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विविध उपन्यास >> पति पत्नी और वह

पति पत्नी और वह

कमलेश्वर

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2720
आईएसबीएन :9788126711956

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देहलोलुप पुरुषों की लिप्सा और कुंठा इस उपन्यास का केन्द्रीय विषय है....

Pati Patni Aur Vah

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वरिष्ठ उपन्यासकार कमलेश्वर का यह उपन्यास समकालीन समाज में पुरुष मानसिकता को उघाड़कर रख देता है। देहलोलुप पुरुषों की लिप्सा और कुण्ठा इस उपन्यास का केन्द्रीय विषय है। पत्नी हो या प्रेमिका, स्त्री हर तरह से पुरुषों द्वारा छली जाती है।
इस उपन्यास का तथ्य भले ही रोमांटिक और हलका-फुलका लगे, लेकिन यह साधारणता ही इसकी खास विशेषता है। समकालीन जीवन की कार्यालयी संस्कृति में स्त्रियों की नियति और पुरुष की लोलुपता को लेखक ने इस उपन्यास में गहरी आंतरिकता से रेखांकित किया है।
पूँजीवादी समाज के प्रतिस्पर्द्धामूलक परिवेश की विडम्बनाओं और अन्तर्विरोधों को उजागर करने वाला यह उपन्यास शिल्प व भाषा की सहजता के लिए भी याद किया जाएगा।

 

पति-पत्नी और वह : कुछ शब्द

 

 

यह सिने उपन्यास है। इसकी रचना की प्रक्रिया और प्रयोजन उन उपन्यासों से एकदम अलग है जो मैंने अपनी अनुभवजन्य संवेदना के तहत लिखे हैं। अतः यह कहने में मुझे संकोच नहीं है कि यह उपन्यास मेरे आन्तरिक अनुभव और सामाजिक सरोकारों से नहीं जन्मा है और इसका प्रयोजन सरोकार भी अलग है। इसे लिखने का ढब और तरीका भी दूसरा है। इसकी सामाजिकता सिने-माध्यम की आवश्यकता तक सीमित है, लेकिन वह ग़ैर-ज़रूरी नहीं है। वह सिने-माध्यम तक सीमित जरूर है पर बाधित नहीं है।
हिन्दी फ़िल्मी दुनिया की हमारी लोक-संस्कृति की नई दुनिया है। पूरी तरह से यह मात्र मनोरंजन और व्यावसायिक सरोकारों की प्रदर्शन-केन्द्रित मायावी दुनिया ही नहीं है, यह अपने समय के मनुष्य के दुःख-सुख, घटनाओं-परिघटनाओं के सार्थक प्रस्तुतीकरण के साथ ही प्रश्नों और सपनों का संसार भी है। अक्षर ज्ञान से रिक्त दर्शक के लिए इसे प्रस्तुत करने में रचनात्मक श्रम की बेहद ज़रूरत पड़ती है।

यह उपन्यास साहित्य के स्थायी या परिवर्तनशील रचना विधान और शास्त्र की परिधि में नहीं समाएगा क्योंकि यह सिने-शास्त्र के अधीन रखा गया है। यह फ़िल्म के तकनीकी रचना विधान की ज़रूरतों को पूरा करता है जिस पर फ़िल्मी पटकथा आश्रित रहती है। यह सिने-कथा भी ऐसी ही लिखी गई। भारतीय भाषाओं और हिन्दी की बहुत-सी फ़िल्में अपने दौर के कालजयी साहित्यिक उपन्यासों पर आधारित हैं, लेकिन जब फ़िल्मों ने नितांत अपना स्वतंत्र कथा-संसार बनाया तो उसके लिए उपन्यास और कथा-विधा का सहारा लिया जाना ज़रूरी हुआ, उसी का परिणाम है यह सिने उपन्यास !
पति-पत्नी और वह का आइडिया मूल रूप में विख्यात् फ़िल्मकार बी.आर. चोपड़ा ने दिया था। उन्हीं दिनों मैं उनके लिए ‘बर्निंग ट्रेन’ लिख रहा था। वह बड़े बजट की बड़े सितारोंवाली फ़िल्म थी। बड़े सितारों की मिलती-जुलती तारीखें मिलने में मुश्किलें पेश आती हैं, तो चोपड़ा जी ने कहा कि इसी बीच क्यों न एक ‘क्विकी’ बना ली जाए ! तब धीरे-धीरे इसके मनोरंजक दृश्य-प्रसंगों की परिकल्पना की गई, खासतौर से यह ध्यान रखते हुए कि वह निम्न-मध्यवर्गीय पात्र के मानसिक और जीवनगत यथार्थ का अतिक्रमण न करते हों और साथ ही वे दर्शक के मनोजगत के साथ-साथ चल सकते हों।
पति-पत्नी और वह फ़िल्म बहुत सफल हुई। इसका निर्देशन बी.आर. चोपड़ा साहब ने किया। इसमें संजीव कुमार और विद्या सिन्हा मुख्य भूमिकाओं में थे। अन्त में जो सेक्रेटरी आती है उसकी भूमिका, अगर भूलता नहीं हूँ तो, प्रवीन बाबी ने निभाई थी।

