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उन्तीसवीं धारा का आरोपी

महाश्वेता देवी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2744
आईएसबीएन :81-7119-886-4

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इस पुस्तक में अन्तर्विरोधी कर्तव्यों के आपसी द्वन्द्व और समाज के निचले तबके की दारूण जीवन स्थितियों का वर्णन किया गया है.....

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

‘‘अंग्रेजी के ‘एस्कार्ट’ का शब्द का अर्थ, पुलिस विभाग के उन कर्मचारियों से है, जो पुलिस कर्मचारी, अपराधी, सरकारी धन, स्टैम्प या सरकारी साजो-सामान को एक जगह से दूसरी जगह अपनी जिम्मेदारी पर ले जाते हैं। यह एस्कार्ट स्थलमार्ग, जलमार्ग, अन्तरिक्ष, पैदल या मोटर से अथवा गो-यान (बैलगाड़ी), नाव या स्टीमर या हवाई जहाज से होता है।’’—पुलिस हैण्डबुक।
इस वक्त एस्कार्ट पैदल ही किया जा रहा था। थाना कांस्टेबल बिरिज परही, साहस के आतंक के रूप में मशहूर, बलबीर प्रसाद को एस्कार्ट कर रहा था। किसी एक अपराधी के लिए महज एक कांस्टेबल ही काफी है। किताब में भी ऐसा ही लिखा है। पुलिस हैण्डबुक नाम की इस किताब को बिरिज ने कई बार पढ़ा है। पढ़ते-पढ़ते इस किताब को उसने अक्षरशः रट लिया है। हनुमानजी के अवतार पर, पुलिस हैण्डबुक पर और गाँव के मालिक महाजन देवकीनन्दन मिसिर पर बिरिज की अपार आस्था है।
बिरिज देवकीनन्दन से डरता था। बहुत ज्यादा डरता था और उसका इतना अधिक डरना स्वाभाविक भी था। उसके इतना डरने की वजह भी थी। जग्-खारा गाँव के चाँद और सूरज देवकीनन्दन ने कभी कहा था कि दसाझ परही, जात का घासी है और मेरा सेवकिया लगता है। उसके बेटे का नाम है बिरिज। हाँ ! और ये बड़े ताज्जुब की बात है कि यह लड़का घर से भागकर तोहरी में किसी स्कूल में पढ़ रहा है। वह अब सेवकी का काम नहीं करता। इससे भी अधिक ताज्जुब की बात तो यह है कि इस बार कक्षा दस का इम्तिहान भी पास करेगा। खैर, बिरिज तो सरकारी खर्च में पढ़ाई-लिखाई कर रहा है। जग-खारा ब्लाक में कोई सरकार नहीं, हम हैं।
डर के मारे इसके बाद कभी भी गाँव लौटने की बात बिरिज ने सोची तक नहीं थी। इस ‘डर’ या आतंक के बारे में उसके युवा अध्यापक ने उसकी काफी परेशानियों को दूर किया था। द्वारकानाथ नाम का यह दुबला-पतला व्यक्ति बोलता कम था और ज्यादातर लोगों की ही सुनता था। उम्र यही कोई तीस के आस-पास। जात का भुइयाँ। हेडमास्टर साहब तो उसे नौकरी में रखने से ही आनाकानी कर रहे थे। परन्तु शिक्षा सचिव ने अनुसूचित जाति के इस युवक की न केवल इस स्कूल में नौकरी लगवाई बल्कि जाते-जाते हेडमास्टर को धमकाते हुए यह भी कहा कि ऊँची जात की गर्मी अब छोड़िए। ये सब बकवास है और ध्यान रहे कि भारत में अब जात-पात और छुआछूत की बात नहीं चलती।
