कविता संग्रह >> गीतगोविन्द गीतगोविन्दजयदेव
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राधा-कृष्ण की केलिकथाओं तथा अभिसार लीलाओं का रसमय चित्रण
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गीतगोविन्द : सामान्य परिचय
भगवती सरस्वती के वर से प्रसूत एवं संस्कृत गीतिकाव्य के अनूठे
रत्न
कविप्रवर जयदेव का जन्म बंगाल के किन्दुबिल्व नामक ग्राम में हुआ। उनके
पिता का नाम भोजदेव और माता का नाम राधादेवी था। उनका विवाह पद्मावती नाम
की सुन्दर, सुशील एवं गुणवती कन्या के साथ हुआ था, जो उनके गीतों की ताल
पर नृत्य करती थी। वे बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन की राजसभा के प्रमुख रत्न
थे। उपलब्ध एक शिलालेख में राजा लक्ष्मणसेन का समय 1116 ईसवी सन् उत्कीर्ण
है। इससे जयदेव का स्थितिकाल ग्यारहवीं शताब्दी के आस-पास ठहरता है।
‘गीतगोविन्द’ काव्य के एक उद्धरण (प्रथम सर्ग चतुर्थ
पद्य)—
श्रृंगारोत्तर सत्प्रमेय रचनैराचार्य गोवर्द्धन-
स्पर्धी कोऽपि न विश्रुतः...।
स्पर्धी कोऽपि न विश्रुतः...।
के अनुसार जयदेव ‘आर्या सप्तशती’ के रचयिता
लब्धप्रतिष्ठ कवि गोवर्धनाचार्य के समकालीन थे।
‘गीतगोविन्द’ काव्य का रचना-कौशल इस प्रकार सर्वथा नवीन एवं नितान्त मौलिक है कि उसके काव्य-रूप का निर्णय करना ही दुष्कर बन गया है। कुछ पाश्चात्य विद्वान् इसे ‘ग्राम्य-रूपक’ (Pastoral Drama) कहते हैं, तो अन्य समीक्षक इसे ‘गीतिनाटक’ (Lyric Drama) कहते हैं, तो कछ अन्यों के मत में यह काव्य ‘परिष्कृत यात्रा’ (Refined yatra) है। पिशेल (Pichel) इस काव्य को ‘संगीत रूपक’ (Melo Drama) स्वीकार करते हैं। लेवि (Levi) इसे गीत और रूपक का मध्यवर्ती अथवा समन्वित रूप (In Between Song and Drama) मानते हैं, परन्तु जयदेव ने अपनी इस कृति का सर्गों में विभाजन करके इसे नाटक के स्थान पर काव्य मानने की अपनी धारणा की ओर ही संकेत किया है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि इस काव्य में नाटक की भांति अंक, प्रस्तावना आदि कुछ भी नहीं है। कुछ विद्वान् इसे ‘श्रृंगार महाकाव्य’ की संज्ञा भी देते हैं।
कृष्णास्वामी अयंगार ने अपने ग्रन्थ ‘A History of Indian Opera’ में ‘गीतगोविन्द’ काव्य को संगीतनाटक (Opera) का एक पूर्वरूप माना है और उसका विकास एवं उत्कृष्ट परिपाक सोलहवीं शताब्दी के श्री तीर्थनारायण स्वामी की रचना ‘कृष्णलीला तरंगिणी’ में स्वीकार किया है। इस संबंध में आचार्य बलदेव उपाध्याय का अनुमान पर आधृत कथन है कि ‘गीतगोविन्द’ के पदों के साथ (संगीत और नृत्य सम्बन्धी) रागों और तालों के दिये गये नामों से इस तथ्य का अनुमान होता है कि कवि की दृष्टि कदाचित् उन दिनों बंगाल में प्रचलित यात्रा महोत्सवों की ओर रही हो, जिसमें नृत्य और संगीत के साथ गीतों का उपयोग किया जाता था। इस आधार पर इस काव्य को ‘संगीतरूपक’ भी माना जा सकता है।
‘गीतगोविन्द’ काव्य में बारह सर्ग हैं, जिनका चौबीस प्रबन्धों (खण्डों) में विभाजन हुआ है। इन प्रबन्धों का उपविभाजन पदों अथवा गीतों में हुआ है। प्रत्येक पद अथवा गीत में आठ पद्य हैं। गीतों के वक्ता कृष्ण, राधा अथवा राधा की सखी हैं। अत्यन्त नैराश्य और निरवधि-वियोग को छोड़कर भारतीय प्रेम के शेष सभी रूपों—अभिलाषा, ईर्ष्या, प्रत्याशा, निराशा, कोप, मान, पुनर्मिलन तथा हर्षोल्लास आदि—का बड़ी तन्मयता और कुशलता के साथ वर्णन किया गया है। प्रेम के इन सभी रूपों का वर्णन अत्यन्त रोचक, सरस और सजीव होने के अतिरिक्त इतना सुन्दर है कि ऐसा प्रतीत होता है, मानो कवि शास्त्र, अर्थात् चिन्तन (कामशास्त्र) को भावना का रूप अथवा अमूर्त को मूर्त रूप देकर उसे कविता में परिणित कर रहा है।
मानवीय सौन्दर्य के चित्रण में प्रकृति को बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इस सन्दर्भ में ‘गीतगोविन्द’ काव्य में ऋतुराज वसन्त, चन्द्र-ज्योत्स्ना, सुरभित समीर तथा यमुना तट के मोहक कुञ्जों का बड़ा ही सुन्दर वर्णन देखने को मिलता है। यहां तक कि इस काव्य में पक्षी तक प्रेम की शक्ति और महिमा का गान करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं।
जयदेव ने इस काव्य में वैदर्भी रीति—माधुर्य व्यञ्जक वर्णों वाली शैली—का प्रयोग किया है। काव्य में कहीं-कहीं दीर्घ समासों का प्रयोग अवश्य हुआ है, परन्तु फिर भी दुर्बोधता अथवा क्लिष्टता नहीं आने पायी। वस्तुतः कवि ने विशेष-विशेष उत्सवों पर सर्व-साधारण के गाने के लिए ही तो गीतों की रचना की थी। अतः उन्हें सुबोध रखना आवश्यक ही था। गीतों में न केवल असाधारण स्वाभाविकता (अकृत्रिममता) है, अपितु उनमें अनुपम माधुर्य भी है। ‘गीतगोविन्द’ की रचना-शैली की प्रशंसा में मैकडॉनल का कथन है—‘‘सौन्दर्य में, संगीतमय वचनोपन्यास में और रचना के सौष्ठव में सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में ‘गीतगोविन्द’ काव्य शैली की उपमा नहीं मिलती। काव्य के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि कवि में कहीं लघु पदों की वेगवती धारा द्वारा, तो कहीं चातुर्य के साथ रचित दीर्घ समासों की लयपूर्ण गति द्वारा अपने पाठकों-श्रोताओं पर यथेष्ट प्रभाव डालने की अद्भुत क्षमता है। कवि नाना छन्दों के प्रयोग में ही सिद्धहस्त नहीं, अपितु चरणों के मध्य और अन्त में तुकात्मकता लाने में भी अद्वितीय है।’’
