इतिहास और राजनीति >> हिन्दी कथा-साहित्य में मध्यकालीन भारत हिन्दी कथा-साहित्य में मध्यकालीन भारतसुधा मित्तल
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इस पुस्तक में हिन्दी के ऐतिहासिक उपन्यासों तथा कहानियों के माध्यम से मध्यकालीन भारत के स्वरूप को प्रस्तुत किया गया है.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इस पुस्तक में हिंदी के ऐतिहासिक उपन्यासों तथा कहानियों के माध्यम से
मध्यकालीन भारत के स्वरूप को प्रस्तुत किया गया है।
लेखिका के कथा-साहित्य के माध्यम के मध्ययुगीन ऐतिहासिक चेतना को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि पहलुओं को परखने और समझने का प्रयास किया है।
आज़ादी से पहले के ऐतिहासिक उपन्यासों में राष्ट्रीय गौरव को उद्घाटित करना लेखकों का मुख्य उद्देश्य होता था। जबकि बाद में ऐसे उपन्यासों और कहानियों में ऐतिहासिक घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में समकालीन जीवन की समस्याओं का विश्लेषण मुख्य लक्ष्य हो गया। लेखिका ने इस परिवर्तन को तो रेखांकित किया ही है, साथ ही अतीत के गौरवगान के क्रम अंकुरित हुए संकीर्ण साम्प्रदायिक दृष्टिकोण पर भी टिप्पणी की है।
हिन्दी में विपुल ऐतिहासिक साहित्य कथा-साहित्य को स्रोत सामग्री मानते हुए मध्ययुग के इतिहास का विवेचन तथा विश्लेषण इस पुस्तक की केवल विशेषता ही नहीं है, बल्कि हिन्दी में अपनी तरह का यह अकेला उपक्रम है।
इसमें लेखिका ने रोचक शैली में शुष्क्र ऐतिहासिक तथ्यों को मनोरम और पठनीय बनाने का प्रयास किया है।
लेखिका के कथा-साहित्य के माध्यम के मध्ययुगीन ऐतिहासिक चेतना को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि पहलुओं को परखने और समझने का प्रयास किया है।
आज़ादी से पहले के ऐतिहासिक उपन्यासों में राष्ट्रीय गौरव को उद्घाटित करना लेखकों का मुख्य उद्देश्य होता था। जबकि बाद में ऐसे उपन्यासों और कहानियों में ऐतिहासिक घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में समकालीन जीवन की समस्याओं का विश्लेषण मुख्य लक्ष्य हो गया। लेखिका ने इस परिवर्तन को तो रेखांकित किया ही है, साथ ही अतीत के गौरवगान के क्रम अंकुरित हुए संकीर्ण साम्प्रदायिक दृष्टिकोण पर भी टिप्पणी की है।
हिन्दी में विपुल ऐतिहासिक साहित्य कथा-साहित्य को स्रोत सामग्री मानते हुए मध्ययुग के इतिहास का विवेचन तथा विश्लेषण इस पुस्तक की केवल विशेषता ही नहीं है, बल्कि हिन्दी में अपनी तरह का यह अकेला उपक्रम है।
इसमें लेखिका ने रोचक शैली में शुष्क्र ऐतिहासिक तथ्यों को मनोरम और पठनीय बनाने का प्रयास किया है।
भूमिका
प्रस्तुत शोध का उद्देश्य अन्य शोधों के उद्देश्य से कुछ भिन्न है।
सामान्यतः शोधार्थी कृतियों की राह से गुजरकर तथा उनका विश्लेषण-विवेचन कर
अपने शोध से सम्बन्धित तथ्यों की उद्भावना करता है। परन्तु प्रस्तुत विषय
