विविध >> अभिभावक कैसे हों अभिभावक कैसे होंमायाराम पतंग
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अभिभावक कैसे हों इसके विषय में जानकारी....
Abhibhavak Kaise Hon
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
शिक्षकों को और बालकों पर पुस्तकें चाहे कम ही सही, परन्तु लिखी गई हैं। माता-पिता या अभिभावक कैसे हो? इस विषय पर पहली बार ही कोई पुस्तक हिंदी साहित्य में प्रकाशित हुई है। मुझे पहल करने का गौरव प्राप्त हो रहा है। इस पुस्तक की शैली में अनोखी है। अभिभावकों का प्रशिक्षण कार्यक्रम हो रहा है। हर विषय के विशेषज्ञ उसमें अपने व्याख्यान दे रहे हैं। फिर शंका-समाधान के लिए प्रश्न एवं उत्तर की व्यवस्था से पुस्तक और अधिक सरल तथा सरस बन गई है। माता पिता अपने बच्चों की तथा परिवार की भलाई के लिए ये पुस्तक अवश्य पढ़े। इसमें ऐसा बहुत कुछ मिलेगा जो माता-पिता बन जाने के बाद भी हमें पता नहीं है। हमें अपने दायित्व का बोध नहीं है। हम या तो बच्चे को डाँटते मारते हैं या शिक्षकों को दोष देते रहते है मेरा दावा है कि इस पुस्तक को पढ़ने के बाद हम सच्चाई को समझेगे, अपने कर्तव्य को जानेगें समझेगें तथा निभाएँगे।
प्राक्कथन
सच तो यह है कि यह अपने ढंग की अनूठी पुस्तक है। ‘विद्यार्थियों के माता-पिता (अभिभावक) कैसे हों’ इस अनोखे विषय को स्पर्श करती है। ‘विद्यार्थी कैसे हों’, ‘शिक्षक कैसे हों’, के क्रम को ‘अभिभावक कैसे हों’ पुस्तक पूर्णता प्रदान करती है।
मुझे लगता है, इस विषय की यह पहली ही पुस्तक है। संभव है, मेरा यह विचार सही न हो; परंतु यह सत्य है कि इस विषय पर कोई पुस्तक मेरे देखने में अभी नहीं आई। बालक-बालिकाओं के शिक्षण तथा विकास का सारा दायित्व शिक्षक वर्ग पर छोड़कर अभिभावक निश्चिंत हो जाते हैं। स्वयं यह भी नहीं देखते कि बालक-बालिका को विकास के लिए जैसा वातावरण अपेक्षित है, वह उन्हें नहीं मिल रहा है। विशेषकर पिता, जो दिन-रात धनोपार्जन में व्यस्त हैं, इस बात की ओर कतई ध्यान नहीं देते। यहाँ तक कि अनेक पिता यह भी नहीं बता पाते कि उनके बच्चे किस-किस कक्षा में पढ़ते हैं। एक बार तो मेरे पास विद्यालय में एक ऐसे अभिभावक आए जो घरेलू नाम रिंकू, पिंकू, और मिंकू बता रहे थे। उन्हें यह याद नहीं था कि इनके विद्यालय के रजिस्टर में सही नाम क्या लिखवाए गए हैं। एक अभिभावक को चार बार सूचना भेजकर बुलवाया गया। वे जब विद्यालय आकर प्रधानाचार्य कक्ष में मिले तो बोले, ‘जी, मैं तौकीर अहमद का अब्बा हूं। उस्ताद साहेबान ने बुलवाया है।’ प्रधानाचार्य ने पूछा कि आपका बेटा कौन सी कक्षा के किस विभाग (Section) में पढ़ता है ? तो महाशय अपने बच्चे की कक्षा तक नहीं बता पाए। ये मामूली बातें याद रखना कोई कठिन नहीं है। वास्तविकता यह है कि वे इस ओर ध्यान नहीं देते। ध्यान देना भी नहीं चाहते। विद्यालय भेजकर भी वे मानो सरकार पर एहसान कर रहे हैं। इस पुस्तक के माध्यम से मैं अभिभावकों को उनके दायित्व का बोध कराना चाहता हूँ। उन्हें नहीं मालूम कि उनके किस व्यवहार से बच्चा क्या गुण-अवगुण सीख रहा है। उनकी कौन सी साधारण सी गलती कहाँ कितना भयंकर परिणाम दे सकती है। यदि वे अपने बालक-बालिकाओं को सचमुच अच्छे संस्कार देकर जीवन में सफल देखना चाहते हैं तो उन्हें भी अपने दायित्व को समझना होगा।