‘गीतगोविन्द’ काव्य में जयदेव ने परम्परागत रचना-प्रणाली का अनुसरण न करके सर्वथा नवीन और मौलिक शैली को अपनाया है। श्लोक, गद्य और गीत के मिले-जुले प्रयोग द्वारा काव्य में अनुपम रचना-माधुर्य की सृष्टि हुई है। कवि ने कथा-सूत्र के निर्वाह के लिए अपेक्षित दृश्ययोजना अथवा अवस्था विशेष के चित्रण जैसे वर्णनात्मक प्रसंगों में श्लोकों का प्रयोग किया है। पात्रों की मनोदशा को सूचित करने वाले संवादात्मक प्रसंगों में गद्य का प्रयोग हुआ है तथा भावानुभूति की अभिव्यञ्जना पद्यों में की गयी है। इस प्रकार ‘गीतगोविन्द’ में अपनायी गयी अभिनव रचना-प्रणाली में वर्ण, संवाद और गीत परस्पर इस प्रकार गुंथ गये हैं कि उनसे एक विलक्षण आनन्द की अनुभूति होती है। इस अनुपम रचना-शैली के आविष्कर्ता जयदेव, अपने उपमान आप ही हैं।
राधा-कृष्ण की केलि-कथाओं तथा उनकी अभिसार-लीलाओं का रसमय चित्रण ‘गीतगोविन्द’ को आध्यात्मिक श्रृंगार का मनोरम ग्रन्थ बना देता है। राधा-कृष्ण के प्रणय के चित्रण में प्रेम की विविध दशाओं—आशा, निराशा, उत्कण्ठा, ईर्ष्या, कोप, मान, आक्रोश, मिलनोत्सुकता, सन्देश-प्रेषण तथा मिलन आदि—का जैसा अभिभूत करने वाला हृदयग्राही चित्रण इस काव्य में हुआ है, वैसा अन्यत्र ढूंढ़ने पर भी कहीं नहीं मिलता।
श्रीकृष्ण के गोपियों के साथ रास-विलास को राधा न पसन्द करती है और न ही सहन कर पाती हैं। राधा अपनी सखी के माध्यम से श्रीकृष्ण के प्रति अपना आक्रोशमूलक उपालम्भ भेजती है, परन्तु उस अनन्य प्रणयिनी को इतने से सन्तोष नहीं होता, उसका प्रेम निर्भर-हृदय उसे अपने प्रियतम के प्रति अपने प्रगाढ़ अनुराग को व्यक्तिगत रूप से प्रकट करने को विवश कर देता है। राधा के आने पर श्रीकृष्ण ब्रज-सुन्दरियों का संग छोड़कर उसकी ओर उन्मुख होते हैं। राधा की सखी श्रीकृष्ण से राधा की और राधा से श्रीकृष्ण की एक-दूसरे में गहन अनुरक्ति का तथा एक-दूसरे से दूर रहने पर अनुभव की जा रही विरहजन्य वेदना का मार्मिक वर्णन करती है। वह अपने कोमल एवं कमनीय वचनों द्वारा दोनों को एक-दूसरे से मिलने के लिए प्रेरित करती है।
चन्द्रोदय होने पर प्रणय-व्यथा से अधीर बनी राधा अपने उद्दीप्त अनुराग पर नियंत्रण नहीं रख पाती और उसकी अभिव्यक्ति को विवश हो जाती है। श्रीकृष्ण के आने पर अति मान करती हुई राधा उपालम्भ से भरे वचनों के द्वारा उनके प्रति अपना रोष-आक्रोश प्रकट करती है। इधर राधा की सखी राधा से मान को छोड़ने का अनुरोध करती है उधर स्वयं श्रीकृष्ण राधा के रूप-सौन्दर्य की प्रशंसा के व्याज से उसकी चाटुकारिता करते हुए उसे मनाने एवं अपने अनुकूल बनाने की चेष्टा करते हैं। अन्ततः राधा का मान दूर हो जाता है और वह अपने कान्त से मिलने के लिए कदम्ब-कुञ्ज में जाती है। वहां श्रीकृष्ण राधा से प्रणय-याचना करते हुए उससे लज्जा-संकोच को छोड़ने का अनुरोध तथा रति-भोग में सहयोग देने का मनुहार करते हैं। दोनों प्रसन्न मन से रति क्रीड़ा में प्रवृत्त होते हैं और इसके उपरान्त राधा प्रणयसिक्त वचनों से अपने प्रियतम श्रीकृष्ण से अपना श्रृंगार करने को कहती है। अपनी प्राणप्रिया के अनुरोध को गौरव देते हुए श्रीकृष्ण सहर्ष अपने हाथों से राधा का श्रृंगार करते हैं।
यही इस काव्य का संक्षिप्त कथानक है, जिसे रसपूर्ण, कमनीय एवं मनोरम बनाकर प्रस्तुत करने में कवि को अपूर्व सफलता मिली है। आज के कुछ आलोचक जयदेव पर भक्ति के आलम्बन राधा-कृष्ण को श्रृंगार का आलम्बन बनाने का दोषारोपण करते हैं, परन्तु माधुर्य भाव के उपासक कवि पर यह लाञ्छन अन्यायपूर्ण ही नहीं, अपितु स्वयं उनके अपने अविवेक का द्योतक है। वस्तुतः दाम्पत्य प्रणय में उपलब्ध तन्मयता अथवा तल्लीनता के चरम उत्कर्ष की तथा भेद में अभेद की कल्पना के चूड़ान्त निदर्शन की अभिव्यक्ति ही भक्ति के क्षेत्र में माधुर्य भाव की सृष्टि करती है। मधुर भाव से भजन करने वाले भक्तों के लिए भगवान् की श्रृंगारिक चेष्टाएं, विलास-लीलाएं तथा प्रेम-गाथाएं ही गेय एवं कीर्तनीय हैं।
यहां यह उल्लेखनीय है कि विद्वानों ने इस सारे काव्य को अप्रस्तुत प्रशंसा* मानकर वाच्यार्थ में छिपे व्यंग्यार्थ को व्यक्त करने का प्रयास स्वीकार किया है।
उनके मत के अनुसार श्रीकृष्ण ‘जीवों की आत्मा’ के प्रतीक हैं। गोपियों की क्रीड़ा अनेक प्रकार का वह प्रपञ्च है, जिसमें अज्ञान-अवस्था में फंसी मनुष्यों की आत्मा भटकती रहती है। राधा ब्रह्मानन्द का प्रतीक है, जिसे प्राप्त करने पर ही जीवात्मा को चरम सुख की प्राप्ति होती है।
कतिपय विद्वानों के अनुसार जयदेव राधा का उपासक न होकर श्रीकृष्ण
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• टिप्पणी : प्रस्तुत के माध्यम से अप्रस्तुत का अथवा अप्रस्तुत के माध्यम से प्रस्तुत का वर्णन अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार कहलाता है।
