कहानी संग्रह >> बेजुबान बेजुबानसुभाष शर्मा
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भारतीय जन-जीवन को कैसा होना चाहिए देखें सुपरिचित लेखक सुभाष शर्मा की नजर से...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सुभाष शर्मा ने नवें दशक में युवा कथाकार के रूप में अपनी स्पष्ट पहचान
बना ली है। जीवन के विभिन्न आयामों को काफी गहराई से देखने एवं समझने का
माद्दा उनमें है। वे सामाजिक घटनाओं को ऐसी दृष्टि से देखते हैं जो समाज
को आगे ले जाने वाली होती हैं। उनकी सोच समझ कभी भी बने बनाए साँचे में
फिट नहीं होती क्योंकि वह जीवन अनुभव से संबद्ध है। उनकी कहानी
‘बेजुबान’ नवें दशक की एक महत्त्वपूर्ण कहानी है।
इसकी चर्चा
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में होती रही है।
समकालीन हिंदी कहानी से गुजरते हुए यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि सामाजिक अनुभवों का दायरा और अधिक व्यापक हुआ है, तथा मानवीय दृष्टिबोध और अधिक गहरा। अपने आस-पास बिखरे जीवन यथार्थ को अनदेखी कर आज का कथाकार किसी अगम्य फल को रचने में विश्वास नहीं रखता। कहना न होगा कि सुपरिचित कवि-कहानीकार सुभाष शर्मा के इसी संग्रह की कहानियों को इसी श्रेणी में रखा जाएगा।
इस संग्रह में सुभाष शर्मा की दस कहानियाँ संगृहीत हैं और इनमें से प्रायः प्रत्येक कहानी जन जीवन की किसी-न-किसी विडंबना को उजागर करती है। आजादी के बाद हमारे चारों ओर जिस सामाजिक, राजनीतिक, प्रशासनिक और शैक्षिक-सत्र का निर्माण हुआ है, मनुष्य उसमें सब कहीं शिकार की तरह छटपटा रहा है। इस तंत्र में मौजूद जल्लादों के अनेक चेहरे ‘जल्लाद’ नामक व्यक्ति से कहीं अधिक भयावह हैं।
‘हिंदुस्तनवा’, ‘फरिश्ते’, ‘ज़मीन’, ‘आँचल’ और ‘जल्लाद’ जैसी कहानियाँ अपनी गंभीर अर्थवत्ता से हमें बहुत गहरे तक झकझोरती हैं, और यदि फरिश्ते के सहारे कहा जाए तो हर प्रकार की अमानवीय दुर्गंध के बावजूद मानवीय संबंधों की महक का भी बखूबी अहसास कराती हैं।
समकालीन हिंदी कहानी से गुजरते हुए यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि सामाजिक अनुभवों का दायरा और अधिक व्यापक हुआ है, तथा मानवीय दृष्टिबोध और अधिक गहरा। अपने आस-पास बिखरे जीवन यथार्थ को अनदेखी कर आज का कथाकार किसी अगम्य फल को रचने में विश्वास नहीं रखता। कहना न होगा कि सुपरिचित कवि-कहानीकार सुभाष शर्मा के इसी संग्रह की कहानियों को इसी श्रेणी में रखा जाएगा।
इस संग्रह में सुभाष शर्मा की दस कहानियाँ संगृहीत हैं और इनमें से प्रायः प्रत्येक कहानी जन जीवन की किसी-न-किसी विडंबना को उजागर करती है। आजादी के बाद हमारे चारों ओर जिस सामाजिक, राजनीतिक, प्रशासनिक और शैक्षिक-सत्र का निर्माण हुआ है, मनुष्य उसमें सब कहीं शिकार की तरह छटपटा रहा है। इस तंत्र में मौजूद जल्लादों के अनेक चेहरे ‘जल्लाद’ नामक व्यक्ति से कहीं अधिक भयावह हैं।
‘हिंदुस्तनवा’, ‘फरिश्ते’, ‘ज़मीन’, ‘आँचल’ और ‘जल्लाद’ जैसी कहानियाँ अपनी गंभीर अर्थवत्ता से हमें बहुत गहरे तक झकझोरती हैं, और यदि फरिश्ते के सहारे कहा जाए तो हर प्रकार की अमानवीय दुर्गंध के बावजूद मानवीय संबंधों की महक का भी बखूबी अहसास कराती हैं।
बेजुबान
‘‘जैसा जेल के भीतर है यदि वैसा बाहर भी हो जाये तो
दुनिया ही
बदल जाएगी।’’ एक कैदी का बयान। दैनिक अखबार में छपे
इस खबर पर
जैसे ही उसकी निगाह पड़ी उसके बगल में खड़े व्यक्ति की आवाज़ सुनी-
‘‘होशियार, होशियार,
होशियार...’’
यह किसी राजा-महाराजा के आगमन के पूर्व की सूचना नहीं थी। दरअसल जेल के महिला वार्ड में जब किसी अधिकारी या कर्मचारी को किसी कार्यवश प्रवेश करना होता, तो बंद दरवाजे के बाहर से ‘होशियार’ शब्द तीन बार कहना पड़ता था। तभी महिला वार्ड के अंदर ड्यूटी पर तैनात जमादारिन यानी महिला वार्डर उस आवाज़ को पहचान कर अंदर से दरवाजा खोल देती है।
कुछ ऐसा हुआ इस बार भी। नया जेल अधीक्षक पहली बार जेल के विभिन्न क्षेत्रों और वार्डों का मुआयना कर रहा था। महिला वार्ड में वह घुसा। घुसते ही महिला बंदियों के बारे में जेल अधीक्षक के मन में तरह-तरह के विचार और घटनाएँ स्मृतिपटल पर आने लगीं। उसे याद आया कि आपातकाल के दौरान उसने अखबारों में पढ़ा था कि जो महिलाएँ जबर्दस्ती बंध्याकरण ऑपरेशन का विरोध की थीं, उन्हें जेलों में ठूँस दिया गया था जिससे वे चुप हो जाएँ। जिनका ऑपरेशन असफल हो गया था अथवा ऑपरेशन के बाद जिनके बारे में जानकारी मिली थी कि वे पूर्व से ही विधवा हैं
या जिनकी उम्र ज़्यादा हो गई थी और वे मेनोपॉज की अवस्था पार कर चुकी थीं, उन्हें भी बेकसूर जेलों में बंद कर दिया था। हो सकता है उनमें से कुछ अभागिन बची हों अभी महिला वार्ड में ऐसा अधीक्षक सोचने लगा। लेकिन नहीं, अपातकाल बीते कई वर्ष गुजर चुके हैं। फिर भी हो सकता है कि किसी महिला को इसलिए ज़मानत न मिली हो क्योंकि उसकी ज़मानत की अर्जी देनेवाला ही कोई नहीं हो। दूसरे क्षण उसने सोचा कि जेल में ऐसी महिलाएँ भी कैद होती रहती हैं जो बड़े-बड़े अपराधी गिरोह की सक्रिय सदस्य होती हैं और येन-केन प्रकारेण निर्दोष लोगों को अपराध-फाँस में फँसाती हैं। उसे याद आने लगीं तमाम मुंबइया फिल्में जिनमें मालकिनें कोठा चलाती हैं या नशीली दवाओं का अवैध व्यापार
करती हैं या विदेशी कीमती समानों की स्मगलिंग में जुटी रहती हैं। इतना ही नहीं कुछ महिलाएँ अपरहण का धंधा भी करती हैं और अंतर्राष्ट्रीय गिरोह से जुड़ी होती हैं। एक फिल्म में तो यहाँ तक दिखाया गया था कि एक जवान खूबसूरत लड़की कैसे किसी महानगर के बड़े-बड़े धन्नासेठों और नेताओं की अप्रत्याशित रूप से हत्या करती रहती है जिससे पूरे महानगर में दहशत पैदा हो जाती है। और आतंकवादी महिलाएँ भी तो होती हैं। आख़िरकार एक महिला ही ने मानव बम के सहारे देश के युवा प्रधानमंत्री की हत्या कर दी थी। पंजाब के उग्रवाद और श्रीलंका के आतंकवाद में महिलाओं की
सक्रिय भागीदारी की बात किससे छुपी है, अधीक्षक सोचने लगा। सोचते-सोचते उसका सिर चकराने लगा। तभी पास खड़े जेलर ने बताया कि नियम के मुताबिक महिला वार्ड में कोई पुरुष अधिकारी या कर्मचारी अकेले नहीं घुस सकता। कम-से-कम दो आदमी होना ज़रूरी है। दूसरी बात उसने बताई कि महिलाएँ बहुत भावुक होती हैं शायद इसलिए बंदियों को रसोई बनाना माना है।
‘‘लेकिन साहब ! यह कैसा विरोधाभास है कि जब समूचे देश में घर-घर औरतें ही चूल्हा-चक्की अच्छी तरह सँभालती हैं, तो जेल में क्यों नहीं सँभाल सकतीं !’’-जेलर कहता जा रहा था-‘बिनु घरनी घर भूत का डेरा’। तीसरी बात उसने यह बताई कि महिलाओं को हर महीने नहाने-धोने के लिए एक-एक बट्टी साबुन और नारियल का तेल दिया जाता है। जेलर जब यह सब बता रहा था, तभी जमादारिन ने जेल अधीक्षक को सलूट मारा और बताया कि सभी महिला बंदी लाइन में खड़ी तैयार हैं।
जेलर एक-एक महिला बंदी का नाम पुकारने लगा और बताने लगा कि वह किस अपराध में जेल आई है। तभी उसने पुकारा, ‘‘छोटकी गूँगी, बड़की गूंगी, काली गूँगी मोटकी गूँगी...’’ अधीक्षक को आश्चर्य हुआ। उसने पूछा, ‘इनके नाम क्या–क्या हैं ?’’
