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श्रंगार - प्रेम >> और बकुला गिर गया

और बकुला गिर गया

सुधा मूर्ति

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2616
आईएसबीएन :81-7315-541-0

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दो समझदार युवा पर आधारित उपन्यास

Aur Bakula Gir Gaya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो समझदार युवा किसी छोटे से शहर में एक साथ बड़े होते हैं। उनके घर के पिछवाड़े में लगा बकुला का पेड़ उनके उभरते प्यार का मूक गवाह है। श्रीकांत का एक छोटे से शहर के लड़के से अन्तरराष्ट्रीय आई.टी. कम्पनी के सी.ई. ओ. बनने तक का सर लोगों के बीच चर्चा का विषय बना रहता है। उसकी पत्नी के रूप में श्रीमती अपनी सभी इच्छाओं का दमन कर चुपचाप उसका सहयोग करती रहती हैं। उसे इस बात का एहसास भी है कि श्रीकांत के जीवन में जीने में उसे इतिहास के प्रति अपने प्रेम को भूलना होगा। एक आदर्श दम्पति दिशने वाले इस जोड़े में जल्द ही छोटी-छोटी दरारें आने लगती हैं। किसी का भी ध्यान इसपर नहीं जाता, और एक दिन दोनों के बीच सारे रिश्ते खत्म हो जाते हैं। उनके पैतृक शहर में लगे बकुला पेड़ से असहाय बनकर नके प्यार के प्रारम्भ से लेकर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में खरा उतरते उनके प्यार को देखा है।

सुधा मूर्ति इस कहानी को अपने ही अंदाज में बता रही हैं, जिसमें उन्होंने बकुला की मूक सुगंध का सहारा लिया है।

रुपरेखा


श्रीकांत और श्रीमती हुबली के दो उभरते हुए युवा थे। श्रीकांत जहाँ आत्मविश्वासी, महत्त्वाकांक्षी एवं समझदार युवक था वहीं श्रीमती उससे अधिक बौद्धिक और भावनात्मक-दोनों ही थी। हालाँकि वह अंतर्मुखी है, स्वयं को तुच्छ समझती है, इसलिए इतिहास के प्रति अपने जुनून को भी आसानी से भुला देती है। यही नहीं, आखिर में वह श्रीकांत की महत्त्वाकांक्षा और बहुत कुछ पाने की होड़ के चलते अपने ‘स्व’ के लिए तथा पारिवारिक अस्तित्व के लिए तड़पने लगती है। विवाह के बाद श्रीकांत व श्रीमती मुंबई चले जाते हैं। वहाँ श्रीकांत को मिली तरक्की उन्हें आश्चर्यचकित करती है। श्रीकांत के पास स्वप्नद्रष्टा और शैक्षिक श्रीमती की असंगत तथा विवेकहीन जरूरत के लिए न समय है और न स्थान। श्रीकांत की सभी उपलब्धियों का लेखा-जोखा वह चुपचाप एक सचिव और मेहमाननवाजी करनेवाली महिला की तरह सँभालने लगती है। वह अपने दुःख और श्रीकांत की माँ के द्वारा किए जानेवाले अपमान को भी नहीं कह पाती है। एक दिन उनके बीच की दरार स्पष्ट दिखाई देने लगती है। उनकी शादी का दूसरा रूप स्पष्ट दिखाई देने लगता है। श्रीमती इतिहास के प्रति अपने सोए हुए प्यार को फिर जगाती है और नई दिशा पाने के लिए श्रीकांत को छोड़ने का अटल फैसला कर लेती है।