की स्थिति कुछ और है। इस विषय का एक आधार साहित्य है और दूसरा इतिहास।
इसमें इतिहास के साक्ष्य के आलोक में साहित्यिक कृतियों का अध्ययन किया
गया है।
भारतीय इतिहास की परम्परा में गुप्तयुग के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण युग मध्ययुग का मुगलकाल ही माना जा सकता है। यह एक ऐसा काल था जब भारत में राजनीति, धर्म, समाज, साहित्य और कला आदि के क्षेत्रों में कतिपय नवीनताओं, विचित्रताओं, संगतियों और विसंगतियों का आधान हुआ। वस्तुतः यह युग दो संस्कृतियों के मिलन का युग था। भारतीय और मुगल संस्कृति के मिलन से एक नई संस्कृति का जन्म हुआ। इस नवजात संस्कृति ने भारतीय जीवन के लगभग सभी पक्षों और परिवेशों को बड़ी गहराई तक स्पर्श किया। इससे प्रभावित होकर अनेक कथाकारों ने ऐतिहासिक कथा साहित्य की रचना की।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में इतिहासकारों द्वारा निरूपित मध्यकालीन, विशेष रूप से मुगलकालीन भारत को आधार बनाकर उसके विविध पक्षों को कालानुक्रम से हिन्दी कथा साहित्य में ढूँढ़ना मुझे रचिकर लगा। इस दृष्टि से यह कार्य एक लगभग अछूते विषय पर अनुसन्धान प्रस्तुत करता है। साहित्य के माध्यम से इतिहास का पल्लवन किस रूप में हो रहा है, इसका मैंने सीमित ही परिचय प्राप्त किया है। मेरे विचार में अनुसन्धान एक अनवरत प्रक्रिया है, जिसमें प्रतिपाद्य का स्वरूप भी अबाध गति से विकसित होता रहता है। इस कार्य में संलग्न होकर मैं इतना ही समझ पाई हूँ कि ज्ञान के अथाह सागर में कठिनाई से एक डुबकी लगाकर अपने को गोताखोर कहना मूर्खता ही होगी। सच तो यह है कि कुछ सिद्धान्तों की दियाबाती का सहारा लेकर ज्ञान के विराट स्वरूप तथा उसमें समाहित सत्य का साक्षात्कार कर पाना सम्भव नहीं है।
वस्तुतः मूल की अपनी ही विवेक दृष्टि से देखने में अध्ययन की सार्थकता प्रकट होती है। इस सन्दर्भ में किए गए कथा साहित्य के अध्ययन से कुछ तथ्यों के सापेक्ष जो निष्कर्ष मेरे मनःपटल पर अंकित हुए हैं, उन्हीं को मैंने इस शोध प्रबन्ध में सुसंगठित एवं संश्लिष्ट रूप में सँजाने का प्रयास भर किया है। इस प्रयास के दौरान मैंने अनुभव किया कि ऐतिहासिक कथा साहित्य मात्र मनोरंजन का साधन नहीं है, वरन् श्रेष्ठ ऐतिहासिक कथा-साहित्य हमें किसी भी देश के इतिहास से उसकी सम्पूर्ण विशेषताओं और वितृष्णाओं के साथ साक्षात्कार करा देता है। राग-विराग, प्रेम-घृणा, क्रोध-करुणा, वीरता-कायरता, नम्रता-निर्ममता सब एक साथ अभिव्यंजित हो उठते हैं।