यही नाम है सर जेलर ने बिना किसी झिझक के कहा।
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘जिसके जुबान नहीं होती उसका कोई नाम नहीं होता।’’
अधीक्षक अब भी संतुष्ट नहीं हुआ। उसने इन गूँगी बंदियों का हिस्ट्री टिकट माँगा। हिस्ट्री टिकट में लिखा था-छोटकी गूँगी, पिता का नाम नामालूम, साकिन नामालूम, उम्र करीब बीस वर्ष, ऊँचाई पाँच फीट छः इंच, थाना शिवगढ़ कांड सं. 177/94 धारा तीन सौ उन्नीस भा. द. वि, न्यायालय मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी शिवगढ़। अधीक्षक को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। उसे ये सारे शब्द डरावने लगे। ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी का कोई नाम-पता ही नहीं हो।
आख़िर हर इन्सान किसी-न-किसी की कोख से पैदा होता है और जहाँ वह पैदा होता है, वही उसका घर-बार और गाँव-शहर होता है। वह जेलर पर झल्ला उठा और नाराज़ होकर उसने वारंट मँगवाया। लेकिन उसमें भी वही प्रविष्टि थी। दरअसल वारंट के आधार पर ही हिस्ट्री टिटक बनता है। फिर भी अधीक्षक ने अपनी तसल्ली के लिए वारंट से भी सत्यापित किया। अधीक्षक को इस बेजुबानी-बेनामी पद्धिति पर एतराज़ हुआ और इसलिए उसने जेलर से पूछा, ‘‘मान लो कि कोई नई गूँगी जेल में आ जाए तो उसका क्या नाम होगा ?’’
‘‘पतरकी गूँगी सर।’’
‘‘और ज़्यादा गूँगी बंदी आएँ तो।’’
‘‘तो गूँगी नं, 1, 2. 3. 50. 100....अधीक्षक का दिल अंदर से कचोट उठा। गूँगी का कोई नाम क्यों नहीं ? आखिर किसी व्यक्ति का नाम, परिवार या सामाज ही रखता है, खुद वह व्यक्ति नहीं। गूँगी का वैसे ही नाम नहीं, जैसे गाय-भैंस का कोई नाम नहीं। अर्थात गूँगी भी गाय-भैंस से अधिक नहीं क्या ? उसे अपने गाँव के खेताउ काका की याद जिन्होंने अपनी भैंसों का नाम लच्छमी और करमा रखा था और हमेशा वे नाम लेकर ही पुकारते थे और लक्ष्मी तथा करमा फौरन उनके पास आ जाती थीं लेकिन इस गूँगी की स्थिति उन भैंसों से भी बदतर है। बेजुबान यानी बेनाम यानी एक संख्या। गूँगी की अंतिम नियति सिर्फ़ एक संख्या है ! ऐसा लगा कि अधीक्षक निरीक्षण के बजाय खो गया है कहीं गहरे में। अपने में या समाज में, यह कहना मुश्किल था।
थोड़ी देर बाद अधीक्षक अपने आवास पर चला गया। बारी-बारी से मुलाकाती बंदियों से मिल रहे थे। बाहर तेज धूप थी। काफी प्रतीक्षा के बाद मुलाकात हो रही थी और आशंका थी कि मुलाकात का निर्धारित समय कहीं पूरा न हो जाए। इसी बीच एक मुलाकाती छोटकी गूँगी से भी मिलने आया। उसने अपना आवेदन दिया। थोड़ी देर बाद छोटकी गूँगी मुख्य द्वार पर आई मुलाकात के वास्ते। उसका मुलाकाती भुन्गा सिंह था जो समय-समय पर गरीबों को दान दक्षिणा दिया करता था-खाना-कपड़ा वगैरह। छोटकी गूँगी जेल में आने के पहले रिमांड होम में थी।
उस समय उसकी उम्र अठारह वर्ष से कम होने के कारण उसे पुलिस की रिपोर्ट पर मजिस्ट्रेट ने रिमांड होम में भेज दिया था किंतु मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के कोर्ट में किसी ने उसकी ज़मानत के लिए अर्जी ही पेश नहीं कि लंबे अरसे तक। बाद में रिमांड होम की अधीक्षिका ने एक आवेदन ज़मानत के लिए लिखवाकर कोर्ट में भेज दिया था जिसे किसी वकील द्वारा पैरवी करने पर नामंजूर कर दिया गया था। उसके बाद अठारह वर्ष पूरा होने के कारण उसे रिमांड होम से जेल भेज दिया गया था। तब से वह जेल में है और किसी ने सेशन जज के कोर्ट में उसकी ज़मानत की अर्जी पेश नहीं की थी।
सो अधेड़ दाड़ी-मूँछवाले ‘‘समाजसेवी’ भुन्गा सिंह को देखकर उसे आशा की किरण फूटती-सी दिखाई पड़ी। भुन्गा सिंह ने उसे कुछ फल-फलूट दिया। साथ में खाने का एक डिब्बा भी। भुन्गा उसे इशारे से कुछ समझा रहा था लेकिन वह कितना समझ रही थी यह कहना मुश्किल है।
भुन्गा सिंह के जाने के कुछ ही क्षणों में अधीक्षक ने अंदर प्रवेश किया। छोटकी गूँगी के हाथों में खाने का डिब्बा और फल-फलूट देखकर अधीक्षक को कुछ खुशी हुई। वह सोचने लगा की छोटकी गूँगी किसी अच्छे खानदान की लड़की है लेकिन चोरी के इल्जाम में कैसे फँस गई ? हो सकता है किसी गोतिया ने उसे फँसा दिया हो।
दूसरे दिन कोर्ट के आदेश से टी.आई. परेट आयोजित किया गया जिसमें केस करनेवाले के द्वारा छोटकी गूँगी की पहचान की जाने थी। कुल पन्द्रह महिलाओं को तैयार किया गया टी.आई. परेट के लिए। सभी को एक तरह की साड़ियाँ पहनाई गईं। माथे पर बिंदी लगा दी गई। बालों में तेल-कंघी। सभी महिला बंदी सजी-सँवरी थीं और उन्हें आईने की तलब थी जैसे खैनी खानेवाले को खैनी की। महिला वार्ड में आईना नहीं था। महिला को आईना भी मयस्कर नहीं।
जेलर ने अधीक्षक को बता दिया था जेल मैनुअल में फँला नियम के मुताबिक वार्ड के अंदर आईना देना मना है। सो अंततः बिसूरकर वे अपना-अपना चेहरा घड़े में रखे पानी में देख-देखकर मुस्कराने लगीं। फिर जमादारिन की देख-रेख में एक कतार में खड़ी हो गईं ! मजिस्ट्रेट ने पहचान कर्ता को बुलाया। वह बारी-बारी से सभी महिला बंदियों की तरफ नज़रें दौड़ता गया। तीन बार मौका दिए जाने के बावजूद वह नहीं पहचान सका। लेकिन छोटकी गूँगी उसे पहचान गई। क्यों न पहचाने ? यह तो वही था जो उसे कल खाना और फल-फलूट दे गया था। यानी भुन्गा सिंह। शायद न पहचानने के लिए ही वह एक दिन पहले कुछ लोगों की मिली भगत से छोटकी गूँगी से मुलाकात करने जेल में आया था।