के ही उपासक थे। अतः श्रीकृष्ण मनुष्यों की आत्मा के प्रतीक न होकर परमात्मा के प्रतीक हैं। इस तथ्य को वाणी देते हुए आचार्य बलदेव उपाध्याय लिखते हैं—‘‘श्रृंगार-शिरोमणि श्रीकृष्ण भगवत्-तत्त्व के प्रतिनिधि हैं और उनकी प्रेमी गोपिकाएं जीव की प्रतीक हैं। राधा-कृष्ण का मिलन जीव-ब्रह्म का मिलन है। इस प्रकार साधना मार्ग के अनेक तथ्यों के रहस्य को यहां सुलझाया गया है।’’
हमारे मत से इस काव्य में श्रीकृष्ण जीव का और गोपियां सांसारिक प्रपञ्च का तथा राधा ब्रह्म का प्रतीक बनकर आये हैं। श्रीकृष्ण अनेक गोपियों के साथ रास-विहार करते हैं, परन्तु उन्हें सच्ची तृप्ति एवं पूर्ण सन्तुष्टि नहीं मिलती। राधा का संयोग पाकर ही वे कृतकृत्य हो पाते हैं। इस प्रकार इस काव्य में राधा को ही अधिक महत्त्व दिया गया है। वही इस काव्य का प्रधान पात्र है। इस तथ्य की पुष्टि काव्य में आये वर्णनों से हो जाती है।
श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ क्रीड़ा करना परमात्मा का अगणित जीवात्माओं में रमण करना है, जिसकी अन्तिम परिणति राधा-प्रेम, अर्थात् समर्पित जीवात्मा का परमात्मा में समावेश एवं अभेद का होना है। इस तथ्य को तथा मधुरा भक्ति और श्रृंगार के मध्य के अन्तर को न समझने के कारण ही कवि पर आराध्य राधा-कृष्ण को साधारण नायिका-नायक बनाने का आरोप लगाया जाता है। तत्त्ववेत्ता तथा भावुक भक्त को इस मधुर रस में आकण्ठ निमग्न हो जाते हैं। इस पर कविवर बिहारी का यह कथन स्मरण हो आता है—
‘गीतगोविन्द’ काव्य का रचना-कौशल इस प्रकार सर्वथा नवीन एवं नितान्त मौलिक है कि उसके काव्य-रूप का निर्णय करना ही दुष्कर बन गया है। कुछ पाश्चात्य विद्वान् इसे ‘ग्राम्य-रूपक’ (Pastoral Drama) कहते हैं, तो अन्य समीक्षक इसे ‘गीतिनाटक’ (Lyric Drama) कहते हैं, तो कछ अन्यों के मत में यह काव्य ‘परिष्कृत यात्रा’ (Refined yatra) है। पिशेल (Pichel) इस काव्य को ‘संगीत रूपक’ (Melo Drama) स्वीकार करते हैं। लेवि (Levi) इसे गीत और रूपक का मध्यवर्ती अथवा समन्वित रूप (In Between Song and Drama) मानते हैं, परन्तु जयदेव ने अपनी इस कृति का सर्गों में विभाजन करके इसे नाटक के स्थान पर काव्य मानने की अपनी धारणा की ओर ही संकेत किया है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि इस काव्य में नाटक की भांति अंक, प्रस्तावना आदि कुछ भी नहीं है। कुछ विद्वान् इसे ‘श्रृंगार महाकाव्य’ की संज्ञा भी देते हैं।
कृष्णास्वामी अयंगार ने अपने ग्रन्थ ‘A History of Indian Opera’ में ‘गीतगोविन्द’ काव्य को संगीतनाटक (Opera) का एक पूर्वरूप माना है और उसका विकास एवं उत्कृष्ट परिपाक सोलहवीं शताब्दी के श्री तीर्थनारायण स्वामी की रचना ‘कृष्णलीला तरंगिणी’ में स्वीकार किया है। इस संबंध में आचार्य बलदेव उपाध्याय का अनुमान पर आधृत कथन है कि ‘गीतगोविन्द’ के पदों के साथ (संगीत और नृत्य सम्बन्धी) रागों और तालों के दिये गये नामों से इस तथ्य का अनुमान होता है कि कवि की दृष्टि कदाचित् उन दिनों बंगाल में प्रचलित यात्रा महोत्सवों की ओर रही हो, जिसमें नृत्य और संगीत के साथ गीतों का उपयोग किया जाता था। इस आधार पर इस काव्य को ‘संगीतरूपक’ भी माना जा सकता है।
‘गीतगोविन्द’ काव्य में बारह सर्ग हैं, जिनका चौबीस प्रबन्धों (खण्डों) में विभाजन हुआ है। इन प्रबन्धों का उपविभाजन पदों अथवा गीतों में हुआ है। प्रत्येक पद अथवा गीत में आठ पद्य हैं। गीतों के वक्ता कृष्ण, राधा अथवा राधा की सखी हैं। अत्यन्त नैराश्य और निरवधि-वियोग को छोड़कर भारतीय प्रेम के शेष सभी रूपों—अभिलाषा, ईर्ष्या, प्रत्याशा, निराशा, कोप, मान, पुनर्मिलन तथा हर्षोल्लास आदि—का बड़ी तन्मयता और कुशलता के साथ वर्णन किया गया है। प्रेम के इन सभी रूपों का वर्णन अत्यन्त रोचक, सरस और सजीव होने के अतिरिक्त इतना सुन्दर है कि ऐसा प्रतीत होता है, मानो कवि शास्त्र, अर्थात् चिन्तन (कामशास्त्र) को भावना का रूप अथवा अमूर्त को मूर्त रूप देकर उसे कविता में परिणित कर रहा है।
मानवीय सौन्दर्य के चित्रण में प्रकृति को बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इस सन्दर्भ में ‘गीतगोविन्द’ काव्य में ऋतुराज वसन्त, चन्द्र-ज्योत्स्ना, सुरभित समीर तथा यमुना तट के मोहक कुञ्जों का बड़ा ही सुन्दर वर्णन देखने को मिलता है। यहां तक कि इस काव्य में पक्षी तक प्रेम की शक्ति और महिमा का गान करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं।
