नारी विमर्श >> कदाचित् कदाचित्भिक्खु
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स्त्री जीवन के समग्र पक्ष को उकेरती एक अन्यतम कृति ‘कदाचित्’...
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
‘मैं समाज सेविका बनी थी; पर इसीलिए नहीं कि मुझे समाज के लिए
उत्थान की चिंता थी। इसलिए भी कि नहीं कि मैं सन्तोषों, पीड़ितों और
अभावग्रस्त लोगों का मसीहा बनना चाहती थी। यह सब नाटक रूप में ही प्रारंभ
हुआ था। मेरे पीछे एक डायरेक्टर था। स्टेज का। वही प्रांप्टर भी था। उसके
बोले डॉयलाग़ मैं बोलती। उसकी दी हुई भूमिका मैं निभाती।
उसीका बनाया हुआ चरित्र करती थी मैं। कुछ सुविधाओं कुछ महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ती के लिए मैंने यह भूमिका स्वीकार की थी। फिर अभिनय करते-करते मैं कोई पात्र नहीं रह गई थी। मेरा और उस पात्र का अन्तर मिट चुका था। अब सचमुच ही अभावग्रस्तों की पीड़ा मेरी निजी पीड़ा बन चुकी है। और मेरा यह परिवर्तन ही मेरे डायरेक्टर को नहीं सुहाता।’
‘पर यह डायरेक्टर है कौन ?’
‘मेरे गुरु, राजनीतिक गुरू !,
‘त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं’ की तोता रटंत करनेवाले समाज को क्या कभी पुरुष चरित्र में खुली आँखों विश्लेषण किया है ? किया होता है तो तंदूर कांड होते ? अपनी पत्नी की हत्या कर के मगरमच्छों के आगे डालना तथा न्याय के मंदिर में असहाय और शरणागत अबला से कानून के रक्षक द्वारा बलात्कार करना पुरुष-चरित्र के किस धवल पक्ष को प्रदर्शित करता है ?
स्त्री जीवन के समग्र पक्ष को जिस नूतन दृष्टि से भिक्खुजी ने ‘कदाचित्’ के माध्यम से उकेरा है, उस दृष्टि से शायद ही किसी लेखक ने उकेरा हो। शिल्प और भाषा शैली की दृष्टि से भी अन्यतम कृति है ‘कदाचित्’।
उसीका बनाया हुआ चरित्र करती थी मैं। कुछ सुविधाओं कुछ महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ती के लिए मैंने यह भूमिका स्वीकार की थी। फिर अभिनय करते-करते मैं कोई पात्र नहीं रह गई थी। मेरा और उस पात्र का अन्तर मिट चुका था। अब सचमुच ही अभावग्रस्तों की पीड़ा मेरी निजी पीड़ा बन चुकी है। और मेरा यह परिवर्तन ही मेरे डायरेक्टर को नहीं सुहाता।’
‘पर यह डायरेक्टर है कौन ?’
‘मेरे गुरु, राजनीतिक गुरू !,
‘त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं’ की तोता रटंत करनेवाले समाज को क्या कभी पुरुष चरित्र में खुली आँखों विश्लेषण किया है ? किया होता है तो तंदूर कांड होते ? अपनी पत्नी की हत्या कर के मगरमच्छों के आगे डालना तथा न्याय के मंदिर में असहाय और शरणागत अबला से कानून के रक्षक द्वारा बलात्कार करना पुरुष-चरित्र के किस धवल पक्ष को प्रदर्शित करता है ?
स्त्री जीवन के समग्र पक्ष को जिस नूतन दृष्टि से भिक्खुजी ने ‘कदाचित्’ के माध्यम से उकेरा है, उस दृष्टि से शायद ही किसी लेखक ने उकेरा हो। शिल्प और भाषा शैली की दृष्टि से भी अन्यतम कृति है ‘कदाचित्’।
‘उठ निशा, उठ ’
निशा यौवन के उत्तर काल में थी। एम. ए., पी-एच.
डी के बाद डिग्री कालेज में मनोविज्ञान की व्याख्याता थी। फिर भी वह अपने लिए खुद ही एक समस्या बनी हुई थी। ‘उठ निशा, उठ’ ये तीन शब्द उसे हॉण्ड करते रहते। मन में घुमड़ उठती इन शब्दों की गूँज उसे त्रस्त कर देती। फलतः अकेलेपन की त्रासदी और भी विकट हो उठती।
पाँच साल की भी नहीं थी कि माँ उसे अलसुबह जगाने के लिए कहती-‘‘ उठ निशा, उठ। बिना जगाए कभी अपने आप से भी उठ जाया कर।’’
निशा को माँ का कठोर स्वर कशाघात-सा लगता। वह हड़बड़ाकर उठ बैठती। उससे डेढ़ साल छोटी बहन अभी सोई है। छः साल बड़ा भाई भी सोया पड़ा है। स्कूल जाने से पहले उसे बरतन माँज लेने हैं। सड़क के नल से घर-भर की जरूरत का पानी भर लेना है। आटा गूँधना है और सब्जी भी बनानी है। ढेरों काम खेलने की उम्र में इस नन्हीं-सी जान को हर सुबह यह सब काम करना ही है। हर रोज। यही जैसे उसकी नियति हो !
‘‘उठ निशा, उठ,’’ कहकर माँ अब-तक ताने भी देती-‘‘उठ भी, तेरा बाप हमारे लिए नौकर नहीं छोड़ गया है ! आप तो मर गया और छोड़ गया तुझे। अपने जैसी ही बदसूरत लड़की। घर का काम-काज सीख ले। तकदीर से तेरा ब्याह हो गया तो यही सब तेरे काम आएगा। ब्याह नहीं हुआ तो भी किसी घर में नौकरानी बनकर जीने का जुगाड़ तो कर लेगी।’’
माँ सुन्दर थी, साथ ही रूपगर्विता भी। उस छोटे से कस्बे में पति की एक छोटी-सी बजाजे की दुकान थी। वह कटपीस का माल बेचता। किसी तरह इतना-भर कमा पाता कि दो जून की रोटी चल जाती।
पिता की मृत्यु के बाद वह दुकान भी बंद हो गई थी। माँ ने औने-पौने दामों में, जो कुछ भी कटपीस का माल था, बेचकर चाट का खोमचा लगवा दिया था। बजाजे की दुकान चाट की दुकान में बदल गई। निशा का निरक्षर बड़ा भाई दुकान पर बैठता।
माँ के लाड़ ने उसे पढ़ने ही नहीं दिया था। वह स्कूल में भरती तो हुआ था। पर सिर्फ वहाँ से भागकर गुल्ली-डंडा खेलने के लिए। हारकर बाप उसे अपने साथ दुकान पर बैठाने लगा था। किसी तरह हिंदी-मुंडी सिखा दी थी। काम चलाने लायक हिसाब भी। अब माँ चाट बनाती। निशा माँ का सहयोग करती। भाई हर शाम दो-तीन घंटे के लिए खोमचा लगाता। पर निशा के लिए हर दिन अठारह-बीस घंटे का होता। सिर्फ रात के कुछ घंटे ही उसके अपने होते।
निशा की छोटी बहन विभा माँ की लाड़ली थी। माँ का ही रूप रंग पाया था। निशा उस पर जान छिड़कती थी।
निशा सात साल की हुई होगी कि दिन-भर काम में खटने के बावजूद माँ उसे बोझ ही समझती। उसने उसे गंगा पार के ‘बालिका आश्रम’ में भेज दिया। निशा जाते-जाते बहुत रोई। वह छोटी बहन से दूर रहने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी।
निशा को आश्रम भेजते हुए माँ का आशीर्वचन था- जैसी सूरत पाई है उसे देखते हुए तेरा ब्याह तो होने से रहा। पढ़ लेगी तो अपने लिए रोटी-कपड़े का जुगाड़ तो कर ही लेगी।
