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भारतीय दर्शन - भाग 2

सर्वपल्ली राधाकृष्णन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :696
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2689
आईएसबीएन :9788170281887

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प्रस्तुत ग्रंथ प्रख्यात भारतीय दार्शनिक तथा पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन के विश्वविद्यालय ग्रंथ ‘इंडियन फिलॉसफी’ का प्रमाणिक अनुवाद है। उसका यह द्वितीय खण्ड है।

Bhartiya Darshan Part 2- a hindi book by Dr. Sarvpalli Radhakrishnan - भारतीय दर्शन भाग-2 - सर्वपल्ली राधाकृष्णन

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय दर्शन (2) डॉ. एस. राधाकृष्णन के महत्त्वपूर्ण दर्शन-ग्रंथ ‘इंडियन फिलॉसफी’ के दूसरे खंड के अनुवाद है। इस विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ में लेखक ने बौद्धिक काल के अन्तिम चरण अर्थात हिन्दू-धर्म-पुनर्जागरण-काल से आज तक के भारतीय-दर्शन के विकास का विशद विवेचना और अध्ययन प्रस्तुत किया है। विशेततः षड्दर्शन के छहों अंगों पर मध्ययुग के पहले और बाद के हिन्दु धर्म के व्याख्याओं की स्थापनाएं यहाँ प्रतिपादित हुई हैं। इन मनीषियों की स्थापनाओं की दर्शनिक विशिष्टताओं को विश्व के अन्य दार्शनिकों के मतों की तुलना में रखते हुए लेखक ने भारतीय धर्म और दर्शन की वैज्ञानिकता और जीवन के साथ उनकी संगति को बहुत ही उदात्त और निष्पक्ष रूप से दर्शाया है। पुस्तक के अन्तिम अंश में समपूर्ण दर्शन वाड्मय पर लेखक के समन्वयात्मक विचार प्रस्तुत किए गए हैं। डॉ. एस. राधाकृष्णन की विद्वता और उनकी लेखन शैली की मौलिकता की विश्व के विद्वानों ने प्रशंसा की है। प्रस्तुत ग्रंथ उन सारी विशेषताओं से युक्त विशिष्ट कृति है।

प्रस्तावना

इस खण्ड में भी, जिसका प्रतिपाद्य विषय वैदिक दर्शन षड्दर्शन का विवेचन है, मैंने पहले खण्ड जैसी ही योजना तथा विधि अपनाई है। इसके अतिरिक्त, मैंने उस भावना को भी अपनाने का प्रयत्न किया है जो दार्शनिक व्याख्या के लिए उचित मानी गई है, अर्थात प्राचीन लेखकों तथा उनके विचारों की सुचारू व्याख्या करके उन्हें दर्शन तथा धर्म संबन्धी आज के विचारणीय विषयों के संदर्भ में रखना। वाचस्पति मिश्र ने, जो हिन्दू विचार धारा के लगभग सभी दर्शनों के टीकाकार हैं, प्रत्येक पर अपनी लेखनी का जिस प्रकार प्रयोग किया है उससे प्रतीत होता है मानो वे उनके सिद्धान्तों में भी विश्वास रखते हैं। विचारधारा की उन प्रवृत्तियों को जो प्राचीन काल में परिपक्वता को पहुँची थीं और जो उनके दुर्बोध ग्रंथों में लिपिबद्ध हैं, बुद्धिपूर्वक करने में यह आवश्यक हो गया कि विशेष दृष्टिकोणों को चुना जाए, उन पर बल दिया जाए और उनकी आलोचना तक की जाए। यह कार्य, स्वभावतः यह प्रकट कर देता है कि मेरी अपनी विचारधारा किस दिशा में चल रही है। इस प्रकार के कार्य में क्योंकि विवरण-संबंधी अनेक प्रकार के निर्णयों का समावेश रहता है, अतः यह आशा नहीं की जा सकती की यह पुस्तक निर्णय-संबंधी भूलों से मुक्त होगी। किन्तु मैंने प्रमाणों में किसी प्रकार की उलट-फेर करने से बचते हुए, केवल विषयपरक प्रतिपादन का ही प्रयत्न किया है।

