भारतीय जीवन और दर्शन >> उपनिषदों का संदेश उपनिषदों का संदेशसर्वपल्ली राधाकृष्णन
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इस पुस्तक में 18 उपनिषदों का बड़े सरल और स्पष्ट ढंग से वर्णन किया गया है.....
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
भारतीय दर्शन में उपनिषदों के चिन्तन की गहरी छाप है। उपनिषदों मानव जीवन
के सभी आधार भूत विषयों को अपने विचार का विषय बनाती हैं। विश्वविख्यात
दार्शनिक डॉक्टर राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक में भारतीय दर्शन के विविध
पक्षों का मानक विवेचन प्रमुख अठारह उपनिषदों (ईश, केन, मठ, प्रश्न,
मुण्डक, माण्डूक्य, श्वेताश्वतर, कौषीतकी, छान्दोग्य, बृहदारण्डक आदि।) के
विचारों को बड़े सरल और स्पष्ट ढंग से प्रस्तुत किया है। पढ़ने और मनन
करने योग्य अन्युपयोगी ग्रन्थ।
प्रकाशकीय
‘उपनिषदों का संदेश’ डा. राधाकृष्णन की अंग्रेज़ी पुस्तक ‘दि प्रिंसिपल उपनिषद्स’ की भूमिका का हिन्दी अनुवाद है।
प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान लेखक ने उपनिषदों की संख्या, काल और रचयिता आदि के संबंध में तो चर्चा की ही है, परन्तु मुख्यतयाः उपनिषदें हमें क्या संदेश देती हैं, इसका विषद वर्णन किया है। आत्मा और परमात्मा का संबंध, विद्या और अविद्या का भेद, कर्म और पुनर्जन्म के संबंध में बहुत ही युक्तिसंगत ढंग से उपनिषदों का मंतव्य बताया है। एक तरह से सभी उपनिषदों के मुख्य मंतव्यों का सार-संक्षेप आप इस पुस्तक में पाएंगे।
प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान लेखक ने उपनिषदों की संख्या, काल और रचयिता आदि के संबंध में तो चर्चा की ही है, परन्तु मुख्यतयाः उपनिषदें हमें क्या संदेश देती हैं, इसका विषद वर्णन किया है। आत्मा और परमात्मा का संबंध, विद्या और अविद्या का भेद, कर्म और पुनर्जन्म के संबंध में बहुत ही युक्तिसंगत ढंग से उपनिषदों का मंतव्य बताया है। एक तरह से सभी उपनिषदों के मुख्य मंतव्यों का सार-संक्षेप आप इस पुस्तक में पाएंगे।
प्रकाशक
दो शब्द
मानव-स्वभाव सर्वथा अपरिवर्तनीय नहीं है, फिर भी उसमें पर्याप्त स्थायित्व
है। इसीलिए प्राचीन क्लासिक ग्रन्थों का अध्ययन उपयोगी रहता है। विज्ञान
और औद्योगिकी की आश्चर्यजनक उपलब्धियां मानव-जीवन और नियति की समस्याओं को
समाप्त नहीं कर पाई हैं। और उन समस्याओं के जो समाधान प्रस्तुत किए गए थे,
वे यद्यपि अभिव्यक्ति की अपनी शैलियों में उस काल और वातावरण से प्रभावित
थे, पर वैज्ञानिक ज्ञान और आलोचना की प्रगति का उन पर कोई गम्भीर प्रभाव
नहीं पड़ा है। एक विचारशील प्राणी होने के नाते, मनुष्य पर अपने को पूर्ण
करने, वर्तमान को अतीत और भविष्य से जोड़ने, काल में जीने के साथ-साथ
नित्य में भी जीने का जो दायित्व है, वह अब तीव्र और अत्यावश्यक हो गया
है। उपनिषदें, समय की दृष्टि से हमसे सुदूर होते हुए भी, अपने चिन्तन में
सुदूर नहीं हैं। वे जाति और भौगोलिक स्थिति के भेदों से ऊपर उठने वाली
मानव आत्मा की प्रारम्भिक अन्तःप्रेरणाओं की क्रिया को उजागर करती हैं।
सभी ऐतिहासिक धर्मों का केन्द्र कुछ आधारभूत आध्यात्मिक अनुभव रहे हैं, जो
कहीं कम और कहीं अधिक स्पष्टता के साथ व्यक्त हुए हैं। उपनिषदें इन्हीं
मूल अनुभवों को चित्रित और आलोकित करती हैं।
वाल्ट व्हिटमैन ने कहा था, ‘‘ये वस्तुतः सभी युगों और सभी देशों के लोगों के विचार हैं, ये केवल मेरे नहीं है। ये जितने मेरे हैं यदि उतने ही आपके नहीं हैं, तो ये व्यर्थ हैं या लगभग व्यर्थ हैं।’’ उपनिषदों ने उन प्रश्नों को लिया है जो मनुष्य के मन में उस समय उठते हैं जब वह गम्भीरता से चिन्तन करने लगता है, और वे उनके ऐसे उत्तर देने का प्रयास करती हैं जो, जिन उत्तरों को हमारा मन आज स्वीकार करना चाहता है, उनसे बहुत भिन्न नहीं हैं। जो भिन्नता दिखाई देती है, वह केवल उनके प्रति हमारी पहुंच की और उन पर दिए जाने वाले ज़ोर की है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उपनिषदों का संदेश, जो जितना सत्य तब था उतना ही आज भी है, हमें सृष्टि-रचना और मानव-शरीर-क्रिया विज्ञान के बारे में उनकी विभिन्न कल्पनाओं के प्रति भी प्रतिबद्ध करता है। हमें उपनिषदों के संदेश और उनकी पौराणिक कल्पना के बीच भेद करना चाहिए। विज्ञान के प्रगति के साथ पौराणिक कल्पना को शुद्ध किया जा सकता है। और यह पौराणिक कल्पना भी उस समय समझ में आने लगती है जब हम चीज़ों को यथासम्भव उस दृष्टिकोण से देखने का प्रयत्न करते हैं जो कि कल्पना करने वालों का रहा था। उपनिषदों के जो अंश हमें आज नगण्य, दुरूह और प्रायः निरर्थक लगते हैं, वे जब उनकी रचना हुई तब अर्थ और मूल्य रखते होंगे।
उपनिषदों को जो भी मूल संस्कृत में पढ़ता है, वह मानव-आत्मा और परम सत्य के गुह्य और पवित्र सम्बन्धों को उजागर करने वाले उनके बहुत-से उद्गारों के उत्कर्ष, काव्य और प्रबल सम्मोहन से मुग्ध हो जाता है और उसमें बहने लगता है। हम जब उन्हें पढ़ते हैं तो इन चरम प्रश्नों से जूझने वाले व्यक्तियों के मन की असाधारण क्षमता, तत्परता और परिपक्वता से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। इन समस्याओं को सुलझाने वाली आत्माओं का सभ्यता के सर्वोच्च आदर्शों से आज भी तात्त्विक तालमेल है और सदा रहेगा।
उपनिषदें वह नींव हैं जिस पर करोड़ों मनुष्यों के विश्वास आधारित रहे हैं, और वे मनुष्य हमसे कोई बहुत हीन नहीं थे। मनुष्य के लिए उसके अपने इतिहास से अधिक पवित्र और कुछ नहीं है। कम से कम अतीत के स्मारकों की हैसियत से ही उन पर हमें पूरा ध्यान देना चाहिए।