आश्रम अनाथालय का एक विकसित रूप था। वहाँ खाते-पीते घरों की लड़कियाँ भी थीं। कहने को तो शिक्षा निःशुल्क। पर खाते-पीते घरों की लड़कियों के माँ-बाप आश्रम को दानस्वरूप प्रतिमाह एक निश्चित राशि देते। फलतः दान देनेवाले और दान न देनेवाले अभिभावकों की ल़ड़कियों से व्यवहार में अंतर था। पहले वर्ग की लड़कियों को सिर्फ पढ़ाई करनी पड़ती थी। खेल-कूद की सुविधाएँ भी उन्हें प्राप्त थीं। दूसरे वर्ग की लड़कियों को ‘श्रमदान’ करना पड़ता। यह गौरवशाली शब्द आश्रम के अधिष्ठाती ने दिया था। इस शब्द का अर्थ था, पढ़ाई से बचे अतिरिक्त समय में सेवाकार्य करना। यह सेवा ली जाती थी अनेक रूपों में, मसलन आश्रम की झाड़ू-बुहारी करना, नहानघरों में रखे बड़े-बड़े कंडालों में कुएँ से पानी खींच-खींचकर भरना, इत्यादि।
श्रमदान का गौरव पाने वाली गिनी-चुनी निर्धन लड़कियाँ ही थीं। फलतः उन्हें प्रायः सुबह-शाम होनेवाली प्रार्थना-सभाओं से वंचित करना पड़ता। विशेष पर्वों और उत्सवों के अवसर पर उनका काम और बढ़ जाता। ऐसे अवसरों पर उन्हें स्वयंसेविकाओं के बिल्ले मिलते। ये बिल्ले उनके मन में गौरव का भाव भले ही जगाते हों, पर उनकी असलियत फिर भी नहीं बदलती।
निशा इसी श्रेणी में आती थी। भाँवरी से उसका अपनापा हो गया था। वह निशा से कई साल बड़ी थी। निशा समर्पित भाव से आश्रम का काम करती। बचे-खुचे समय में पढ़ाई भी मन लगाकर करती। वह अपनी कक्षा में प्रथम आती। वह बारह साल की उम्र में ही सातवीं कक्षा पास कर चुकी थी। तब तक भाँवरी आश्रम से जा चुकी थी। उसका ब्याह हो चुका था। परिणाम स्वरूप निशा का श्रमकार्य और बढ़ गया था।
निशा आश्रम में रच-बस गई थी। पर उसकी हर सुबह मानसिक संत्रास से शुरू होती ‘उठ निशा, उठ’ शब्दों के साथ। आश्रम का चौकीदार हर सुबह पाँच बजे उसे उठा देता, भले ही चिल्ले का जाड़ा हो या सावन भादों की झड़ियाँ। इन शब्दों को सुनते ही वह काँप उठती। अपनी वास्तविकता का बोध होने में उसे कुछ समय लगता। फिर भी यंत्रवत् दैनिक दायित्वों की पूर्ति में लग जाती।
दूसरी लड़कियों के घर वाले जब-तब आते रहते। स्वयंसेविका वर्ग की लड़कियों के घरवाले भी यथाशक्ति अपनी लड़कियों के लिए कुछ ले ही आते। पर निशा से मिलने कभी कोई नहीं आया। दूसरी लड़कियों के अभिभावकों को देखकर वह अनाथ होने की हीनता से भर उठती। धीरे-धीरे उसने वस्तुस्थिति को स्वीकार कर लिय़ा था। उसे ही अपनी नियति मानकर वह पढ़ाई पर और भी ध्यान देने लगी। कक्षा में प्रथम आती तो उसका खोया हुआ आत्मबल विशेष प्रबल होने लगता। कभी सिर में दर्द होता तो भी वह किसी को अपनी पीड़ा का आभास तक नहीं होने देती। ज्वर होने पर भी काम करती-रहती। कुएँ से पानी भरते-भरते हाथों में छाले पड़ते रहते, पड़े हुए छाले फूटते रहते, पर कभी उसने काम नहीं छोड़ा। घर पर माँ से कभी अपनी तकलीफ के बारे में बताती तो वह उसे ‘कामचोर’ कहकर झिड़क देती। वह नहीं चाहती थी कि आश्रम में भी ऐसी स्थित आए। कोई उसे बहाने बाज समझे, कामचोर होने का आरोप लगाए।
बस कहीं उसका स्वाभिमान सुरक्षित रह गया था तो सिर्फ इसी भावना में। फलतः हर कोई उससे संतुष्ट था। पर वह स्वयं से कभी संतुष्ट नहीं हो पाई। घर की याद उसे आती रहती। घर के साथ-साथ माँ की, भाई की और गुड़िया-सी प्यारी बहन की भी। पिता की भी याद आती, पर उसकी कोई आकृति नहीं उभर पाती। उनका प्यार भर याद रह गया था उसे।
इसी तरह वह दसवीं कक्षा में आ गई। उसके अनजाने ही उसकी देह में काम्य परिवर्तन होने लगे थे। एक सुबह वह कुएँ से पानी भर रही थी कि अधिष्ठाताजी की नजर उसपर पड़ी और वहीं टिककर रह गई। वे उसके शरीर में कुँआरे यौवन का विस्फोट देखकर मुग्ध थे। उसके पास आकर नाटकीय आत्मीयता के साथ नाम पूछा। नाम सुनकर बोले ‘‘बड़ा प्यारा नाम है !’’
निशा पानी से भरा डोल बालटी में उलटना भूल-सी गई थी। सकुचाई-सी खड़ी रही। नजरें अपने ही पाँव के नखों पर। पर अधिष्ठाताजी की नजरें उसके अंग-प्रत्यंग पर।
मौन के विस्तार को समेटते हुए अधिष्ठाताजी ने ही बात बढ़ाई- ‘‘मैंने सुना है, तुम पढ़ाई-लिखाई में भी तेज हो।’’
निशा स्फुरित, पर निःशब्द।
अधिष्ठाताजी ने दिखावे की सहानुभूति के साथ कहा- ‘‘पर श्रमदान से बचे समय में तुम कितना पढ़ पाती होगी ?’’
निशा फिर भी प्रतिक्रियाशून्य।
अधिष्ठाताजी ने कृपालु भव से कहा- ‘‘तो इस बारे में मुझे ही कुछ करना होगा।’’
अधिष्ठाताजी चले गए, पर निशा किंकर्तव्यविमूढ़-सी खड़ी रही कुछ छणों तक।
‘उठ निशा, उठ’ सपने में भी ये शब्द गूँज रहे थे। पर निशा गहरी नींद में थी। सोती रही।
नींद में भी यही शब्द दस्तक-सी देते रहे। पर निशा जागी नहीं। नींद का नशा उसकी चेतना को आक्रांत किए रहा।
फिर नींद जब टूटी तो रोशनी से भरपूर डॉर्मेटरी का कमरा उसकी आँखों को चौंधिया रहा था। वह त्रस्त-सी उठ खड़ी हुई। फिर तेजी से नहानघर की तरफ भागी। कंडाल खाली, अधखाली। वह अपराध-भावना से ग्रस्त हो उठी। पर जब नहाई-धोई लड़कियों को देखा तो भय अचरज में बदल गया। ‘‘कैसे हुआ ? यह सब ?’’ यह प्रश्न उसे मथने लगा।
फिर वह चौकीदार को ढूंढने लगी। वह स्वयं उसकी तरफ आ रहा था। वह अभी भी उससे कुछ फासले पर था कि वह उसपर आरोप लगा बैठी- ‘‘तुमने आज मुझे जगाया क्यों नहीं ?’’
चौकीदार ने मुसकराते हुए कहा- ‘‘बहनजी, आज से आपकी यह ड्यूटी खत्म। मैनेजर साहब ने कहा है कि जिन श्रमदानी लड़कियों का बोर्ड का इम्तिहान है, उनसे अब यह ड्यूटी नहीं ली जाएगी।’’
उसी शाम को अधिष्ठाताजी ने उसे अपने कमरे में बुलाया। अधिष्ठाताजी वानप्रस्थी थे। इसलिए परिवार से अलग आश्रम में ही रहते थे। जब वे पचास वर्ष के थे तभी पत्नी की मृत्यु हो गई थी और तभी से वे वानप्रस्थी हो गए थे। यह सब पाँच वर्ष पूर्व हुआ था।
सहमी-सहमी निशा। अधिष्ठाताजी ने उसे आश्वस्ति-भरे स्वर में पास ही पड़ी कुरसी पर बैठने को कहा। झिझकती-सी निशा कुरसी के किनारे पर बैठ गई। अधिष्ठाताजी ने कहा- ‘‘ठीक से बैठो ! इतनी सहमी-सहमी क्यों हो ?’’ निशा चुप।
फिर नए प्रश्न-तुम्हारी माँ है ? भाई-बहन हैं ? फिर भी तुमसे मिलने कोई आता क्यों नहीं ? क्या वे तुम्हारे सगे नहीं है ? माँ विमाता है क्या ?
