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गणित की रोचक बातें

वीरेंद्र कुमार

प्रकाशक : ज्ञान गंगा प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2594
आईएसबीएन :81-85829-96-9

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इसमें गणित से संबंधित रोचक बातों का उल्लेख किया गया है...

Ganit Ki Rochak Batey

प्रस्तुत हैं पु्स्तक के कुछ अंश

गणित को सामान्यतः लोग एक नीरस विषय मानते हैं क्योंकि गणित के आधारभूत नियमों और सूत्रों की जानकारी के अभाव में गणित को समझना कठिन है; साथ ही गणित को समझने में सूझ एवं तर्क शक्ति की परम आवश्यकता होती है। अतः मस्तिष्क पर दबाव डालना पड़ता है। जिनके पास सूझ, तर्क शक्ति एवं अच्छी स्मरण शक्ति है, उन लोगों के लिए गणित एक आनन्द का सागर है। समस्याओं से खेलना उनके लिए कष्ट-प्रद न होकर आनन्द-प्रद होता है। समस्याओं को समझने तथा उनके समाधान मिलने पर उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा तथा अपार प्रसन्नता मिलती है। गणित अपने आपमें रहस्यों का संसार है। जिज्ञासु जब इस रहस्यमय संसार में प्रविष्ट करता है तो एक के बाद एक नये रहस्य सामने आने लगते हैं। रहस्यों के अनावृत्त होने पर यह रहस्यमय संसार परलोक में बदल जाता है। प्रस्तुत पुस्तक का उद्देश्य पाठकों को गणित सम्बन्धी कुछ सामान्य बातों की जानकारी प्रदान कर गणित के प्रति रुचि जाग्रत करना है, जिससे कि वे इससे मिलने वाले आनन्द को प्राप्त करने से वंचित न रहें।

लेखक

अध्याय 1
प्रकृति और गणित

संसार की प्रत्येक वस्तु एक-दूसरे से सम्बन्ध रखती है। ये सम्बन्ध जैविक हो सकते हैं अथवा भौतिक, फिर चाहे सम्बन्ध व्यक्ति-व्यक्ति के हों, व्यक्ति और वस्तु के बीच के हों, व्यक्ति और काम के बीच हों, या फिर अन्य किन्हीं दो के बीच। सम्बन्धों की स्थापना और विवेचना द्वारा अज्ञात को ज्ञात करना ही गणित है। प्रकृति का मूल आधार गणित है। प्रकृति के अपने नियम हैं। ये नियम वस्तुओं को आपस में एक-दूसरे से जोड़ते हैं। नियमों को ज्ञात करना तथा उनके आधार पर गणना करके भविष्यवाणी करना गणित का विषय है। यथा-अब से दस घण्टे बाद किसी नक्षत्र विशेष की स्थिति कहाँ होगी ? या फिर किसी व्यक्ति को किसी निश्चित अवधि के लिए कितने भोजन की आवश्यकता पड़ेगी ? शरीर के किसी विशिष्ट अंग की बनावट उसकी शारीरिक आवश्यकताओं के अनुरूप वैसी ही क्यों बनाई गई है, उससे हटकर क्यों नहीं बनाई गई ? पृथ्वी से सूरज की दूरी कितनी है ?

इस संसार में छोटी-बड़ी सभी चीजों की रचना ईश्वर ने की है। उसी ने हाथी बनाया है, उसी ने चींटी। मनुष्य की सामर्थ्य नहीं कि वह एक तिनके का भी सृजन कर सके। मनुष्य ने जब मोटर कार या हवाई जहाज बनाया होगा तो निश्चय ही उसे अपने ऊपर बड़ा गर्व हुआ होगा परन्तु ईश्वर ने तो चींटी जैसी स्वचलित सजीव वस्तु तैयार की फिर भी वह प्रमाद से परे है तथा सबको समान भाव से पालता है। उसके लिए चींटी और हाथी में भेद नहीं। हम देखते हैं कि जब किसी यंत्र का निर्माण किया जाता है तो अनेक गणनायें की जाती हैं तथा डिजायनें तैयार की जाती हैं। ईश्वर ने अपनी रचनाओं में इन बातों का ध्यान न रखा हो असम्भव-सा दिखाई देता है। ईश्वर ने बिना किन्हीं साधनों के अपनी आकृति में उच्च तकनीक, डिजायनों तथा गणनाओं का पूरा-पूरा ध्यान रखा है।