उपनिषदों के कुछ ऐसे अंश हैं जो अपनी पुनरुक्ति के कारण, या हमारी दार्शनिक और धार्मिक आवश्यकताओं के संगत न होने के कारण, हममें अरुचि पैदा करते हैं। परन्तु यदि हम उनके विचारों को समझना चाहते हैं तो हमें उस वातावरण को जानना होगा जिसमें कि वे विचार प्रचलित रहे हैं। प्राचीन रचनाओं को हमें आज के मापदण्डों से नापना नहीं चाहिए। अपने पूर्वजों की इसलिए निन्दा करना कि वे उस तरह के थे, या स्वयं अपनी इसलिए निन्दा करना कि हम उनसे कुछ भिन्न हैं, आवश्यक नहीं है। हमारा काम तो उन्हें उनके वातावरण से सम्बद्ध, करना देश और काल की दूरी को पार करना और अस्थायी को स्थायी से पृथक् करना है।
उपनिषदों में कोई एक सुस्पष्ट विचारधारा नहीं है। उनमें हमें कई विभिन्न सूत्र मिलते हैं, जिन्हें सहानुभूतिपूर्ण व्याख्या द्वारा एक पूर्ण इकाई में गूंथा जा सकता है। पर इस तरह की व्याख्या में ऐसे विचार भी व्यक्त करने पड़ते हैं जिन पर सदा शंका भी जा सकती है। निष्पक्षता का अर्थ यह नहीं है कि अपने विचार बनाए ही न जाएं, या उन्हें छिपाने का निरर्थक प्रयास किया जाए। निष्पक्षता का अर्थ अतीत के विचारों पर फिर से चिन्तन करना, उनके वातावरण को समझना, और उन्हें अपने समय की बौद्धिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं से सम्बद्ध करना है। हमें जहां अतीत के शब्दों में आज के अर्थ देखने की प्रवृत्ति से बचना चाहिए, वहां हम इस तथ्य की भी उपेक्षा नहीं कर सकते कि कुछ समस्याएं ऐसी हैं जो सभी युगों में एक-सी हैं। हमें इस बौद्ध वचन को सदा ध्यान में रखना चाहिए कि ‘जो शिक्षार्थी के अनुसार ढाली नहीं गई है, वह वस्तुतः शिक्षा नहीं है।’ प्रचलित विचारधाराओं के प्रति हमें सचेत रहना चाहिए, और सार्वभौम सत्य को हमें, उसके अर्थ को तोड़-मरोड़ बिना यथासम्भव ऐसे शब्दों में व्यक्त करना चाहिए जो हमारे श्रोताओं के लिए सुबोध हों। उपनिषदों की जो कल्पनाएं अमूर्त दिखती हैं यदि हम उन्हें उनके प्राचीन रंग और गाम्भीर्य से दीप्त कर सकें, यदि उनमें उनके प्राचीन अर्थ की धड़कनें पैदा कर सकें, तो वे हमारी बौद्धिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं के लिए सर्वथा असंगत नहीं लगेंगी।
उपनिषदें अपनी स्थापनाओं को आध्यात्मिक अनुभूति पर आधारित करती हैं, इसलिए वे हमारे लिए अमूल्य हैं, क्योंकि आस्था के परम्परागत अवलम्ब-अचूक शास्त्र, दैवी चमत्कार और भविष्यवाणी आदि-आज उपलब्ध नहीं हैं। आज जो धर्मविमुखता है, वह बहुत हद तक आध्यात्मिक जीवन पर धार्मिक रीति-पद्धति के हावी हो जाने का परिणाम है। उपनिषदों के अध्ययन से धर्म के उन मूल तत्त्वों को, जिनके बिना धर्म का कोई अर्थ ही नहीं रहता, सत्य के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करने में सहायता मिल सकती है।
इसके अतिरिक्त, एक ऐसे समय में जब नैतिक आक्रमण लोगों को विचित्र जीवन-प्रणालियों के आगे आत्मसमर्पण करने को बाध्य कर रहा है, जब प्राणों और यातना की भारी कीमत चुकाकर सामाजिक ढांचे और राजनीतिक संगठन में विराट प्रयोग किए जा रहे हैं, जब हम हतबुद्धि और भ्रान्त होकर भविष्य के सम्मुख खड़े हैं और हमें राह दिखाने वाला कोई स्पष्ट प्रकाश नहीं है, तब मानव-आत्मा की शक्ति ही एकमात्र शरण रह जाती है। यदि हम उसी के द्वारा शासित होने का संकल्प कर लें, तो हमारी सभ्यता अपने सबसे शानदार युग में प्रवेश कर सकती है। रोमां रोलां के शब्दों में, आज ‘‘पाश्चात्य भावना के असन्तुष्ट बालक बहुत हैं जो इसलिए उत्पीड़ित हैं कि उनके महान विचारों की व्यापकता को हिंसात्मक कार्य के लक्ष्यों के लिए कलंकित किया गया है, जो एक अन्धी गली में फंस गए हैं और बर्बरतापूर्वक एक-दूसरे के अस्तित्व को मिटा रहे हैं। जब एक प्राचीन अनिवार्य संस्कृति टूट रही हो, जब नैतिक मापदण्ड नष्ट हो रहे हों; जब हमें जड़ता से उभारा या अचेतनता से जगाया जा रहा हो, जब वातावरण में उत्तेजना व्याप्त हो, भीतर उथल-पुथल मची हो, और सांस्कृतिक संकट उपस्थित हो, तब आध्यात्मिक आन्दोलन का भारी ज्वार जन-मन को आप्लावित कर देता है और दिगन्त में हमें किसी नूतन का, किसी अपूर्व का, एक आध्यात्मिक पुनर्जागरण के सूत्रपात का आभास होता है। हम एक ऐसे संसार में रह रहे हैं जहां सांस्कृतिक आदान-प्रदान की अधिक स्वतन्त्रता है, जहां विश्व-संवेदनाएं अधिक व्यापक हैं। आज जो काम है वह इन केन्द्राभिमुखी सांस्कृतिक प्रणालियों के विभिन्न आदर्शों में समन्वय स्थापित करना है, जिससे कि वे आपस में जूझने और एक-दूसरे को नष्ट करने के बजाय एक-दूसरे को सहायता और बल दे सकें। इस प्रक्रिया द्वारा वे भीतर से रूपान्तरित होंगी, और उन्हें पृथक करने वाले रूप अपना एकान्तिक अर्थ खो देंगे और अपने निजी स्रोतों और प्रेरणाओं से केवल उस एकता को ही व्यक्त करेंगे।
