कहानी संग्रह >> पटरियाँ पटरियाँभीष्म साहनी
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वरिष्ठ कथाकार भीष्म साहनियों की सामाजिक कहानियों का संग्रह...
Patariyan is collection of stories on the parition of India and Pakistan by Bhisham Sahni
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कई कालजयी कहानियों के प्रणेता, वरिष्ठ कथाकार भीष्म साहनियों की कहानियों में मानवीय मूल्यों के नैरन्तर्य एवं सतत प्रवाह की धारा स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है, बावजूद इसके कि जीवन और समाज में कुरूपताएँ विद्रुपताएँ भी बनी हुई हैं। दुनिया की इन्हीं कुरूपताओं के बीच जीवन की कोमलता और सौन्दर्य को सतत रेखांकित करते हुए भीष्म जी मध्यमवर्गीय लोगों की कहानियाँ कहते हैं और उसके संघर्ष तथा संघर्ष से ही ऊर्जा प्राप्त करने की जिद और जिजीविषा को अपनी कथावस्तु को आधार बनाते हैं।
इस संग्रह की ‘अमृतसर आ गया...’ कहानी देश विभाजन के बाद लोगों के दिलों में पैदा हुई करार की कहानी कहती है जिसमें मानवीय स्वभाव की दयालुता और करुणा के संकेत भी मिलते हैं। ‘पटरियाँ’ एक मध्यमवर्गीय युवक केशोराम की कहानी है जिसकी वेशभूषा देखकर रसोइया भी भेदभाव करता है, लेकिन जब उसे सफलता मिलती है तो उसे लगता है जैसे टूटे सपनों के टुकड़े जो, इधर-उधर बिखर गये थे, फिर से जुड़ने लगे हैं। ‘ललक’ कहानी बाल मन की बड़ी सूक्ष्मता से परीक्षण करती है, तो ‘तस्वीर’ स्त्री-जीवन की विवशता और विडम्बनाओं को रेखांकित करती है। इस संग्रह की अन्य कहानियाँ भी पठनीय हैं और अपने कथारस के कारण पाठक को बाँधे रखने की क्षमता रखती हैं।
इस संग्रह की ‘अमृतसर आ गया...’ कहानी देश विभाजन के बाद लोगों के दिलों में पैदा हुई करार की कहानी कहती है जिसमें मानवीय स्वभाव की दयालुता और करुणा के संकेत भी मिलते हैं। ‘पटरियाँ’ एक मध्यमवर्गीय युवक केशोराम की कहानी है जिसकी वेशभूषा देखकर रसोइया भी भेदभाव करता है, लेकिन जब उसे सफलता मिलती है तो उसे लगता है जैसे टूटे सपनों के टुकड़े जो, इधर-उधर बिखर गये थे, फिर से जुड़ने लगे हैं। ‘ललक’ कहानी बाल मन की बड़ी सूक्ष्मता से परीक्षण करती है, तो ‘तस्वीर’ स्त्री-जीवन की विवशता और विडम्बनाओं को रेखांकित करती है। इस संग्रह की अन्य कहानियाँ भी पठनीय हैं और अपने कथारस के कारण पाठक को बाँधे रखने की क्षमता रखती हैं।
पटरियाँ
कटरा राघोमल में से निकलकर वह बस-स्टाप की ओर बढ़े जा रहा था, जब उसकी नज़र चौक के पास खड़े दो आदमियों पर पड़ी। उनमें से एक का चेहरा उसे परिचित-सा लगा। उसे याद नहीं आया कि उस आदमी को कहाँ देखा है लेकिन स्वभावानुसार वह अन्दर-ही-अन्दर कुछ सिकुड़ा और वहाँ से दुबककर निकल जाने के लिए उसने आँखें नीची कर लीं और सड़क के किनारे-किनारे चलने लगा।
‘‘भाई साहब, हे केशोरामजी ! पहचाना नहीं क्या ?’’ आवाज़ आयी।
वह खिसिया गया और बगलें झाँकता-सा उसकी ओर गया। जिस ढंग से उस आदमी ने इसे बुलाया था, केशोराम को पहले ही उसमें अवज्ञा की झलक मिल गयी। इस आवाज़ में न आग्रह था, न आदर। केशोराम को अपनी खाकी पतलून का और नीचे पहने मैले-सफेद जूतों का भास हुआ।
‘‘कहिए, कहाँ चले जा रहे हैं इस वक़्त ? मुझे पहचाना या नहीं ?’’
उसने क्षीण-सी मुस्कान से फिर उस आदमी के चेहरे की ओर देखा। वह अभी भी उसे पहचान नहीं पाया था।
‘‘इनको जानते हो ना।’’ उस आदमी ने अपने साथी से केशोराम का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘चोपड़ा साहिब के दामाद हैं।’’
तीसरे आदमी ने औपचारिकता से हाथ आगे बढ़ा दिया।
‘‘चोपड़ा साहिब को जानते हो ना। वह मेरे बड़े मेहरबान रह चुके हैं, अम्बाला में हमारे सुपरिण्टेण्डेण्ट हुआ करते थे।’’
पर उस आदमी को कोई दिलचस्पी नहीं थी, न चोपड़ा साहिब में न किसी खाकी पतलूनवाले उनके दामाद में। उसने हाथ मिलाने के बाद आँखें फेर लीं। केशोराम को लगा, जैसे चिथड़े की तरह उसने उसे सड़क के किनारे फेंक दिया है।
‘‘चोपड़ा साहिब, आजकल कहाँ पर हैं ?’’
‘‘यहीं पर हैं,’’ केशोराम ने विनम्र धीमी आवाज़ में कहा।
‘‘अच्छा ! यहीं पर हैं।’’ केशोराम को लगा, जैसे चोपड़ा साहिब के यहाँ होने से उसका कुछ महत्त्व बढ़ गया है।
‘‘मैं ज़रूर दर्शन करने आऊँगा। आजकल किस पोस्ट पर हैं ?’’
‘‘सर्विश से तो रिटायर हो चुके हैं, लाजपतनगर में रहते हैं।’’
उस व्यक्ति की आँखों में हल्की-सी आग्रह की झलक जो क्षण-भर पहले मिली थी, ‘रिटायर’ शब्द सुनकर बुझ गयी। केशोराम ने झट से जोड़ा, ‘‘लाजपत नगर में रहते हैं, वहीं पर अपना बँगला बना लिया है।’’
अपरिचित की आँखों में आग्रह की झलक लौट आई। लाजपत नगर में बड़े आदमी बँगला बनाते हैं, और जिस आदमी ने लाजपत नगर में अपना घर बना लिया है, वह अभी भी अच्छी पोजीशन पर होगा। केशोराम को लगा, जैसे परिचित की नज़रों में उसकी स्थिति बेहतर बनने लगी है। प्रतिष्ठा का पारा धीरे-धीरे ऊपर को उठने लगा। ससुर के बड़प्पन की लौ लाजपतनगर से चलकर यहाँ कटारा राघोमल में उस पर पड़ने लगी है।
‘‘मैं ज़रूर मिलने आऊँगा,’’ और उसने जेब में से हरे रंग की सुनहरे क्लिप वाली नोट-बुक में चोपड़ा साहिब का पता और टेलीफ़ोन नम्बर लिख लिये।
‘‘और सुनाइए, आपका क्या हाल-चाल है ? क्या शगल है आजकल ?’’