कोई षड्यंत्र था क्या ? लेकिन मजिस्ट्रेट ने रिपोर्ट लिख दी कि पहचानकर्ता भुन्गा सिंह अभुयुक्त को नहीं पहचान सका टी. आई. परेट में। छोटकी गूँगी की समझ में टी आई. परेट की बात बिलकुल नहीं आई। लेकिन जब उसे बताया गया कि उसे न पहचानने के कारण उसे कोर्ट से ज़मानत और फिर जेल से छुट्टी मिल जायेगी तो वह बहुत खुश हुई। उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसे अपनी माँ की याद आई। वही माँ जो उसे सात वर्ष की अकेली छोड़कर चल बसी थी। बाप के चेहरे की याद भी नहीं है उसे क्योंकि वह माँ के पहले ही गुजर चुका था। दूसरे दिन ज़मानत की तारीख थी।
थाना प्रभारी शिवगढ़ खुद गया था लोक अभियोजक से मिलने के लिए। उसने बताया था कि केस में दम नहीं है। पी.पी पूछ बैठा कि जब केस में दम नहीं है, तो छोटकी गूँगी को क्यों फँसाया गया ? थाना प्रवाही ने किसी दबाव की चर्चा की थी। उक्त दबाव की बात सुनकर पी.पी. का चेहरा बदल गया। उसके माथे की सिकुड़न शायद संकेत कर रही थी सवालिया लहजे में कि आखिर कब तक किसी के दबाव में गरीब लोग उजड़ते रहेंगे, दबाव में कितने भले इन्सान अपराधी बना दिए जाएँगे और कितने असली अपराधी बेनकाब नहीं होंगे।
लेकिन क्षण में उसकी आँखें लाल-पीली होकर भी स्याह हो गईं, उसकी भौंहें, तनकर भी नीचे हो गईं उसका सीना फूलकर भी सिकुड़ गया। क्या पी.पी. को भी दबाव महसूस हुआ। दबाव नहीं डर समा गया उसके अंदर जैसे ही उसे याद आया पिछले सी.जे.एम.का चेहरा जो ज़मानत देने पर बहुत उदास था और झूठे मामलों में उत्तरदायित्व निर्धारित करने हेतु कई थाना प्रभारियों के विरुद्ध एम.पी. को लिख चुका था लेकिन अंततः एक दिन एक दबंग दारोगा ने उसके घर में चोरी करवा दी थी और तब से उस मजिस्ट्रेट का रूख ही बदल गया था.....
खैर.....मजिस्ट्रेट की टी. आई. परेट रिपोर्ट देखने और बचाव पक्ष एवं पी.पी. को सुनने के बाद सी. एम. ने छोटकी गूँगी को कांड सं. 177/94 में बाइज़्ज़त डिस्चार्ज कर दिया। इजलाम खत्म होने के बाद भुन्गा सिंह पेशकार के पास गया और उसे जड़ी-बूटी सुँघाकर छोटकी गूँगी की ज़मानत की नकल ले ली। उसे कोई बड़ी अमानत मिल गई है।
वह मोटरसाइकिल से तेज रफ्तार से चलता हुआ-ट्राफिक नियमों की धज्जियाँ उड़ाता हुआ-जेल पहुँचा। करीब पौने छः बज चुके थे। सूरज डूबने ही वाला था। सूरज डूबने के बाद कोई बंदी जेल के गेट से बाहह नहीं निकल सकता क्योंकि तब तक ‘नंबरबंदी’ यानी बंदियों की गणना करके वार्ड में ताला लगाना हो चुकी होती है और विभिन्न रजिस्टरों में आनेवाले और निकलनेवाले बंदियों की संख्या की प्रविष्ट कर दी जाती है। सो जेल के गेट पर तैनात वार्डन ने कह दिया कि अब बहुत देर हो गयी है, कल आइए। भुन्गा सिंह इस न नुकुर की भाषा समझ गया और धीरे से अपनी दाहिनी मुट्ठी उसकी हथेली पर खोल दी। वार्डन का चेहरा खिल गया जैसे कीच़ड़ में कमल।
थोड़ी देर के बाद में छोटकी गूँगी को महिला वार्ड से मुख्य द्वार पर लाया गया। छोटकी गूँगी बहुत खुश हो रही थी कि उसे लंबे अरसे के बाद आज मुक्ति मिल रही है लेकिन कुछ उदासी भी थी कि तीस बंदी बहनों का साथ आज छूट रहा है जिसके बीच वह काफी लोकप्रिय रहती थी और वह किसी भी बंदी बहन का बारे-गाढ़े काम भी कर देती थी। आख़िर बचपन से ही उसे दूसरे घरों में बर्तन माँजने-धोने और घरेलू काम करने का पुराना अनुभव रहा है।
वह गेट से बाहर निकलनेवाली थी। मुख्य गेट खुलनेवाला था। मुख्य गेट पर दो संतरी तैनात थे रायफल के साथ। तभी दो व्यक्ति आपस में झगड़ने लगे-भुन्गा सिंह और बूटन मंडल। झगड़े का मुद्दा था कि कौन गूँगी को अपने साथ ले जाएगा। दोनों का दावा था उस पर गोया वह कोई वस्तु मात्र हो। भुन्गा सिंह कह रहा था कि वह उसके यहाँ दाई का काम करती रही है कई वर्षों से और उसने ही ज़मानत कराई। थाना-पुलिस, कोर्ट-कचहरी, जेल आदि में उसने काफी कुछ ख़र्च किया है। दूसरी तरफ बूटन मंडल का कहना था कि छोटकी गूँगी उसकी दूर की रिश्तेदार है
और उसके माँ-बाप मर गए हैं और उसी ने उसको पाला-पोसा था। इस पर जब भुन्गा सिंह पूछता कि बूटन ने उसकी ज़मानत क्यों नहीं कराई, तो वह उबल पड़ता। इस प्रकार दोनों में तू-तू मैं-मैं हो रही रही थी। ऊँची आवाज़ सुनकर छोटकी गूँगी घबरा गई और उसके चेहरे की हवाई उड़ गई। बकरी को मालूम हो जाए की वह कसाई के हाथों में जा रही है, तो उसकी बोली और हाव-भाव बदल जाते हैं। छोटकी गूँगी के हाव–भाव भी बदल गए। वह अपने हाथों से संकेत करने लगी कि वह जेल से बाहर नहीं जाएगी। उसका दम घुट रहा था बाहर जाने का नाम सुनकर। वह अश्वस्त सी लग रही थी कि जेल के अंदर की दुनिया उतनी क्रूर और निर्दयी नहीं है जितनी बाहर की दुनिया। उसकी आँखों से गिरते धारा प्रवाह आँसू मानो उसे जुबान दे रहे थे।
जब शोर तेज हो गया और बात बढ़ने लगी तथा संतरियों की बात वे दोनों नहीं माने, तो एक संतरी ने जेल अधीक्षक को सूचित कर दिया। अधीक्षक ने दोनों की बातें सुनीं और जेल में उपलब्ध कागज़ाद की छानबीन भी की। वह आश्वस्त हो गया कि छोटकी गूँगी के शोषण के लिए वे दोनों झगड़ रहे हैं। वास्तव में उसने भुन्गा सिंह के यहाँ कभी दाई का कार्य नहीं किया था और न बूटन मंडल की कोई रिश्तेदार ही है। तो क्या उसे जेल से मुक्त नहीं किया जाए ?