हम भारतीय यदि अपने राष्ट्रीय अस्तित्व और स्वरूप को कायम रखना चाहते हैं, तो हमारे लिए उपनिषदों का अध्ययन आवश्यक है। अपने परम्परागत जीवन की रूपरेखा की खोज के लिए हमें अपने क्लासिक ग्रंथों-वेदों और उपनिषदों, भगवद्गीता और धम्मपद की ओर मुड़ना होगा। हमारे मनों को रंगने में इनका जितना हम आम तौर पर समझते हैं उससे कहीं अधिक योग रहा है। न केवल हमारे बहुत-से विचार पहले इनमें सोचे गए थे, अपितु सैकड़ों ऐसे शब्द भी जिन्हें हम अपने दैनिक जीवन में बराबर प्रयुक्त करते हैं इनमें ही गढ़े गए थे। हमारे अतीत में बहुत-कुछ ऐसा है जो दोषपूर्ण और नीचे गिराने वाला है, पर बहुत-कुछ ऐसा भी है जो जीवनदायी और ऊपर उठाने वाला है। अतीत को यदि भविष्य के लिए एक प्रेरणा बनना है, तो हमें उसका विवेक और सहानुभूति से अध्ययन करना होगा। परन्तु मानव-मन और आत्मा की उच्चतम उपलब्धियां केवल अतीत तक ही सीमित नहीं है। भविष्य के द्वार पूर्णतया खुले हैं। मूल प्रेरणाएं, जीवन को संचालित करने वाले विचार, जो हमारी संस्कृति की सारभूत भावना का निर्माण करते हैं, हमारी सत्ता का ही एक भाग हैं। पर अपने समय की आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुरूप उनकी अभिव्यक्ति में परिवर्तन होते रहना चाहिए।
भारतीय चिन्तन के किसी अध्येता के लिए इससे अधिक प्ररेणाप्रद कार्य और कोई नहीं हो सकता कि वह उसके आध्यात्मिक ज्ञान के कुछ पहलुओं को उजागर करे और उसे हमारे अपने जीवन पर लागू करे। सुकरात के शब्दों में, हमें ‘‘मिल-जुलकर उस भण्डार को उलटना-पलटना चाहिए जो संसार के मनीषी हमारे लिए छोड़ गए हैं, और यदि ऐसा करते हुए हम एक-दूसरे के मित्र बन जाते हैं तो यह और भी प्रसन्नता की बात होगी।
उपनिषदों का संदेश
वाल्ट व्हिटमैन ने कहा था, ‘‘ये वस्तुतः सभी युगों और सभी देशों के लोगों के विचार हैं, ये केवल मेरे नहीं है। ये जितने मेरे हैं यदि उतने ही आपके नहीं हैं, तो ये व्यर्थ हैं या लगभग व्यर्थ हैं।’’ उपनिषदों ने उन प्रश्नों को लिया है जो मनुष्य के मन में उस समय उठते हैं जब वह गम्भीरता से चिन्तन करने लगता है, और वे उनके ऐसे उत्तर देने का प्रयास करती हैं जो, जिन उत्तरों को हमारा मन आज स्वीकार करना चाहता है, उनसे बहुत भिन्न नहीं हैं। जो भिन्नता दिखाई देती है, वह केवल उनके प्रति हमारी पहुंच की और उन पर दिए जाने वाले ज़ोर की है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उपनिषदों का संदेश, जो जितना सत्य तब था उतना ही आज भी है, हमें सृष्टि-रचना और मानव-शरीर-क्रिया विज्ञान के बारे में उनकी विभिन्न कल्पनाओं के प्रति भी प्रतिबद्ध करता है। हमें उपनिषदों के संदेश और उनकी पौराणिक कल्पना के बीच भेद करना चाहिए। विज्ञान के प्रगति के साथ पौराणिक कल्पना को शुद्ध किया जा सकता है। और यह पौराणिक कल्पना भी उस समय समझ में आने लगती है जब हम चीज़ों को यथासम्भव उस दृष्टिकोण से देखने का प्रयत्न करते हैं जो कि कल्पना करने वालों का रहा था। उपनिषदों के जो अंश हमें आज नगण्य, दुरूह और प्रायः निरर्थक लगते हैं, वे जब उनकी रचना हुई तब अर्थ और मूल्य रखते होंगे।
उपनिषदों को जो भी मूल संस्कृत में पढ़ता है, वह मानव-आत्मा और परम सत्य के गुह्य और पवित्र सम्बन्धों को उजागर करने वाले उनके बहुत-से उद्गारों के उत्कर्ष, काव्य और प्रबल सम्मोहन से मुग्ध हो जाता है और उसमें बहने लगता है। हम जब उन्हें पढ़ते हैं तो इन चरम प्रश्नों से जूझने वाले व्यक्तियों के मन की असाधारण क्षमता, तत्परता और परिपक्वता से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। इन समस्याओं को सुलझाने वाली आत्माओं का सभ्यता के सर्वोच्च आदर्शों से आज भी तात्त्विक तालमेल है और सदा रहेगा।
उपनिषदें वह नींव हैं जिस पर करोड़ों मनुष्यों के विश्वास आधारित रहे हैं, और वे मनुष्य हमसे कोई बहुत हीन नहीं थे। मनुष्य के लिए उसके अपने इतिहास से अधिक पवित्र और कुछ नहीं है। कम से कम अतीत के स्मारकों की हैसियत से ही उन पर हमें पूरा ध्यान देना चाहिए।
उपनिषदों के कुछ ऐसे अंश हैं जो अपनी पुनरुक्ति के कारण, या हमारी दार्शनिक और धार्मिक आवश्यकताओं के संगत न होने के कारण, हममें अरुचि पैदा करते हैं। परन्तु यदि हम उनके विचारों को समझना चाहते हैं तो हमें उस वातावरण को जानना होगा जिसमें कि वे विचार प्रचलित रहे हैं। प्राचीन रचनाओं को हमें आज के मापदण्डों से नापना नहीं चाहिए। अपने पूर्वजों की इसलिए निन्दा करना कि वे उस तरह के थे, या स्वयं अपनी इसलिए निन्दा करना कि हम उनसे कुछ भिन्न हैं, आवश्यक नहीं है। हमारा काम तो उन्हें उनके वातावरण से सम्बद्ध, करना देश और काल की दूरी को पार करना और अस्थायी को स्थायी से पृथक् करना है।
उपनिषदों में कोई एक सुस्पष्ट विचारधारा नहीं है। उनमें हमें कई विभिन्न सूत्र मिलते हैं, जिन्हें सहानुभूतिपूर्ण व्याख्या द्वारा एक पूर्ण इकाई में गूंथा जा सकता है। पर इस तरह की व्याख्या में ऐसे विचार भी व्यक्त करने पड़ते हैं जिन पर सदा शंका भी जा सकती है। निष्पक्षता का अर्थ यह नहीं है कि अपने विचार बनाए ही न जाएं, या उन्हें छिपाने का निरर्थक प्रयास किया जाए। निष्पक्षता का अर्थ अतीत के विचारों पर फिर से चिन्तन करना, उनके वातावरण को समझना, और उन्हें अपने समय की बौद्धिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं से सम्बद्ध करना है। हमें जहां अतीत के शब्दों में आज के अर्थ देखने की प्रवृत्ति से बचना चाहिए, वहां हम इस तथ्य की भी उपेक्षा नहीं कर सकते कि कुछ समस्याएं ऐसी हैं जो सभी युगों में एक-सी हैं। हमें इस बौद्ध वचन को सदा ध्यान में रखना चाहिए कि ‘जो शिक्षार्थी के अनुसार ढाली नहीं गई है, वह वस्तुतः शिक्षा नहीं है।’ प्रचलित विचारधाराओं के प्रति हमें सचेत रहना चाहिए, और सार्वभौम सत्य को हमें, उसके अर्थ को तोड़-मरोड़ बिना यथासम्भव ऐसे शब्दों में व्यक्त करना चाहिए जो हमारे श्रोताओं के लिए सुबोध हों। उपनिषदों की जो कल्पनाएं अमूर्त दिखती हैं यदि हम उन्हें उनके प्राचीन रंग और गाम्भीर्य से दीप्त कर सकें, यदि उनमें उनके प्राचीन अर्थ की धड़कनें पैदा कर सकें, तो वे हमारी बौद्धिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं के लिए सर्वथा असंगत नहीं लगेंगी।
