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पौराणिक >> मरीचिका

मरीचिका

ज्ञान चतुर्वेदी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :322
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2730
आईएसबीएन :9788126713066

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पौराणिक कथाओं पर आधारित व्यंग्य उपन्यास...

mareechika

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विख्यात व्यंग्यकार तथा उपन्यासकार ज्ञान चतुर्वेदी का यह तीसरा उपन्यास है। उनके पिछले दो उपन्यासों-‘नरक यात्रा’ और ‘बारामासी’ का हिन्दी पाठक जगत् ने तो अप्रतिम स्वागत किया ही, साथ ही विभिन्न आलोचकों तथा समीक्षकों ने इन्हें हिन्दी व्यंग्य तथा उपन्यास के क्षेत्र की उल्लेखनीय घटना के रूप में दर्ज किया है। ‘बारामासी’ तो हिन्दी उपन्यासों की उज्जवल परंपरा में एक आदरणीय स्थान बना चुका है और इधर के वर्षों में हिन्दी की गिनी-चुनी बहुचर्चित कृतियों में से एक रहा है।

‘मरीचिका’ हमें नितान्त नए ज्ञान चतुर्वेदी से परिचित कराता है। इस पौराणिक फैंटेसी में वे भाषा, शैली, कथन तथा कहने के स्तर पर एकदम निराली तथा नई ज़मीन पर खड़े दीखते हैं। यहाँ के व्यंग्य को एक सार्वभौमिक चिंता में तब्दील करते हुए ’पादुकाराज’ के मेटाफर के माध्यम से समकालीन भारतीय आमजन और दरिद्र समाज की कथा-व्यथा को अपने बेजोड़ व्यंग्यात्मक लहजे में कुछ इस प्रकार कहते हैं कि पाठक के समक्ष निरंकुश सत्ता का भ्रष्ट तथा जनविरोधी तंत्र, राजकवि तथा राज्याश्रयी आश्रमों के रूप में सत्ता से जुड़े भोगवादी बुद्धिजीवी और पादुकामंत्री सेनापति-पादुका राजसभा आदि के जरिए आसपास तथाकथित श्रेष्ठजनों के बीच जारी सत्ता-संघर्ष का मायावी परन्तु भयानक सत्य-सब कुछ अपनी संपूर्ण नग्नता में निरावृत्त हो जाता है। ‘पादुकाराज’, ‘अयोध्या’, तथा ‘रामराज’ के बहाने ज्ञान चतुर्वेदी मात्र सत्ता के खेल और उसके चालाक कारकों का ही व्यंग्यात्मक विश्लेषण नहीं करते हैं, वे मूलतः इस क्रूर खेल में फँसे भारतीय दरिद्र प्रजा के मन में रचे-बसे उस यूटोपिया की भी बेहद निर्मम पड़ताल करते हैं जो उस ‘रामराज’ के स्थापित होने के भ्रम में ‘पादुकाराज’ को सहन करती रहती है। जो सदैव ही मरीचिका बनकर उसके सपनों को छलता रहा है।

स्वर्ग तथा देवता की एक समांतर कथा भी उपन्यास में चलती रहती है, जो भारत के आला अफसरों की समांतर परन्तु मानो धरती से अलग ही बसी दुनिया पर बेजोड़ टिप्पणी बन गई है। जब अयोध्या ब्रह्मांड तक जल रही हो, तब भी देवता की दुनिया में उसकी आँच तक नहीं पहुँचती। आधुनिक भारत के इन ‘देवताओं’ का यह स्वर्ग ज्ञान के चुस्त फिकरों, अद्भुत विट और निर्मल हास्य के प्रसंगों के जरिए पाठकों के समक्ष ऐसा अवतरित होता है कि वह एक साथ ही वितृष्णा भी उत्पन्न करता है और करुणा भी। और शायद क्रोध भी।
पौराणिक कथा के बहाने आधुनिक भारत की चिंताओं की ऐसी रोचक व्यंग्य कथा बुन पाना ही पुनः ज्ञान चतुर्वेदी को हिन्दी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गद्यकार के रूप में रेखांकित करता है। हिन्दी में फैंटेसी गिनी चुनी ही है। विशेष तौर पर हिन्दी व्यंग्य में पौराणिक फैंटेसी जो लिखी भी गई है वे प्रायः फूहड़ तथा सतही निर्वाह में भटक गई हैं। इस लिहाज से भी ‘मरीचिका’ एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास सिद्ध होगा !