पुस्तक अपने उद्देश्य की दिशा में यदि एक कदम बढ़ सकी, एक दीप जला सकी तो मैं अपना प्रयास सफल मानूँगा। सुधी पाठकों के सुझाव प्राप्त हुए तो मैं कृतज्ञता प्रकट करूँगा और उनका अगले संस्करण में उपयोग करूँगा।
मुझे लगता है, इस विषय की यह पहली ही पुस्तक है। संभव है, मेरा यह विचार सही न हो; परंतु यह सत्य है कि इस विषय पर कोई पुस्तक मेरे देखने में अभी नहीं आई। बालक-बालिकाओं के शिक्षण तथा विकास का सारा दायित्व शिक्षक वर्ग पर छोड़कर अभिभावक निश्चिंत हो जाते हैं। स्वयं यह भी नहीं देखते कि बालक-बालिका को विकास के लिए जैसा वातावरण अपेक्षित है, वह उन्हें नहीं मिल रहा है। विशेषकर पिता, जो दिन-रात धनोपार्जन में व्यस्त हैं, इस बात की ओर कतई ध्यान नहीं देते। यहाँ तक कि अनेक पिता यह भी नहीं बता पाते कि उनके बच्चे किस-किस कक्षा में पढ़ते हैं। एक बार तो मेरे पास विद्यालय में एक ऐसे अभिभावक आए जो घरेलू नाम रिंकू, पिंकू, और मिंकू बता रहे थे। उन्हें यह याद नहीं था कि इनके विद्यालय के रजिस्टर में सही नाम क्या लिखवाए गए हैं। एक अभिभावक को चार बार सूचना भेजकर बुलवाया गया। वे जब विद्यालय आकर प्रधानाचार्य कक्ष में मिले तो बोले, ‘जी, मैं तौकीर अहमद का अब्बा हूं। उस्ताद साहेबान ने बुलवाया है।’ प्रधानाचार्य ने पूछा कि आपका बेटा कौन सी कक्षा के किस विभाग (Section) में पढ़ता है ? तो महाशय अपने बच्चे की कक्षा तक नहीं बता पाए। ये मामूली बातें याद रखना कोई कठिन नहीं है। वास्तविकता यह है कि वे इस ओर ध्यान नहीं देते। ध्यान देना भी नहीं चाहते। विद्यालय भेजकर भी वे मानो सरकार पर एहसान कर रहे हैं। इस पुस्तक के माध्यम से मैं अभिभावकों को उनके दायित्व का बोध कराना चाहता हूँ। उन्हें नहीं मालूम कि उनके किस व्यवहार से बच्चा क्या गुण-अवगुण सीख रहा है। उनकी कौन सी साधारण सी गलती कहाँ कितना भयंकर परिणाम दे सकती है। यदि वे अपने बालक-बालिकाओं को सचमुच अच्छे संस्कार देकर जीवन में सफल देखना चाहते हैं तो उन्हें भी अपने दायित्व को समझना होगा।
पुस्तक अपने उद्देश्य की दिशा में यदि एक कदम बढ़ सकी, एक दीप जला सकी तो मैं अपना प्रयास सफल मानूँगा। सुधी पाठकों के सुझाव प्राप्त हुए तो मैं कृतज्ञता प्रकट करूँगा और उनका अगले संस्करण में उपयोग करूँगा।
मायाराम पतंग
प्रथम प्रवचन
अच्छे माता-पिता बनिए आप