उपनिषदें अपनी स्थापनाओं को आध्यात्मिक अनुभूति पर आधारित करती हैं, इसलिए वे हमारे लिए अमूल्य हैं, क्योंकि आस्था के परम्परागत अवलम्ब-अचूक शास्त्र, दैवी चमत्कार और भविष्यवाणी आदि-आज उपलब्ध नहीं हैं। आज जो धर्मविमुखता है, वह बहुत हद तक आध्यात्मिक जीवन पर धार्मिक रीति-पद्धति के हावी हो जाने का परिणाम है। उपनिषदों के अध्ययन से धर्म के उन मूल तत्त्वों को, जिनके बिना धर्म का कोई अर्थ ही नहीं रहता, सत्य के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करने में सहायता मिल सकती है।
इसके अतिरिक्त, एक ऐसे समय में जब नैतिक आक्रमण लोगों को विचित्र जीवन-प्रणालियों के आगे आत्मसमर्पण करने को बाध्य कर रहा है, जब प्राणों और यातना की भारी कीमत चुकाकर सामाजिक ढांचे और राजनीतिक संगठन में विराट प्रयोग किए जा रहे हैं, जब हम हतबुद्धि और भ्रान्त होकर भविष्य के सम्मुख खड़े हैं और हमें राह दिखाने वाला कोई स्पष्ट प्रकाश नहीं है, तब मानव-आत्मा की शक्ति ही एकमात्र शरण रह जाती है। यदि हम उसी के द्वारा शासित होने का संकल्प कर लें, तो हमारी सभ्यता अपने सबसे शानदार युग में प्रवेश कर सकती है। रोमां रोलां के शब्दों में, आज ‘‘पाश्चात्य भावना के असन्तुष्ट बालक बहुत हैं जो इसलिए उत्पीड़ित हैं कि उनके महान विचारों की व्यापकता को हिंसात्मक कार्य के लक्ष्यों के लिए कलंकित किया गया है, जो एक अन्धी गली में फंस गए हैं और बर्बरतापूर्वक एक-दूसरे के अस्तित्व को मिटा रहे हैं। जब एक प्राचीन अनिवार्य संस्कृति टूट रही हो, जब नैतिक मापदण्ड नष्ट हो रहे हों; जब हमें जड़ता से उभारा या अचेतनता से जगाया जा रहा हो, जब वातावरण में उत्तेजना व्याप्त हो, भीतर उथल-पुथल मची हो, और सांस्कृतिक संकट उपस्थित हो, तब आध्यात्मिक आन्दोलन का भारी ज्वार जन-मन को आप्लावित कर देता है और दिगन्त में हमें किसी नूतन का, किसी अपूर्व का, एक आध्यात्मिक पुनर्जागरण के सूत्रपात का आभास होता है। हम एक ऐसे संसार में रह रहे हैं जहां सांस्कृतिक आदान-प्रदान की अधिक स्वतन्त्रता है, जहां विश्व-संवेदनाएं अधिक व्यापक हैं। आज जो काम है वह इन केन्द्राभिमुखी सांस्कृतिक प्रणालियों के विभिन्न आदर्शों में समन्वय स्थापित करना है, जिससे कि वे आपस में जूझने और एक-दूसरे को नष्ट करने के बजाय एक-दूसरे को सहायता और बल दे सकें। इस प्रक्रिया द्वारा वे भीतर से रूपान्तरित होंगी, और उन्हें पृथक करने वाले रूप अपना एकान्तिक अर्थ खो देंगे और अपने निजी स्रोतों और प्रेरणाओं से केवल उस एकता को ही व्यक्त करेंगे।
हम भारतीय यदि अपने राष्ट्रीय अस्तित्व और स्वरूप को कायम रखना चाहते हैं, तो हमारे लिए उपनिषदों का अध्ययन आवश्यक है। अपने परम्परागत जीवन की रूपरेखा की खोज के लिए हमें अपने क्लासिक ग्रंथों-वेदों और उपनिषदों, भगवद्गीता और धम्मपद की ओर मुड़ना होगा। हमारे मनों को रंगने में इनका जितना हम आम तौर पर समझते हैं उससे कहीं अधिक योग रहा है। न केवल हमारे बहुत-से विचार पहले इनमें सोचे गए थे, अपितु सैकड़ों ऐसे शब्द भी जिन्हें हम अपने दैनिक जीवन में बराबर प्रयुक्त करते हैं इनमें ही गढ़े गए थे। हमारे अतीत में बहुत-कुछ ऐसा है जो दोषपूर्ण और नीचे गिराने वाला है, पर बहुत-कुछ ऐसा भी है जो जीवनदायी और ऊपर उठाने वाला है। अतीत को यदि भविष्य के लिए एक प्रेरणा बनना है, तो हमें उसका विवेक और सहानुभूति से अध्ययन करना होगा। परन्तु मानव-मन और आत्मा की उच्चतम उपलब्धियां केवल अतीत तक ही सीमित नहीं है। भविष्य के द्वार पूर्णतया खुले हैं। मूल प्रेरणाएं, जीवन को संचालित करने वाले विचार, जो हमारी संस्कृति की सारभूत भावना का निर्माण करते हैं, हमारी सत्ता का ही एक भाग हैं। पर अपने समय की आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुरूप उनकी अभिव्यक्ति में परिवर्तन होते रहना चाहिए।
भारतीय चिन्तन के किसी अध्येता के लिए इससे अधिक प्ररेणाप्रद कार्य और कोई नहीं हो सकता कि वह उसके आध्यात्मिक ज्ञान के कुछ पहलुओं को उजागर करे और उसे हमारे अपने जीवन पर लागू करे। सुकरात के शब्दों में, हमें ‘‘मिल-जुलकर उस भण्डार को उलटना-पलटना चाहिए जो संसार के मनीषी हमारे लिए छोड़ गए हैं, और यदि ऐसा करते हुए हम एक-दूसरे के मित्र बन जाते हैं तो यह और भी प्रसन्नता की बात होगी।
राधाकृष्णन्
मास्को
अक्तूबर 1951
मास्को
अक्तूबर 1951
उपनिषदों का संदेश
1
व्यापक प्रभाव
मनुष्य के आध्यात्मिक इतिहास में उपनिषदें एक बृहत् अध्याय की तरह हैं और
पिछले तीन हजार वर्ष से ये भारतीय दर्शन, धर्म और जीवन को बराबर शासित
करती आ रही हैं। प्रत्येक नये धार्मिक आन्दोलन को यहां यह सिद्ध करना पड़ा
है कि वह इनकी दार्शनिक स्थापनाओं के अनुरूप है। यहां तक कि शंकालुओं और
नास्तिकों को भी इनमें अपनी दुविधाओं, शंकाओं और अनास्था के पूर्वाभास
मिलते हैं। बहुत-से धार्मिक और लौकिक उलटफेरों के बावजूद ये अभी भी
समस्याओं के सम्बन्ध में अपना दृष्टिकोण निर्धारित करने में सहायता देती
आई हैं।
इनकी विचारधारा ने प्राचीन काल में भी प्रत्यक्ष रूप से और बौद्ध धर्म द्वारा भारत से बाहर के नाना राष्टों-बृहत्तर भारत, तिब्बत, चीन, जापान, और कोरिया दक्षिण में श्रीलंका, मलय प्रायद्वीप तथा हिंदमहासागर और प्रशान्त महासागर के सुदूर द्वीपों-के सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया था। पश्चिम में भारतीय विचारधारा के चिह्न सुदूर मध्य-एशिया तक खोजे जा सकते हैं, जहां भारतीय ग्रंथ मरुभूमि में दबे मिले हैं।1
