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समय सपना और तुम

मधुप मोहता

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :79
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2626
आईएसबीएन :81-88266-14-0

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प्रस्तुत है सरस और पठनीय कविताएँ....

Samay Sapna Aur Tum

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सुलझे सचेतक के सपने

संवेदा में विचारों के और विचारों में संवेदना के कवि हैं मधुप मोहता। इस मुद्दे पर ज़रा थमकर बतियाना चाहता हूँ।
हमारे इर्द-गिर्द जो कुछ घटता या बढ़ता है अथवा वह जो दिखाई देता है हमें अपनी धुरी पर तीन सौ साठ डिग्री घूमते समय, जो समय का उस समय होता है, वह जो हमारे अंदर संवेदन-झंकृत के रूप में अनूदित होता रहता है अनवरत, वह जो हमें चैन देता है या बेचैन करता है, वह जो हमारे भीतर का संवेदनात्मक कुछ होता है। ये जो ‘कुछ’ होता है, ये कभी उठती हुई भवों से प्रकट होता है, कभी विस्मय में फैली आँखों से, कभी दिल की खुली बाँहों से, कभी तनी ग्रीवा से, कभी झुके कंधों से। ये ‘कुछ’ दिल से दिमाग़ तक का सफर करता है। जब ये दिल से दिमाग़ की ओर जाता है, तब मैं इसे कहता हूँ संवेदना में विचारों का आना।

संवेदना में विचारों का आना कोई मामूली प्रक्रिया नहीं है, बहुत जटिल है। एक सुलझे सचेतक व्यक्ति को भी इस प्रक्रिया में उलझना पड़ता है। उलझने कहाँ से आती हैं ? उलझने आती हैं कल्पनाओं से। और कल्पनाएँ इसीलिए कल्पनाएँ हैं, क्योंकि बताकर नहीं आतीं। वे तो बस एक के बाद एक ताबड़तोड़ आती ही जाती हैं। सुलझा सचेतक व्यक्ति दिन में ही सपने देखने लगता है। उसके सपने भाषातीत होते हैं। तभी तो कहता है—‘मेरे’ स्वप्न अतिरंजित लक्षणाओं, अभिधाओं/व्यंजनाओं से अपरिचित हैं।’ भाषा में शब्द की जितनी शक्तियाँ बताई गई हैं वे सब सपनों में काम नहीं आतीं। शब्द नहीं गूँजते, सिर्फ एक गूँज गूँजती है। उस गूँज को आकार देते समय इतिहास, भूगोल, अतीत, वर्तमान, भविष्य सब गड्डमड्ड होने लगते हैं। यह बताना कठिन होता है कि वे स्वप्न क्या हैं। यह बताना आसान होता है कि वे क्या नहीं हैं। तभी तो सुलझा सचेतक दावे के साथ कहता है—‘मेरे स्वप्न किसी ऐतिहासिक/पुरुषार्थ की अभिव्यक्ति नहीं हैं/मेरे सपनों के इंद्रधनुष के/वैज्ञानिक विश्लेषण, मनोवैज्ञानिक अन्वेषण से/किसी किरण, ज्योत्सना, ऊषा, कीर्ति, दीप्ति/ या आभा की अस्वस्ति नहीं होती/मेरे सपनों में/ चिंताओं से चिंताएँ नहीं जलतीं/वासनाओं का विनिमय नहीं होता/आशाएँ अधीर नहीं होतीं/श्रद्धाएँ श्रांत नहीं होतीं।’

सारे-के-सारे अंतर्विरोधी मनोभाव आमने-सामने खड़े होकर आँखें चार करते हैं—कभी प्यार में, कभी तकरार में। संवेदनाओं का शब्दहीन भावालोक न केवल अपना स्रोत तलाश करता है बल्कि अपना विस्तार और औचित्य भी। तब उसे लगता है—‘मेरे स्वप्न मेरा आश्रय हैं/परिवर्तन की परंपरा की सनातन स्मृति/मेरी अनूभूति के एकांत की अभिव्यक्ति का व्याकरण/मेरा माध्यम हैं मेरे स्वप्न।’

सपने में जब एक सवाल बनकर आने लगता है तभी संवेदनाओं में विचार के आने की प्रक्रिया घटित होती है। थोड़ा सरलीकृत करें और थोड़ी देर के लिए मान लें कि समय विचार है, सपना संवेदना तो बात को समझा जा सकता है।
मधुपजी की ‘समय’ शीर्षक कविता एक बार के पाठ में खुलती नहीं है। यह कविता एक युग के समग्र बोध की कविता है। इसका फलक व्यापक है। यह कविता एक साथ अनेक लोकों में विचरती है। अनेक प्रकार के आरोह-अवरोहों में भटकती है। यथार्थ से फैंटेसी में ले जाती है और फैंटेसी से यथार्थ के दर्शन कराती है। राजनीति, दर्शन, मनोविज्ञान और सौंदर्यशास्त्र हर पल बदलते हैं। हनुमान चालीसा और विविध भारती, नाना के कस्बे और दादा के गाँववाले यौवन के गीत, ग़ज़ल और कव्वालियाँ नेपथ्य संगीत की तरह ध्वनि-बिंब बनाते हैं। इमलियाँ, आम, जामुन, अमरूद, लीचियाँ, खट्टे-मीठे बेर, तितलियाँ, लट्टू-धागा, सरकंडे की कलम, खड़िया पट्टी-ये सब-के-सब जिस बचपन का सृजन करते हैं, समय उनको एक जटिल भिन्न या याद न हो सकने वाले पहाड़ों में रूपांतरित कर देता है। ये बिंब शुद्ध अनुभूति से बनते हैं। सपनायित होते हैं और नेपथ्य में गूँजते समवेत विचार स्वर का अंग बन जाते हैं। आस्था और अनास्था में द्वंद्व होता है। अस्वीकार अपनी अकड़ दिखाते हुए भी ढीला है और स्वीकार विनम्रता में ऐंठा हुआ है। भूमिका उपसंहार तक संवेदना की समस्त झंकृतियाँ वैचारिक चिंतन का दावतनामा बन जाती हैं ‘समय’ कविता की ख़ूबी है कि हम पढ़ते-पढ़ते समय को जीने लगते हैं, वर्क-दर-वर्क उसे उलटने लगते हैं।