जयदेव ने इस काव्य में वैदर्भी रीति—माधुर्य व्यञ्जक वर्णों वाली शैली—का प्रयोग किया है। काव्य में कहीं-कहीं दीर्घ समासों का प्रयोग अवश्य हुआ है, परन्तु फिर भी दुर्बोधता अथवा क्लिष्टता नहीं आने पायी। वस्तुतः कवि ने विशेष-विशेष उत्सवों पर सर्व-साधारण के गाने के लिए ही तो गीतों की रचना की थी। अतः उन्हें सुबोध रखना आवश्यक ही था। गीतों में न केवल असाधारण स्वाभाविकता (अकृत्रिममता) है, अपितु उनमें अनुपम माधुर्य भी है। ‘गीतगोविन्द’ की रचना-शैली की प्रशंसा में मैकडॉनल का कथन है—‘‘सौन्दर्य में, संगीतमय वचनोपन्यास में और रचना के सौष्ठव में सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में ‘गीतगोविन्द’ काव्य शैली की उपमा नहीं मिलती। काव्य के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि कवि में कहीं लघु पदों की वेगवती धारा द्वारा, तो कहीं चातुर्य के साथ रचित दीर्घ समासों की लयपूर्ण गति द्वारा अपने पाठकों-श्रोताओं पर यथेष्ट प्रभाव डालने की अद्भुत क्षमता है। कवि नाना छन्दों के प्रयोग में ही सिद्धहस्त नहीं, अपितु चरणों के मध्य और अन्त में तुकात्मकता लाने में भी अद्वितीय है।’’
‘गीतगोविन्द’ काव्य में जयदेव ने परम्परागत रचना-प्रणाली का अनुसरण न करके सर्वथा नवीन और मौलिक शैली को अपनाया है। श्लोक, गद्य और गीत के मिले-जुले प्रयोग द्वारा काव्य में अनुपम रचना-माधुर्य की सृष्टि हुई है। कवि ने कथा-सूत्र के निर्वाह के लिए अपेक्षित दृश्ययोजना अथवा अवस्था विशेष के चित्रण जैसे वर्णनात्मक प्रसंगों में श्लोकों का प्रयोग किया है। पात्रों की मनोदशा को सूचित करने वाले संवादात्मक प्रसंगों में गद्य का प्रयोग हुआ है तथा भावानुभूति की अभिव्यञ्जना पद्यों में की गयी है। इस प्रकार ‘गीतगोविन्द’ में अपनायी गयी अभिनव रचना-प्रणाली में वर्ण, संवाद और गीत परस्पर इस प्रकार गुंथ गये हैं कि उनसे एक विलक्षण आनन्द की अनुभूति होती है। इस अनुपम रचना-शैली के आविष्कर्ता जयदेव, अपने उपमान आप ही हैं।
राधा-कृष्ण की केलि-कथाओं तथा उनकी अभिसार-लीलाओं का रसमय चित्रण ‘गीतगोविन्द’ को आध्यात्मिक श्रृंगार का मनोरम ग्रन्थ बना देता है। राधा-कृष्ण के प्रणय के चित्रण में प्रेम की विविध दशाओं—आशा, निराशा, उत्कण्ठा, ईर्ष्या, कोप, मान, आक्रोश, मिलनोत्सुकता, सन्देश-प्रेषण तथा मिलन आदि—का जैसा अभिभूत करने वाला हृदयग्राही चित्रण इस काव्य में हुआ है, वैसा अन्यत्र ढूंढ़ने पर भी कहीं नहीं मिलता।
श्रीकृष्ण के गोपियों के साथ रास-विलास को राधा न पसन्द करती है और न ही सहन कर पाती हैं। राधा अपनी सखी के माध्यम से श्रीकृष्ण के प्रति अपना आक्रोशमूलक उपालम्भ भेजती है, परन्तु उस अनन्य प्रणयिनी को इतने से सन्तोष नहीं होता, उसका प्रेम निर्भर-हृदय उसे अपने प्रियतम के प्रति अपने प्रगाढ़ अनुराग को व्यक्तिगत रूप से प्रकट करने को विवश कर देता है। राधा के आने पर श्रीकृष्ण ब्रज-सुन्दरियों का संग छोड़कर उसकी ओर उन्मुख होते हैं। राधा की सखी श्रीकृष्ण से राधा की और राधा से श्रीकृष्ण की एक-दूसरे में गहन अनुरक्ति का तथा एक-दूसरे से दूर रहने पर अनुभव की जा रही विरहजन्य वेदना का मार्मिक वर्णन करती है। वह अपने कोमल एवं कमनीय वचनों द्वारा दोनों को एक-दूसरे से मिलने के लिए प्रेरित करती है।
चन्द्रोदय होने पर प्रणय-व्यथा से अधीर बनी राधा अपने उद्दीप्त अनुराग पर नियंत्रण नहीं रख पाती और उसकी अभिव्यक्ति को विवश हो जाती है। श्रीकृष्ण के आने पर अति मान करती हुई राधा उपालम्भ से भरे वचनों के द्वारा उनके प्रति अपना रोष-आक्रोश प्रकट करती है। इधर राधा की सखी राधा से मान को छोड़ने का अनुरोध करती है उधर स्वयं श्रीकृष्ण राधा के रूप-सौन्दर्य की प्रशंसा के व्याज से उसकी चाटुकारिता करते हुए उसे मनाने एवं अपने अनुकूल बनाने की चेष्टा करते हैं। अन्ततः राधा का मान दूर हो जाता है और वह अपने कान्त से मिलने के लिए कदम्ब-कुञ्ज में जाती है। वहां श्रीकृष्ण राधा से प्रणय-याचना करते हुए उससे लज्जा-संकोच को छोड़ने का अनुरोध तथा रति-भोग में सहयोग देने का मनुहार करते हैं। दोनों प्रसन्न मन से रति क्रीड़ा में प्रवृत्त होते हैं और इसके उपरान्त राधा प्रणयसिक्त वचनों से अपने प्रियतम श्रीकृष्ण से अपना श्रृंगार करने को कहती है। अपनी प्राणप्रिया के अनुरोध को गौरव देते हुए श्रीकृष्ण सहर्ष अपने हाथों से राधा का श्रृंगार करते हैं।
यही इस काव्य का संक्षिप्त कथानक है, जिसे रसपूर्ण, कमनीय एवं मनोरम बनाकर प्रस्तुत करने में कवि को अपूर्व सफलता मिली है। आज के कुछ आलोचक जयदेव पर भक्ति के आलम्बन राधा-कृष्ण को श्रृंगार का आलम्बन बनाने का दोषारोपण करते हैं, परन्तु माधुर्य भाव के उपासक कवि पर यह लाञ्छन अन्यायपूर्ण ही नहीं, अपितु स्वयं उनके अपने अविवेक का द्योतक है। वस्तुतः दाम्पत्य प्रणय में उपलब्ध तन्मयता अथवा तल्लीनता के चरम उत्कर्ष की तथा भेद में अभेद की कल्पना के चूड़ान्त निदर्शन की अभिव्यक्ति ही भक्ति के क्षेत्र में माधुर्य भाव की सृष्टि करती है। मधुर भाव से भजन करने वाले भक्तों के लिए भगवान् की श्रृंगारिक चेष्टाएं, विलास-लीलाएं तथा प्रेम-गाथाएं ही गेय एवं कीर्तनीय हैं।
यहां यह उल्लेखनीय है कि विद्वानों ने इस सारे काव्य को अप्रस्तुत प्रशंसा* मानकर वाच्यार्थ में छिपे व्यंग्यार्थ को व्यक्त करने का प्रयास स्वीकार किया है।
