भारतीय जीवन और दर्शन >> भारतीय दर्शन - भाग 1 भारतीय दर्शन - भाग 1सर्वपल्ली राधाकृष्णन
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प्रस्तुत ग्रंथ प्रख्यात भारतीय दार्शनिक तथा पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन के विश्वविद्यालय ग्रंथ ‘इंडियन फिलॉसफी’ का प्रमाणिक अनुवाद है। उसका यह प्रथम खण्ड है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत ग्रंथ प्रख्यात भारतीय दार्शनिक तथा पूर्व राष्ट्रपति डॉ.
राधाकृष्णन के विश्वविद्यालय ग्रंथ ‘इंडियन फिलॉसफी’ का
प्रमाणिक अनुवाद है। उसका यह प्रथम खण्ड है। इस ग्रंथ की संसार के सभी
विद्वानों तथा दार्शनिकों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। इसमें भारतीय
दर्शन जैसे गूढ़ और व्यापक विषय का जिस आकर्षक
और दलित शैली में और साथ ही जिस प्रामाणिकता और तुलनात्मक अध्ययनपूर्ण विवेचन किया है, वह अद्वितीय है। प्रस्तुत खंड में भारतीय दर्शन के आरंभिक वैदिक काल से लेकर बौद्ध काल तक के ऐतिहासिक विकास का विवेचन करते हुए विद्वान लेखक ने दर्शन की प्रमुख धाराओं विविध धर्म-परम्पराओं और भारत के अपने विशिष्ट आध्यात्मिक विचार की विस्तृत, स्पष्ट और युक्तियुक्त व्याख्या की है तथा आरम्भ से अन्त तक पाश्चात्य दर्शन के संदर्भ में तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
भारतीय दर्शन में विद्यार्थियों और जिज्ञासु पाठकों के लिए यह अपने विषय का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।
और दलित शैली में और साथ ही जिस प्रामाणिकता और तुलनात्मक अध्ययनपूर्ण विवेचन किया है, वह अद्वितीय है। प्रस्तुत खंड में भारतीय दर्शन के आरंभिक वैदिक काल से लेकर बौद्ध काल तक के ऐतिहासिक विकास का विवेचन करते हुए विद्वान लेखक ने दर्शन की प्रमुख धाराओं विविध धर्म-परम्पराओं और भारत के अपने विशिष्ट आध्यात्मिक विचार की विस्तृत, स्पष्ट और युक्तियुक्त व्याख्या की है तथा आरम्भ से अन्त तक पाश्चात्य दर्शन के संदर्भ में तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
भारतीय दर्शन में विद्यार्थियों और जिज्ञासु पाठकों के लिए यह अपने विषय का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।
प्रस्तावना
यद्यपि संसार के बाह्य भौतिक स्वरूप में, संसार-साधनों, वैज्ञानिक
आविष्कारों आदि की उन्नति से बहुत अधिक परिवर्तन हुआ है, किन्तु इसके
आन्तरिक आध्यात्मिक पक्ष में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ।
क्षुधा एवं अनुराग की पुरातन शक्तियों और हृदयगत निर्दोंष उल्लास एवं भय इत्यादि मानव-प्रकृति के सनातन गुण हैं। मानव-जाति के वास्तविक हितों, धर्म के प्रति गम्भीर आवेगों और दार्शनिक ज्ञान की मुख्य-मुख्य समस्याओं आदि ने वैसी उन्नति नहीं की जैसी की भौतिक पदार्थों ने की है। मानव-मस्तिष्क के इतिहास में भारतीय विचारधारा अपना एक अत्यंन्त शक्तिशाली और भाव-पूर्ण स्थान रखती है’ महान विचारकों के भाव अभी पुराने अर्थात् अव्यवहारिक नहीं होते। प्रयुक्त वह उस उन्नति को जो उन्हें मिटाती-सी प्रतीत होती है, सजीव प्रेरणा देते हैं। कभी-कभी अत्यन्त प्राचीन भावनामयी कल्पनाएं, हमें अपने अदभुद आधुनिक रूप के कारण अचम्भे में डाल देती हैं क्योंकि ‘अन्तर्दष्टि’ आधुनिकता के ऊपर निर्भर करती है।
