लोगों की राय

हास्य-व्यंग्य >> जुगाड़पुर के जुगाड़ू

जुगाड़पुर के जुगाड़ू

गोपाल चतुर्वेदी

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2631
आईएसबीएन :81-88266-36-1

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

59 पाठक हैं

सामाजिक और राजनीतिक जीवन में व्याप्त विडंबनाओं पर आधारित हास्य कहानियाँ...

Jugarpur Ke Jugaru

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अरे यह जो हो रहा है, जुगाड़ प्रसाद तो नहीं है। दूसरे ने कन्फर्म किया, है तो जे. पी. ही है। रोज ही अंगेजी अखबारों के तीसरे पन्ने में इसकी तस्वीर छपती है। एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाते-जाते आदमी कितना बेहाल हो जाता है कैसे घोड़े बेचकर सो रहा है बेचारा। हमारे आत्म विश्वास को फिर से धक्का लगा। हमारे अनुमान के विरूद्ध आखिर यह सोचता हुआ ड्रम कोई दल बदल करानेवाला नेता ही नहीं निकला। हमें अपनी गलती का एहसास हुआ । पहले के नेताओं के उसूल और पोशाक दोनों तय थीं। अब फैशन के साथ सब बदलता है। हमारा मन फिर भी नहीं माना। हमने एक से प्रश्न किया-भाईजी यह जे. पी. कौन सी हस्ती है ? उन्होंने अपने अज्ञान पर हमें अचम्भे से ताका और फिर ज्ञान का प्रकाश से उपकृत किया जुगाड़ प्रसाद नामक यह सज्जन राजधानी के स्तम्भ हैं। इन्होंने भारत के जुगाड़-तकनीक की खोज की है। यह जुगाड़पुरम् बसाया है। अखबारों में रोज ही इनकी किसी न किसी उपलब्धि के किस्से छपते हैं।

विशिष्ट व्यंग्यकार गोपाल चतुर्वेदी के इन व्यंग्यों में तीक्ष्ण धार भी है और छिपा हुआ प्रहार भी। उनके व्यंग्यों की मारक शक्ति बेजोड़ है। उनके ये व्यंग्य सामाजिक व राजनीतिक जीवन में व्याप्त विडंबनाओं की परत-दर-परत पोल खोलते नजर आते हैं।

अपनी-अपनी आपबीती


भारत के श्रेष्ठ वर्ग में पढ़ाई-लिखाई की परंपरा बहुत पुरानी है। ऐसा नहीं था कि काला अक्षर भैंस बराबर है और तीर या तलवार चलाते-चलाते ज्येष्ठ संतान थे जो राजा बन बैठे, या फिर शिकार खेलते-खेलते सिंहासन की शोभा बढ़ाने लगे।
राजघरानों के विपरीत साहित्य में ऐसी कोई विरासत नजर नहीं आती है। रामचरितमानस जैसे कालजयी महाकाव्य के रचयिता तुलसीदास रामभक्त तो थे, पर बिना किसी डिग्री-डॉक्टरेट के उनकी गिनती संसार के महाकवियों में होना कहाँ तक उचित है !

लिखने को हम ‘कालजयी’ लिख तो गए, पर कृपया सुधी पाठक उसे अन्यथा न लें। तुलसीदास के समय लोकार्पण और विमोचन जैसे समारोहों का चलन नहीं था। अब तो विमोचन के भाषण और उसके बाद के चायपान तक अधिकतर किताबें कालजयी की श्रेणी में आती हैं और उसके बाद क्षणभंगुर हो जाती हैं। उनकी आयु मच्छर-मक्खी से टक्कर लेती है और उनके मुकाबले अल्पजीवी सिद्ध होती है। हमने ‘कालजयी’ का प्रयोग समरोहों के संदर्भ से हटकर उसके मूल अर्थ में किया है।

साहित्यकारों का दूसरों को न पढ़ने का रोग भी शायद एक ऐतिहासिक धरोहर है। बिना छापेखाने के एक लेखक की किताब दूसरे के पास पहुँचती तो कैसे पहुँचती? यों भी विद्वानों को तब संस्कृत का ज्ञान रहा होगा। वह अवधी, भोजपुरी और सधुक्कड़ी पढ़ते तो कैसे पढ़ते।