इस फ़िल्म की सफलता के कारण चोपड़ा साहब इसका अगला भाग भी बनाना चाहते थे। उनकी व्यस्तताओं के कारण जब यह सम्भव नहीं हुआ तो इसे ऋषिकेश मुखर्जी जी ने रंग-बिरंगी के शीर्षक से बनाया, जिसमें हीरो-हिरोइन के अलावा उत्पल दत्त की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। वह खंड दो के रूप में इसमें शामिल है।
फ़िल्म और मीडिया लेखन का बहुत बड़ा क्षेत्र आज के नए लेखकों के सामने मौजूद है। यह सिने-उपन्यास पढ़ने के लिए तो है ही, यह फ़िल्म-लेखन की विधा को समझने-समझाने में भी सहायक हो सकता है। इन्हीं शब्दों के साथ यह नए पाठकों और फ़िल्म-विधा के लेखन में शामिल होने के इच्छुक नए लेखकों को समर्पित है !

 

-कमलेश्वर

 

5/116, ईरोज गार्डन, सूरज कुंड रोड
दिल्ली-फरीदाबाद बार्डर
नई दिल्ली-110044


पति-पत्नी और वह

 


ऑफिस के हाल में लगे क्लॉक ने एक-एक कर पाँच घंटे बजाए तो रंजीत ने चौंकते हुए अपनी कलाई पर बँधी घड़ी पर नजर डाली। वाकई पाँच बज चुके थे।

उसने सामने मेज पर खुली रखी फाइल बन्द की और अपनी शानदार चेयर की ऊँची और गुदगुदी बैक पर पीठ और सिर टिकाकर आँखें मूँद लीं।
सुबह के दस बजे से, लेकर पाँच बजे तक के ये सात घंटे इस तरह बीत गए थे कि उसे पता ही नहीं चल पाया था कि इतना वक्त इतनी आसानी से किस तरह बीत गया।
हाल में बैठे कर्मचारियों के कदमों की आहटें उभरकर ऑफिस के मेन गेट से बाहर जाती हुई साफ सुनाई दे रही थीं। और हाल में बड़ी तेजी से खामोशी छाती चली जा रही थी।

‘कितनी जल्दी होती है लोगों को दिन-भर का काम खत्म करके घर लौटने की !’ रंजीत होंठों-ही-होंठों में बड़बड़ाया, ‘अपने-अपने घर पहुँचकर ये सब लोग अपनी बीवी-बच्चों में गुम हो जाएँगे। और फिर खाते-पीते, हँसते-हँसाते सोने की बेला आ जाएगी। लेकिन रंजीत साहब, तुम्हें तो रात ग्यारह बजे से पहले नींद नहीं आती और शाम के पाँच-छह बजे से लेकर रात के ग्यारह बजे तक के पाँच-छह घंटे, तुम्हारे लिए फिर प्रॉब्लम बन जाएँगे। अकेले घर में कैसे गुजार पाओगे पाँच-छह घंटों के लम्बे तन्हा वक्त को ?’