अपने छात्रों के लिए द्वारकानाथ अत्यन्त आदर और सम्मान का पात्र रहा है। उसकी नौकरी जिस दिन गई, बस, उसी दिन से वह भी कहीं गायब हो गया। बिरिज ने द्वारकानाथ, जिनको वह प्यार से भइयासाहब कहते थे, को रेल कुली-धेवड़ा (कुलियों के रहने की कोठरियाँ) के सामने खटिया पर पड़े हुए देखा था। वे किसी नंगे और गन्दे बच्चे के साथ खेल रहे थे। कभी उसने द्वारकानाथ को भंगी टोली को पढ़ाते हुए भी पाया था। द्वारकानाथ बहुत ही अद्भुत और रोचक बातें करता था।
‘सुन्दर’ क्या है ? अगर जानना चाहते हो तो भंगी टोली और कुली धेवड़ा में जाओ। तलाशने की कोशिश करो कि तुम्हें वहाँ कुछ सुन्दर दिखता है या नहीं। मैं तो रोज देखता हूँ।
बिरिज को कहा था, ‘डर’ क्या है ? डर किसे कहते हैं यह मुझे पता है। गाँव के मालिक महाजन ने कहा था, भुइयाँ का लड़का पढ़ाई-लिखाई कर रहा है ? अरे द्वारका ! क्या तू यह भूल गया कि तेरे घर के बच्चे अगर पढ़ने गए तो मैं उनकी अँगुलियों को काट देता हूँ ?
हाँ-हाँ जी भइयासाहब।
मैंने उसकी इन बातों को अनसुना कर दिया।
मालिक ने अत्याचार नहीं किया ?
मुझे तो अम्मा ने टाउन भेज दिया था। उसके बाद जब अम्मा धान पीटने गई तो उसको लात पर लात मारा।
उसके बाद ?
उसके बाद क्या ! अम्मा उसके बाद भी जिन्दा रही।
-अच्छा भइयासाहब एक बात बताइए कि आप अपनी कमाई का पूरा पैसा हम कुली-भंगियों पर क्यों खर्च कर डालते हैं ?
-क्यों न करूँ ? आठ साल की नौकरी हो गई। अम्मा और भाई को जमीन खरीद दी है। बस, मेरा काम खतम।
-क्यों ? आपने शादी-ब्याह नहीं किया है ?
हाँ-हाँ, वह भी है। मेरे दो लड़के भी हैं। अभी तो मेरे पास अपनी जमीन भी है या नहीं ? मेरी जमीन पलामू कैनेल (नहर) के पास ही है। खास जमीन है, पूरा पाँच बीघा। धान, गेहूँ, रबी की फसल लगाओ और खाओ। अब तो कई भुइयाँ लोगों ने भी वहाँ अपनी जमीन खरीद ली हैं।
-आप कभी उधर जाते नहीं हैं ?
-कभी-कभार
-डर को भगाने का क्या उपाय है ?
-यह तो बहुत आसान है। आँखें मूँदकर एक लम्बी साँस लो और अपने आप से कहो, कि मैं किसी से नहीं डरता।
-आप हमारे मालिक को नहीं पहचानते हैं ?