बस तभी से सफल साहित्यकार के अवचेतन ने गाँठ बाँध ली है कि खुद लिखो तो भले बाँच लो, परायों का पढ़ना पाप है। यों भी अगर कोई कवि है तो कहानी, उपन्यास और व्यंग्य को कमतर समझना उसका जन्मसिद्ध अधिकार है और कहीं यदि वह कवि-कम-आलोचक हुआ तब तो वह करेला और नीमचढ़ा है, उसे इतर किस्म के लेखन से क्या लेना देना !
बात श्रेष्ठ जनों के शिक्षा-प्रेम की हो रही थी कि बीच में साहित्य जाने कैसे रस भंग करने लगा, जैसे अंग्रेजीदाँ सरकार की अंग्रेजी नोटिंग के बीच एकाध टीप कोई हिंदी में जड़ दे।

हम पाठकों को अतीत के राजा-महाराजाओं के शिक्षा समर्पण की हम एक ही मिसाल देना चाहते हैं। हम सबने कौरव-पांडवों का नाम सुना है। यों नहीं भी सुना है तो कोई फर्क नहीं पड़ता है। सेक्युलर देश की सेक्युलर नई पीढ़ी अंग्रेजी कॉमिक पढ़कर बड़ी होती है। रामायण-महाभारत के अंग्रेजी कॉमिक छपते तो दुर्योधन-द्रौपदी भी पॉपुलर होते।
महाभारत ने अपनी पहचान भी चोपड़ा साहब के ‘महाभारत’ सीरियल से ही करवाई थी। उसके पहले डैडी अकसर मम्मी को घर में महाभारत न करने की चेतावनी देते रहते थे। अपने पल्ले कुछ नहीं पड़ता था। वह तो भला हो सीरियल का। हम समझने लगे कि डैडी जब मम्मी को महाभारत न करने की ताईद करते हैं तो उनका काव्यार्थ क्या होता है।

ऐसे अपने डैडी भी खासे पुरातनपंथी हैं। इतने दिनों से सरकार में अफसर हैं, सरकारी कॉलोनी में रहते हैं और हमसे कहते हैं कि हम उन्हें पिताजी कहा करें। जब हमने उन्हें बताया कि चोपड़ा साहब का महाभारत मजेदार है तो वह मुँह बाए हमें ताकते रह गए, ‘तुम क्या पहली बार महाभारत की कथा टी.वी. पर देख रहे हो ? तुमने महाभारत पढ़ा है ?’ इतना कहकर वह लपककर अंदर गए और हिंदी की एक मोटी सी पोथी लेकर लौटे, ‘यह महाभारत है, इसे पढ़ो। काफी रोचक है।’
उन्हें हम कैसे बताते कि अपने स्कूल में हिंदी पढ़ना तो दूर, कोई हिंदी बोलता तक नहीं है। उन्हें खुद भी याद होगा कि हमारे एडमीशन के लिए उन्होंने कैसे एड़ी-चोटी का जोर लगाया था तब जाकर वहाँ हम अपने दाखिले की महान् उपलब्धि हासिल कर पाए। तब से हम किसी पर्वतारोही-सा भार ढोते स्कूल के एवरेस्ट पर रोज चढ़ते-उतरते हैं। घर आकर ढेर सारे होमवर्क के मलबे के नीचे दबे रहते हैं। उसपर पिताजी को उम्मीद है कि हम अपना टी.वी. टाइम जाया कर महाभारत पढ़ें।

उन्हें फाइलों से माथा-पच्ची की आदत है। उन्हें बोर होने का वेतन मिलता है। हम तो बोरियत की सजा और संत्रास खाँमखा मुगत रहे हैं। पॉकेट-मनी तक रो-झींककर दी जाती है।
हमें खयाल आया कि जब हम पहले दिन अपने स्कूल के पर्वतारोहण के लिए निकले थे तो सुबह उठने की कवायद की तवालत से अपनी आँखें रो-रोकर सूज गई थीं। मम्मी ने घर लौटने पर ‘पिजा’ का प्रलोभन देकर हमें स्कूल जाने पर राजी किया था। वह रोज हमें स्कूल बस तक पहुँचाने आती हैं। हमें शक है कि स्नेह से अधिक इसमें निगरानी की प्रेरणा है। कहीं ऐसा न हो कि स्कूल के नाम पर हम पास के पार्क की साएदार बेंच पर खर्राटे भरने लगें।