मैं यहाँ इस बात को दोहरा देना आवश्यक समझता हूँ कि मेरे विषय प्रतिपादन को सर्वथा पूर्ण न मान लेना चाहिए। क्योंकि लगभग प्रत्येक अध्याय में जितने विषय का प्रतिपादन है, उसके अध्ययन के लिए एक पूर्णतः सन्नद्ध विशेषज्ञ अपना पूरा जीवन लगा देता है। विशिष्ट दर्शनों के ब्योरेवार विवेचन के लिए पृथक् निबन्धों की आवश्यकता है। मेरे कार्य का क्षेत्र सीमित है, अर्थात विविध विचारधाराओं के आन्दोलनों की उनकी प्रेरक भावनाओं और उनके परिणामों की एक मोटी रूपरेखा तैयार करना।

भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के अल्प-महत्व के लेखकों में परस्पर जो गौण मतभेद पाए जाते हैं, उनको दर्शाने की मैंने वस्तुतः कोई चेष्टा नहीं की है। शैव, शाक्त परवर्ती वैष्णव दर्शन के संबन्ध में, जो भारत के दार्शनिक विकास की अपेक्षा धार्मिक इतिहास से अधिक संबंध रखते हैं, मेरा विवेचन बहुत संक्षिप्त तथा सार-मात्र है। यदि मैं प्रकल्पनात्मक भारतीय विचारधारा के नाना रूपों की वास्तविक भावना का एक चित्र, जो भले ही अपर्याप्त हो, अपने पाठकों के सम्मुख रख सका तो मुझे पूर्ण संतोष हो जाएगा।

यदि यह पहले खण्ड की अपेक्षा कुछ कठिन है तो मैं आशा करता हूँ कि पाठक अनुभव करेंगे कि कठिनाई का निर्माता मैं नहीं हूँ, बल्कि कुछ सीमा तक यह कठिनाई विषयगत है और गंभीर विवेचन के कारण है जो विषय के अध्ययन के लिए आवश्यक है। मैंने अनुभव किया कि तथ्यों के पुँज को एक ऐसे विशद आख्यान में समोकर रखना, जिसे पाठक सम्भ्रम में पड़े बिना और बिना उकताए समझ सके , ऐसा कार्य है जिसे पहले से मापना मेरे लिए संभव नहीं था। शैथिल्य तथा पाण्डित्याभिमान के बीच में से माध्यम मार्ग का अवलम्बन करके चलने में मैं कहाँ तक सफल हो सका हूँ, इसका निर्णय पाठक करेंगे। साधारण पाठक के सुभीते विचार से अधिक परिभाषिक अथवा सन्दर्भ-समबन्धी वाद-विवाद ऊपर और नीचे कुछ स्थान छोड़कर पृथक रूप से दिए गए हैं।

इस खण्ड के संकलन में मुझे विविध सम्प्रदाओं के संस्कृत के संदर्भों से ही नहीं, बल्कि ड्यूसन और कीथ, थिबौत और गार्ब, गंगानाथ झा और प्रभृति विद्वानों के लेखों से भी बहुत सहायता मिली है। मैं अपने मित्रों, श्रीयुत बी. सुब्रह्मण्य ऐयर तथा प्रोफेसर जे. एस. मैकेंजी का अत्यन्त कृतज्ञ हूं। क्योंकि इन्होंने पुस्तक की पाण्डुलिपि और प्रूफ के अनेक भागों को देखने का कष्ट किया तथा अनेकों मूल्यवान सुझाव दिए। प्रोफेसर ए. बेरीडेल कीथ ने प्रूफ देखने की कृपा की और इनकी समालोचनाओं से पुस्तक को बहुत लाभ हुआ। मुझे पुस्तक के प्रधान सम्पादक प्रोफेसर जे. एच. म्यूरहेड को भी हार्दिक धन्यवाद देना है, जिन्होंने प्रथम खण्ड के समान ही, इस खण्ड के लिए भी अपना बहुत समय और चिन्तन प्रदान किया। यदि इनकी उदार सहायता प्राप्त न होती तो इस पुस्तक में जो त्रुटियां रह गई हैं उनसे कहीं अधिक रह जातीं।

-राधाकृण्णन

वैदिक षड्दर्शन

पहला अध्याय
विषय-प्रवेश

दर्शनशास्त्रों का प्रदुर्भाव-वेदों के साथ
सम्बन्ध –सूत्र साहित्य- सामान्य विचारधाराएं।