प्रधानाचार्य: आदरणीय भाइयों तथा बहनो ! आप सभी का इस प्रशिक्षण कार्यक्रम में हार्दिक स्वागत है। अभिभावक शिक्षक संघ ने वास्तव में यह एक अनूठा आयोजन किया है। पहले हमारी कार्यकारिणी ने इस विषय पर गहन विचार किया कि बालकों एवं बालिकाओं के सर्वांगीण विकास के लिए माता-पिता का भी प्रशिक्षण होना चाहिए, इसके पश्चात् आप लोगों को यहाँ बुलाया गया है। मैं जानता हूँ कि आजकल किसीके पास समय नहीं है। आप सभी व्यस्त हैं। सबके निजी कामकाज हैं। यदि विषय की गंभीरता आपकी समझ में आ जाए तो आप इसके लिए समय अवश्य निकाल लेंगे। फालतू समय किसीके पास नहीं होता, कभी नहीं होता। कोई अपने आवश्यक कार्यों के लिए समय नहीं निकाल पाता; परंतु सोता तो रोज है, खाता भी रोज है। वास्तव में कार्य की अनिवार्यता के अनुसार व्यक्ति अपनी प्राथमिकता स्वयं तय कर लेते हैं।
मैं आपको इस प्रशिक्षण वर्ग की अनिवार्यता समझाना चाहता हूँ। आप कोई वाहन चलाना चाहते हैं तो पहले उसका प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं, लाइसेंस का प्रमाणपत्र भी प्राप्त करते हैं, तब मुख्य मार्गों पर वाहन चलाने का साहस करते हैं। पढ़े-लिखे होने पर भी जिन्हें शिक्षक बनना है उन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है। प्रशिक्षण होने पर ही विद्यालय में उन्हें नियुक्त किया जाता है। इंजीनियर, टाइपिस्ट या कंप्यूटर संचालक बनने के लिए भी प्रशिक्षण पाना अनिवार्य है। यहाँ तक कि बिजली, इलेक्ट्रॉनिक्स ही, नहीं, अन्याय सिलाई-कटाई जैसे सामान्य कार्यों में भी प्रशिक्षण पाना आवश्यक है तो बच्चे अच्छी तरह पालने के लिए, अच्छे माँ-बाप बनने के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था क्यों नहीं ?
कहते हैं, माता ही प्रथम गुरु होती है। कौन नहीं मानेगा इस तथ्य को। यदि यह कहें कि माता-पिता दोनों ही प्रथम गुरु हैं तो शायद और भी उचित होगा। अब विचारना यह है कि प्रथम गुरु ही यदि अशिक्षित हों अथवा शिक्षित होकर भी अप्रशिक्षित हों तो अच्छे बालकों का विकास कैसे कर पाएँगे ? निश्चित ही, नहीं कर पाएँगे। अतः माँ-बाप का प्रशिक्षण अनिवार्य है या नहीं ? इतने अनिवार्य विषय की प्रशिक्षण व्यवस्था पर किसी भी सरकार ने कोई बल नहीं दिया। अभी तक किसी स्वैच्छिक संस्था ने भी माता-पिता बनने के पूर्व किसी प्रशिक्षण का आयोजन नहीं किया। हमारे ‘अभिभावक-शिक्षक संघ’ ने इसी विषय की गंभीरता और अनिवार्यता को ध्यान में रखकर आप सबको यहाँ बुलवाया है। दस दिन तक यह प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रतिदिन आधा घंटा चलेगा। प्रतिदिन किसी एक विषय पर कोई प्रमुख विचारक, शिक्षाशास्त्री या मनोवैज्ञानिक आपके समक्ष अपने विचार प्रस्तुत करेगा। प्रतिदिन के प्रवचनों का प्रतिवेदन तैयार कर लिया जाएगा। इन प्रवचनों का सार एक पुस्तक रूप में प्रकाशित करने की योजना है ताकि जो माता-पिता यहाँ उपस्थित नहीं हो सके, उन्हें भी कुछ लाभ मिल सके।