1. ‘‘मानव-विचारधारा के इतिहास में रुचि रखनेवाले इतिहासकार के लिए तो उपनिषदें बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। उपनिषदों के रहस्यवादी सिद्धान्तों की एक विचारधारा के चिह्न फारसी सूफी धर्म के रहस्यवाद में, नव प्लेटोवादियों और सिकन्दरिया के ईसाई रहस्यवादियों, एकहार्ट और टॉलर के गुह्य ब्रह्मविद्या-सम्बन्धी ‘लोगस’ सिद्धान्त में, और अन्त में उन्नीसवीं शताब्दी के महान जर्मन रहस्यवादी, शोपेनहॉवर के दर्शन में खोजे जा सकते हैं।’’ विण्टरनिट्ज़-‘ए हिस्ट्री ऑव इण्डियन लिटरेचर’, अंग्रेज़ी अनुवाद, खंड 1,
इन सुदीर्घ शताब्दियों में उपनिषदों के आकर्षण में एक अद्वितीय विविधता दिखाई दी है। विभिन्न लोग विभिन्न समयों में इनकी विभिन्न कारणों से सराहना करते रहे हैं। कहा जाता है कि ये हमें अदृश्य सत्य का एक पूर्ण रेखाचित्र प्रदान करती हैं मानव-अस्तित्व के रहस्यों पर बहुत ही सीधे, गहरे और विश्वस्त ढंग से प्रकाश डालती हैं, ड्यूसेन के शब्दों में, ‘‘ये ऐसी दार्शनिक धारणाओं की स्थापना करती हैं जो भारत में या शायद विश्व में भी अद्वितीय हैं,’’ अथवा दर्शन की प्रत्येक मूल समस्या को सुलझाती हैं।1 यह सब चाहे सच हो या न हो, पर एक चीज़ निर्विवाद है कि उन धुन के पक्के लोगों में धार्मिक अन्वेषण की व्याकुलता और लगन थी। उन्होंने चिन्तनशील मन की उस ध्यानमग्न स्थिति को व्यक्त किया है जिसे ब्रह्म के अतिरिक्त और कहीं शान्ति नहीं मिलती, ईश्वर के अतिरिक्त और कहीं विश्राम नहीं मिलता। उपनिषदों के विचारकों के सम्मुख जो आदर्श था वह मनुष्य की चरम मुक्ति, ज्ञान की पूर्णता और सत्य के साक्षात्कार का आदर्श था, जिसमें रहस्यवादी की दिव्य-दर्शन की धार्मिक लालसा और दार्शनिक की सत्य की अनवरत खोज, दोनों को शान्ति मिलती है। अभी भी हमारा यही आदर्श है। ए. एन. व्हाइटहेड उस सत्य की चर्चा करते हैं जो इस संसार के अस्थायी प्रवाह के पीछे, पार और भीतर विद्यमान है। ‘‘कुछ ऐसा जो सत्य है और फिर भी अभी अनुभव होना है; कुछ ऐसा जो एक दूरवर्ती संभावना है और फिर भी सबसे बड़ा उपस्थित तथ्य है, कुछ ऐसा जो हर घटना को एक अर्थ प्रदान करता है और फिर भी समझ में नहीं आता; कुछ ऐसा जिसकी प्राप्ति परमश्रेय है और जो फिर भी पहुंच से परे है; कुछ ऐसा
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(1927), पृष्ठ 266 । देखें, ‘ईस्टर्न रिलीजन्स एण्ड वेस्टर्न थॉट’, द्वितीय संस्करण (1940), अध्याय 4, 5, 6, 7 । कहते हैं कि शोपेनहॉवर की मेज़ पर उपनिषदों की एक लैटिन प्रति रहती थी और वे ‘‘सोने से पहले उसमें से ही अपनी प्रार्थनाएं किया करते थे।’’ ब्लूमफील्ड-‘रिलीजन ऑव द वेद’ (1908), पृष्ठ 55 । ‘‘(उपनिषदों के) प्रत्येक वाक्य में से गहन, मौलिक और उदात्त विचार फूटते हैं और सभी कुछ एक उच्च, पवित्र और एकाग्र-भावना से व्याप्त हो जाता है। समस्त संसार में उपनिषदों जैसा कल्याणकारी और आत्मा को उन्नत करनेवाला कोई और ग्रंथ नहीं हैं। ये सर्वोच्च प्रतिभा के प्रसून हैं। देर-सवेर ये लोगों की आस्था का आधार बनकर रहेंगे।’’ शोपेनहॉवर।
1. तुलना करें, डब्ल्यू बी. यीट्स : ‘‘संप्रदायों को शास्त्रार्थ के लिए बेचैन करनेवाली कोई भी चीज़ ऐसी नहीं है जिस पर इनका ध्यान न गया हो।’’ ‘टेन प्रिंसिपल उपनिषद्स’ (1937), पृष्ठ 11।
जो चरम आदर्श और आशाहीन खोज है।’’1 उपनिषदों में जहां इस जगत् के सैद्धान्तिक स्पष्टीकरण के लिए एक आध्यात्मिक जिज्ञासा है, वहां मुक्ति की उत्कट लालसा भी है। इनके विचार न केवल हमारे मन को प्रकाश देते हैं बल्कि हमारी आत्मा को भी विकसित करते हैं।
उपनिषदों के विचारों से यदि हमें दैहिक जीवन की चकाचौंध से ऊपर उठने में सहायता मिलती है तो वह इसीलिए कि इनके रचयिता, जिनकी आत्मा निर्मल है, दिव्यतत्त्व की ओर निरन्तर बढ़ते हुए, हमारे लिए अदृश्य की अलौकिक छटा के चित्र उद्घाटित करते हैं। उपनिषदों का इतना आदर इस कारण नहीं है कि ये श्रुति या प्रकट हुए साहित्य का एक भाग होने से एक विशिष्ट स्थान रखती हैं, अपितु इसका कारण है कि ये अपनी अक्षय अर्थवत्ता और आत्मिक शक्ति से भारतवासियों की पीढ़ी को अंतर्दृष्टि और बल प्रदान कर प्रेरणा देती रही हैं। भारतीय विचारधारा नये प्रकाश और आत्मिक पुनरुत्थान या पुनरारम्भ के लिए बराबर इन्हीं धर्मग्रंथों का आश्रय लेती रही है, और इससे उसे लाभ हुआ है। इन वेदियों की अग्नि अभी भी खूब प्रज्वलित है। देख सकने वाली आंख के लिए इनमें प्रकाश और सत्यान्वेषी के लिए इनमें एक संदेश है।2
1. ‘साइंस एण्ड द मार्डन वर्ल्ड’ (1933), पृष्ठ 238।
2. ‘क्रिश्चियन वेदान्तिज़्म’ पर एक लेख में श्री आर. गोर्डन मिल्बर्न लिखते हैं, ‘‘भारत में ईसाई धर्म को वेदान्त की आवश्यकता है। हम धर्मप्रचारकों ने, इस चीज़ को जितनी स्पष्टता से समझ लेना चाहिए था, अभी नहीं समझा है। हम अपने निजी धर्म में स्वतंत्रता और उल्लास के साथ आगे नहीं बढ़ पाते हैं; क्योंकि ईसाई धर्म के उन पहलुओं को व्यक्त करने के लिए जिनका सम्बन्ध ईश्वर की सर्वव्यापकता से अधिक है, हमारे पास अभिव्यक्ति के प्रर्याप्त शब्द और प्रकार नहीं हैं। एक बहुत ही उपयोगी कदम यह होगा कि वेदान्त-साहित्य के कुछ ग्रंथों या अंशों को मान्यता दे दी जाए, और उन्हें ‘विधर्मी ओल्ड टेस्टामेंट’ की संज्ञा दी जा सकती है। तब चर्च के धर्माधिकारियों से इस बात की अनुमति मांगी जा सकती है कि उपासना के समय न्यू टेस्टामेंट के अंशों के साथ-साथ, ओल्ड टेस्टामेंट के पाठों के विकल्प के रूप में, इस विधर्मी ओल्ड टेस्टामेंट के अंश भी पढ़े जा सकते हैं। इंडियन इंटरप्रेटर 1913 ।