-अच्छी तरह से पहचानता हूँ। उसके बारे में मैं जानता हूँ। हरिजन संघ का केशव जानता है। पलामू जिला अभी भी कम से कम हजार साल पीछे चल रहा है। तुम्हारा मालिक दरअसल एक जानवर से ज्यादा कुछ नहीं है।
-यह क्या कह रहे हैं ? वह एक ब्राह्मण है।
-मैं तुझे एक नई जगह दिखलाऊँगा। वहाँ पर ब्राह्मण नहीं है।
बिरिज अपने सिर को एक जगह झुकाकर हँस पड़ा था।
यह ‘तू’ कहना कितना प्यारा लगता है। केशवजी भी उसे ‘तू’ कहते हैं। और इस भइयासाहब के कारनामे भी कितने ! अब उस बार की बात ही क्या कुछ कम है जब भइयासाहब भगवान बन गए थे। टहार के शिवमन्दिर में बैजनाथ और कपिलेश्वर की मूर्तियाँ हैं। शिवरात्रि की रात उस मन्दिर का पुरोहित सिंहासन पर बैठता है। उसके सामने पीतल की एक बड़ी परात होती है, जिस पर झनझना पैसे गिरते हैं। सभी लोग वहाँ पहुँचते हैं। जो लोग वहाँ नहीं जा पाते उन्हें बाद में लोगों से उन्हें काफी खरी-खोटी सुननी पड़ती है।
शिवरात्रि के दिन द्वारकानाथ सुबह-सुबह मन्दिर जानेवाली सड़क पर अपने लान खड़े करके बैठा हुआ था। बार-बार स्कूल के घण्टे को बजाता और चीख-चीखकर लोगों को पुकारता। लोगों में उसकी चीख-पुकार से अफरा-तफरी मच गई।
मुझे बैजनाथ कपिलेश्वर ने सपना दिया है। सपने में उन्होंने मेरे सिर पर अपना हाथ रखा है। मैं भगवान हूँ। मुझे चढ़ावा दो और फिर मेरा चमत्कार देखो।
मास्टर सभी की जान-पहचान का आदमी था। सभी उसे चाहते थे। भरोसे का आदमी है, हो भी सकता है कि वह जो कह रहा है वह सच हो। सभी लोग यही सोच रहे थे। इतने में हरिजन संघ के केशव और प्रसाद महतो आकर भइयासाहब के चरणों में लोट गए।
-गोड़े लागी देवता—ये केले और लड्डू लो, इनको प्रसाद के रूप में ग्रहण करो देवता।
तोहरी के दो घोर नास्तिकों के इस रवैए से सभी लोग हैरान। देखते ही देखते वहाँ खड़े कुली, भंगी और जितने हरिजन थे, सभी ने अपने-अपने पैसे, सत्तू, फल और लड्डू उस परात में रख दिए।
-अरे, भाई, हर साल तो टहाड़ में जाते ही हैं पूजा करने। इस साल तोहरी में ही पूजा कर लेते हैं। अब हम सब को जो आदमी इतना चाहता है, हमेशा हमारा भला चाहता है, भगवान के अलावा किसका मान इतना उदार होगा ? का समझा है तू लोग ?
देखते ही देखते परात में प्रसाद का ढेर लग गया। तब भइयासाहब ने कहा—भाई लोग, मैं भगवान हूँ। तुम लोग अपनी आँखों से देख लो। देखो भगवान अपने हाथ से उठाकर प्रसाद खा रहा है। देखो, भगवान अपने हाथों से प्रसाद अपने भक्तों में बाँट रहा है। ले बेटा, खा। जी भरकर खा।
सभी ने प्रसाद खाया। खुशी-खुशी खाया। भइयासाहब ने पैसे अपने पास बटोरकर रख लिए। उस दिन तो काफी लोग टहाड़ में गए ही नहीं। मन्दिर से लौटकर दारोगाबाबू ने पूछा—द्वारकानाथ ! यह कैसे हो सकता है कि भगवान ब्राह्मण और ऊँची जाति को सपना न देकर तुम्हारे सपने में आए ?
द्वारकानाथ ने कहा—वही तो हमने पूछा दारोगाजी, तब जानते हैं क्या हुआ, भगवान ने मेरी ओर अपना त्रिशूल उठाकर क्रोधभरी आँखों से कहा कि, उसका फैसला तू करेगा रे मूरख ?
-ये बात तो तेरी न समझ में आई कि कल तक तू भगवान का आदमी था और आज मास्टर बन गया ?
-वही तो आर्डर न था, दारोगाजी अब कोई ऊँची जात वाला हमको आर्डर देगा तो हमको मानना न पड़ेगा। भगवान शिव भी तो सवर्ण हिन्दू हैं कि नहीं ? उनका आर्डर कैसे न सुनें ? न मानें ?