सचमुच माता-पिता बनना कठिन है। माता-पिता तो बनते ही जा रहे हैं, परंतु अच्छे माता-पिता की भूमिका निभाना सरल नहीं। अच्छे से अभिप्राय है ऐसे माँ-बाप जो बच्चों का सर्वांगीण विकास कर सकें जो अपने बच्चों का उज्ज्वल भविष्य सुनिश्चित कर सकें। जो उनको अच्छे-अच्छे संस्कार दे सकें, जो उनके स्वास्थ्य और शिक्षा पर ध्यान दे सकें, जो उनमें अच्छी आदतों का विकास कर उन्हें उत्तम नागरिक बना सकें तथा सही अर्थ में मानव बना सकें। सोचिए, क्या यह कार्य सरल है ? यदि हम अच्छे डॉक्टर, अच्छे अध्यापक, अच्छे वैज्ञानिक, अच्छे इंजीनियर तैयार करने के लिए वर्षों की प्रशिक्षण अवधि तय करते हैं तो अच्छे माँ-बाप बनने के लिए क्या बारह घंटे प्रशिक्षण भी अपेक्षित नहीं ? इसे आधा घंटा प्रतिदिन केवल इसलिए रखा गया है कि नित्य का कामकाज करते हुए भी प्रशिक्षण का लाभ सामान्य जन तक पहुँच सके।
आशा है, आप सभी विषय की अनिवार्यता तथा प्रशिक्षण की इस सरल व्यवस्था से सहमत होंगे। अब यहाँ जो माताएँ एवं सज्जन पधारे हैं वे कल अपने साथ अपने पड़ोस से कम-से-कम दो-दो जोड़े और लेकर आएँगे ताकि इस आयोजन का लाभ अधिक लोगों तक पहुँच सके। प्रतिदिन पंदह मिनट का प्रवचन होगा तथा पंद्रह मिनट आपके प्रश्नों के उत्तर दिए जाएँगे, जो उसी दिन के विषय को स्पष्ट करने के लिए होंगे।
आज का विषय समाप्त करता हूँ। सुझाव तथा शंकाएँ अब आप प्रस्तुत कर सकते हैं।
एक माता: आधा घंटा समय कम है। उसे और बढ़ाया जाना चाहिए।
एक पिता: जी नहीं, इसे बढ़ाने से हमें प्रशिक्षण से वंचित रहना पड़ेगा; क्योंकि साढे़ आठ बजे के बाद हम ठहर नहीं सकते। हमें अपने कार्यालय पहुँचना भी आवश्यक है।
दूसरा पिता: मैं इनका समर्थन करता हूँ। यह प्रशिक्षण प्राप्त करने का जो सौभाग्य हमें मिल रहा है उसे हम छोड़ना नहीं चाहते।
दूसरी माता: क्या पुरुषों तथा महिलाओं के लिए यह प्रशिक्षण अलग-अलग आयोजित नहीं किया जा सकता ?
प्रवक्ता: अलग आयोजन किया तो जा सकता है, परंतु एक साथ प्रशिक्षण देना अधिक लाभप्रद है। वास्तव में बच्चों के विकार का दायित्व दोनों पर साझा है। कुछ बातें दोनों को एक साथ समझाने की भी हैं। कुछ कठिनाई तथा शंकाएँ भी एक साथ समाधान किए जाने योग्य हैं, जिन्हें अलग-अलग समझा नहीं जा सकता। अतः आप नित्य निश्चित समय पर पधारें ताकि प्रशिक्षण सुविधा का पूर्ण लाभ आपको मिल सके। आप सभी का धन्यवाद। कल फिर मिलेंगे।
मैं आपको इस प्रशिक्षण वर्ग की अनिवार्यता समझाना चाहता हूँ। आप कोई वाहन चलाना चाहते हैं तो पहले उसका प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं, लाइसेंस का प्रमाणपत्र भी प्राप्त करते हैं, तब मुख्य मार्गों पर वाहन चलाने का साहस करते हैं। पढ़े-लिखे होने पर भी जिन्हें शिक्षक बनना है उन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है। प्रशिक्षण होने पर ही विद्यालय में उन्हें नियुक्त किया जाता है। इंजीनियर, टाइपिस्ट या कंप्यूटर संचालक बनने के लिए भी प्रशिक्षण पाना अनिवार्य है। यहाँ तक कि बिजली, इलेक्ट्रॉनिक्स ही, नहीं, अन्याय सिलाई-कटाई जैसे सामान्य कार्यों में भी प्रशिक्षण पाना आवश्यक है तो बच्चे अच्छी तरह पालने के लिए, अच्छे माँ-बाप बनने के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था क्यों नहीं ?