2
इनकी विचारधारा ने प्राचीन काल में भी प्रत्यक्ष रूप से और बौद्ध धर्म द्वारा भारत से बाहर के नाना राष्टों-बृहत्तर भारत, तिब्बत, चीन, जापान, और कोरिया दक्षिण में श्रीलंका, मलय प्रायद्वीप तथा हिंदमहासागर और प्रशान्त महासागर के सुदूर द्वीपों-के सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया था। पश्चिम में भारतीय विचारधारा के चिह्न सुदूर मध्य-एशिया तक खोजे जा सकते हैं, जहां भारतीय ग्रंथ मरुभूमि में दबे मिले हैं।1
1. ‘‘मानव-विचारधारा के इतिहास में रुचि रखनेवाले इतिहासकार के लिए तो उपनिषदें बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। उपनिषदों के रहस्यवादी सिद्धान्तों की एक विचारधारा के चिह्न फारसी सूफी धर्म के रहस्यवाद में, नव प्लेटोवादियों और सिकन्दरिया के ईसाई रहस्यवादियों, एकहार्ट और टॉलर के गुह्य ब्रह्मविद्या-सम्बन्धी ‘लोगस’ सिद्धान्त में, और अन्त में उन्नीसवीं शताब्दी के महान जर्मन रहस्यवादी, शोपेनहॉवर के दर्शन में खोजे जा सकते हैं।’’ विण्टरनिट्ज़-‘ए हिस्ट्री ऑव इण्डियन लिटरेचर’, अंग्रेज़ी अनुवाद, खंड 1,
इन सुदीर्घ शताब्दियों में उपनिषदों के आकर्षण में एक अद्वितीय विविधता दिखाई दी है। विभिन्न लोग विभिन्न समयों में इनकी विभिन्न कारणों से सराहना करते रहे हैं। कहा जाता है कि ये हमें अदृश्य सत्य का एक पूर्ण रेखाचित्र प्रदान करती हैं मानव-अस्तित्व के रहस्यों पर बहुत ही सीधे, गहरे और विश्वस्त ढंग से प्रकाश डालती हैं, ड्यूसेन के शब्दों में, ‘‘ये ऐसी दार्शनिक धारणाओं की स्थापना करती हैं जो भारत में या शायद विश्व में भी अद्वितीय हैं,’’ अथवा दर्शन की प्रत्येक मूल समस्या को सुलझाती हैं।1 यह सब चाहे सच हो या न हो, पर एक चीज़ निर्विवाद है कि उन धुन के पक्के लोगों में धार्मिक अन्वेषण की व्याकुलता और लगन थी। उन्होंने चिन्तनशील मन की उस ध्यानमग्न स्थिति को व्यक्त किया है जिसे ब्रह्म के अतिरिक्त और कहीं शान्ति नहीं मिलती, ईश्वर के अतिरिक्त और कहीं विश्राम नहीं मिलता। उपनिषदों के विचारकों के सम्मुख जो आदर्श था वह मनुष्य की चरम मुक्ति, ज्ञान की पूर्णता और सत्य के साक्षात्कार का आदर्श था, जिसमें रहस्यवादी की दिव्य-दर्शन की धार्मिक लालसा और दार्शनिक की सत्य की अनवरत खोज, दोनों को शान्ति मिलती है। अभी भी हमारा यही आदर्श है। ए. एन. व्हाइटहेड उस सत्य की चर्चा करते हैं जो इस संसार के अस्थायी प्रवाह के पीछे, पार और भीतर विद्यमान है। ‘‘कुछ ऐसा जो सत्य है और फिर भी अभी अनुभव होना है; कुछ ऐसा जो एक दूरवर्ती संभावना है और फिर भी सबसे बड़ा उपस्थित तथ्य है, कुछ ऐसा जो हर घटना को एक अर्थ प्रदान करता है और फिर भी समझ में नहीं आता; कुछ ऐसा जिसकी प्राप्ति परमश्रेय है और जो फिर भी पहुंच से परे है; कुछ ऐसा
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(1927), पृष्ठ 266 । देखें, ‘ईस्टर्न रिलीजन्स एण्ड वेस्टर्न थॉट’, द्वितीय संस्करण (1940), अध्याय 4, 5, 6, 7 । कहते हैं कि शोपेनहॉवर की मेज़ पर उपनिषदों की एक लैटिन प्रति रहती थी और वे ‘‘सोने से पहले उसमें से ही अपनी प्रार्थनाएं किया करते थे।’’ ब्लूमफील्ड-‘रिलीजन ऑव द वेद’ (1908), पृष्ठ 55 । ‘‘(उपनिषदों के) प्रत्येक वाक्य में से गहन, मौलिक और उदात्त विचार फूटते हैं और सभी कुछ एक उच्च, पवित्र और एकाग्र-भावना से व्याप्त हो जाता है। समस्त संसार में उपनिषदों जैसा कल्याणकारी और आत्मा को उन्नत करनेवाला कोई और ग्रंथ नहीं हैं। ये सर्वोच्च प्रतिभा के प्रसून हैं। देर-सवेर ये लोगों की आस्था का आधार बनकर रहेंगे।’’ शोपेनहॉवर।
1. तुलना करें, डब्ल्यू बी. यीट्स : ‘‘संप्रदायों को शास्त्रार्थ के लिए बेचैन करनेवाली कोई भी चीज़ ऐसी नहीं है जिस पर इनका ध्यान न गया हो।’’ ‘टेन प्रिंसिपल उपनिषद्स’ (1937), पृष्ठ 11।
जो चरम आदर्श और आशाहीन खोज है।’’1 उपनिषदों में जहां इस जगत् के सैद्धान्तिक स्पष्टीकरण के लिए एक आध्यात्मिक जिज्ञासा है, वहां मुक्ति की उत्कट लालसा भी है। इनके विचार न केवल हमारे मन को प्रकाश देते हैं बल्कि हमारी आत्मा को भी विकसित करते हैं।
उपनिषदों के विचारों से यदि हमें दैहिक जीवन की चकाचौंध से ऊपर उठने में सहायता मिलती है तो वह इसीलिए कि इनके रचयिता, जिनकी आत्मा निर्मल है, दिव्यतत्त्व की ओर निरन्तर बढ़ते हुए, हमारे लिए अदृश्य की अलौकिक छटा के चित्र उद्घाटित करते हैं। उपनिषदों का इतना आदर इस कारण नहीं है कि ये श्रुति या प्रकट हुए साहित्य का एक भाग होने से एक विशिष्ट स्थान रखती हैं, अपितु इसका कारण है कि ये अपनी अक्षय अर्थवत्ता और आत्मिक शक्ति से भारतवासियों की पीढ़ी को अंतर्दृष्टि और बल प्रदान कर प्रेरणा देती रही हैं। भारतीय विचारधारा नये प्रकाश और आत्मिक पुनरुत्थान या पुनरारम्भ के लिए बराबर इन्हीं धर्मग्रंथों का आश्रय लेती रही है, और इससे उसे लाभ हुआ है। इन वेदियों की अग्नि अभी भी खूब प्रज्वलित है। देख सकने वाली आंख के लिए इनमें प्रकाश और सत्यान्वेषी के लिए इनमें एक संदेश है।2
1. ‘साइंस एण्ड द मार्डन वर्ल्ड’ (1933), पृष्ठ 238।