एक


कर्नाटक के वाणिज्यिक शहर हुबली के मॉडल हाई स्कूल में आज का दिन उत्तेजना व रोमांच से भरा था। दसवीं कक्षा के सभी छात्र बेसब्री से निबंध प्रतियोगिता के परिणाम का इंतजार कर रहे थे। यह शहर की सबसे प्रसिद्ध प्रतियोगिता थी। इसका महत्त्व इनामी राशि के लिए नहीं, बल्कि इस पुरस्कार के संस्थापक के कारण अधिक था, जो एक महान् निबंधकार थे। और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि पुरस्कृत निबंध को राज्य स्तरीय प्रतियोगिता के लिए भी भेजा जाता था।
सभी युवाओं की तरह इस बार के युवा भी जोश, आदर्शों, विद्रोही स्वभाव और मिली-जुली भावनाओं से भरपूर हैं। कमरे में चारों ओर खुसुर-फुसुर हो रही थी। यह उस तरह की प्रतियोगिता थी, जिसके परिणाम हमेशा पूर्वानुमान के बिलकुल विपरीत आते थे, इसलिए आखिर तक रहस्य-रोमांच बना रहता।
जब इतिहास के शिक्षक मि. कुलकर्णी परिणाम घोषित करने के लिए आए तो पूरी कक्षा में शांति छा गई। वह स्वयं इस रहस्य का आनंद ले रहे थे। इसलिए उन्होंने जान-बूझकर पुरस्कृत निबंध के लेखक का नाम नहीं लिया। उन्होंने सिर्फ इतना कहा, ‘पहले बेहतरीन निबंध को पढ़ने दें। यह लेख दिल को छू लेनेवाला और लेखक की उम्र से अधिक परिपक्व है।’
‘सभी मेरे बच्चे हैं,
मैं उनके पिता की तरह हूँ।
जैसे कोई भी पिता अपने बच्चों के लिए
खुशियाँ और सुख चाहता है,
मैं सभी मनुष्यों के लिए
शाश्वत आनंद की कामना करता हूँ।
मैं जहाँ भी रहूँ।
अपने लोगों के लाभ के लिए
निरंतर काम करूँगा।
अपने हर कर्तव्य को पूरा करना ही धर्म का पथ है,
जो मनुष्य होश में नहीं है,
वह धर्म का पालन नहीं कर सकता।
धर्म को नष्ट नहीं, फूलना-फलना चाहिए
लोगों को इसकी उन्नति के लिए प्रयास करने दें
और उसका विनाश नहीं चाहें।’
‘यह चंद्रगुप्त मौर्य के पोते और बिंबसार के बेटे देवानामप्रिय प्रियदर्शी अशोक के पाषाण फरमान थे। सम्राट अशोक एक महान् व्यक्ति थे। उनके फरमानों में हमें उनके स्वभाव और धर्म के प्रति उनके मूल्यवान् विचारों की झलक देखने को मिलती है। उन्होंने हमेशा अपनी प्रजा को अपने बच्चों की तरह माना है और यह गुण बहुत कम लोगों में देखने को मिलता है। इतिहास के पन्नों में उनका नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा हुआ है।’
निबंध की लेखिका इस बात का एहसास करते हुए अपनी साँसें थाम लेती है कि यह उसका ही निबंध है, जो पढ़ा जा रहा है। शिक्षक अपने सधे हुए अंदाज में इसे पढ़ते हैं-
‘विश्व के इतिहास में कई बड़े राजा हुए, जिन्होंने कई युद्ध लड़े और एलेक्जेंडर की तरह युद्धों को जीता भी। यीशु और बुद्ध की तरह कई महान् संत हुए, जिन्होंने लोगों को धर्म का रास्ता दिखाया, लेकिन राजा और संत-उपदेशक दोनों का मेल केवल अशोक में ही देखने को मिलता है।