अधिष्ठाताजी के स्वर की आत्मीयता ने उसे तरल कर दिया। आँखों में जाने कहाँ छुपा अश्रु-ओघ बहने लगा अधिष्ठाताजी उठकर उसके पास आए। प्यार से सिर सहलाने लगे। पर उसके मन में एक ही विचार था तब- ‘कैसे रेशम जैसे बाल हैं।, बस वे उसके बाल-जाल में अंगुलियाँ घुमाते रहे। निशा ने बैठे-बैठे ही उनके उदर भाग पर सिर टेक दिया। अब वे झुककर उसकी पीठ सहलाने लगे। उनके इस स्पर्श से निशा रोते-रोते हिचकियाँ लेने लगी। उन्होंने उसे खड़ा करते हुए अपनी छाती से लगा लिया। निशा उनकी बाँहों में सिमट गई। बाहुपाश कसता गया। पुष्ट वक्ष के प्रभाव से अधिष्ठाताजी के स्नायु खिंचने लगे। तभी किसी आवाज से चौंककर उन्होंने उसे अलग कर कुरसी पर बैठा दिया। स्वयं भी अपनी कुरसी पर काँपते-से बैठ गए।
यह आवाज थी उनके अपने मन के भ्रम की। फिर भी उन्हें सामान्य होने में कुछ समय लगा। भ्रम ने भय का संचार किया था। भय संचरित होकर भी स्थाई भाव न बन सका तो उन्होंने स्वयं को निरापद समझा। फिर सहज भाव से बोले- ‘‘चिंता मत करो आज से मुझे अपना सबकुछ समझना। सर्वस्व !’’ निशा ‘सर्वस्व’ की शब्द की व्यंजना न समझकर भी प्रसन्न थी।
उसने कुरसी से उठकर उनके चरण स्पर्श किए। अधिष्ठाताजी ने तभी उसे बाँहों में पकड़कर उठाते हुए उसका माथा चूम लिया। फिर अश्रुसिक्त कपोलों पर चुंबन अंकित करके कहा- ‘‘अब जाओ, फिर आना। आती रहना। जब भी मन करे, आना।’’
निशा निहाल। उसकी छेटी-छोटी आँखों में अपार सुख छलकने लगा। ऐसा प्यार तो उसे अपने पिता तक से नहीं मिला था। पत्नी के व्यंग्य-बाणों के भय से वे अपनी उपेक्षित बेटी को खुलकर प्यार भी नहीं कर सकते थे।
निशा अधिष्ठाताजी से जब-तब मिलती रही। अधिष्ठाताजी उसके अंगों के स्पर्श का अवसर कभी नहीं चूकते। फिर भी निशा को यही लगता कि उसके लिए कहीं अपनत्व है तो उन्हीं में। धरती पर कहीं देवत्व है तो उन्हीं के रूप में। उसके लिए सुविधाएँ बढ़ती गईं। पर भोली-भाली निशा को तब इसका आभास तक नहीं हुआ कि वह कैसे अनजाने में मकड़जाल में फँसती जा रही है। वह यही मानती रही रही कि उसका भाग्योदय हो रहा है, देर से ही सही।
बोर्ड की परीक्षाएँ हो गईं। निशा परीक्षाफल के बारे में आश्वस्त थी। उसमें अब पहले जैसा दैन्य नहीं रहा था। वह आत्मविश्वास से भर उठी थी। ग्रीष्मावकाश में छात्राएँ अपने-अपने घर जा चुकी थीं। कुछेक की शादी इन्हीं छुट्टियों में तय थी। वह भी अपनी शादी, एक पति और एक परिवार के बारे में सोचती। पर तभी माँ की बात याद आ जाती- ‘कौन करेगा ऐसी बदसूरत लड़की से ब्याह’। वह दीन हो उठती। पर उसकी यह दीनता क्षण-व्यापी ही होती। वह आत्मविश्वास से भरकर अपना प्रबोध करती-सी मन-ही-मन कह उठती- नहीं मैं शादी नहीं करूँगीं। मैं पढ़ूँगी। खूब पढ़ूँगी। माँ को कुछ बनकर दिखाऊँगी।
आश्रम में अब वह अकेली लड़की थी। सदा की तरह। पर एक अंतर था। पहले उसे आश्रम में सेवाकार्य, अर्थात् श्रमदान करना पड़ता था। पर अब वह अधिष्ठाताजी के आदेश मैनेजर को और मैनेजर के आदेश अन्य कर्मचारियों और कार्यकर्ताओं तक पहुँचाने लगी थी। छुट्टियों में अब वह डॉर्मेटरी के बड़े कमरे में नहीं रहेगी। अधिष्ठाताजी ने अपने निवास के पास ही एक छोटे, पर सुविधापूर्ण कमरे में उसके रहने की व्यवस्था कर दी थी। कमरे की सुविधाओं में जिस चीज ने उसे सर्वाधिक आकृष्ट किया वह था एक बड़ा शीशा। वह शीशे में अपनी छवि निहारने का मौका नहीं छोड़ती।
उसके दिमाग में तो माँ ने यह बात भर दी थी कि वह बदसूरत है। इसलिए वह सदा आत्मसाक्षात्कार से भागती थी, शीशे तक से आत्मसाक्षात्कार का उसका साहस मर चुका था। पर जब उसे बरबस अपने आपको शीशे में देखना पड़ जाता तो वह उसकी आदी हो गई। बदसूरती की हीनता लोप हो गई। शीशे की मौन खुशामद उसे स्वयं को सुंदर मानने का बल देती रही। हीनभाव की ग्रंथि खुलती गई। पर वह यह कभी नहीं जान पाई कि पहले से भी प्रबल एक और हीनता की ग्रंथि उसमें जन्म ले चुकी थी, जो सुंदरता के विश्वास का विलोम थी। फलतः उसे सुंदर कपड़े, प्रसाधन की वस्तुएँ आकृष्ट करने लगीं। पर कहाँ थीं वे वस्तुएँ, जो उसकी निर्धनता और आश्रम के अनुशासन के कारण अप्राप्य और अग्राह्य थीं।
ग्रीष्मावकाश में वह अधिष्ठाताजी से और भी अंतरंग हो उठी थी। उस गूँगी लड़की ने वाचाल कर दिया था। वे स्वयं को एक महामानव की छवि देने का अवसर कभी नहीं चूकते। प्रसंग हो या न हो, वे ऐसी स्थित पैदा कर देते जिसमें उनका आत्मज्ञान भी निशा को सहज लगता। वे उसके लिए विरा़ट् से विराट्तर होते गए। जब कभी वे उसके उद्धत वक्ष का स्पर्श भी कर बैठते तो उसे उनके इस आचरण में कुछ भी आक्षेपजनक नहीं लगता। माथे और कपोलों पर प्रायः अंकित होनेवाले चुम्बन उसे आशीर्वादमय ही लगते।
उनके पीठ सहलाने या बालों में अंगुलियाँ फेरने से कभी-कभी उसके बदन में सिरहन-सी होती या कोई अबूझ अनुभूति जो उसके अंगों को ऊष्मा से भर जाती। पर तब तक वह पुरुष के लिए स्त्री का प्रयोजन या अर्थ नहीं समझ पाई थी। वनबेल-सी पवन से झिंझोड़ी जाकर भी उसके मन में कोई अन्यथा भाव नहीं आता, जिसे कालिदास ने ‘अन्यथा चित्तवृत्ति’ कहा था। बस, वह खुश थी और अपने भविष्य के लिए आशापूर्ण।
निशा की खुशी में एक खुशी और जुड़ गई। परीक्षा- परिणाम घोषित हो गए। निशा प्रथम श्रेणी में पास ही नहीं हुई, बल्कि मैरिट लिस्ट में भी उसका नाम काफी ऊँचा था। अब आगे की पढ़ाई के लिए उसे स्कॉलरशिप भी मिलेगा। यह सूचना उसे अधिष्ठाताजी ने दी। शुद्ध स्नेहभाव से आशीर्वादसूचक चुंबन भी उसके माथे पर अंकित करते हुए कहा- ‘‘बधाई ! पर पहला पुरस्कार तुम्हें मैं दूँगा। पुरस्कार क्या होगा, इसका निर्णय भी मैं ही करूँगा।’’
निशा पुलकित। कृतार्थ भी और कृतज्ञ भी। पर यह सबकुछ शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पाई। बस झुककर अधिष्ठाताजी के चरण छू लिये। तत्काल उन्होंने उसे उठाकर छाती से लगा लिया। उसके स्पर्श ने फिर जादू किया। उनके स्नायु तनने लगे। निशा को और कसकर बाँहों में भर लिया। उनका आलिंगन शिथिल न पड़ता, यदि एक स्त्री-स्वर कानों में नहीं पड़ता। स्त्री पास ही में कहीं किसी से पूछ रही थी- ‘‘अधिष्ठाताजी का कमरा कहाँ है ?’’
