवं नारद के साथ उपस्थित है। सतयुग से द्वापर तक वह व्यक्तित्व ताल ठोंककर मैदान में खड़ा दिखाई देता है। इस कारण उसे चिरजीवी मानना पड़ता है। ऐसे चिरजीवियों की पुष्टि स्वामी योगानंद (योगी कथामृत) एवं पं. गोपानाथजी महामहोपाध्याय (मनीषी की लोकयात्रा) ने भी की है।

परशुराम ने इक्सीस बार क्षत्रियों का संहार कर समस्त भूमंडल को क्षत्रिय विहीन कर दिया था, ऐसा सुना जाता है। यह सच है कि सत्तासेवियों की श्रेणी में क्षत्रिय कुल के लोगों का वर्चस्व स्थापित था। सत्ता के साथ पनपनेवाले दुर्गुणों का प्राधान्य राजाओं में व्याप्त हो गया था। सत्ताजन्य अहं के प्रतीक कार्तवीर्य के पतन के बाद परशुराम संपूर्ण राष्ट्र के जनसामान्य को राजजन्य पीड़ाओं से मुक्ति दिलानेवाला एक जननायक बन चुका था। उसने इक्कीस स्थापित राजकुलों को धरती दिखाई थी, तथापि कुछ क्षत्रिय ऐसे भी थे जिनसे परशुराम को कोई शिकायत नहीं थी। इनमें परशुराम का मातृकुल भी था। इसी कुल में कालांतर में दशरथ और राम ने जन्म लिया था। विश्वामित्र की बहन परशुराम की दादी थीं, अतः उस कुल पर भी परशुराम का परशु नहीं चल पाया; तथापि यह सत्य है कि कई राजकुलों को परशुराम के तेज के कारण गोशालाओं, बीहड़ जंगलों एवं आश्रमों में गुप्त रुप अपना कालक्षेप करना पड़ा था। परशुराम क्षत्रिय विरोधी न होकर सत्ताशीर्ष पर बैठे अहंकारियों का शत्रु था। उस ब्राह्मण से राजाओं की अपेक्षा यह थी कि वह उनकी भर्त्सना सहकर भी उन्हें आम विप्रबंधुओं की भाँति शुभाशीष देगा; किंतु उसने ऐसा न कर क्षत्रियों को क्षत्रियों की भाषा में उत्तर दिया। उसने पीठ पर बँधे तूणीर और कठोर कुठार का प्रयोग कर आशाओं के विपरीत, सत्तासेवियों के शस्त्र की परिभाषा समझाई।

परशुराम का अध्ययन करते समय एक तथ्य यह भी उभरकर सामने आया कि परशु उठाने के बाद उसके जीवन काल में जिस किसीने राज्य की सत्ता सँभाली, उन्हें जामदग्नेय का भय सताया रहता था। महर्षि वाल्मीकि के अनुसार महाराज दशरथ जब राम और सीता की बारात लेकर सेना के साथ लौट रहे थे तब मार्ग में सहसा परशुराम प्रकट होते हैं। उन्हें देखकर सम्पूर्ण सेना के साथ दशरथ भय के मारे थरथर काँपने लगते हैं। कहने का तात्पर्य केवल इतना सा है कि परशुरामोत्तर काल में जितने भी राजा हुए उन्हें मर्यादाओं का पालन करना ही था, क्योंकि परशुराम का भय सर्वव्याप्त था। संभव है, दाशरथी राम का मर्यादा पुरुषोत्तम बने रहने के पीछे परशुराम भी एक कारण रहा होगा। उस सात्त्विक तेज के प्रकाश के कारण रजस् तत्त्व का मर्यादित होकर रहना एक विवशता थी; क्योंकि उनके सिर पर राज्य सत्ता खोने का डर सदा मँडराता रहता था।

जीती हुई संपूर्ण पृथ्वी को गुरु-चरणों में समर्पित कर पीछे मुड़कर न देखनेवाला वह महादानी व्यक्तित्व हमारा पूर्वज रहा है, यह मानने का साहस राजनेताओं को होगा, ऐसी मेरी मान्यता है। शस्त्र और शास्त्र का पारंगत वह तपस्वी भारत के असंख्य लोगें में से किसी-न-किसी किसीको प्रेरणा देगा, यही सोच इस लेखन के मूल में रहा है। लेखन तथा तथ्य संधारण में जो भी कमियाँ हैं, स्पष्टतः वे मेरी हैं।