‘माँ-बाप बचपन में ही इस दुनिया में तन्हा छोड़कर चले गए। वहाँ, जहाँ से जाने के बाद आज तक कभी कोई लौटकर नहीं आया-माता-पिताजी की मौत के बाद उसे बाबा ने पढ़ाया लिखाया था। इलेक्ट्रिकल इंजीनियर की डिग्री दिलवाई थी। लेकिन जैसे ही उसे इस ऑफिस में सर्विस मिली, बाबा ने यह समझकर कि आज उनका यह आखिरी फर्ज भी पूरा हो गया, हमेशा-हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं। और आज इस लम्बी-चौड़ी दुनिया में-जिसकी आबादी में हर सेकिंड की दर से पन्द्रह हजार इंसानों की बढ़ोतरी हो जाती है, तुम अकेले हो...तन्हा हो...आखिर क्या मकसद है इस जिन्दगी का ?-इससे तो यही बेहतर होगा कि सब कुछ छोड़कर संन्यास ले लूँ....’

‘‘बिरादर....!’’ अचानक देर से अधखुले दरवाजे को पूरा खोलकर अन्दर आते हुए दुर्रानी ने कहा-‘‘बुजुर्गों ने फर्माया है कि तन्हाई में खुद से हम-कलाम होना बहुत ही खतरनाक किस्म का लाइलाज मर्ज है।’’
‘‘सब लोग चले गए, तुम नहीं गए दुर्रानी ?’’ रंजीत ने चौंककर अपनी चेयर पर सीधे बैठते हुए पूछा।
‘‘आप तो जानते ही हैं बिरादर,’’ दुर्रानी ने एक खाली कुर्सी पर बैठते हुए कहा, ‘‘स्कूल से कॉलेज और कॉलेज से यूनिवर्सिटी तक और यूनिवर्सिटी से लेकर इस ऑफिस तक हम दोनों हमेशा साथ-साथ आते-जाते रहे हैं। फिर आपको ऑफिस में तन्हा छोड़कर कैसे जा सकता था।...खैर, यह बात छोड़िए...आप अपने आपसे जो कुछ मन-ही-मन कह रहे थे मैं सुन चुका हूँ। अगर जनाब मुनासिब समझें तो मैं एक मशवरा पेश करूँ।’’
‘‘मशवरा ?’’
‘‘हाँ बिरादर, दरअसल तन्हा जिन्दगी खुद अपने आपमें एक नामुराद मर्ज है। लेकिन यह मर्ज उस वक्त और भी ज्यादा खतरनाक हो जाता है जब किसी नौजवान को अपने नामुराद पंजों में जकड़ लेता है।’’

‘‘तुम ठीक कह रहे हो दुर्रानी,’’ रंजीत ने सँभलकर बैठते हुए कहा, ‘‘मैंने जहाँ फ्लैट किराए पर लिया है, उसके आसपास कोई भी ऐसा शख्स नहीं है जिसके साथ एक-दो घंटे गुजार सकें। आखिर कोई आदमी कब तक हारमोनियम बजाता-गाता रहेगा या किताबें पढ़ता रहेगा। छह बजे से लेकर रात के ग्यारह बजे तक का वक्त गुजारना मुश्किल हो जाता है।’’
‘‘इसके लिए तो बिरादर, नाचीज़ दुर्रानी एक शानदार मशवरा पेश कर सकता है...जनाब की खिदमत में।’’ दुर्रानी ने जेब से पानों की डिब्बी निकालते हुए कहा।
‘‘आखिर जनाब, का मशवरा क्या है ?’’ रंजीत ने दुर्रानी के चेहरे पर नजरें गड़ाते हुए पूछा।
‘‘मेरा मशवरा यह है कि तन्हाई के इस मर्ज को हमेशा-हमेशा के लिए खत्म करने के लिए आप एक अंजीर खा लीजिए-सिर्फ एक अंजीर !’’
‘‘अंजीर....?’’