बड़े होकर आभास हुआ कि यह कमजोरी कोई असामान्य लक्षण न होकर हर डैडी-मम्मी नाम के अजूबे की सामान्य पहचान है। हर माँ-बाप के मन में एक चौकीदार छिपा रहता है। पुलिस-फौज के चौकीदार तो ड्यूटी पर अकसर सोए पाए जाते हैं। यह माता-पिता नामक चौकीदार संतान की छोटी-से-छोटी हरकत पर लेजर की नजर रखता है।
हम फिर भटक गए। भटकाव अपने जीवन की मजबूरी है। सच्चाई यह है कि डैडी-मम्मी के प्रयासों से हम श्रेष्ठ स्कूल-कॉलेज में भले पढ़े हैं, पर अपना शुमार श्रेष्ठ जनों में नहीं है। यह विनयशीलता का अतिरंजित अतिरेक न होकर पीड़ादायक वास्तविकता है।

हमने हमेशा श्रेष्ठ बनना चाहा है। स्कूल में हमारी हसरत थी कि हम कक्षा में अव्वल आएँ। हमने ताड़ा और एक कुशाग्र बुद्धिवाले साथी से दोस्ती गाँठी। उसे मैथ्स की ऐसी लत और लगन थी जैसी हमें चॉकलेट खाने की है। बोर्ड की परीक्षा में अपनी सीट उसके पास पाकर अपनी बाँछें खिल गईं। हमें लगा कि निर्बल के बल राम हैं। हम मैथ्स में कच्चे हैं तो क्या हुआ, इस लतियल के उत्तर टीपकर 80-90 प्रतिशत नंबर तो मिल ही जाएँगे।
जब प्रश्न-पत्र बँटे तो उसका चेहरा कुछ उतर-सा गया। वह बुदबुदाया, ‘आधे सवाल तो आउट आफ कोर्स हैं।’
हमने यह सुना-अनसुना कर दिया और उसे प्रोत्साहित किया, ‘अपने लिए तो सब बराबर है।’
उसने दुःखी मन से सवाल हल किए, हमने प्रफुल्लित चित्त से उसकी नकल की।

इसे किस्मत का करिश्मा ही कहेंगे कि वह फेल हुआ, हम पास हो गए। हमें ताज्जुब यह हुआ कि परीक्षा हॉल में अधिकांश छात्र निर्विकार भाव से बैठे रहे। जो स्कूल में हर छोटी-बड़ी वारदात पर आसमान सिर पर उठाते थे, उन्होंने भी चूँ तक नहीं की। न विरोध के स्वर गूँजे, न शिकायत के।
सब ध्यान-मग्न अपनी उत्तर पुस्तिकाओं में ऐसे डूबे जैसे उन पढ़ाकुओं की दुनिया कॉपियों में सिमट गई है। बाद में राज खुला। नकल हमने भी की और उन्होंने भी। पर वे हमसे कई कदम आगे थे। उन्हें प्रश्न-पत्र पता था। उनके पास कॉपी पर उतारने को सही उत्तर थे, हमारे पास सिर्फ कोर्स-सिद्ध लतियल था। कोर्स के बाहर के प्रश्नों का उत्तर उसकी चेतना से ओझल था।
अपने साथ अकसर यही होता है। तगड़ी पहल और पराक्रमवाले हमें शुरू से पछाड़ते रहते हैं। इसमें कोई नकचढ़ी नैतिकता की बात नहीं है। सही-गलत के सवाल हमें परेशान नहीं करते हैं। ऐसे मसले पोपली डैंचर धारी पीढ़ी के लिए हैं। हमें असफलता का शून्य सताता है।

अगर इम्तहान है तो पेपर आउट होना वैसा ही ध्रुव सत्य है जैसा दिन के बाद रात का आना। हम अपने को कोसते हैं। हम में दूर-दृष्टि की कमी है, साहस का अभाव है। नदी में कूदने की हिम्मत नहीं है और सागर के पार के संसार का सोचते हैं।
बहरहाल, हम मतलब की बात पर आएँ। किस्सा कोताह यह कि हम पढ़े तो आला स्कूल में, पर आला (आला पर्याय कामयाब का है) इनसान नहीं बन पाए। हमने गंभीर आत्म-परीक्षण किया है। निष्कर्ष यही निकला है कि चारित्रिक खोट के कारण अपना सफल होना संभव नहीं है।