इस ग्रंथ को पूरा करने में स्थानीय सरस्वती भवन पुस्तकालय, गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित साहित्य, आर्यसमाज द्वारा प्रकाशित ‘अथर्ववेद’, श्री के. एम. मुंशी के उपन्यासों तथा ऐसे कई मित्रों, सहयोगियों एवं संतों का सहयोग मिला है जिनके प्रति मैं मात्र नमन ही कर सकता हूँ। ख्यातनाम साहित्यकार डॉ. राजेंद्र मोहन भटनागर का परामर्श मुझे उत्साहित करता रहा है। मधुसूदन मंदिर, मूँगथला, आबूरोड के संत श्री देवेंद्र दासजी, पाली के भाई साहब श्री किशनजी पुरोहित, मेरे सहकर्मियों एवं श्री राजेंद्र पानेरी का संबलन भी मुझे मिलता रहा है। इन सभी के श्रीचरणों में मैं प्रणाम निवेदन करता हूँ
-श्यामसुंदर भट्ट

एक

सिंधु की अविरल धारा सांध्याकालीन सूरज के रंग में रँगी रक्तिमवर्णा दिखाई दे रही थी। तटवर्ती सघन वृक्षों की अवलियों की गहरी हरीतिमा के मध्य ताम्रवर्णा सरिता ऐसी लहरा रही थी मानो किसी योगी की कुंडलिनी उद्भासित हो गई हो, अथवा तप्त लोहा पिघलकर धरती पर लावा की भाँति बह रहा हो। सिंधु का शांत जल किसी जलचर की क्रीड़ा, द्वारा यदाकदा सीमित क्षेत्र में उद्वेलित हो उठता था। नदी के चौड़े पाट पर दूर से ‘छपाक्-छपाक्’ की क्रमिक ध्वनि भी पक्षियों के कलरव के बीच जब-जब सुनाई दे जाती थी। पक्षियों का कोलाहल धीरे-धीरे विराम की ओर जा रहा था। नाविकों द्वारा डाँड़ लगाई जा रही नौकाओं का समूह कभी नदी की धारा के साथ तो कभी आड़ी-तिरछी रेखाओं में चलता हुआ बढ़ रहा था। आगे की नौका पर बाँस के एक डंडे पर बँधा लाल रंग का ध्वज फहरा रहा था। उस नौका पर बैठा वृद्ध नाविक सतर्क दृष्टि जमाए तटों की ओर देख भर लेता था। सहसा उस नाविक ने हाथ का संकेत देकर युवा नाविकों से अपनी क्रियाएँ बेद करने का आग्रह किया। नाविकों ने अपनी पतवारें ऊपर कर लीं। पीछे आ रही पाँच नावों के मल्लाहों को भी संकेत द्वारा ऐसा ही करने का आदेश पहुँचा दिया गया।

‘‘पिंगल, तुम्हें उस तट के समीप कुछ दिखाई दे रहा है ?’’ वृद्ध मार्गदर्शक ने पूछा।
‘‘उस ओर तो सघन वृक्ष हैं।’’ पिंगल की जल से बाहर निकाली गई पतवार से पानी की बूँदें अब भी झर रही थीं। पिंगल संभवतया वृद्ध संकेत नहीं समझ पाया।
‘‘उधर देख, मेरी अँगुली की दिशा में, जहाँ नदी का पानी तट से छूता हुआ बह रहा है, वहाँ कोई आकृति दिखाई देती है या मेरा दृष्टि-भ्रम है ?’’ वृद्ध की तीक्ष्ण दृष्टि मानो युवक का समर्थन माँग रही थी।
‘‘हाँ-हाँ, वहाँ किसी व्यक्ति का शव दिखाई दे रहा है। संभव है, दस्युओं ने किसी वणिक को लूटकर उसे नदी में फेंक दिया हो।’’
‘‘शेष नावों को धारा के मध्य में खड़ी रहने का आदेश देकर अपनी नाव को उस ओर ले चलो।’’
‘‘बाबा, हमारा उस ओर चलना क्या ठीक रहेगा ? संभव है, कोई दस्यु दल तट के पास छिपा हो।’’
युवक नाविक के तर्क पर वृद्ध हँस दिया।
‘‘आप हँस रहे हैं, स्वामी ?’’
‘‘वत्स, जिसे प्राणों का बहुत अधिक मोह हो उसे नाविकों का व्यवसाय छोड़कर अपने घर बैठ जाना चाहिए। नाविक और संकट एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जीवन का हर क्षण झंझावातों में फँसा हुआ मानकर स्वयं को निश्चिंत समझनेवाला ही सागर पार कर सकता है। आदेश का पालन करो।’’ वृद्ध का निश्चय उसकी वाणी से साफ प्रकट हो रहा था। उसकी दृष्टि उसी तट की ओर जमी थी जिस ओर उसने संकेत दिया था।

