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कहानी संग्रह >> यही सच है

यही सच है

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2737
आईएसबीएन :81-7119-204-5

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मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह...

Yahi sach hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कथा-साहित्य में अकसर ही नारी का चित्रण पुरूष की आकांक्षाओं (दमित आकांक्षाओं) से प्रेरित होकर किया गया है। लेखकों ने यह तो नारी की मूर्ति को अपनी कुंठाओं के अनुसार तोड़-मोड़ दिया है, या अपनी कल्पना में अंकित एक स्वप्नमयी नारी को चित्रित किया है। लेकिन मन्नू भंडारी की कहानियाँ न सिर्फ इस लेखकीय चलन की काट करती हैं, बल्कि आधुनिक भारतीय नारी को एक नई छवि भी प्रदान करती है। मन्नू जी नारी के आँचल को दूध और आँखों को व्यर्थ के पानी से भरा दिखाने में विश्वास नहीं रखतीं। वे उसके जीवन यथार्थ को उसी की दृष्टि से यथार्थ धरातल पर रचती हैं, लेकिन इस बात का भी ध्यान रखती हैं कि कहानियों का यथार्थ कहानी के कलात्मक संतुलन पर भारी न पड़े। इसमें मन्नू जी का कथा-संसार बहुत अपना और आत्मीय हो उठता है। ‘यही सच है’ मन्नू भंडारी की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का बहुचर्चित संग्रह है। स्मरणीय है कि ‘यही सच है’

शीर्षक कहानी को ‘रजनीगंधा’ नामक फिल्म के रूप में फिल्माया गया था।

 

क्षय

 

सावित्री के यहाँ से लौटी, तो कुन्ती यों ही बहुत थकी हुई महसूस कर रही थी। उस समय टुन्नी के पत्र ने उसके मन को और भी बहुत बुरी तरह मथ दिया। पापा को भी दो बार खाँसी का दौरा उठ चुका था। वह जानती थी कि वे बोलेंगे कुछ नहीं; पर उनका मन कर रहा होगा कि टुन्नी को वापस बुला लें। रात में लेटी तो फिर उसी पत्र को खोलकर पढ़ने लगी:
‘दीदी, मेरा मन यहाँ ज़रा भी नहीं लगता। सारे समय पापा की और तुम्हारी याद आती रहती है। स्कूलवालों ने भी मुझे आठवीं में ही ही भरती किया है। उस दिन तुम्हारे हैडमास्टर साहब के पास चली जातीं तो कितना अच्छा होता, पूरा एक साल बच जाता। तुमने मेरा इतना-सा काम भी नहीं किया; दीदी, पूरा एक साल बिगड़वा दिया....।’

क्या सचमुच ही उसने टुन्नी का साल बिगड़वा दिया ? नहीं, नहीं, जो कुछ उसने किया, ठीक ही किया। कोई उसके पास इस तरह सिफ़ारिश लेकर आये तो ? उसका बस चले तो वह स्कूल के फाटक से ही निकाल बाहर करे। वह शुरू से ही इतना कहती थी कि टुन्नी, पढ़, मेहनत कर। पर उस समय पापा को टुन्नी बच्चा लगता था। अब फेल हो गया तो जान-पहचान का फायदा उठाओ, सिफ़ारिश करो। उसने जो कुछ किया, ठीक ही किया। स्कूलों में यह सब देखकर उसका मन आक्रोश, दु:ख और ग्लानि से भर जाता है। पर होता है, और वह देखती भी है।...लेकिन उससे क्या हुआ, वह स्वयं ऐसा कभी नहीं करेगी। जिस दिन पापा ने उससे यह बात कही थी, वह अवाक्-सी उनका मुँह देखती रह गयी थी, जैसे विश्वास न हो रहा हो कि पापा भी कभी ऐसी बात कह सकते हैं, और वह भी कुन्ती से।....कुन्ती आज जो कुछ भी है, विचारों से, विश्वासों से, पापा की ही तो बनायी हुई है।...लेकिन पापा बदल गये हैं, बहुत बदल गये हैं ! शायद यह बीमारी ही ऐसी होती है कि आदमी को बदलना पड़ता है। कुन्ती स्वयं महसूस करती है कि उसके जिस आदर्शवाद और दृढ़ आत्मविश्वास पर पापा कभी गर्व किया करते थे, उसी पर आज वे शायद दु:ख करते हैं। उन्हें लगता हैं जैसे कुन्ती को बनाने में वे कहीं भूल कर बैठे हैं।...वह अपना मन टटोलने लगी, क्या सचमुच ही कुछ गलत विश्वास और ग़लत सिद्धान्त वह पाल बैठी है ?