उनके मत के अनुसार श्रीकृष्ण ‘जीवों की आत्मा’ के प्रतीक हैं। गोपियों की क्रीड़ा अनेक प्रकार का वह प्रपञ्च है, जिसमें अज्ञान-अवस्था में फंसी मनुष्यों की आत्मा भटकती रहती है। राधा ब्रह्मानन्द का प्रतीक है, जिसे प्राप्त करने पर ही जीवात्मा को चरम सुख की प्राप्ति होती है।
कतिपय विद्वानों के अनुसार जयदेव राधा का उपासक न होकर श्रीकृष्ण
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• टिप्पणी : प्रस्तुत के माध्यम से अप्रस्तुत का अथवा अप्रस्तुत के माध्यम से प्रस्तुत का वर्णन अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार कहलाता है।
के ही उपासक थे। अतः श्रीकृष्ण मनुष्यों की आत्मा के प्रतीक न होकर परमात्मा के प्रतीक हैं। इस तथ्य को वाणी देते हुए आचार्य बलदेव उपाध्याय लिखते हैं—‘‘श्रृंगार-शिरोमणि श्रीकृष्ण भगवत्-तत्त्व के प्रतिनिधि हैं और उनकी प्रेमी गोपिकाएं जीव की प्रतीक हैं। राधा-कृष्ण का मिलन जीव-ब्रह्म का मिलन है। इस प्रकार साधना मार्ग के अनेक तथ्यों के रहस्य को यहां सुलझाया गया है।’’
हमारे मत से इस काव्य में श्रीकृष्ण जीव का और गोपियां सांसारिक प्रपञ्च का तथा राधा ब्रह्म का प्रतीक बनकर आये हैं। श्रीकृष्ण अनेक गोपियों के साथ रास-विहार करते हैं, परन्तु उन्हें सच्ची तृप्ति एवं पूर्ण सन्तुष्टि नहीं मिलती। राधा का संयोग पाकर ही वे कृतकृत्य हो पाते हैं। इस प्रकार इस काव्य में राधा को ही अधिक महत्त्व दिया गया है। वही इस काव्य का प्रधान पात्र है। इस तथ्य की पुष्टि काव्य में आये वर्णनों से हो जाती है।
श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ क्रीड़ा करना परमात्मा का अगणित जीवात्माओं में रमण करना है, जिसकी अन्तिम परिणति राधा-प्रेम, अर्थात् समर्पित जीवात्मा का परमात्मा में समावेश एवं अभेद का होना है। इस तथ्य को तथा मधुरा भक्ति और श्रृंगार के मध्य के अन्तर को न समझने के कारण ही कवि पर आराध्य राधा-कृष्ण को साधारण नायिका-नायक बनाने का आरोप लगाया जाता है। तत्त्ववेत्ता तथा भावुक भक्त को इस मधुर रस में आकण्ठ निमग्न हो जाते हैं। इस पर कविवर बिहारी का यह कथन स्मरण हो आता है—
‘‘अनबूड़े बूड़े तिरे जे बूड़े सब
अंग।’’
जहां तक राधा-कृष्ण के प्रति कवि के दृष्टिकोण का सम्बन्ध है, इस विषय में
गोस्वामी तुलसीदास की इस उक्ति को उद्धृत करना समुचित होगा—
‘‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन
तैसी।’’
‘गीतगोविन्द’ वस्तुतः एक अनुपम एवं अद्भुत ग्रन्थ है,
जिसके
उद्दाम-श्रृंगार के अन्तस्तल में रहस्यमयी माधुर्य भावना की निगूढ़ धारा
बह रही है। समग्र संस्कृत साहित्य में इस कोटि की मधुर रचना दूसरी कोई
नही। संस्कृत भारती के सौन्दर्य और माधुर्य की पराकाष्ठा का अवलोकन करना
हो, तो ‘गीतगोविन्द’ का अनुशीलन करना चाहिए। इसके
शब्दचित्रों
से सौन्दर्य मानो छलकता है। इसके गीतों के पद-लालित्य अलौकिक माधुर्य का
सञ्चार करता है। इसके छन्दों का नाद-सौन्दर्य अपूर्व आनन्द प्रदान करता
है। शब्द और अर्थ का सामञ्जस्य ऐसा मनोमुग्धकारी है कि संस्कृत से अपरिचित
व्यक्ति भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इसकी-सी कोमलकान्त
पदावली संसार की किसी भी भाषा के काव्य में दुर्लभ है। इस काव्य में
प्रयुक्त दीर्घ समासों में भी विलक्षण प्रसादिकता एवं स्वर-माधुर्य है।
अनुप्रास के प्रयोग में तो कवि अद्वितीय है। उनके गीतों में अनुप्रास का
प्रयोग पदों के अन्त में ही नहीं, मध्य में भी अपनी छटा बिखेरता हुआ चलता
है। ललित छन्दों और कोमलकान्त पदावली का ऐसा मणि-काञ्चन संयोग हुआ है कि
गीतों के उच्चारण मात्र से सहृदयों के हृदय में तदनुरूप रस का आविर्भाव
एवं सञ्चार होने लगता है। श्रृंगार की व्यञ्जना के लिए यह अनूठी शैली बड़ी
ही सार्थक सिद्ध हुई है।
‘गीतगोविन्द’ को बड़ी ही प्रसिद्धि और लोकप्रियता मिली। जयदेव ने जिस ग्राम में रहते हुए ‘गीतगोविन्द’ की रचना की, उस गांव का नाम ही जयदेवपुर पड़ गया। कवि के समकालीन उड़ीसा के शासक राजा प्रताप रुद्रदेव ने अपने राज्य के गायकों, संगीतज्ञों और नर्तकों के लिए ‘गीतगोविन्द’ के पदों को गाने का आदेश जारी कर दिया। महाराज ने जयदेव को इस काव्य रचना के लिए ‘कविराजराज’ की उपाधि से विभूषित किया।
‘गीतगोविन्द’ जयदेव के जीवन काल में ही पर्याप्त रूप से प्रचलित एवं लोकप्रिय हो गया था—इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। दक्षिण में तो वह इतना अधिक प्रचलित हो गया कि इसके पद्यों को तिरुपति बालाजी के मन्दिर की सीढ़ियों पर द्रविण लिपि में खुदवाया गया। श्रीवल्लभ सम्प्रदाय में तो श्रीमद्भागवत् पुराण के समान इसकी प्रतिष्ठा है। वैष्णवों में यह विश्वास है कि ‘गीतगोविन्द’ जहां गाया जाता है, वहां भगवान् का अवश्य ही प्रादुर्भाव होता है। इसी से इस सम्प्रदाय में इसे अयोग्य स्थान पर न गाये जाने का विधान किया गया है, जिसका कठोरता से पालन किया जाता है।