दूसरे क्षण उसने सोचा कि कानून, कानून होता है। कानून के हाथ लंबे होते हैं और नाखून... कहीं कोई कोर्ट में केस कर दे कि छोटकी गूँगी को अनाधिकृत रूप से जेल में रखा गया है, तो क्या होगा ! एक तो बंदी दूजे महिला। सूचना मिलने पर मानवाधिकार आयोग उसे बलि का बकरा बना देगा। और समाज के कथिक ठेकेदार उसकी नीयत पर ही शक करने लगेंगे, तो क्या होगा ?
वह पशोपेश में था। वह एक जेल अधीक्षक ही नहीं, आदमी भी है, यह बात उसे बार-बार अंदर से कचोट रही थी। इधर भुन्गा सिंह और बूटन मंडल का जोर बढ़ रहा था कि सर पर कोर्ट के आदेश के मुताबिक कानूनन जो करना चाहिए, वही कीजिए अन्यथा हम लोगों ने भी कोर्ट-कचहरी खूब देखी है। तीसरे छोर पर छोटकी गूँगी थी जो थी तो गूँगी लेकिन आँखें बहुत कुछ कह रही थीं। शायद जिसके पास जीभ नहीं होती उसकी आँखें ही जीभ बन जाती हैं। अचानक अधीक्षक झुँझला उठा, ‘‘यह आप लोगों के साथ नहीं जाएगी।’’
‘‘आखिर क्यों भुन्गा सिंह चिल्लाया, ‘‘यह आप की कौन होती है, किस वास्ते आपको आ रही है इतनी दया ?
‘‘बस, यह नहीं जाएगी।’’
‘‘मैं राँगफुल कनफाइनमेंट का केस कर दूंगा, सर ! कानून मैं भी जानता हूँ।’’
‘‘आप कर सकते हैं।’’ अधीक्षक शांत स्वर में बोला, ‘‘यह रिमांड होम में रहेगी। अपने बल-बूते। आप लोग इसकी चिंता मत कीजिए।’’
अगली सुबह अधीक्षक उठा तो तरो-ताजा था। बिस्तर पर लेटे-लेटे वह चाय पी रहा था। तभी हॉकर अखबार दे गया। अखबार के प्रथम पृष्ट पर मुख्य खबर थी, ‘जेल अधीक्षक के विरुद्ध मानवाधिकार का मामला’ दैनिक अख़बार के सांवाददाता ने छोटकी गूँगी का उसके रिश्तेदार को न सौंपने के पीछे अधीक्षक की बदनीयती की कहानी गढ़ दी थी। उसमें साफ-साफ लिखा था कि अधीक्षक ने इस उद्देश्य से उसे रिमांड होम में भेज दिया था क्योंकि अधीक्षक का मकान उसी रोड पर स्थित है जिस रोड पर रिमांड होम है। संवाददाता ने अपनी और कल्पना कला-कौशल का भरपूर इस्तेमाल करते हुए इसे काफी सनसनीख़ेज खबर बना दी थी।
अधीक्षक ख़बर पढ़ते ही बेचैन हो गया उसने दोबार वह खबर पढ़ी। और फिर ख़बर के एक-एक शब्द को घूरने लगा। तीसरी बार उसे फिर पढ़ा। शायद इस बार वह शब्दों का वजन तौल रहा था। चौथी बार उसने उस अखबार टुकड़े-टुक़ड़े कर रद्दी का टोकरी में डाला। इसके बाद वह बिस्तर पर बैठ गया। फिर उठा। माचिस से तीली निकालकर उसने उन टुकड़ों में आग लगा दी और बिस्तर पर बैठ गया। फिर उठा। उसने राख में पानी डाल दिया। कोई धूम-धड़ाका नहीं हुआ। अख़बारी ख़बर के शब्द राख में तब्दील होकर मुर्दों की तरह पानी में तैर रहे थे।
यह किसी राजा-महाराजा के आगमन के पूर्व की सूचना नहीं थी। दरअसल जेल के महिला वार्ड में जब किसी अधिकारी या कर्मचारी को किसी कार्यवश प्रवेश करना होता, तो बंद दरवाजे के बाहर से ‘होशियार’ शब्द तीन बार कहना पड़ता था। तभी महिला वार्ड के अंदर ड्यूटी पर तैनात जमादारिन यानी महिला वार्डर उस आवाज़ को पहचान कर अंदर से दरवाजा खोल देती है।
कुछ ऐसा हुआ इस बार भी। नया जेल अधीक्षक पहली बार जेल के विभिन्न क्षेत्रों और वार्डों का मुआयना कर रहा था। महिला वार्ड में वह घुसा। घुसते ही महिला बंदियों के बारे में जेल अधीक्षक के मन में तरह-तरह के विचार और घटनाएँ स्मृतिपटल पर आने लगीं। उसे याद आया कि आपातकाल के दौरान उसने अखबारों में पढ़ा था कि जो महिलाएँ जबर्दस्ती बंध्याकरण ऑपरेशन का विरोध की थीं, उन्हें जेलों में ठूँस दिया गया था जिससे वे चुप हो जाएँ। जिनका ऑपरेशन असफल हो गया था अथवा ऑपरेशन के बाद जिनके बारे में जानकारी मिली थी कि वे पूर्व से ही विधवा हैं
या जिनकी उम्र ज़्यादा हो गई थी और वे मेनोपॉज की अवस्था पार कर चुकी थीं, उन्हें भी बेकसूर जेलों में बंद कर दिया था। हो सकता है उनमें से कुछ अभागिन बची हों अभी महिला वार्ड में ऐसा अधीक्षक सोचने लगा। लेकिन नहीं, अपातकाल बीते कई वर्ष गुजर चुके हैं। फिर भी हो सकता है कि किसी महिला को इसलिए ज़मानत न मिली हो क्योंकि उसकी ज़मानत की अर्जी देनेवाला ही कोई नहीं हो। दूसरे क्षण उसने सोचा कि जेल में ऐसी महिलाएँ भी कैद होती रहती हैं जो बड़े-बड़े अपराधी गिरोह की सक्रिय सदस्य होती हैं और येन-केन प्रकारेण निर्दोष लोगों को अपराध-फाँस में फँसाती हैं। उसे याद आने लगीं तमाम मुंबइया फिल्में जिनमें मालकिनें कोठा चलाती हैं या नशीली दवाओं का अवैध व्यापार
करती हैं या विदेशी कीमती समानों की स्मगलिंग में जुटी रहती हैं। इतना ही नहीं कुछ महिलाएँ अपरहण का धंधा भी करती हैं और अंतर्राष्ट्रीय गिरोह से जुड़ी होती हैं। एक फिल्म में तो यहाँ तक दिखाया गया था कि एक जवान खूबसूरत लड़की कैसे किसी महानगर के बड़े-बड़े धन्नासेठों और नेताओं की अप्रत्याशित रूप से हत्या करती रहती है जिससे पूरे महानगर में दहशत पैदा हो जाती है। और आतंकवादी महिलाएँ भी तो होती हैं। आख़िरकार एक महिला ही ने मानव बम के सहारे देश के युवा प्रधानमंत्री की हत्या कर दी थी। पंजाब के उग्रवाद और श्रीलंका के आतंकवाद में महिलाओं की
सक्रिय भागीदारी की बात किससे छुपी है, अधीक्षक सोचने लगा। सोचते-सोचते उसका सिर चकराने लगा। तभी पास खड़े जेलर ने बताया कि नियम के मुताबिक महिला वार्ड में कोई पुरुष अधिकारी या कर्मचारी अकेले नहीं घुस सकता। कम-से-कम दो आदमी होना ज़रूरी है। दूसरी बात उसने बताई कि महिलाएँ बहुत भावुक होती हैं शायद इसलिए बंदियों को रसोई बनाना माना है।
‘‘लेकिन साहब ! यह कैसा विरोधाभास है कि जब समूचे देश में घर-घर औरतें ही चूल्हा-चक्की अच्छी तरह सँभालती हैं, तो जेल में क्यों नहीं सँभाल सकतीं !’’-जेलर कहता जा रहा था-‘बिनु घरनी घर भूत का डेरा’। तीसरी बात उसने यह बताई कि महिलाओं को हर महीने नहाने-धोने के लिए एक-एक बट्टी साबुन और नारियल का तेल दिया जाता है। जेलर जब यह सब बता रहा था, तभी जमादारिन ने जेल अधीक्षक को सलूट मारा और बताया कि सभी महिला बंदी लाइन में खड़ी तैयार हैं।
जेलर एक-एक महिला बंदी का नाम पुकारने लगा और बताने लगा कि वह किस अपराध में जेल आई है। तभी उसने पुकारा, ‘‘छोटकी गूँगी, बड़की गूंगी, काली गूँगी मोटकी गूँगी...’’ अधीक्षक को आश्चर्य हुआ। उसने पूछा, ‘इनके नाम क्या–क्या हैं ?’’