सामने वॉयलिन पड़ा था। वह उठी और वॉयलिन लेकर छत पर चली गयी। जब उसका मन बहुत खिन्न होता है, तो उसे वॉयलिन बजाना बहुत अच्छा लगता है। रात के सन्नाटे में मन का अवसाद जैसे संगीत की स्वर-लहरियों पर उतर-उतरकर चारों ओर बिखरने लगता है। वह आँखें मूँदकर बेसुध-सी वॉयलीन बजाने लगी और उसकी त्रस्त आत्मा, खिन्न मन और और शिथिल शरीर धीरे-धीरे सब छिरकने लगे। वह किसी और ही लोक में पहुँच गयी।
खों, खों, खों.....पापा की लगातार खाँसी से उसकी तन्मयता टूटी। एकाएक अँगुलियाँ शिथिल हो गयीं और वॉयलिन ठोड़ी के नीचे से सरककर छाती पर आ टिका। वह नीचे आयी। पापा को आज तीसरी बार दौरा उठा था। उन्हें दवाई दी और पास बैठकर तब पीठ सहलाती रही, जब तक वे शान्त होकर लेट नहीं गये।

जब वह अपने कमरे में आकर लेटी तो रात करीब आधी बीत चुकी थी। आज सावित्री के यहाँ उसका पहला दिन था। उसे ख़याल आया, कल जब स्कूल जायेगी तो मिसेज़ नाथ उसे देखकर वैसे ही व्यंग्यात्मक ढंग से मुस्कराएँगी। उनकी इस मुस्कराहट ने हमेशा ही उसके मन में घृणा पैदा की है। पर उसे लगा, जैसे कल वह इस मुस्कराहट का सामना नहीं कर सकेगी। उसका उपहास करती, उस पर आरोप लगाती-सी मिसेज़ नाथ की मुस्कराहट अँधेरे में एक बार उसके सामने कौंध गयी। कुन्ती ने करवट बदली तो मकान-मालिक के बच्चों के मास्टर का दयनीय, सूखा-सा चेहरा उसके सामने उभर आया। एक यह व्यक्ति है, जिसने उसके मन में हमेशा अपने काम के प्रति अरुचि उत्पन्न की है। ओह ! क्या-क्या कल्पनाएँ थीं उसके मन में अध्यापन को लेकर !...लेकिन मिसेज़ नाथ....यह मास्टर.....कुन्ती ने फिर करवट बदल ली।