1 दर्शनशास्त्रों का प्रादुर्भाव

भारत में हमें बौद्धकाल में दार्शनिक, चिन्तन की प्रगति, साधारणतः किसी ऐतिहासिक परंपरा पर होनेवाले किसी प्रबल आक्रमण के कारण ही सम्भव होती है, जब कि मनुष्य-समाज पीछे लौटने को और उन मूलभूत प्रश्नों को एक बार फिर उठाने के लिए बाध्य हो जाता है जिनका समाधान उसके पूर्वपुरुषों ने प्राचीनतर योजनाओं के द्वारा किया था। बौद्ध तथा जैन धर्मों के विप्लव ने वह, विप्लव अपने-आप में चाहे जैसा भी था, भारतीय विचारधारा के क्षेत्र में एक विशेष ऐतिहासिक युग का निर्माण किया, उसने कट्टरता की पद्धति को अन्त में उड़ाकर ही दम लिया तथा एक समालोचनात्मक दृष्टिकोण को उत्पन्न करने में सहायता दी। महान् बौद्ध विचारकों के लिए तर्क ही ऐसा मुख्य शस्त्रसागर था जहां सार्वभौम खंडनात्मक समालोचना के शस्त्र गढ़कर तैयार किए गए थे। बौद्ध धर्म ने मस्तिष्क को पुराने अवरोधों के कष्टदायक प्रभावों से मुक्त करने में विरेचन का काम किया है।

वास्तविक तथा जिज्ञासा-भाव से निकाला हुआ संशयवाद विश्वास को उसकी स्वाभाविक नीवों पर जमाने में सहायक होता है। नीवों को अधिक गहराई में डालने की आवश्यकता का ही परिणाम महान् दार्शनिक हलचल के रूप में प्रकट हुआ, जिसने छः दर्शनों को जन्म दिया जिनमें काव्य तथा धर्म का स्थान विश्लेषण और शुष्क समीक्षा ने लिया रूढ़िवादी सम्प्रदाय अपने विचारों को संहिताबद्ध करने तथा उसकी रक्षा के लिए तार्किक प्रमाणों का आश्रय लेने को बाध्य हो गए। दर्शनशास्त्र का समीक्षात्मक पक्ष उतना ही महत्त्वपूर्ण हो गया है कि जितना कि अभी तक प्रकल्पनात्मक पक्ष था। दर्शनकाल से पूर्व के दार्शनिक मतों द्वारा अखण्ड विश्व के सम्बन्ध में कुछ सामान्य विचार तो अवश्य प्राप्त हुए थे, किन्तु यह अनुभव नहीं हो पाया था कि किसी भी सफल कल्पना का आधार ज्ञान का एक समीक्षात्मक सिद्धान्त ही होना चाहिए। समालोचकों ने विरोधियों को इस बात के लिए विवश कर दिया कि वे अपनी प्रकल्पनाओं की प्रामाणिकता किसी दिव्य ज्ञान के सहारे सिद्ध न करें, बल्कि ऐसी स्वाभाविक पद्धतियों द्वारा सिद्ध करें जो जीवन और अनुभव पर आधारित हों कुछ ऐसे विश्वासों के लिए, जिनकी हम रक्षा करना चाहते हैं, हमारा मापदण्ड शिथिल नहीं होना चाहिए।