यही नाम है सर जेलर ने बिना किसी झिझक के कहा।
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘जिसके जुबान नहीं होती उसका कोई नाम नहीं होता।’’
अधीक्षक अब भी संतुष्ट नहीं हुआ। उसने इन गूँगी बंदियों का हिस्ट्री टिकट माँगा। हिस्ट्री टिकट में लिखा था-छोटकी गूँगी, पिता का नाम नामालूम, साकिन नामालूम, उम्र करीब बीस वर्ष, ऊँचाई पाँच फीट छः इंच, थाना शिवगढ़ कांड सं. 177/94 धारा तीन सौ उन्नीस भा. द. वि, न्यायालय मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी शिवगढ़। अधीक्षक को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। उसे ये सारे शब्द डरावने लगे। ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी का कोई नाम-पता ही नहीं हो।
आख़िर हर इन्सान किसी-न-किसी की कोख से पैदा होता है और जहाँ वह पैदा होता है, वही उसका घर-बार और गाँव-शहर होता है। वह जेलर पर झल्ला उठा और नाराज़ होकर उसने वारंट मँगवाया। लेकिन उसमें भी वही प्रविष्टि थी। दरअसल वारंट के आधार पर ही हिस्ट्री टिटक बनता है। फिर भी अधीक्षक ने अपनी तसल्ली के लिए वारंट से भी सत्यापित किया। अधीक्षक को इस बेजुबानी-बेनामी पद्धिति पर एतराज़ हुआ और इसलिए उसने जेलर से पूछा, ‘‘मान लो कि कोई नई गूँगी जेल में आ जाए तो उसका क्या नाम होगा ?’’
‘‘पतरकी गूँगी सर।’’
‘‘और ज़्यादा गूँगी बंदी आएँ तो।’’
‘‘तो गूँगी नं, 1, 2. 3. 50. 100....अधीक्षक का दिल अंदर से कचोट उठा। गूँगी का कोई नाम क्यों नहीं ? आखिर किसी व्यक्ति का नाम, परिवार या सामाज ही रखता है, खुद वह व्यक्ति नहीं। गूँगी का वैसे ही नाम नहीं, जैसे गाय-भैंस का कोई नाम नहीं। अर्थात गूँगी भी गाय-भैंस से अधिक नहीं क्या ? उसे अपने गाँव के खेताउ काका की याद जिन्होंने अपनी भैंसों का नाम लच्छमी और करमा रखा था और हमेशा वे नाम लेकर ही पुकारते थे और लक्ष्मी तथा करमा फौरन उनके पास आ जाती थीं लेकिन इस गूँगी की स्थिति उन भैंसों से भी बदतर है। बेजुबान यानी बेनाम यानी एक संख्या। गूँगी की अंतिम नियति सिर्फ़ एक संख्या है ! ऐसा लगा कि अधीक्षक निरीक्षण के बजाय खो गया है कहीं गहरे में। अपने में या समाज में, यह कहना मुश्किल था।
थोड़ी देर बाद अधीक्षक अपने आवास पर चला गया। बारी-बारी से मुलाकाती बंदियों से मिल रहे थे। बाहर तेज धूप थी। काफी प्रतीक्षा के बाद मुलाकात हो रही थी और आशंका थी कि मुलाकात का निर्धारित समय कहीं पूरा न हो जाए। इसी बीच एक मुलाकाती छोटकी गूँगी से भी मिलने आया। उसने अपना आवेदन दिया। थोड़ी देर बाद छोटकी गूँगी मुख्य द्वार पर आई मुलाकात के वास्ते। उसका मुलाकाती भुन्गा सिंह था जो समय-समय पर गरीबों को दान दक्षिणा दिया करता था-खाना-कपड़ा वगैरह। छोटकी गूँगी जेल में आने के पहले रिमांड होम में थी।
उस समय उसकी उम्र अठारह वर्ष से कम होने के कारण उसे पुलिस की रिपोर्ट पर मजिस्ट्रेट ने रिमांड होम में भेज दिया था किंतु मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के कोर्ट में किसी ने उसकी ज़मानत के लिए अर्जी ही पेश नहीं कि लंबे अरसे तक। बाद में रिमांड होम की अधीक्षिका ने एक आवेदन ज़मानत के लिए लिखवाकर कोर्ट में भेज दिया था जिसे किसी वकील द्वारा पैरवी करने पर नामंजूर कर दिया गया था। उसके बाद अठारह वर्ष पूरा होने के कारण उसे रिमांड होम से जेल भेज दिया गया था। तब से वह जेल में है और किसी ने सेशन जज के कोर्ट में उसकी ज़मानत की अर्जी पेश नहीं की थी।
सो अधेड़ दाड़ी-मूँछवाले ‘‘समाजसेवी’ भुन्गा सिंह को देखकर उसे आशा की किरण फूटती-सी दिखाई पड़ी। भुन्गा सिंह ने उसे कुछ फल-फलूट दिया। साथ में खाने का एक डिब्बा भी। भुन्गा उसे इशारे से कुछ समझा रहा था लेकिन वह कितना समझ रही थी यह कहना मुश्किल है।
भुन्गा सिंह के जाने के कुछ ही क्षणों में अधीक्षक ने अंदर प्रवेश किया। छोटकी गूँगी के हाथों में खाने का डिब्बा और फल-फलूट देखकर अधीक्षक को कुछ खुशी हुई। वह सोचने लगा की छोटकी गूँगी किसी अच्छे खानदान की लड़की है लेकिन चोरी के इल्जाम में कैसे फँस गई ? हो सकता है किसी गोतिया ने उसे फँसा दिया हो।
दूसरे दिन कोर्ट के आदेश से टी.आई. परेट आयोजित किया गया जिसमें केस करनेवाले के द्वारा छोटकी गूँगी की पहचान की जाने थी। कुल पन्द्रह महिलाओं को तैयार किया गया टी.आई. परेट के लिए। सभी को एक तरह की साड़ियाँ पहनाई गईं। माथे पर बिंदी लगा दी गई। बालों में तेल-कंघी। सभी महिला बंदी सजी-सँवरी थीं और उन्हें आईने की तलब थी जैसे खैनी खानेवाले को खैनी की। महिला वार्ड में आईना नहीं था। महिला को आईना भी मयस्कर नहीं।
जेलर ने अधीक्षक को बता दिया था जेल मैनुअल में फँला नियम के मुताबिक वार्ड के अंदर आईना देना मना है। सो अंततः बिसूरकर वे अपना-अपना चेहरा घड़े में रखे पानी में देख-देखकर मुस्कराने लगीं। फिर जमादारिन की देख-रेख में एक कतार में खड़ी हो गईं ! मजिस्ट्रेट ने पहचान कर्ता को बुलाया। वह बारी-बारी से सभी महिला बंदियों की तरफ नज़रें दौड़ता गया। तीन बार मौका दिए जाने के बावजूद वह नहीं पहचान सका। लेकिन छोटकी गूँगी उसे पहचान गई। क्यों न पहचाने ? यह तो वही था जो उसे कल खाना और फल-फलूट दे गया था। यानी भुन्गा सिंह। शायद न पहचानने के लिए ही वह एक दिन पहले कुछ लोगों की मिली भगत से छोटकी गूँगी से मुलाकात करने जेल में आया था।