संवेदना के लिए शब्द न भी हों तो चल सकता है, लेकिन विचार को तो हर हालत में शब्द चाहिए। विडंबना यह है कि इधर शब्द मुँह से निकला नहीं कि उधर स्थिति विषम होने लगी। इसलिए मौन एक सार्थक अभिव्यक्ति के विकल्प के रूप में प्रकट होता है। मौन निर्भीक होता, निरपेक्ष भले ही न हो, पर निरापद होता है। मधुपजी की कविताएँ एक विषम स्थिति में डाल देती हैं जब उनका अप्रत्यक्ष-विधान अचानक खुलने लगता है। जब मौन भी संप्रेषणीय हो जाता है, विचार जब संवेदनाओं के बीज-वपन के लिए दिल के खेत में जुताई कर देता है तो संवेदनाओं की फसल आते देर नहीं लगती। इधर पहली बौछार पड़ी उधर लहलहाता हुआ हरापन ऊँचाई प्राप्त कर चुका। देखिए तो ! संवेदना जब विचारात्मक होती है और विचार जब संवेदनात्मक होते हैं तब समय के निराकार में सपने आकार लेते हैं।

विचार जब विचारात्मक होते हैं तब मधुप संवेदनशील होने के लिए कनु सान्याल, अटल बिहारी वाजपेयी, सफदर हाशमी पर लिखने लगते हैं और जब उनकी संवेदनाएँ संवेदनात्मक होती हैं तब वे विचारशील होने के लिए ‘और तुम’ संप्रदाय की कविताएं लिखते हैं। ऐसी प्रेम कविताएँ जिनसे अच्छा-अच्छा प्रेमी भी ईर्ष्या करने लगे कि उसने क्यों नहीं पाई ऐसी अभिव्यक्ति।
मैं तो कहता हूँ कि संवेदना में विचारों के और विचारों में संवेदना के कवि हैं मधुप मोहता। इस पुस्तक की कविताओं में समाया हुआ समय ही कुछ ऐसा है जिसमें कविमन के राग-विराग तत्त्वों में सामंजस्य ढूँढ़ना कठिन हो जाता है। इसका मतलब यह नहीं कि मधुप कोई कठिन कवि हैं। वे प्रदूषणविहीन पानी की तरह पारदर्शी हैं; लेकिन इस प्रदूषण का क्या करें जो पानी को गँदला करने पर आमादा है।
पढ़िए इन कविताओं को। इस संकलन की कविताएँ पठनीय हैं, क्योंकि ये किसी भी सुलझे सचेतक में सपने  जगा सकती हैं, सपनों का अंबार लगा सकती हैं। जिसे सपने नहीं आते वह भी ईस्टमैन कलर हो सकता है।

अशोक चक्रधर

मेरी बात


मैंने अपने जीवन में समाज के साथ तीन समझौते किए हैं। समाज के साथ मेरा पहला समझौता एक चिकित्सक के रूप में था, दूसरा सैनिक के रूप में तीसरा राजनयिक के रूप में। समाज के साथ मेरे तीनों समझौते अभिव्यक्ति की मर्यादाओं से बँधे हैं। समाज में केवल कवि एक ऐसा व्यक्ति है, जो अभिव्यक्ति के माध्यम से समाज से जो कुछ पाता है, वह समाज को वापस लौटाता है। ‘समय, सपना और तुम’ में संकलित मेरी कविताएँ समाज के प्रति मेरी प्रतिक्रियाएँ हैं।

इस संकलन की कविता ‘समय’ मेरी प्रिय कविता है। ‘समय’ के विषय पर अनेक कविताएँ लिखी गई हैं। उदाहरण के तौर पर टी.एस. इलियट की कविताओं ‘फोर क्वार्टेट्स’ और ‘प्रूफ़ौक’ में समय का बहुत अच्छा चित्रण किया गया है। मेरी कविता ‘समय’ अनायास ही हो गई। समय एक अविराम कविता है और कवि समय के निर्बाध प्रवाह में एक अर्धविराम भर है, जो शब्दों को स्याही में सँजोकर पाठक या श्रोता को प्रस्तुत करता है। भारत उन गिने-चुने देशों में से एक है, जो एक साथ बीस अलग-अलग सदियों में रह रहा है। इन कविताओं में भारतीय सभ्यता का ही अनूठापन समाहित है। इस संकलन को प्रस्तुत करने में मेरे कई मित्रों ने मुझे सहयोग दिया और उनका उल्लेख यहाँ करना अत्यंत आवश्यक है। मैं सुश्री कामना प्रसाद, नमिता भाटिया, डॉ. रेशमा हिंगोरानी का विशेष आभार व्यक्त करना चाहता हूँ, जिन्होंने अंतरताने व जगह-जगह बिखरे स्मृति के पन्नों को संकलित करने में मेरी सहायता की।


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