‘अशोक ने कलिंग युद्ध से सबक सीखा और उस बीभत्स युद्ध को जीतने के बाद अधिक धैर्यवान् तथा प्रिय हो गया था। उसका दिल करुणा से पिघला और उसने अपना शेष जीवन धर्म और अपनी प्रजा की सुख-समृद्धि को समर्पित कर दिया। यह कहना गलत होगा कि सिर्फ एक युद्ध की वजह से अशोक का हृदय-परिवर्तन हुआ और उसने अहिंसा का मार्ग अपना लिया। हो सकता है कि यह घटना एक उदार और भावुक राजा के लिए प्रेरणास्रोत बनी हो।
‘उन्होंने मानवता की भलाई के लिए जो भी नियम बनाए, वे वास्तव में सराहनीय हैं। यही कारण है कि देवों को प्रिय अशोक का नाम सिर्फ भारतीय ही नहीं, बल्कि विश्व के ऐतिहासिक पन्नों में भी स्वर्णिम अक्षरों में लिखा हुआ है। मैं ऐसे राजा को प्रणाम करती हूँ।’
कमरे में फुसफुसाहट शुरू हो गई थी। सभी यह जानने की कोशिश कर रहे थे कि आखिर किसने ज्ञान के साथ-साथ भावनाओं को पिरोकर यह निबंध लिखा है। सभी की आँखें उस लड़की की ओर मुड़ गईं, जिसके होंठों पर हलकी सी लज्जा भरी मुसकान बिखरी हुई थी। शिक्षक ने आगे पढ़ा-
‘अशोक ने अपने फरमानों को पूरे साम्राज्य के स्तंभों, पत्थरों और गुफाओं में खुदवा रखा था। यह कहा जाता था कि उनका साम्राज्य दक्षिण में कर्नाटक से पाकिस्तान...तब पाकिस्तान कहाँ था ? उत्तर में अफगानिस्तान से पश्चिम में अरब सागर और पूर्व में उड़ीसा (तब का कलिंग) तक फैला हुआ था। उनका संदेश हर आम इनसान तक पहुँचे, इसलिए उन्होंने उन्हें पालि, प्राकृत, ब्राह्मी और अरबी भाषा में अकिंत करवाया।
‘इस राजा के कुछ फरमान मस्की, रायचूर जिले के गावी माता और चित्रदुर्ग जिले के सिद्धपुर में भी पाए जा सकते हैं। मस्की के खुदे पत्थरों से ही पता चला है कि वह अशोक ही था, जो देवानामप्रिय और प्रियदर्शी के नाम से भी जाना जाता था।
‘आज अशोक का साम्राज्य नहीं है, लेकिन उनके द्वारा प्रतिपादित पाँच आदर्श ‘पंचशील’ झगड़ों से भरे आधुनिक युग के लिए अनमोल धरोहर हैं।’
अब तक कमरे में उपस्थित हर छात्र-छात्रा को पता चल चुका था कि यह निबंध लिखनेवाली श्रीमती देशपांडे ही हैं। पतली, लंबी और लंबे बालोंवाली श्रीमती अपनी कक्षा की मेधावी छात्रों में एक थी।
जब शिक्षक ने आधिकारिक तौर पर नाम की घोषणा की तो पूरा कमरा तालियों से गूँज उठा। उसने शरमाकर तालियों का अभिवादन स्वीकार किया और तब शिक्षक ने उसे निबंध लौटाया। घंटी बजी और इसी के साथ क्लास समाप्त हो गई। वह आज का आखिरी दिन था। श्रीमती किताबें इकट्ठी कर जाने के लिए तैयार ही हुई थी कि उसने कुछ लड़कों को बातें करते सुना। वह इस बात से दुःखी थे कि उनका दोस्त गोरा और लंबा नौजवान श्रीकांत देशपांडे नहीं जीत पाया था। वह कक्षा में श्रीमती का प्रतिद्वंद्वी था। उसके दोस्त मालेश और रवि पाटिल तो श्रीकांत से भी ज्यादा दुःखी थे। लड़कियों की टीम ने लड़कों को हरा दिया था। सह-शिक्षा विद्यालयों में दोनों पक्षों के बीच काँटे की टक्कर रहती है।
उन्होंने गुस्से में कहा, ‘श्रीकांत, तुम्हें इस बार उसे मौका नहीं देना चाहिए था।’