केशोराम का दिल बैठ गया। इसी प्रश्न से बचने के लिए वह कन्नी काट रहा था। इस प्रश्न से वह परिचित था। दिन में बीसियों बार लोगों की आँखों में दिलचस्पी की हल्की-सी चमक को जगते-बुझते देखा करता था।
‘‘वही इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट का काम करता हूँ।’’ उसने बैठती-सी आवाज़ में उत्तर दिया।
वही प्रतिक्रिया हुई, जिसका उसे डर था। उस व्यक्ति की आँखों में आग्रह की चमक बिल्कुल बुझ गयी। भावशून्य आँखों से उसके चेहरे की ओर देखता हुआ, वह बड़प्पन के अंदाज में बोला, ‘‘अच्छा अभी तक वहीं टिके हो !’’
केशोराम पर घड़ों पानी पड़ गया। और केशोराम को लगा, जैसे उस आदमी की नज़र नीचे ओर केशोराम के कपड़ों पर से होती हुई उसके जूतों पर जा पहुँची है।
अपने व्यवसाय के बारे में केशोराम जान-बूझकर ‘इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट’ शब्द का प्रयोग करता था। ‘इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट’ एक व्यापक शब्द है, जिसमें लखपति भी आ जाते हैं और अठन्नी-सैकड़ा कमाने वाले दलाल भी, और इण्डेण्ट का व्यापार करने वाले उस जैसे कमीशन एजेण्ट भी। यह वैसा ही था, जैसे प्राइमरी स्कूल का अध्यापक भी कहे कि वह शिक्षा-विभाग में काम करता है, और विश्वविद्यालय का वाइस-चांसलर भी कहे कि वह शिक्षा-विभाग में काम करता है। पर केशोराम को लगा, जैसे वह आदमी स्थिति को भाँप गया है। और उसकी पोजीशन को समझ गया है।
‘‘चलिए, घर का काम है, क्या बुरा है।’’ उसने कहा, और फिर पहले-जैसी सरपरस्ती के अन्दाज़ में, जेब में से गोल्ड-फ्लेक की डिबिया निकाल-कर केशोराम को सिगरेट पेश की। केशोराम को लगा, जैसे उसे तिरस्कृत करने के लिए, अपने और उसके बीच का अन्तर दिखाने के लिए ही सिगरेट पेश की जा रही है।
‘‘जी नहीं, आप पीजिए।’’
उसे लगा, इण्टर्व्यू समाप्त हो चुका है और उसे विदा हो जाना चाहिए।
सड़क के किनारे-किनारे चलते हुए केशोराम को लगा, जैसे वह पैर घसीटकर चल रहा है। उसे अपनी स्थिति के बारे में सोचकर वितृष्णा हुई। पहले भी पैर घसीटता था, आज भी घसीटता हूँ। वर्षों से पैर घसीटता चला आ रहा हूँ। ज़िन्दगी में कुछ बना-बनाया नहीं है। सारी ज़िन्दगी मिट्टी हो गयी है...
दिन में चौबीस घण्टे उसे अपनी वास्तविक स्थिति का बोध रहता था। मानो उसकी कोई तीसरी आँख हर वक़्त खुली रहती हो और सारा वक़्त उसकी वास्तविक स्थिति को झाँकती रहती हो। ‘अभी तक वहीं पड़े हो ?’ केशोराम ने उस आदमी का वाक्य मन ही मन दोहराया और खिन्न हो उठा। मेरी जगह कोई दूसरा आदमी होता तो यह आदमी इस तरह से बात नहीं करता। क्या चोपड़ा साहिब से भी इसी तरह मिलता, जिस तरह मुझे मिला है ? उन्हें तो झुक-झुक सलाम करता है। वह जानता था कि लोगों के व्यवहार में उसके प्रति बेरुखी पाई जाती है। यहाँ तक कि अपने सगे-सम्बन्धियों के व्यवहार में भी। पिछली बार जब वह अपने ससुर चोपड़ा साहिब से मिलने गया तो बातें करते हुए चोपड़ा साहिब ने अपना पैर उठाकर उसकी कुर्सी पर रख दिया था, उसे जताने के लिए कि वह उसकी हैसियत को समझते हैं। क्या वह इस तरह की बात अपने बड़े दामाद के साथ भी करेंगे ? क्या उसकी कुर्सी पर भी अपना पैर रख देंगे ? उसका बड़ा दामाद सरकारी अफसर है, एक हज़ार रुपया महीना पाता है। उसके लिए तो चोपड़ा साहिब केक मँगवाते हैं, उसके साथ हँस-हँसकर बातें करते हैं। केशोराम जाय, तो उसे लेक्चर देते हैं।
बस-स्टाप पर फिर उसे एक परिचित चेहरा नज़र आया और केशोराम को लगा, जैसे उसने केशोराम को पहचानकर मुँह फेर लिया है। क्या मैं अफ़सर होता तो यह इस तरह मुँह फेर लेता ?
बस के डण्डे के साथ झूलते हुए केशोराम को अपनी पत्नी की याद आयी। उसकी आंखों में भी उपेक्षा उतर आयी थी। अब उसकी पत्नी को उसकी हर आदत अखरने लगी थी। वह खाना खाते समय सालन ज्यादा खा जाता था। किसी जमाने में उसकी पत्नी हँसकर उसकी कटोरी में और सालन डाल दिया करती थी। तब उसकी पत्नी की आँखों में उसके भविष्य के बारे में हल्की-सी आशा की चमक रहा करती थी। मानो उसे उम्मीद हो कि एक-न-एक दिन उसकी स्थिति में परिवर्तन आएगा। फिर एक दिन सहसा उसने उस चमक को बुझते देखा था। उसे वह क्षण याद था, जब वह चमक बुझ गई थी और उसकी पत्नी ने उसकी ओर से मुँह फेर लिया था। उस रोज़ वह सुबह के वक्त चौके में पत्नी के साथ बैठा चाय पी रहा था। तब वे शहर की एक संकरी गली में दो कमरों का घर लेकर रहने लगे थे, उसकी पत्नी आंगन के ही एक कोने में रसोई किया करती थी। आँगन की छत में लोहे की सलाखों की झरझरी लगी थी, जिसमें से रोशनी छन-छनकर नीचे आया करती थी। सुबह नाश्ते के वक्त ज़रूर झरझरी में से पानी गिरता था, ऊपर रहने वाले किरायेदार की पत्नी अपना आँगन धोती थी और किरायेदार उसके किसी सेठ का दूर का सम्बन्धी था। जब पानी गिरता था, तो वह उठकर ड्योढ़ी की दहलीज पर बैठ जाया करता था।
पर उस रोज़ गन्दे पानी के छीटे उसके सिर पर गिरे थे। तब भी वह चुपचाप उठकर दहलीज पर चला गया था। इस पर उसकी पत्नी बड़बड़ायी थी। उसने अपनी पत्नी को डाँट दिया था, ‘‘तुम चाहती हो कि इस छोटी-सी बात के लिए मैं सेठ के नाती से दुश्मनी मोल ले लूँ ? तुम अपना चूल्हा पीछे सरका लो।’’ तभी उसकी पत्नी ठिठककर उसकी ओर देखने लगी थी, और तभी उसकी आँखों में आशा की चमक बुझ गयी और उसने उपेक्षा से मुँह फेर लिया था।...
‘‘आगे बढ़ते जाओ जी, आगे बढ़ते जाओ। बाबूजी, खाकी पतलून वाले, आगे बढ़ते आओ।...’’