राजनीति की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह यदा- कदा तथ्यों को तरह-तरह से मरोड़कर ऐसे रूप में पेश करना चाहती है जिससे उसके समस्त कल्मष स्वच्छ दिखाई पड़ें। फलतः इतिहास के सत्य को असत्य के आवरण में छिपाने की प्रक्रिया जटिल से जटिलतर हो जाती है। कलाकार इन्हीं तथ्यों को आधार बनाकर अपनी कल्पना की तूलिका से सुन्दर-से-सुन्दर चित्र बनाने का प्रयत्न करता है। यहाँ उसका कार्य बहुत दुष्कर हो जाता है। वह तथ्यों को सुन्दर रूप देते हुए सत्य से एकदम मुँह नहीं मोड़ सकता। इस प्रकार इतिहास को साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति मिलती है। इस शोध प्रबन्ध में मैंने इस अभिव्यक्ति की सत्यता को आँकने का प्रयास किया है।
इस शोध कार्य के लिए मैंने उपलब्ध मूल सामग्री का यथा-शक्ति अध्ययन और उपयोग किया है। फिर भी इसके विशाल क्षेत्र की विपुल सम्भावनाएँ हैं तथा पूर्ण सावधानी बरतने के बाद भी कमियों का रह जाना स्वाभाविक ही है। इन शब्दों के साथ मैं यह शोध प्रबन्ध विद्वतजनों को समर्पित करती हूँ।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के आयोजन, संवर्धन और समापन में मुझे अनेक महानुभावों से प्रेरणा और सहायता मिली है। उनका आभार व्यक्त करना मैं अपना कर्त्तव्य समझती हूँ। सर्वप्रथम पंजाब विश्वविद्यालय (चंडीगढ़) के हिन्दी विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर इन्द्रप्रस्थान मदान के प्रति मैं अपना आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने मुझे शोध कार्य के लिए प्रोस्ताहित किया और विषय के चयन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अपने प्रथम निरीक्षक एवं निर्देशक स्वर्गीय डॉ. पुरुषोत्तम दास शर्मा को भी मैं अपनी हार्दिक श्रद्धाजंलि अर्पित करती हूँ, जो इस कार्य में निरन्तर पथ-प्रदर्शन करते रहे।
इस कार्य के अधिकतर निष्पादन, संशोधन एवं समापन के लिए मैं विभागाध्यक्ष प्रोफेसर धर्मपाल मैनी की विशेष रूप से ऋणी हूँ, जिनके सुयोग्य निर्देशन, प्रेरणा और अपरिमित स्नेह के कारण यह कार्य पूर्ण हो सका। मैं, अपने पति प्रोफेसर जितेन्द्र कुमार मित्तल के निरन्तर सहयोग हेतु आभारी हूँ।
मैं उन विद्वानों के प्रति भी आभारी हूँ जिनकी कृतियों से मुझे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में विचार भाव एवं सृजनशील उपलब्धियाँ प्राप्त हुईं।
विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में कार्यरत कर्मचारियों एवं टंकक श्री भंडारी के प्रति भी मैं आभार प्रकट करती हूँ। उनका सहयोग मुझे सदा ही सहज और सुलभ रहा। मैं अपने प्रिय मित्रों एवं शुभ चिन्तकों की भी कृतज्ञ हूँ जिन्होंने समय-समय पर मुझे सुविधाएँ और सहयोग दिया।
भारतीय इतिहास की परम्परा में गुप्तयुग के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण युग मध्ययुग का मुगलकाल ही माना जा सकता है। यह एक ऐसा काल था जब भारत में राजनीति, धर्म, समाज, साहित्य और कला आदि के क्षेत्रों में कतिपय नवीनताओं, विचित्रताओं, संगतियों और विसंगतियों का आधान हुआ। वस्तुतः यह युग दो संस्कृतियों के मिलन का युग था। भारतीय और मुगल संस्कृति के मिलन से एक नई संस्कृति का जन्म हुआ। इस नवजात संस्कृति ने भारतीय जीवन के लगभग सभी पक्षों और परिवेशों को बड़ी गहराई तक स्पर्श किया। इससे प्रभावित होकर अनेक कथाकारों ने ऐतिहासिक कथा साहित्य की रचना की।