शेष नावें रुक गईं। अगली नाव तट की ओर चल दी। तट के समीप की घास में एक शव फँसा हुआ सा दिखाई दिया। वृद्ध नाविक ने शव को ध्यानपूर्वक देखा। उसकी साँस रुक-रुककर चल रही थी। वृद्ध तुरंत पानी में कूद गया। दूसरे नाविक की सहायता से उस मृतप्राय व्यक्ति को नाव में डाला गया। व्यक्ति तरुण था। गले में पड़ी यज्ञोपवीत उसके ब्राह्मण होने का प्रमाण दे रही थी। कमर पर संभवतया कृष्णाजिन रहा होगा; किंतु इस समय वह तरुण नंगा था। घुटनों पर खरोंचें उभरी हुई थीं। पाँच-सात स्थानों पर जलजीवों के दंश भी स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। वृद्ध ने तरुण के पेट का पानी निकालने का उपाय किया। उसके मुँह से ढेर सा पानी बाहर आ गया। उसकी साँस प्रकिया कुछ-कुछ सामान्य हुई।
वृद्ध ने अपना उत्तरीय उसपर ढाँप दिया और आदेशात्मक स्वर में कहने लगा, ‘‘वह दूर जो नदी का द्वीप दिखाई देता है, वहाँ सभी को आने का संकेत दो। आज का विश्राम वहीं होगा। भोजन बनानेवालों से कहना कि वहाँ जाकर अतिशीघ्र आग जलाएँ। इस व्यक्ति के शरीर को गरम करना होगा। ठंड से इसकी शिराओं में रक्त नीला पड़ने लगा है।’’