....भरत का यह क्रांतिकारी निर्णय कि राम की पादुकाएं सिंहासन पर आरूढ़ होंगी, कितना पवित्र, त्यागमय और प्रगतिकामी पग था। वे चाहते थे कि राम पादुका की सांकेतिक सत्ता के माध्यम से अंततः अयोध्या के सामान्य जन के करों में आ जाये। कैसा युगांतकारी निर्णय। सत्ता की लालसा से भरे संसार के कीचड़ में कमल सा।....परंतु कमल के साथ यही कठिनाई होती है कि कमल स्वयं में लाख कमल हो, संपूर्ण शक्ति से कमल हो, कमल ही कमल हो एवं नित्य और कमल होता चला जाये, परंतु वह अपने आसपास के कीचड़ को परिवर्तित नहीं कर पाता।.... कमल जब तक अपनी संपूर्ण पवित्रता के साथ कीचड़ में रहने को तत्पर है, तब तक कीचड़ के मन में कमल के लिए आदरणीय स्थान है। आप कमल रहिए, हमें कीचड़ बने रहने दीजए।...भारत के इस पवित्र विचार के साथ भी यही हुआ।

 

-इसी पुस्तक से

 

बेटी नेहा को
जिसके कारण मैं जान सका कि बेटियां ही इस जीवन को जीने लायक बनाती हैं।
और बेटा दुष्यन्त को,
जिसका ‘विट’ अद्भुत ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ तथा चुस्त फिकरों से भरी भाषा को नित्य ही सुनकर मुझे आत्मीय संतोष रहा आता है कि मेरे खानदान में व्यंग्य की परंपरा चलती रहेगी,
परंतु,
जिसकी खरी बात को (दुः)साहस के साथ बेबाक कह डालने की आदत मुझे भयभीत करती है कि कहीं जीवन में इसका हश्र भी मेरे जैसा ही न हो !

 

जो रचना में कहने से रह गया, वह ....

 

 

व्यंग्य रचने की चाह है आपकी, परन्तु संदर्भ पौराणिक हो, ऐसा कुछ भी चाहते हैं आप; और सारा मामला पौराणिक होते हुए भी रचना के पात्र पौराणिक नायक/मिथकीय चरित्र आदि न होकर उस युग के सामान्यजन हों, ऐसा हठ भी यदि आपका है; और फिर इस सारे पौराणिक खटकरम की फैंटेसी के बहाने समकालीन भारतीय समाज की कथा कहने की इच्छा भी आप धरते हैं—यदि इतनी सारी ‘अंट-संट’ सदिच्छाएं आप एक साथ रखते हैं (जब तक मैंने ‘मरीचिका’ को पूरा नहीं कर लिया, तब तक मैं अपनी इस इच्छा तथा कोशिश को ‘अंट-संट’ का नाम ही देता रहा) —तब आप जानिए कि आप ‘तुलसी गाये-बजाये के’ कठिनाइयों के दलदल में उतर रहे हैं।

...‘पौराणिक भाषा (?) के संस्कृतिनिष्ठ घटाटोप में व्यंग्य को रचने और संप्रेषित करने की कठिनाई, इस बात की धुक-धुक कि कहीं, किसी धर्मप्राण-आत्मा की अतिरिक्त-सजग संवेदना को चोट न पहुँच जाये और फिर उस बहुश्रुत, बहुप्रचारित पौराणिक समय के भारतीय समाज कथा को आज के भारतीय समाज की कथा से ऐसे जोड़ना कि जोड़ कतई न दिखे और जो बने वह पैबंद लगकर पोशाक का ही हिस्सा दिखे—और फिर ऐसी ही ढेरों कठिनाइयों के कीचड़ में व्यंग्य का कमल भी खिल जाए ऐसी कुछ कठिन माँग भी इस उपन्यास की थी। इस सबके बीच अंततः जो बन पाया, वह आपके समक्ष प्रस्तुत है। मेरा पापी, मूरख मन तो इस ‘पौराणिक व्यंग्य उपन्यास’ की संज्ञा देने को कह रहा है, परंतु विद्वान आलोचक के सहज भय के कारण यदि ऐसा कह पाने की हिम्मत मैं नहीं कर पा रहा हूं  तो हिन्दी-आलोचना के बीहड़-वन की बेताल कथा से सुपरिचित मेरे मित्र इसे मेरी कायरता न मानकर समझदारी ही मानेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। जंगल के अपने नियम होते हैं और वहां किसी तर्क का कोई स्थान होता नहीं।