कण्डक्टर की आवाज़ थी। डण्डे को पकड़े-पकड़े वह थोड़ा आगे की ओर सरक गया। क्या चोपड़ा साहिब भी इस तरह बसों में धक्के खाते हैं ! क्या उनके बड़े दामाद को भी बस में चढ़ पाने के लिए तीन-तीन बसों के पीछे भागना पड़ता है ! इस वक्त वह मजे से मोटर में बैठा अपने दफ़्तर में जा रहा होगा। सब दोष मेरी मिट्टी का है, और किसी का नहीं। कोई क्या कह सकता है। अगर एम.ए. पास करने के बाद मैं अपना शहर छोड़ देता, तो इस वक्त तक ज़रूर कहीं-न-कहीं पहुँच चुका होता। उसे अपने बाप पर गुस्सा आया, जिसने अपने सफेद बालों का वास्ता डालकर उसे घर पर रोके रखा था। उसे लगा, जैसे इन्सान की ज़िन्दगी में कभी-कभी एक क्षण आकाश से उतरता है, चमकता हुआ सौभाग्य-क्षण, उज्ज्वल, झिलमिलाता हुआ क्षण। आकाश से सारे वक्त ऐसे क्षण उतरते रहते हैं, जिस किसी पर पड़ जाते हैं, उसका जीवन खिल उठता है। ऐसा सौभाग्य का क्षण उस पर नहीं उतरा, और जो अब तक नहीं उतरा, वह आगे क्या उतरेगा।....सबसे बड़ी चीज़ दुनिया में पैसा है, पोजीशन है। बाकी सब ढकोसला है। सब बकवास है। ताकत और पैसा और रोब-दाब, इनसे बढ़कर कोई चीज़ दुनिया में नहीं है। जिसके पास पैसा है, उसके पास सब कुछ है। बाबू हरगोबिन्द ने मेरे साथ ही एजेण्टी का काम शुरू किया था। आज तीन मकानों का मालिक है। जब-जब जाता हूँ, अपने मकान के चबूतरे पर टहल रहा होता है और जेब में से बादाम कि गिरियाँ निकाल-निकाल कर खा रहा होता है।....इधर मेरा घर है कि मैं और मेरी पत्नी बात-बात पर एक-दूसरे पर चिल्लाने लगते हैं। मुझे गुस्सा आता है तो मैं हाँफने लगता हूँ।
एक कमरे से दूसरे कमरे में जाता हूँ। हाथ पसारता हूँ। फिर हाँफने लगता हूँ। पत्नी भी हाथ पसारकर कहती है, ‘‘और चिल्लाओ, चिल्लाते जाओ ! बुज़दिल कहीं का ! मरदूद ! कर-कुरा कुछ सकता नहीं, केवल चिल्ला सकता है।’’ और मेरी नाकामयाबियों को एक-एक कर मेरे मुँह पर मारने लगती है।
‘‘आगे सरकते जाओ साहिब, आगे सरकते जाओ। बाबू, खाकी पतलून-वाले, आगे बढ़ते जाओ।’’
पूरे ग्यारह बजते-बजते वह कारखाने में दाखिल हुआ। कारखाना शहर से पाँच मील की दूरी पर था। यहाँ वह पिछले तीन रोज़ से किरमिच का पचास गाँठ का आर्डर मंजूर करवाने आ रहा था, पर अभी तक बड़े सेठ से मुलाकात नहीं हो पायी थी।
‘‘जय सीताराम जी !’’ उसने क्लर्कों के कमरे में क़दम रखते हुए प्रेम बाबू से कहा। प्रेम बाबू अपनी फ़ाइल पर झुका रहा। केशोराम जानता था कि वह अभिवादन का उत्तर नहीं देगा। थोक बाज़ार में बैठने वाले दुकानदार भी उसके अभिवादन का उत्तर नहीं देते थे। ‘‘जय सीताराम जी !’’ कहता हुआ वह दुकानों के बीचों-बीच सड़क पर रोज़ गुज़र जाया करता था। पतला छरहरे बदन का प्रेम बाबू माशूकों की तरह दफ़्तर में काम करता था। अन्दर से बड़े सेठ केवल उसी को पुकारते थे, और वह मटक-मटककर, टहलता हुआ फ़ाइल उठाकर अन्दर जाता था। काम में तेज़ था, सभी चिट्ठियों के बीचे एक ओर उसी के हस्ताक्षर की चिड़ी बनी रहती थी। बड़े सेठ के दफ्तर में से जब किसी को डाँटने की आवाज़ आती, या फ़र्श पर फ़ाइल पटकने की, तो क्लर्कों की क़लमें लरज जाती थीं। क्लर्कों के हॉल-कमरे में त्रास छा जाता था। मगर प्रेम बाबू निश्चिन्त बैठा रहता था।
‘‘आज हमारी मुलाकात करवा दो, प्रेम बाबू, तीन दिन से यहाँ बैठा हूँ।’’
वह स्वयं कुर्सी खींचकर प्रेम बाबू की मेज़ के सामने बैठ गया और बैग खोलकर उसमें से अपना इण्डैण्ट-बुक निकालकर सामने रख ली।
तभी साहिब के दफ्तर के अन्दर से ज़मीन पर रजिस्टर पटकने की आवाज़ आयी और उसके बाद फटकारने-डाँटने की। एक लरजिश की लहर सारे कमरे में दौड़ गयी। क्लर्कों ने कनखियों से एक-दूसरे की ओर देखा।
उसकी नज़र साहिब के दफ़्तर के दरवाज़े पर पड़ी। दरवाज़े पर लगा पीतल का हैण्डिल ज्यों-का-त्यों निस्पन्द अपनी जगह पर स्थिर था। उसकी बगल में दीवार पर लगी घड़ी भी खामोश-सी खड़ी थी।
साढ़े ग्यारह बजते-बजते बम्बई का एजेण्ट आया। केशोराम उसे वर्षों से जानता था कि उसे बैठाने कि लिए प्रेम बाबू उठ खड़ा होगा। बम्बई का सेठ क़द में लंबा था। हाथी की तरह धीमे-धीमे चलता था, धीमे-धीमे बोलता था, केशोराम उसे वर्षों से जानता था। सेठ के ऊँचे कद, बन्द गले के लम्बे सफेद कोट और कामदार टोपी में ही बड़प्पन था। अगर केशोराम लम्बे क़द का होता, तो उसकी चाल-ढाल में भी रोब आ गया होता।
केशोराम स्वयं अपनी कुर्सी छोड़कर एक ओर को हट गया।
‘‘कहो प्रेम बाबू अच्छे हो !’’ कहते हुए बम्बई का सेठ कुर्सी पर बैठ गया। केशोराम को लगा, जैसे उसे फिर चिथड़े की तरह एक ओर को फेंक दिया गया है। तभी सेठ ने गर्दन घुमाकर उसकी ओर देखा और मुस्कराकर बोला, ‘‘मैंने आपकी कुर्सी छीन ली।’’
‘‘नहीं, नहीं। इसमें क्या है।’’ केशोराम ने सिर हिलाते हुए कहा। तभी केशोराम के बदन में गरमाइश आ गयी। पुलकन भी हुई। भावोद्रेक भी हुआ। केशोराम जितनी जल्दी तिरस्कार को महसूस करता था, उतनी ही जल्दी उसे क्षमा भी कर देता था। बल्कि भावुक हो उठता था।
लेकिन बारह बजते-बजते केशोराम के कान खड़े हो गये। वातावरण में एक प्रकार का तनाव आ गया। एक धूमिल-सा संशय उसके मन में जागा कि उसका अपमान होने जा रहा है। उसे अक्सर इस बात का पहले से भास हो जाता था।
हुआ कुछ नहीं था। केवल पीछे के दरवाज़े में कारखाने के भोजनालय का रसोइया प्रकट हुआ था और धीरे-धीरे उसकी ओर चला आ रहा था। कारखाने वालों ने यहाँ पर एक भोजनालय खोल रखा था। साफ-सुथरा भोजनालय। नहा-धोकर, नंगे बदन रसोई पकाने वाला महाराज, जो हाथ जोड़कर बात करता था और जिसके जिस्म पर यज्ञोपवीत लटकता रहता था। यहाँ बाहर से आनेवाले लोगों को खाना खिलाया जाता था।
महाराज बढ़ता आ रहा था और केशोराम के मन का संशय धक्-धक् का रूप लेने लगा था।
‘‘जीम लीजिए, भोजन तैयार है।’’ उसने पास आकर कहा। केशोराम उसे पहले से देख रहा था। बम्बई के सेठ की नज़र उसकी ओर बाद में उठी।
‘‘जीम लीजिए, भोजन तैयार है !’’