नाविकों का दल रुक गया। बाँस के डंडों को गाड़कर ऊपर चमड़े की परतें फेला दी गईं। एक छोटा सा तंबू बन गया। कुछ नाविक सूखी लकड़ियाँ एकत्रित कर ले आए। आग जलाकर, कपड़ों को गरम कर तरुण को सेंका जाने लगा। कोई एक प्रहर तक यह क्रम चला। तरुण ने आँख खोली, चारों ओर देखा और फिर सो गया। वृद्ध ने उबली हुई मछलियों का रस तरुण के मुँह में उड़ेला और उसे तंबू में ले जाकर, कंबलों में लपेटकर लिटा दिया। तीन दिन के बाद युवक सामान्य दिखाई देने लगा। अभी भी कमजोरी के कारण वह चलने-फिरने में कठिनाई अनुभव कर रहा था। युवक का वर्ण गौर था। आँखें लंबी और तीक्ष्ण। ऊँचा ललाट, उसपर उभरी मुलायम काले बालों की लहराती लटें, सिंधु सलिल को स्पर्श करते वायु के झोंकों से उड़ता उसका उत्तरीय। उसकी रहस्यमय चुप्पी पर पिछली नावों में चल रहे परिवार के सदस्यों में खुसुर-फुसुर चलती रहती थी। नाविक वृद्ध अपने दल एक परिवार के साथ सामान के लेने-देने का व्यवसाय करता था। आदित्यपुर (वर्तमान का अदन बंदरगाह) उसका केंद्र था। वहाँ बसे आदित्य समाज के उत्पादनों को सिंधु घाटी में बसे तृत्सुओं, भृगुओं, देवों, भरतों एवं पुरुओं के गाँवों में बेचा करता था। पंचनद क्षेत्र के माल को आदित्यपुर ले जाकर पणि लोगों को वह साम्रगियाँ सौंप दिया करता था। उसकी एक यात्रा लगभग तीन महीनों में पूरी होती थी। इस समय वह व्यापारी लौट रहा था। बड़ी-बड़ी नावों में चावल, कपास, नमक, वस्त्र, चीनी एवं विभिन्न धातुओं से बनी वस्तुएँ भरी थीं। एक नाव में उसका परिवार था। परिवार में पत्नी, एक पुत्री और एक पुत्र था। दो सेविकाएँ भी उस नाव पर साथ रहती थीं, जिनका काम परिवार की महिलाओं की सेवा करना होता था। नाव को खेनेवाले छह दास सदा अपनी पतवारों को पकड़े अपने स्थान पर बैठे रहते थे। जहाँ भी रात्रि निवास होता, सभी दास अपने लिए शिकार कर लाते अथवा मछलियों से अपनी उदरपूर्ति करते थे। वृद्ध नाविक सदा अगली नाव के साथ रहता था। उसका पुत्र परिवार के साथ नाव में सोता रहता था। वृद्ध की उम्र कोई पचास-साठ वर्ष की दिखाई देती थी। उसका पुत्र बीस वर्ष की आयु पार कर चुका था। पुत्री अठारह की थी। उसका सौंदर्य, चपलता और वाचालता किसीको भी आकर्षित करने में सक्षम थी। स्वस्थ होने पर वृद्ध ने अपनी नाव के ध्वज के नीचे बैठे नवागंतुक से पूछा, ‘‘वत्स ! इतना तो स्पष्ट है कि तुम एक ब्राह्मण कुमार हो; किंतु परिचय जानने की इच्छा से जानना चाहूँगा कि तुम किस परिवार से हो ?’’

युवक ने वृद्ध को सतर्कतापूर्वक ऊपर से नीचे तक देखा। उसकी दृष्टि से लग रहा था मानो वह वृद्ध के भीतर छिपे विचारों को पढ़ने का प्रयास कर रहा हो। कुछ क्षणों के मौन के बाद वह मुसकराया।
‘‘भद्रपुरुष, मैं नहीं जानता कि आप कौन हैं ! यह भी नहीं जानता कि आपकी नावों का लक्ष्य क्या है ! तथापि आपका उपकार मानता हूँ कि आपने मेरा जीवन बचाया। इस पुण्य कार्य हेतु मैं आपके प्रति श्रद्धान्वित हूँ। आप मेरे बारे में जानना चाहते हैं तो केवल इतना ही पर्याप्त है कि मैं भृगु हूँ। मुझे मेरे माता-पिता एवं आचार्यगण ‘राम’ के नाम से पुकारते थे।’’
‘‘वाह, क्या नाम दिया तुम्हारे गुरुजनों ने !’’
‘‘भद्रपुरुष ! क्या मैं आपको परिचय ले सकता हूँ ?’’
‘‘क्यों नहीं ! मैं हूँ चंद्र। मेरा पुत्र पैल है और पुत्री का नाम शशि है। हम आदित्य जाति के हैं। कश्यप सागर से आदित्यपुर (वर्तमान के कैस्पियन सागर से अदन बंदरगाह) के बीच फैले क्षेत्र में हमारी जाति के लोग निवास करते हैं।’’ वृद्ध ने कहा।
‘‘मेरी यह जानने की इच्छा है कि आपने मुझे क्यों बचाया ?’’ राम ने पूछा।
‘‘जीवन बड़ी कठिनाई से मिलता है। उसकी देखभाल करना हमारा धर्म है। मुझे लगा कि तुम्हारा शरीर मृत नहीं था, अतः एक मानव होने के नाते मेरा कर्तव्य था कि तुम्हारे जीवन के तंतुओं को, यदि नहीं उखड़े हों तो, पुनः जोड़ दूँ। किंतु मेरे लिए भी यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि तुम्हारे जैसा स्वस्थ व्यक्ति आखिर डूबा क्यों !’’ चंद्र की सतर्क दृष्टि राम पर गड़ी हुई थी।
‘‘यह एक अंतहीन कहानी है। संक्षेप में इतना ही कह सकता हूँ कि मुझपर विष प्रयोग किया गया था। और संभव है मृत समझकर या मरने के लिए सिंधु में फेंक दिया गया।’’
‘‘ओह, तुम जैसे वलिष्ठ एवं सुदर्शन युवक के भी शत्रु हैं, यह जानकर दुःख हुआ। अब आगे की क्या सोचते हो ?’’
‘‘यदि आपके परिवार पर मैं भारस्वरूप माना जा रहा हूँ तो आप मुझे इसी समय तट पर उतार सकते हैं।’’
‘‘तुम गलत समझ गए, युवक ! यह तो मेरा सौभाग्य होगा, यदि तुम सदा-सदा के लिए मेरे साथ रह सको। मेरे पूछने का अर्थ केवल यही था कि यदि तुम जाना चाहो तो तुम्हें परिवार तक पहुँचाने की व्यवस्था करूँ।’’
‘‘यह अब संभव नहीं है। मुझे नहीं ज्ञात है कि परिवार के सदस्य इस समय कहाँ होंगे ! अवसर आने पर मैं स्वयं उन्हें खोज निकालूँगा। आपने मुझपर जीवनदान की कृपा की, इस निमित्त एक बार और आपके प्रति आभार प्रकट करता हूँ।’’
राम की शालीनता चंद्र नाविक को छू गई। वह मौन हो गया। वह स्वयं भी नहीं चाहता था कि राम के इतिहास में सीधा प्रवेश किया जाए; क्योंकि उसे डर था कि कहीं राम भड़ककर चला न जाए।