इस प्रकार आत्मविद्या अर्थात् दर्शन को अब आन्वीक्षिकी1 अर्थात् अनुसंधानरूपी विज्ञान का सहारा मिल गया। दार्शनिक विचारों का तर्क की कसौटी पर इस प्रकार कसा जाना स्वाभावतः कट्टरतावादियों को रुचिकर नहीं हुआ।2 श्रद्धालुओं को यह निश्चित ही निर्जीव लगा होगा, क्योंकि अंतः- प्रेरणा के स्थान पर अब आलोचनात्मक तर्क आ गया था। चिन्तन की उस शक्ति का स्थान जो सीधी जीवन और अनुभव से फूटती है, जैसी कि उपनिषदों में, और आत्मा की उस अलौकिक महानता का स्थान जो परब्रह्म का दर्शन और गान करती है, जैसा कि भगवद्गीता में है, कठोर दर्शन ले लेता है। इसके अतिरिक्त, तर्क की कसौटी पर पुरानी मान्यताएं निश्चित ही खरी उतर सकेंगी यह भी निश्चितरूप से नहीं कहा जा सकता था। इतने पर भी उस युग की सर्वमान्य भावना का आग्रह था कि प्रत्येक ऐसी विचार धारा को, जो तर्क की कसौटी पर खरी उतर सके ‘दर्शन’ के नाम के ग्रहण करना चाहिए। इसी कारण उन तभी तर्कसम्मत प्रयासों को जो विश्व के सम्बन्ध में फैली विभिन्न बिखरी हुई धारणाओं को कुछ महान् व्यापक विचारों में समेटने के लिए किए गए, दर्शन की संज्ञा दी गई।3 ये समस्त प्रयास हमें सत्य के किसी अंश को अनुभव कराने में सहायक सिद्ध होते हैं। इससे यह विचार बना कि प्रकट रूप में पृथक् प्रतीत होते हुए भी, ये सब दर्शन वस्तुतः एक ही बृहत् ऐतिहासिक योजना के अंग हैं। और जब तक हम इन्हें स्वत्रन्त्र समझते रहेंगे, तथा ऐतिहासिक समन्वय में इनकी स्थिति पर ध्यान नहीं देंगे, तब हम इनकी वास्तविकता को पूर्णरूप से हृदयंगम नहीं कर सकते।

2. वेदों के साथ सम्बन्ध

तर्क की कसौटी को स्वीकार कर लेने पर काल्पनिक मान्यताओं के प्रचारकों का विरोध नरम पड़ गया और उससे यह स्पष्ट हो गया कि उनका आधार उतना सशक्त व सुदृढ़ नहीं था और उन विचारधाराओं को दर्शन का नाम देना भी ठीक नहीं था। किन्तु भौतिकतावादियों, संशयवादियों और कतिपय बौद्ध धर्मानुयायियों के विध्वंसात्मक जोश ने

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1. न्यायभाष्य, 1: 1, 1; मनु, 7 : 43। कौटिल्य (लगभग 300 ई० पू०) का कहना है कि आन्वीक्षिकी विद्यालय की एक अलग ही शाखा है और अन्य तीन शाखाओं, त्रयी अर्थात वेदों, वार्ता, अर्थात् वाणिज्य और दण्डनीय और राजनीति या कूटनीति के अतिरिक्त है (1:2)। ई० पू० छठी शताब्दी, जबकि इसके विशेष अध्ययन की आवश्यकता अनुभव की गई, भारत में एक क्रम-बद्ध दर्शन-पद्धिति के आरम्भ के लिए प्रसिद्ध है और ई० पू० पहली शताब्दी तक आन्वीक्षिकी नाम के स्थान पर ‘दर्शन’ शब्द प्रयुक्त होने लगा (देखिए, महाभरत, शान्तिपर्व, 10: 45; ‘भागवतपुराण’, 8: 14, 10)। प्रत्येक जिज्ञासा संशय को लेकर ही प्रारम्भ होती है और एक आवश्यकता की पूर्ति करती है। तुलना कीजिए—जिज्ञासाया सन्देहप्रयोजने सूचयति (‘भामति’ 1:1,1)।
2. रामायण में आन्वीक्षिकी को निन्दित माना गया है, क्योंकि यह मनुष्यों को धर्मशास्त्रों की आज्ञाओं से विमुख करती है (2:100;36)। (महाभारत, शान्तिपर्व; 180 :47-49; 246-8)। मनु के अनुसार ऐसे व्यक्तियों का जो तर्क (हेतुशास्त्र) द्वारा पथभ्रष्ट होकर वेदों तथा धर्मसूत्रों का अनादर करते हैं, बहिष्कार करना चाहिए (2:11); फिर भी गौतम अपने धर्मसूत्र (11) में और मनु (7:43), राजाओं के लिए आन्वीक्षिकी के एक पाठ्यक्रम का विधान करते हैं। तार्किकों को विधान सभाओं में सम्मिलित किया जाता था। तर्क जब धर्मशास्त्र का समर्थन करता है तो उसकी प्रशंसा होती है। व्यास का दावा है कि उन्होंने आन्वीक्षिकी द्वारा वेदों की व्यवस्था की (न्यायसूत्रवृत्ति, 1:1)।
3. माधव : सर्वदर्शनसंग्रह।