‘‘जी हाँ अंजीर।’’ दुर्रानी ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा।
‘‘लेकिन दुर्रानी अंजीर का तन्हाई से क्या ताल्लुक है ?’’
‘‘बहुत ही गहरा ताल्लुक है बिरादर,’’ दुर्रानी ने कहा और फिर अपने लहजे को राजदाराना बनाते हुए रंजीत की ओर मुँह बढ़ाकर बोला, ‘‘इधर अँजीर खाई और उधर जनाब की प्रॉब्लम साल्व हुई।’’
‘‘मेरी प्रॉब्लम हल होना आसान नहीं है दुर्रानी,’’ रंजीत ने फिर अपनी पीठ अपनी चेयर की बैक से टिकाई, ‘‘तुम तो मेरे बचपन के दोस्त हो, स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी तक हम लोग साथ-साथ पढ़ते ही नहीं रहे हैं बल्कि बीसियों बार हम दोनों ने सुख-दुख में साथ-साथ हिस्सा लिया है। मुझे तुम्हारी दोस्ती पर नाज़ है। इसीलिए आज तुम्हें अपने मन की बात बता रहा हूँ। घर से ऑफिस आने के बाद सुबह दस बजे से पाँच बजे तक का वक्त तो जैसे पंख लगाकर उड़ जाता है लेकिन ऑफिस के बाद जब घर लौटता हूँ तो रात के ग्यारह बजे तक का वक्त गुजारना मुश्किल हो जाता है। सोच रहा हूँ, फिर अपने उसी मोहल्ले में कोई मकान तलाश करके इस फ्लैट से शिफ्ट हो जाऊँ।’’
‘‘बिरादर, मुम्बई में नौकरी और छोकरी तो आसानी से मिल जाती है लेकिन सिर छिपाने के लिए एक अदद छत बड़ी मुश्किल से नसीब होती है। आपको शिफ्ट करने की फिलहाल कोई ज़रूरत नहीं है। आपको सिर्फ ज़रूरत है एक अदद अंजीर की।’’

‘‘अंजीर की जरूरत है !’’ रंजीत हैरान हो उठा, ‘‘मैंने तो सुना है कि अंजीर उस वक्त खाई जाती है जब क़ब्ज हो जाता है और फिर एक अंजीर मेरी प्रॉब्लम को कैसे हल कर सकती है।’’
‘‘बिरादर, दरअसल आप परेशान हैं, अपने घर के सूनेपन से-अपनी तन्हाई से। और आपके घर का यह सूनापन, आपकी यह तन्हाई उसी वक्त खत्म होगी जब आप अंजीर खा लेंगे-अंजीर-सिर्फ एक अंजीर...’’
‘‘लेकिन दुर्रानी...!’’ रंजीत ने दुर्रानी की बात को काटते हुए कहना चाहा।
‘‘यही तो आपके साथ सबसे बड़ी परेशानी है बिरादर। आप कभी किसी की पूरी बात सुनते ही नहीं। और अगर सुनते भी हैं तो किसी की बात पर अमल नहीं करते-दरअसल आपकी परेशानियों का एकलौता सबब यही है कि आप अंजीर खा लीजिए-सिर्फ एक अंजीर और आपका मसला हल।’’
‘‘पहेलियाँ मत बुझाओ दुर्रानी, साफ-साफ बताओ, सिर्फ एक अंजीर खा लेने से मसला कैसे हो जाएगा ?’’
‘‘ठीक उसी तरह बिरादर, जिस तरह आदम और हव्वा का हुआ था !’’

‘‘आदम औह हव्वा...? यह अंजीर के साथ-साथ आदम और हव्वा...तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आ रही।’’
‘‘सीधी सी बात है बिरादर, दुनिया में सबसे पहले आदम और हव्वा ने ही अंजीर खाई थी, बहिश्त के बाग़ से तोड़कर !’’ दुर्रानी ने किस्सागो के अन्दाज़ में सुनाना शुरू किया, ‘‘हुआ यूँ बिरादर, कि खुदा ने आदम और हव्वा को बनाया और उन दोनों को बहिश्त के उस खुशनुमा बाग़ में रहने की इजाज़त दी जिसमें बेशुमार अंजीर के दरख्त थे।-अब खुदा ने उन्हें अंजीर के दरख्तों से भरे बहिश्त के बाग़ में रहने की इजाजत दे दी लेकिन इस बन्दिश के साथ कि वे अंजीर के बाग़ में तो रह सकते हैं लेकिन अंजीर तोड़कर खा नहीं सकते।’’