कोई षड्यंत्र था क्या ? लेकिन मजिस्ट्रेट ने रिपोर्ट लिख दी कि पहचानकर्ता भुन्गा सिंह अभुयुक्त को नहीं पहचान सका टी. आई. परेट में। छोटकी गूँगी की समझ में टी आई. परेट की बात बिलकुल नहीं आई। लेकिन जब उसे बताया गया कि उसे न पहचानने के कारण उसे कोर्ट से ज़मानत और फिर जेल से छुट्टी मिल जायेगी तो वह बहुत खुश हुई। उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसे अपनी माँ की याद आई। वही माँ जो उसे सात वर्ष की अकेली छोड़कर चल बसी थी। बाप के चेहरे की याद भी नहीं है उसे क्योंकि वह माँ के पहले ही गुजर चुका था। दूसरे दिन ज़मानत की तारीख थी।
थाना प्रभारी शिवगढ़ खुद गया था लोक अभियोजक से मिलने के लिए। उसने बताया था कि केस में दम नहीं है। पी.पी पूछ बैठा कि जब केस में दम नहीं है, तो छोटकी गूँगी को क्यों फँसाया गया ? थाना प्रवाही ने किसी दबाव की चर्चा की थी। उक्त दबाव की बात सुनकर पी.पी. का चेहरा बदल गया। उसके माथे की सिकुड़न शायद संकेत कर रही थी सवालिया लहजे में कि आखिर कब तक किसी के दबाव में गरीब लोग उजड़ते रहेंगे, दबाव में कितने भले इन्सान अपराधी बना दिए जाएँगे और कितने असली अपराधी बेनकाब नहीं होंगे।
लेकिन क्षण में उसकी आँखें लाल-पीली होकर भी स्याह हो गईं, उसकी भौंहें, तनकर भी नीचे हो गईं उसका सीना फूलकर भी सिकुड़ गया। क्या पी.पी. को भी दबाव महसूस हुआ। दबाव नहीं डर समा गया उसके अंदर जैसे ही उसे याद आया पिछले सी.जे.एम.का चेहरा जो ज़मानत देने पर बहुत उदास था और झूठे मामलों में उत्तरदायित्व निर्धारित करने हेतु कई थाना प्रभारियों के विरुद्ध एम.पी. को लिख चुका था लेकिन अंततः एक दिन एक दबंग दारोगा ने उसके घर में चोरी करवा दी थी और तब से उस मजिस्ट्रेट का रूख ही बदल गया था.....
खैर.....मजिस्ट्रेट की टी. आई. परेट रिपोर्ट देखने और बचाव पक्ष एवं पी.पी. को सुनने के बाद सी. एम. ने छोटकी गूँगी को कांड सं. 177/94 में बाइज़्ज़त डिस्चार्ज कर दिया। इजलाम खत्म होने के बाद भुन्गा सिंह पेशकार के पास गया और उसे जड़ी-बूटी सुँघाकर छोटकी गूँगी की ज़मानत की नकल ले ली। उसे कोई बड़ी अमानत मिल गई है।
वह मोटरसाइकिल से तेज रफ्तार से चलता हुआ-ट्राफिक नियमों की धज्जियाँ उड़ाता हुआ-जेल पहुँचा। करीब पौने छः बज चुके थे। सूरज डूबने ही वाला था। सूरज डूबने के बाद कोई बंदी जेल के गेट से बाहह नहीं निकल सकता क्योंकि तब तक ‘नंबरबंदी’ यानी बंदियों की गणना करके वार्ड में ताला लगाना हो चुकी होती है और विभिन्न रजिस्टरों में आनेवाले और निकलनेवाले बंदियों की संख्या की प्रविष्ट कर दी जाती है। सो जेल के गेट पर तैनात वार्डन ने कह दिया कि अब बहुत देर हो गयी है, कल आइए। भुन्गा सिंह इस न नुकुर की भाषा समझ गया और धीरे से अपनी दाहिनी मुट्ठी उसकी हथेली पर खोल दी। वार्डन का चेहरा खिल गया जैसे कीच़ड़ में कमल।
थोड़ी देर के बाद में छोटकी गूँगी को महिला वार्ड से मुख्य द्वार पर लाया गया। छोटकी गूँगी बहुत खुश हो रही थी कि उसे लंबे अरसे के बाद आज मुक्ति मिल रही है लेकिन कुछ उदासी भी थी कि तीस बंदी बहनों का साथ आज छूट रहा है जिसके बीच वह काफी लोकप्रिय रहती थी और वह किसी भी बंदी बहन का बारे-गाढ़े काम भी कर देती थी। आख़िर बचपन से ही उसे दूसरे घरों में बर्तन माँजने-धोने और घरेलू काम करने का पुराना अनुभव रहा है।
वह गेट से बाहर निकलनेवाली थी। मुख्य गेट खुलनेवाला था। मुख्य गेट पर दो संतरी तैनात थे रायफल के साथ। तभी दो व्यक्ति आपस में झगड़ने लगे-भुन्गा सिंह और बूटन मंडल। झगड़े का मुद्दा था कि कौन गूँगी को अपने साथ ले जाएगा। दोनों का दावा था उस पर गोया वह कोई वस्तु मात्र हो। भुन्गा सिंह कह रहा था कि वह उसके यहाँ दाई का काम करती रही है कई वर्षों से और उसने ही ज़मानत कराई। थाना-पुलिस, कोर्ट-कचहरी, जेल आदि में उसने काफी कुछ ख़र्च किया है। दूसरी तरफ बूटन मंडल का कहना था कि छोटकी गूँगी उसकी दूर की रिश्तेदार है
और उसके माँ-बाप मर गए हैं और उसी ने उसको पाला-पोसा था। इस पर जब भुन्गा सिंह पूछता कि बूटन ने उसकी ज़मानत क्यों नहीं कराई, तो वह उबल पड़ता। इस प्रकार दोनों में तू-तू मैं-मैं हो रही रही थी। ऊँची आवाज़ सुनकर छोटकी गूँगी घबरा गई और उसके चेहरे की हवाई उड़ गई। बकरी को मालूम हो जाए की वह कसाई के हाथों में जा रही है, तो उसकी बोली और हाव-भाव बदल जाते हैं। छोटकी गूँगी के हाव–भाव भी बदल गए। वह अपने हाथों से संकेत करने लगी कि वह जेल से बाहर नहीं जाएगी। उसका दम घुट रहा था बाहर जाने का नाम सुनकर। वह अश्वस्त सी लग रही थी कि जेल के अंदर की दुनिया उतनी क्रूर और निर्दयी नहीं है जितनी बाहर की दुनिया। उसकी आँखों से गिरते धारा प्रवाह आँसू मानो उसे जुबान दे रहे थे।
जब शोर तेज हो गया और बात बढ़ने लगी तथा संतरियों की बात वे दोनों नहीं माने, तो एक संतरी ने जेल अधीक्षक को सूचित कर दिया। अधीक्षक ने दोनों की बातें सुनीं और जेल में उपलब्ध कागज़ाद की छानबीन भी की। वह आश्वस्त हो गया कि छोटकी गूँगी के शोषण के लिए वे दोनों झगड़ रहे हैं। वास्तव में उसने भुन्गा सिंह के यहाँ कभी दाई का कार्य नहीं किया था और न बूटन मंडल की कोई रिश्तेदार ही है। तो क्या उसे जेल से मुक्त नहीं किया जाए ?
दूसरे क्षण उसने सोचा कि कानून, कानून होता है। कानून के हाथ लंबे होते हैं और नाखून... कहीं कोई कोर्ट में केस कर दे कि छोटकी गूँगी को अनाधिकृत रूप से जेल में रखा गया है, तो क्या होगा ! एक तो बंदी दूजे महिला। सूचना मिलने पर मानवाधिकार आयोग उसे बलि का बकरा बना देगा। और समाज के कथिक ठेकेदार उसकी नीयत पर ही शक करने लगेंगे, तो क्या होगा ?
