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संस्कार

यू. आर. अनन्तमूर्ति

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :171
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2739
आईएसबीएन :81-7119-139-8

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ब्राह्मणवाद,अन्धविश्वासों और रूढ़िगत संस्कारों पर अप्रत्यक्ष पैनी चोट.....

Sanskar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यू. आर. अन्नतमूर्ति के कन्नड़ उपन्यास को युगान्तकारी उपन्यास माना गया है। ब्राह्मणवाद, अन्धविश्वासों और रूढ़िगत संस्कारों पर अप्रत्यक्ष लेकिन इतनी पैनी चोट की गयी है कि उसे सहना सनातन मान्याताओं  को समर्थकों के लिए कहीं-कहीं दूभर होने लगता है।

‘संस्कार’ शब्द से अभिप्राय केवल ब्राह्मणवाद की रूढ़ियों से विद्रोह करनेवाले नारणप्पा के दाह संस्कार से ही नहीं है। अपने लिए सुरक्षित निवास स्थान, अग्रहार आदि के ब्राह्मणों के विभिन्न संस्कारों पर भी रोशनी डाली गई है-स्वर्णाभूषणों और सम्पत्ति लोलुपता जैसे संस्कारों पर भी ! ब्राह्मण-श्रेष्ठ और गुरु प्राणेशाचार्य की तथा चन्द्री बेल्ली और पद्मावती जैसे अलग और विपरीत दिखायी देनेवाले पात्रों की आभ्यंतरिक उथल-पुथल के सारे संस्कार अपने असली और खरे खोटेपन समेत हमारे सामने उघड़ आते हैं।

धर्म क्या है ? धर्म-शास्त्र क्या है ? क्या इनमें निहित आदेशों में मनुष्य की स्वतन्त्रता सत्ता के हरण की सामर्थ्य है, या होनी चाहिए ?-ऐसा अनेक सवालों पर यू. आर. अंनतमूर्ति जैसे सामर्थ्यशील लेखक ने अत्यंत साहसिकता से विचार किया है, और लेखक यही वैचारिक निष्ठा इस उपन्यास को विशिष्ठ बनाती है।


प्रकाशकीय

1965 में जब यह उपन्यास कन्नड़ में प्रकाशित हुआ तो एक युगान्तरकारी उपन्यास के रूप में पाठकों और समीक्षकों ने इसका स्वागत किया। यथार्थ ब्यौरों से भरी हुई यह एक प्रतीकात्मक कथा है-दक्षिण भारत के एक ब्राह्मण-ग्राम के ह्रास की। इसे एक धार्मिक उपन्यास कहकर भी पुकारा गया है जबकि इसके अनेक प्रमुख पात्र धर्म और उनकी परम्परा से जाने-बूझे विद्रोह करते हैं, या उनसे कभी परिचित ही नहीं हुए। इसके नायक ब्राह्मण-श्रेष्ठ प्राणेशाचार्य हैं, या ब्राह्मणवादी रुढ़ियों का आजन्म विद्रोही नारणप्पा, जिसकी मृत्यु से उपन्यास का आरम्भ होता है ?

-इसका निर्णय करना आज भी सुसंस्कृति पाठकों को दुरुह जान पड़ेगा !


1970 में जब इस उपन्यास की फिल्म बनायी गयी थी, तो उसकी नायिका थीं स्नेहलता रेड्डी, जिन्हें इमर्जेंसी के दिनों में उन पर किये गये अत्याचारों के परिणामस्वरूप प्राण गंवाने पड़े। यह हिन्दी-संस्करण उन्हीं की पुण्य-स्मृति को समर्पित है।

संस्कार पहला भाग

1


भागीरथी की सूखी-सिकुड़ी देह को नहलाकर उन्होंने उसे कपड़े पहना दिये। फिर हमेशा की दिनचर्या की तरह पूजा-नैवेद्यादि सम्पन्न करके देवता के प्रसाद का फूल उसके बालों में लगाया, चरणामृत पिलाया। भागीरथी ने उसके चरण स्पर्श किये और उनसे आशीर्वाद पाया। फिर प्राणेशाचार्य रसोई से एक कटोरी-भर दलिया ले आये।
‘‘पहले आप भोजन कर लीजिए न,’’ भागीरथी ने क्षीण स्वर में कहा।
‘‘नहीं पहले तुम यह खत्म कर लो।’’
बीस वर्षों से लगातार एक ढर्रे में बंधा कार्यकलाप। सुबह का स्नान, संध्यावन्दन, रसोई, पत्नी की दवाई, फिर नदी के उस पार जाकर मन्दिर में हनुमानजी की पूजा-ऐसी बंधी दिनचर्या थी, जिसमें कभी कोई चूक न होती थी।

प्रतिदिन पुराणों की पुण्यकथाओं के अलगे अंश को सुनने के लिए भोजन के पश्चात एक-एक कर आग्रहार1 के ब्राह्मण घर के चबूतरे पर जमा होते। शाम को फिर स्नान संध्यावन्दन, पत्नी के लिए मांड दवा, रसोई, खाना और फिर चबूतरे पर बैठकर ब्राह्मणों के सामने प्रवचन।

कभी–कभी  भागीरथी कहती, ‘‘मुझसे बंधकर आपको क्या सुख मिला है ? घर में सन्तान तो होनी ही चाहिए न ? आप एक शादी और कर लीजिये।’’