‘‘खुदा ने यह बंदिश क्यों लगाई दुर्रानी ?...यह तो ऐसी बात हुई कि किसी को मिठाइयों की दुकान का मालिक बनाने के बाद उस पर यह बन्दिश आयद कर दी जाए कि वह मिठाई न खाए।’’
‘‘यही तो अल्लाह मियाँ का जुल्म था उन दोनों पर,’’ दुर्रानी ने कम्युनिस्टों के अन्दाज़ में कहा, ‘‘लेकिन बिरादर, मुझे तानाशाह हिटलर की एक साफगोई इस वक्त बड़ी शिद्दत से याद आ रही है-उसने ‘मीन कैंफ’ में एक जगह साफ-साफ लिखा है कि हर समझौता तोड़ने के लिए किया जाता है...और उस हिटलर की इसी साफगोई के पेशे-नजर यह बात भी साफ हो जाती है कि हर कानून और हर बन्दिश का मकसद भी यही होता है कि उसे तोड़ डाला जाए, उसकी खिलाफ-वर्जी की जाए-एक दिन हव्वा ने आदम खुदा की इस बन्दिश को तोड़ डालने के लिए इतनी बुरी तरह उकसाया, भड़काया कि आदम ने खुदा की बन्दिश को वालाए-ताक़ रखकर एक अंजीर तोड़ ली..सिर्फ एक अंजीर...’’
‘‘फिर...? फिर तो खुदा को बहुत गुस्सा आया होगा, आदम और हव्वा की इस हुक्मउदूली पर, उन्होंने उन दोनों को सख्त सजा दी होगी।’’

‘‘फिर बिरादर, शायद आपको मालूम नहीं, उस जमाने में न तो हथ-करघे थे और न मिल के कपड़े। बेचारे आदम और हव्वा बहिश्त के बाग में नंगे बदन ही रहा करते थे। लेकिन जैसे ही आदम और हव्वा ने अंजीर खाया, गजब हो गया।’’
‘‘क्या गजब हो गया ?’’ रंजीत की दिलचस्पी बढ़ती चली जा रही थी।

‘‘आदम ने अंजीर हव्वा को दे दिया। लेडीज फर्स्टवाला रिवाज उन दिनों लागू था। हव्वा ने अपने दाँतों से आधा अंजीर काट लिया और बाकी आधा आदम को दे दिया। अंजीर बेहद लजीज और मीठा था। दोनों जायका लेकर खाने लगे। और जैसे ही अंजीर खत्म हुआ, इतने अरसे तक साथ-साथ रहने के बाद उन्हें पहली मर्तबा महसूस हुआ कि उन दोनों के जिस्म पर एक भी कपड़ा नहीं है-वे दोनों नंगे हैं। हव्वा को बड़ी शर्म आई, शर्म आदम को भी आ गई और उन दोनों ने जल्दी से अंजीर के पत्ते तोड़कर अपने-अपने जिस्म के उन मखसूस हिस्सों को छिपा लिया, जिन्हें देखकर एक जवान मर्द और एक जवान औरत को बेहद शर्म महसूस होती है और कोई भी मर्द या औरत रात के अँधेरे के सिवा दिन के उजाले में एक-दूसरे के सामने उन हिस्सों को हरगिज बेपर्दा नहीं रखता।...और इस शर्म ने ही उन्हें यह बात याद दिला दी कि वे खुदा की औलाद तो बाद में हैं पहले एक मर्द और एक औरत हैं। और उस बात का अहसास होते ही हव्वा ने आदम के सीने में अपना शरमाया हुआ चेहरा छिपा लिया और आदम ने एक मर्द होने का नाते हव्वा को अपने बाजुओं में कैद कर लिया-और उसके बाद वही हुआ जो होना चाहिए था...जो उसी दिन से हर आदम और हव्वा के दरम्यान होता आया है-और उसी मुकद्दस शर्मीले जज्बे का अंजाम हैं हम लोग-दुनिया में ये करोड़ों इंसान-जो हर सेकेंड में कम से कम दस हजार की दर से बढ़ते चले जा रहे हैं।’’