-आर्डर !
-हाँ, भई हाँ। आप जैसे सर्कल इंस्पेक्टर से आर्डर लेते हैं ठीक वैसे ही।
-तब तो ठीक किया। आर्डर तो मनना ही पड़ेगा। तुम तो मास्टर हो। तुम्हें शायद मालूम हो। क्या देवता लोग का भी जात-पात होता है ? अब तुम पढ़े-लिखे हो, तुम बता सकते हो। क्या देवता लोग ब्राह्मण होते हैं ?
-ही...ही दारोगाजी, आप ये क्या कह रहे हैं ? देवता लोग क्या भला ब्राह्मण होंगे ? अरे, देवता लोग तो ब्रम्ह ब्राह्मण होते हैं।
दारोगाजी खैनी टीपते हुए चले गए। बिरिज इन सारी बातों को दरवाजे की आढ़ से सुन रहा था। जब तक दारोगा और द्वारकानाथ की बातचीत चलती रही थी, प्रसाद और केशव सर झुकाकर चुपचाप बैठे सुनते रहे और उसके बाद दारोगा वहाँ से गया नहीं कि केशव, प्रसाद और द्वारकानाथ हँसते-हँसते लोटपोट हो गए। प्रसाद ने कहा कि द्वारकानाथ तो बड़ा तेज निकला। दारोगा को भी घिसकर रख दिया। बोलता है ब्रम्ह ब्राह्मण ! अरे यह किस चिड़िया का नाम है रे ?
भइयासाहब ने कहा कि कुछ भी कह लो, इस साल कोई उस टहाड़ के ठग के पास नहीं गया, यह बहुत अच्छा हुआ। पैसे भी कम इकट्ठे नहीं हुए। बीस रुपये से भी ज्यादा इकट्टा हुआ। इन पैसों से ढेरों स्लेट और किताबें आ जाएँगी।
बिरिज की तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था, कि आखिर यह हो क्या रहा है।
उसके अगले ही साल बिरिज ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली। और ताज्जुब की बात ये हुई कि जग्-खारा गाँव के मालिक महाजन देवकीनन्दन मिसिर की मदद से नौकरी के लिए अपनी एड़ियों को घिस रहा बिरिज परही थाने का कांस्टेबल बन गया। देवकीनन्दन ने बिरिज का भाग्य बदल दिया। हालाँकि देवकीनन्दन रहता है जग्-खारा में और बिरिज तोहरी में। इसके बावजूद ऐसा हुआ। इसकी वजह था द्वारकानाथ, यानी द्वारकानाथ और बिरिज का टहाड़ के मन्दिर के सामने किन्हीं करीबी दोस्तों की तरह मूँगफली चबाते हुए एक-दूसरे से बतियाना। वह लोग मूँगफली चबा रहे थे और बिरिज उनसे अपने दुख की बातें कर रहा था। बारहवीं की परीक्षा पास करने के बाद बिरिज ने द्वारकानाथ, केशव और प्रसाद को ‘तुम’ कहना शुरू कर दिया। अब ‘आप’ कहने से उनमें से कोई भी जवाब नहीं देता है। बिरिज उन्हीं के साथ खाना खाता है और नौकरी की तलाश कर रहा है।
बिरिज यही सब बातें कर रहा था कि सिंचाई विभाग के दफ्तर में चपरासी की नौकरी नहीं मिली क्योंकि वह ज्यादा पढ़ा-लिखा था। चपरासी के लिए ज्यादा से ज्यादा कक्षा आठ पास होना काफी था। रेलवे में नौकरी नहीं मिल सकती, क्योंकि उन्हें अनुसूचित जाति का स्नातक मिल गया है। आपूर्ति विभाग (सप्लाई विभाग) तो घासी नाम ही नहीं जानता है।
-कैसे ?