अधिष्ठाताजी निशा को छोड़कर बाहर आए। वह स्त्री पास आई तो कहा- ‘‘मैं ही आश्रम का अधिष्ठाता हूँ।’’
आगंतुका ने प्रणामपूर्वक कहा- ‘‘मैं निशा की माँ हूँ उसे लेने आई हूँ।’’
अधिष्ठाताजी चकित। आगंतुका को देखते रह गए। निशा के रूप-रंग में कोई साम्य नहीं था। वह स्त्री तो कई बड़े-बड़े बच्चों की माँ होकर भी आसाधारण सुंदरी थी। फिर संयत होकर कहा- ‘‘अंदर आइए। निशा यहीं है। अभी-अभी इसका रिजल्ट आया है बहुत अच्छी पोजीशन पाई है। इस लड़की का भविष्य उज्जवल है। आपको बधाई ! मैं निशा को भी बधाई दे रहा था।’’
माँ सुंदर पर फूहड़। बोली-‘‘लड़की का सबसे बड़ा इम्तिहान शादी है। उसमें पास हो जाए तो समझ लो, सारे इम्तिहान पास कर लिये।’’
निशा माँ को देखकर सहम उठी थी। फिर भी आगे बढ़कर उससे लिपट गई। उसी तरह लिपटे-लिपटे बोली- ‘‘आखिर तुम्हें मेरी याद आ ही गई न ! मैं हर छुट्टियों में तुम्हारी बाट जोहती थी। घर में सब कोई ठीक हैं न ? मुझे अपने साथ ले चलोगी न ? अभी भी काफी छुट्टियाँ बाकी हैं। छोटी अब तो बड़ी हो गई होगी। छुट्टी-भर मैं उसके साथ बहुत-बहुत खेलूँगी। घर के काम में तुम्हारा हाथ बँटाऊँगी। ले चलोगी न माँ, मुझे अपने साथ ?’’
यह गूँगी लड़की एक साथ इतना कैसे बोल गई, इस पर चकित थे अधिष्ठाताजी। वे जब से निशा के संपर्क में आए तब से आज तक उसके मुँह से कुल मिलाकर इतने शब्द नहीं सुने थे उन्होंने, जितने इस क्षण माँ से कह गई थी।
माँ ने निशा को अलग करते हुए कहा- ‘‘हाँ बेटी, तुझे ही लेने आई हूँ। तू पास हो गई अच्छा हुआ। नहीं भी होती तो क्या फर्क पड़ता ! अब तेरी उमर घर-गिरस्ती जमाने की हो गई है। अपने कपड़े-लत्ते ले ले और चल।’’
निशा स्तंभित, अधिष्ठाताजी सन्न। फिर भी जब निशा माँ के साथ जाने लगी तो उन्होंने कहा- ‘‘बहनजी, आपकी बेटी है। ले जाना चाहें तो ले जाइए, पर ब्याह की जल्दी मत कीजिएगा। जब तक यह पढ़ना चाहे, इसे पढ़ने दीजिएगा।’’
इसी क्रम में निशा को संबोधित करते हुए कहा-‘‘निशा तुम भी सोचना। इस आश्रम के दरवाजे तुम्हारे लिए सदा खुले रहेंगे। तुम लौटोगी तो तुम्हारा पुरस्कार भी तैयार रहेगा।’’
निशा पीड़ित, अधिष्ठाताजी पीड़ित। पर दोनों की पीड़ा में अंतर था। निशा की पीड़ा थी लक्ष्य से दूर होने की, जबकि अधिष्ठाताजी की पीड़ा थी नितांत व्यक्तिगत, स्वप्न भंग होने जैसी पीड़ा !
छुट्टियाँ खत्म होने से पहले ही निशा आश्रम लौट आई थी। उसे देखकर भी अधिष्ठाताजी को विश्वास नहीं हो रहा था कि निशा आश्रम लौट आई है।
माँ निशा की शादी एक अधेड़ विदुर से करने पर तुली थी। उसकी न तो शक्ल-सूरत अच्छी थी और न ही स्वास्थ्य ठीक रहता था। साथ ही अर्द्धसाक्षर भी। फिर भी उसमें बहुत बड़ा गुण था निशा की माँ की दृष्टि में। वह बहुत पैसेवाला था और साथ ही संतानहीन। निशा की इस शादी से कंगाली भी दूर हो जाएगी।
निशा को देखने आया था वह अधेड़ व्यक्ति। निशा ने भी उसे देखा। सदा की भाँति गूँगी बनी रही। माँ ने शादी की तिथि जल्दी तय करने का आग्रह किया था। उसने वायदा किया। माँ खुश। उसकी खुशी का सबसे बड़ा कारण था। ढेर सारे रूपये, जो वह भेंटस्वरूप दे गया था !
उसके जाने पर माँ ने कहा- ‘‘देख निशा, सूरत तूने जैसी भी पाई हो, पर भाग की धनी है तू। इतने बड़े घर में जाकर तू राज करेगी, राज।’’
पर अगले दिन सोकर उठते ही माँ ने निशा को आवाज दी तो वह शून्य में खोकर रह गई। माँ ने यहाँ-वहाँ सब जगह ढ़ूढ़ा, पर निशा नहीं मिली।
उस रात निशा सो न सकी थी। उसे यही लगा कि उसकी माँ उसे, उसके सपनों को, उसकी खुशियों को बेचने जा रही है। कैसे पाए इस जाल से मुक्ति ? इसी संकल्प-विकल्प में कब उसकी आँख लग गई, उसे पता ही नहीं चला। नींद में सपने नाना रूप धारण करते रहे। फिर चिरपरिचित शब्दों की ध्वनि ‘उठ निशा, उठ’। पर इस बार इन शब्दों की ध्वनि में अप्रिय आदेशात्मकता की कर्कशता नहीं थी। मात्र प्रबोध था। भोर की पहली किरण फूटने ही वाली थी। घर में सोता पड़ा था। वह यंत्रचालित-सी उठी अपने जीवन के पहले अभिनिष्क्रमण-पहले विद्रोह के लिए। आश्रम पहुँची तो थकी-माँदी, भूखी-प्यासी, अर्द्धचैतन्य-सी। अधिष्ठाताजी को उसकी स्थित समझते देर नहीं लगी।
उसे अपने कमरे में जाकर आराम करने को कहा ! वहीं आहार के लिए कुछ फलों के साथ दूध भी भेज दिया और स्वयं बाजार की तरफ निकल पड़े।
निशा ने हाथ-मुँह धोकर दूध पिया, कुछ फल भी खाए और फिर अनायास ही नींद की गोद में चली गई। जब आँखे खुलीं तो रात घिर आई थी। उसने अंधेरे में टटोलकर बत्ती जलाई। रोशनी के फैलते ही उसकी नजर सबसे पहले दीवार में बनी बिन पल्लों की अलमारी के निचले शेल्फ में रखे कपड़ों पर पड़ी। वहाँ उसके पहनने के लिए कुछ सिले-सिलाए कपड़े और सादी सूती साड़ियाँ रखी थीं। उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब किसकी कृपा है।
दो-चार दिनों में ही निशा सहज हो उठी थी। इंटरमीडिएट में पढ़ाई जानेवाली पुस्तकें भी अधिष्ठाताजी ने उपलब्ध करा दी थीं। उस पर उनकी अयाचित कृपा का भार बढ़ता जा रहा था। उन्होंने कभी कहा था कि तुम मुझे अपना सर्वस्व समझना। इसी आश्वासन के बल पर वह उनके सामने मुखर रहने लगी थी। फिर एक दिन सुबह के वक्त एक पैकेट लिए स्वयं अधिष्ठाताजी उसके कमरे में आए। उन्होंने वह पैकेट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा- ‘‘यह मेरा उपहार है, तुम्हारे लिए। बोर्ड की परीक्षा में गौरव के साथ उत्तीर्ण होने पर मैंने तुम्हें उपहार देने को कहा था। कब का रखा है यह मेरे पास। उस दिन तुम्हारी माँ लेने नहीं आ जातीं तो मैं तुम्हें तभी देने वाला था। तब दे न सका तो सोचा किसी शुभ दिन दूँगा। आज ही वह शुभ दिन है।’’