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में इतिहासकारों द्वारा निरूपित मध्यकालीन, विशेष रूप से मुगलकालीन भारत को आधार बनाकर उसके विविध पक्षों को कालानुक्रम से हिन्दी कथा साहित्य में ढूँढ़ना मुझे रचिकर लगा। इस दृष्टि से यह कार्य एक लगभग अछूते विषय पर अनुसन्धान प्रस्तुत करता है। साहित्य के माध्यम से इतिहास का पल्लवन किस रूप में हो रहा है, इसका मैंने सीमित ही परिचय प्राप्त किया है। मेरे विचार में अनुसन्धान एक अनवरत प्रक्रिया है, जिसमें प्रतिपाद्य का स्वरूप भी अबाध गति से विकसित होता रहता है। इस कार्य में संलग्न होकर मैं इतना ही समझ पाई हूँ कि ज्ञान के अथाह सागर में कठिनाई से एक डुबकी लगाकर अपने को गोताखोर कहना मूर्खता ही होगी। सच तो यह है कि कुछ सिद्धान्तों की दियाबाती का सहारा लेकर ज्ञान के विराट स्वरूप तथा उसमें समाहित सत्य का साक्षात्कार कर पाना सम्भव नहीं है।
वस्तुतः मूल की अपनी ही विवेक दृष्टि से देखने में अध्ययन की सार्थकता प्रकट होती है। इस सन्दर्भ में किए गए कथा साहित्य के अध्ययन से कुछ तथ्यों के सापेक्ष जो निष्कर्ष मेरे मनःपटल पर अंकित हुए हैं, उन्हीं को मैंने इस शोध प्रबन्ध में सुसंगठित एवं संश्लिष्ट रूप में सँजाने का प्रयास भर किया है। इस प्रयास के दौरान मैंने अनुभव किया कि ऐतिहासिक कथा साहित्य मात्र मनोरंजन का साधन नहीं है, वरन् श्रेष्ठ ऐतिहासिक कथा-साहित्य हमें किसी भी देश के इतिहास से उसकी सम्पूर्ण विशेषताओं और वितृष्णाओं के साथ साक्षात्कार करा देता है। राग-विराग, प्रेम-घृणा, क्रोध-करुणा, वीरता-कायरता, नम्रता-निर्ममता सब एक साथ अभिव्यंजित हो उठते हैं।
राजनीति की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह यदा- कदा तथ्यों को तरह-तरह से मरोड़कर ऐसे रूप में पेश करना चाहती है जिससे उसके समस्त कल्मष स्वच्छ दिखाई पड़ें। फलतः इतिहास के सत्य को असत्य के आवरण में छिपाने की प्रक्रिया जटिल से जटिलतर हो जाती है। कलाकार इन्हीं तथ्यों को आधार बनाकर अपनी कल्पना की तूलिका से सुन्दर-से-सुन्दर चित्र बनाने का प्रयत्न करता है। यहाँ उसका कार्य बहुत दुष्कर हो जाता है। वह तथ्यों को सुन्दर रूप देते हुए सत्य से एकदम मुँह नहीं मोड़ सकता। इस प्रकार इतिहास को साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति मिलती है। इस शोध प्रबन्ध में मैंने इस अभिव्यक्ति की सत्यता को आँकने का प्रयास किया है।