-मेरे कहने का मतलब है कि घासी नाम से वह वाकिफ तो हैं परन्तु जिन अनुसूचित जातियों को वह काम दे सकते हैं उस तालिका में घासी और परहाइया का नाम नहीं है। अब यह तो सरकार पर है कि कब उस सूची में परहाइया और घासी का नाम सम्मिलित करेगी। उसके बाद ही कहीं वह हमसे दरख्वास्त कबूल करेंगे।
-स्कूल में क्यों नहीं आ जाते ?
-स्कूल में !!! कैसे ? आप—मेरा मतलब है तुम तो यहाँ काम कर ही रहे हो।
-मैं तो यह नौकरी छोड़ने वाला हूँ।
-नौकरी छोड़कर क्या करोगे ? सर्विस मत छोड़ो।
-देखता हूँ। अरे, यह कौन आ रहा है ? और तुम कहाँ भागे जा रहे हो ?
-मेरे मालिक हैं, पूजा के लिए आए हैं।
बिहार के लाख वाणिज्य सहकारी फेडरेशन के सर्वेसर्वा हैं देवकी मिसिर। जग्-खारा के मालिक महाजन देवकी मिसिर ने अपनी छड़ी घुमाई और मन्दिर में दाखिल हो गया। घुसने से पहले उसकी नजर बिरिज परही पर पड़ी।
-कौन है ? कहीं तुम बिरिज परही तो नहीं ? मेरे जूते की निगरानी करो।
तुरन्त भइयासाहब बोल उठे—अपने जूते की निगरानी खुद कर तू। इतना सुनना था कि बिरिज की आँखों में अँधेरा छा गया।
-तू कौन है रे ?
-तू कौन है ? मैं यहाँ का स्कूल मास्टर हूँ।
-जबान सँभाल कर बात कर। तेरे जैसे मास्टरों को मैं सुबह-शाम नौकरी से निकालता हूँ।
-अपने गुलामखाने में तू ऐसा करता होगा। यहाँ नहीं।
-ये बात। अब आना कभी अपने गाँव बिरिज। देखना तेरे चमड़े से जूता बनाता हूँ या नहीं।
-कोशिश करके तो जरा देख।
गुस्से में तमतमाया देवकी मन्दिर में चला गया। बिरिज को रोना आ गया। मेरा अम्मा और बापू गाँव में हैं। मालिक अब मेरी नहीं तो उनकी चमड़ी जरूर उधेड़ेंगे।
-तीन दिन खोलेंगे, ज्यादा से ज्यादा। चौथे दिन उसकी चमड़ी उधेड़ी जाएगी।
-कैसे ?
-देखना चाहोगे ?
एक बार फिर इस ‘डर’ नाम के शब्द ने बिरिज को अपने नागपाश में लपेट लिया। मारे डर के वह नौकरी की तलाश में भागा।
तोहरी के दारोगा ने अचानक ही उस पर रहम किया और नागेसिया का लड़का बिरिज परही केवल बीस साल की उम्र में पुलिस कांस्टेबल बन गया। और ताज्जुब कि उसे अपने थाने से धूल और गर्द से ढकी एक पुलिस हैण्डबुक भी मिल गई। इससे पहले वाले दारोगा के दिमाग में एक कीड़ा था, जिसके चलते वह अपने थाने में दस किलो पुलिस हैण्डबुक मँगवाकर थाने के कांस्टेबलों में बँटवाया था। बिरिज के आने से पहले ही उस दारोगा का तबादला हो गया।
उस दारोगा ने खुद ही अपने विदाई समारोह का आयोजन किया था, जिसमें उसने अपनी ही तस्वीर को माला पहनाई और भाषण दिया।
-भाइयों ! जिस तरह शिक्षा की नींव स्कूल से बनती है उसी प्रकार किसी भी राष्ट्र की नींव, कांस्टेबल से बनती है। कितना सुन्दर शब्द है कांस्टेबल, ‘कांस्टेबल’। एक अपूर्व शब्द है ! कौन है स्टेबल यानी स्थायी ? वह है कांस्टेबल। कुछ समझा बुड़बक लोग ?