‘‘शुभ दिन ?’’- निशा के मुँह से प्रश्नात्मक ढंग से ये शब्द निकल पड़े।
‘‘हाँ, शुभ दिन ही है,’’- अधिष्ठाताजी ने कहा- ‘‘आज तुम्हारा जन्मदिन जो है। तुम सोचती होगी कि मुझे यह सब कैसे पता चला। बड़ी मामूली-सी बात है। आश्रम के रिकार्ड में यह सब दर्ज है। हाई स्कूल के परीक्षा फार्म में भी जन्म की तारीख भरनी पड़ती है।’’
निशा अचंभित। ‘माँ ने तो कभी उसका जन्मदिन नहीं मनाया। वह तो पैदा ही अभागिन हुई थी। फिर ऐसे जन्मदिन में शुभ क्या ?’ निशा मन ही मन यह सब सोच गई।
अधिष्ठाताजी ने जैसे उसका ऊहापोह भाँप लिया था। बोले-‘‘अब सब भूल जाओ। आज मैं तुम्हारा जन्मदिन मनाऊँगा। शाम को यही साड़ी पहनना।’’
उन्होंने पैकेट खोलकर रेशमी साड़ी दिखाई। मटका सिल्क की साड़ी, चौड़े बैंजनी किनारे और पल्लूवाली। निशा को लगा जैसे वह स्वप्न देख रही है। वह उसी स्वप्निल अवस्था में उनके चरणों में गिर पड़ी। उन्होंने प्यार से उठाया उसे बाँहों में भरकर उसके होंठों को चूम लिया।
निशा उस मनःस्थित में कोई विरोध न कर पाई। अधिष्ठाताजी ने बार-बार उसके होंठों को चूमा, अपने अनियंत्रित हाथों से वक्ष से स्वतंत्रता ली और फिर एक और दीर्घ चुंबन के बाद चले गए।
निशा भयमिश्रित आनंद में खो गई थी। उनके जाते ही उसने अपने कमरे के खिड़की-दरवाजे बंद किए और निर्वस्त्र होकर शीशे में स्वयं को निहारने लगी। दर्पण ने उसे आश्वस्त किया कि वह असुंदर नहीं है। उसकी देह असाधारणतया सुगठित है।
डी के बाद डिग्री कालेज में मनोविज्ञान की व्याख्याता थी। फिर भी वह अपने लिए खुद ही एक समस्या बनी हुई थी। ‘उठ निशा, उठ’ ये तीन शब्द उसे हॉण्ड करते रहते। मन में घुमड़ उठती इन शब्दों की गूँज उसे त्रस्त कर देती। फलतः अकेलेपन की त्रासदी और भी विकट हो उठती।
पाँच साल की भी नहीं थी कि माँ उसे अलसुबह जगाने के लिए कहती-‘‘ उठ निशा, उठ। बिना जगाए कभी अपने आप से भी उठ जाया कर।’’
निशा को माँ का कठोर स्वर कशाघात-सा लगता। वह हड़बड़ाकर उठ बैठती। उससे डेढ़ साल छोटी बहन अभी सोई है। छः साल बड़ा भाई भी सोया पड़ा है। स्कूल जाने से पहले उसे बरतन माँज लेने हैं। सड़क के नल से घर-भर की जरूरत का पानी भर लेना है। आटा गूँधना है और सब्जी भी बनानी है। ढेरों काम खेलने की उम्र में इस नन्हीं-सी जान को हर सुबह यह सब काम करना ही है। हर रोज। यही जैसे उसकी नियति हो !
‘‘उठ निशा, उठ,’’ कहकर माँ अब-तक ताने भी देती-‘‘उठ भी, तेरा बाप हमारे लिए नौकर नहीं छोड़ गया है ! आप तो मर गया और छोड़ गया तुझे। अपने जैसी ही बदसूरत लड़की। घर का काम-काज सीख ले। तकदीर से तेरा ब्याह हो गया तो यही सब तेरे काम आएगा। ब्याह नहीं हुआ तो भी किसी घर में नौकरानी बनकर जीने का जुगाड़ तो कर लेगी।’’
माँ सुन्दर थी, साथ ही रूपगर्विता भी। उस छोटे से कस्बे में पति की एक छोटी-सी बजाजे की दुकान थी। वह कटपीस का माल बेचता। किसी तरह इतना-भर कमा पाता कि दो जून की रोटी चल जाती।
पिता की मृत्यु के बाद वह दुकान भी बंद हो गई थी। माँ ने औने-पौने दामों में, जो कुछ भी कटपीस का माल था, बेचकर चाट का खोमचा लगवा दिया था। बजाजे की दुकान चाट की दुकान में बदल गई। निशा का निरक्षर बड़ा भाई दुकान पर बैठता।
माँ के लाड़ ने उसे पढ़ने ही नहीं दिया था। वह स्कूल में भरती तो हुआ था। पर सिर्फ वहाँ से भागकर गुल्ली-डंडा खेलने के लिए। हारकर बाप उसे अपने साथ दुकान पर बैठाने लगा था। किसी तरह हिंदी-मुंडी सिखा दी थी। काम चलाने लायक हिसाब भी। अब माँ चाट बनाती। निशा माँ का सहयोग करती। भाई हर शाम दो-तीन घंटे के लिए खोमचा लगाता। पर निशा के लिए हर दिन अठारह-बीस घंटे का होता। सिर्फ रात के कुछ घंटे ही उसके अपने होते।
निशा की छोटी बहन विभा माँ की लाड़ली थी। माँ का ही रूप रंग पाया था। निशा उस पर जान छिड़कती थी।
निशा सात साल की हुई होगी कि दिन-भर काम में खटने के बावजूद माँ उसे बोझ ही समझती। उसने उसे गंगा पार के ‘बालिका आश्रम’ में भेज दिया। निशा जाते-जाते बहुत रोई। वह छोटी बहन से दूर रहने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी।
निशा को आश्रम भेजते हुए माँ का आशीर्वचन था- जैसी सूरत पाई है उसे देखते हुए तेरा ब्याह तो होने से रहा। पढ़ लेगी तो अपने लिए रोटी-कपड़े का जुगाड़ तो कर ही लेगी।
आश्रम अनाथालय का एक विकसित रूप था। वहाँ खाते-पीते घरों की लड़कियाँ भी थीं। कहने को तो शिक्षा निःशुल्क। पर खाते-पीते घरों की लड़कियों के माँ-बाप आश्रम को दानस्वरूप प्रतिमाह एक निश्चित राशि देते। फलतः दान देनेवाले और दान न देनेवाले अभिभावकों की ल़ड़कियों से व्यवहार में अंतर था। पहले वर्ग की लड़कियों को सिर्फ पढ़ाई करनी पड़ती थी। खेल-कूद की सुविधाएँ भी उन्हें प्राप्त थीं। दूसरे वर्ग की लड़कियों को ‘श्रमदान’ करना पड़ता। यह गौरवशाली शब्द आश्रम के अधिष्ठाती ने दिया था। इस शब्द का अर्थ था, पढ़ाई से बचे अतिरिक्त समय में सेवाकार्य करना। यह सेवा ली जाती थी अनेक रूपों में, मसलन आश्रम की झाड़ू-बुहारी करना, नहानघरों में रखे बड़े-बड़े कंडालों में कुएँ से पानी खींच-खींचकर भरना, इत्यादि।