इस बात पर श्रीकांत केवल मुसकराया और बोला, ‘जाने भी दो, रवि, इतिहास कोई बहुत महान् विषय नहीं है। क्या सिर्फ एक अच्छा निबंध लिखने से कोई सर्वश्रेष्ठ साबित हो जाता है ? निबंध लिखना कुछ नहीं, बस पन्ने भरना है। असली समझदारी तो विज्ञान में अच्छे अंक पाने से साबित होती है।’
लेकिन मल्लेश इससे खुश नहीं था। वह झल्लाकर बोला, ‘ज्यादा डींगें मत हाँको, श्रीकांत ! हम सभी जानते हैं कि श्रीमती कोई गूँगी या बेवकूफ लड़की नहीं है। अपनी हार को शालीनता से स्वीकार करो। वह होशियार है और मेहनती भी। वह हर विषय में तुमसे अच्छे अंक प्राप्त कर सकती है।’
श्रीकांत अपने दोस्त को फुसलाते हुए बोला, ‘रहने भी दो, माल्या ! उसे अनावश्यक महत्त्व देने की जरूरत नहीं है। मैं मानता हूँ कि वह होशियार है, लेकिन सिर्फ इतिहास और भाषा जैसे विषयों में। आमतौर पर महिलाएँ इतिहास की दीवानी होती हैं, क्योंकि यह गप्पों का ढेर है, जैसे-फलाँ राजा की तीन रानियाँ थीं, आखिरी रानी के छह बेटे थे आदि। इसके लिए किसी तरह के तर्क की आवश्यकता नहीं होती। बस, बीते तथ्यों को याद रखने की जरूरत है।’
श्रीकांत से तंग आकर रवि ने कहा, ‘श्रीकांत, तुम्हें यह सब कैसे पता है ?’
‘रवि, तुम जानते हो कि मैं उसका पड़ोसी हूँ। मैं उसे पढ़ते हुए अपने कमरे से देख सकता हूँ। मैंने हर रोज देखा है कि वह रोज सुबह शायद ऐसे ही निबंधों की तैयारी करने के लिए उठती है। अगर मैंने भी उसकी तरह तैयारी की होती तो मैं उससे बेहतर निबंध लिखकर दिखाता।’ यह कहकर श्रीकांत ने अपनी हार के लिए एक बहाना ढूँढ़ा, लेकिन उसका कोई भी मित्र इस तर्क को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था।
माल्या फिर गुर्राया, ‘हमें ये कहानियाँ मत सुनाओ। तुम भला इतनी जल्दी क्यों उठते थे ? सिर्फ उसे पढ़ते हुए देखने के लिए ? हो सकता है कि तुम उसकी तरह मेहनती हो, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि वह तुमसे अधिक होशियार है।’
तभी रवि उसकी बात काटते हुए बोला, ‘माल्या, तुम कितनी मोटी चमड़ी के हो ! तुम प्यार की खूबसूरत भावनाओं को नहीं समझ रहे हो। जब आदमी प्यार में पड़ता है तो हार स्वीकारने से भी नहीं हिचकता। क्या तुमने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि वह अकसर अपना पहला स्थान उसे दे देता है। पता है, क्यों ? क्योंकि आगे चलकर वह उसकी जीवनसंगिनी जो बनने वाली है। देखो न, उसका नाम भी कितना सटीक है-श्रीमती श्रीकांत देशपांडे।’
वहाँ खड़े सभी लोग हँसने लगे। श्रीमती पीछे मुड़ी और गुस्से से श्रीकांत को घूरने लगी। वह खुद भी अपने दोस्तों के इस मजाक से शर्मिंदा था। वह बोला, ‘रवि और माल्या, ऐसे ही कुछ भी मत बोला करो, क्योंकि ऐसा कुछ नहीं है।’
दरअसल, श्रीमती के पिता का नाम भी श्रीकांत था। इसलिए उसका पूरा नाम श्रीमती श्रीकांत देशपांडे पढ़ा जाता था। बस, यही कारण था, जो लड़कों के लिए यह मजाक का विषय बन गया था, क्योंकि इसका अभिप्राय यह भी होता था कि वह श्रीकांत देशपांडे की पत्नी है।