केशोराम को लगा, जैसे महाराज उतनी ही विनम्रता से उसे भी निमन्त्रण दे रहा है, जितनी विनम्रता से बम्बई के सेठ को। महाराज के नम्र निवेदन को सुनकर केशोराम को भूख लग आयी। उसने आँखें मिचकाकर फिर एक बार महाराज की ओर देखा। हाथ जुड़े थे, अधमुँदी आँखें विनम्र निमन्त्रण में बिछी-बिछी जा रही थीं। बस जब बम्बई का सेठ उठा, तो केशोराम भी उठ खड़ा हुआ। और जब बम्बई के सेठ ने प्रेम बाबू से चलते-चलते कहा, ‘‘अच्छा प्रेम बाबू, हम इतने में जीम आवें।’’ तो केशोराम ने भी मुड़कर प्रेम बाबू की ओर उसी ढंग से देखा, और बम्बई के सेठ के पीछे-पीछे भोजनालय की राह ली। हैसियत का स्तर ऊँचा हो जाये, तो दिल में गुदगुदी होती है। पुलकन की हलकी-हलकी लहरियाँ उठने लगती हैं।
पर पाँच ही मिनट के बाद केशोराम लौट आया। पानी-पानी, पसीना-पसीना, हीन भाव की सबसे निचली सीढ़ी तक लुढ़क कर पहुँचा हुआ। आते ही कुर्सी पर बैठ गया और गठरी की तरह पड़ रहा, कपड़ों के ढेर की तरह।
महाराज ने न जाने किस जन्म का बदला लिया था। ऐन भोजनालय के बाहर पहुँचकर घूम गया था। बम्बई वाले सेठ को तो मेज-कुर्सी वाले कमरे के अन्दर पधारने को कहा और केसोराम को बरामदे की ओर इशारा करते हुए बोला, ‘‘बाबूजी, आप उधर विराजिए। आपके लिए इधर पत्तल लगवा दूँगा।’’
कारखाने के रसोइये की आँखें भी तोलना जानती हैं। कारखाने के सभी लोग, रसोइया भी और क्लर्क भी और चपरासी-चौकीदार भी, बाहर से आनेवाले लोगों को बड़े साहिब की आँख से देखते हैं। जिनसे बड़े साहिब हँसकर मिलें, उनसे वे हँसकर मिलते हैं। जिनसे साहिब हाथ मिलाते हैं। उन्हें वे सलाम करते हैं। सभी में साहिब की आत्मा बसती है।
वह उसी क्षण भोजनालय से लौट आया था और रास्ते में वह एक बार ठिठक गया था। उसके मन में आया, इण्डैण्ट-बुक फेंक दे और घर लौट जाये। उसे लगा, जैसे रसोइये ने उस पर पेशाब कर दिया है।
पर ठिठकना लौट जाना नहीं होता। हम समझते हैं कि ठिठकने वाले क्षण जीवन के निर्णायक क्षण होते हैं, गाड़ी का काँटा बदलने वाले क्षण। पर ऐसा कुछ नहीं है। यों तो कोल्हू का बैल भी चलते-चलते ठिठक जाता है, रुक भी जाता है, पर मुड़कर कभी नहीं चलता। केशोराम भी दफ़्तर में लौट आया था और कुर्सी पर ढेर हो गया था।
सब दोष इस खाकी पतलून का था। सब दोष एम.ए. की डिग्री का था। वरना दलाल दुनीचन्द क्यों पानी-पानी नहीं होता। काली टोपी पहने और छोटी-सी बही बगल में दबाये दुनीचन्द झट से सेठ की दहलीज़ पर जा बैठता है। सेठ की रुखाई उसे नहीं चुभती। कोई बहुत रूखा बोले, तो दुनीचन्द जेब में से तम्बाकू की डिबिया और चूना निकालकर, तम्बाकू की चुटकी फाँक लेता है। तम्बाकू की चुटकी से सब तिरस्कारों का डंक टूट जाता है। वह कटरा राधोमल में से निकलने के ख्वाब नहीं देखता।
दोपहर हो चुकी होगी। बड़े साहब से मिलने के अभी तक कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे। बम्बई का सेठ जीमकर लौटने के बाद सीधा साहिब के दफ़्तर में चला गया था और अपना आर्डर मंजूर करवाकर, उधर से ही बाहर चला गया था। तभी केशोराम बैठा-बैठा स्वप्न देखने लगा। सभी एजेण्ट दिवा स्वप्न देखते हैं। सभी वे लोग, जो अपनी पटरी से उतरे होते हैं। जिनकी एक टाँग कटरा राधोमल में, तो दूसरा लाजपतनगर में होती है...
उसने देखा कि वह रेलगाड़ी में बैठा है, उसके पास टिकट भी है, पर कारखाने का बड़ा सेठ उसकी सीट पर अपना बिस्तर बिछाना चाहता है और उसे डिब्बे में से निकल जाने को कह रहा है। वह केशोराम को नहीं पहचानता मगर केशोराम ने उसे पहचान लिया है। केशोराम उसे अपना हरे रंग का टिकट दिखाता है और पीले रंग का रिज़र्वेशन टिकट, जिस पर लाल रंग की रेखा खिंची है। सेठ की ठुड्डी पहले से ज़्यादा चौड़ी हो गई है और उसके गाल लटक आए हैं। सेठ हाथ चमकाकर उसे निकल जाने को कहता है, मगर केशोराम टेढ़ा होकर खड़ा हो जाता है और बर्थ के डण्डे को पकड़ लेता है। प्रेम बाबू पहुँचा जाता है और भोजनालय का महाराज भी, और दोनों उसे धक्के दे-देकर निकालने की कोशिश करते हैं। वह डण्डे से और ज़्यादा चिपक जाता है। महाराज डण्डे पर से उसकी उँगलियाँ खींच-खींचकर उतारता है, पर केशोराम डण्डे को फिर से पकड़ लेता है। सभी उसे बराबर धक्के दिये जा रहा हैं और तभी गाड़ी चलने लगी है, उसके पहियों की घर्र-घर्र की आवाज़ आने लगती है....
