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गौतम बुद्ध जीवन और दर्शन

सर्वपल्ली राधाकृष्णन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2699
आईएसबीएन :9788170287131

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डॉ. राधाकृष्णन ने गौतम बुद्ध के अनुकरणीय जीवन तथा महान सिद्धान्तों पर अत्यंत सरल भाषा एवं शैली में प्रकाश डाला है।

Gautam Buddh Jevan Aur Darshan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गौतम बुद्ध और उनके धर्म के दर्शन का संसार में बहुत ऊंचा स्थान रहा है और यह दुनिया का एक मात्र धर्म है जो शांति पूर्वक अपने समय के अधिकांश देशों तथा सभ्यताओं में फैला। आज भी उसके मानने वाले बहुत बड़ी संख्या में है।
प्रस्तुत पुस्तक में भारतीय दर्शन के अग्रणी व्याख्याता डॉ. राधाकृष्णन ने गौतम बुद्ध के अनुकरणीय जीवन तथा महान सिद्धान्तों पर अत्यंत सरल भाषा शैली में प्रकाश डाला है। संक्षिप्त होते हुए भी यह पुस्तक उनके जीवन तथा दर्शन के सभी पक्षों पर गहरा प्रकाश डालती है।

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गौतम बुद्ध पूर्व के ऐसे महाचिंतक हैं जिनका प्रभाव जाति के चिन्तन और जीवन पर किसी अन्य से कम नहीं पड़ा, और धार्मिक परम्परा के संस्थापक के रूप में ऐसे धर्मप्राण हैं जिनका आग्रह किसी अन्य से न कम विस्तृत है, न कम गम्भीर। विश्व-चिन्तन और संस्कृत मानव जाति की विरासत में उनका अपना स्थान है क्योंकि बौद्धिक प्रामाणिकता, नैतिक उत्कटता और आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि की कसौटी पर वे निस्सन्देह इतिहास के एक महान व्यक्तित्व के रूप में उतरते हैं।
यद्यपि बुद्धि के ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर शंका की गई है, किन्तु आज अगर हैं तो थोड़े ही योग्य विद्वान ऐसे होंगे, जो उनकी ऐतिहासिकता पर शंका करते हैं। बुद्ध का जीवन-काल निश्चित किया जा सकता है, कम से कम उनके जीवन की स्थूल रूपरेखा अंकित की जा सकती है, और धर्म, दर्शन के मूल प्रश्नों पर उनके सिद्धान्तों को समुचित तथ्यता के साथ ग्रहण किया जा सकता है।

जिन्होंने महात्मा बुद्ध को देखा-सुना था, प्रारम्भिक धर्म-नीति साहित्य के कुछ हिस्सों में उनके संस्मरण संगृहीत हैं। इस विषय में यहाँ विस्तार से प्रमाण नहीं दिए जा सकते। उस काल में लेखनकला अधिक प्रचलित नहीं थी, इसलिए स्मरणशक्ति तब आज की अपेक्षा प्रायः अधिक सही और तीव्र थी। इसका प्रमाण यह है कि इससे भी पूर्व का ग्रन्थ ऋग्वेद, स्मृति के सहारे हमें प्राप्त हुआ है और उसके पाठों में बाद के ग्रन्थों से कम विभिन्नता मिलती है। यद्यपि उत्तरकाल में बौद्ध ग्रन्थों का काफी सम्पादन हुआ है, फिर भी संस्थापक के स्मरणीय कर्म-वचनों को पर्याप्त शुद्धता के साथ ग्रहण किया जा सकता है। गौतम के जन्म से सम्बन्धित चमत्कारों की आकर्षक अलौकिकता और अनैतिहासिक वृत्तता उनके व्यक्तित्व के प्रति उनके भक्त अधिक, मार्मिक कम अनुयायियों की प्रक्रिया का स्वरूप है। तब भी उनकी जीवन-घटनाओं, उनके कर्म-जगत् के स्वरूप और उनके मूल उपदेशों के विषय में पालि-ग्रन्थ, लंका के ऐतिहासिक वृत्त और संस्कृत ग्रन्थों के बीच आधारभूत मतैक्य है। उनकी बाल्यावस्था और तरुणाई की कहानियों में कल्पनात्मकता का रंग है, लेकिन उनके कुल-जाति सम्बन्धी परम्परागत वर्णनों को संदिग्ध मानने का कोई कारण नहीं है।