वैष्णव सम्प्रदाय में जयदेव कवि को इस सम्प्रदाय की मध्यावस्था का मुख्य महानुभाव माना गया है। सम्प्रदाय में प्रचलित निम्नोक्त पद्य के अनुसार जिस वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्तन विष्णु स्वामी ने किया और जिसका संवर्द्धन महाप्रभु वल्लभाचार्य ने किया, उस सम्प्रदाय को इन दोनों महानुभवों के मध्य में भक्त कवि जयदेव ने संरक्षण दिया। इस प्रकार वैष्णव सम्प्रदाय में जयदेव भी गुरु के रूप में वन्दनीय हैं—
‘गीतगोविन्द’ को बड़ी ही प्रसिद्धि और लोकप्रियता मिली। जयदेव ने जिस ग्राम में रहते हुए ‘गीतगोविन्द’ की रचना की, उस गांव का नाम ही जयदेवपुर पड़ गया। कवि के समकालीन उड़ीसा के शासक राजा प्रताप रुद्रदेव ने अपने राज्य के गायकों, संगीतज्ञों और नर्तकों के लिए ‘गीतगोविन्द’ के पदों को गाने का आदेश जारी कर दिया। महाराज ने जयदेव को इस काव्य रचना के लिए ‘कविराजराज’ की उपाधि से विभूषित किया।
‘गीतगोविन्द’ जयदेव के जीवन काल में ही पर्याप्त रूप से प्रचलित एवं लोकप्रिय हो गया था—इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। दक्षिण में तो वह इतना अधिक प्रचलित हो गया कि इसके पद्यों को तिरुपति बालाजी के मन्दिर की सीढ़ियों पर द्रविण लिपि में खुदवाया गया। श्रीवल्लभ सम्प्रदाय में तो श्रीमद्भागवत् पुराण के समान इसकी प्रतिष्ठा है। वैष्णवों में यह विश्वास है कि ‘गीतगोविन्द’ जहां गाया जाता है, वहां भगवान् का अवश्य ही प्रादुर्भाव होता है। इसी से इस सम्प्रदाय में इसे अयोग्य स्थान पर न गाये जाने का विधान किया गया है, जिसका कठोरता से पालन किया जाता है।
वैष्णव सम्प्रदाय में जयदेव कवि को इस सम्प्रदाय की मध्यावस्था का मुख्य महानुभाव माना गया है। सम्प्रदाय में प्रचलित निम्नोक्त पद्य के अनुसार जिस वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्तन विष्णु स्वामी ने किया और जिसका संवर्द्धन महाप्रभु वल्लभाचार्य ने किया, उस सम्प्रदाय को इन दोनों महानुभवों के मध्य में भक्त कवि जयदेव ने संरक्षण दिया। इस प्रकार वैष्णव सम्प्रदाय में जयदेव भी गुरु के रूप में वन्दनीय हैं—
‘‘विष्णु स्वामी समारम्भां जयदेवादि-मध्यगाम्।
श्रीमद्वल्लभ-पर्यन्तां स्तुमो गुरु-परम्पराम्।।’’
श्रीमद्वल्लभ-पर्यन्तां स्तुमो गुरु-परम्पराम्।।’’
जयदेव ने ‘गीतगोविन्द’ की रचना करके संस्कृत में एक
नवीन
रचना-प्रणाली का आविष्कार किया। ‘गीतगोविन्द’ के
अनुकरण पर
संस्कृत में ‘अभिनव गीतगोविन्द’,
‘गीतराघव’,
‘गीतगंगाधर’ तथा ‘कृष्णगीत’ जैसे
अनेक गीत
काव्यों की रचना हुई, परन्तु कोई भी कवि अपने काव्य में
‘गीतगोविन्द’ जैसी उत्कृष्टता लाने में सफल नहीं हुआ।
इधर
हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ब्रजभाषा में इसके अनुवाद का प्रयास
किया, परन्तु ‘सच्ची कविता’ का अनुवाद तो हो ही नहीं
सकता—यह उक्ति ‘गीतगोविन्द’ के सम्बन्ध में
अक्षरशः
सत्य सिद्ध हुई है। अनुवाद में मूल रचना के रस-भाव की अवतारणा असम्भव
नहीं, तो कठिन अवश्य है। सर विलियम जोन्स द्वारा आंग्ल भाषा में किये गये
‘गीतगोविन्द’ काव्य के अनुवाद पर जर्मन कवि गेटे की
टिप्पणी
बड़ी ही सटीक है। ‘A Real Poetry is that, which cannot be
translated.’’ अर्थात् उत्कृष्ट कविता की पहचान का
आधार
(कसौटी) ही यही है कि उसका दूसरी भाषा में अनुवाद नहीं हो सकता।
‘गीतगोविन्द’ के मर्म को समझने तथा सहृदयों तक उसके सौन्दर्य को सम्प्रेष्य बनाने के लिए पैंतीस विद्वानों के प्रयास (टीकाएं) उपलब्ध हैं, परन्तु यह काव्य तो वह अगाध सागर है कि इसमें जो जितनी गहरी डुबकी लगाता है। उसके हाथ में उतने ही दुर्लभ एवं बहुमूल्य रत्न आ जाते हैं। कतिपय कवियों द्वारा इस काव्य के अनुकरण पर काव्य-रचना करना जयदेव की कीर्ति-कौमुदी की उज्ज्वलता तथा उत्कृष्टता की स्वीकृति का ही परिचायक है।
भक्ति, श्रृंगार और कवित्व की त्रिवेणीरूप ‘गीतगोविन्द’ काव्य का कृष्ण-भक्ति साहित्य में एक अन्य दृष्टि से भी उल्लेखनीय महत्त्व है। यह सर्वजन विदित तथ्य है कि इस काव्य से पूर्व श्रीकृष्ण की प्रेयसी अथवा पत्नी के रूप में रुक्मिणी तथा सत्यभामा आदि का नाम ही लिया जाता था। राधा नाम की किसी स्त्री का कोई अस्तित्व नहीं था। श्रीमद्भागवत् पुराण में ‘अनायरधितो नूनम्’ श्रीकृष्ण की आराधना करने वाली किसी एक गोपी का उल्लेख अवश्य हुआ है, परन्तु कृष्ण-काव्य में कृष्ण के साथ जुड़ने वाली कृष्ण के ही समकक्ष (कहीं-कहीं तो उनसे भी अधिक) महत्त्व प्राप्त करने वाली श्रीकृष्ण की प्रेमिका-पत्नी राधा का उल्लेख कहीं नहीं हुआ। राधा को इस उच्च स्थान—श्रीकृष्ण की अनन्य सहचरी एवं उनसे अभिन्न तथा उनकी नित्यशक्तिरूपा—पर प्रतिष्ठित करने के श्रेय ‘गीतगोविन्दकार’ जयदेव को ही प्राप्त है। इस ग्रन्थ में चित्रित राधा-कृष्ण के नित्य-विलास के आधार पर ही ब्रह्मवैवर्त पुराण में राधा-कृष्ण की श्रृंगार-चेष्टाओं तथा काम-क्रीड़ाओं का वर्णन हुआ है, परन्तु यह एक कठोर सत्य है कि पुराणकार न तो ‘गीतगोविन्द’ काव्य के वर्णन जैसी मर्यादा और शालीनता का निर्वाह कर सका है और न ही वर्णन को वैसा सरस, रोचक एवं हृदयग्राह्य बना सका है। इस क्षेत्र में भी जयदेव अपने उपमान आप ही हैं। इस आधार पर ही कदाचित् कृष्ण-भक्ति साहित्य में ‘गीतगोविन्द’ काव्य को धर्मग्रन्थ का गौरव प्राप्त है।