बिलकुल दलालोंवाला सपना था, जिसमें दलाल के साहस को पराकाष्ठा तक दिखलाया जाता है। एक धक्के के साथ केशोराम होश में आ गया। उसके शरीर को जरा-सा हिचकोला भी लगा, मानो चलती गाड़ी का ही धक्का हो। बाकी का दृश्य तो आँखों से ओझल हो गया, लेकिन घर्र-घर्र की आवाज़ अभी भी आ रही थी। उसने प्रेम बाबू की ओर देखा। प्रेम बाबू मुस्कराए जा रहा था।
‘‘क्या बात है प्रेम बाबू ?’’ केशोराम ने तुनककर पूछा। केशोराम का शरीर गाड़ी में पड़े धक्कों से अभी भी धुना-धुना महसूस हो रहा था।
‘‘सुनते नहीं हो ? साहिब की मोटर जा रही है।’’
केशोराम को एक और हिचकोला लगा। सचमुच मोटर के इंजन की आवाज़ थी। केशोराम सहसा उठ खड़ा हुआ, इण्डेण्ट-बुक उसके हाथ में थी, और वह एक छलाँग में जैसे दस फ़ुट का फ़ासला तय करके साहिब के दफ़्तर के बाहर जा पहुँचा। दरवाज़े पर पहुंचकर वह क्षण भर के लिए ठिठका। उसे लगा, जैसे कोई आँधी उसे बहाकर ले आयी है; दरवाज़े पर लगे पीतल के हैण्डल पर उसकी नज़र अटक गयी। उसका हाथ हैण्डिल तक उठने के लिए इन्कार कर रहा था। उसने घूमकर क्लर्कों की ओर देखा। प्रेम बाबू ही नहीं, पीलिया का मारा राधेमोहन भी फटी-फटी आँखों से उसे देखे जा रहे थे।
तभी दुःसाहस की स्थिति में, न जाने कैसे, उसने साहिब के कमरे का दरवाज़ा खोल दिया और अन्दर जा पहुँचा। सीधा शेर की माँद में पाँव रख दिया। बड़े से दफ़्तर के बीचों-बीच साहिब खड़ा था। लगभग वैसा ही, जैसा गाड़ी के डिब्बे में नज़र आया था, गाल लटके हुए, सफेद घुटा-घुटा सिर। दफ़्तर के बीचो-बीच खड़ा अपना कोट पहन रहा था ताकि फ़ाइल पटकने में आसानी रहे। साहिब कमरे के बीचोबीच खड़े थे और बाहर मोटर का इंजन अभी भी चल रहा था, घर्र-घर्र, घर्र-घर्र। साहिब मेज़ पर से कुछ उठाने आए थे। केशोराम को लगा, साहिब का कमरा काँच का बना है, बिल्लौर चमकते काँच का जो जगह-जगह से चमकता है।
‘‘भाई साहब, हे केशोरामजी ! पहचाना नहीं क्या ?’’ आवाज़ आयी।
वह खिसिया गया और बगलें झाँकता-सा उसकी ओर गया। जिस ढंग से उस आदमी ने इसे बुलाया था, केशोराम को पहले ही उसमें अवज्ञा की झलक मिल गयी। इस आवाज़ में न आग्रह था, न आदर। केशोराम को अपनी खाकी पतलून का और नीचे पहने मैले-सफेद जूतों का भास हुआ।
‘‘कहिए, कहाँ चले जा रहे हैं इस वक़्त ? मुझे पहचाना या नहीं ?’’
उसने क्षीण-सी मुस्कान से फिर उस आदमी के चेहरे की ओर देखा। वह अभी भी उसे पहचान नहीं पाया था।
‘‘इनको जानते हो ना।’’ उस आदमी ने अपने साथी से केशोराम का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘चोपड़ा साहिब के दामाद हैं।’’
तीसरे आदमी ने औपचारिकता से हाथ आगे बढ़ा दिया।
‘‘चोपड़ा साहिब को जानते हो ना। वह मेरे बड़े मेहरबान रह चुके हैं, अम्बाला में हमारे सुपरिण्टेण्डेण्ट हुआ करते थे।’’
पर उस आदमी को कोई दिलचस्पी नहीं थी, न चोपड़ा साहिब में न किसी खाकी पतलूनवाले उनके दामाद में। उसने हाथ मिलाने के बाद आँखें फेर लीं। केशोराम को लगा, जैसे चिथड़े की तरह उसने उसे सड़क के किनारे फेंक दिया है।
‘‘चोपड़ा साहिब, आजकल कहाँ पर हैं ?’’
‘‘यहीं पर हैं,’’ केशोराम ने विनम्र धीमी आवाज़ में कहा।
‘‘अच्छा ! यहीं पर हैं।’’ केशोराम को लगा, जैसे चोपड़ा साहिब के यहाँ होने से उसका कुछ महत्त्व बढ़ गया है।
‘‘मैं ज़रूर दर्शन करने आऊँगा। आजकल किस पोस्ट पर हैं ?’’
‘‘सर्विश से तो रिटायर हो चुके हैं, लाजपतनगर में रहते हैं।’’
उस व्यक्ति की आँखों में हल्की-सी आग्रह की झलक जो क्षण-भर पहले मिली थी, ‘रिटायर’ शब्द सुनकर बुझ गयी। केशोराम ने झट से जोड़ा, ‘‘लाजपत नगर में रहते हैं, वहीं पर अपना बँगला बना लिया है।’’
अपरिचित की आँखों में आग्रह की झलक लौट आई। लाजपत नगर में बड़े आदमी बँगला बनाते हैं, और जिस आदमी ने लाजपत नगर में अपना घर बना लिया है, वह अभी भी अच्छी पोजीशन पर होगा। केशोराम को लगा, जैसे परिचित की नज़रों में उसकी स्थिति बेहतर बनने लगी है। प्रतिष्ठा का पारा धीरे-धीरे ऊपर को उठने लगा। ससुर के बड़प्पन की लौ लाजपतनगर से चलकर यहाँ कटारा राघोमल में उस पर पड़ने लगी है।
‘‘मैं ज़रूर मिलने आऊँगा,’’ और उसने जेब में से हरे रंग की सुनहरे क्लिप वाली नोट-बुक में चोपड़ा साहिब का पता और टेलीफ़ोन नम्बर लिख लिये।
‘‘और सुनाइए, आपका क्या हाल-चाल है ? क्या शगल है आजकल ?’’
केशोराम का दिल बैठ गया। इसी प्रश्न से बचने के लिए वह कन्नी काट रहा था। इस प्रश्न से वह परिचित था। दिन में बीसियों बार लोगों की आँखों में दिलचस्पी की हल्की-सी चमक को जगते-बुझते देखा करता था।
‘‘वही इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट का काम करता हूँ।’’ उसने बैठती-सी आवाज़ में उत्तर दिया।
वही प्रतिक्रिया हुई, जिसका उसे डर था। उस व्यक्ति की आँखों में आग्रह की चमक बिल्कुल बुझ गयी। भावशून्य आँखों से उसके चेहरे की ओर देखता हुआ, वह बड़प्पन के अंदाज में बोला, ‘‘अच्छा अभी तक वहीं टिके हो !’’
केशोराम पर घड़ों पानी पड़ गया। और केशोराम को लगा, जैसे उस आदमी की नज़र नीचे ओर केशोराम के कपड़ों पर से होती हुई उसके जूतों पर जा पहुँची है।
अपने व्यवसाय के बारे में केशोराम जान-बूझकर ‘इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट’ शब्द का प्रयोग करता था। ‘इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट’ एक व्यापक शब्द है, जिसमें लखपति भी आ जाते हैं और अठन्नी-सैकड़ा कमाने वाले दलाल भी, और इण्डेण्ट का व्यापार करने वाले उस जैसे कमीशन एजेण्ट भी। यह वैसा ही था, जैसे प्राइमरी स्कूल का अध्यापक भी कहे कि वह शिक्षा-विभाग में काम करता है, और विश्वविद्यालय का वाइस-चांसलर भी कहे कि वह शिक्षा-विभाग में काम करता है। पर केशोराम को लगा, जैसे वह आदमी स्थिति को भाँप गया है। और उसकी पोजीशन को समझ गया है।
‘‘चलिए, घर का काम है, क्या बुरा है।’’ उसने कहा, और फिर पहले-जैसी सरपरस्ती के अन्दाज़ में, जेब में से गोल्ड-फ्लेक की डिबिया निकाल-कर केशोराम को सिगरेट पेश की। केशोराम को लगा, जैसे उसे तिरस्कृत करने के लिए, अपने और उसके बीच का अन्तर दिखाने के लिए ही सिगरेट पेश की जा रही है।
‘‘जी नहीं, आप पीजिए।’’
उसे लगा, इण्टर्व्यू समाप्त हो चुका है और उसे विदा हो जाना चाहिए।
सड़क के किनारे-किनारे चलते हुए केशोराम को लगा, जैसे वह पैर घसीटकर चल रहा है। उसे अपनी स्थिति के बारे में सोचकर वितृष्णा हुई। पहले भी पैर घसीटता था, आज भी घसीटता हूँ। वर्षों से पैर घसीटता चला आ रहा हूँ। ज़िन्दगी में कुछ बना-बनाया नहीं है। सारी ज़िन्दगी मिट्टी हो गयी है...