श्रमदान का गौरव पाने वाली गिनी-चुनी निर्धन लड़कियाँ ही थीं। फलतः उन्हें प्रायः सुबह-शाम होनेवाली प्रार्थना-सभाओं से वंचित करना पड़ता। विशेष पर्वों और उत्सवों के अवसर पर उनका काम और बढ़ जाता। ऐसे अवसरों पर उन्हें स्वयंसेविकाओं के बिल्ले मिलते। ये बिल्ले उनके मन में गौरव का भाव भले ही जगाते हों, पर उनकी असलियत फिर भी नहीं बदलती।
निशा इसी श्रेणी में आती थी। भाँवरी से उसका अपनापा हो गया था। वह निशा से कई साल बड़ी थी। निशा समर्पित भाव से आश्रम का काम करती। बचे-खुचे समय में पढ़ाई भी मन लगाकर करती। वह अपनी कक्षा में प्रथम आती। वह बारह साल की उम्र में ही सातवीं कक्षा पास कर चुकी थी। तब तक भाँवरी आश्रम से जा चुकी थी। उसका ब्याह हो चुका था। परिणाम स्वरूप निशा का श्रमकार्य और बढ़ गया था।
निशा आश्रम में रच-बस गई थी। पर उसकी हर सुबह मानसिक संत्रास से शुरू होती ‘उठ निशा, उठ’ शब्दों के साथ। आश्रम का चौकीदार हर सुबह पाँच बजे उसे उठा देता, भले ही चिल्ले का जाड़ा हो या सावन भादों की झड़ियाँ। इन शब्दों को सुनते ही वह काँप उठती। अपनी वास्तविकता का बोध होने में उसे कुछ समय लगता। फिर भी यंत्रवत् दैनिक दायित्वों की पूर्ति में लग जाती।
दूसरी लड़कियों के घर वाले जब-तब आते रहते। स्वयंसेविका वर्ग की लड़कियों के घरवाले भी यथाशक्ति अपनी लड़कियों के लिए कुछ ले ही आते। पर निशा से मिलने कभी कोई नहीं आया। दूसरी लड़कियों के अभिभावकों को देखकर वह अनाथ होने की हीनता से भर उठती। धीरे-धीरे उसने वस्तुस्थिति को स्वीकार कर लिय़ा था। उसे ही अपनी नियति मानकर वह पढ़ाई पर और भी ध्यान देने लगी। कक्षा में प्रथम आती तो उसका खोया हुआ आत्मबल विशेष प्रबल होने लगता। कभी सिर में दर्द होता तो भी वह किसी को अपनी पीड़ा का आभास तक नहीं होने देती। ज्वर होने पर भी काम करती-रहती। कुएँ से पानी भरते-भरते हाथों में छाले पड़ते रहते, पड़े हुए छाले फूटते रहते, पर कभी उसने काम नहीं छोड़ा। घर पर माँ से कभी अपनी तकलीफ के बारे में बताती तो वह उसे ‘कामचोर’ कहकर झिड़क देती। वह नहीं चाहती थी कि आश्रम में भी ऐसी स्थित आए। कोई उसे बहाने बाज समझे, कामचोर होने का आरोप लगाए।
बस कहीं उसका स्वाभिमान सुरक्षित रह गया था तो सिर्फ इसी भावना में। फलतः हर कोई उससे संतुष्ट था। पर वह स्वयं से कभी संतुष्ट नहीं हो पाई। घर की याद उसे आती रहती। घर के साथ-साथ माँ की, भाई की और गुड़िया-सी प्यारी बहन की भी। पिता की भी याद आती, पर उसकी कोई आकृति नहीं उभर पाती। उनका प्यार भर याद रह गया था उसे।
इसी तरह वह दसवीं कक्षा में आ गई। उसके अनजाने ही उसकी देह में काम्य परिवर्तन होने लगे थे। एक सुबह वह कुएँ से पानी भर रही थी कि अधिष्ठाताजी की नजर उसपर पड़ी और वहीं टिककर रह गई। वे उसके शरीर में कुँआरे यौवन का विस्फोट देखकर मुग्ध थे। उसके पास आकर नाटकीय आत्मीयता के साथ नाम पूछा। नाम सुनकर बोले ‘‘बड़ा प्यारा नाम है !’’
निशा पानी से भरा डोल बालटी में उलटना भूल-सी गई थी। सकुचाई-सी खड़ी रही। नजरें अपने ही पाँव के नखों पर। पर अधिष्ठाताजी की नजरें उसके अंग-प्रत्यंग पर।
मौन के विस्तार को समेटते हुए अधिष्ठाताजी ने ही बात बढ़ाई- ‘‘मैंने सुना है, तुम पढ़ाई-लिखाई में भी तेज हो।’’
निशा स्फुरित, पर निःशब्द।
अधिष्ठाताजी ने दिखावे की सहानुभूति के साथ कहा- ‘‘पर श्रमदान से बचे समय में तुम कितना पढ़ पाती होगी ?’’
निशा फिर भी प्रतिक्रियाशून्य।
अधिष्ठाताजी ने कृपालु भव से कहा- ‘‘तो इस बारे में मुझे ही कुछ करना होगा।’’
अधिष्ठाताजी चले गए, पर निशा किंकर्तव्यविमूढ़-सी खड़ी रही कुछ छणों तक।
‘उठ निशा, उठ’ सपने में भी ये शब्द गूँज रहे थे। पर निशा गहरी नींद में थी। सोती रही।
नींद में भी यही शब्द दस्तक-सी देते रहे। पर निशा जागी नहीं। नींद का नशा उसकी चेतना को आक्रांत किए रहा।
फिर नींद जब टूटी तो रोशनी से भरपूर डॉर्मेटरी का कमरा उसकी आँखों को चौंधिया रहा था। वह त्रस्त-सी उठ खड़ी हुई। फिर तेजी से नहानघर की तरफ भागी। कंडाल खाली, अधखाली। वह अपराध-भावना से ग्रस्त हो उठी। पर जब नहाई-धोई लड़कियों को देखा तो भय अचरज में बदल गया। ‘‘कैसे हुआ ? यह सब ?’’ यह प्रश्न उसे मथने लगा।
फिर वह चौकीदार को ढूंढने लगी। वह स्वयं उसकी तरफ आ रहा था। वह अभी भी उससे कुछ फासले पर था कि वह उसपर आरोप लगा बैठी- ‘‘तुमने आज मुझे जगाया क्यों नहीं ?’’
चौकीदार ने मुसकराते हुए कहा- ‘‘बहनजी, आज से आपकी यह ड्यूटी खत्म। मैनेजर साहब ने कहा है कि जिन श्रमदानी लड़कियों का बोर्ड का इम्तिहान है, उनसे अब यह ड्यूटी नहीं ली जाएगी।’’
उसी शाम को अधिष्ठाताजी ने उसे अपने कमरे में बुलाया। अधिष्ठाताजी वानप्रस्थी थे। इसलिए परिवार से अलग आश्रम में ही रहते थे। जब वे पचास वर्ष के थे तभी पत्नी की मृत्यु हो गई थी और तभी से वे वानप्रस्थी हो गए थे। यह सब पाँच वर्ष पूर्व हुआ था।
सहमी-सहमी निशा। अधिष्ठाताजी ने उसे आश्वस्ति-भरे स्वर में पास ही पड़ी कुरसी पर बैठने को कहा। झिझकती-सी निशा कुरसी के किनारे पर बैठ गई। अधिष्ठाताजी ने कहा- ‘‘ठीक से बैठो ! इतनी सहमी-सहमी क्यों हो ?’’ निशा चुप।
फिर नए प्रश्न-तुम्हारी माँ है ? भाई-बहन हैं ? फिर भी तुमसे मिलने कोई आता क्यों नहीं ? क्या वे तुम्हारे सगे नहीं है ? माँ विमाता है क्या ?