दो


कर्नाटक शहर तुंगभद्रा नदी के कारण दो हिस्सों में बँटा हुआ था। तुंगभद्रा के दक्षिण में स्थित शहर ‘मैसूर राज्य’ कहलाता था, जो अब ‘दक्षिण कर्नाटक’ के नाम से जाना जाता है। वहीं नदी के उत्तर का हिस्सा, जो महाराष्ट्र की सीमा तक फैला है, ‘उत्तर कर्नाटक’ कहलाता है। दोनों क्षेत्रों के लोग एक-दूसरे से कई मामलों में अलग थे, जैसे-उनका खान-पान, कपड़े, संस्कार, व्यवहार आदि। हालाँकि दोनों ही क्षेत्रों के लोग कन्नड़ बोलते थे, लेकिन कुछ शब्दों का उच्चारण अलग-अलग था।
उत्तर कर्नाटक के लोग खुद को ‘खुले विचारोंवाले और सच्चे’ कहकर गर्व करते थे। उनके उपनाम (सरनेम) मराठी उपनामों की तरह थे, जैसे-कुलकर्णी, देशपांडे, देसाई और पाटिल। हालाँकि उनका महाराष्ट्र से बहुत कुछ लेना-देना था, लेकिन फिर भी वे मराठी नहीं बोलते थे। कुछ परिवार तो ऐसे थे, जिन्होंने कभी कर्नाटक की सीमा तक पार नहीं की थी। श्रीमती देशपांडे ऐसे ही एक उत्तर कर्नाटक परिवार से थी।
श्रीमती अपनी सहेलियों-वंदना पाटिल और शारदा इम्मीकरी के साथ घर के लिए निकल पड़ी। वंदना के पिता वकील थे और शारदा के पिता का अपना प्रोविजन स्टोर था। श्रीमती बात करने के मूड में नहीं थी। श्रीकांत और वह पहली कक्षा से साथ-साथ पढ़ रहे थे और उनके परिवार कई पीढ़ियों से एक-दूसरे के पड़ोसी थे। लेकिन दोनों परिवारों के बीच हमेशा से ही कड़ी प्रतिद्वंद्विता चली आ रही थी। एक बार फिर श्रीकांत और उसके बीच के प्रतिद्वंद्वियों जैसी खाई खोदने की कोशिश की जा रही थी, जो वह बिलकुल नहीं चाहती थी।
वह अपनी भावनाओं को किसी के साथ बाँटना चाहती थी। उसका कोई भाई या बहन नहीं थी, इसलिए वह केवल अपनी सहेलियों से ही बात कर सकती थी; लेकिन उस दिन उसकी सहेलियाँ भी उसकी बात सुनने के लिए तैयार नहीं थीं; परंतु वे उसकी जीत से उत्साहित थीं।
वंदना ठहाका लगाते हुए बोली, ‘श्रीकांत को नीचा दिखाना कितना मजेदार था और उससे ज्यादा मजेदार था माल्या शेट्टी का लटका चेहरा देखना। और कुछ तुमने देखा कि रवि कैसे यह दिखाने का प्रयास कर रहा था कि कुछ हुआ ही नहीं हो, जबकि वे सब श्रीकांत की हार से बहुत शर्मिंदा महसूस कर रहे थे।’
‘माल्या कहता है कि उसे लड़कियों का मजाक उड़ाने में बहुत आनंद आता है। और रवि को अपने से आगे कोई नजर ही नहीं आता। हमारे विद्यालय के लड़कों में जरा भी तमीज नहीं है। आज उन्हें बड़ा जोरदार झटका लगा। आज श्रीमती ने उन्हें अच्छा मजा चखाया।’
शारदा धीरे से बोली, ‘श्रीमती, क्या ऐसा लगता है कि औरत में दिमाग पुरुष के मुकाबले कम होता है ! लड़के तो यही कहते हैं। क्या यह सच है ?’
श्रीमती ने प्यार से कहा, ‘शारी, तुम्हें उन्हें बता देना चाहिए था कि समझदारी का दिमाग के वजन से कोई लेना-देना नहीं है।’
‘ओह ! मुझे भी ऐसा ही सोचना चाहिए था, लेकिन मैं तुम्हारी तरह होशियार नहीं हूँ न। मैं श्रीकांत के बारे में सुन-सुनकर बोर हो चुकी हूँ। उसकी माँ गंगक्का और मामा शीनाप्पा सोचते हैं कि वह आकाश का सबसे चमकदार सितारा है। शीनाप्पा हमारी दुकान में आते रहते हैं और बस, अपने भानजे के बारे में बातें करते रहते हैं। तुम्हें मालूम है ? भंडीवाड़ के भगवान् हनुमान से मैंने मन्नत माँगी है कि अगर तुम श्रीकांत को फाइनल परीक्षा में पछाड़ दोगी तो मैं पूरे स्कूल में पेड़े बँटवाऊँगी। जरा इन देशपांडों का घमंड तो देखो। हालाँकि अब उनके पास कोई जायदाद नहीं रह गई है, लेकिन घमंड वैसा-का-वैसा ही है।’
