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मरूभूमि का वह मेघ

राम निवास जाजू

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :425
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2674
आईएसबीएन :00000

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घनश्याम दास बिड़ला का जीवन लेखा....

Marubhoomi ka woh megh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मरूभूमि का वह मेघ

श्री घनश्याम बिड़ला एक अभूतपूर्व दृश्य थे और अभूतपूर्व ही है वह चौखट जो उनके जीवन की छवि प्रस्तुत करने के लिए ‘मरूभूमि का वह मेघ’ के लेखक रामनिवास जाजू ने चुना है। यद्यपि लेखक ने पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, पुराने पत्राचारों और ताजा भेंटवार्ताओं से बिड़लाजी यानी जी. डी. बाबू के जीवन के विषय में उपलब्ध सारी सूचनाएं क्रमबद्ध ढंग और कथासुलभ रोचकता से प्रस्तुत कर दी हैं तथापि साधारण जीवन-चरित नहीं है यह तो। श्री घनश्यामदास बिड़ला के कई-कई आयामों वाले व्यक्तित्व पर कई-कई कोणों से नज़र टिकाते हुए उसकी समग्रता को अभिव्यक्ति देने की एक अद्भुद, असम्भवप्राय कोशिश है।

लेखक पिछले पचपन साल से बिड़लाओं से समबद्ध रहा है तथापि ‘विष्णु सहस्रनाम नहीं श्रीमद्भागवत’ लिखने के संकल्प ने उसे अपने श्रद्धेय पात्र के प्रति वैसी ही तठस्थता प्रदान की है जैसी स्वयं घनश्यामदास बिड़ला ने कभी ‘बापू’ की छवि आँकते हुए प्रदर्शित की थी। हाँ, बिड़ला-परिवार से निकट का परिचय उसकी कृति को अन्तरंगता का प्रीतिकार स्पर्श दे पाया है। ‘मरुभूमि का वह मेघ’ एक कवि की गद्य-रचना है और इसमें कविजनोचित भाव-प्रवणता और लालित्य के सर्वत्र दर्शन होते हैं।

 

राम निवास जाजू

 

सांस्कृतिक और औद्योगिक दोनों ही बिरादरियों में पाँच दशक से अधिक समय से रामनिवास जाजू का नाम सुपरिचित रहा है। उद्योग-प्रबन्धों को आश्चर्य है कि यह व्यक्ति सांस्कृतिक कार्यकलापों के लिए समय और समझ कहाँ से लाता है और सरस्वती-साधकों को विस्मय है कि उद्योगों के नीरस और यांत्रिक संसार में रहते हुए भी यह रसमर्मज्ञ और सहृदय कैसे बना रह पाया है।
एक साधारण हैसियत के परिवार में जन्मे राम निवास जाजू ने सभी अभाव देखे और संघर्ष झेले। पिलानी से उन्होंने एम. कॉम. की परीक्षा सर्वोच्च रहकर पास की और स्वर्ण-पदक पाया। अनन्तर वह बिड़ला उद्यम में नियुक्त और लगभग 55 वर्षों से श्री बसन्त कुमार बिरला के अंतर्गत औद्योगिक, शैक्षणिक और सासंकृतिक कार्यों में संलग्न हैं।

कवि और वक्ता के रूप में जाजू छात्र-जीवन से ही प्रसिद्धि पाने के लगे थे। कलकत्ता के ‘संगीत’ कला मन्दिर’ से सम्बद्ध होकर इन्होंने लक्ष्मी तथा सरस्वती के साधकों के मध्य महत्वपूर्ण सेतु की भूमिका निबाही।
जाजू की कविताओं में व्यक्त जीवनानुभूतियाँ उनके कवि की एक विशिष्ट पहचान है। आधुनिक  तनावग्रस्त समाज की तलस्पर्शी पीड़ा को उन्होंने सहज किन्तु चुभते हुए व्यंग्य के माध्यम से वाणी दी है। ‘भावों की भीख’ ‘प्यास बढ़ती ही गई, ‘घटनाओं के मध्य में’ ‘चट्टान के फूल‘ और ‘फूलों का हो रहा हवन’ ये पाँच संग्रह प्रकाशित- प्रशंसित हो चुके हैं, कला अपनी क्षमताओं विभिन्न विधाओं पर प्रकाशित संकलन ‘सुरभिका’ के सम्पादक के नाते उन्होंने अपनी क्षमताओं की अच्छी साख जमायी।  ‘मरूभूमि का वह मेघ’ पहली बड़ी गद्य-रचना है।