एक महीने में ही घर का जैसे सबकुछ बदल गया है। उसे वह दिन याद आया, जब वह डॉक्टर के यहाँ से पापा की एक्स-रे प्लेट के साथ रिपोर्ट लेकर आयी थी कि उन्हें क्षय है। रास्ते-भर वह यही सोचती आयी थी  कि पापा को रिपोर्ट कैसे देगी ? उस पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी ? दवाइयों का लम्बा नुस्खा और हिदायतों की लम्बी सूची समस्या के दूसरे पहलू को भी उभार-उभारकर रख रही थी। कैसे वह सब करेगी ? करना तो सब उसी को है। पिछले चार सालों से इस घर के लिए वही तो सब कुछ करती आयी है। वही तो पापा की पहली सन्तान और पापा हमेशा ही कहते थे, वह उनकी लड़की नहीं, लड़का है। शुरू से उसे लड़के की तरह ही पाला....बचपन में वह लड़कों के साथ खेली, लड़कों के साथ पढ़ी और अब लड़कों की तरह ही इस घर को सँभाल रही है। पर अब ?
घर पहुँची तो पापा पलंग पर लेटे हुए थे। उसने चुपचाप वह लिफाफा उनके हाथ में थमा दिया और नौकर को चाय लाने का आदेश देकर अन्दर चली गयी। वह प्रतीक्षा कर रही थी कि पापा उसे बुलाएँगे, कुछ कहेंगे, पर उन्होंने नहीं बुलाया। क्या पापा को रिपोर्ट देखकर सदमा लगा ? क्या वे पहले नहीं जानते थे कि उन्हें क्षय है ? फिर ?

चाय पीने वह बाहर जाकर बैठी। शायद अब कोई बात चले ! पर फिर मौन । पापा पैर फैलाकर तकिये के सहारे बैठे शून्य नजरों से आसमान निहार रहे थे। कुन्ती ने प्याला पकड़ाया तो चाय पीने लगे। ख़ामोशी  के ये क्षण कुन्ती को बहुत बोझिल लगे थे। सामने इतनी बड़ी समस्या है और दोनों यों मौन बैठे हैं। स्थिति की गंभीरता को दोनों ही महसूस कर रहे थे; पर लग रहा था जैसे उसका नाम लेने-भर से वह और विकट हो जायेगी। पापा शायद सोच रहे थे कि दोनों बच्चे कितने असहाय महसूस करने लगेंगे ! और कुन्ती सोच रही थी कि बात करने से ही पापा के मन में जीवन के प्रति कैसी घातक निराशा छा जायेगी ! दोनों बच्चों के अनिश्चित भविष्य की चिन्ता उन्हें  कितना व्यथित बना देगी ! पर मौंन रहने से ही तो यह सब नहीं सुलझ जायेगा। तब ?

तब केवल बात करने-भर के लिए ही कुन्ती ने टुन्नी को इलाहाबाद भेजने की बात कह दी थी। वह जानती थी कि पापा इसका विरोध करेंगे। अपने बच्चों को वह एक दिन के लिए भी अपनी आँखों से दूर नहीं कर सकते। फिर टुन्नी छोटा था, अधिक लाड़ला। पर वे कुछ नहीं बोले थे। धीरे से इतना ही कहा था: ‘भेज देना।’ कुन्ती को लगा, जैसे पापा विवश होकर कह रहे हों-मैं कौन होता हूँ कुछ कहने वाला ? अब तो तुम्हीं सब कुछ हो, जो चाहो करो। मैं क्षय का रोगी....
कुन्ती की आँखें छलछला आयी थीं।
थोड़ी देर बाद पापा ने रुकते-रुकते कहा था : ‘‘एक बार कोशिश करके इसे चढ़वा तो दे, तेरी हैडमास्टर साहब से अच्छी जान-पहचान है...
वहाँ भी जाये तो एक साल तो बच जाये।’’

जहर की तरह कुन्ती ने चाय का घूँट निगला था और अपने को भरसक संयत करके बोली था : ‘‘पापा कम-से-कम स्कूलों को तो इन सारी बातों से भ्रष्ट न करवाओ। टुन्नी मेरा अपना विद्यार्थी होता तब भी मैं उसे कभी न चढ़ाती।’’ उसके स्वर में आदेश नहीं था, पर दृढ़ता थी और पापा चुप हो गये थे।
पर आज टुन्नी का पुत्र जाने क्यों रह-रहकर उसके मन में टीस उठा रहा है ! कुन्ती को लगा, जैसे प्यास से उसका गला सूख रहा है। उसने उठाकर पानी पिया। आकर लेटी तो नजर फिर व़ायलिन पर पहुँच गयी। एक बार फिर इच्छा हुई कि वॉयलिन लेकर छत पर चली जाये। पर उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं।