-हाँ, हाँ जी।
कोई भी अक्लमंद कांस्टेबल कभी भी प्रमोशन नहीं चाहेगा। एहीं काम करते रहो और जमीन खरीदो, मकान बनाओ।....अपनी अकल से काम लो। समझा कुछ रे उल्लू का पट्ठो ?
-हाँ, हाँ जी।
-ये जो पुलिस हैण्डबुक है, यह किसी भी कांस्टेबल के लिए गीता है, रामायन है और यही उसका महाभारत है। इस किताब पर भरोसा करो जिन्दगी में कभी भी दुख तुम्हें छू तक नहीं पाएगा। इस किताब का नित्य भक्तिभाव से पाठ करो। इससे तुम्हें मन की शान्ति मिलेगी, मकान, रुपया, जमीन, जीवन में उत्साह, भैंसा, सम्मान, हल, जो चाहो वह सब मिलेगा। कुछ समझा रे ?
-हाँ, हाँ जी।
-बस। विदाई समारोह अब खतम। आज मैं तुम्हारे सर्कल इंस्पेक्टर के रूप में बदली होकर जा रहा हूँ। देखो मुझे तुम लोगों को छोड़कर जाते हुए रोना आ रहा है। मगर याद रहे, तुम्हारे सर्कल इंस्पेक्टर के रूप में यहाँ का आए दिन दौरा करूँगा और तब तुम सबको जूते से मारूँगा, तुम सब लोगों को सस्पेंड कर दूँगा, सबसे फेटिंग ड्यूटी करवाऊँगा और कोड़े मारकर तुमसे हाकी खिलवाऊँगा। याद रहे, तोहरी थाना पुलिस टीम ने अगर हाकी मैच नहीं जीता तो मैं तुम सबको भरी दोपहरिया में अमावस दिखाऊँगा।
हालाँकि दारोगा साहब की ये आखिरी इच्छाएँ अधूरी ही रहीं। इसकी वजह थी कि झारी धोबाइन का लाल कम्बल। हुआ यह था कि एक बार सर्कल इंस्पेक्टर घोड़े पर चढ़कर कहीं जा रहे थे। उनके पीछे-पीछे झारी धोबाइन लाल कम्बल ओढ़े चला आ रहा था। सामने से पारस महतो कांजी हाउस से अपने अड़ियल भैंसे को छुड़ाकर ला रहा था। पारस अपने भैंसे को गरिया रहा था और भैंसा भी अड़ा हुआ था। लाल कम्बल ओढ़े झारी धोबाइन को देखकर अचानक भैंसा आपे से बाहर हो गया और उसकी ओर दौड़ गया। भैंसे की इस हरकत से घोड़ा बिदक गया और दारोगा जी घोड़े की पीठ से जमीन पर आ गए। झारी तब तक अपना कम्बल वहीं फेंककर भाग खड़ा हुआ। भैंसे को सामने मिले जमीन पर गिरे दारोगाजी। जबतक लोगबाग आकर भैंसे से दारोगाजी को छुड़वाते, दारोगाजी क्षत-विक्षत नश्वर शरीर को इहलोक में छोड़कर बैकुंठ सर्कल में तबादला ले चुके थे।
ये सभी आकस्मिक घटनाएँ बिरिज के नौकरी लगने से पहले घटित हो चुकी थीं। इस घटना के थोड़े दिनों बाद गाँव के हाट में लाल कम्बल की बिक्री पर रोक लगा दी गई। यह रोक अड़ियल भैंसे के कांजी हाउस से छुड़वाने और धोबाइन युवतियों के बीड़ी पीते हुए इधर-उधर घूमने पर भी लागू की गई। इस बीच द्वारकानाथ अचानक एक दिन स्कूल से गायब हो गया। बिरिज ने गर्द लिपटी पुलिस हैण्डबुक को खोलते ही पाया कि ‘डरना’ एक पुलिस कांस्टेबल के लिए एक दण्डनीय अपराध है। इस अपराध के लिए ‘किसी पुलिसवाले की मजिस्ट्रेट की अदालत में पेशी हो सकती है और अपराध साबित हो जाने पर उस पर तीन महीने के वेतन के बराबर का जुर्माना या तीन महीने की सश्रम या साधारण कैद या दोनों हो सकती है।’ बिरिज ने ऐसी हालत में सोचा कि हाँ, हाँ सही बात। डरने से काम नहीं चलेगा। आखिर वह भी एक कांस्टेबल है। एकदम थाना पुलिस। दूसरे कांस्टेबल बिरिज को साथ लेकर खाना नहीं खाते। बिरिज उनके जात-पात को बचाते हुए अलग चौका लगाता है। दारोगाजी उसे बात-बात पर छोटी-मोटी सजा सुनाते रहे हैं।
-बिरिज परही ड्रिल करो। देर तक करो। घाँस-पत्ती, घाँस-पत्ती घाँस !
-देर तक ड्रिल करो।
बिरिज परही को फेटिंग ड्यूटी दो। जाओ ड्रिल परेड मैदान को तैयार करो।
-बिरिज इन लघुदण्डों के चलते काफी दुखी हो जाता है। परन्तु वह लाचार है, क्योंकि, ‘‘लघुदण्डों के खिलाफ अपील नहीं की जा सकती है, और लघुदण्ड देने के लिए डिपार्टेमेंटल प्रोसीडिंग की आवश्यकता नहीं होती।
मैदान साफ करने से निकला घास दारोगा के घोड़े के लिए चला जाता है। घोड़े की देखभाल करने वाला बिरिज की हालत देखकर कहता है, च् च् बिरिज ! तू भी परही और मैं भी परही हूँ।
-तू बड़ा भोला है रे, एकदम बुड़बक। अकल तो एकदम नहीं है। ले बीड़ी पी। थोड़ी देर आराम कर ले।
-भइया, फेटिंग ड्यूटी बार-बार मुझ पर ही क्यों लगाया जाता है ?
-च् च् बिरिज ! तुझे इतना भी नहीं मालूम ?
-नहीं।
बिरिज घास काटता रहता है और घास के गट्ठर का हिसाब लगाता रहता है।
-तुम पर दारोगाजी काफी नाराज हैं। तुम द्वारकानाथ के छात्र न हो ! वही द्वारकानाथ, जिसने जग्-खारा जाकर देवकीनन्दन के धरमारू लोगों को देवकीनन्दन के खिलाफ भड़काया कि वह लोग उसके लिए बेगारी न करें। बोलो क्यों ?
....धरमारू लोग न तो सेवकिया हैं और न ही कामिया, पर नागेसिया, घासी और परहइया लोग तो खेत मजूरी करते ही हैं। मालिक उनसे मारपीट करके जबरदस्ती बेगारी करवाता है। न उनको मजूरी मिलती है और न ही खुराकी। ऐसा तो होता ही आया है।
-हाँ हाँ, द्वारकानाथ ने इन लोगों को लामबन्द किया। उन्हीं के साथ रहा। थोड़े दिनों में केशव और प्रसाद भी वहाँ पहुँच गए। खी खी खी, मुझे सब मालूम है। और तब अमरीश और दिलीप, यानी देवकीनन्दन का लड़का और भतीजा ने आकर खूब जुलुमबाजी किया। खूब पीटा। उस समय डिप्टी कमिश्नर ने वहाँ कैम्प किया हुआ था। द्वारकानाथ इन लोगों को कमिश्नर साहब के कैम्प में ले गया और उन्हें सभी बातें बताईं।
   

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