 

इस संस्करण के बारे में

 

प्रकाशक महोदय के अनुसार ‘मरूभूमि का वह मेघ’ का दूसरा/ तीसरा संस्करण भी 1987 के अन्त तक प्रायः बिक चुका था। पाठक समुदाय की निरंतर माँग पर अनेक दैनिक पत्रों ने इसके क्रमिक अध्याय के अध्याय के प्रकाशित किए। गत बीस वर्षों में सैकड़ों लोगों के पत्र और फोन इस पुस्तक की अधिक प्रतियाँ पाने के लिए सर्वत्र आते रहे। इस बीच, इसका अँग्रेजी अनुवाद ‘G.D. Birla:A  Biography’, जो विकास पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित हुआ था, उसके भी तीन संस्करण निकले और वे भी बाजार में अब नहीं रहे। यह सब मूल महत्त्व है उस चरितनायक का, जिसके जीवन की विविधरूपा कहानी इस पुस्तक में सापेक्ष हुई है।

मैं वाणिज्य का एक विद्यार्थी 55 वर्ष पहले एक ऐसे वटवृक्ष की छांव में आया था जहाँ उद्योग व्यवसाय की तेज दौड़ के अनेक रंग उसी छाँव में घूमते-फिरते मैंने उसी नजरिये से देखे। जीवन के उद्देश्य, लक्ष्य और पूरी यात्रा के हासिलों को आनेवाली पीढ़ियों के लिए विरासत के रूप में छोड़ने की ऐसी नियमावली मैंने आज तक नहीं देखी जैसी घनश्यामदास जी बिड़ला ने अपने बेटे चि० बसंत को आज से 72 वर्ष पहले एक पत्र में लिखी थी। मुझे आज की परिस्थितियों में उस आचार-संहिता की और भी अधिक अनिवार्यता और उपादेयता महसूस हो रही है। संभवतः पाठकों को भी पुरजोर ढंग से ऐसा ही लगे। अतएव पत्र ज्यों का त्यों पुस्तक के अन्त में प्रस्तुत है।

लेखक और प्रकाशन की दृष्टि से अब इस पुस्तक का एक ‘‘उत्तर कथन’’ आना तो अपेक्षित वह सामग्री भी अपने आप में एक पूरी नई पुस्तक के विस्तार से कम नहीं है। इस बीच श्रद्धेय घनश्यामदास बिड़ला के परिवार के कई दिग्गज लोग अपना-अपना इतिहास रचाकर इस संसार से उठ गए।** उनके पौत्र आदित्य विक्रम पर सहसा उमड़ती हुई जो प्रथम श्रद्धांजलि ‘प्रतापी युवाधिपति’ के रूप में निकली और अनेक पत्रों में प्रकाशित हुई, वह तो पुस्तक के अंत में प्रस्तुत है पर जी० डी० बाबू की जो नई यशस्वी पीढ़ी  अपने नए कीर्तिमान स्थापित कर रही है वह भी एक पूरे चमत्कार का स्वरूप है। मुझे पूरा आभास है कि यदि इस ‘‘उत्तर कथन’’ का काम कभी पूरा कर पाऊँ तो एक सच्चे आभाव की पूर्ति होगी और एक न नई तृप्ति की अनुभूति होगी।