देश-विदेश के अनेक मूर्धन्य एवं लब्धप्रतिष्ठित स्रष्टा कलाकारों तथा विद्वान् समीक्षकों द्वारा मुक्तकण्ठ से प्रशंसित होने के अत्रिक्त धर्म और दर्शन के क्षेत्र में भी सुप्रतिष्ठित इस ग्रन्थ—‘गीतगोविन्द’ काव्य—को हिन्दी में अनुवाद करा कर संस्कृत न जानने वाले हिन्दीभाषियों को सुलभ कराने का विनम्र प्रयास है।
‘गीतगोविन्द’ के मर्म को समझने तथा सहृदयों तक उसके सौन्दर्य को सम्प्रेष्य बनाने के लिए पैंतीस विद्वानों के प्रयास (टीकाएं) उपलब्ध हैं, परन्तु यह काव्य तो वह अगाध सागर है कि इसमें जो जितनी गहरी डुबकी लगाता है। उसके हाथ में उतने ही दुर्लभ एवं बहुमूल्य रत्न आ जाते हैं। कतिपय कवियों द्वारा इस काव्य के अनुकरण पर काव्य-रचना करना जयदेव की कीर्ति-कौमुदी की उज्ज्वलता तथा उत्कृष्टता की स्वीकृति का ही परिचायक है।
भक्ति, श्रृंगार और कवित्व की त्रिवेणीरूप ‘गीतगोविन्द’ काव्य का कृष्ण-भक्ति साहित्य में एक अन्य दृष्टि से भी उल्लेखनीय महत्त्व है। यह सर्वजन विदित तथ्य है कि इस काव्य से पूर्व श्रीकृष्ण की प्रेयसी अथवा पत्नी के रूप में रुक्मिणी तथा सत्यभामा आदि का नाम ही लिया जाता था। राधा नाम की किसी स्त्री का कोई अस्तित्व नहीं था। श्रीमद्भागवत् पुराण में ‘अनायरधितो नूनम्’ श्रीकृष्ण की आराधना करने वाली किसी एक गोपी का उल्लेख अवश्य हुआ है, परन्तु कृष्ण-काव्य में कृष्ण के साथ जुड़ने वाली कृष्ण के ही समकक्ष (कहीं-कहीं तो उनसे भी अधिक) महत्त्व प्राप्त करने वाली श्रीकृष्ण की प्रेमिका-पत्नी राधा का उल्लेख कहीं नहीं हुआ। राधा को इस उच्च स्थान—श्रीकृष्ण की अनन्य सहचरी एवं उनसे अभिन्न तथा उनकी नित्यशक्तिरूपा—पर प्रतिष्ठित करने के श्रेय ‘गीतगोविन्दकार’ जयदेव को ही प्राप्त है। इस ग्रन्थ में चित्रित राधा-कृष्ण के नित्य-विलास के आधार पर ही ब्रह्मवैवर्त पुराण में राधा-कृष्ण की श्रृंगार-चेष्टाओं तथा काम-क्रीड़ाओं का वर्णन हुआ है, परन्तु यह एक कठोर सत्य है कि पुराणकार न तो ‘गीतगोविन्द’ काव्य के वर्णन जैसी मर्यादा और शालीनता का निर्वाह कर सका है और न ही वर्णन को वैसा सरस, रोचक एवं हृदयग्राह्य बना सका है। इस क्षेत्र में भी जयदेव अपने उपमान आप ही हैं। इस आधार पर ही कदाचित् कृष्ण-भक्ति साहित्य में ‘गीतगोविन्द’ काव्य को धर्मग्रन्थ का गौरव प्राप्त है।
देश-विदेश के अनेक मूर्धन्य एवं लब्धप्रतिष्ठित स्रष्टा कलाकारों तथा विद्वान् समीक्षकों द्वारा मुक्तकण्ठ से प्रशंसित होने के अत्रिक्त धर्म और दर्शन के क्षेत्र में भी सुप्रतिष्ठित इस ग्रन्थ—‘गीतगोविन्द’ काव्य—को हिन्दी में अनुवाद करा कर संस्कृत न जानने वाले हिन्दीभाषियों को सुलभ कराने का विनम्र प्रयास है।
—रामचन्द्र वर्मा शास्त्री
प्रथम सर्ग
[सामोद-दामोदर नामक सर्ग]
मंगलाचरण
भारतीय साहित्य में ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति की कामना से ग्रन्थकार
द्वारा अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में अपने ईष्टदेव के स्मरण-वन्दन की एक
अक्षुण्ण परम्परा रही है। ‘गीतगोविन्द’ काव्य के
रचयिता जयदेव
ने भी इस परम्परा को गौरव दिया है।
भारतीय भक्ति-दर्शन में भक्ति के पांच रूप-भेद माने गए हैं—शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य। इन पांचों में शान्त से दास्य को, दास से सख्य को, सख्य से वात्सल्य को और वात्सल्य से माधुर्य को उत्तरोत्तर उतकृष्ट माना गया है। इस प्रकार माधुर्य को भक्ति का सर्वोत्कृष्ट रूप मानते हुए भक्ति की चरम परिणति इसी रूप-भेद में स्वीकार की गयी है।
माधुर्य भाव अथवा मधुरा भक्ति को दाम्पत्य भाव की भक्ति का नाम भी दिया गया है। इसमें भक्त अपने को स्त्रीरूप में और अपने आराध्य भगवान् को पुरुषरूप में प्रस्तुत करके उसके साथ संयोग, वियोग से सम्बन्धित नाना लीलाओं की कल्पना द्वारा दाम्पत्य जीवन की योजना करता है।
कविवर जयदेव मधुरा भाव की भक्ति के परमाचार्य हैं। यही कारण है कि उनका मंगलाचरण (ग्रन्थ के प्रारम्भ में किये गये इष्टस्तवन को मंगलाचरण नाम दिया गया है) राधा-कृष्ण की विलास-लीला से ही सम्बन्धित है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि मथुरा अथवा दाम्पत्य भाव की भक्ति और श्रृंगार की विभाजन रेखा अत्यन्त स्पष्ट होते हुए भी बड़ी सूक्ष्म है। श्रृंगार के नायक-नायिका जहां लौकिक नायक-नायिका (प्रेमी-प्रमिका अथवा पति-पत्नी) होते हैं, वहां मथुरा भक्ति के नायक-नायिका भगवान् तथा भक्त अथवा परमात्मा तथा आत्मा होते हैं। रस के शेष अवयव-उद्दीपन, अनुभव तथा सञ्चारीभाव आदि दोनों-श्रृंगार और भक्ति-में एकरूप ही लिए जाते हैं।
भारतीय भक्ति-दर्शन में भक्ति के पांच रूप-भेद माने गए हैं—शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य। इन पांचों में शान्त से दास्य को, दास से सख्य को, सख्य से वात्सल्य को और वात्सल्य से माधुर्य को उत्तरोत्तर उतकृष्ट माना गया है। इस प्रकार माधुर्य को भक्ति का सर्वोत्कृष्ट रूप मानते हुए भक्ति की चरम परिणति इसी रूप-भेद में स्वीकार की गयी है।