गौतम का जन्म 562 ईसा पूर्व में हुआ था। वे क्षत्रियवर्णीय, कपिलवस्तु के शावयकुलीन शुद्धोदन के पुत्र थे। कविलवस्तु काशी से सौ मील उत्तर नेपाल की सीमा पर स्थित है। इस स्थान पर बाद में सम्राट् अशोक ने एक स्तम्भ स्थापित किया था, जो अब तक विद्यमान है। उनका स्वयं का नाम सिद्धार्थ है और गौतम उनका कुल-नाम। उनके जन्म के समय उपस्थित पंडितों ने कहा था कि अगर वे राज्य करना स्वीकार करेंगे, तो चक्रवर्ती होंगे; और अगर परिव्राजक संन्यासी का जीवन स्वीकारेंगे, तो बुद्ध होंगे। स्पष्ट ही कोई व्यक्ति दोनों, चक्रवर्ती और संन्यासी नहीं हो सकता था, क्योंकि पूर्ण धार्मिकता के लिए संसार-त्याग आवश्यक भूमिका मानी जाती थी ‘सुत्त-निपात’ में कथा है कि बालक को देखने आए असित नामक महात्मा ने उसके उज्ज्वल भविष्य के विषय में भविष्यवाणी की थी और दुःख प्रकट किया था कि वह स्वयं उस दिन को देखने और नए सिद्धान्त सुनने को जीवित न रहेगा।

बालक के जन्म के सात दिन बाद उसकी माँ का देहान्त हो गया और उसका पालन-पोषण उसकी मौसी, शुद्धोदन की द्वितीय पत्नी, महाप्रजावती ने किया। उचित समय पर गौतम का ब्याह यशोधरा के साथ हुआ और उनका राहुल नामक पुत्र जन्मा। कथा है कि गौतम के पिता के दुःखद अनुभवों से उन्हें बचाने के लिए पूरी सावधानी बरती थी और संयोग अथवा ईश्वररेच्छा ने उनके पथ में एक दुर्बल और जरा-जर्जर वृद्ध, एक रोगी, एक मृत मनुष्य और एक परिव्राजक संन्यासी को ला दिया। इन अनुभवों ने उन्हें धार्मिक जीवन द्वारा शांति और गम्भीरता प्राप्त करने की प्रेरणा दी। इससे ज्ञात होता है कि वे धार्मिक वृत्ति के थे और सांसारिक सुखःआकांक्षाएँ उन्हें तुष्ट नहीं कर सकीं। संन्यासी जीवन के आदर्श ने उन्हें आकर्षित किया और उनके प्रवचनों में परिव्राजकों के लक्ष्य, गृहत्याग कर पवित्र जीवन के उच्चतम आदर्श के विषय में हमें बहुधा सुनने को मिलता है। सांसारिकता की ओर उनका मन फेरने की उनके पिता की चेष्टाएँ असफल रहीं और उनतीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने गृहत्याग करके संन्यासी बाना धारण किया और परिव्राजक सत्यशोधी का जीवन प्रारम्भ किया।