लगभग एक सप्ताह तक की यात्रा यों ही चलती रही। इसके बाद के पड़ाव पर नाविक को तीन दिनों तक एक ही स्थान पर रुके रहना था। पूर्णिमा के अवसर पर नदी के तटीय वन में कोई मेला लगने वाला था। नाविक ने भी एक अच्छा सा स्थान देखकर अपना सामान फैला लिया। उस मेले में कुछ कमाया जा सकेगा, ऐसा नाविक का विचार था।
वस्तुतः उस मेले में बड़ी भीड़ थी। वनों के कोनों से निकल-निकलकर जनसमूह उमड़े आ रहे थे। राम भी नाविक के पुत्र पैल को साथ लेकर मेले में भ्रमणार्थ निकल पड़ा। पैल के पास संभवतया कुछ रजतकपिश थे। वह बार-बार आग्रह कर रहा था कि राम भी कुछ खरीदे। उसने अब हठ पकड़ लिया और कहने लगा, ‘‘भाई राम, क्या आप मुझे अपना नहीं समझते हैं ?’’
‘‘तुमने ऐसा किस कारण से सोच लिया, पैल ?’’ राम ने उसे ध्यानपूर्वक देखते हुए कहा।
‘‘मैं आपसे आग्रह कर रहा था कि आप अपने लिए कोई उत्तरीय पसंद कर लें, काले हिरण का चर्म चुन लें अथवा पैरों में पहनने के लिए उपानह ही खरीद लें; किंतु आप तो मेरी सुनते ही नहीं हैं।’’
‘‘तुम्हें पता है कि मेरे पास द्रव्य नहीं है। मैं नहीं चाहता हूँ कि आपके द्रव्य पर अपना अधिकार समझकर अपने लिए कुछ क्रय करूँ।’’
‘‘इसलिए तो कह रहा हूँ कि मैं पराया हूँ। आप ऐसा कभी नहीं सोचें। पिताजी ने मुझे रजतकपिश देते हुए कहा था कि आपकी आवश्यकताओं का भी मैं ध्यान रखूँ।’’
‘‘आपके पिताश्री और आप बहुत उदार हैं।’’
‘‘भैया, आपको मेरी सौगंध है। आपको कुछ-न-कुछ तो खरीदना ही है।’’ पैल वस्तुतः राम के पाँव पकड़कर बैठ गया।
‘‘अरे...रे ! उठ, पगले ! मुझे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है।’’
‘‘आपको कुछ तो लेना ही पड़ेगा।’’ पैल के चेहरे पर ऐसी रेखाएँ उभर आईं मानो उसकी आँखों से आँसू टपकना ही चाहते हों।
‘‘अच्छी बात है, मैं अपने लिए कुछ नहीं अपितु बहुत कुछ खरीदूँगा। क्या तुम व्यय कर सकोगे ?’’ राम ने गंभीर होते हुए कहा।
‘‘आप आज्ञा करें, भैया। कम पड़ा तो मैं और ले आऊँगा।’’
‘‘मेरी ओर से केवल एक ही शर्त रहेगी।’’ राम ने कहा।
‘‘शर्त ! कैसी शर्त ?’’ पैल ने पूछा।
‘‘शर्त यही कि जब कभी मैं इस ऋण को चुकाना चाहूँ, तुम और तुम्हारा परिवार लेने से मना नहीं करेगा।’’
‘‘अभी तो आप स्वीकार करें। भविष्य में क्या होगा, यह तो बाद में ही देखा जाना है। आप किसी प्रकार का संकोच नहीं करें।’’