कहते हैं, माता ही प्रथम गुरु होती है। कौन नहीं मानेगा इस तथ्य को। यदि यह कहें कि माता-पिता दोनों ही प्रथम गुरु हैं तो शायद और भी उचित होगा। अब विचारना यह है कि प्रथम गुरु ही यदि अशिक्षित हों अथवा शिक्षित होकर भी अप्रशिक्षित हों तो अच्छे बालकों का विकास कैसे कर पाएँगे ? निश्चित ही, नहीं कर पाएँगे। अतः माँ-बाप का प्रशिक्षण अनिवार्य है या नहीं ? इतने अनिवार्य विषय की प्रशिक्षण व्यवस्था पर किसी भी सरकार ने कोई बल नहीं दिया। अभी तक किसी स्वैच्छिक संस्था ने भी माता-पिता बनने के पूर्व किसी प्रशिक्षण का आयोजन नहीं किया। हमारे ‘अभिभावक-शिक्षक संघ’ ने इसी विषय की गंभीरता और अनिवार्यता को ध्यान में रखकर आप सबको यहाँ बुलवाया है। दस दिन तक यह प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रतिदिन आधा घंटा चलेगा। प्रतिदिन किसी एक विषय पर कोई प्रमुख विचारक, शिक्षाशास्त्री या मनोवैज्ञानिक आपके समक्ष अपने विचार प्रस्तुत करेगा। प्रतिदिन के प्रवचनों का प्रतिवेदन तैयार कर लिया जाएगा। इन प्रवचनों का सार एक पुस्तक रूप में प्रकाशित करने की योजना है ताकि जो माता-पिता यहाँ उपस्थित नहीं हो सके, उन्हें भी कुछ लाभ मिल सके।
सचमुच माता-पिता बनना कठिन है। माता-पिता तो बनते ही जा रहे हैं, परंतु अच्छे माता-पिता की भूमिका निभाना सरल नहीं। अच्छे से अभिप्राय है ऐसे माँ-बाप जो बच्चों का सर्वांगीण विकास कर सकें जो अपने बच्चों का उज्ज्वल भविष्य सुनिश्चित कर सकें। जो उनको अच्छे-अच्छे संस्कार दे सकें, जो उनके स्वास्थ्य और शिक्षा पर ध्यान दे सकें, जो उनमें अच्छी आदतों का विकास कर उन्हें उत्तम नागरिक बना सकें तथा सही अर्थ में मानव बना सकें। सोचिए, क्या यह कार्य सरल है ? यदि हम अच्छे डॉक्टर, अच्छे अध्यापक, अच्छे वैज्ञानिक, अच्छे इंजीनियर तैयार करने के लिए वर्षों की प्रशिक्षण अवधि तय करते हैं तो अच्छे माँ-बाप बनने के लिए क्या बारह घंटे प्रशिक्षण भी अपेक्षित नहीं ? इसे आधा घंटा प्रतिदिन केवल इसलिए रखा गया है कि नित्य का कामकाज करते हुए भी प्रशिक्षण का लाभ सामान्य जन तक पहुँच सके।
आशा है, आप सभी विषय की अनिवार्यता तथा प्रशिक्षण की इस सरल व्यवस्था से सहमत होंगे। अब यहाँ जो माताएँ एवं सज्जन पधारे हैं वे कल अपने साथ अपने पड़ोस से कम-से-कम दो-दो जोड़े और लेकर आएँगे ताकि इस आयोजन का लाभ अधिक लोगों तक पहुँच सके। प्रतिदिन पंदह मिनट का प्रवचन होगा तथा पंद्रह मिनट आपके प्रश्नों के उत्तर दिए जाएँगे, जो उसी दिन के विषय को स्पष्ट करने के लिए होंगे।
आज का विषय समाप्त करता हूँ। सुझाव तथा शंकाएँ अब आप प्रस्तुत कर सकते हैं।
एक माता: आधा घंटा समय कम है। उसे और बढ़ाया जाना चाहिए।
एक पिता: जी नहीं, इसे बढ़ाने से हमें प्रशिक्षण से वंचित रहना पड़ेगा; क्योंकि साढे़ आठ बजे के बाद हम ठहर नहीं सकते। हमें अपने कार्यालय पहुँचना भी आवश्यक है।
दूसरा पिता: मैं इनका समर्थन करता हूँ। यह प्रशिक्षण प्राप्त करने का जो सौभाग्य हमें मिल रहा है उसे हम छोड़ना नहीं चाहते।
दूसरी माता: क्या पुरुषों तथा महिलाओं के लिए यह प्रशिक्षण अलग-अलग आयोजित नहीं किया जा सकता ?