डैडी की जिद और संपर्क से हमें खेल-कूद कोटा के अंतर्गत एक कॉलेज में प्रवेश मिल गया। जैसा अपना हर परिचित जानता है, खेल के ‘ख’ से भी अपना दूर-दूर का ताल्लुक नहीं है। कॉलेज में हमारे कुछ साथियों ने क्लास कट कर कट्टा चलाने का प्रशिक्षण लिया। आस-पास की दुकानों पर वसूली और रंगदारी का अभ्यास किया।
कुछ ज्यादा महत्त्वाकांक्षी छात्र भी होते हैं। वह कट्टा क्लास से आगे तरक्की कर गए। उन्होंने यूनियन के चुनावों में शिरकत कर देश का भविष्य चमकाने की सोची। उन्होंने अपनी जाति के गैंग बनाकर कॉलेज में अपने समर्थन और बाहुबल की धाक जमाई। दूसरी जाति के गैंगवाले को दिन-दहाड़े छात्रावास से उठवाया। वह आनेवाले कल का नेता दोबारा शहर में नजर नहीं आया।

हमें कभी-कभी लगता है कि हर पीढ़ी के माँ-बाप अपनी तकदीर में रोना लिखवाकर लाते हैं। उसके माँ-बाप भी शहर आकर रोए-गाए। उन्होंने हर वर्दीधारी के गोड़ धरे। हमारे शहर की पुलिस इधर पालतू कुत्ते से बदतर हो गई है। यों देखने में दोनों के ठाठ हैं। दोनों मालिक के चेहते हैं। खाने की इफरात है। कोई रोकनेवाला नहीं है। जी भर के खाओ। घूमने को गाड़ी है, रहने को घर है। भौंकने को शहर है।
कुत्ता यहीं बाजी मार जाता है। उसका स्वामी एक है। दुम उसी स्वामी के सामने हिलानी है। यों पुलिसवालों की तरह कुत्तों के भी कई प्रकार हैं। कुछ दुम हिलाऊ कुत्ते हैं, कुछ गुर्राऊ। कुछ कटाऊ हैं तो कुछ भुकाऊ। कटाऊ टाइप यों तो चुपचाप रहते हैं, शरीफ दिखते हैं, पर मौका मिलते ही काटने से बाज नहीं आते हैं।

कुछ कुत्तों के कुल-कलंक भी हैं। वे न भौंकते हैं न काटते हैं बस सबके सामने दुम हिलाते हैं। उनके मालिक अकसर परेशान रहते हैं, ‘हमें तो शक है कि यह कुत्ता कुत्ता है भी कि नहीं। कहीं यह कोई फुटपाथ पर बैठा भूखा भिखारी तो नहीं है, जो घुटनों और पंजों के बल चलकर हमारे घर आ गया है। हमें ‘वैट’ को इसकी ‘पैडिग्री’ ही नहीं दिखानी है, मनोचिकित्सक से इसकी जाँच भी करानी है।’
अपने उठे बेटे की नामजद रिपोर्ट लिखाने के चक्कर में माँ-बाप ने किसम-किसम के पापड़ बेले। एस.पी., डी.आई.जी.से लेकर थानेदार तक के कौड़ी-फेरे किए। घंटों के इंतजार के बाद दर्शन और आश्वासन तो सबने दिए, पर किया-धरा कुछ नहीं।

दरअसल आज के अधिकारी नेता-कम-अफसर हैं। एक से मिलो तो दो का मजा है। झूठ नेता का, ऐंठ अफसर की। उनकी प्रगति इसी रफ्तार से जारी रही तो वह जल्दी ही ‘थ्री इन वन’ बनेंगे-एक में तीन-तीन। खरीदनेवाला एक अदद अफसर खरीदेगा और नेता तथा सुअर मुफ्त में पाएगा।
अंत में दुःखी असहाय और उमरदार माँ-बाप के काम पैसे का पापड़ आया। थानेदार ने नामजद रिपोर्ट तब लिखी जब उनका थैला-गठरी, तब के कपड़े-लत्ते रुपए पैसे सब धरवा लिये। तुर्रा यह कि थानेदार भी जानता था कि उठवानेवाला नेता का वह बाल भी बाँका करने में असमर्थ है। वह मुख्यमंत्री के गिरोह का है। सत्ताधारी दल का छुटभइया तक छुट्टा साँड़ होता है। वह जहाँ भी चाहे, मुँह मारे उसका कोई क्या बिगाड़ लेगा ?