यह तो हुआ इस ‘अंट-संट’ कोशिश की सफाई में एक छोटा-सा अंट का संट वक्तव्य। ‘मरीचिका’ से गुजरते हुए आप मेरी इन कठानाइयों को खूब समझ पायेंगे और तब इस ‘अंट-संट’ के नये अर्थ आप पर खुलेंगे, यह अंट-संट’ विश्वास मुझे भी है।

एक बात और।
इस उपन्यास के पहले ड्राफ्ट से लेकर अंतिम ड्राफ्ट तक जिस एक व्यक्ति ने इसकी भाषा, कथा तथा संपादन में मेरे पीछे लग-लगकर लगभग छह माह तक अपना तथा मेरा जीना हराम कर डाला, उस हरि भटनागर का नाम लिखे बिना ‘मरीचिका’ पर मेरा वक्तव्य पूरा नहीं हो सकता। ‘मान लो कि जैसे उनकी खुद की अटकी हो’—ऐसे डटकर उन्होंने इस उपन्यास के संपादन पर दिल लगाकर काम किया है। कलियुग में यदि ऐसे सतयुगी मित्र मिल जाएं, तब कलियुग का मतलब ही क्या रहा, यार ! उन्होंने संपादक, मित्र, आलोचक तथा प्रशंसक की मिली-जुली भूमिका का निर्मम निर्वाह करते हुए मुझे इतनी मात्रा में प्रेरित किया कि वह प्रेरणा अभी एक और उपन्यास रचने तक काम आएगी।...मैंने लिख दिया ताकि सनद रहे हिंदी साहित्य में इस तरह की ‘अंट-संट’ दोस्तियां भी अभी जिंदा हैं।
फिर मेरी हर बड़ी रचना के दौरान सदैव ही प्रभु जोशी तथा अंजनी चौहान से डटकर चर्चाएं, सलाहें तथा बहस तथा जूतमपैजार होती हैं। मेरी पत्नी शशि भी दांपत्य की रुटीन बहसों से उठकर इस तरह की बहसों की अहम हिस्सेदार होती हैं। श्रीकांत आप्टे से भी उपन्यास की भाषा पर बातें हुईं। इस उपन्यास की भाषा पर विशेष तौर पर लंबी चर्चाएं इन सबसे जब तब हुई हैं—और सभी ने डटकर ‘अंट-संट’ सलाहें दीं—सो मैंने मानी भी, नहीं भा मानी—पर एक जिम्मेदारी का एहसास तो हो रहा है कि आपके ठीक आस-पास ही ऐसे खतरनाक लोग घूम रहे हैं, जो आपको जिम्मेदार बनाये बिना मानने को तत्पर नहीं, और जो स्वयं चाहें जो करें, न करें परंतु आप पर घनघोर विश्वास रखते हैं कि आप अपने तथा उनके सपनों को साकार करेंगे। ऐसे लोग आपको भयंकर डराते हैं और अपना श्रेष्ठतम करने को मजबूर करते हैं।
वैसे भी तो रचना श्रेष्ठतम होती ही है। यह विश्वास या ‘मरीचिका’  न हो, तो लेखन के इस बियाबान में यात्रा करना कठिन हो जाये। बहरहाल, ‘जैसा, जहां है—उसी रूप में अब यह उपन्यास आपका है। इति !