संसार का लघुतम घटक बिन्दु है। बिन्दु की विमायें नहीं होतीं। बिन्दु की न लम्बाई होती है, न चौड़ाई और न मोटाई ही। यह वास्तव में असम्भव ही है। अतः हमें मानना पड़ेगा कि बिन्दु अति लघु विमाओं की कृति है। प्रकृति में बिन्दु के रूप में हमें अणु, जीवाणु, कोशिका आदि का साक्षात होता है। इनको सृष्टि की आदि इकाई के रूप में देखा जा सकता है। बिन्दु-बिन्दु से सिन्धु बनता है तथा बिन्दु के अन्दर सिन्धु समाया है। इस सम्बन्ध में श्याम विविर (Black hole) के अस्तित्व का पता चलने पर ईश्वर की अद्भुत शक्ति के बारे में कल्पना मात्र से ही आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।
शर्तों के अधीन गति करते बिन्दु का मार्ग एक गणित से सम्बन्धित विषय है। इन्हें गणितीय वक्र या बिन्दुपथ कहते हैं। गणितीय वक्र अनेक प्रकार के हैं। सरल रेखा सरलतम गणितीय वक्र है। एक सरल रेखा-खण्ड दो बिन्दुओं के बीच न्यूनतम लम्बाई का पथ होता है। मनुष्य अपने हाथ से चाहकर भी एक सरल रेखा नहीं खींच सकता। इसके लिए उसे प्रकृति की शरण में ही जाना पड़ता है। एक धागे के दोनों सिरों पर बल लगाकर धागे को तान देने पर यह एक सरल रेखीय स्वरूप ग्रहण कर लेता है। एक धागे के सिरे पर भाल बाँधकर स्वतन्त्रतापूर्वक लटका देने पर यह ऊर्ध्वाधर सरल रेखा का स्वरूप ग्रहण करता है।

प्रकृति में सरल रेखाओं के अनेक रूपों में दर्शन होते हैं। स्वतन्त्रतापूर्वक पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल के आधीन गिरता हुआ द्रव्य कण एक सरल रेखीय पथ निर्धारित करता है। कागज, कपड़े या पतली चादर को बीच से मोड़ने पर मोड़ का किनारा सरल रेखीय होता है। मकड़ी के जाले का तार सरल रेखीय आकृति ग्रहण करता है। प्रकाश की किरण सरल रेखा में गमन करती है।
सच तो यह है कि दुनिया में आदर्श सरल रेखाएं नहीं कही जा सकतीं क्योंकि किसी-न-किसी स्तर पर यहाँ भी त्रुटि शेष रहती है। प्रकाश की किरण भी एक आदर्श सरल रेखा न होकर एक तरंग के रूप में होती है। वास्तव में सरल रेखा एक कल्पना मात्र ही है।
प्रकृति में अनेक प्रकार की आकृतियों की वस्तुएँ देखने को मिलती हैं।
यथा-तालाब के पानी में कंकड़ फेंकने पर उठती तरंगें हमें वृत्ताकार दिखाई देती हैं।
सूरज, चन्द्रमा, इन्द्रधनुष हमें वृत्ताकार दृष्टिगोचर होते हैं।

आँख का तारा वृत्ताकार होता है। अनुप्रस्थ काट वाले सेब, अमरूद, लौकी और तरोई वृत्ताकार दिखाई देते हैं।
सौर मण्डल के ग्रह तथा उपग्रह दीर्घवृत्ताकार मार्ग में यात्रा करते हैं। तत्त्व के परमाणु में इलैक्ट्रान भी दीर्घवृत्ताकार पथ में केन्द्रक के चारों ओर घूमते हैं।
पेड़ के सीधे तने को तिरछे तल के अनुगत काटें तो सिरे के किनारे दीर्घवृत्ताकार होते हैं।
गोल किनारे वाले बर्तन को सामने से न देखकर इधर-उधर से देखें तो घेरा दीर्घवृत्ताकार दिखाई देता है।
ऊर्ध्वाधर में फेंका गया पिण्ड परवलीय पथ निर्धारित करता है।
पाताल तोड़ कुएँ या फव्वारे से निकलते जल की पतली धारें परवलीय पथ पर अग्रसर होती हैं।
ज्वालामुखी के विस्फोट के समय उसके मुख से निकलते लावा कण या आतिशबाजी के अनार से निकलती चिनगारी कण परवलीय पथ निर्धारित करते हैं।

भारी रस्सी या जंजीर अपने दोनों सिरों से स्वतन्त्रतापूर्वक लटका देने पर विशिष्ट प्रकार की आकृति ग्रहण करती है जिसे रज्जुका कहते हैं।
क्षैतिज तल पर सीधी रेखा में गति करते किसी पहिए की परिधि का कोई स्थिर बिन्दु चक्रज निर्माण करता है।
इसके अतिरिक्त फूल एवं पत्तियों में विभिन्न प्रकार की गणितीय आकृतियों के दर्शन होते हैं।
रवों के पार्श्व समतलीय होते हैं। अवरक की परतें समतलीय होती हैं।
त्रिविमीय आकाश में मोती, पानी का बुलबुला, मटर, अमरूद, आलू बुखारा, कैरी, बकाइन आदि गोलाकार पिण्डों के नमूने हैं।
अण्डे, नदी के चिकने पत्थर, लीची, निबौली, अंगूर हमें दीर्घवृत्त-जनित पिण्डों के रूप में मिलते हैं। सरकण्डे की डंडियों से बने मूँड़े अतिपरवलय-जनित पिण्डों के सुन्दर नमूने हैं।

इन सभी आकृतियों के अतिरिक्त हमें अन्य आकृतियों के भी प्रकृति में दर्शन होते हैं। यथा-भँवर और चक्रवातों में कर्ण चक्र (Helix) के दर्शन होते हैं। विभिन्न प्रकार के घोंघों के आवरणों पर विभिन्न प्रकार की कर्ण चक्राकृतियों के दर्शन होते हैं।
आवर्त गति करते पिण्डों के पथों की आकृतियाँ भी अनेक प्रकार की गणितीय आकृतियाँ होती हैं।
बर्र तथा शहद की मक्खियों के छत्तों के कष्ठक बहुभुजाकार होते हैं विभिन्न प्रकार के रवों की आकृतियाँ ज्यामितीय तथा बड़ी मोहक होती हैं। दैनिक जीवन में हम जो रवे देखते हैं वे हैं- नमक, चीनी, मिश्री, तूतिया, फिटकरी आदि के। वास्तव में उन सबी ठोस पदार्थों को, जिनकी एक विशिष्ट प्रकार की ज्यामितीय संरचना होती है, कैलासीय पदार्थ कहते हैं। प्रकृति में मिलने वाले अनेक धातुओं के खनिजों के रवे अनेक रूप, रंग तथा आकार लिये होते हैं। प्रत्येक ठोस पदार्थ कैलासीय (रवेदार) नहीं होता क्योंकि इन पदार्थों की संरचना में सुव्यवस्थित क्रमबद्धता की कमी होती है। काँच, प्लास्टिक, रबड़, इत्यादि इसी संवर्ग में आते हैं। जिस प्रकार किसी भवन का स्वरूप ईंटों के व्यवस्थित रखने के ढंग के ऊपर निर्भर करता है ठीक उसी तरह किसी रवे का स्वरूप भी उसके कणों के द्वारा रिक्त स्थान भरने के ढंग पर निर्भर करता है।

रिक्त स्थानों को भरने के लिए विभिन्न प्रकार के ब्लाकों का प्रयोग किया जाता है, जोकि आयताकार, त्रिकोणीय, षटकोणीय और प्रिज्म आदि अनेक प्रकार के हो सकते हैं। प्राकृतिक रूप से मिलने वाले रवों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि प्रकृति एक बड़े ही कुशल शिल्पी के रूप में कार्य करती है। यह रिक्त स्थान भरने का कार्य बड़ी मितव्ययिता तथा चतुरतापूर्वक करती है जिससे अधिकतम ज्यामितीय इकाइयाँ कम-से-कम स्थान में समा सकें। यह प्रक्रिया रवे के स्वरूप का निर्धारण करती है। धीरे बनने वाले रवों का आकार अपेक्षाकृत बड़ा होता है। धीरे बनने के कारण ही भूवैज्ञानिक प्रक्रम द्वारा बने खनिजों के रवे अधिकतर बहुत बड़े होते हैं। सन् 1976 ई. में मैलेगासी देश के मैलाकियालीना नामक स्थान पर ‘बैरिल’ नामक खनिज का रवा प्राप्त हुआ था जो अब तक प्राप्त रवों में सबसे बड़ा माना जाता है। इसकी लम्बाई 18 मीटर तथा व्यास 3.5 मी. था। भार 3,80,000 कि. ग्रा. था।

किसी कैलासीय पदार्थ का आकार तथा स्वरूप उसके बनने की परिस्थितियों पर निर्भर करता है जिनके कारण किसी रवे की सतह विभिन्न आकार ले सकती है। परन्तु ईश्वर की लीला देखें कि इस प्रकार के सभी आकारों में दो सतहों के बीच का कोण अर्थात् अन्तरापृष्ठीय कोण सदैव स्थिर रहता है।

अन्तरापृष्ठीय कोण के अतिरिक्त रवों की एक और भी विशेषता होती है। वह है उनकी ‘प्रति साम्यता’। यह ‘प्रति साम्यता’ अनेक प्रकार की होती है। जैसे कुछ रवों को बीच से काटा जाये तो दोनों भाग एक-दूसरे के प्रतिरूप दिखाई पड़ते हैं। कुछ अन्य रवे इस प्रकार के होते हैं कि जब उन्हें एक विशेष अक्ष पर घुमाया जाये तो एक ही रूप अनेक स्थितियों में दृष्टिगोचर होता है। कुछ रवों में एक निश्चित सममिति केन्द्र पाया जाता है। रवों की आधारीय इकाई के अनुसार चार वर्ग किये गये हैं-

आण्विक कैलास, सह-संयोजक कैलास, आयनी कैलास तथा धात्विक कैलास।
ईश्वर की बनाई गई प्रत्येक सजीव वस्तु चाहे वह वनस्पति हो या फिर प्राणी सभी में सममिति के दर्शन होते हैं। मनुष्य, गाय, चिड़िया, तितली, पुष्प, पत्ते सभी जगह सममिति के दर्षन होके हैं। विकास के क्रम में जीव की समरूपता बनी रहती है। बीज के अन्दर पूरा पेड़ लघु रूप में समाहित रहता है।
    
 


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