प्रवक्ता: अलग आयोजन किया तो जा सकता है, परंतु एक साथ प्रशिक्षण देना अधिक लाभप्रद है। वास्तव में बच्चों के विकार का दायित्व दोनों पर साझा है। कुछ बातें दोनों को एक साथ समझाने की भी हैं। कुछ कठिनाई तथा शंकाएँ भी एक साथ समाधान किए जाने योग्य हैं, जिन्हें अलग-अलग समझा नहीं जा सकता। अतः आप नित्य निश्चित समय पर पधारें ताकि प्रशिक्षण सुविधा का पूर्ण लाभ आपको मिल सके। आप सभी का धन्यवाद। कल फिर मिलेंगे।
दूसरा प्रवचन
अपने बच्चों को स्वस्थ रखिए
प्रधानाचार्य: सम्माननीय माताओ, बहनो तथा भाइयो ! आपके प्रशिक्षण के दूसरे दिन का विषय रखा गया है-‘अपने बच्चों को स्वस्थ रखिए’। इस विषय को आपके समक्ष रखने के लिए डॉ. एकांत पधारे हैं। मैं उनसे निवेदन करूँगा कि गागर में सागर के रूप में अपने विचार संक्षेप में प्रस्तुत करें।
डॉ.एकांत: प्रधानाचार्यजी, विद्वान् गुरुजन एवं अभिभावक बहन-भाइयो ! विषय तो इतना विस्तृत है कि इसपर पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है और समय है मात्र आधा घंटा। अतः मैं सीधी बातें सार स्वरूप में आप लोगों के सामने रख रहा हूँ। आशा है, आप इनसे पूरा लाभ उठाएँगे।
अपने बच्चों को स्वस्थ रखना कौन नहीं चाहता ! परंतु क्या सभी के बच्चे स्वस्थ रह पाते हैं ? वस्तुतः बच्चों को स्वस्थ रखने के लिए अपने आपको स्वस्थ रखना आवश्यक है। स्वयं को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है कि हमारा आहार-विहार ठीक हो। सच बात तो यह है कि लोग बड़ी आयु तक पहुँचकर भी न तो अपनी बीमारियों का कारण समझ पाते हैं और न ही अपनी आदतों में सुधार कर पाते हैं। माता-पिता की या अन्य बड़ों की आदतों का प्रभाव अनजाने ही बच्चों पर पड़ता है। बच्चे बड़ों की आदतें नकल करके सीख जाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘हमारे बच्चे तो अपने पिताजी पर गए हैं, दूध को तो मुँह ही नहीं लगाते। चाय चाहे जितनी पिला दो। पिता की आदत तो बच्चों में आती ही है।’ माता जी ने और प्रशंसा कर दी, उससे बच्चों की आदत पक्की। पिता की आदत हममें आ रही है, इसे बच्चे गर्व की बात समझ सकते हैं। इसी प्रकार बड़ों की अन्य आदतें धीरे-धीरे बच्चों में प्रवेश करती हैं। इस विषय पर पुनः चर्चा करेंगे।
अब तो मैं केवल यही कहना चाहता हूँ कि हमको रोगों से बचने और बचाने के लिए प्रकृति के अनुकूल चलने की आदत बनानी चाहिए। प्रकृति के विरुद्ध चलने से बालकों को रोकना चाहिए। यदि प्राकृतिक नियमों को मानने की आदतें हों तो बच्चों को रोगों से बचाया जा सकता है। गरमी-सर्दी से उपयुक्त बचाव का ध्यान माता-पिता ही रखेंगे। इस संबंध में कुछ प्राचीन सूक्तियों को व्यवहार में लाएँ, जो आसानी से समझ में आ सकती हैं। एक सूक्ति है ‘ऋत भुक्, मित भुक्, हित भुक्’। यदि माता-पिता अपना आचरण इस सूक्ति के अनुकूल कर लें तो बच्चों में स्वयं ही इन आदतों का विकास हो जाएगा। ‘ऋत भुक्’ का अर्थ है-ऋतु के अनुसार आहार करें। ऋतु में उत्पन्न होनेवाले फल एवं सब्जियाँ उपयोग में लाएँ। आजकल देखा जाता है कि जो चीजें मौसम में कठिनाई से और महँगी मिलती हैं, उनको खाने में शान समझी जाती है। गरमियों में चौगुने भाव की गोभी और मटर खाने में और इतनी महँगी खरीदकर लाए, यह पड़ोसियों को बताने में अपनी शान समझी जाती है। बच्चों की प्रशंसा करते हुए माताएँ कहती हैं, ‘हमारे बच्चे तो रोज गोभी माँगते हैं या मटर-पनीर माँगते हैं। क्या करें, बच्चों के लिए लाना ही पड़ता है। कितनी भी महँगी हो, बच्चों का मन तो रखना ही पड़ेगा न।’ इसीसे प्रेरित होकर दूसरे परिवार में भी यह इच्छा उपजती है। कभी बच्चे तो कभी माता और कभी-कभी शेखीखोर पिता बे-मौसम की सब्जी बनवाते हैं, जिनका शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। कभी-कभी सर्दियों में तरबूज और आम खाने की बुरी आदत का ढोल पीटा जाता है। प्रकृति ने जिस ऋतु में जो चीज उत्पन्न की है, वही खाई जाए तो कभी रोग उत्पन्न न हों।’
‘मित भुक्’ का अर्थ है-थोड़ा खाइए, सीमित खाइए। शरीर की, परिश्रम की अपनी जो भी सीमा है उससे कुछ कम ही लीजिए। गाँव में ऐसे किस्से सुनने को मिलेंगे कि अमुक ने सत्तर लड्डू खा लिये, कोई पाँच किलो गुड़ खा गया। किसीने पूरे परिवार के लिए गूँधा हुआ आटा अकेले ही खा लिया, आदि। उससे प्रेरित होकर कई लोग स्वयं ही बीमारी पाल लेते हैं। उन्हें लगता है, हम भी यह कर सकते हैं। पहले तो हमने स्वयं देखा नहीं, सुना है और जो सुना रहा है उसने भी किसीसे सुना है। हो सकता है, यह किस्सा काल्पनिक हो। केवल बैठ-ठाले किसीने गढ़ दिया हो। यदि मान भी लें तो ध्यान रहे कि परिश्रमी शरीर ही भोजन पचा सकता है। जो इतना खा सकते थे वे शारीरिक परिश्रम भी उसी प्रकार का करते थे। बीस किलोमीटर पैदल चलने पर तो थकान का नाम भी न होता था। अब एक किलोमीटर भी पैदल चलना नहीं चाहते। इसलिए परामर्श दिया गया है कि शरीर की माँग के अनुसार सीमित भोजन करें। कहा जाता कि भूखा व्यक्ति कई दिन जी सकता है, परंतु सीमा से बाहर खा गया तो मृत्यु निश्चित है।
तीसरी बात कही गई है-‘हित भुक्’, जिसका भाव है कि जो शरीर के लिए हितकारी हो वही खाएँ। एक डॉक्टर का कथन है कि जो कुछ हम खाते हैं उसका एक-तिहाई हमें पालता है, बाकी दो-तिहाई डॉक्टरों को ही पालता है। वास्तव में शरीर के लिए जो हितकारी है वही हमें खाना चाहिए; किंतु हम जो कुछ खाते हैं वह सब उपयोगी नहीं होता।
डॉ.एकांत: प्रधानाचार्यजी, विद्वान् गुरुजन एवं अभिभावक बहन-भाइयो ! विषय तो इतना विस्तृत है कि इसपर पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है और समय है मात्र आधा घंटा। अतः मैं सीधी बातें सार स्वरूप में आप लोगों के सामने रख रहा हूँ। आशा है, आप इनसे पूरा लाभ उठाएँगे।
अपने बच्चों को स्वस्थ रखना कौन नहीं चाहता ! परंतु क्या सभी के बच्चे स्वस्थ रह पाते हैं ? वस्तुतः बच्चों को स्वस्थ रखने के लिए अपने आपको स्वस्थ रखना आवश्यक है। स्वयं को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है कि हमारा आहार-विहार ठीक हो। सच बात तो यह है कि लोग बड़ी आयु तक पहुँचकर भी न तो अपनी बीमारियों का कारण समझ पाते हैं और न ही अपनी आदतों में सुधार कर पाते हैं। माता-पिता की या अन्य बड़ों की आदतों का प्रभाव अनजाने ही बच्चों पर पड़ता है। बच्चे बड़ों की आदतें नकल करके सीख जाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘हमारे बच्चे तो अपने पिताजी पर गए हैं, दूध को तो मुँह ही नहीं लगाते। चाय चाहे जितनी पिला दो। पिता की आदत तो बच्चों में आती ही है।’ माता जी ने और प्रशंसा कर दी, उससे बच्चों की आदत पक्की। पिता की आदत हममें आ रही है, इसे बच्चे गर्व की बात समझ सकते हैं। इसी प्रकार बड़ों की अन्य आदतें धीरे-धीरे बच्चों में प्रवेश करती हैं। इस विषय पर पुनः चर्चा करेंगे।