‘‘मुझ जैसे बूढ़े की शादी ?’’ कहकर प्राणेशाचार्य हंस देते।
‘‘अभी चालीस भी तो पार नहीं किया है। कहाँ से बूढ़े हो गये हो ? काशी जाकर संस्कृत का अध्ययन कर आए हैं आप। ऐसे में कौन पिता आपको अपनी बेटी नहीं देना चाहेगा ? घर में एक पुत्र होना ही चाहिए ! जब से आपने मेरा हाथ थामा है, सुख कहाँ मिला है आपको...? ’’
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1.    वह ग्राम या ग्राम का वह भाग जो केवल  ब्राह्मणों के निवास के लिए सुरक्षित रहता है।


प्रणेशाचार्य मुस्करा देते। उठकर बैठने की कोशिश करती हुई पत्नी को लेट जाने के लिए कहते। क्या भगवान् कृष्ण ने कहा नहीं है कि ‘फल की इच्छा न रखते हुए कर्म करो’ ! मुक्ति-मार्ग के पथिक को ब्राह्मण का जन्म देकर भगवान् उसकी परीक्षा के लिए ही शायद संसार-चक्र में उन्हें बाँध दिया है। वे अपने भाग्य को पंचामृत की भाँति पवित्र मानते। अपनी रुग्णा पत्नी के लिए उनका मन करुणा से भर-भर आता। अपने भाग्य पर मानो वह इतराते और सोचते कि जीवन-भर की रोगिणी से विवाह बंधन में बंधकर मेरा जीवन सफल होगा और उसमें परिपक्वता आयेगी।
 
भोजन से पहले केले के पत्ते पर गौ-ग्रास लेकर पिछवाड़े चरने वाली गौरी नाम की गाय के सामने रखा और गाय के रोमांचित शरीर पर हाथ फेरकर आँखों से लगाते हुए भीतर आ रहे थे कि किसी  स्त्री की आवाज सुनायी दी, ‘‘आचार्यजी, आचार्यजी !’’ सुनते ही पहचान गये कि वह नारणप्पा की रखैल चन्द्री की आवाज है। उससे बात करने पर फिर से स्नान करना पड़ेगा और फिर भोजन हो सकेगा, किन्तु आंगन में ही किसी स्त्री को रुकने को कहकर क्या उनके गले से निवाला नीचे उतर सकेगा ?’’
वे चबूतरे पर आये। चन्द्री ने तुरन्त सिर पर आंचल कर लिया। उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था और वह भयग्रस्त खड़ी थी।
‘‘क्या बात है ? किसलिए आई हो ?’’
‘‘वह ....वह ।’’

चन्द्री काँप रही थी। उसके मुंह में बात अटक रही थी। वह खम्भे से टेक लेकर खड़ी रही।
‘‘कौन ? नारणप्पा ? क्या हुआ ?’’
‘‘वे चन्द्री ने हाथों से अपना चेहरा ढांप लिया।
‘‘नारायण ! नारायण ! ....कब ?’’
‘‘अभी –अभी।’’
‘‘नारायण !  हुआ क्या था उसे  ?’’
सिसकियाँ भरते हुए चन्द्री बोली, ‘‘शिवमोग्गा से आये थे तो ज्वर था। खाट पर सो गये ।.....बस चार दिन ज्वर रहा। पसली के पास गाँठ निकल आयी थी। फोड़ा जिस तरह फूल जाता है न, वैसे।’’
‘‘नारायण !’’

वही कपड़े पहने प्राणेशाचार्य भागते हुए गरुड़ाचार्य के घर गये। ‘‘गरुण, गरुण !’’ पुकारते हुए उसके रसोईघर में ही घुस गये। नारणरप्पा और गरुड़ाचार्य में पाँच पीढ़ी का संबंध था। नारणप्पा की नानी की नानी और गरुड़ाचार्य की नानी की नानी दोनों  बहने थीं। अभी मुँह में कौर रखने ही वाले थे गरुड़ाचार्य कि....।
‘‘नारायण ! गरुड़ा, खाना मत खाओ। नारणप्पा गुजर गया है,’’ कहते हुए प्राणेशाचार्य ने दोपहर सन्न रह गया। उसके और नारण्प्पा के बीच के सभी सम्बन्ध कभी के टूट चुके थे, फिर भी वह कौर पत्तल में ही छोड़कर उठ खड़ा हुआ। सामने खड़ी पत्नी सीतादेवी से वह बोला, ‘‘बच्चों को खाने के लिए दे दो, कुछ हर्ज नहीं है। दाह-संस्कार होने तक हम लोग कुछ खा नहीं सकते।’’

वह प्राणेशाचार्य के साथ बाहर आ गया। समाचार मिलने से पहले ही नहीं पास- पड़ोस के लोग भोजन न कर लें इस शंका से प्राणेशाचार्य ने बड़ी तेजी से जाकर उडुपी लक्ष्माणाचार्य के घर खबर दी। गरुड़ाचार्य ने अधपगली लक्ष्मीदेवम्या और गली में काफी बढ़कर दुर्गाभट्ट के घर में जाकर सूचना दे दी। खबर आग की तरह अग्रहार के शेष दस घरों में फैल गयी।

बच्चों को भीतर बिठाकर घरों के किवाड़ बंद कर दिये। भगवान की कृपा से अभी किसी ब्राह्मण ने भोजन नहीं किया था। नारणप्पा की मृत्यु की खबर सुनकर औरतों, बच्चों से लेकर अग्रहार के किसी भी व्यक्ति को कोई दुख नहीं हुआ था, फिर भी उनमें एक अव्यक्त, परिचित भय और चिंता पैदा हो गयी थी। जिंदा था तो शत्रु था ही, मरने पर अन्न खाने में बाधा बना; जीवनहीन शव के रूप में एक समस्या और प्रश्न के सामने प्रस्तुत हो गया ! सभी ब्राह्मण प्राणेशाचार्य के घर के सामने आ खड़े हुए।

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