यह महान त्याग था। धर्म के लिए भारतीय मन की लगन और लक्ष्यप्राप्ति के लिए आपत्तियाँ और कष्ट सहने का उनका आग्रह सांसारिकता के इस युग में हम लोग समझ नहीं सकेंगे। शोध के प्रसंग में गौतम ‘आलार-कालाम’ और उद्दक ‘रामपुत्त’ नामक दो संन्यासियों के शिष्य हुए, जिन्होंने धर्म और विनय सम्बन्धी अपने सिद्धान्तों में उन्हें शिक्षित किया। यद्यपि इस शिक्षा की सामग्री उन्हें अग्राह्य जान पड़ी, तब भी उन्होंने श्रद्धाचरण और ध्यानमग्नता जैसे गुण सम्भवतः इन संन्यासियों से ही प्राप्त किए। इन तार्किकों की अन्तहीन तर्कधारा में उन्हें सांसारिक दुःखों से निवृत्ति नहीं मिली। तप द्वारा बोध-प्राप्ति का निश्चय करके वे अपने पाँच शिष्यों के साथ उरुवेला चले गए। उरुवेला सुखद स्थल और सुन्दर वन था, जो इंद्रियों के लिए शान्तिदायक और मन के लिए पुष्टिकर था। भारतवर्ष में यह सामान्य धारणा है कि सुन्दर स्थलों में, जहाँ शान्ति और प्रेरणा मिलती है, भूत जीवन-निर्वाह शान्तिदायक, सहज सम्भव है। भारत के मन्दिर और मठ या तो नदी-तटों पर हैं, या पर्वत-शिखरों पर, और उसने धार्मिकता पर जोर देते समय धर्माभ्यास में निसर्ग और जलवायु का महत्त्व कभी विस्मृत नहीं किया।

इस सुन्दर स्थल में गौतम ने अपने-आपको उग्र तपस्या में रत कर दिया। उन्होंने सोचा कि जिस प्रकार घर्षण से गीली लकड़ी में आग पैदा होना सम्भव नहीं है, किन्तु सूखी लकड़ी में यह सम्भव है, उसी प्रकार वासना-विकारहीनता के बिना प्रकाश-प्राप्ति सम्भव नहीं है। तदनुसार उन्होंने उग्र उपवास का क्रम और ध्यानमग्नता का अभ्यास प्रारम्भ किया और अपने को ‘भयंकर उत्पीड़न’ दिया। शरीर की दुर्बलता ने मन में आलस्य पैदा कर दिया। इस अवधि में कई बार वे मृत्यु के द्वार तक पहुँच गए, किन्तु जीवन-समस्या का कहीं कोई हल उन्हें नहीं मिला। उन्हें निश्चय हो गया कि तप-उपवास द्वारा बोध सम्भव नहीं है, और वे अन्य मार्ग खोजने में सचेष्ट हुए। उन्हें अपने तारुण्य में हुए रहस्यात्मक चिन्तन का अनुभव हो आया और वे उसी मार्ग के अवलम्बन में लगे।

कथा है कि संक्रान्तिकाल में बुद्ध कामदेव द्वारा आक्रान्त हुए, उसने भय-लोभ के हर उपाय द्वारा उन्हें अपने पथ से डिगाने की चेष्टा की, जो व्यर्थ रही। इससे जान पड़ता है कि उनकी अन्तरात्मा शान्त और अखण्ड नहीं थी और मानसिक उद्वेग के बाद ही वे पुरातन विश्वासों से मुक्त होकर नव-पथोन्मुख हो पाए। वे ध्यानमग्नता में रत रहे और ध्यान की चार स्थितियाँ पार करके उन्होंने उसकी चरम, सीमा, आत्म-नियन्त्रण और स्थिरता प्राप्त की। उन्होंने समस्त विश्व को एक नियमित व्यवस्था के रूप में देखा, जहाँ सचेष्टा प्राणी सुखी और दुखी होते हैं और उच्च और निम्न अस्तित्व में एक रूप से निकलकर अन्य रूप ग्रहण करते हैं। रात्रि के अन्तिम प्रहर में उनका अज्ञान नष्ट हो गया, ज्ञान उदित हुआ। मैं उत्सुक, सचेष्ट और दृढ़-निश्चय बैठा रहा।’ गौतम को बोधि प्राप्त हुई, और वे बुद्ध हो गए।