हारकर भूखे-नंगे माता-पिता गाँव लौट गए। पुलिस कागजों में उठवानेवाले को ढूँढ़ती रही। वह यूनियन का अध्यक्ष बना तब भी उन्हें नजर नहीं आया। उप-चुनाव में जब वह विधायक चुना गया तब इबारत दर्ज की-‘प्राथमिकी की तफ्तीश पूरी कर ली गई है। इस नाम का कोई शख्स शहर में नहीं रहता है।’
हम उस श्रेष्ठ कॉलेज में प्रवेश पाकर बेकारी की श्रेष्ठ डिग्री तो पा गए, पर श्रेष्ठजन (दादा, माफिया, बिचौलिया, नेता) बनने में नाकाम रहे। ऐसा नहीं है कि देश में रोजगार शेष हो चुका है। नौकरी की आकर्षक, मनभावन चहेती चिड़िया विज्ञापनों के पेड़ पर बैठी जरूर है, पर उसे पकड़ पाने के लिए ऊँची पहुँच, पैसे और पौवेवाले जाल की दरकार है।

इस दौरान हमारे ‘डैडी’ रिटायर हो चुके थे। सेवानिवृत्त सरकारी सेवक बिना दाँत और नाखूनों का बूढ़ा शेर रह जाता है। उसे दूसरे क्या अपने तक घास नहीं डालते हैं। हमने जिंदगी भर मुफ्त की रोटियाँ तोड़ी हैं। हमें अब तक इसका अच्छा खासा अभ्यास हो गया है। अपना जीवन खाने, सोने और टी.वी. ताकने की सुखद प्रक्रिया में आराम से कट रहा था। हमारे नौकरी-पेशा डैडी नेहरू के ‘आराम हराम है’ के उसूल के अनुयायी हैं। उन्हें इतने आराम से हमारा घर बैठना बरदाश्त न हुआ।
उन्होंने नाश्ते की मेज पर एक दिन हमारी खबर ले ही डाली-‘हम जानते हैं कि तुम इस लायक नहीं हो कि ‘कंपटीशन’ का इम्तहान दो। पर हाथ पर हाथ धरे खाली बैठे रहने से तो नौकरी मिलने से रही। कुछ नहीं तो घर के लॉन की घास ही खोदो।’

हमने चुप रहने में ही अपनी भलाई जानी। एकबारगी तो मन हुआ कि उनका सच से साक्षात्कार करा दें। उन्हें बता दें कि खरीद-फरोख्त के इस जमाने में नौकरियाँ अरजी भेजने और इधर-उधर चक्कर काटने से नहीं, खरीदने से मिलती हैं। उनकी बोली लगती है। बाकायदा न्यूनतम कीमत तय होती है। हमारे डैडी ने पेंशन के अलावा कमाया ही क्या है ! उनके पास इस घर के अलावा धरा ही क्या है ! न काला धन है, न सफेद। हम नौकरियों की नीलामी में शिरकत करें तो कैसे करें।
उनका दिल रखने के खातिर हम एक दिन सवेरे-सवेरे खुरपी से ले घास छीलने के इरादे से लॉन में घुसे। वहाँ बैठकर हमने एक-एक खर-पतवार उखाड़ने की ठानी। एक बार बैठकर अपने भारी बदन के साथ खड़े होना हमें उतना ही दुष्कर कार्य लगा जितना बिना ट्रेनिंग किसी नवयौवना का फैशन शो में मटक-मटककर चलना।

थोड़ी देर हमने मेढक की तरह उछल-उछलकर खर-पतवार की सफाई की। हमें गंभीर शंका हुई। अगर यों ही उछलते रहे तो कहीं हम मेढक की तरह टर्राने न लगें। इसकी नौबत न आने पाई। हम अगली बार खुरपी लिये उछले तो बजाय लॉन पर बैठने के चारों खाने चित पड़े थे।
हमने अपने श्रमसाध्य काम का मुआयना किया तो पाया कि हमारा लॉन उस गंजे की चाँद जैसा हो गया है जिसके बीच के बाल सफाचट हैं और बाएँ-दाएँ के सुरक्षित। हमें अपने और नेता में समानता लगी। मुफ्तखोरी करते-करते हम दोनों मेहनत की रोटी कमाने के काबिल नहीं बचे हैं।