‘‘यानी वे दोनों....!’’
‘‘हाँ बिरादर, सिर्फ एक अंजीर खाते ही उनकी मुद्दत से सोई हुए अकल बेदार हो गई। वे एक-दूसरे को अच्छी तरह जान गए, पहचान गए...और इस जान-पहचान ने सिर्फ उनकी तन्हाई ही दूर नहीं की बल्कि इस लम्बी-चौड़ी दुनिया के कोने-कोने को अपनी औलादों से भर दिया।’’
‘‘हूँ !’’ रंजीत कुछ संजीदा हो उठा था।
‘‘तो बिरादर, अंजीर के असर से आप वाक़िफ हो ही चुके हैं। अब आप जल्दी से एक अदद हव्वा तलाश लीजिए।’’
‘‘और अंजीर....?’’

‘‘जब आप हव्वा तलाश कर लेंगे तो अंजीर खुद-ब-खुद आपके होंठों तक पहुँच जाएगी !’’ दुर्रानी अपनी हिदायतें खत्म करके उठ खड़ा हुआ। और घड़ी पर नजर डालकर बोला, ‘‘आइए अब चलें, साढ़े पाँच बज गए। बेचारा गंगादीन चपरासी हम दोनों के जाने के इन्तजार में बाहर स्टूल पर बैठा सोच रहा होगा कि आज देर से घर पहुँचने के बारे में अपनी हव्वा को क्या जवाब देगा।’’
रंजीत दुर्रानी को इस बात पर हँसी आ गई।
दोनों दोस्त ऑफिस से निकले और साइकिल स्टैंड की ओर बढ़ गए।
‘‘एक अदद...सिर्फ एक अदद अंजीर और एक हव्वा...!’’ रंजीत ने साइकिल के पैडल घुमाते हुए कहा, ‘‘वाह मियाँ दुर्रानी, जवाब नहीं है तुम्हारा...!’’

‘‘लेकिन दुर्रानी ने कहा कि पहले हव्वा की तलाश जरूरी है। और जब हव्वा की तलाश पूरी हो जाएगी तो अंजीर खुद-ब-खुद मिल जाएगी।’ रंजीत अपने आपसे कहने लगा, ‘‘इसका मतलब है...इसका मतलब है कि...’
रंजीत अभी यहीं तक सोच पाया कि अचानक उसकी साइकिल एक धक्के के साथ उछली और उसे लिये-लिये फुटपाथ पर जा गिरी। और उसी के साथ किसी लड़की की एक दर्द-भरी हल्की-सी चीख सुनाई दी।

उसकी साइकिल के पीछे आनेवाली कार ने इतनी जोर से हॉर्न बजाया था कि उसने हड़बड़ाकर साइकिल फुटपाथ पर चढ़ा दी थी और फुटपाथ पर चढ़ते ही वह आगे जानेवाली साइकिल से जा टकराई थी।
किसी लड़की की हल्की-सी चीख सुनकर रंजीत ने वहाँ खड़े-खड़े ही इधर-उधर नजरें दौड़ाईं। उसने देखा, उसकी साइकिल के करीब ही एक जनानी साइकिल पड़ी थी जिसका अगला पहिया फुटपाथ पर खड़े एक दरख्त से टकराकर टेढ़ा हो गया था और एक निहायत खूबसूरत और जवान लड़की उससे दो हाथ की दूरी पर पड़ी दोनों साइकिलों के बीच मौजूद थी। उसका गुलाबी दुपट्टा बड़ी तेजी से रंजीत की साइकिल के तेजी से घूमते पहिए में लिपटता चला जा रहा था। शलवार-कमीज पहने उस लड़की का सीना दुपट्टे के बिना खुला रह गया था। वी-शेप की कमीज के गले से उसके सीने की खूबसूरत सुर्ख-सफेद गोलाइयों के आधे-आधे दायरे साथ दिखाई दे रहे थे।
लड़की ने रंजीत की नजरें अपनी सीने पर गड़ी देखकर जल्दी से दोनों बाँहों से अपना खुला सीना ढक लिया और गुस्से से तड़पकर बोली, ‘‘बदतमीज...!’’