अब तो मैं केवल यही कहना चाहता हूँ कि हमको रोगों से बचने और बचाने के लिए प्रकृति के अनुकूल चलने की आदत बनानी चाहिए। प्रकृति के विरुद्ध चलने से बालकों को रोकना चाहिए। यदि प्राकृतिक नियमों को मानने की आदतें हों तो बच्चों को रोगों से बचाया जा सकता है। गरमी-सर्दी से उपयुक्त बचाव का ध्यान माता-पिता ही रखेंगे। इस संबंध में कुछ प्राचीन सूक्तियों को व्यवहार में लाएँ, जो आसानी से समझ में आ सकती हैं। एक सूक्ति है ‘ऋत भुक्, मित भुक्, हित भुक्’। यदि माता-पिता अपना आचरण इस सूक्ति के अनुकूल कर लें तो बच्चों में स्वयं ही इन आदतों का विकास हो जाएगा। ‘ऋत भुक्’ का अर्थ है-ऋतु के अनुसार आहार करें। ऋतु में उत्पन्न होनेवाले फल एवं सब्जियाँ उपयोग में लाएँ। आजकल देखा जाता है कि जो चीजें मौसम में कठिनाई से और महँगी मिलती हैं, उनको खाने में शान समझी जाती है। गरमियों में चौगुने भाव की गोभी और मटर खाने में और इतनी महँगी खरीदकर लाए, यह पड़ोसियों को बताने में अपनी शान समझी जाती है। बच्चों की प्रशंसा करते हुए माताएँ कहती हैं, ‘हमारे बच्चे तो रोज गोभी माँगते हैं या मटर-पनीर माँगते हैं। क्या करें, बच्चों के लिए लाना ही पड़ता है। कितनी भी महँगी हो, बच्चों का मन तो रखना ही पड़ेगा न।’ इसीसे प्रेरित होकर दूसरे परिवार में भी यह इच्छा उपजती है। कभी बच्चे तो कभी माता और कभी-कभी शेखीखोर पिता बे-मौसम की सब्जी बनवाते हैं, जिनका शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। कभी-कभी सर्दियों में तरबूज और आम खाने की बुरी आदत का ढोल पीटा जाता है। प्रकृति ने जिस ऋतु में जो चीज उत्पन्न की है, वही खाई जाए तो कभी रोग उत्पन्न न हों।’
‘मित भुक्’ का अर्थ है-थोड़ा खाइए, सीमित खाइए। शरीर की, परिश्रम की अपनी जो भी सीमा है उससे कुछ कम ही लीजिए। गाँव में ऐसे किस्से सुनने को मिलेंगे कि अमुक ने सत्तर लड्डू खा लिये, कोई पाँच किलो गुड़ खा गया। किसीने पूरे परिवार के लिए गूँधा हुआ आटा अकेले ही खा लिया, आदि। उससे प्रेरित होकर कई लोग स्वयं ही बीमारी पाल लेते हैं। उन्हें लगता है, हम भी यह कर सकते हैं। पहले तो हमने स्वयं देखा नहीं, सुना है और जो सुना रहा है उसने भी किसीसे सुना है। हो सकता है, यह किस्सा काल्पनिक हो। केवल बैठ-ठाले किसीने गढ़ दिया हो। यदि मान भी लें तो ध्यान रहे कि परिश्रमी शरीर ही भोजन पचा सकता है। जो इतना खा सकते थे वे शारीरिक परिश्रम भी उसी प्रकार का करते थे। बीस किलोमीटर पैदल चलने पर तो थकान का नाम भी न होता था। अब एक किलोमीटर भी पैदल चलना नहीं चाहते। इसलिए परामर्श दिया गया है कि शरीर की माँग के अनुसार सीमित भोजन करें। कहा जाता कि भूखा व्यक्ति कई दिन जी सकता है, परंतु सीमा से बाहर खा गया तो मृत्यु निश्चित है।
तीसरी बात कही गई है-‘हित भुक्’, जिसका भाव है कि जो शरीर के लिए हितकारी हो वही खाएँ। एक डॉक्टर का कथन है कि जो कुछ हम खाते हैं उसका एक-तिहाई हमें पालता है, बाकी दो-तिहाई डॉक्टरों को ही पालता है। वास्तव में शरीर के लिए जो हितकारी है वही हमें खाना चाहिए; किंतु हम जो कुछ खाते हैं वह सब उपयोगी नहीं होता।
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लोगों की राय
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