शास्त्रों में कथा है कि जिस समय बुद्ध यह स्थिर नहीं कर पा रहे थे कि अपने उपदेशों के प्रचार में प्रयत्नशील हों या नहीं, ब्रह्मदेव ने उनसे सत्य प्रचार के लिए आग्रह किया। इसका अर्थ सम्भवतः यही है कि जब बुद्ध अपने मन में अपने कर्तव्य के विषय में निश्चय नहीं कर पा रहे थे, तब उनकी अन्तरात्मा ने उन्हें जीवन से विरक्त होने के विरुद्ध चेतावनी दी। वे निर्णय करते हैं कि अमरता के द्वार उन्मुक्त हैं-जो ज्ञानेच्छु हैं उन्हें श्रद्धालु होना चाहिए-और अपने कर्तव्य-पथ पर अग्रसर होते हैं। उन्होंने मात्र उपदेश नहीं दिया; यह तो सरल काम था। उन्होंने स्वयं जो उपदेश दिया, उसी के अनुरूप जीवन स्वीकार किया। उन्होंने स्वयं ‘भिक्षु’ का बाना पहना। यह जीवन दारिद्रय, अप्रियता और विरोध से पूर्ण था। उन्होंने सर्वप्रथम उन पाँच शिष्यों को नव ज्ञान दिया, जो तप की अवधि में उनके सहगामी थे; और सर्वप्रथम प्रवचन वर्तमान सारनाथ के मृगदाव में दिया, जहाँ संन्यासियों को आवास की अनुमति थी और जीव-हत्या का निषेध था। उनके शिष्यों की बाढ़-सी आ गई। तीन महीने के भीतर उनके तीस शिष्य हो गए। आनन्द इन तीस में से एक था, जो समस्त भ्रमणों में उनके साथ रहा। एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों से कहा : अब तुम जाकर मानव-हिताय बहुजन कल्याणाय भ्रमण करो, संसार के प्रति करुणार्द्र रहो और देवों तथा मानवों के मंगल में प्रयत्नशील रहो भिन्न-भिन्न दिशाओं में जाकर उस धर्म का प्रचार करो जिसका आदि, मध्य, अवसान तथा वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ भव्य है, और अभावहीन निर्दोष और शुद्ध जीवन-व्यवस्था का उद्घोष करो।

बुद्ध ने स्वयं पैंतालीस वर्ष तक स्थान-स्थानांतरों का भ्रमण किया और अनेक अनुयायी एकत्रित किए। ब्राह्मण और साधु, तपस्वी और यती, परित्यक्त और अनुतप्त, और कुलीन स्त्रियाँ इस समाज में सम्मिलित हुए। बुद्ध के कर्तव्य का अधिकांश अपने शिष्यों को शिक्षा और अपने संघ की व्यवस्था में लगा। आज के युग में वे एक बुद्धिवादी के रूप में मान्य होते। जब हम उनके प्रवचन पढ़ते हैं तो उनकी तार्किकता से प्रभावित होते हैं। उनके नैतिक पथ का प्रथम चरण सद्विचार और बौद्धिक दृष्टिकोण था। वे मानव जाति के आत्म-दर्शन और भाग्य-विधान में बाधक भ्रमजाल को दूर करने में सचेष्ट हैं ज्ञानवान जान पड़ने वाले, किन्तु यथार्थ में अज्ञानी, अपने शिष्यों से वे प्रश्न करते हैं, और उनके संदिग्ध धर्म-वचनों का अर्थ स्पष्ट करते हैं।

उस युग में ऐसे अनेक व्यक्ति थे, जो ईश्वर के प्रत्यक्ष ज्ञान का दावा करते थे, और न केवल उसके अस्तित्व-अनस्तित्व पर आश्वासन देते थे, किन्तु यह भी बताते थे कि यह क्या सोचता, विचारता और करता है। बुद्ध इनमें से अनेकों को आध्यात्मिक ढोंग का अपराधी ठहराते हैं। अपने ‘तेविज्जसुत्त’ में वे घोषित करते हैं कि जो धर्मोपदेशक ब्रह्म के बारे में चर्चा करते हैं, उन्होंने ब्रह्म का कभी प्रत्यक्ष दर्शन नहीं किया। वे उस व्यक्ति के समान हैं जो प्रेम तो करता है, किन्तु यह नहीं जानता कि किससे करता है, या जो प्रासाद की स्थिति से अपरिचित उसके लिए सोपान निर्मित करता है या जो नदी पार करने का इच्छुक है और नदी के उस पार को अपने पास बुलाना चाहता है। हम लोगों में अनेकों की चेतना और वृत्ति धार्मिक है, किन्तु चेतना के लक्ष्य के विषय में हमें स्पष्ट बोध नहीं है। सार्थक होने के लिए भक्ति का आधार सत्य होना चाहिए। बुद्ध ब्रह्म-विहार अथवा ब्रह्मा में निवास का महत्व स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यह एक प्रकार की ध्यानरत मनःस्थिति है, जहाँ सर्वप्रेम ईर्ष्या-द्वेष से मुक्त रहता है, जो निश्चय ही निर्वाण नहीं है और जिसका साधन अष्टविध मार्ग है।