 

-ज्ञान चतुर्वेदी

 

।। पादुकाराज की अयोध्या।।

 

 

‘‘राम के बिना अयोध्या उस सेना के समान जान पड़ती थी, महायुद्ध में जिसके कवच फट गयें हों, जो आपत्ति में फंस गई हो;
राम के बिना अयोध्या उस गर्भिणी होने की इच्छुक गाय के समान लग रही थी, जिसे गोशाला में बंद कर दिया गया है और जिसे सांड़ छोड़ गया है;
राम के बिना अयोध्या उस वनलता के समान प्रतीत होती थी, जो वसंत के कारण फूलों से लदी हो, पर दावाग्नि के कारण झुलस गई हो;
राम के बिना अयोध्या उस ध्वस्त मधुशाला के समान लग रही है, जिसके पियक्कड़ चले गये हों और जिसकी सफाई न हुई हो;
राम के बिना अयोध्या उस दुर्बल किशोरी के समान प्रतीत होती थी, जिसे कोई युद्ध कुशल अश्वारोही लेकर भाग गया हो और अपनी वासनापूर्ति के पश्चात छोड़ गया हो;
राम के बिना अयोध्या उस बावड़ी के समान लग रही थी, जिसका जल सूख गया हो...’’

 

-महर्षि वाल्मीकि (रामायण)

 

अयोध्या....।

 

राम को वन गये चौदह वर्ष होने को आये।
अयोध्या में चौदह वर्षों से पादुकाराज चल रहा है, पर लगता है कि मानो सदियां हो गईं।
इसी पादुकाराज के अंतिम दिनों में से कोई एक दिन...।


सुबह हो रही है।
धूप की स्वर्णिम किरणें अयोध्या के दुर्ग पर गिर रही हैं।
दुर्ग का पूर्वी द्वार है यह।
अयोध्या का दुर्ग विशाल, सुदृढ़ तथा अलंघ्य है। कहा यही जाता है, अन्यथा दुर्ग जैसा है, सो आपके समक्ष है ही। प्राचीर की स्थिति आप देख रहे हैं। ध्वस्तप्राय प्राचीर। जीर्ण भोजपत्रों-सी भुरभुरी। जर्जर। यत्र-तत्र दरारें। बल्कि सर्वत्र कहिए। पत्थर टपक रहे हैं या लगभग हिलगे हुए हैं। चूना झर चुका है। चींटे-चींटियों के अनगिनत बिल। कई के बड़े-बड़े धब्बे। दरारों में उग रहे पीपल के अनेक पौधे, तृणमूल भी। .....वस्तुतः इसे खंडहर कहने की बलवती इच्छा हो रही है हमारी, परंतु देशभक्ति का आग्रह हमें रोक लेता है।

अयोध्या में देशभक्ति का सबसे सुगम रसायन यह है कि आप अयोध्या की दुर्बलताओं को ढांके रहिए। इसी नीति के अंतर्गत इस दुर्ग को अलंघ्य कहा है, अन्यथा वस्तुतः यदि कोई शत्रु काई पर फिसलकर पतित होने से भयभीत न होता, तो कोहनी छिल जाने पर रोता न हो, माथे पर गूमड़ के लिए हल्दी साथ लेकर चले और अधोवस्त्रों में चीटियां घुस जाने पर प्राचीर के गड्ढों में धरे पंजों का संतुलन न खोये, तो वह कहीं से भी इसे लांघ सकता है। यह अवश्य है कि प्राचीर के साथ गहन खाई खुदी है, वह नित्य ही जल से आकंठ भरी है। उसे यह खाई पार करना अवश्य ही दुष्कर होगा क्योंकि वर्षों से भरा जल इसमें सड़ रहा है। जल में काई है, कीड़े-मकोड़े हैं, जोंकें हैं और वे जलचर भी हैं जिनका नाम कथालेखक को ज्ञात नहीं परंतु जो यदि कभी काटें तो ऐसी-तैसी हो जाती है।
द्वार कपाट अभी बंद हैं।

कपाट सुदृढ़ प्रतीत हो रहे हैं। वैसे द्वार की काष्ठ पुरानी होकर सड़ रही है। सड़ी काष्ठ पर ही ऊपर से लौह-पट्टियां एवम् कील-कांटे ऐसे कौशल तथा कारीगरी से ठोक दिये गये हैं कि द्वार कपाट बिना किसी अन्य कारण के अति सुदृढ़ से निकल आये हैं। सुबह की धूप में ये कील-कांटे ऐसे चमक रहे हैं कि द्वार यूं ही भव्य तथा दृढ़ दीख रहा है।... और पादुकाराज में सर्वत्र इस बात पर ही तो है कि कोई वस्तु दीखती कैसे है—वह वस्तुतः है कैसी—इस प्रश्न में किसी की भी रुचि नहीं।

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