डैडी का मन रखना जरूरी था, वरना वह अपने सुंदर लॉन की यह दुर्दशा देखते तो हमारी शामत आ जाती। ‘लॉन-मोअर’ पास ही रखा था। हमने निश्चय किया कि उसका प्रयोग कर पूरे लॉन को ही गंजा कर दें। हमने उसे चलाने की कोशिश की। वह टस-से-मस नहीं हुआ। हमें उन्हें खुश करने का एक और विकल्प सूझा। जब वह बाहर से लौटे तो हम बरामदे में बैठे उन्हें महाभारत पढ़ते नजर आएँ। सो हम महाभारत की मोटी पोथी लेकर बैठ गए।
उससे हमारा ज्ञान ही नहीं, आत्मविश्वास भी बढ़ा है। हमने यों ही अटकलपच्चू में पन्ना खोला तो हमें अर्जुन और द्रोणाचार्य का धनुर्विद्या सिखाने और चिड़िया की आँख पर निशाना साधने का प्रसंग दिखा। हम गद्गद हो गए।

महाभारत काल के राजा शिक्षा के प्रति कितने समर्पित थे। जब आस-पास कोई अच्छा आश्रम नहीं मिला तो घर पर द्रोणाचार्य जैसा ट्यूटर रखकर बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का माकूल इंतजाम कर दिया। गुरु द्रोणाचार्य भी धनुर्विद्या में माहिर थे। अर्जुन ने जब चिड़िया की आँख का सही निशाना साधा तो कितनी पते की बात कही कि निशाना लगाते वक्त वह दीन-दुनिया से ऐसे बेखबर थे कि उन्हें सिर्फ चिड़िया की आँख ही नजर आ रही थी। हमारे साथ भी अकसर ऐसा होता है। सुबह हमें सिर्फ ब्रेकफास्ट नजर आता है, दोपहर में लंच, रात को डिनर और बीच के अंतराल में बिस्तर।
हमें गुरुजी की भी एक उक्ति जँची। गुरुजी नमक खाते हैं तो निभाते हैं। तभी तो उन्होंने एकलव्य को शिष्य मानने से इनकार कर दिया। निष्ठा के सामने योग्यता की क्या बिसात है ! उन्हें राजा ने राजकुमारों का गुरु बनाया था। वह किसी और के गुरु कैसे बन जाते।

हमें अच्छा लगा कि गुरु द्रोणाचार्य अपने देवत्व और ज्ञान के बावजूद निष्पक्ष नहीं हैं। उनमें इनसानों का विशेष लक्षण पक्षपात कूट-कूट के भरा है। अर्जुन उनके प्रिय पात्र हैं। एकलव्य धनुर्विद्या में उनसे उन्नीस नहीं हैं, बीस भले हों। द्रोण गुरु इनसानी चालाकी की भी मिसाल हैं। हालाँकि गुरु एकलव्य को चेला नहीं मानते हैं, फिर गुरुदक्षिणा के बतौर उसका अँगूठा माँग लेते हैं जिससे कि उनके प्रिय शिष्य अर्जुन को कभी धनुर्विद्या में किसी चुनौती का सामना न करना पड़े।
हमें अर्जुन से रश्क होने लगा। कितना भाग्यशाली है अर्जुन ! उसे द्रोणाचार्य जैसे तरफदारी करनेवाले गुरु मिले। उन्होंने अर्जुन के इकलौते प्रतिद्वंद्वी का अँगूठा काटकर उसे प्रतियोगिता लायक ही नहीं छोड़ा। अर्जुन तो महाभारत के मैदान में हथियार उठाने तक को प्रस्तुत नहीं थे। उनके सारथि कृष्ण ने ‘गीता’ सुनाकर उन्हें प्रोत्साहित किया और सब गुड़-गोबर होने से बचा लिया।