अधिष्ठाताजी के स्वर की आत्मीयता ने उसे तरल कर दिया। आँखों में जाने कहाँ छुपा अश्रु-ओघ बहने लगा अधिष्ठाताजी उठकर उसके पास आए। प्यार से सिर सहलाने लगे। पर उसके मन में एक ही विचार था तब- ‘कैसे रेशम जैसे बाल हैं।, बस वे उसके बाल-जाल में अंगुलियाँ घुमाते रहे। निशा ने बैठे-बैठे ही उनके उदर भाग पर सिर टेक दिया। अब वे झुककर उसकी पीठ सहलाने लगे। उनके इस स्पर्श से निशा रोते-रोते हिचकियाँ लेने लगी। उन्होंने उसे खड़ा करते हुए अपनी छाती से लगा लिया। निशा उनकी बाँहों में सिमट गई। बाहुपाश कसता गया। पुष्ट वक्ष के प्रभाव से अधिष्ठाताजी के स्नायु खिंचने लगे। तभी किसी आवाज से चौंककर उन्होंने उसे अलग कर कुरसी पर बैठा दिया। स्वयं भी अपनी कुरसी पर काँपते-से बैठ गए।
यह आवाज थी उनके अपने मन के भ्रम की। फिर भी उन्हें सामान्य होने में कुछ समय लगा। भ्रम ने भय का संचार किया था। भय संचरित होकर भी स्थाई भाव न बन सका तो उन्होंने स्वयं को निरापद समझा। फिर सहज भाव से बोले- ‘‘चिंता मत करो आज से मुझे अपना सबकुछ समझना। सर्वस्व !’’ निशा ‘सर्वस्व’ की शब्द की व्यंजना न समझकर भी प्रसन्न थी।
उसने कुरसी से उठकर उनके चरण स्पर्श किए। अधिष्ठाताजी ने तभी उसे बाँहों में पकड़कर उठाते हुए उसका माथा चूम लिया। फिर अश्रुसिक्त कपोलों पर चुंबन अंकित करके कहा- ‘‘अब जाओ, फिर आना। आती रहना। जब भी मन करे, आना।’’
निशा निहाल। उसकी छेटी-छोटी आँखों में अपार सुख छलकने लगा। ऐसा प्यार तो उसे अपने पिता तक से नहीं मिला था। पत्नी के व्यंग्य-बाणों के भय से वे अपनी उपेक्षित बेटी को खुलकर प्यार भी नहीं कर सकते थे।
निशा अधिष्ठाताजी से जब-तब मिलती रही। अधिष्ठाताजी उसके अंगों के स्पर्श का अवसर कभी नहीं चूकते। फिर भी निशा को यही लगता कि उसके लिए कहीं अपनत्व है तो उन्हीं में। धरती पर कहीं देवत्व है तो उन्हीं के रूप में। उसके लिए सुविधाएँ बढ़ती गईं। पर भोली-भाली निशा को तब इसका आभास तक नहीं हुआ कि वह कैसे अनजाने में मकड़जाल में फँसती जा रही है। वह यही मानती रही रही कि उसका भाग्योदय हो रहा है, देर से ही सही।
बोर्ड की परीक्षाएँ हो गईं। निशा परीक्षाफल के बारे में आश्वस्त थी। उसमें अब पहले जैसा दैन्य नहीं रहा था। वह आत्मविश्वास से भर उठी थी। ग्रीष्मावकाश में छात्राएँ अपने-अपने घर जा चुकी थीं। कुछेक की शादी इन्हीं छुट्टियों में तय थी। वह भी अपनी शादी, एक पति और एक परिवार के बारे में सोचती। पर तभी माँ की बात याद आ जाती- ‘कौन करेगा ऐसी बदसूरत लड़की से ब्याह’। वह दीन हो उठती। पर उसकी यह दीनता क्षण-व्यापी ही होती। वह आत्मविश्वास से भरकर अपना प्रबोध करती-सी मन-ही-मन कह उठती- नहीं मैं शादी नहीं करूँगीं। मैं पढ़ूँगी। खूब पढ़ूँगी। माँ को कुछ बनकर दिखाऊँगी।
आश्रम में अब वह अकेली लड़की थी। सदा की तरह। पर एक अंतर था। पहले उसे आश्रम में सेवाकार्य, अर्थात् श्रमदान करना पड़ता था। पर अब वह अधिष्ठाताजी के आदेश मैनेजर को और मैनेजर के आदेश अन्य कर्मचारियों और कार्यकर्ताओं तक पहुँचाने लगी थी। छुट्टियों में अब वह डॉर्मेटरी के बड़े कमरे में नहीं रहेगी। अधिष्ठाताजी ने अपने निवास के पास ही एक छोटे, पर सुविधापूर्ण कमरे में उसके रहने की व्यवस्था कर दी थी। कमरे की सुविधाओं में जिस चीज ने उसे सर्वाधिक आकृष्ट किया वह था एक बड़ा शीशा। वह शीशे में अपनी छवि निहारने का मौका नहीं छोड़ती।
उसके दिमाग में तो माँ ने यह बात भर दी थी कि वह बदसूरत है। इसलिए वह सदा आत्मसाक्षात्कार से भागती थी, शीशे तक से आत्मसाक्षात्कार का उसका साहस मर चुका था। पर जब उसे बरबस अपने आपको शीशे में देखना पड़ जाता तो वह उसकी आदी हो गई। बदसूरती की हीनता लोप हो गई। शीशे की मौन खुशामद उसे स्वयं को सुंदर मानने का बल देती रही। हीनभाव की ग्रंथि खुलती गई। पर वह यह कभी नहीं जान पाई कि पहले से भी प्रबल एक और हीनता की ग्रंथि उसमें जन्म ले चुकी थी, जो सुंदरता के विश्वास का विलोम थी। फलतः उसे सुंदर कपड़े, प्रसाधन की वस्तुएँ आकृष्ट करने लगीं। पर कहाँ थीं वे वस्तुएँ, जो उसकी निर्धनता और आश्रम के अनुशासन के कारण अप्राप्य और अग्राह्य थीं।
ग्रीष्मावकाश में वह अधिष्ठाताजी से और भी अंतरंग हो उठी थी। उस गूँगी लड़की ने वाचाल कर दिया था। वे स्वयं को एक महामानव की छवि देने का अवसर कभी नहीं चूकते। प्रसंग हो या न हो, वे ऐसी स्थित पैदा कर देते जिसमें उनका आत्मज्ञान भी निशा को सहज लगता। वे उसके लिए विरा़ट् से विराट्तर होते गए। जब कभी वे उसके उद्धत वक्ष का स्पर्श भी कर बैठते तो उसे उनके इस आचरण में कुछ भी आक्षेपजनक नहीं लगता। माथे और कपोलों पर प्रायः अंकित होनेवाले चुम्बन उसे आशीर्वादमय ही लगते।
उनके पीठ सहलाने या बालों में अंगुलियाँ फेरने से कभी-कभी उसके बदन में सिरहन-सी होती या कोई अबूझ अनुभूति जो उसके अंगों को ऊष्मा से भर जाती। पर तब तक वह पुरुष के लिए स्त्री का प्रयोजन या अर्थ नहीं समझ पाई थी। वनबेल-सी पवन से झिंझोड़ी जाकर भी उसके मन में कोई अन्यथा भाव नहीं आता, जिसे कालिदास ने ‘अन्यथा चित्तवृत्ति’ कहा था। बस, वह खुश थी और अपने भविष्य के लिए आशापूर्ण।
निशा की खुशी में एक खुशी और जुड़ गई। परीक्षा- परिणाम घोषित हो गए। निशा प्रथम श्रेणी में पास ही नहीं हुई, बल्कि मैरिट लिस्ट में भी उसका नाम काफी ऊँचा था। अब आगे की पढ़ाई के लिए उसे स्कॉलरशिप भी मिलेगा। यह सूचना उसे अधिष्ठाताजी ने दी। शुद्ध स्नेहभाव से आशीर्वादसूचक चुंबन भी उसके माथे पर अंकित करते हुए कहा- ‘‘बधाई ! पर पहला पुरस्कार तुम्हें मैं दूँगा। पुरस्कार क्या होगा, इसका निर्णय भी मैं ही करूँगा।’’
निशा पुलकित। कृतार्थ भी और कृतज्ञ भी। पर यह सबकुछ शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पाई। बस झुककर अधिष्ठाताजी के चरण छू लिये। तत्काल उन्होंने उसे उठाकर छाती से लगा लिया। उसके स्पर्श ने फिर जादू किया। उनके स्नायु तनने लगे। निशा को और कसकर बाँहों में भर लिया। उनका आलिंगन शिथिल न पड़ता, यदि एक स्त्री-स्वर कानों में नहीं पड़ता। स्त्री पास ही में कहीं किसी से पूछ रही थी- ‘‘अधिष्ठाताजी का कमरा कहाँ है ?’’
अधिष्ठाताजी निशा को छोड़कर बाहर आए। वह स्त्री पास आई तो कहा- ‘‘मैं ही आश्रम का अधिष्ठाता हूँ।’’
आगंतुका ने प्रणामपूर्वक कहा- ‘‘मैं निशा की माँ हूँ उसे लेने आई हूँ।’’
अधिष्ठाताजी चकित। आगंतुका को देखते रह गए। निशा के रूप-रंग में कोई साम्य नहीं था। वह स्त्री तो कई बड़े-बड़े बच्चों की माँ होकर भी आसाधारण सुंदरी थी। फिर संयत होकर कहा- ‘‘अंदर आइए। निशा यहीं है। अभी-अभी इसका रिजल्ट आया है बहुत अच्छी पोजीशन पाई है। इस लड़की का भविष्य उज्जवल है। आपको बधाई ! मैं निशा को भी बधाई दे रहा था।’’
माँ सुंदर पर फूहड़। बोली-‘‘लड़की का सबसे बड़ा इम्तिहान शादी है। उसमें पास हो जाए तो समझ लो, सारे इम्तिहान पास कर लिये।’’
निशा माँ को देखकर सहम उठी थी। फिर भी आगे बढ़कर उससे लिपट गई। उसी तरह लिपटे-लिपटे बोली- ‘‘आखिर तुम्हें मेरी याद आ ही गई न ! मैं हर छुट्टियों में तुम्हारी बाट जोहती थी। घर में सब कोई ठीक हैं न ? मुझे अपने साथ ले चलोगी न ? अभी भी काफी छुट्टियाँ बाकी हैं। छोटी अब तो बड़ी हो गई होगी। छुट्टी-भर मैं उसके साथ बहुत-बहुत खेलूँगी। घर के काम में तुम्हारा हाथ बँटाऊँगी। ले चलोगी न माँ, मुझे अपने साथ ?’’