दिन में चौबीस घण्टे उसे अपनी वास्तविक स्थिति का बोध रहता था। मानो उसकी कोई तीसरी आँख हर वक़्त खुली रहती हो और सारा वक़्त उसकी वास्तविक स्थिति को झाँकती रहती हो। ‘अभी तक वहीं पड़े हो ?’ केशोराम ने उस आदमी का वाक्य मन ही मन दोहराया और खिन्न हो उठा। मेरी जगह कोई दूसरा आदमी होता तो यह आदमी इस तरह से बात नहीं करता। क्या चोपड़ा साहिब से भी इसी तरह मिलता, जिस तरह मुझे मिला है ? उन्हें तो झुक-झुक सलाम करता है। वह जानता था कि लोगों के व्यवहार में उसके प्रति बेरुखी पाई जाती है। यहाँ तक कि अपने सगे-सम्बन्धियों के व्यवहार में भी। पिछली बार जब वह अपने ससुर चोपड़ा साहिब से मिलने गया तो बातें करते हुए चोपड़ा साहिब ने अपना पैर उठाकर उसकी कुर्सी पर रख दिया था, उसे जताने के लिए कि वह उसकी हैसियत को समझते हैं। क्या वह इस तरह की बात अपने बड़े दामाद के साथ भी करेंगे ? क्या उसकी कुर्सी पर भी अपना पैर रख देंगे ? उसका बड़ा दामाद सरकारी अफसर है, एक हज़ार रुपया महीना पाता है। उसके लिए तो चोपड़ा साहिब केक मँगवाते हैं, उसके साथ हँस-हँसकर बातें करते हैं। केशोराम जाय, तो उसे लेक्चर देते हैं।
बस-स्टाप पर फिर उसे एक परिचित चेहरा नज़र आया और केशोराम को लगा, जैसे उसने केशोराम को पहचानकर मुँह फेर लिया है। क्या मैं अफ़सर होता तो यह इस तरह मुँह फेर लेता ?
बस के डण्डे के साथ झूलते हुए केशोराम को अपनी पत्नी की याद आयी। उसकी आंखों में भी उपेक्षा उतर आयी थी। अब उसकी पत्नी को उसकी हर आदत अखरने लगी थी। वह खाना खाते समय सालन ज्यादा खा जाता था। किसी जमाने में उसकी पत्नी हँसकर उसकी कटोरी में और सालन डाल दिया करती थी। तब उसकी पत्नी की आँखों में उसके भविष्य के बारे में हल्की-सी आशा की चमक रहा करती थी। मानो उसे उम्मीद हो कि एक-न-एक दिन उसकी स्थिति में परिवर्तन आएगा। फिर एक दिन सहसा उसने उस चमक को बुझते देखा था। उसे वह क्षण याद था, जब वह चमक बुझ गई थी और उसकी पत्नी ने उसकी ओर से मुँह फेर लिया था। उस रोज़ वह सुबह के वक्त चौके में पत्नी के साथ बैठा चाय पी रहा था। तब वे शहर की एक संकरी गली में दो कमरों का घर लेकर रहने लगे थे, उसकी पत्नी आंगन के ही एक कोने में रसोई किया करती थी। आँगन की छत में लोहे की सलाखों की झरझरी लगी थी, जिसमें से रोशनी छन-छनकर नीचे आया करती थी। सुबह नाश्ते के वक्त ज़रूर झरझरी में से पानी गिरता था, ऊपर रहने वाले किरायेदार की पत्नी अपना आँगन धोती थी और किरायेदार उसके किसी सेठ का दूर का सम्बन्धी था। जब पानी गिरता था, तो वह उठकर ड्योढ़ी की दहलीज पर बैठ जाया करता था।
पर उस रोज़ गन्दे पानी के छीटे उसके सिर पर गिरे थे। तब भी वह चुपचाप उठकर दहलीज पर चला गया था। इस पर उसकी पत्नी बड़बड़ायी थी। उसने अपनी पत्नी को डाँट दिया था, ‘‘तुम चाहती हो कि इस छोटी-सी बात के लिए मैं सेठ के नाती से दुश्मनी मोल ले लूँ ? तुम अपना चूल्हा पीछे सरका लो।’’ तभी उसकी पत्नी ठिठककर उसकी ओर देखने लगी थी, और तभी उसकी आँखों में आशा की चमक बुझ गयी और उसने उपेक्षा से मुँह फेर लिया था।...
‘‘आगे बढ़ते जाओ जी, आगे बढ़ते जाओ। बाबूजी, खाकी पतलून वाले, आगे बढ़ते आओ।...’’