इस समय तो इस पुस्तक के लिए जो इतनी अतृप्त माँग व्याप्त है, उसको पूरा करने के लिए प्रकाशक महोदय ने यह संस्करण निकालना ही आवश्यक समझा है ताकि समाज के हजारों-लाखों लोग घनश्यामदास जी बिड़ला की जीवनी को अपने घट में उतारते रहें और देश और काल की घटनाओं में अपने स्परूप की सार्थकता सिद्ध करते रहें।

जब मैंने अपनी ही पुस्तक को इन दिनों दो-चार बार दोबारा पढ़ा तो मेरी यह आस्था अत्यंन्त बलवान हो गई जीवन के विविध पक्षों के साथ-साथ उद्योग और व्यवसाय को आधुनिकता के साथ देश और विदेश में बढ़ाने और फैलाने में श्रद्धेय जी ० डी० बाबू के सूत्र अत्यंन्त अत्याधुनिक है। यह निर्विवाद है कि भारतवर्ष में इस विषय पर एम.बी.ए. तथा बी. स्कूलों के लिए उन जैसा महामहोपाध्याय अब तक जन्म ही नहीं ले सका है। उद्योग और व्यवसाय-जगत के पुराने महानुभावों और नए युवा-युवतियों के लिए मेरा यही एक संदेश है कि उस धीरोदात्त के नुस्खों का अध्ययन और प्रयोग करते हुए अरबों का कारोबार कीजिए, बृहद समाज को समृद्ध करने करोड़ों का दान दीजिए और राष्ट्रीय मूल्यों का नित नया गुंजायमान आधार तैयार कीजिए।

 

राम निवास जाजू

 

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पुनःश्य 1. ‘अनुभव की बात’-‘‘हस्त-लिखित आठ सूत्री पत्र।’’
2. ‘प्रतापी युवाधिपति को प्रथम श्रद्धांजलि।’



मेरी आत्म-स्वीकृति

 


बिड़ला परिवार, उनके सम्बन्धियों, उनके इष्टमित्रों एवं उनके विश्वस्त प्रबन्धकों ने अपना नितान्त व्यक्तिगत संस्मरण और निजी पत्राचार मुझे कृपा पूर्वक इस पुस्तक के लिखने के निमित्त उपलब्ध कराये हैं। उनके प्रति आभार प्रकट करके मैं जी.डी. बाबू के प्रति उनके सहज पूज्यभाव की गरिमा को कम नहीं करना चाहता। इस अमूल्य सामग्री के उपयोग में मुझसे जितनी अपूर्णताएँ हुई हैं। उनके लिए क्षमायाचना करना अवश्य मेरा धर्म है और मुझे भरोसा है कि मुझे क्षमा मिलेगी क्योंकि-

 

‘गच्छतः स्खलनं क्लापि भवत्येव प्रमादतः’

 

(चलने में मनुष्य का पैर कभी-कभार भूल से फिसल ही जाता है)

 

राम निवास जाजू

 

दूसरे / तीसरे संस्करण के बारे में

 

 

 जब पुस्तक का पहला संस्करण छपने लगा तभी मुझे आभास हो रहा था कि बहुत कुछ लिखना शेष रह गया है। उस शेष को पूरा करने के लिए बिड़ला परिवार के कई विशिष्ट व्यक्तियों से मैंने विस्तार पूर्वक बातचीत की। परिणाम स्वरूप खूब रोचक और प्रेरणाप्रद सामग्री प्राप्त हुई, जिसको इस नये संस्करण में कुछ पुराने तथा कुछ नये प्रसंगों के साथ यथास्थान जोड़ा गया है। यह सब कर लेने पर भी इतनी सामग्री बची हुई है कि मेरी दृष्टि में श्रद्धेय जी.डी. बाबू के जीवन पर बहुत कुछ लिखना बाकी है।
अनेकाअनेक पाठकों ने जिस प्रकार श्रद्धेय चरित-नायक  की  इस जीवनी को बारी-बारी से पढ़ा है और सराहा है, उनकी इस सहृदयता से मुझे तीव्र सुखानुभूति हुई है।

 

लेखक  

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