वह पशोपेश में था। वह एक जेल अधीक्षक ही नहीं, आदमी भी है, यह बात उसे बार-बार अंदर से कचोट रही थी। इधर भुन्गा सिंह और बूटन मंडल का जोर बढ़ रहा था कि सर पर कोर्ट के आदेश के मुताबिक कानूनन जो करना चाहिए, वही कीजिए अन्यथा हम लोगों ने भी कोर्ट-कचहरी खूब देखी है। तीसरे छोर पर छोटकी गूँगी थी जो थी तो गूँगी लेकिन आँखें बहुत कुछ कह रही थीं। शायद जिसके पास जीभ नहीं होती उसकी आँखें ही जीभ बन जाती हैं। अचानक अधीक्षक झुँझला उठा, ‘‘यह आप लोगों के साथ नहीं जाएगी।’’
‘‘आखिर क्यों भुन्गा सिंह चिल्लाया, ‘‘यह आप की कौन होती है, किस वास्ते आपको आ रही है इतनी दया ?
‘‘बस, यह नहीं जाएगी।’’
‘‘मैं राँगफुल कनफाइनमेंट का केस कर दूंगा, सर ! कानून मैं भी जानता हूँ।’’
‘‘आप कर सकते हैं।’’ अधीक्षक शांत स्वर में बोला, ‘‘यह रिमांड होम में रहेगी। अपने बल-बूते। आप लोग इसकी चिंता मत कीजिए।’’
अगली सुबह अधीक्षक उठा तो तरो-ताजा था। बिस्तर पर लेटे-लेटे वह चाय पी रहा था। तभी हॉकर अखबार दे गया। अखबार के प्रथम पृष्ट पर मुख्य खबर थी, ‘जेल अधीक्षक के विरुद्ध मानवाधिकार का मामला’ दैनिक अख़बार के सांवाददाता ने छोटकी गूँगी का उसके रिश्तेदार को न सौंपने के पीछे अधीक्षक की बदनीयती की कहानी गढ़ दी थी। उसमें साफ-साफ लिखा था कि अधीक्षक ने इस उद्देश्य से उसे रिमांड होम में भेज दिया था क्योंकि अधीक्षक का मकान उसी रोड पर स्थित है जिस रोड पर रिमांड होम है। संवाददाता ने अपनी और कल्पना कला-कौशल का भरपूर इस्तेमाल करते हुए इसे काफी सनसनीख़ेज खबर बना दी थी।
अधीक्षक ख़बर पढ़ते ही बेचैन हो गया उसने दोबार वह खबर पढ़ी। और फिर ख़बर के एक-एक शब्द को घूरने लगा। तीसरी बार उसे फिर पढ़ा। शायद इस बार वह शब्दों का वजन तौल रहा था। चौथी बार उसने उस अखबार टुकड़े-टुक़ड़े कर रद्दी का टोकरी में डाला। इसके बाद वह बिस्तर पर बैठ गया। फिर उठा। माचिस से तीली निकालकर उसने उन टुकड़ों में आग लगा दी और बिस्तर पर बैठ गया। फिर उठा। उसने राख में पानी डाल दिया। कोई धूम-धड़ाका नहीं हुआ। अख़बारी ख़बर के शब्द राख में तब्दील होकर मुर्दों की तरह पानी में तैर रहे थे।
स्वप्न-भंग
मुलेमा धीरे-धीरे सयानी हो गई। उसके गाँव में उसकी हमजोलियों की शादी
दो-तीन साल पहले ही हो गई थी। मुलेमा का बाप करधन तीन-चार साल से बरदेखी
कर रहा है लेकिन कोई वर नहीं मिल रहा है। जहाँ भी वह जाता है, दहेज की ही
बात पहले होती है। और करधन के लिए दहेज दे पाना सुई की पूँछ से हाथी
निकालने की तरह है। आख़िर तीन-तीन बेटियों की शादी करने में उसकी कमर
पहले ही झुक गई थी। इस चौथी बेटी की शादी में कमर टूटने की कसर
बाकी
है। गाँव की महिलाएँ भीतर-बाहर मुलेमा की चर्चा करतीं कि देखने-सुनने में
कितनी सुन्दर है लेकिन उसका नखत ही खराब है। अब तक ब्याही होती तो
‘लरकोर’ हो गई होती। उसकी सखी मनतोरा के अब तक तीन
बच्चे हो
चुके है। यानी सारे गाँव की औरतें मुलेमा का हाथ पीला होते देखना चाहती
थीं कुछ दिल से चाहती थी कुछ ऊबकर।
इस बार करधन ने दशहरे से बरदेखी करना शुरू कर दिया। साथ में एक-दो रिश्तेदार भी ले लेते। जहाँ जाते, वहां पन-पियाब के बाद कुल-गोत्र खानदान की बातें होतीं और दोनों पक्ष उसी परिचय के दौरान दो-चार किस्से सुनाने लगते जिसमें उनके खानदान की बड़ाई होती। लेकिन बात लेन-देन पर आकर अटक जाती। एक ने तो बड़े चाव से कहा, ‘‘भाई बिना तेल के गाड़ी थोड़े ही चलती है ?’’ ‘‘आदमी टट्टी करके आगे बढ़ता है पीछे नहीं खिसकता।’’
‘‘जितना दहेज उसके घर में पहले मिल चुका है उससे अधिक अब मिलना चाहिए।’’ ‘‘लेकिन भाई, पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं।’’ करधन ने कहा।’’ ठीक कह रहे हैं, लेकिन कनगुरी पाँसा फेंका, ‘‘भई, जाति-बिरादरी भी तो निरहू-घुरहू भी हैं। उनके दरवाजे क्यों नहीं जाते ? और हाँ, जब सब कुछ माया है तो करधन संयास क्यों नहीं ले लेते ? फिर बिटिया की शादी और बेटवा की पढ़ाई का झंझट ही खतम हो जाएगा।’’ वर पक्ष की ओर से एक जवान ने जिरह के लहज़े में तीखा जवाब दिया।
करधन के मुँह पर तमाचा-सा लगा। मानो मैले पर ढेला से छींटा उन्हीं पर पड़ा हो। रिश्तेदार की हवा खिसक गई दोनों किंकर्तव्यविमूढ हो गए और थोड़ी देर बाद सिर झुकाए वहाँ से रवाना हो गए।
रास्तें में दोनों काफ़ी परेशान थे। रिश्तेदार को यह बात अंदर तक साल रही उन्हें लगा कि जब तक शादी की बात पक्की नहीं हो जाती, बिरादरी और समाज में मुँह दिखाना इज़्ज़त के खिलाफ होगा। सोचते-बिसूरते उन्होंने कहा, ‘‘करधन ! एक जुगुति है।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘जंजालपुर में एक लड़का है-’’
लड़के तो हर जगह हैं बात बने तब न ?’’
‘‘नहीं, ऐसा है कि उस लड़के की शादी पिछले साल हुई थी लेकिन लड़की के चाल-चलन की शिकायत होने के कारण लड़के ने उसे छोड़ दिया-’’
‘‘तो आप ‘दुआह’ से मेरी बेटी की शादी करना चाहते हैं ? मुलेमा की माँ इसे हरगिज नहीं मानेगी।’’ करधन ने हाथ मलते हुए कहा।
‘‘देखा करधन, मैं भी नहीं चाहता था कि मुलेमा की शादी दुआह से हो। लेकिन अभी घमंडीपुर में तमाशा देखे कि नहीं ? ऊ ससुरा अपने बेटवा को तराजू पर बैठाकर सिक्के से तौल रहा है। अब तो तीन साल हो गया, अब कहीं से आशा की किरण दिखाई नहीं दे रही है। दुआह तो वह नाम मात्र का है। अभी उसकी उम्र मुश्किल से पच्चीस की होगी और सुलेमा की भी उम्र तो पच्चीस के करीब ही होगी ही।’’
करधन ने कोई उत्तर नहीं दिया। किंतु उसके अंदर यह बात बार-बार मथने लगी कि जाति-बिरादरी बाद में, सबसे पहले लेन-देन की बात होती है। उसके अंदर एक ऊहापोह की स्थिति पैदा हो गई। एक तरफ वह इसे स्वीकारने को तैयार होते दो दूसरी तरफ मुलेमा और उसकी माँ का चेहरा सामने आ जाता। वह सोचते कि उसके नाते-रिश्तेदार ऐसी शादी पर जाने कैसी प्रतिक्रिया करेंगे। फिर पहली ब्याही औरत तंग होकर कहीं भाग तो नहीं गई ?