2. ‘क्रिश्चियन वेदान्तिज़्म’ पर एक लेख में श्री आर. गोर्डन मिल्बर्न लिखते हैं, ‘‘भारत में ईसाई धर्म को वेदान्त की आवश्यकता है। हम धर्मप्रचारकों ने, इस चीज़ को जितनी स्पष्टता से समझ लेना चाहिए था, अभी नहीं समझा है। हम अपने निजी धर्म में स्वतंत्रता और उल्लास के साथ आगे नहीं बढ़ पाते हैं; क्योंकि ईसाई धर्म के उन पहलुओं को व्यक्त करने के लिए जिनका सम्बन्ध ईश्वर की सर्वव्यापकता से अधिक है, हमारे पास अभिव्यक्ति के प्रर्याप्त शब्द और प्रकार नहीं हैं। एक बहुत ही उपयोगी कदम यह होगा कि वेदान्त-साहित्य के कुछ ग्रंथों या अंशों को मान्यता दे दी जाए, और उन्हें ‘विधर्मी ओल्ड टेस्टामेंट’ की संज्ञा दी जा सकती है। तब चर्च के धर्माधिकारियों से इस बात की अनुमति मांगी जा सकती है कि उपासना के समय न्यू टेस्टामेंट के अंशों के साथ-साथ, ओल्ड टेस्टामेंट के पाठों के विकल्प के रूप में, इस विधर्मी ओल्ड टेस्टामेंट के अंश भी पढ़े जा सकते हैं। इंडियन इंटरप्रेटर 1913 ।
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उपनिषद् नाम
‘उपनिषद्’ शब्द ‘उप’ (निकट),
‘नि’ (नीचे) और ‘सद्’ (बैठना) से
मिलकर बना है, अर्थात् नीचे निकट बैठना। शिष्यगण गुरु से गुप्त विद्या
सीखने के लिए उसके निकट बैठते हैं। वनों में स्थापित आश्रमों के शान्त
वातावरण में उपनिषदों के विचारक उन समस्याओं पर चिन्तन किया करते थे
जिनमें उनकी बहुत ही गहरी रुचि थी और वे अपना ज्ञान अपने निकट उपस्थित
योग्य शिष्यों को दिया करते हैं कि उनके शिष्यों की प्रवृत्ति भोगवादी
नहीं अपितु आध्यात्मिक है।1 आध्यात्मिक शिक्षा को आत्मसात् करने के लिए
हमारी प्रवृत्ति आध्यात्मिक होनी चाहिए।
उपनिषदों में ‘ओम्’ का गुह्य महत्त्व बताया गया है, ‘तज्जलान्’ जैसे रहस्यवादी शब्दों का, जो केवल इस विद्या में दीक्षित लोगों की ही समझ में आ सकते हैं, स्पष्टीकरण किया गया है, तथा गुप्त मन्त्र और गुह्य सिद्धान्त दिए गए हैं। ‘उपनिषद्’ नाम एक ऐसे रहस्य के लिए पड़ गया जो केवल कुछ परखे हुए लोगों को ही बताया जाता था।2 जब मनुष्य की अंतिम नियति का प्रश्न उठाया गया तो याज्ञवल्क्य ने अपने शिष्य को अलग ले जाकर उसे धीरे से सत्य का उपदेश दिया।3 छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार, पिता को अपने ज्येष्ठ पुत्र या
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1. तुलना करे, प्लेटो : ‘‘इस विश्व के पिता और स्रष्टा का पता लगाना एक टेढ़ी खीर है; और उसका पता चल जाता है तो उसकी चर्चा सब लोगों के आगे नहीं की जा सकती।’’-‘टिमेयस’।
2. ‘गुह्या आदेशा:-छा. उ., 3.52। ‘परमं गुह्यम्’-कठ., 1.3.17।
‘वेदान्ते परमं गुह्यमं’-श्वेता.उ., 6.22।
‘वेदगुह्यम्, वेदगुह्योपनिषत्सु गूढम्’-श्वेता.उ. 5.6।
‘गुह्यलमम्’-मैत्री, 6.29।
‘अभयं वै ब्रह्म भवति य एवं वेद, इति रहस्यम्’-नृसिंहोत्तरतापनी उ. 8।
‘धर्मे रहस्युपनिषत् स्यात्’-अमरकोश।
‘उपनिषदं रहस्यं यच्चिन्त्यम्’-केन उ., 4.7 पर शंकर। केवल दीक्षित व्यक्ति को बताने योग्य रहस्यों को गुप्त रखने का आदेश ऑरफिकों और पाइथागोरियनों में भी मिलता है।
3. बृहद् उ. 3.2.13।
विश्वस्त शिष्य को ही ब्रह्मविद्या सिखानी चाहिए-अन्य किसी को नहीं, चाहे वह उसके बदले में उसे सागरों से घिरी और रत्नों से भरी समस्त पृथ्वी ही क्यों न दे रहा हो।1 बहुत जगह यह कहा गया है कि गुरु बारंबार प्रार्थना की जाने पर और कड़ी परीक्षा के बाद ही गुह्य ज्ञान का उपदेश देता है।
शंकर ‘उपनिषद्’ शब्द की व्युपत्ति ‘सद्’ धातु से मानते हैं, जिसका अर्थ मुक्त करना, पहुंचना या नष्ट करना होता है। यह एक विशेष्य है जिसमें ‘उप’ और ‘नि’ उपसर्ग और ‘क्विप्’ प्रत्यय लगे हैं।2 यदि यह व्युत्पत्ति मान ली जाए तो ‘उपनिषद्’ का अर्थ होगा ब्रह्मज्ञान, जिसके द्वारा अज्ञान से मुक्ति मिलती है या वह नष्ट हो जाता है। जिन ग्रंथों में ब्रह्मज्ञान की चर्चा रहती है वे उपनिषद् कहलाते हैं और इसलिए वेदान्त माने जाते हैं। विभिन्न व्युत्पत्तियों से यही निष्कर्ष निकलता है कि उपनिषदें हमें आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि और दार्शनिक तर्क-प्रणाली दोनों प्रदान करती हैं।3 इनमें बीजरूप से एक ऐसी असंदिग्धता निहित है जो अवर्णनीय है और केवल एक विशिष्ट जीवन-प्रणाली से ही समझी जा सकती है। केवल निजी प्रयास से ही सत्य तक पहुंचा जा सकता है।
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उपनिषदों में ‘ओम्’ का गुह्य महत्त्व बताया गया है, ‘तज्जलान्’ जैसे रहस्यवादी शब्दों का, जो केवल इस विद्या में दीक्षित लोगों की ही समझ में आ सकते हैं, स्पष्टीकरण किया गया है, तथा गुप्त मन्त्र और गुह्य सिद्धान्त दिए गए हैं। ‘उपनिषद्’ नाम एक ऐसे रहस्य के लिए पड़ गया जो केवल कुछ परखे हुए लोगों को ही बताया जाता था।2 जब मनुष्य की अंतिम नियति का प्रश्न उठाया गया तो याज्ञवल्क्य ने अपने शिष्य को अलग ले जाकर उसे धीरे से सत्य का उपदेश दिया।3 छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार, पिता को अपने ज्येष्ठ पुत्र या
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1. तुलना करे, प्लेटो : ‘‘इस विश्व के पिता और स्रष्टा का पता लगाना एक टेढ़ी खीर है; और उसका पता चल जाता है तो उसकी चर्चा सब लोगों के आगे नहीं की जा सकती।’’-‘टिमेयस’।
2. ‘गुह्या आदेशा:-छा. उ., 3.52। ‘परमं गुह्यम्’-कठ., 1.3.17।
‘वेदान्ते परमं गुह्यमं’-श्वेता.उ., 6.22।
‘वेदगुह्यम्, वेदगुह्योपनिषत्सु गूढम्’-श्वेता.उ. 5.6।
‘गुह्यलमम्’-मैत्री, 6.29।