राम मान गया। राम ने कई प्रकार की सामग्रियाँ खरीदीं। विभिन्न प्रकार के लोहे की नोकवाले तीर, कई आकारवाले धनुष, हाथ और पैरों में बाँधे जा सकनेवाले चर्मबंध, कटिबंध, ढालें, तलवारें, शिरस्त्राण, शरीर के अंगों के संधिस्थलों को सुरक्षित रखे जा सकनेवाले लौह आस्तरण, मजबूत उपानह, कई प्रकार के तूणीर वल्गाएँ आदि विविध वस्तुओं को खरीदा गया।
पैल का मुँह ही सूख गया। वह फट पड़ा, ‘‘भैया, क्या किसीसे युद्ध किया जाना है ?’’
‘‘युद्ध या विपत्तियाँ किसीके निमंत्रण की प्रतीक्षा नहीं करती हैं। हमें प्रत्येक परिस्थिति के लिए तत्पर रहना चाहिए। मैंने देखा है कि आप लोगों के पास युद्ध संबंधी जितने साधन हैं, वे अपर्याप्त हैं। यही कारण है कि मैंने इस सामग्री का संग्रह करना उचित समझा।’’

‘‘जैसी आपकी इच्छा।’’ पैल मन-ही-मन कुछ सोचने लगा। दासों के कंधों पर सामग्री लदवाकर अगली नौका में रखवाई गई। तीन दिनों के विश्राम के पश्चात् नावों का काफिला पुनः चल पड़ा। कुछ दिनों बाद सिंधु का मुहाना आ गया। अब नदी से महार्णव में प्रवेश करना था। संगम स्थल पर एक व्यापारी से चर्चा कर नाविकों के इस कुल प्रमुख ने एक बड़ा सा जहाज किराए पर ले लिया। नावों को खाली कर दिया गया। समस्त सामग्री जलपोत में जमा दी गई। राम के आग्रह पर दो बड़ी नौकाओं को जहाज के साथ-साथ चलाए जाने का निश्चय हुआ। राम और पैल खरीदे गए अस्त्र-शस्त्रों के साथ नौकाओं पर ही रहे। पाल लगाकर जहाज पश्चिम की ओर मोड़ा गया। जहाज से बँधी नावें भी बहने लगीं। नाविक परिवार प्रसन्न था। वह अपने घर जो लौट रहा था।

प्रातःकाल का समय था। दूर, बहुत दूर, जहाँ पानी और प्रकाश की सीमाएँ छू जाती थीं वहाँ भगवान् भास्कर अपनी आभा फैला रहे थे। नौका पर बैठा राम आँखें बंद किए संभवतया ध्यानस्थ था। प्रातःकाल समीर से सभी के मन प्रसन्न थे। नौकाओं पर जमे दासों को पतवार नहीं चलानी पड़ रही थी। नावें स्वतः चल रही थीं।

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