वंदना ने शारदा को चिकोटी काटकर उसे चुप कराने का प्रयास किया। इस तरह की टिप्पणी श्रीमती को दुःखी कर सकती है, क्योंकि वह भी भूमिविहीन देशपांडे की बेटी है। लेकिन शारदा इन सब बातों को लेकर ज्यादा सोचती नहीं थी।
हुबली के नजदीक भंडीवाड़ एक छोटा सा गाँव था। गाँव में भगवान् हनुमान का मंदिर था। उनके बारे में चर्चा थी कि उनकी अपने भक्तों पर विशेष अनुकंपा है। लोगों को यह विश्वास था कि जो अपनी इच्छा भगवान् के समक्ष रखते हैं और हर शनिवार को व्रत रखते हैं, उनकी मनोकामना जरूर पूर्ण होती है। इसके बदले में वह भगवान् को प्रसाद के रूप में मिठाइयाँ समर्पित करते हैं। मिठाइयों में सबसे ज्यादा चर्चित था धारवाड़ का पेड़ा।
धारवाड़ जिला (हुबली शहर भी इसी जिले के अंतर्गत आता था) अपनी बेहतर शिक्षा और कन्नड़ साहित्य के लिए प्रसिद्ध था। यह संगीत और साहित्य का आधार था। प्रकृति द्वारा इस शहर को उपजाऊ भूमि, शांत वातावरण और शिक्षित लोग आशीर्वाद-स्वरूप मिले थे। जैसे कहा जाता है कि धारवाड़ में अगर पत्थर फेंको तो वह किसी संगीतज्ञ या साहित्यकार को ही लगेगा।’
धारवाड़ स्वादिष्ट पेड़ों के लिए भी चर्चित है। धारवाड़ के पेड़े दूध से निर्मित गहरे भूरे रंग के होते हैं। उत्तर कर्नाटक के लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि अगर आपने हमारे यहाँ के पेड़े नहीं चखे तो आपका जीवन व्यर्थ है।
ये वही पेड़े थे, जिन्हें अपनी सहेली के प्रथम आने पर वह पूरे स्कूल को खिलाना चाहती थी। वंदना भी श्रीमती की सफलता के लिए भगवान् से प्रार्थना करनेवाली थी। रेलवे स्टेशन के करीब ही छोटा सा एक मंदिर था। जैसे हुबली के लोगों का उपनाम था वैसे ही इस भगवान् का नाम भी ‘रेलवे ईश्वर’ था।
‘श्रीमती, मैं भी रेलवे ईश्वर से तुम्हारे लिए प्रार्थना करूँगी। यदि तुम प्रथम आईं तो मैं उनकी विशेष पूजा का आयोजन करूँगी। उनकी बहुत मान्यता है।’
श्रीमती अपनी दोनों सहेलियों की बातों पर मुसकराई और बोली, ‘तुम दोनों मेरे लिए इन देवताओं की पूजा क्यों कर रही हो ? क्या मैं सिर्फ इसलिए प्रथम आऊँ, क्योंकि मुझे श्रीकांत को हराना है। और वैसे भी, एक परीक्षा किसी की समझदारी को तौलने का मापदंड नहीं है। मैं पढ़ती हूँ, क्योंकि मैं ज्यादा ज्ञान अर्जित करना चाहती हूँ। तुम्हें पता है कि मैंने यह निबंध कैसे लिखा है ? मैंने अशोक और बौद्ध धर्म पर कई पुस्तकें पढ़ीं। अशोक वास्तव में महान् व्यक्ति थे और मैं उनका सम्मान करती हूँ। मैंने श्रीकांत को हराने के लिए प्रार्थना करने की बजाय अशोक के बारे में ज्यादा जानने में अपना समय बिताया।’
श्रीमती की बात सुनकर उसकी दोनों सहेलियों को गहरा धक्का लगा। उन्हें ऐसा लगा जैसे श्रीमती को उनकी सच्ची प्रार्थना की कोई जरूरत नहीं है।
श्रीमती की बात से गुस्साई वंदना बोली, ‘शारी, हमें श्रीमती के लिए प्रार्थना नहीं करनी चाहिए। आखिर वह भी श्रीकांत की ओर ही है। हम तो सोचती थीं कि वह हमारे साथ है; पर याद है, लड़कों ने क्या कहा था, ‘वह श्रीमती देशपांडे है।’ आखिर वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हम क्या हैं, बस, बाहर के लोग।’
हालाँकि श्रीमती कुछ कहने ही वाली थी, लेकिन वह चुप रह गई। अब उसकी सहेलियाँ भी उसके नाम का मजाक बना रही थीं, जैसे वह श्रीमती श्रीकांत देशपांडे हो। श्रीमती चुपचाप घर के अंदर चली गई।


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