उसने आत्महत्या तो नहीं कर ली ? कहीं दहेज के दानवों ने उस पर अत्याचार तो नहीं किया था ? कहीं सास-ननद ने उसे ‘डाहा’ तो नहीं था ? कहीं उसके जेठ-ससुर की बुरी निगाह तो उस पर नहीं पड़ी थी ? इस तरह विचार उसके दिमाग में मंथन करने लगे। जब आदमी थकने लगता है तो उसके दिमाग में नाकारात्मक विचार घर कर लेते हैं।
किंतु करधन के रिश्तेदार अड़े थे कि इस बार कोई-न-कोई रिश्ता तय करके ही वापस लौटेंगे। उन्हें मानहानि के शब्द भीतर से बेध चुके थे और जहर लगे तीर से हुए घाव टीस रहे थे। करधन और उसके रिश्तेदार बड़े आदमी नहीं थे किंतु उनकी आबरू में कभी बट्टा नहीं लगा था। और करधन स्वाभिमानी था। जो आदमी गरीब होता है अंदर से उतना ही स्वाभिमानी होता है, भले उसे स्वाभिमान की चिता पर ही जलना पड़े।
जंजालपुर गांव करधन के लौटने के रास्तें में ही रहता था। यह बात दोनों ने तय कर ली थी कि एक बार चलकर घर-वर देखने में कोई नुकसान नहीं होगा। आखिर शादी करना-न करना अपने हाथ में नहीं होता। जहाँ जिसकी ‘भावी’ होती है, वह बरबस खींच लाती है। लिखनी कोई नहीं टाल सकता। सो दोनों जंजालपुर के लिए रवाना हो गए।
इस बार करधन ने दशहरे से बरदेखी करना शुरू कर दिया। साथ में एक-दो रिश्तेदार भी ले लेते। जहाँ जाते, वहां पन-पियाब के बाद कुल-गोत्र खानदान की बातें होतीं और दोनों पक्ष उसी परिचय के दौरान दो-चार किस्से सुनाने लगते जिसमें उनके खानदान की बड़ाई होती। लेकिन बात लेन-देन पर आकर अटक जाती। एक ने तो बड़े चाव से कहा, ‘‘भाई बिना तेल के गाड़ी थोड़े ही चलती है ?’’ ‘‘आदमी टट्टी करके आगे बढ़ता है पीछे नहीं खिसकता।’’
‘‘जितना दहेज उसके घर में पहले मिल चुका है उससे अधिक अब मिलना चाहिए।’’ ‘‘लेकिन भाई, पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं।’’ करधन ने कहा।’’ ठीक कह रहे हैं, लेकिन कनगुरी पाँसा फेंका, ‘‘भई, जाति-बिरादरी भी तो निरहू-घुरहू भी हैं। उनके दरवाजे क्यों नहीं जाते ? और हाँ, जब सब कुछ माया है तो करधन संयास क्यों नहीं ले लेते ? फिर बिटिया की शादी और बेटवा की पढ़ाई का झंझट ही खतम हो जाएगा।’’ वर पक्ष की ओर से एक जवान ने जिरह के लहज़े में तीखा जवाब दिया।
करधन के मुँह पर तमाचा-सा लगा। मानो मैले पर ढेला से छींटा उन्हीं पर पड़ा हो। रिश्तेदार की हवा खिसक गई दोनों किंकर्तव्यविमूढ हो गए और थोड़ी देर बाद सिर झुकाए वहाँ से रवाना हो गए।
रास्तें में दोनों काफ़ी परेशान थे। रिश्तेदार को यह बात अंदर तक साल रही उन्हें लगा कि जब तक शादी की बात पक्की नहीं हो जाती, बिरादरी और समाज में मुँह दिखाना इज़्ज़त के खिलाफ होगा। सोचते-बिसूरते उन्होंने कहा, ‘‘करधन ! एक जुगुति है।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘जंजालपुर में एक लड़का है-’’
लड़के तो हर जगह हैं बात बने तब न ?’’
‘‘नहीं, ऐसा है कि उस लड़के की शादी पिछले साल हुई थी लेकिन लड़की के चाल-चलन की शिकायत होने के कारण लड़के ने उसे छोड़ दिया-’’
‘‘तो आप ‘दुआह’ से मेरी बेटी की शादी करना चाहते हैं ? मुलेमा की माँ इसे हरगिज नहीं मानेगी।’’ करधन ने हाथ मलते हुए कहा।
‘‘देखा करधन, मैं भी नहीं चाहता था कि मुलेमा की शादी दुआह से हो। लेकिन अभी घमंडीपुर में तमाशा देखे कि नहीं ? ऊ ससुरा अपने बेटवा को तराजू पर बैठाकर सिक्के से तौल रहा है। अब तो तीन साल हो गया, अब कहीं से आशा की किरण दिखाई नहीं दे रही है। दुआह तो वह नाम मात्र का है। अभी उसकी उम्र मुश्किल से पच्चीस की होगी और सुलेमा की भी उम्र तो पच्चीस के करीब ही होगी ही।’’
करधन ने कोई उत्तर नहीं दिया। किंतु उसके अंदर यह बात बार-बार मथने लगी कि जाति-बिरादरी बाद में, सबसे पहले लेन-देन की बात होती है। उसके अंदर एक ऊहापोह की स्थिति पैदा हो गई। एक तरफ वह इसे स्वीकारने को तैयार होते दो दूसरी तरफ मुलेमा और उसकी माँ का चेहरा सामने आ जाता। वह सोचते कि उसके नाते-रिश्तेदार ऐसी शादी पर जाने कैसी प्रतिक्रिया करेंगे। फिर पहली ब्याही औरत तंग होकर कहीं भाग तो नहीं गई ?
उसने आत्महत्या तो नहीं कर ली ? कहीं दहेज के दानवों ने उस पर अत्याचार तो नहीं किया था ? कहीं सास-ननद ने उसे ‘डाहा’ तो नहीं था ? कहीं उसके जेठ-ससुर की बुरी निगाह तो उस पर नहीं पड़ी थी ? इस तरह विचार उसके दिमाग में मंथन करने लगे। जब आदमी थकने लगता है तो उसके दिमाग में नाकारात्मक विचार घर कर लेते हैं।
किंतु करधन के रिश्तेदार अड़े थे कि इस बार कोई-न-कोई रिश्ता तय करके ही वापस लौटेंगे। उन्हें मानहानि के शब्द भीतर से बेध चुके थे और जहर लगे तीर से हुए घाव टीस रहे थे। करधन और उसके रिश्तेदार बड़े आदमी नहीं थे किंतु उनकी आबरू में कभी बट्टा नहीं लगा था। और करधन स्वाभिमानी था। जो आदमी गरीब होता है अंदर से उतना ही स्वाभिमानी होता है, भले उसे स्वाभिमान की चिता पर ही जलना पड़े।
जंजालपुर गांव करधन के लौटने के रास्तें में ही रहता था। यह बात दोनों ने तय कर ली थी कि एक बार चलकर घर-वर देखने में कोई नुकसान नहीं होगा। आखिर शादी करना-न करना अपने हाथ में नहीं होता। जहाँ जिसकी ‘भावी’ होती है, वह बरबस खींच लाती है। लिखनी कोई नहीं टाल सकता। सो दोनों जंजालपुर के लिए रवाना हो गए।
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