सावित्री की ट्यूशन वह निभा सकेगी ? अब तो जैसे भी हो, निभाना ही होगा। वह स्कूल में छ: घण्टे काम करती है, तब जाकर उसे दो सौ रुपये मिलते हैं और कहाँ डेढ़ घण्टे के ही दौ सौ ! फिर एक महीने खुशामद की उसकी माँ ने। चार चक्कर तो घर के ही लगाये। पर फिर भी....और उसकी आँखों के सामने मकान-मालिक के मास्टरजी फिर घूम गये.....वे मास्टरजी हैं, पर कभी रिक्शा में लदवाकर लाते हैं, तो कभी सेठानी का हिसाब लिखते रहते हैं। हुँ:, वह तो जिस दिन भी देखेगी कि उसके सारे परिश्रम के बावजूद सावित्री नहीं सुधर रही है, कुछ भी नहीं सीख रही है; उसी दिन छोड़ देगी, चाहे कितनी ही मुसीबत क्यों न सहनी पड़े। सावित्री को पढ़ाना कोई सरल काम नहीं है। जो आठवीं के भी लायक नहीं है, उसे नवीं में पास करवाना....

एक महीने में ही बैंक से पापा के हज़ार से अधिक रुपये निकल चुके थे। वह नहीं चाहती थी कि अब और निकलें। पूँजी के नाम पर उनके पास कुल पन्द्रह हज़ार ही तो बचे थे जिनके प्रति उनका मोह उम्र के साथ-ही-साथ बढ़ता जा रहा था। लगता था, जैसे यह रुपया ही उनका एक मात्र सहारा है। उसे वह कुन्ती के ब्याह के लिए बताकर एक उत्तरदायी बाप होने पर संतोष प्राप्त करते थे, तो कभी टुन्नी की पढ़ाई के लिए बताकर उसके उज्जवल भविष्य की कल्पना को सुख लेते थे। उसमें से भी अब खर्च होने लगा। कुन्ती भी क्या करती ? यों तो पापा की पेंशन, अपनी तनख्याह और गाँव के मकान के किराये से वह अच्छी तरह काम चलाती रही थी, पर बीमारी का यह अतिरिक्त खर्च.....और बीमारी भी अनिश्चित अवधि तक की...

दूर कहीं मुर्गा़ बोला। यह क्या सवेरा होने को आया ? तो वह आज बिलकुल नहीं सो पायी ? कल सवेरे से फिर जुट जाना है......बाज़ार, स्कूल, सावित्री, पापा की परिचर्या....उसका सिर भारी होने लगा।
अपना क्लास लेकर कुन्ती स्टाफ-रूप में पहुँची और चुपचाप कुर्सी पर बैठकर बाहर देखने लगी। बहुत-सी कापियाँ देखने को जमा हो गयी थीं; पर मन ही नहीं कह रहा था कुछ करने को। सिर बेहद भारी हो रहा था और नींद आँखों में घुल रही थी। तभी मिसेज़ नाथ अपने भारी-भरकम कन्धों पर कापियों के दो गट्ठर लादे घुसीं। उसने देखकर भी नहीं देखा। मिसेज़ नाथ भी कुछ नहीं बोली, चुपचाप कापियाँ देखने बैठ गयीं। कुन्ती ने सोचा क्या इन्हें मालूम नहीं हुआ है कि मैंने सावित्री के यहाँ ट्यूशन कर ली है ? हो सकता है, आज न हुआ हो, पर कल तो होगा ही। तब....?


 

प्रथम पृष्ठ

    अनुक्रम

  1. क्षय
  2. तीसरा आदमी
  3. सज़ा
  4. नकली हीरे
  5. नशा
  6. इनकम टैक्स और नींद
  7. रानी माँ का चबूतरा
  8. यही सच है

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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