इस शोध कार्य के लिए मैंने उपलब्ध मूल सामग्री का यथा-शक्ति अध्ययन और उपयोग किया है। फिर भी इसके विशाल क्षेत्र की विपुल सम्भावनाएँ हैं तथा पूर्ण सावधानी बरतने के बाद भी कमियों का रह जाना स्वाभाविक ही है। इन शब्दों के साथ मैं यह शोध प्रबन्ध विद्वतजनों को समर्पित करती हूँ।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के आयोजन, संवर्धन और समापन में मुझे अनेक महानुभावों से प्रेरणा और सहायता मिली है। उनका आभार व्यक्त करना मैं अपना कर्त्तव्य समझती हूँ। सर्वप्रथम पंजाब विश्वविद्यालय (चंडीगढ़) के हिन्दी विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर इन्द्रप्रस्थान मदान के प्रति मैं अपना आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने मुझे शोध कार्य के लिए प्रोस्ताहित किया और विषय के चयन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अपने प्रथम निरीक्षक एवं निर्देशक स्वर्गीय डॉ. पुरुषोत्तम दास शर्मा को भी मैं अपनी हार्दिक श्रद्धाजंलि अर्पित करती हूँ, जो इस कार्य में निरन्तर पथ-प्रदर्शन करते रहे।
इस कार्य के अधिकतर निष्पादन, संशोधन एवं समापन के लिए मैं विभागाध्यक्ष प्रोफेसर धर्मपाल मैनी की विशेष रूप से ऋणी हूँ, जिनके सुयोग्य निर्देशन, प्रेरणा और अपरिमित स्नेह के कारण यह कार्य पूर्ण हो सका। मैं, अपने पति प्रोफेसर जितेन्द्र कुमार मित्तल के निरन्तर सहयोग हेतु आभारी हूँ।
मैं उन विद्वानों के प्रति भी आभारी हूँ जिनकी कृतियों से मुझे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में विचार भाव एवं सृजनशील उपलब्धियाँ प्राप्त हुईं।
विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में कार्यरत कर्मचारियों एवं टंकक श्री भंडारी के प्रति भी मैं आभार प्रकट करती हूँ। उनका सहयोग मुझे सदा ही सहज और सुलभ रहा। मैं अपने प्रिय मित्रों एवं शुभ चिन्तकों की भी कृतज्ञ हूँ जिन्होंने समय-समय पर मुझे सुविधाएँ और सहयोग दिया।
-सुधा मित्तल
प्रथम अध्याय
इतिहास की व्याख्या, स्वरूप एवं विकास
1:1 इतिहास : प्रकृति एवं प्रयोग
इतिहास क्या है इस प्रश्न को लेकर विद्वानों में मदभेद है। आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल ने इतिहास के मर्म को बड़े सुन्दर एवं गंभीर शब्दों में
इस प्रकार स्पष्ट किया है:प्रसिद्ध प्राचीन नगरों और गढ़ों के खंडहर
राजप्रसाद आदि जिस प्रकार सम्राटों के ऐश्वर्य, विभूति, प्रताप,
आमोद-प्रमोद और भोग-विलास के स्मारक हैं, उसी प्रकार उनके अवसाद, विषाद,
नैराश्य और घोर पतन के। मनुष्य के ऐश्वर्य विभूति सुख, सौन्दर्य की वासना
अभिव्यक्त होकर जगत् के किसी छोटे या बड़े खंड को अपने रंग में रँगकर
मानुषी सजीवता प्रदान करती है। देखते-देखते काल उस वासना के आश्रय
मनुष्यों को हटाकर किनारे कर देता है।
धीरे-धीरे उनका चलाया हुआ ऐश्वर्य विभूति का वह रंग भी मिटता जाता है। जो कुछ शेष रह जाता है, वह बहुत दिनों तक ईंट पत्थर की भाषा में पुरानी कहानी कहता रहता है। संसार का पथिक मनुष्य उसे अपनी कहानी समझकर सुनता है, क्योंकि उसके भीतर झलकता है जीवन का नित्य प्रकृति-स्वरूप1। कुछ लोग इतिहास की गतिविधि को स्वचालित और बिना किसी ध्येय-विशेष के मानते हैं। उनकी मान्यता है कि इतिहास अपने को दोहराता है। क्यों दोहराता है ? क्या वह पुनरावृत्ति मात्र है ? आदि प्रश्नों के उत्तर में ये मूक हैं।
क्योंकि ये विद्वान् रामराज्य और गुप्तकाल के सुनहरे सपने देखते हैं, उनका विश्वास है कि समय की धुरी पर घूमता फिरता इतिहास एकदिन अवश्य फिर से बीते वैभव में आएगा। यहाँ एक बड़ी हास्यास्पद शंका यह होती है कि फिर तो मुगल साम्राज्यवादी और अंग्रेजी राज्य भी किसी न किसी दिन फिर बिन बुलाए मेहमान की तरह आ धमकेंगे। इतिहास के बारे में मानव की वह कल्पना उसके अतीत के प्रति प्रेम, वैभव और गौरव की प्रतीक है।
कुछ और विद्वान् सागर की गोद में उठने और गिरनेवाली तंरगों की भाँति इतिहास को आँकते हैं। उन्होंने देखा कि सरिता पर्वत से निकलकर मैदानों पर बहती है और एक दिन सागर में मिल जाती है। सागर में भी उसे विश्राम कहाँ, वहाँ वह बादल में परिवर्तित हो जाती है। मेघ उमड़ते हैं, गरजते हैं और बरसते हैं। सूर्य उदय होता है, चमकता है और अस्त होता है। इस प्रकार प्रकृति में उत्थान-पतन का चक्र निरन्तर चलता रहता है। सम्भवतः ये विद्वान् इसी आधार पर इतिहास को उत्थान-पतन की आवृत्ति मात्र मानते हैं।
विद्वानों का एक और वर्ग मानव के अस्तित्व में विश्वास रखता है। उनके अनुसार मनुष्य ईश्वर या नियति के हाथ की कठपुतली मात्र नहीं है और इसलिए इतिहास मनुष्य, निर्मित, लक्ष्ययुक्त तथा नपी-तुली गतिविधि है। उन्नीसवीं शताब्दी में फ्रांस, रूस तथा चीन में हुई औद्योगिक क्रान्ति ने विचारकों की आँखें खोल दीं। उन्होंने अनुभव किया कि इतिहास की दिशा को मोड़ने वाले चन्द महापुरुष तो होते ही हैं, आम जनता का भी बड़ा हाथ होता है। इतिहास इस परिवर्तनशील संसार या उसके कुछ अंशों के घटना-प्रवाह का आलेखन है, अतीत की कहानी है इसका अर्थ है मानव-जाति का उद्भव, निर्माण और विकास। इस प्रकार इतिहास वास्तव में मानव-जाति के अनुभवों और उसकी आन्तरिक उपलब्धियों का द्योतक है। वह केवल खंडित पापाओं का संग्रहालय नहीं है। मनुष्य अपने विकास क्रम को समझने के लिए पीछे इतिहास की ओर देखता है, जिससे उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। तात्पर्य यह है कि इतिहास मनुष्य को बनाता है और मनुष्य इतिहास को। यह प्रक्रिया निरन्तर चल रही है और चलती रहेगी।
धीरे-धीरे उनका चलाया हुआ ऐश्वर्य विभूति का वह रंग भी मिटता जाता है। जो कुछ शेष रह जाता है, वह बहुत दिनों तक ईंट पत्थर की भाषा में पुरानी कहानी कहता रहता है। संसार का पथिक मनुष्य उसे अपनी कहानी समझकर सुनता है, क्योंकि उसके भीतर झलकता है जीवन का नित्य प्रकृति-स्वरूप1। कुछ लोग इतिहास की गतिविधि को स्वचालित और बिना किसी ध्येय-विशेष के मानते हैं। उनकी मान्यता है कि इतिहास अपने को दोहराता है। क्यों दोहराता है ? क्या वह पुनरावृत्ति मात्र है ? आदि प्रश्नों के उत्तर में ये मूक हैं।
क्योंकि ये विद्वान् रामराज्य और गुप्तकाल के सुनहरे सपने देखते हैं, उनका विश्वास है कि समय की धुरी पर घूमता फिरता इतिहास एकदिन अवश्य फिर से बीते वैभव में आएगा। यहाँ एक बड़ी हास्यास्पद शंका यह होती है कि फिर तो मुगल साम्राज्यवादी और अंग्रेजी राज्य भी किसी न किसी दिन फिर बिन बुलाए मेहमान की तरह आ धमकेंगे। इतिहास के बारे में मानव की वह कल्पना उसके अतीत के प्रति प्रेम, वैभव और गौरव की प्रतीक है।
कुछ और विद्वान् सागर की गोद में उठने और गिरनेवाली तंरगों की भाँति इतिहास को आँकते हैं। उन्होंने देखा कि सरिता पर्वत से निकलकर मैदानों पर बहती है और एक दिन सागर में मिल जाती है। सागर में भी उसे विश्राम कहाँ, वहाँ वह बादल में परिवर्तित हो जाती है। मेघ उमड़ते हैं, गरजते हैं और बरसते हैं। सूर्य उदय होता है, चमकता है और अस्त होता है। इस प्रकार प्रकृति में उत्थान-पतन का चक्र निरन्तर चलता रहता है। सम्भवतः ये विद्वान् इसी आधार पर इतिहास को उत्थान-पतन की आवृत्ति मात्र मानते हैं।
विद्वानों का एक और वर्ग मानव के अस्तित्व में विश्वास रखता है। उनके अनुसार मनुष्य ईश्वर या नियति के हाथ की कठपुतली मात्र नहीं है और इसलिए इतिहास मनुष्य, निर्मित, लक्ष्ययुक्त तथा नपी-तुली गतिविधि है। उन्नीसवीं शताब्दी में फ्रांस, रूस तथा चीन में हुई औद्योगिक क्रान्ति ने विचारकों की आँखें खोल दीं। उन्होंने अनुभव किया कि इतिहास की दिशा को मोड़ने वाले चन्द महापुरुष तो होते ही हैं, आम जनता का भी बड़ा हाथ होता है। इतिहास इस परिवर्तनशील संसार या उसके कुछ अंशों के घटना-प्रवाह का आलेखन है, अतीत की कहानी है इसका अर्थ है मानव-जाति का उद्भव, निर्माण और विकास। इस प्रकार इतिहास वास्तव में मानव-जाति के अनुभवों और उसकी आन्तरिक उपलब्धियों का द्योतक है। वह केवल खंडित पापाओं का संग्रहालय नहीं है। मनुष्य अपने विकास क्रम को समझने के लिए पीछे इतिहास की ओर देखता है, जिससे उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। तात्पर्य यह है कि इतिहास मनुष्य को बनाता है और मनुष्य इतिहास को। यह प्रक्रिया निरन्तर चल रही है और चलती रहेगी।
1:2 इतिहास : मानवता का विकास
इतिहास मानव के विकास का अंकन करता है और हमें गतिशील होने की प्रेरणा
देता है। प्रकृति, व्यक्ति और समाज के बीच सृष्टि के आदि से आज तक
द्वन्द्व चलता आया है। इसी द्वन्द्व का लेखा-जोखा मानव का इतिहास है।
प्रकृति की मनमानी से तंग आकर मनुष्य ने उसके विरुद्ध विज्ञान के रूप में
विद्रोह किया और बहुत सीमा तक उसे विजय भी मिली। पर द्वन्द्व का चक्र चलता
ही रहा। जनसंख्या बढ़ने लगी। तृप्ति के साधन सीमित थे और आवश्कताएँ
असीमित। मनुष्य-ही-मनुष्य का प्रतिद्वन्द्वी बन गया। उसने भिन्न-भिन्न
दलों में बँटकर मोर्चे बनाये और वह आपस में अपनों से ही भिड़ गया।
विजेताओं ने शासन सूत्र सँभाला और विजित बने दास। यह कहानी बार-बार दोहराई