माधुर्य भाव अथवा मधुरा भक्ति को दाम्पत्य भाव की भक्ति का नाम भी दिया गया है। इसमें भक्त अपने को स्त्रीरूप में और अपने आराध्य भगवान् को पुरुषरूप में प्रस्तुत करके उसके साथ संयोग, वियोग से सम्बन्धित नाना लीलाओं की कल्पना द्वारा दाम्पत्य जीवन की योजना करता है।
कविवर जयदेव मधुरा भाव की भक्ति के परमाचार्य हैं। यही कारण है कि उनका मंगलाचरण (ग्रन्थ के प्रारम्भ में किये गये इष्टस्तवन को मंगलाचरण नाम दिया गया है) राधा-कृष्ण की विलास-लीला से ही सम्बन्धित है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि मथुरा अथवा दाम्पत्य भाव की भक्ति और श्रृंगार की विभाजन रेखा अत्यन्त स्पष्ट होते हुए भी बड़ी सूक्ष्म है। श्रृंगार के नायक-नायिका जहां लौकिक नायक-नायिका (प्रेमी-प्रमिका अथवा पति-पत्नी) होते हैं, वहां मथुरा भक्ति के नायक-नायिका भगवान् तथा भक्त अथवा परमात्मा तथा आत्मा होते हैं। रस के शेष अवयव-उद्दीपन, अनुभव तथा सञ्चारीभाव आदि दोनों-श्रृंगार और भक्ति-में एकरूप ही लिए जाते हैं।
मेर्घैर्मेदुरमम्बरं वनभुवः श्यामास्तमालद्रुमै-
र्नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे ! गृहं प्रापय।
इत्थं नन्दनिदेशितश्चलितयोः प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमम्,
राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहः केलयः।।1।।
र्नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे ! गृहं प्रापय।
इत्थं नन्दनिदेशितश्चलितयोः प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमम्,
राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहः केलयः।।1।।
एक दिन भगवान कृष्ण एवं उनके सखा तथा भगवती राधा एवं उनकी सखियां किसी
सुरम्य उपवन में भ्रमण करते हुए इस प्रकार खो गये कि उन्हें समय का भान ही
न रहा। फलतः सायंकाल हो गया और आकाश घने तथा काले-कजरारे बादलों से घिर
गया। राधा अपनी सखियों के साथ अपने घर को लौटने लगी, तो नन्दबाबा ने
मनुहार करते हुए राधा से अनुरोध के स्वर में कहा—बेटी राधे !
तुम
देख ही रही हो कि आकाश में काले मेघ इस प्रकार छा गये हैं कि चारों ओर
अन्धकार व्याप्त हो गया है, फिर यह सारा वनप्रदेश तमाल (कृष्ण वर्ण के
पत्तों वाले) के वृक्षों से भरा पड़ा है, इससे चारों ओर घना अन्धकार फैला
हुआ है। पुत्रि ! तुम यह भी जानती हो कि तुम्हारा साथी श्रीकृष्ण रात्रि
में अकेला होने पर भयभीत हो उठता है। अतः तुम इसे छोड़कर मत जाओ, अपितु
इसकी सहायिका तथा मार्गदर्शिका बनकर इसे घर पहुंचाने के उपरान्त ही अपने
घर को प्रस्थान करो।
नन्द बाबा के अनुरोध को गौरव देती हुई राधा ने श्रीकृष्ण की पथप्रदर्शिका बनकर उन्हें घर पहुंचाना स्वीकार कर लिया। इस व्याज से दोनों—राधा और श्रीकृष्ण—को एकान्त और एक-दूसरे का संग सुलभ हो गया। दोनों यमुनातट के रमणीय उपवनों, लताकुञ्जों और तरुओं की सुषमा का आनन्द लेते हुए एकान्त में ललित क्रीड़ाओं का सुख भोगने लगे।
राधा-कृष्ण की उन ललित क्रीड़ाओं की जय हो। वे ललित लीलाएं हमारे सहृदय पाठकों एवं श्रोताओं के मंगल का आधार बनें, अर्थात् उनका कल्याण करने वाली हों। भूमिका में लिखा जा चुका है कि कृष्ण-भक्ति साहित्य में राधा को श्रीकृष्ण की प्रिया एवं पत्नी के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय कविप्रवर जयदेव को ही प्राप्त है। इस तथ्य की पुष्टि इसी से होती है कि कवि ने मंगलाचरण में राधा को श्रीकृष्ण की पथप्रदर्शिका के रूप में चित्रित कर उन्हें उन्नत स्थान पर प्रस्थापित किया है।
नन्द बाबा के अनुरोध को गौरव देती हुई राधा ने श्रीकृष्ण की पथप्रदर्शिका बनकर उन्हें घर पहुंचाना स्वीकार कर लिया। इस व्याज से दोनों—राधा और श्रीकृष्ण—को एकान्त और एक-दूसरे का संग सुलभ हो गया। दोनों यमुनातट के रमणीय उपवनों, लताकुञ्जों और तरुओं की सुषमा का आनन्द लेते हुए एकान्त में ललित क्रीड़ाओं का सुख भोगने लगे।
राधा-कृष्ण की उन ललित क्रीड़ाओं की जय हो। वे ललित लीलाएं हमारे सहृदय पाठकों एवं श्रोताओं के मंगल का आधार बनें, अर्थात् उनका कल्याण करने वाली हों। भूमिका में लिखा जा चुका है कि कृष्ण-भक्ति साहित्य में राधा को श्रीकृष्ण की प्रिया एवं पत्नी के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय कविप्रवर जयदेव को ही प्राप्त है। इस तथ्य की पुष्टि इसी से होती है कि कवि ने मंगलाचरण में राधा को श्रीकृष्ण की पथप्रदर्शिका के रूप में चित्रित कर उन्हें उन्नत स्थान पर प्रस्थापित किया है।
वाग्देवताचरितचित्रित-चित्तसद्मा,
पद्मावतीचरणचारणचक्रवर्ती।
श्रीवासुदेवरतिकेलिकथा समेत-
मेतं करोति जयदेवकविः प्रबन्धम्।।2।।
पद्मावतीचरणचारणचक्रवर्ती।
श्रीवासुदेवरतिकेलिकथा समेत-
मेतं करोति जयदेवकविः प्रबन्धम्।।2।।
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लोगों की राय
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