मत-मतान्तर-वैभिन्य के कारण उन्होंने अपने शिष्यों को उपदेश दिया कि अपने सामने उपस्थित समस्त कार्यक्रम को तर्क और जीवन की कसौटी पर कसो, न कि उसके मूल कर्ताओं के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए उसे स्वीकार करो। वे कहते हैं, कही-सुनी को स्वीकार मत करो, परम्परा को स्वीकार मत करो, अधीरता में यह न मान लो कि यह ऐसा ही है, किसी कथन को इसलिए सत्य न मानो, कि वह ग्रन्थों में मिलता है, न इसलिए कि वह लोकमान्य है, न इसलिए कि वह गुरु का वाक्य है। संवेदनकारी सहृदयता से वे अपने शिष्यों से विनती करते हैं कि वे उनके नाम की मान्यता के कारण अपने विचारों में बाधा न डालें।

सारिपुत्र कहते हैं-हे प्रभु ! मेरा विश्वास है कि आपसे बुद्धिमान महात्मा न हुआ है, न है, न होगा।
उत्तर है-निस्सन्देह सारिपुत्र, तो तुमने इसके पूर्व के समस्त बुद्धों को जान लिया होगा।
‘नहीं स्वामी।’’
‘तब क्या भविष्य के बुद्धों को जानते हो ?’
‘नहीं, महाराज।’
‘तब कम से कम मुझे जानते हो और मेरे मन को सम्पूर्णतया परख चुके हो ?’
‘वह भी नहीं ! स्वामी।’
‘तब सारिपुत्र, तुम्हारा कथन इतना पुष्पित और साहसपूर्ण क्यों है ?’
उनके उपदेशों में कोई बात गुप्त और गूढ़ नहीं है। बुद्ध को उन लोगों के प्रति तिरस्कार का भाव है जो गुप्त ज्ञान का दावा करते हैं। ‘हे शिष्यों, तीन व्यक्ति ऐसे हैं, गोपनीयता जिनका क्षेत्र है।’
‘वे कौन हैं ?’
‘स्त्रियाँ, पुजारियों का ज्ञान और असत्य-सिद्धान्तपूर्ण बुद्ध के मत। सत्य नियम समस्त संसार के सामने चमकते हैं, गोपनीय नहीं रहते।’

मृत्यु के तनिक पूर्व अपने शिष्य आनन्द से बुद्ध कहते हैं:
‘मैंने सत्य का प्रचार गुह्य सत्य और प्रकट सत्य का भेद किए बिना किया है, क्योंकि सत्य के सम्बन्ध में, आनन्द, तथागत के पास ऐसा कुछ नहीं है, जैसा कोई धर्मयुग बंधी मुट्टी में अपने-आप तक सीमित रक्खे।’ अनेक संलापों में उन्हें अपने प्रश्नकर्ताओं के साथ सुकरात के समान तर्क करते हुए प्रदर्शित किया गया है, जहाँ वे प्रश्नकर्ताओं को अनजाने में प्रारम्भिक सिद्धान्त से भिन्न सिद्धान्त की मान्यता स्वीकार करने की स्थिति में ला देते हैं।