यह गूँगी लड़की एक साथ इतना कैसे बोल गई, इस पर चकित थे अधिष्ठाताजी। वे जब से निशा के संपर्क में आए तब से आज तक उसके मुँह से कुल मिलाकर इतने शब्द नहीं सुने थे उन्होंने, जितने इस क्षण माँ से कह गई थी।
माँ ने निशा को अलग करते हुए कहा- ‘‘हाँ बेटी, तुझे ही लेने आई हूँ। तू पास हो गई अच्छा हुआ। नहीं भी होती तो क्या फर्क पड़ता ! अब तेरी उमर घर-गिरस्ती जमाने की हो गई है। अपने कपड़े-लत्ते ले ले और चल।’’
निशा स्तंभित, अधिष्ठाताजी सन्न। फिर भी जब निशा माँ के साथ जाने लगी तो उन्होंने कहा- ‘‘बहनजी, आपकी बेटी है। ले जाना चाहें तो ले जाइए, पर ब्याह की जल्दी मत कीजिएगा। जब तक यह पढ़ना चाहे, इसे पढ़ने दीजिएगा।’’
इसी क्रम में निशा को संबोधित करते हुए कहा-‘‘निशा तुम भी सोचना। इस आश्रम के दरवाजे तुम्हारे लिए सदा खुले रहेंगे। तुम लौटोगी तो तुम्हारा पुरस्कार भी तैयार रहेगा।’’
निशा पीड़ित, अधिष्ठाताजी पीड़ित। पर दोनों की पीड़ा में अंतर था। निशा की पीड़ा थी लक्ष्य से दूर होने की, जबकि अधिष्ठाताजी की पीड़ा थी नितांत व्यक्तिगत, स्वप्न भंग होने जैसी पीड़ा !
छुट्टियाँ खत्म होने से पहले ही निशा आश्रम लौट आई थी। उसे देखकर भी अधिष्ठाताजी को विश्वास नहीं हो रहा था कि निशा आश्रम लौट आई है।
माँ निशा की शादी एक अधेड़ विदुर से करने पर तुली थी। उसकी न तो शक्ल-सूरत अच्छी थी और न ही स्वास्थ्य ठीक रहता था। साथ ही अर्द्धसाक्षर भी। फिर भी उसमें बहुत बड़ा गुण था निशा की माँ की दृष्टि में। वह बहुत पैसेवाला था और साथ ही संतानहीन। निशा की इस शादी से कंगाली भी दूर हो जाएगी।
निशा को देखने आया था वह अधेड़ व्यक्ति। निशा ने भी उसे देखा। सदा की भाँति गूँगी बनी रही। माँ ने शादी की तिथि जल्दी तय करने का आग्रह किया था। उसने वायदा किया। माँ खुश। उसकी खुशी का सबसे बड़ा कारण था। ढेर सारे रूपये, जो वह भेंटस्वरूप दे गया था !
उसके जाने पर माँ ने कहा- ‘‘देख निशा, सूरत तूने जैसी भी पाई हो, पर भाग की धनी है तू। इतने बड़े घर में जाकर तू राज करेगी, राज।’’
पर अगले दिन सोकर उठते ही माँ ने निशा को आवाज दी तो वह शून्य में खोकर रह गई। माँ ने यहाँ-वहाँ सब जगह ढ़ूढ़ा, पर निशा नहीं मिली।
उस रात निशा सो न सकी थी। उसे यही लगा कि उसकी माँ उसे, उसके सपनों को, उसकी खुशियों को बेचने जा रही है। कैसे पाए इस जाल से मुक्ति ? इसी संकल्प-विकल्प में कब उसकी आँख लग गई, उसे पता ही नहीं चला। नींद में सपने नाना रूप धारण करते रहे। फिर चिरपरिचित शब्दों की ध्वनि ‘उठ निशा, उठ’। पर इस बार इन शब्दों की ध्वनि में अप्रिय आदेशात्मकता की कर्कशता नहीं थी। मात्र प्रबोध था। भोर की पहली किरण फूटने ही वाली थी। घर में सोता पड़ा था। वह यंत्रचालित-सी उठी अपने जीवन के पहले अभिनिष्क्रमण-पहले विद्रोह के लिए। आश्रम पहुँची तो थकी-माँदी, भूखी-प्यासी, अर्द्धचैतन्य-सी। अधिष्ठाताजी को उसकी स्थित समझते देर नहीं लगी।
उसे अपने कमरे में जाकर आराम करने को कहा ! वहीं आहार के लिए कुछ फलों के साथ दूध भी भेज दिया और स्वयं बाजार की तरफ निकल पड़े।
निशा ने हाथ-मुँह धोकर दूध पिया, कुछ फल भी खाए और फिर अनायास ही नींद की गोद में चली गई। जब आँखे खुलीं तो रात घिर आई थी। उसने अंधेरे में टटोलकर बत्ती जलाई। रोशनी के फैलते ही उसकी नजर सबसे पहले दीवार में बनी बिन पल्लों की अलमारी के निचले शेल्फ में रखे कपड़ों पर पड़ी। वहाँ उसके पहनने के लिए कुछ सिले-सिलाए कपड़े और सादी सूती साड़ियाँ रखी थीं। उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब किसकी कृपा है।
दो-चार दिनों में ही निशा सहज हो उठी थी। इंटरमीडिएट में पढ़ाई जानेवाली पुस्तकें भी अधिष्ठाताजी ने उपलब्ध करा दी थीं। उस पर उनकी अयाचित कृपा का भार बढ़ता जा रहा था। उन्होंने कभी कहा था कि तुम मुझे अपना सर्वस्व समझना। इसी आश्वासन के बल पर वह उनके सामने मुखर रहने लगी थी। फिर एक दिन सुबह के वक्त एक पैकेट लिए स्वयं अधिष्ठाताजी उसके कमरे में आए। उन्होंने वह पैकेट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा- ‘‘यह मेरा उपहार है, तुम्हारे लिए। बोर्ड की परीक्षा में गौरव के साथ उत्तीर्ण होने पर मैंने तुम्हें उपहार देने को कहा था। कब का रखा है यह मेरे पास। उस दिन तुम्हारी माँ लेने नहीं आ जातीं तो मैं तुम्हें तभी देने वाला था। तब दे न सका तो सोचा किसी शुभ दिन दूँगा। आज ही वह शुभ दिन है।’’
‘‘शुभ दिन ?’’- निशा के मुँह से प्रश्नात्मक ढंग से ये शब्द निकल पड़े।
‘‘हाँ, शुभ दिन ही है,’’- अधिष्ठाताजी ने कहा- ‘‘आज तुम्हारा जन्मदिन जो है। तुम सोचती होगी कि मुझे यह सब कैसे पता चला। बड़ी मामूली-सी बात है। आश्रम के रिकार्ड में यह सब दर्ज है। हाई स्कूल के परीक्षा फार्म में भी जन्म की तारीख भरनी पड़ती है।’’
निशा अचंभित। ‘माँ ने तो कभी उसका जन्मदिन नहीं मनाया। वह तो पैदा ही अभागिन हुई थी। फिर ऐसे जन्मदिन में शुभ क्या ?’ निशा मन ही मन यह सब सोच गई।
अधिष्ठाताजी ने जैसे उसका ऊहापोह भाँप लिया था। बोले-‘‘अब सब भूल जाओ। आज मैं तुम्हारा जन्मदिन मनाऊँगा। शाम को यही साड़ी पहनना।’’
उन्होंने पैकेट खोलकर रेशमी साड़ी दिखाई। मटका सिल्क की साड़ी, चौड़े बैंजनी किनारे और पल्लूवाली। निशा को लगा जैसे वह स्वप्न देख रही है। वह उसी स्वप्निल अवस्था में उनके चरणों में गिर पड़ी। उन्होंने प्यार से उठाया उसे बाँहों में भरकर उसके होंठों को चूम लिया।
निशा उस मनःस्थित में कोई विरोध न कर पाई। अधिष्ठाताजी ने बार-बार उसके होंठों को चूमा, अपने अनियंत्रित हाथों से वक्ष से स्वतंत्रता ली और फिर एक और दीर्घ चुंबन के बाद चले गए।
निशा भयमिश्रित आनंद में खो गई थी। उनके जाते ही उसने अपने कमरे के खिड़की-दरवाजे बंद किए और निर्वस्त्र होकर शीशे में स्वयं को निहारने लगी। दर्पण ने उसे आश्वस्त किया कि वह असुंदर नहीं है। उसकी देह असाधारणतया सुगठित है।
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