अर्जुन को सही समय पर गुरु द्रोण और कृष्ण का सहारा न मिलता तो क्या पता उन्हें आज कोई याद भी करता कि नहीं। अपनी तो किस्मत ही कटखनी है। हमें कृष्ण क्या, किसी द्रोण तक का सपोर्ट नहीं मिला है।
बस सेवानिवृत्त डैडी का कमजोर सा समर्थन हासिल है। उन्होंने काफी हाथ-पाँव मारकर हमें एक मराऊ पब्लिक सेक्टर में लगवा दिया है। यहाँ किसी के पास काम नहीं है, सब आराम से बैठकर मक्खी मारते हैं और अपनी-अपनी योग्यता एवं काबलियत के गुण गाते हैं।
अपनी भी मौज से कट रही है। पर इसे कामयाबी कहना गलत है। अगर कोई कृष्ण अपने साथ होता तो हम भी अर्जुन की तरह शर्तिया आज के महाभारत के नायक होते न होते, पर विलेन तो होते ही होते !

बल्लू और बिल्डर


मुरारी से मिलकर हमें एहसास होता है कि हमारे शहर के लोग बेहद मेहमाननवाज हैं। मुरारी जैसों ने तिकड़म, तरकीब और तकदीर से इतना पैसा कमा लिया है कि उनके बच्चों के लिए मेहनत करके भी उसे एक जीवन में पूरा उड़ाना मुश्किल होगा।
आजकल वह हमारे जैसे बे-पैसेवालों को अपने पैसेवाले होने का सबूत पेश करने में जुटे हुए हैं। हमें एक ही अफसोस है। पैसा तो उन्होंने दस-पंद्रह साल पहले से कमाना शुरू कर दिया था। तब जाने क्यों हमारी याद न आई !
जानकार बताते हैं कि तब वह कमाने के लिए सरकार के अधिकारवालों को खिलाने में व्यस्त थे। उनका  यह भी कहना है-खानेवालों ने खिलाई के नायाब अंदाज खोज लिये हैं। होली-दीवाली पर आजकल खानेवाले सूटकेस के कैश से लेकर कार और प्लॉट तक खा जाते हैं।

मशहूर खाऊ बल्लू उस्ताद उर्फ बालकिशन जब नगर विकास प्राधिकरण के चेयरमैन की बहुमंजिली इमारतों के नक्शों को स्वीकृत करवाने में व्यक्तिगत रुचि लेते, अपनी पहल पर उनकी समस्याओं का निराकरण करते। उनके साथ चाय पीते-पिलाते। यहाँ तक कि उन्हें घर पर दावत-शावत में भी आमंत्रित करते।
 जब ठीकेदार को प्यार से वह ‘पार्टनर’ कहकर पुकारते तो वह गद्गद हो जाता। बल्लू उस्ताद क्या शानदार इनसान हैं ! पैसा तो सरकार में सब खाते हैं, पर यह खाते ही नहीं, बखूबी निभाते भी हैं। किसी को महसूस ही नहीं होने देते हैं कि इतने बड़के हाकिम हैं।

बल्लू उस्ताद की पत्नी पल्लवी परिचितों में ‘पल्लू’ कहलाती थीं। उनकी लोकप्रियता का भी जवाब नहीं था। सरकार में एकाध बचे जले-भुने ईमानदार इस आदर्श युगल के लिए कहते, ‘क्या भ्रष्टों की जोड़ी, एक काना एक कोढ़ी।’
हमें ईमानदार लोगों से इसीलिए चिढ़ है। वे फालतू बात का बतंगड़ बनाते हैं। शारीरिक रूप से न पल्लू कानी थी, न बल्लू कोढ़ी थे। नैतिक दृष्टि से काने-कोढ़ियों की सरकार में भरमार है। इसमें हल्ला मचाने की क्या बात है !
भारतीयता का तकाजा है कि हम काने को काना न कहें। यों पल्लू केवल सामाजिक शिष्टाचार निभाती थी। बल्लू घर में ठीकेदारों को गले लगाते, पल्लू उनकी पत्नियों की खातिर-तवज्जो करतीं। उनकी साड़ी-जेवरों और रुचि की शान में कसीदे पढ़तीं। इस में बेचारी पल्लू का क्या दोष है कि वे उदार महिलाएँ एकाध हफ्ते के अंतराल में उन्हें प्रशंसा की गई नई साड़ियाँ और आभूषण भेंट कर जातीं। नहीं तो ‘पैक’ कर ड्राइवर के हाथों भिजवा देतीं।


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai