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तीन निगाहों की एक तस्वीर

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2758
आईएसबीएन :81-7119-708-6

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इस संग्रह की सभी कहानियाँ जीवन के विभिन्न सन्दर्भो को खास रचनात्मक आलोचना-दृष्टि से देखते हुए पाठक को सोचने और अपने वातावरण के एक नई, ताजा निगाह से देखने को प्रेरित करती हैं।

Teen Nigahon Ki Ek Tasvir - A Book of Stories by Mannu Bhandhari - Other Books by same author Aapka Bunti, Mahabhoj

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आपका बंटी और महाभोज जैसे कालजयी उपन्यासों की रचयिता मन्नू भंडारी की कहानियाँ अपने मन्तव्य की स्पष्टता, साफगोई और भाषागत सहजता के लिए खासतौर पर उल्लेखनीय रही हैं। उनकी कहानियों में जीवन की बड़ी दिखने वाली जटिल और गझिन समस्याओं की गहराई में जाकर, उनके तमाम सूत्रों को समझते हुए एक सरल, सुग्राह्म और पठनीय रचना को आकार दिया जाता है।
इस संग्रह में शीर्षक-कहानी के शामिल तीन निगाहों की एक तस्वीर, अकेली, अनथाही गहराइयाँ, खोटे सिक्के, घर और चश्में आदि सभी कहानियाँ जीवन के विभिन्न सन्दर्भो को खास रचनात्मक आलोचना-दृष्टि से देखते हुए पाठक को सोचने और अपने वातावरण के एक नई, ताजा निगाह से देखने को प्रेरित करती हैं।

नैना


सहमे-से हाथ से मैंने दरवाज़े की कुंडी खटखटाई। एक बार भयभीत सी नज़र आस-पास के घरों पर डाली। गली में उस समय अन्धकार के साथ साथ नीरवता भी छाई हुई थी। सामने के घर की खिड़की पर गोदी में बच्चा लिए एक औरत खड़ी थी। वेश-भूषा से वह एकदम गृहस्थिन लग रही थी।...नहीं-नहीं, यह मोहल्ला ऐसा वैसा नहीं हो सकता। कुछ अधिक विश्वास के साथ एक बार ज़ोर से फिर मैंने कुंडी खटखटाई। गली के लैम्प-पोस्ट का धीमा प्रकाश मकान के 23/8 नम्बर पर सीधा पड़ रहा था। मकान तो यही है, पता नहीं, अन्दर क्या देखने को मिले ? यही सोच रही थी कि दरवाज़ा खुला और एक बुढ़िया को सामने खड़ा पाया। उसके पान खाए होंठों ने मन को यों आक्रान्त कर दिया कि मैं कुछ पूछना भूल अवाक्-सी उसका मुँह ही देखती रह गई। दीवारों पर भी पान की पीक के दाग़ नज़र आए। तो क्या माँ ठीक ही कह रही थीं ? ‘‘किसको चाहती हो ?’’ तभी कानों से यह प्रश्न टकराया। मेरे होश लौटे, ‘‘दर्शना देवी यहीं रहती हैं ?-मैं कानपुर से आई हूँ।’’ मैंने हकलाते हुए कहा।

‘‘नैना हो क्या ? आओ-आओ, ऊपर आओ ! बीबीजी तो बस कल से तुम्हारा ही नाम रट रही हैं, उनके प्राण शायद तुममें ही अटके हैं ! तुम आ गईं, बहुत अच्छा किया !’’
वह और भी जाने क्या क्या बोले चली जा रही थी, पर मैं बिना कुछ सुने यन्त्रवत् उसके पीछे खिंची चली जा रही थी। मेरे कान ऊपर की आहट लेने को सतर्क थे और नज़र इधर-उधर कुछ ढूँढ़ रही थी, पर न मुझे कुछ सुनाई दे रहा था न दिखाई। मुझे पूरी तरह इस बात का भी होश नहीं कि कब मैं छोटे-से कमरे में एक मृतप्रायः रोगिणी की शय्या के समीप जा खड़ी हुई।
बुढ़िया ने कहा-‘‘बीबीजी, नैना आ गई है ! ’’
और जब पलंग पर लेटी उस कृशकाय नारी की निस्तेज आँखें मेरे शरीर पर ऊपर से नीचे घूमने लगीं, तो मेरा रोम रोम काँप उठा।

तो ये हैं मेरी दर्शना मासी ! और तभी मेरी आँखों के सामने आज से कोई सात साल पहले मेरे घर के ड्राइंग-रूम में लटकी, मासी की वह तस्वीर घूम गई, जिसमें मासी नवविवाहिता वधू के रूप में शरमाई-सी मासाजी से सटकर बैठी थीं। पर उस रूप में और इस रूप में तो कोई साम्य नहीं है। यह कैसे हालत हो गई मासी की ?
जाऊँ, उनके पास जाकर बैठूँ, यह सोचकर जैसे ही कदम बढ़ाया कि मासी का क्षीण स्वर सुनाई दिया। शून्य आँखों से देखते हुए वह बोलीं-‘‘मैं जानती थी, जीजी कभी नैना को मेरे पास नहीं भेजेंगी। भेज देतीं तो एक बार उसे प्यार करके मन की निकाल लेती। नैना की जगह यह न जाने किसे भेज दिया है ! अन्त समय में मुझे यों न छालतीं तो उनका क्या बिगड़ जाता ?’’

उनकी आँखों से आँसू टपक पड़े और उन्होंने करवट लेकर मेरी ओर पीठ कर ली। मैं जड़वत् जहाँ-की-तहाँ खड़ी रह गई।
बुढ़िया ने मुझे समझाया-‘‘अभी होश में नहीं हैं, तुम उधर चलकर खाओ-पीओ। सवेरे होश आने पर पहचान लेंगी। कल से तुम्हारा ही नाम रट रही थीं।’’
पर मेरे पाँव तो जैसे वहीं जम गए थे। बार बार एक ही बात दिमाग में गूँज रही थी, क्या सबने इन्हें छला ही है ? मैंने एक बार कमरे में चारों ओर नज़र डाली। कमरे के धीमे प्रकाश में वहाँ की उदासी और भी बढ़ गई थी। कमरे की अस्त-व्यस्त चीज़ों की आड़ी-टेढ़ी बेडौल छायाएँ दीवार पर पड़ रही थीं, देखकर ही मन भय से भर उठा। उस समय मासी की हालत पर तरस कम और सबको नाराज़ करके यहाँ चले आने की अपनी ज़िद पर पश्चात्ताप अधिक हो रहा था।

बुढ़िया मुझे दूसरे कमरे में छोड़कर चली गई। जाने कितने-कितने प्रश्न आँधी की तरह मेरे मन में उमड़-घुमड़ रहे थे। माँ की बातें, मासी की हालत, घर का वातावरण सब मेरे सामने एक अनबूझ पहेली की तरह खड़े थे। मैंने अपनी सतर्क नज़रों से इधर-उधर देखना शुरू किया। एकाएक ही कोने में रखे सितार, तानपूरे और तबले में मेरी दृष्टि उलझ गई। ये चीजें कभी देखी न हों, सो बात नहीं, पर यहाँ देखकर मेरे रोएँ खड़े हो गए। जबर्दस्ती दबाई हुई मन की आशंका पूरे वेग से उभर आई। देखते-ही-देखते कमरे के कोने में रखे वे वाद्य-यन्त्र झनझना उठे, तबला ठनकने लगा, घुँघरू झनकने लगे और कहकहों की गूँज से कमरा भर गया। मुझे लगा, मेरा सिर चकरा जाएगा। इस सबके बीच माँ की क्रोध-भरी मूर्ति दिखाई देने लगी, ‘देख नैना ! उस छिन्नाल के घर तू मत जा ! वह मर रही है तो मरने दे। मैंने तो सात साल पहले ही उसे मरा समझ लिया था। ज़िद करके तू वहाँ चली गई तो समझ लेना, माँ तेरे लिए मर गई।’’

मैं पसीने से तर बतर हो गई मैंने अपने को ही समझाते हुए कहा, नहीं नहीं मेरी दर्शना मासी ऐसी नहीं हो सकतीं। यह सब गलत है। और मैंने उस अदृश्य नाचती नारी के स्थान पर मासी की वही छवि ला बिठाई, जिसमें वह नवविवाहिता वधू बनकर बैठी थीं।
‘‘नैना बेटी, कुछ खा लो ?’’ बुढ़िया थाली लिए मेरे सामने खड़ी थी।
‘‘यहाँ अब कोई आएगा तो नहीं ? रात में क्या यहाँ बहुत लोग आते जाते हैं ?’’ एक साँस में ही मैं पूछ बैठी।
‘‘रात दिन क्या, यहाँ तो कभी कोई नहीं आता। जब बीबीजी की तबीयत ज़्यादा खराब होती है, तो मैं ही वैद्यजी को बुला लाती हूँ।’’

मैंने निश्चिन्तता की एक लम्बी साँस ली। इच्छा हुई, इस बुढ़िया से ही सब कुछ पूछ डालूँ, सबकुछ जान लूँ, पर भय के मारे जाने कैसी जड़ता मन में व्याप गई थी कि मैं कुछ पूछ ही नहीं पाई। खाया मुझसे कुछ नहीं गया, चुपचाप लेट गई।
अजनबी घर में अजनबी लोगों के बीच पड़े-पड़े जाने कैसा लग रहा था। सोचा, मैं क्यों चली आई ? घर में सबसे लड़कर, सबको नाराज़ करके यहाँ आने की अपनी ज़िद को जैसे मैं स्वयं ही नहीं समझ पा रही थी। मासी, जिन्हें मैंने अपनी ज़िन्दगी में पहली और आखिरी बार चार वर्ष की उम्र में देखा था और जिनकी मुझे लेशमात्र भी याद नहीं थी, उनका प्रेम मुझे यहाँ खींच लाया, यह बात मन में किसी प्रकार भी टिक नहीं पा रही थी। तब ? शायद यह महज कौतूहल था, जो मुझे यहाँ खींच लाया था।
जब से होश सँभाला, अपनी इस मासी के रूप-गुण का बहुत बखान

सुनती आ रही थी मैं। अपने जन्म-दिन पर उपहार पाकर मेरे मन में यह धारणा बहुत दृढ़ हो गई थी कि वह मुझे बहुत प्यार करती हैं। माँ भी बराबर यह कहा करती थीं कि नैना ने दर्शना का मन मोह रखा है। जब मैं छः वर्ष की हुई, तो मासी का विवाह हुआ। पर माँ बताती है कि मैं ऐसी बीमार पड़ी कि कोई भी उनके विवाह में सम्मिलित नहीं हो सका। उसके बाद मासी के विषय में बातें तो मैं बहुत सुनती, पर न माँ मुझे कभी वहाँ भेजती, न मासी को ही कभी बुलातीं। जब बात समझने की अक्ल आई, तो जाना, मासा जी को ऐसा रोग है कि माँ मुझे वहाँ भेज ही नहीं सकती, और मासी, मासाजी को बीमार ही हालत में छोड़कर आ नहीं सकतीं और धीरे धीरे यह रोग भी जैसे जीवन के दैनिक कार्यक्रम की तरह बन गया जिसे हमने मासी का दुर्भाग्य समझकर उस पर सोचना भी छोड़ दिया।

आज से क़रीब सात साल पहले का वह दिन मुझे अच्छी तरह याद है, जब मासाजी का एक पत्र पाकर घर में एक अजीब-सी दहशत छा गई थी। माँ बहुत रोई थी, पिताजी के समझाने पर उसने कहा-था-इससे तो दर्शाना मर जाती तो अच्छा था ! कुल को कलंक तो नहीं लगता।
इसके बाद क़रीब पन्द्रह दिनों तक कभी मामाजी का पत्र आता तो कभी बड़ी मासी का, और कुछ पूछने पर घर में क्रोध भरी फटकार के सिवाए मुझे कुछ नहीं मिलता। एक दिन गुस्से में आकर माँ ने ड्राइंगरूम से मासी की तस्वीर भी उठाकर फेंक दी और उसके बाद से तो मासी का नाम तक लेना वर्जित हो गया। मैं उस समय उम्र के उस दौर से गुजर रही थी, जब छोटी-से छोटी बात भी मन पर बड़ा रहस्य बनकर छा जाती है। पर किसी तरह भी नहीं जान पाई कि आख़िर मासी ने ऐसा क्या अपराध कर डाला कि एकाएक ही वह सबके लिए घृणा की पात्री बन गईं ? जानती भी कैसे ? माँ तो मुझे उनके नाम से ही इस प्रकार बचा-बचाकर रखती, मानो उनकी छाया भी मुझ पर पड़ गई तो मेरे लोक परलोक दोनों ही भ्रष्ट हो जाएँगे। मैं माँ की इकलौती बिटिया जो थी !

इसके बाद जब मेरे जन्म-दिन पर मासी का उपहार आया तो माँ ने साफ़ मना कर दिया कि उसके घर की रत्ती-भर चीज़ भी नहीं ली जाएगी। पर मैं अड़ गई तो माँ को झुकना ही पड़ा। जाने क्यों माँ के मुँह से जब-तब ‘छिन्नाल’ शब्द सुनकर मेरे मन की ममता मासी के प्रति और भी बढ़ गई थी। कभी-कभी घंटों उनकी उस तस्वीर को (जिसे मैंने अपने पास सँभालकर रख लिया था) देखकर मैं यही सोचा करती थी कि सामने बैठी यह सीधी-सादी, भोली-भाली युवती आखिर छिन्नाल कैसे बनी ?

अतीत के इन्हीं बनते बिगड़ते चित्रों में खोए-खोए कितनी रात मैंने बिता दी, मैं स्वयं नहीं जानती। उसके बाद एकाएक ही जाने कैसा आकर्षण मासी के प्रति जगा कि उठी और दबे पाँव उनके कमरे में चली गई। सोचा, यदि जग रही होंगी तो उनसे बात करूँगी, कुछ इस तरह कि वह मुझे पहचान जाएँ। मैं उन्हें यह बता देने को व्याकुल हो उठी कि मैं उन्हें बहुत प्यार करती हूँ। सारी दुनिया चाहे उन्हें घृणा करे पर अनजान रहकर भी मैं सदा से ही उन्हें बड़ा प्यार करती आई हूँ। मैंने ढूँढ़कर जैसे तैसे स्विच ऑन किया पर जैसे ही रोशनी में उनका चेहरा देखा मुझे लगा जैसे बिजली मेरे शरीर में दौड़ गई हो ! उनकी फटी आँखें और खुला मुँह देखकर मेरी चीख़ भी जैसे घुटकर अन्दर ही रह गई उलटे पैरों दौड़कर कैसे मैंने बुढ़िया को जगाया, यह सब मैं स्वयं नहीं जानती। बुढ़िया के रोने के साथ मेरी संज्ञा लौटी तो मैं भी रो पड़ी। वह दुख का रोना था या भय का, सो मैं नहीं जानती। मृत्यु को इतने पास से देखने का मेरा पहला ही मौक़ा था। कैसे दूसरा दिन हुआ और कुछ लोगों ने जुटकर मासी का क्रिया-कर्म किया, मुझे कुछ मालूम नहीं। हाँ, इतना याद है कि निकटतम सम्बन्धी होने के नाते मुझसे भी कुछ-कुछ करवाया गया था और मैं यन्त्रवत किए चली जा रही थी। मासी का शव जब चला गया तो मैं आतंकित-सी दूसरे कमरे में बैठी रही। कैसी विचित्र मौत थी ! अजीब-सा सन्नाटा घर में छाया हुआ था और उससे भी अधिक शून्य थे मेरे दिल दिमाग़। बाहर के बरामदे में बैठी बुढ़िया धीरे धीरे रो रही थी। जाने कैसी विरक्ति मेरे मन में छा गई कि कुछ भी जानने पूछने की इच्छा नहीं रही थी। जो इस संसार में अब है ही नहीं, जो अपनी लज्जा और दूसरों की घृणा अपने में ही समेटकर सदा के लिए लिए चली गई, उसके कर्मों का लेखा-जोखा करना किसी तरह भी उचित नहीं लगा।

सन्ध्या को जब मैं चलने की अनुमति माँगी तो बुढ़िया ने पूछा कि घर का सामान का क्या होगा ? मैं भला क्या बताती ? मेरे सामने चाभियों का गुच्छा फेंकते हुए उसने कहा, ‘वह बस तुम्हीं को याद करती थीं, इसलिए उनके सामान की अधिकारिणी तुम्हीं हो।’ मन का सोया कौतूहल फिर जाग उठा और जाने क्या सोचकर मैंने गुच्छा उठा लिया और उनके तीनों बक्से टटोल मारे। एक बक्से में किताबों, कॉपियों और काग़जों के बीच दबी एक फाइल निकली। जाने क्यों उसे देखते ही मुझे लगा कि उसे खोलते ही नीले-पीले गुलाबी सेंट में महकते वे पत्र निकल पड़ेंगे, जो उनके किसी प्रेमी ने उन्हें लिखे होंगे और जिनके कारण उन्हें इतनी लांछना सहनी पड़ी। पर जब उसे खोला, तो उसमें किसी पत्रिका में से फाड़े हुए तीन पन्ने थे, एक संगीत का डिप्लोमा था और कुछ पन्ने किसी डायरी से फाड़े हुए लगते थे। उन पन्नों में कहीं दवाइयों के नुख्से लिखे थे, कहीं धोबी के कपड़े कहीं घर का हिसाब तो कहीं मासी के अलग-अलग तारीखों के नोट थे। पत्रिका के फटे हुए पन्नों के अन्तिम पृष्ठ पर चारों ओर एक मार्जिन में छोटे-छोटे अक्षरों में लिखे नोट थे। मैंने ध्यान से पढ़ा, एक जगह लिखा था :

‘‘यहाँ तक यह मेरी कहानी है। मैं जानती थी कि तुम कहानीकार हो तो अवश्य ही किसी दिन मुझे अपनी क़लम से हलाल करोगे, पर इसके बाद का सारा किस्सा ग़लत है, इसलिए मैं उसे फाड़े दे रही हूँ। तुम मनोवैज्ञानिक विश्लेषण देकर, मेरे कुकृत्य पर परदा डालकर सारी दुनिया को धोखा दे रहे हो, पर मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि तुम झूठ बोल रहे हो। अपनी क़लम के करिश्मे दिखाकर वाह-वाही लूटने की लालसा ने ही तुमसे यह सब लिखावाया है। तुम सोचते हो, तुम्हारी इस दया से मैं कृत-कृत्य हो जाऊँगी। नहीं, मुझे किसी की दया नहीं चाहिए....’’
ओह, तो यह मासी के जीवन की कहानी है। हरीश नाम के किसी लेखक की थी वह कहानी। मैं उसे एक सपाटे में पढ़ गई।

हरीश


अविवाहित होना इतना बड़ा अभिशाप है, यह मकान खोजने के सिलसिले में ही महसूस हुआ। आख़िर तीन कमरों के एक फ़्लैट में एक कमरा मिला। यह पूरा फ़्लैट एक दम्पति के पास था। अब आर्थिक संकट में फँसकर उन्होंने एक कमरा किराए पर उठाया था। तीन चार दिन में ही मैं वहाँ जम गया। भाभी (मकान-मालकिन को मैं भाभी ही कहता था) बड़े अच्छे स्वभाव की महिला थीं। वह मेरा काफ़ी ख़याल रखती थीं। बच्चा उनके कोई था नहीं और पति बीमार थे इसलिए एक कमरे में पड़े रहते थे। क्या रोग था सो तो मैं बहुत दिनों तक नहीं जान पाया।

भाभी का सारा समय अपने बीमार पति की सेवा करने में बीतता था। बड़ी लगन, बड़ी तत्परता से वह उनकी देख-भाल करती थीं। मुझे कभी ख़ाली बैठा देखतीं तो इजाजत लेकर मेरे पास आ बैठतीं। वह जो बातें करतीं उनमें अधिक उनके पति से ही सम्बन्धित होतीं। क्या इलाज चल रहा है, कैसे सब डॉक्टर फ़ेल होते जा रहे हैं, आदि आदि। उस समय उनके चेहरे पर दुख की घनी छाया उतर आती थी और आँखें अनायास ही भर-भर आती थीं। फिर एकाएक ही वह अपने को सँभालकर कहतीं-दो मिनिट को आई तो अपना दुखड़ा ही ले बैठी, कैसी पागल हूँ !-और बिना बात ही धीमी सी हँसी उनके होंठों पर फैल जाती।

एक दिन इसी तरह बातें करते करते मैंने देखा कि वह बार-बार मेरे कुरते के बटनों की ओर देख रही हैं। मैंने अपने सीने की ओर देखा, बटन खुले हुए थे और मेरे सीने के घने काले बाल दिखाई पड़ रहे थे। एक महिला के सामने यों सीना उघारकर बैठने की लज्जा को ढँकते हुए मैंने कहा, ‘‘ये धोबी बटनों का तो कचूमर निकाल देते हैं।’’

‘‘मझे दे दिया होता, मैं लगा देती ! मुझे इतना पराया क्यों समझते हैं आप ? देखिए, मैं तो बिना किसी संकोच के आपसे बाहर के अनेक काम करवा लिया करती हूँ। सच, आपके आ जाने से बड़ी राहत मिली। मन उबता है तो घड़ी-दो-घड़ी बैठकर हँस बोल लेती हूँ। मन बहल जाता है।’’

उसके बाद से मैंने देखा कि जब कभी मेरी अनुपस्थिति में भाभी धोबी से कपड़े लेतीं, बटन हमेशा नदारद। एक बार तो मुझे ऐसा भ्रम हुआ मानो किसी ने बड़ी सफ़ाई से बटन काट दिए हैं। पर फिर अपनी इस कल्पना पर आप ही हँसी आई, बटन कौन काटेगा भला ? लापरवाह आदमी, मैं बटन लगवाना भूल जाता और बाहर जाते समय जाकेट चढ़ा लेता। पर भाभी आतीं तो बहुत ढँकने पर भी मेरे सीने के बाल इधर उधर से झाँका करते और वह उन्हें घूर-घूरकर मुझे संकुचित करती रहतीं।

उस दिन तो मेरी लज्जा का कोई ठिकाना ही नहीं रहा जिस दिन उन्होंने अपने नौकर को इसी बात के लिए बुरी तरह डाँटा कि वह क्यों धोती को मोड़कर घुटने तक चढ़ा लेता है और कमीज के सारे बटन खोलकर, बाँहें उलटकर नंगा सीना और नंगी बाँहें दिखाता फिरता है ? मैंने उस दिन ही भाभी को क्रोध करते देखा था। वह गुस्से से लाल होकर काँप रही थीं और चिल्लाए जा रही थीं-‘‘औरतों वाले घर में काम किया है कभी या नहीं ? बदतमीज कहीं के ! रहना है तो तमीज़ से रहो !’’

मुझे उनका यह अत्यधिक क्रोध समझ में नहीं आ रहा था। साथ ही यह भी लग रहा था कि वह नौकर की आड़ में मुझको ही तो नहीं डाँट रही हैं। उसी दिन मैंने दर्जी़ के पास सारे कुर्ते ले जाकर सीप की जगह कपड़े के बटन लगवा लिए।
यों भाभी मेरा बहुत ख़याल रखती थीं पर उन्हें मित्रों का बहुत आना-जाना पसन्द नहीं था। एक दो बार तो मैंने यह भी देखा कि मुझे बिना सूचना दिए ही उन्होंने मेरी एक परिचिता को यह कहकर लौटा दिया कि मैं घर पर नहीं हूँ। मुझे बुरा लगा। फिर सोचा, शायद यहाँ लोगों के आने से इनके पति को परेशानी होती होगी। दूसरे दिन जब मेरी एक मित्र आई तो मैंने अपने कमरे का दरवाज़ा बन्द कर लिया, ताकि बाहर किसी प्रकार की आवाज न जाए। करीब घंटे भर बाद वापस जाने के लिए जैसे ही मैंने दरवाजा खोला, देखा भाभी दरवाजे पर ही खड़ी थीं। मेरी मित्र की ओर देखती हुई वह जोर जोर से रोकर चिल्लाने लगीं, ‘‘तुम लोगों को इतनी भी लज्जा नहीं कि बगल में एक बीमार आदमी है तो ज़रा हँसी-ठिठोली कम करें ? दरवाज़ा बन्द करने से ही क्या हो जाता है...’’

उस लड़की से क्षमा याचना करता हुआ मैं उसे नीचे ले गया। लौटा तो सोचा, भाभी से साफ़-साफ़ बात कर लूँगा। भाभी का इस प्रकार दरवाज़े पर खड़े होना भी मुझे अच्छा नहीं लगा। लेकिन जैसे ही मैं लौटा, भाभी ने मुझे देखते ही ज़ोर से अपने कमरे का दरवाज़ा बन्द कर लिया। यह भी एक नई बात थी। यहाँ आने के बाद मैंने कभी उन्हें दरवाज़ा बन्द करके रहते नहीं देखा था, यहाँ तक कि रात को भी वह दरवाज़ा खुला ही रखती थीं।
शाम को मैं बाहर चला गया। मन का आक्रोश धुला नहीं था।

रात नौ बजे लौटा तो देखा, भाभी का कमरा वैसे ही बन्द था। मैं उन्हीं के बारे में सोचता-सोचता जाने कब सो गया।
इसके बाद दो दिन तक हमारी कोई बात नहीं हुई। उनके कमरे का दरवाज़ा भी बन्द ही रहता। जब कभी बाहर निकलतीं तो देखता कि दो दिन में ही चेहरा बड़ा उतर गया है। आँखों से लगता था जैसे बराबर रोती ही रही हैं। तीसरे दिन रात नौ बजे के करीब मैं अपने कमरे में बैठा एक कहानी लिख रहा था कि दरवाज़ा धकेलकर भाभी भीतर आ घुसीं। उनके लम्बे-लम्बे बाल बिखरे हुए थे और आँखें सुर्ख थीं। उनकी यह करुण और दयनीय स्थिति देखकर मन जाने कैसा हो गया। मैं कुछ कहूँ उसके पहले ही वह हाथों में मुँह छिपा फूट-फूटकर रो पड़ीं ‘‘अब मैं क्या करूं ? आज डॉक्टरों ने साफ साफ कह दिया है कि इन्हें पहाड़ पर नहीं ले जाया गया तो बचना मुश्किल है।’’

‘आज तो मैंने उन्हें टहलते हुए देखा था और मुझे लगता था कि उनकी तबीयत सुधर रही है। किस डॉक्टर ने कहा ? सब गलत है, आप हिम्मत से काम लीजिए।’’

‘‘नहीं-नहीं, यह सब झूठी तसल्लियाँ हैं ! आज तो एकाएक ही जैसे हौसला टूट गया, हिम्मत पस्त हो गई। जिस दिन ब्याह कर आई, उसी दिन से इनकी सेवा कर ही हूँ पर इन्हें अच्छा नहीं कर पाई और अब तो ग्यारह बजे तक उन्हें तरह तरह से आश्वासन देता रहा, स्नेहपूर्ण बातों से उनका मन भरमाता रहा। एक बार आवेग में आकर उन्होंने अपना सिर मेरे सीने पर टिका दिया, मैंने धीरे से हटाकर उन्हें हौसला बँधाया। थोड़ी देर बाद उठकर जब वह गईं तो ऐसी निराशा उनके चेहरे पर छाई थी मानो जुआरी अपना सबकुछ हार गया हो। उस दिन सच ही वे बड़ी उद्धिग्न थीं, बेहद परेशान। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ ? लेटा तो नींद नहीं आई। बार-बार भाभी का बेबस मायूस चेहरा आँखों के आगे उभर आता।


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