भारतीय विचारधारा के प्रतिपाद्य विषय के सम्बन्ध अज्ञान है। आधुनिक विचारकों की दृष्टि में भारतीय दर्शन का अर्थ है माया-अर्थात् संसार एक मायाजाल, कर्म अर्थात भाग्य का भरोसा और त्याग अर्थात तपस्या की अभिलाषा से इस पार्थिक शरीर को त्याग देने की इच्छा आदि दो-तीन ‘मूर्खतापूर्ण’ धारणाएँ मात्र, कोई गम्भीर विचार नहीं और यह कहा जाता है कि ये साधारण धारणाएं भी जंगली लोगों की शब्दावली में व्यक्त की गयी हैं,
और अव्यव्थित निरर्थक कल्पनाओं एवं वाक्प्रपंच रूपी कुहासे से आच्छादित है, जिन्हें इस देश के निवासी बुद्धि का चमत्कार मानते हैं। कलकत्ता से कन्याकुमारी तक छः मास भ्रमण करने के पश्चात् हमारा आधुनिक सौन्दर्य-प्रेमी, भारत की समस्त संस्कृति एवं दर्शन-ज्ञान को ‘सर्वेश्वरवाद’ निरर्थक ‘पाण्डित्याभिमान’, ‘शब्दों का आडम्बर मात्र’ और किसी भी हालत में प्लेटो और अरस्तू यहां तक कि प्लाटिनम और बेकन के दार्शनिक ज्ञान के तिल-भर भी सामान न होने के कारण हीन बताकर छोड़ देता है। किन्तु एक बुद्धिमान विद्यार्थी जो दर्शन-ज्ञान की प्राप्ति की अभिलाषा रखता है, भारतीय विचारधारा के अन्दर एक ऐसे अद्वितीय सामग्री-समूह को ढूंढ़ निकाला है जिसका सानी सूक्ष्म विवरण एवं विधता दोनों की दृष्टि से ही संसार के किसी भी भाग में नहीं मिल सकता।
संसार-भर में सम्भवतः आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि अथवा बौधिक दर्शन की ऐसी कोई भी ऊंचाई नहीं है कि जिसका सममूल्य पुरातन वैदिक ऋषियों और अर्वाचीन नैयायिकों के मध्यवर्ती विस्तृत ऐतिहासिक काल में पाया जाता हो। प्रोफेसर गिलबर्ट मरे एक अन्य प्रकरण में प्रयुक्त किए गए शब्दों में ‘‘प्राचीन भारत मूल में दुःखद होने पर भी विजय और एक विशिष्ट उज्जवल प्रारम्भ है जो चाहे कितनी ही संकटपूर्ण स्थिति में क्यों न हो, संघर्ष करते-करते उच्च शिखर तक पहुंचा है।’’ वैदिक कवियों की निश्छल सूक्तियां, उपनिषदों की अद्भुद सांकेतिकता, बौद्धों का विलक्षण मनोवैज्ञानिक, विश्लेषण और शंकर का विस्मय-विमुधग्कारी दर्शन, ये सब सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ऐसे ही अत्यन्त रोचक एवं शिक्षाप्रद हैं जैसेकि प्लेटो और अरस्तू अथवा कांट और हीगल के दर्शनशास्त्र हैं,
यदि हम उक्त भारतीय दर्शन-ग्रन्थों का अध्ययन एक निष्पक्ष और वैज्ञानिक भाव से करें और हमें पुराना एवं विदेशी समझकर अपमान की दृष्टि से न देखें, इन्हें हेय समझकर इससे घृणा न करें। भारतीय दर्शन की विशिष्ट परिभाषाएँ जिनका सही-सही अनुवाद भी आसानी से अंग्रेजी भाषा में नहीं हो सकता, स्वयं इस बात की साक्षी हैं कि इस देश का बौद्धिक विचार कितना अदभुद है। यदि बाह्य कठिनाइयों को दूर करके उनके ऊपर उठा जाए तो हम अनुभव करेंगे कि मानवीय हृदय की धड़कन में मानवता के नाते कोई भेद नहीं, अर्थात् वह भारतीय है कोई महत्त्व नहीं है तो भी वह ध्यान देने योग्य तो है ही, यदि और किसी दृष्टिकोण से भिन्न है और सब पर इसका प्रभाव भी स्पष्ट रूप में लक्षित होता है।
ठीक-ठीक क्रमबद्ध इतिहास के अभाव में किसी भी वृत्त को इतिहास का नाम दे देना अनुचित है और इतिहास शब्द का दुरुपयोग है। प्राचीन भारतीय दर्शनों का ठीक-ठीक समय निर्णय करने की समस्या मनोरंजक भी है एवं समाधान भी असम्भव है और इस क्षेत्र में नाना प्रकार की कल्पनाएं की गई हैं,
अदभुद रचनाओं और साहस-पूर्ण अतिशयोक्तियों को जन्म दिया गया है। खण्ड-खण्ड रूप में पृथक्-पृथक् पड़ी सामग्री में से इतिहास का निर्णय एक ओर बड़ी बाधा है। ऐसी परिस्थितियों में मुझे इस रचना को ‘भारतीय दर्शन का इतिहास’ की सज्ञा देने में हिचकिचाहट मालूम होती है।
विशेष-विशेष दर्शनों की व्याख्या करने में मैंने लेखबद्ध प्रमाणों के निकट सम्पर्क में रहने का प्रयत्न किया है, जहाँ कहीं सम्भव हो सका है उन अवस्थाओं का भी मैंने प्रारम्भिक सर्वेक्षण किया है जिनके अन्दर रहकर इन दर्शनों का आविर्भाव हुआ और यह कि किस हद तक ये भूतकाल के ऋणी हैं एवं विचार की प्रगति में इनकी देन क्या और किस रूप में हैं। मैंने केवल उक्त दर्शनों के सारभूत मूल तत्त्वों पर बल दिया है
जिससे कि ब्यौरे में जाने पर भी सम्पूर्ण दर्शन का जो मुख्य आशय है वह दृष्टि से ओझल न हो जाए, और साथ ही साथ किसी सिद्धान्त-विशेष को लेकर चलने से मैंने अपने को बचाने का प्रयत्न किया है। तो भी मुझे भय है कि मेरे आशय के विषय में किसी को भ्रम न हो। इतिहासलेखक का कार्य, विशेष करके दर्शन के विषय में, बड़ा कठिन है। वह चाहे कितना ही केवल ऐतिहासिक घटनाओं को लेखबद्ध करने कर सीमा में रहने का प्रयत्न करे, जिससे कि इतिहास को स्वयं अपने को खोलकर अपना आशय निरन्तरता, भूलों की समीक्षा एवं आंशिक अन्तदृष्टि को प्रकट करने का अवसर प्राप्त हो सके, तो भी लेखक का अपना निर्णय एवं सहानुभूतिदेर तक छिपी नहीं रह सकती।
इसके अतिरिक्त भी भारतीय दर्शन के विषय में एक अन्य कठिनाई उपस्थित होती है। हमें ऐसी टीकाएँ मिलती हैं जो पुरानी होने पर भी काल की दृष्टि से मूल ग्रन्थ के अधिक निकट हैं। इसलिए अनुमान किया जाता है कि वे ग्रन्थ के सन्दर्भ पर प्रकाश डाल सकती हैं। किन्तु जब टीकाकार परस्पर-विरोधी मत रखते हैं
तब लेखक विरोधी व्याख्याओं के विषय में अपना निर्णय दिए बिना चुप भी भले नहीं बैठ सकता। इस प्रकार की निजी सम्मतियों को प्रकट किए बिना, जो भले ही कुछ हानिकारक हों, रहा भी नहीं जा सकता।
सफल व्याख्या में तात्पर्य समीक्षा और मूल्याकन से है मैं समझता हूं कि एक न्याय युक्तियुक्त एवं निष्पक्ष वक्तव्य दे सकने के लिए समीक्षा से बचना आवश्यक भी नहीं है। मैं एकमात्र यह आशा करता हूँ कि इस विषय पर शान्त और निष्पक्ष भाव से विचार किया जाएगा, और इस पुस्तक में और चाहे जो भी त्रुटियाँ रह गई हों, तथ्यों को पूर्वनिर्धारित सम्मति के अनुकूल बनाने के लिए तोड़ा-मरोड़ा नहीं गया है।
मेरा लक्ष्य भारतीय मतों को बतलाते का उतना नहीं है जितना कि उनकी इस प्रकार से व्याख्या करने का है जिससे वे पश्चिमी दो विभिन्न विचारधाराओं में जिन दृष्टान्तों और समानताओं को प्रस्तुत किया गया है उन पर अधिक बल देना ठीक नहीं है। क्योंकि भारतीय दार्शनिक कल्पनाओं की उत्पत्ति शताब्दियों पूर्व हुई है, जिस समय उनकी पृष्ठभूमि में आधुनिक विज्ञान की उज्जवल उपलब्धियों नहीं थीं।
भारतवर्ष, एवं यूरोप और अमरीका में अनेक मेधावी विद्वानों ने भारतीय दर्शन के विशेष-विशेष भागों का बहुत सावधानी एवं सम्पूर्णता के साथ अध्ययन किया है। दार्शनिक साहित्य के कुछ विभागों की समीक्षात्मक दृष्टि से समीक्षा की गई है किन्तु भारतीय विचार के इतिहास को अविभक्त एवं सम्पूर्ण इकाई के रूप में प्रतिपादित करने का कोई प्रयत्न नहीं हुआ और न ही उसके सतत विकास का प्रतिपादन किया गया जिसके बिना विभिन्न विचारकों व उनके मतों को पूर्णरूप से नहीं समझा जा सकता। भारतीय दर्शन के विकास के इतिहास को उसके प्रारम्भिक अस्पष्ट इतिहास से लेकर विशद रूप में लाना एक अत्यधिक कठिन कार्य है और अकेले इस, कार्य को कर सकना किसी अत्यन्त परिश्रमी व बहुश्रुत विद्वान की भी पहुँच से बाहर की बात है। इस प्रकार से सर्वमान्य भारतीय दर्शन के विश्वकोष का निर्माण करने में न केवल विशेष रूचि और पूरी लगन की अपितु व्यापक संस्कृति और प्रतिभा सम्पन्न विद्वानों के परस्पर सहयोग की भी आवश्यकता है। पुस्तक का दावा इससे अधिक और कुछ नहीं है कि यह भारतीय विचार का एक साधारण सर्वेक्षणमात्र है एवं इसे विस्तारपूर्वक विषय की रूपरेखा मात्र ही कहना अधिक उपयुक्त होगा। लेकिन यह कार्य भी बिल्कुल सरल है। आवश्यक विचार-विमर्श से इतिहासलेखन के ऊपर एक बड़े उत्तरदायित्व का भार आ पड़ता है जो इस दृष्टि से और भी महत्वपूर्ण है कि कोई एक व्यक्ति अध्ययन के इन सब विविध क्षेत्रों के विषय में अधिकारपूर्वक नहीं कह सकता और इसलिए लेखक को बाध्य होकर ऐसे प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर ही अपना निर्णय देने के लिए बाध्य होना पड़ता है जिनके मूल्य का वह स्वयं सावधानी के साथ निर्णय नहीं कर सकता। काल-निर्णय के विषय में मैंने योग्य विद्वानों के अनुसन्धानों के परिणामों पर ही लगभग पूर्णतः निर्भर किया है। मुझे इस बात का पूरा ज्ञान है
कि इस विस्तृत क्षेत्र का सर्वेक्षण करने में बहुत कुछ आवश्यक विषय अछूत ही रह गया है और जिसका प्रतिपादन हुआ है वह भी साधरण रूप में ही आ सका है। यह पुस्तक किसी भी अर्थ में पूर्ण होने का दावा नहीं कर सकती। इस पुस्तक में केवल मुख्य-मुख्य परिणामों का साधारण दिग्दर्शनमात्र किया गया है जिससे कि ऐसे व्यक्तियों का जो इस विषय में सर्वथा अनभिज्ञ हैं, कुछ ज्ञान प्राप्त हो सके और जहां तक सम्भव हो कुछ हद तक उनके अन्दर इसके प्रति रुचि जागरित हो सके, जिस कार्य के लिए यह सर्वथा उपयुक्त है। यदि इस विषय में यह असफल भी रहे तो भी अन्य प्रयासों को इससे सहायता एवं प्रोत्साहन तो प्राप्त हो ही सकेगा।
प्रारम्भ में मेरी योजना दोनों खंडों को एक साथ प्रकाशित करने की थी किन्तु प्रोफेसर जे० एस० मैकेंज़ी जैसे मेरे कृपालु मित्रों ने मुझे सुझाव दिया कि प्रथम खंड तुरन्त प्रकाशित कर देना चाहिए। चूंकि दूसरे खंड को तैयार करने में कुछ समय लगेगा और पहला खंड अपने-आप में पूर्ण है,
इसलिए इसे मैं रूप से प्रकाशित कर रहा हूं। इस खंड में जिन मन्तव्यों का विवेचन किया गया है, उनकी विशेषता यह है कि भौतिक अस्तित्व की समस्याओं की तार्किक भावनाओं द्वारा व्याख्या करने की अपेक्षा इस, विषय पर अधिक ध्यान दिया गया है कि जीवन में उनकी क्रियात्मक आवश्यकता का समर्थन किया जाय।
ऐसे विषयों पर जिनका रूप पाठकों की दृष्टि में दार्शनिक की अपेक्षा धार्मिक अधिक है, विचार करने से ही नहीं बचा जा सकता था, क्योंकि प्राचीन भारतीय कल्पनाओं में धर्म और दर्शन का बहुत निकट सम्बन्ध रहा है। परन्तु दूसरे खंड में अधिकतर विशुद्ध दार्शनिक विषय पर ही विचार किया जाएगा, क्योंकि दर्शनशास्त्रों में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध को भी भुलाया नहीं जा सकता।
यहां पर मुझे उन कतिपय प्राच्यविद्या-विशारदों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए हर्ष होता है जिनके ग्रंन्थों से मुझे अपने अध्ययन में बहुत सहायता मिली है। उन सबके नामों का उल्लेख सम्भव नहीं है जो स्थान-स्थान पर इस पुस्तक में आएंगे। किन्तु निश्चय ही मैक्समूलर, डयूसन, कीथ, जैकोबी गार्बें तिलक, भण्डारकर, रीज डेविड्स एवं श्रीमती रीज़ डेविड्स ओल्डे्नबर्ग, पूसीं, सुजुकी और सोजोन के नाम का उल्लेख आवश्यक है।
कितने ही अन्य अमूल्य ग्रन्थ जो हाल में प्रकाशित हुए हैं तथा प्रोफेसर दासगुप्त का ‘भारतीय दर्शन का इतिहास’ और सर चार्ल्स का विन्दूइज़िम ऐंड बुद्धिज़्म,’ मुझे विलम्ब से प्राप्त हुए, जबकि इस पुस्तक पाण्डुलिर पूर्ण की जाकर प्रकाशकों के पास दिसम्बर, 1921 में भेजी जा चुकी थी। प्रत्येक अध्ययन के अन्त में दी गई ग्रन्थसूची अपने-आपसे पूर्ण नहीं है। यह केलव अँग्रेजी जानने वाले पाठकों के निर्देशन के लिए है।
मुझे प्रोफेसर जे०एस० मैकेंजी और श्री सुद्रहृण्य अय्यर को धन्यवाद देना है जिन्होंने कृपा करके पुस्तक की पाण्डुलिपी के अधिकतर भाग को पढ़ा और प्रूफ-संशोधन भी किया। इनके मैत्रीपूर्ण सत्परामर्शों से इस पुस्तक को बहुत लाभ पहुँचा। मैं प्रोफेसर ए० बैरीडेल कीथ का अत्यन्त कृतज्ञ हूँ
जिन्होंने प्रूफ-संशोधन किया और कई बहुमूल्य सुझाव भी दिये। मैं ‘लाइब्रेरी आफ फिलासफी’ के सम्पादन प्रोफेसर जे ० एच० उन्होंने इस पुस्तक की प्रेस कापी तैयार करने में तथा उससे पूर्व भी प्रदान की है उन्होंने पुस्तक की पाडुलिपी पढ़ने का कष्ट किया और उनके सुझाव तथा आलोचनाएं मेरे लिए अत्यन्त सहायक सिद्घ हुई। मैं (स्वर्गीय) सर आशुतोष मुखर्जी माइट् सी० एस ० आई० का भी अत्यन्त कृतज्ञ हूँ, क्योंकि मुझे इस कार्य के लिए निरन्तर प्रोत्साहित किया और कलकत्ता विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर विभाग में उच्चतर कार्य के लिए सब प्रकार की सुविधाएं प्रदान कीं।
क्षुधा एवं अनुराग की पुरातन शक्तियों और हृदयगत निर्दोंष उल्लास एवं भय इत्यादि मानव-प्रकृति के सनातन गुण हैं। मानव-जाति के वास्तविक हितों, धर्म के प्रति गम्भीर आवेगों और दार्शनिक ज्ञान की मुख्य-मुख्य समस्याओं आदि ने वैसी उन्नति नहीं की जैसी की भौतिक पदार्थों ने की है। मानव-मस्तिष्क के इतिहास में भारतीय विचारधारा अपना एक अत्यंन्त शक्तिशाली और भाव-पूर्ण स्थान रखती है’ महान विचारकों के भाव अभी पुराने अर्थात् अव्यवहारिक नहीं होते। प्रयुक्त वह उस उन्नति को जो उन्हें मिटाती-सी प्रतीत होती है, सजीव प्रेरणा देते हैं। कभी-कभी अत्यन्त प्राचीन भावनामयी कल्पनाएं, हमें अपने अदभुद आधुनिक रूप के कारण अचम्भे में डाल देती हैं क्योंकि ‘अन्तर्दष्टि’ आधुनिकता के ऊपर निर्भर करती है।
भारतीय विचारधारा के प्रतिपाद्य विषय के सम्बन्ध अज्ञान है। आधुनिक विचारकों की दृष्टि में भारतीय दर्शन का अर्थ है माया-अर्थात् संसार एक मायाजाल, कर्म अर्थात भाग्य का भरोसा और त्याग अर्थात तपस्या की अभिलाषा से इस पार्थिक शरीर को त्याग देने की इच्छा आदि दो-तीन ‘मूर्खतापूर्ण’ धारणाएँ मात्र, कोई गम्भीर विचार नहीं और यह कहा जाता है कि ये साधारण धारणाएं भी जंगली लोगों की शब्दावली में व्यक्त की गयी हैं,
और अव्यव्थित निरर्थक कल्पनाओं एवं वाक्प्रपंच रूपी कुहासे से आच्छादित है, जिन्हें इस देश के निवासी बुद्धि का चमत्कार मानते हैं। कलकत्ता से कन्याकुमारी तक छः मास भ्रमण करने के पश्चात् हमारा आधुनिक सौन्दर्य-प्रेमी, भारत की समस्त संस्कृति एवं दर्शन-ज्ञान को ‘सर्वेश्वरवाद’ निरर्थक ‘पाण्डित्याभिमान’, ‘शब्दों का आडम्बर मात्र’ और किसी भी हालत में प्लेटो और अरस्तू यहां तक कि प्लाटिनम और बेकन के दार्शनिक ज्ञान के तिल-भर भी सामान न होने के कारण हीन बताकर छोड़ देता है। किन्तु एक बुद्धिमान विद्यार्थी जो दर्शन-ज्ञान की प्राप्ति की अभिलाषा रखता है, भारतीय विचारधारा के अन्दर एक ऐसे अद्वितीय सामग्री-समूह को ढूंढ़ निकाला है जिसका सानी सूक्ष्म विवरण एवं विधता दोनों की दृष्टि से ही संसार के किसी भी भाग में नहीं मिल सकता।
संसार-भर में सम्भवतः आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि अथवा बौधिक दर्शन की ऐसी कोई भी ऊंचाई नहीं है कि जिसका सममूल्य पुरातन वैदिक ऋषियों और अर्वाचीन नैयायिकों के मध्यवर्ती विस्तृत ऐतिहासिक काल में पाया जाता हो। प्रोफेसर गिलबर्ट मरे एक अन्य प्रकरण में प्रयुक्त किए गए शब्दों में ‘‘प्राचीन भारत मूल में दुःखद होने पर भी विजय और एक विशिष्ट उज्जवल प्रारम्भ है जो चाहे कितनी ही संकटपूर्ण स्थिति में क्यों न हो, संघर्ष करते-करते उच्च शिखर तक पहुंचा है।’’ वैदिक कवियों की निश्छल सूक्तियां, उपनिषदों की अद्भुद सांकेतिकता, बौद्धों का विलक्षण मनोवैज्ञानिक, विश्लेषण और शंकर का विस्मय-विमुधग्कारी दर्शन, ये सब सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ऐसे ही अत्यन्त रोचक एवं शिक्षाप्रद हैं जैसेकि प्लेटो और अरस्तू अथवा कांट और हीगल के दर्शनशास्त्र हैं,
यदि हम उक्त भारतीय दर्शन-ग्रन्थों का अध्ययन एक निष्पक्ष और वैज्ञानिक भाव से करें और हमें पुराना एवं विदेशी समझकर अपमान की दृष्टि से न देखें, इन्हें हेय समझकर इससे घृणा न करें। भारतीय दर्शन की विशिष्ट परिभाषाएँ जिनका सही-सही अनुवाद भी आसानी से अंग्रेजी भाषा में नहीं हो सकता, स्वयं इस बात की साक्षी हैं कि इस देश का बौद्धिक विचार कितना अदभुद है। यदि बाह्य कठिनाइयों को दूर करके उनके ऊपर उठा जाए तो हम अनुभव करेंगे कि मानवीय हृदय की धड़कन में मानवता के नाते कोई भेद नहीं, अर्थात् वह भारतीय है कोई महत्त्व नहीं है तो भी वह ध्यान देने योग्य तो है ही, यदि और किसी दृष्टिकोण से भिन्न है और सब पर इसका प्रभाव भी स्पष्ट रूप में लक्षित होता है।
ठीक-ठीक क्रमबद्ध इतिहास के अभाव में किसी भी वृत्त को इतिहास का नाम दे देना अनुचित है और इतिहास शब्द का दुरुपयोग है। प्राचीन भारतीय दर्शनों का ठीक-ठीक समय निर्णय करने की समस्या मनोरंजक भी है एवं समाधान भी असम्भव है और इस क्षेत्र में नाना प्रकार की कल्पनाएं की गई हैं,
अदभुद रचनाओं और साहस-पूर्ण अतिशयोक्तियों को जन्म दिया गया है। खण्ड-खण्ड रूप में पृथक्-पृथक् पड़ी सामग्री में से इतिहास का निर्णय एक ओर बड़ी बाधा है। ऐसी परिस्थितियों में मुझे इस रचना को ‘भारतीय दर्शन का इतिहास’ की सज्ञा देने में हिचकिचाहट मालूम होती है।
विशेष-विशेष दर्शनों की व्याख्या करने में मैंने लेखबद्ध प्रमाणों के निकट सम्पर्क में रहने का प्रयत्न किया है, जहाँ कहीं सम्भव हो सका है उन अवस्थाओं का भी मैंने प्रारम्भिक सर्वेक्षण किया है जिनके अन्दर रहकर इन दर्शनों का आविर्भाव हुआ और यह कि किस हद तक ये भूतकाल के ऋणी हैं एवं विचार की प्रगति में इनकी देन क्या और किस रूप में हैं। मैंने केवल उक्त दर्शनों के सारभूत मूल तत्त्वों पर बल दिया है
जिससे कि ब्यौरे में जाने पर भी सम्पूर्ण दर्शन का जो मुख्य आशय है वह दृष्टि से ओझल न हो जाए, और साथ ही साथ किसी सिद्धान्त-विशेष को लेकर चलने से मैंने अपने को बचाने का प्रयत्न किया है। तो भी मुझे भय है कि मेरे आशय के विषय में किसी को भ्रम न हो। इतिहासलेखक का कार्य, विशेष करके दर्शन के विषय में, बड़ा कठिन है। वह चाहे कितना ही केवल ऐतिहासिक घटनाओं को लेखबद्ध करने कर सीमा में रहने का प्रयत्न करे, जिससे कि इतिहास को स्वयं अपने को खोलकर अपना आशय निरन्तरता, भूलों की समीक्षा एवं आंशिक अन्तदृष्टि को प्रकट करने का अवसर प्राप्त हो सके, तो भी लेखक का अपना निर्णय एवं सहानुभूतिदेर तक छिपी नहीं रह सकती।
इसके अतिरिक्त भी भारतीय दर्शन के विषय में एक अन्य कठिनाई उपस्थित होती है। हमें ऐसी टीकाएँ मिलती हैं जो पुरानी होने पर भी काल की दृष्टि से मूल ग्रन्थ के अधिक निकट हैं। इसलिए अनुमान किया जाता है कि वे ग्रन्थ के सन्दर्भ पर प्रकाश डाल सकती हैं। किन्तु जब टीकाकार परस्पर-विरोधी मत रखते हैं
तब लेखक विरोधी व्याख्याओं के विषय में अपना निर्णय दिए बिना चुप भी भले नहीं बैठ सकता। इस प्रकार की निजी सम्मतियों को प्रकट किए बिना, जो भले ही कुछ हानिकारक हों, रहा भी नहीं जा सकता।
सफल व्याख्या में तात्पर्य समीक्षा और मूल्याकन से है मैं समझता हूं कि एक न्याय युक्तियुक्त एवं निष्पक्ष वक्तव्य दे सकने के लिए समीक्षा से बचना आवश्यक भी नहीं है। मैं एकमात्र यह आशा करता हूँ कि इस विषय पर शान्त और निष्पक्ष भाव से विचार किया जाएगा, और इस पुस्तक में और चाहे जो भी त्रुटियाँ रह गई हों, तथ्यों को पूर्वनिर्धारित सम्मति के अनुकूल बनाने के लिए तोड़ा-मरोड़ा नहीं गया है।
मेरा लक्ष्य भारतीय मतों को बतलाते का उतना नहीं है जितना कि उनकी इस प्रकार से व्याख्या करने का है जिससे वे पश्चिमी दो विभिन्न विचारधाराओं में जिन दृष्टान्तों और समानताओं को प्रस्तुत किया गया है उन पर अधिक बल देना ठीक नहीं है। क्योंकि भारतीय दार्शनिक कल्पनाओं की उत्पत्ति शताब्दियों पूर्व हुई है, जिस समय उनकी पृष्ठभूमि में आधुनिक विज्ञान की उज्जवल उपलब्धियों नहीं थीं।
भारतवर्ष, एवं यूरोप और अमरीका में अनेक मेधावी विद्वानों ने भारतीय दर्शन के विशेष-विशेष भागों का बहुत सावधानी एवं सम्पूर्णता के साथ अध्ययन किया है। दार्शनिक साहित्य के कुछ विभागों की समीक्षात्मक दृष्टि से समीक्षा की गई है किन्तु भारतीय विचार के इतिहास को अविभक्त एवं सम्पूर्ण इकाई के रूप में प्रतिपादित करने का कोई प्रयत्न नहीं हुआ और न ही उसके सतत विकास का प्रतिपादन किया गया जिसके बिना विभिन्न विचारकों व उनके मतों को पूर्णरूप से नहीं समझा जा सकता। भारतीय दर्शन के विकास के इतिहास को उसके प्रारम्भिक अस्पष्ट इतिहास से लेकर विशद रूप में लाना एक अत्यधिक कठिन कार्य है और अकेले इस, कार्य को कर सकना किसी अत्यन्त परिश्रमी व बहुश्रुत विद्वान की भी पहुँच से बाहर की बात है। इस प्रकार से सर्वमान्य भारतीय दर्शन के विश्वकोष का निर्माण करने में न केवल विशेष रूचि और पूरी लगन की अपितु व्यापक संस्कृति और प्रतिभा सम्पन्न विद्वानों के परस्पर सहयोग की भी आवश्यकता है। पुस्तक का दावा इससे अधिक और कुछ नहीं है कि यह भारतीय विचार का एक साधारण सर्वेक्षणमात्र है एवं इसे विस्तारपूर्वक विषय की रूपरेखा मात्र ही कहना अधिक उपयुक्त होगा। लेकिन यह कार्य भी बिल्कुल सरल है। आवश्यक विचार-विमर्श से इतिहासलेखन के ऊपर एक बड़े उत्तरदायित्व का भार आ पड़ता है जो इस दृष्टि से और भी महत्वपूर्ण है कि कोई एक व्यक्ति अध्ययन के इन सब विविध क्षेत्रों के विषय में अधिकारपूर्वक नहीं कह सकता और इसलिए लेखक को बाध्य होकर ऐसे प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर ही अपना निर्णय देने के लिए बाध्य होना पड़ता है जिनके मूल्य का वह स्वयं सावधानी के साथ निर्णय नहीं कर सकता। काल-निर्णय के विषय में मैंने योग्य विद्वानों के अनुसन्धानों के परिणामों पर ही लगभग पूर्णतः निर्भर किया है। मुझे इस बात का पूरा ज्ञान है
कि इस विस्तृत क्षेत्र का सर्वेक्षण करने में बहुत कुछ आवश्यक विषय अछूत ही रह गया है और जिसका प्रतिपादन हुआ है वह भी साधरण रूप में ही आ सका है। यह पुस्तक किसी भी अर्थ में पूर्ण होने का दावा नहीं कर सकती। इस पुस्तक में केवल मुख्य-मुख्य परिणामों का साधारण दिग्दर्शनमात्र किया गया है जिससे कि ऐसे व्यक्तियों का जो इस विषय में सर्वथा अनभिज्ञ हैं, कुछ ज्ञान प्राप्त हो सके और जहां तक सम्भव हो कुछ हद तक उनके अन्दर इसके प्रति रुचि जागरित हो सके, जिस कार्य के लिए यह सर्वथा उपयुक्त है। यदि इस विषय में यह असफल भी रहे तो भी अन्य प्रयासों को इससे सहायता एवं प्रोत्साहन तो प्राप्त हो ही सकेगा।
प्रारम्भ में मेरी योजना दोनों खंडों को एक साथ प्रकाशित करने की थी किन्तु प्रोफेसर जे० एस० मैकेंज़ी जैसे मेरे कृपालु मित्रों ने मुझे सुझाव दिया कि प्रथम खंड तुरन्त प्रकाशित कर देना चाहिए। चूंकि दूसरे खंड को तैयार करने में कुछ समय लगेगा और पहला खंड अपने-आप में पूर्ण है,
इसलिए इसे मैं रूप से प्रकाशित कर रहा हूं। इस खंड में जिन मन्तव्यों का विवेचन किया गया है, उनकी विशेषता यह है कि भौतिक अस्तित्व की समस्याओं की तार्किक भावनाओं द्वारा व्याख्या करने की अपेक्षा इस, विषय पर अधिक ध्यान दिया गया है कि जीवन में उनकी क्रियात्मक आवश्यकता का समर्थन किया जाय।
ऐसे विषयों पर जिनका रूप पाठकों की दृष्टि में दार्शनिक की अपेक्षा धार्मिक अधिक है, विचार करने से ही नहीं बचा जा सकता था, क्योंकि प्राचीन भारतीय कल्पनाओं में धर्म और दर्शन का बहुत निकट सम्बन्ध रहा है। परन्तु दूसरे खंड में अधिकतर विशुद्ध दार्शनिक विषय पर ही विचार किया जाएगा, क्योंकि दर्शनशास्त्रों में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध को भी भुलाया नहीं जा सकता।
यहां पर मुझे उन कतिपय प्राच्यविद्या-विशारदों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए हर्ष होता है जिनके ग्रंन्थों से मुझे अपने अध्ययन में बहुत सहायता मिली है। उन सबके नामों का उल्लेख सम्भव नहीं है जो स्थान-स्थान पर इस पुस्तक में आएंगे। किन्तु निश्चय ही मैक्समूलर, डयूसन, कीथ, जैकोबी गार्बें तिलक, भण्डारकर, रीज डेविड्स एवं श्रीमती रीज़ डेविड्स ओल्डे्नबर्ग, पूसीं, सुजुकी और सोजोन के नाम का उल्लेख आवश्यक है।
कितने ही अन्य अमूल्य ग्रन्थ जो हाल में प्रकाशित हुए हैं तथा प्रोफेसर दासगुप्त का ‘भारतीय दर्शन का इतिहास’ और सर चार्ल्स का विन्दूइज़िम ऐंड बुद्धिज़्म,’ मुझे विलम्ब से प्राप्त हुए, जबकि इस पुस्तक पाण्डुलिर पूर्ण की जाकर प्रकाशकों के पास दिसम्बर, 1921 में भेजी जा चुकी थी। प्रत्येक अध्ययन के अन्त में दी गई ग्रन्थसूची अपने-आपसे पूर्ण नहीं है। यह केलव अँग्रेजी जानने वाले पाठकों के निर्देशन के लिए है।
मुझे प्रोफेसर जे०एस० मैकेंजी और श्री सुद्रहृण्य अय्यर को धन्यवाद देना है जिन्होंने कृपा करके पुस्तक की पाण्डुलिपी के अधिकतर भाग को पढ़ा और प्रूफ-संशोधन भी किया। इनके मैत्रीपूर्ण सत्परामर्शों से इस पुस्तक को बहुत लाभ पहुँचा। मैं प्रोफेसर ए० बैरीडेल कीथ का अत्यन्त कृतज्ञ हूँ
जिन्होंने प्रूफ-संशोधन किया और कई बहुमूल्य सुझाव भी दिये। मैं ‘लाइब्रेरी आफ फिलासफी’ के सम्पादन प्रोफेसर जे ० एच० उन्होंने इस पुस्तक की प्रेस कापी तैयार करने में तथा उससे पूर्व भी प्रदान की है उन्होंने पुस्तक की पाडुलिपी पढ़ने का कष्ट किया और उनके सुझाव तथा आलोचनाएं मेरे लिए अत्यन्त सहायक सिद्घ हुई। मैं (स्वर्गीय) सर आशुतोष मुखर्जी माइट् सी० एस ० आई० का भी अत्यन्त कृतज्ञ हूँ, क्योंकि मुझे इस कार्य के लिए निरन्तर प्रोत्साहित किया और कलकत्ता विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर विभाग में उच्चतर कार्य के लिए सब प्रकार की सुविधाएं प्रदान कीं।
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