कण्डक्टर की आवाज़ थी। डण्डे को पकड़े-पकड़े वह थोड़ा आगे की ओर सरक गया। क्या चोपड़ा साहिब भी इस तरह बसों में धक्के खाते हैं ! क्या उनके बड़े दामाद को भी बस में चढ़ पाने के लिए तीन-तीन बसों के पीछे भागना पड़ता है ! इस वक्त वह मजे से मोटर में बैठा अपने दफ़्तर में जा रहा होगा। सब दोष मेरी मिट्टी का है, और किसी का नहीं। कोई क्या कह सकता है। अगर एम.ए. पास करने के बाद मैं अपना शहर छोड़ देता, तो इस वक्त तक ज़रूर कहीं-न-कहीं पहुँच चुका होता। उसे अपने बाप पर गुस्सा आया, जिसने अपने सफेद बालों का वास्ता डालकर उसे घर पर रोके रखा था। उसे लगा, जैसे इन्सान की ज़िन्दगी में कभी-कभी एक क्षण आकाश से उतरता है, चमकता हुआ सौभाग्य-क्षण, उज्ज्वल, झिलमिलाता हुआ क्षण। आकाश से सारे वक्त ऐसे क्षण उतरते रहते हैं, जिस किसी पर पड़ जाते हैं, उसका जीवन खिल उठता है। ऐसा सौभाग्य का क्षण उस पर नहीं उतरा, और जो अब तक नहीं उतरा, वह आगे क्या उतरेगा।....सबसे बड़ी चीज़ दुनिया में पैसा है, पोजीशन है। बाकी सब ढकोसला है। सब बकवास है। ताकत और पैसा और रोब-दाब, इनसे बढ़कर कोई चीज़ दुनिया में नहीं है। जिसके पास पैसा है, उसके पास सब कुछ है। बाबू हरगोबिन्द ने मेरे साथ ही एजेण्टी का काम शुरू किया था। आज तीन मकानों का मालिक है। जब-जब जाता हूँ, अपने मकान के चबूतरे पर टहल रहा होता है और जेब में से बादाम कि गिरियाँ निकाल-निकाल कर खा रहा होता है।....इधर मेरा घर है कि मैं और मेरी पत्नी बात-बात पर एक-दूसरे पर चिल्लाने लगते हैं। मुझे गुस्सा आता है तो मैं हाँफने लगता हूँ।
एक कमरे से दूसरे कमरे में जाता हूँ। हाथ पसारता हूँ। फिर हाँफने लगता हूँ। पत्नी भी हाथ पसारकर कहती है, ‘‘और चिल्लाओ, चिल्लाते जाओ ! बुज़दिल कहीं का ! मरदूद ! कर-कुरा कुछ सकता नहीं, केवल चिल्ला सकता है।’’ और मेरी नाकामयाबियों को एक-एक कर मेरे मुँह पर मारने लगती है।
‘‘आगे सरकते जाओ साहिब, आगे सरकते जाओ। बाबू, खाकी पतलून-वाले, आगे बढ़ते जाओ।’’
पूरे ग्यारह बजते-बजते वह कारखाने में दाखिल हुआ। कारखाना शहर से पाँच मील की दूरी पर था। यहाँ वह पिछले तीन रोज़ से किरमिच का पचास गाँठ का आर्डर मंजूर करवाने आ रहा था, पर अभी तक बड़े सेठ से मुलाकात नहीं हो पायी थी।
‘‘जय सीताराम जी !’’ उसने क्लर्कों के कमरे में क़दम रखते हुए प्रेम बाबू से कहा। प्रेम बाबू अपनी फ़ाइल पर झुका रहा। केशोराम जानता था कि वह अभिवादन का उत्तर नहीं देगा। थोक बाज़ार में बैठने वाले दुकानदार भी उसके अभिवादन का उत्तर नहीं देते थे। ‘‘जय सीताराम जी !’’ कहता हुआ वह दुकानों के बीचों-बीच सड़क पर रोज़ गुज़र जाया करता था। पतला छरहरे बदन का प्रेम बाबू माशूकों की तरह दफ़्तर में काम करता था। अन्दर से बड़े सेठ केवल उसी को पुकारते थे, और वह मटक-मटककर, टहलता हुआ फ़ाइल उठाकर अन्दर जाता था। काम में तेज़ था, सभी चिट्ठियों के बीचे एक ओर उसी के हस्ताक्षर की चिड़ी बनी रहती थी। बड़े सेठ के दफ्तर में से जब किसी को डाँटने की आवाज़ आती, या फ़र्श पर फ़ाइल पटकने की, तो क्लर्कों की क़लमें लरज जाती थीं। क्लर्कों के हॉल-कमरे में त्रास छा जाता था। मगर प्रेम बाबू निश्चिन्त बैठा रहता था।
‘‘आज हमारी मुलाकात करवा दो, प्रेम बाबू, तीन दिन से यहाँ बैठा हूँ।’’
वह स्वयं कुर्सी खींचकर प्रेम बाबू की मेज़ के सामने बैठ गया और बैग खोलकर उसमें से अपना इण्डैण्ट-बुक निकालकर सामने रख ली।
तभी साहिब के दफ्तर के अन्दर से ज़मीन पर रजिस्टर पटकने की आवाज़ आयी और उसके बाद फटकारने-डाँटने की। एक लरजिश की लहर सारे कमरे में दौड़ गयी। क्लर्कों ने कनखियों से एक-दूसरे की ओर देखा।
उसकी नज़र साहिब के दफ़्तर के दरवाज़े पर पड़ी। दरवाज़े पर लगा पीतल का हैण्डिल ज्यों-का-त्यों निस्पन्द अपनी जगह पर स्थिर था। उसकी बगल में दीवार पर लगी घड़ी भी खामोश-सी खड़ी थी।
साढ़े ग्यारह बजते-बजते बम्बई का एजेण्ट आया। केशोराम उसे वर्षों से जानता था कि उसे बैठाने कि लिए प्रेम बाबू उठ खड़ा होगा। बम्बई का सेठ क़द में लंबा था। हाथी की तरह धीमे-धीमे चलता था, धीमे-धीमे बोलता था, केशोराम उसे वर्षों से जानता था। सेठ के ऊँचे कद, बन्द गले के लम्बे सफेद कोट और कामदार टोपी में ही बड़प्पन था। अगर केशोराम लम्बे क़द का होता, तो उसकी चाल-ढाल में भी रोब आ गया होता।
केशोराम स्वयं अपनी कुर्सी छोड़कर एक ओर को हट गया।
‘‘कहो प्रेम बाबू अच्छे हो !’’ कहते हुए बम्बई का सेठ कुर्सी पर बैठ गया। केशोराम को लगा, जैसे उसे फिर चिथड़े की तरह एक ओर को फेंक दिया गया है। तभी सेठ ने गर्दन घुमाकर उसकी ओर देखा और मुस्कराकर बोला, ‘‘मैंने आपकी कुर्सी छीन ली।’’
‘‘नहीं, नहीं। इसमें क्या है।’’ केशोराम ने सिर हिलाते हुए कहा। तभी केशोराम के बदन में गरमाइश आ गयी। पुलकन भी हुई। भावोद्रेक भी हुआ। केशोराम जितनी जल्दी तिरस्कार को महसूस करता था, उतनी ही जल्दी उसे क्षमा भी कर देता था। बल्कि भावुक हो उठता था।
लेकिन बारह बजते-बजते केशोराम के कान खड़े हो गये। वातावरण में एक प्रकार का तनाव आ गया। एक धूमिल-सा संशय उसके मन में जागा कि उसका अपमान होने जा रहा है। उसे अक्सर इस बात का पहले से भास हो जाता था।
हुआ कुछ नहीं था। केवल पीछे के दरवाज़े में कारखाने के भोजनालय का रसोइया प्रकट हुआ था और धीरे-धीरे उसकी ओर चला आ रहा था। कारखाने वालों ने यहाँ पर एक भोजनालय खोल रखा था। साफ-सुथरा भोजनालय। नहा-धोकर, नंगे बदन रसोई पकाने वाला महाराज, जो हाथ जोड़कर बात करता था और जिसके जिस्म पर यज्ञोपवीत लटकता रहता था। यहाँ बाहर से आनेवाले लोगों को खाना खिलाया जाता था।
महाराज बढ़ता आ रहा था और केशोराम के मन का संशय धक्-धक् का रूप लेने लगा था।
‘‘जीम लीजिए, भोजन तैयार है।’’ उसने पास आकर कहा। केशोराम उसे पहले से देख रहा था। बम्बई के सेठ की नज़र उसकी ओर बाद में उठी।
‘‘जीम लीजिए, भोजन तैयार है !’’