निश्चयात्मक ज्ञान के आधार को ही नष्ट कर दिया। हिन्दू मानस इस निषेधात्मक परिणाम को कभी शांति से ग्रहण नहीं कर पाया। मनुष्य संशयवादी रह कर निर्वाह नहीं कर सकता। निरे बौद्धिक द्वन्द से ही काम नहीं चल सकता। वाद-विवाद का स्वाद मानव की आत्मिक भूख को शान्त नहीं कर सकता। ऐसे शुष्क तर्क से कुछ लाभ नहीं जो हमें किसी सत्य तक न पहुँचा सके। यह असम्भव था कि उपनिषदों के ऋषियों जैसे आत्मननिष्ठ महात्माओं की आशाएँ और महत्वकांक्षाएँ, तार्किक समर्थन के आभाव में यों ही नष्ट नहीं हो जाती। और यह भी असंभव था कि शताब्दियों के संघर्ष और चिंतन से भी मानव समस्या के समाधान की दिशा में कुछ आगे न जाता। एक मात्र निराशा में ही उसका अन्त नहीं होने दिया जा सकता। तर्क को भी अन्ततोगत्वा श्रद्धा का ही आश्रय ढूंढ़ना पड़ता है। उपनिषदों के ऋषि पवित्र ज्ञान के शिक्षणालय के महान शिक्षक हैं। वे हमारे आगे ब्रह्मज्ञान व आध्यात्मिक जीवन की सुन्दर व्याख्या रखते हैं। यदि निरे तर्क से मानव यथार्थ सत्य की प्राप्ति नहीं कर सकता तो निश्चय ही उसे उन ऋषियों के महान लेखों की सहायता प्राप्त करनी चाहिए, जिन्होंने आध्यात्मिक ध्रुव सत्य को प्राप्त करने का दावा किया है। इस प्रकार जो कुछ श्रद्धा के द्वारा स्वीकार किया गया था उसकी वास्तविकता को तर्क द्वारा सिद्ध करने के प्रबल प्रयास किए गए। यह ढंग बुद्धि, संगत नहीं हो, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि दर्शन उस प्रयास का ही दूसरा नाम है जो मानव समाज के बढ़ते हुए अनुभव की व्याख्या के लिए किया जाता है। किन्तु जिस खतरे से हमें सावधान रहना होगा वह यह है कि कहीं श्रद्धा को ही दार्शनिक विज्ञान का परिणाम स्वीकार न कर लिया जाए।

सब दर्शनों में छः दर्शन अधिक प्रसिद्ध हुए-महर्षि गौतम का ‘न्याय’, कणाद का ‘वैशेषिक’, कपिल का ‘सांख्य’, पतंजलि का ‘योग’, जैमिनि की पूर्व मीमांसा अथवा ‘वेदान्त’।2 ये सब वैदिक दर्शन के नाम से जाने जाते हैं, क्योंकि ये वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करते हैं। जो दर्शन वेदों की प्रमाणिकता को स्वीकार करते हैं वे आस्तिक कहलाते हैं और जो स्वीकार नहीं करते उन्हें नास्तिक की संज्ञा दी गई है। किसी भी दर्शन का आस्तिक या नास्तिक होना परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने पर निर्मम न होकर वेदों की प्रमाणिकता को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने पर निर्भर है।2 यहाँ तक की बौद्ध धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों का भी उद्गम उपनिषदों में है; यद्यपि उन्हें सनातन धर्म नहीं माना जाता है, क्योंकि वे वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करते। कुमारिल भट्ट, जिनकी सम्मति इन विषयों में प्रामाणिक समझी जाती है, स्वीकार करते हैं कि बौद्ध दर्शनों ने उपनिषदों से प्रेरणा ली है, और वे यह युक्ति देते हैं कि इनका उद्देश्य अत्यन्त विषय-भोग पर रोकथाम लगाना था। वे यह भी घोषणा करते हैं कि ये सब प्रामाणिक दर्शन हैं।3
वेद को स्वीकार करने का अर्थ यह है कि आध्यात्मिक अनुभव से इन सब विषयों में शुष्क तर्क की अपेक्षा अधिक प्रकाश मिलता है।

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