‘अभयं वै ब्रह्म भवति य एवं वेद, इति रहस्यम्’-नृसिंहोत्तरतापनी उ. 8।
‘धर्मे रहस्युपनिषत् स्यात्’-अमरकोश।
‘उपनिषदं रहस्यं यच्चिन्त्यम्’-केन उ., 4.7 पर शंकर। केवल दीक्षित व्यक्ति को बताने योग्य रहस्यों को गुप्त रखने का आदेश ऑरफिकों और पाइथागोरियनों में भी मिलता है।
3. बृहद् उ. 3.2.13।
विश्वस्त शिष्य को ही ब्रह्मविद्या सिखानी चाहिए-अन्य किसी को नहीं, चाहे वह उसके बदले में उसे सागरों से घिरी और रत्नों से भरी समस्त पृथ्वी ही क्यों न दे रहा हो।1 बहुत जगह यह कहा गया है कि गुरु बारंबार प्रार्थना की जाने पर और कड़ी परीक्षा के बाद ही गुह्य ज्ञान का उपदेश देता है।
शंकर ‘उपनिषद्’ शब्द की व्युपत्ति ‘सद्’ धातु से मानते हैं, जिसका अर्थ मुक्त करना, पहुंचना या नष्ट करना होता है। यह एक विशेष्य है जिसमें ‘उप’ और ‘नि’ उपसर्ग और ‘क्विप्’ प्रत्यय लगे हैं।2 यदि यह व्युत्पत्ति मान ली जाए तो ‘उपनिषद्’ का अर्थ होगा ब्रह्मज्ञान, जिसके द्वारा अज्ञान से मुक्ति मिलती है या वह नष्ट हो जाता है। जिन ग्रंथों में ब्रह्मज्ञान की चर्चा रहती है वे उपनिषद् कहलाते हैं और इसलिए वेदान्त माने जाते हैं। विभिन्न व्युत्पत्तियों से यही निष्कर्ष निकलता है कि उपनिषदें हमें आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि और दार्शनिक तर्क-प्रणाली दोनों प्रदान करती हैं।3 इनमें बीजरूप से एक ऐसी असंदिग्धता निहित है जो अवर्णनीय है और केवल एक विशिष्ट जीवन-प्रणाली से ही समझी जा सकती है। केवल निजी प्रयास से ही सत्य तक पहुंचा जा सकता है।
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संख्या, काल और रचयिता
उपनिषद् ऐसा साहित्य है जो आदिकाल से विकसित हो रहा है। इनकी संख्या दो सौ
से अधिक है, यद्यपि भारतीय परम्परा एक सौ आठ ही उपनिषदें मानती है।4
शहज़ादा दारा शिकोह के संग्रह में, जिसका फारसी में अनुवाद (1656-57) हुआ
और फिर एनक्वेटिल डुपेरोन द्वारा ‘औपनिखत’ नाम से
लैटिन में अनुवाद
1. 3.11.5; बृहद् उ. 3.2.13।
2. कठ की भूमिका। तैत्तिरीय उपनिषद् के अपने भाष्य में वे कहते हैं, ‘उपनिपन्नं वा अस्याम् पर श्रेय इति।’
3. ओल्डनबर्ग का विचार है कि ‘उपनिषद्’ का वास्तविक अर्थ पूजा है, जैसा कि उपासना शब्द से प्रकट होता है। उपासना उपास्य के साथ अभिन्नता स्थापित करती है। देखें कीथ-‘द रिलीजन एण्ड फिलासोफी ऑव द वेद एण्ड द उपनिषद्’ (1925), पृष्ठ 492।
4. देखें मुक्तिका उ. जहां यह कहा गया कि एक सौ आठ उपनिषदों के अध्ययन से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। 1.30.39।
(1801 और 1802) किया गया, लगभग पचास उपनिषदें शामिल थीं। कोल-ब्रुक के संग्रह में बावन उपनिषदें थीं, और यह नारायण की सूची (1400 ई.) पर आधारित था। मुख्य उपनिषदें दस कहीं जातीं हैँ। शंकर ने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहद्-आरण्यक और श्वेताश्वतर-इस ग्यारह उपनिषदों का भाष्य किया है। ब्रह्मसूत्र पर अपने भाष्य में वे कौशीतकी, जाबाल, महानारायण और पैंगल उपनिषदों का भी उल्लेख करते हैं। मैत्रायणीय या मैत्री उपनिषद् सहित ये मुख्य उपनिषदें हो जाती हैं। रामानुज इन सब उपनिषदों तथा सुबाल और चूलिका का भी उपयोग करते हैं। उन्होंने गर्भ, जाबाल और महा-उपनिषदों का भी उल्लेख किया है। विद्यारण्य ने अपने ‘सर्वोपनिषद् अर्थानुभूतिप्रकाश’ में जिन बारह उपनिषदों की व्याख्या की है उनमें नृसिंहोत्तरतापनी उपनिषद् भी शामिल है। अन्य उपनिषदें जो मिलती हैं वे दार्शनिक से अधिक धार्मिक हैं। उनका सम्बन्ध वेद से उतना नहीं है जितना कि पुराण और तंत्र से है। वे वेदान्त, योग अथवा सांख्य का गुणगान करती हैं या शिव, शक्ति अथवा विष्णु की पूजा की प्रशंसा करती हैं।1
1. 3.11.5; बृहद् उ. 3.2.13।
2. कठ की भूमिका। तैत्तिरीय उपनिषद् के अपने भाष्य में वे कहते हैं, ‘उपनिपन्नं वा अस्याम् पर श्रेय इति।’
3. ओल्डनबर्ग का विचार है कि ‘उपनिषद्’ का वास्तविक अर्थ पूजा है, जैसा कि उपासना शब्द से प्रकट होता है। उपासना उपास्य के साथ अभिन्नता स्थापित करती है। देखें कीथ-‘द रिलीजन एण्ड फिलासोफी ऑव द वेद एण्ड द उपनिषद्’ (1925), पृष्ठ 492।
4. देखें मुक्तिका उ. जहां यह कहा गया कि एक सौ आठ उपनिषदों के अध्ययन से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। 1.30.39।
(1801 और 1802) किया गया, लगभग पचास उपनिषदें शामिल थीं। कोल-ब्रुक के संग्रह में बावन उपनिषदें थीं, और यह नारायण की सूची (1400 ई.) पर आधारित था। मुख्य उपनिषदें दस कहीं जातीं हैँ। शंकर ने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहद्-आरण्यक और श्वेताश्वतर-इस ग्यारह उपनिषदों का भाष्य किया है। ब्रह्मसूत्र पर अपने भाष्य में वे कौशीतकी, जाबाल, महानारायण और पैंगल उपनिषदों का भी उल्लेख करते हैं। मैत्रायणीय या मैत्री उपनिषद् सहित ये मुख्य उपनिषदें हो जाती हैं। रामानुज इन सब उपनिषदों तथा सुबाल और चूलिका का भी उपयोग करते हैं। उन्होंने गर्भ, जाबाल और महा-उपनिषदों का भी उल्लेख किया है। विद्यारण्य ने अपने ‘सर्वोपनिषद् अर्थानुभूतिप्रकाश’ में जिन बारह उपनिषदों की व्याख्या की है उनमें नृसिंहोत्तरतापनी उपनिषद् भी शामिल है। अन्य उपनिषदें जो मिलती हैं वे दार्शनिक से अधिक धार्मिक हैं। उनका सम्बन्ध वेद से उतना नहीं है जितना कि पुराण और तंत्र से है। वे वेदान्त, योग अथवा सांख्य का गुणगान करती हैं या शिव, शक्ति अथवा विष्णु की पूजा की प्रशंसा करती हैं।1
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