केशोराम को लगा, जैसे महाराज उतनी ही विनम्रता से उसे भी निमन्त्रण दे रहा है, जितनी विनम्रता से बम्बई के सेठ को। महाराज के नम्र निवेदन को सुनकर केशोराम को भूख लग आयी। उसने आँखें मिचकाकर फिर एक बार महाराज की ओर देखा। हाथ जुड़े थे, अधमुँदी आँखें विनम्र निमन्त्रण में बिछी-बिछी जा रही थीं। बस जब बम्बई का सेठ उठा, तो केशोराम भी उठ खड़ा हुआ। और जब बम्बई के सेठ ने प्रेम बाबू से चलते-चलते कहा, ‘‘अच्छा प्रेम बाबू, हम इतने में जीम आवें।’’ तो केशोराम ने भी मुड़कर प्रेम बाबू की ओर उसी ढंग से देखा, और बम्बई के सेठ के पीछे-पीछे भोजनालय की राह ली। हैसियत का स्तर ऊँचा हो जाये, तो दिल में गुदगुदी होती है। पुलकन की हलकी-हलकी लहरियाँ उठने लगती हैं।
पर पाँच ही मिनट के बाद केशोराम लौट आया। पानी-पानी, पसीना-पसीना, हीन भाव की सबसे निचली सीढ़ी तक लुढ़क कर पहुँचा हुआ। आते ही कुर्सी पर बैठ गया और गठरी की तरह पड़ रहा, कपड़ों के ढेर की तरह।
महाराज ने न जाने किस जन्म का बदला लिया था। ऐन भोजनालय के बाहर पहुँचकर घूम गया था। बम्बई वाले सेठ को तो मेज-कुर्सी वाले कमरे के अन्दर पधारने को कहा और केसोराम को बरामदे की ओर इशारा करते हुए बोला, ‘‘बाबूजी, आप उधर विराजिए। आपके लिए इधर पत्तल लगवा दूँगा।’’
कारखाने के रसोइये की आँखें भी तोलना जानती हैं। कारखाने के सभी लोग, रसोइया भी और क्लर्क भी और चपरासी-चौकीदार भी, बाहर से आनेवाले लोगों को बड़े साहिब की आँख से देखते हैं। जिनसे बड़े साहिब हँसकर मिलें, उनसे वे हँसकर मिलते हैं। जिनसे साहिब हाथ मिलाते हैं। उन्हें वे सलाम करते हैं। सभी में साहिब की आत्मा बसती है।
वह उसी क्षण भोजनालय से लौट आया था और रास्ते में वह एक बार ठिठक गया था। उसके मन में आया, इण्डैण्ट-बुक फेंक दे और घर लौट जाये। उसे लगा, जैसे रसोइये ने उस पर पेशाब कर दिया है।
पर ठिठकना लौट जाना नहीं होता। हम समझते हैं कि ठिठकने वाले क्षण जीवन के निर्णायक क्षण होते हैं, गाड़ी का काँटा बदलने वाले क्षण। पर ऐसा कुछ नहीं है। यों तो कोल्हू का बैल भी चलते-चलते ठिठक जाता है, रुक भी जाता है, पर मुड़कर कभी नहीं चलता। केशोराम भी दफ़्तर में लौट आया था और कुर्सी पर ढेर हो गया था।
सब दोष इस खाकी पतलून का था। सब दोष एम.ए. की डिग्री का था। वरना दलाल दुनीचन्द क्यों पानी-पानी नहीं होता। काली टोपी पहने और छोटी-सी बही बगल में दबाये दुनीचन्द झट से सेठ की दहलीज़ पर जा बैठता है। सेठ की रुखाई उसे नहीं चुभती। कोई बहुत रूखा बोले, तो दुनीचन्द जेब में से तम्बाकू की डिबिया और चूना निकालकर, तम्बाकू की चुटकी फाँक लेता है। तम्बाकू की चुटकी से सब तिरस्कारों का डंक टूट जाता है। वह कटरा राधोमल में से निकलने के ख्वाब नहीं देखता।
दोपहर हो चुकी होगी। बड़े साहब से मिलने के अभी तक कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे। बम्बई का सेठ जीमकर लौटने के बाद सीधा साहिब के दफ़्तर में चला गया था और अपना आर्डर मंजूर करवाकर, उधर से ही बाहर चला गया था। तभी केशोराम बैठा-बैठा स्वप्न देखने लगा। सभी एजेण्ट दिवा स्वप्न देखते हैं। सभी वे लोग, जो अपनी पटरी से उतरे होते हैं। जिनकी एक टाँग कटरा राधोमल में, तो दूसरा लाजपतनगर में होती है...
उसने देखा कि वह रेलगाड़ी में बैठा है, उसके पास टिकट भी है, पर कारखाने का बड़ा सेठ उसकी सीट पर अपना बिस्तर बिछाना चाहता है और उसे डिब्बे में से निकल जाने को कह रहा है। वह केशोराम को नहीं पहचानता मगर केशोराम ने उसे पहचान लिया है। केशोराम उसे अपना हरे रंग का टिकट दिखाता है और पीले रंग का रिज़र्वेशन टिकट, जिस पर लाल रंग की रेखा खिंची है। सेठ की ठुड्डी पहले से ज़्यादा चौड़ी हो गई है और उसके गाल लटक आए हैं। सेठ हाथ चमकाकर उसे निकल जाने को कहता है, मगर केशोराम टेढ़ा होकर खड़ा हो जाता है और बर्थ के डण्डे को पकड़ लेता है। प्रेम बाबू पहुँचा जाता है और भोजनालय का महाराज भी, और दोनों उसे धक्के दे-देकर निकालने की कोशिश करते हैं। वह डण्डे से और ज़्यादा चिपक जाता है। महाराज डण्डे पर से उसकी उँगलियाँ खींच-खींचकर उतारता है, पर केशोराम डण्डे को फिर से पकड़ लेता है। सभी उसे बराबर धक्के दिये जा रहा हैं और तभी गाड़ी चलने लगी है, उसके पहियों की घर्र-घर्र की आवाज़ आने लगती है....
बिलकुल दलालोंवाला सपना था, जिसमें दलाल के साहस को पराकाष्ठा तक दिखलाया जाता है। एक धक्के के साथ केशोराम होश में आ गया। उसके शरीर को जरा-सा हिचकोला भी लगा, मानो चलती गाड़ी का ही धक्का हो। बाकी का दृश्य तो आँखों से ओझल हो गया, लेकिन घर्र-घर्र की आवाज़ अभी भी आ रही थी। उसने प्रेम बाबू की ओर देखा। प्रेम बाबू मुस्कराए जा रहा था।
‘‘क्या बात है प्रेम बाबू ?’’ केशोराम ने तुनककर पूछा। केशोराम का शरीर गाड़ी में पड़े धक्कों से अभी भी धुना-धुना महसूस हो रहा था।
‘‘सुनते नहीं हो ? साहिब की मोटर जा रही है।’’
केशोराम को एक और हिचकोला लगा। सचमुच मोटर के इंजन की आवाज़ थी। केशोराम सहसा उठ खड़ा हुआ, इण्डेण्ट-बुक उसके हाथ में थी, और वह एक छलाँग में जैसे दस फ़ुट का फ़ासला तय करके साहिब के दफ़्तर के बाहर जा पहुँचा। दरवाज़े पर पहुंचकर वह क्षण भर के लिए ठिठका। उसे लगा, जैसे कोई आँधी उसे बहाकर ले आयी है; दरवाज़े पर लगे पीतल के हैण्डल पर उसकी नज़र अटक गयी। उसका हाथ हैण्डिल तक उठने के लिए इन्कार कर रहा था। उसने घूमकर क्लर्कों की ओर देखा। प्रेम बाबू ही नहीं, पीलिया का मारा राधेमोहन भी फटी-फटी आँखों से उसे देखे जा रहे थे।
तभी दुःसाहस की स्थिति में, न जाने कैसे, उसने साहिब के कमरे का दरवाज़ा खोल दिया और अन्दर जा पहुँचा। सीधा शेर की माँद में पाँव रख दिया। बड़े से दफ़्तर के बीचों-बीच साहिब खड़ा था। लगभग वैसा ही, जैसा गाड़ी के डिब्बे में नज़र आया था, गाल लटके हुए, सफेद घुटा-घुटा सिर। दफ़्तर के बीचो-बीच खड़ा अपना कोट पहन रहा था ताकि फ़ाइल पटकने में आसानी रहे। साहिब कमरे के बीचोबीच खड़े थे और बाहर मोटर का इंजन अभी भी चल रहा था, घर्र-घर्र, घर्र-घर्र। साहिब मेज़ पर से कुछ उठाने आए थे। केशोराम को लगा, साहिब का कमरा काँच का बना है, बिल्लौर चमकते काँच का जो जगह-जगह से चमकता है।
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