उन्होंने अपने अनुयायियों को आध्यात्मिक स्वतन्त्रता से कभी वंचित नहीं किया। उन्हें प्रमाण स्वीकार करके सत्य की खोज त्याग नहीं देनी चाहिए। उन्हें स्वतन्त्र व्यक्ति होकर दूसरों के लिए पथ-प्रदर्शक और सहायक बनना चाहिए। वे कहते हैं: ‘उन जैसे बनो, जिनकी आत्मा प्रकाशित है; उन जैसे बनो, जिनकी आत्मा आश्रय-स्थल है; जैसे किसी आधार का आसरा लेते हो, वैसे सत्य का दृढ़ आधार लो।’ सबसे बड़ी प्रामाणिकता अपने भीतर की आत्मा की आवाज है। बुद्ध के उपदेशों में हठवादिता नहीं है। विशाल दृष्टिकोण के साथ, जो उस युग में दुष्टप्राप्य और आज के युग में असाधारण है, उन्होंने विवाद का गला रोंधने से इन्कार कर दिया। असहिष्णुता उन्हें धर्म का सबसे बड़ा शत्रु जान पड़ी।

एक बार ‘अम्बलाथिक’ के जनगृह में पहुँचकर उन्होंने देखा कि उनके कुछ शिष्य किसी ऐसे ब्राह्मण के बारे में चर्चा कर रहे हैं जिसने अभी-अभी गौतम पर अधार्मिकता का अपराध लगाया था और उनके द्वारा स्थापित संघ को दोषी ठहराया था। गौतम ने कहा, ‘बंधुओं, अगर कोई मेरे विरुद्ध, धर्म के विरुद्ध, संघ के विरुद्ध कहता है, तो तुम्हें उससे रुष्ट, असन्तुष्ट और अप्रसन्न नहीं होना चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो न केवल अपनी आध्यात्मिक दृष्टि की हानि करोगे, किन्तु उनके कहे की सत्यता-असत्यता का निर्णय भी नहीं कर सकोगे।’ 2500 से अधिक वर्ष के प्रकाश के बाद यह कथन कितना उदात्त लगता है !

सिद्धान्त इसलिए अधिक या कम सत्य नहीं होते कि वह पूर्वाग्रहों का समर्थन या विरोध करते हैं। ऐसा कोई विचित्र कथन, कोई विरोधी मत नहीं था, जिस पर विचार करने की इच्छा बुद्ध ने न की हो, अथवा विचार करते उन्हें भय हुआ हो। उनका विश्वास था कि बुद्धिपूर्वक मत-शुद्धि की नींव पर जीवन के नव निर्माण से युग के भ्रम और उच्छृंखलता क्रमशः निराकरित होंगे। उन्होंने अन्य पंथों की अनुचित आलोचना का तीव्र विरोध किया। उन्होंने कहा कि ‘यह मुख ऊपर करके आसमान की ओर थूकने जैसा है। थूक आसमान को कलंकित नहीं करता, किन्तु लौटकर थूकने वाले को गन्दा कर देता है।’
कभी ऐसा अवसर नहीं आया कि बुद्ध रोष से लाल हो गए हों, कभी उनके मुख से कठोर वचन नहीं निकला। मानव जाति के लिए उनके हृदय में असीम सहिष्णुता थी। उन्होंने संसार को दुष्ट, नहीं, अज्ञानी समझा; विद्रोही नहीं, असन्तुष्ट माना। उन्होंने शान्ति और विश्वास के साथ विरोधियों का सामना किया। उन्हें कभी खीझ नहीं हुई, वे कभी रुष्ट नहीं हुए। उनका आचरण किंचित् व्यंग्यमिश्रित सद्भावना, विनय की अखंड अभिव्यक्ति था।

अपने एक परिभ्रमण में एक गृहस्थ ने उन्हें कटुवचन कहकर हटा दिया। उन्होंने कहा: ‘भाई, अगर कोई गृहस्थ भिक्षुक के सामने भोजन रखे, और भिक्षुक उसे स्वीकार करने से इन्कार कर दे, तो वह भोजन किसका होगा ?’
‘अवश्य ही दाता गृहस्थ का।’
बुद्ध ने कहा : ‘तब अगर मैं तुम्हारे कटुवचन और दुर्व्यवहार को स्वीकार न करूँ, तो उसके स्वामी तुम्हीं होगे न ? किन्तु मैं दरिद्रतर होकर लौट रहा हूँ, क्योंकि मेरा एक बन्धु खो गया।


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