‘‘जी, क्या आपने मुझसे कुछ फर्माया ?’’ रंजीत ने चौंकते हुए कहा।
‘‘आँखें हैं या बटन,’’ लड़की गुर्राई, ‘‘देखकर साइकिल नहीं चलाते !’’
‘‘बटन...?’’ रंजीत चौंक पड़ा और फटी-फटी आँखों से अपनी शर्ट के बटनों की ओर देखने लगा। वाकई उसकी शर्ट का एक बटन टूट गया था। बटन टूट जाने की वजह से उसके सीने के बाल भी शर्ट के बीच से साफ-साफ दिखाई देने लगे थे। उसने जल्दी से शर्ट के दोनों किनारे पकड़कर उन्हें मिलाते हुए कहा, ‘‘आपने ठीक फर्माया, वाकई मेरी शर्ट का एक बटन टूट गया है।’’

‘‘शटअप...!’’ लड़की एक बार फिर गुर्राई।
उन दोनों की वहाँ पड़ी साइकिलों की वजह से सड़क पर भीड़ इकट्ठी हो गई थी। ट्रैफिक जाम हो गया था। कारों-टैक्सियों और स्कूटरों के हॉर्नों की आवाजें गूँज रही थीं।
‘‘उठिए...उठिए...ट्रैफिक....’’ एक आदमी ने लड़की की ओर बढ़ते हुए कहा, ‘‘ट्रैफिक जाम हो रहा है।’’
‘‘ट्रैफिक जाम हो रहा है तो होने दो,’’ रंजीत ने जल्दी से उठते हुए कहा, ‘‘लेकिन जामवन्तजी, इस लड़की की साइकिल मेरी साइकिल से टकराई थी। और साइकिलों से टकराने से ही यह सड़क पर जा गिरी थी। इसके घुटनों और कुहनियों में चोटें आई हैं उनकी वजह भी मैं ही हूँ। एक्सीडेंट मैंने किया है, इसलिए मैं ही उन्हें उठाऊँगा...आप अलग हट जाइए।’’
रंजीत ने आसपास खड़े लोगों की परवाह न करते हुए लड़की के दोनों बाजू पकड़कर उठा लिया और अपनी साइकिल पर बैठा लिया। फिर लड़की की टूटी हुई साइकिल दाएँ कन्धे से लटका ली और बाएँ हाथ से हैंडिल पकड़कर, साइकिल की सीट पर जा बैठा। पहिए में लिपटा दुपट्टा उसने निकालकर जेब में ठूँस लिया। और फिर उसकी साइकिल तेजी से आगे बढ़ने लगी।

रंजीत ने जो कुछ भी किया था, इतनी तेजी से किया था कि उस लड़की को एतराज करने का मौका ही नहीं मिला।
जब साइकिल कुछ दूर निकल गई तो लड़की को जैसे होश आया। रंजीत के सीने से चिपटी अपनी पीठ को आगे की ओर झुककर दूर हटाने की कोशिश करती हुई बोली, ‘‘मुझे उतार दीजिए। मेरे घुटने में इतनी चोट नहीं आई है कि मैं अपने घर तक न जा सकूँ !’’

‘‘मिस साब,’’ रंजीत ने पैडल घुमाते हुए कहा, ‘‘अगर आपकी साइकिल ठीक-ठीक होती तो मैं आपको जरूर उतार देता। लेकिन मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि अपनी टूटी साइकिल को घसीटते हुए पैदल घर पहुँचना बहुत मुश्किल है।’’
‘‘लेकिन यह हिमाकत...आखिर आपकी हिम्मत कैसे पड़ी मुझे उठाकर अपनी साइकिल पर बैठाने की ?’’ लड़की ने गुस्से से कहा, ‘‘उतार दीजिए मुझे रोकिए...साइकिल रोकिए।’’
‘‘आप जिसे हिमाकत कह रही हैं वह मेरी शराफत है मिस साब,’’ रंजीत ने तेजी से पैडल घुमाने लगा, ‘‘आप....आप चुपचाप सीधी बैठी रहिए वरना दोबारा एक्सीटेंड हो जाएगा...अब तो मेरी साइकिल आपके दौलतखाने के दरवाजे पर पहुँचकर ही रुकेगी।’’
लड़की कसमसाकर रह गई।
रंजीत की साइकिल की रफ्तार और बढ़ गई।


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