गई।
आगे चलकर मनुष्य को अच्छी तरह जीने के लिए समाज की आवश्यकता का अनुभव हुआ और अनेक सामाजिक संस्थाओं का विकास हुआ। व्यक्ति और समाज की सीमाएँ भी आपस में टकराईं। कभी समाज ने व्यक्ति की उपेक्षा की तो कभी व्यक्ति ने समाज से विद्रोह किया। कभी समाज की विजय हुई और कभी व्यक्ति विजयी होकर युग प्रवर्तक कहलाया। इस प्रकार इस द्वन्द्व प्रक्रिया में मानव का विकास हुआ। वह पशु से संवेदनशील मानव बन गया। उसके विकास का इतिहास उसकी भौतिक और आध्यात्मिक प्रगति का योगफल है। वृन्दावनलाल वर्मा के अनुसार मानव का विकास बहुत धीरे-धीरे हुआ और होगा। वह एक बात में बढ़ता है, दूसरी में घटता। सर्वतोमुखी बाढ़ कभी नहीं आती। यही मानव का प्रतिवाद है। महात्मा गाँधी ने इसको इस प्रकार लिखा है : ‘यदि हम अपनी दृष्टि उस काल से, जिसका इतिहास पता लग पाया है, अपने युग तक घुमाएँ तो हमें ज्ञात हो जायगा कि मनुष्य अहिंसा की ओर नियमत रूप से प्रगति कर रहा है। हमारे पुरखे मनुजाद थे। फिर एक समय आया कि वे शिकार पर गुजारा करने लगे। इसके बाद कृषि आरम्भ कर दी। धीरे-धीरे ग्रामों और नगरों की स्थापना की और वह परिवार की सदस्य बन गया। ये सब बढ़ती हुई अहिंसा और घटती हुई हिंसा ऐतिहासिक गतिशीलता का प्रमाण है।4
इस प्रकार इतिहास-विकासन मानव-परम्परा है। इस सम्बन्ध में योरोपियन इतिहासकार फिशर ने कहा है: ‘मैं इस बौद्धिक उल्लास से वंचित रह गया हूँ। मुझसे अधिक बुद्धिमान् और विद्वान् पुरुषों ने इतिहास में एक पुष्ट कथा, एक स्वर, एकपूर्व निर्धारित विधान का साक्षात्कार किया है। ये समन्वित स्वरलहरियाँ मुझसे छिपी हुई हैं। मैं तो केवल यह देख पाता हूँ कि एक अवस्था दूसरी के बाद इस प्रकार आती है जैसे एक लहर दूसरी के बाद उमड़ आती है। मुझे केवल एक तथ्य दिखाई देता है कि जिसके विषय में कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता क्योंकि वह एकदम विशिष्ट और अनुपम है। इतिहासकार का स्वरूप सिद्धान्त यही है कि वह मानव भाग्यचक्र के आवर्तन में अदृश्य और आकस्मिक तत्त्वों की क्रीड़ा का दर्शन करे।5
आगे चलकर मनुष्य को अच्छी तरह जीने के लिए समाज की आवश्यकता का अनुभव हुआ और अनेक सामाजिक संस्थाओं का विकास हुआ। व्यक्ति और समाज की सीमाएँ भी आपस में टकराईं। कभी समाज ने व्यक्ति की उपेक्षा की तो कभी व्यक्ति ने समाज से विद्रोह किया। कभी समाज की विजय हुई और कभी व्यक्ति विजयी होकर युग प्रवर्तक कहलाया। इस प्रकार इस द्वन्द्व प्रक्रिया में मानव का विकास हुआ। वह पशु से संवेदनशील मानव बन गया। उसके विकास का इतिहास उसकी भौतिक और आध्यात्मिक प्रगति का योगफल है। वृन्दावनलाल वर्मा के अनुसार मानव का विकास बहुत धीरे-धीरे हुआ और होगा। वह एक बात में बढ़ता है, दूसरी में घटता। सर्वतोमुखी बाढ़ कभी नहीं आती। यही मानव का प्रतिवाद है। महात्मा गाँधी ने इसको इस प्रकार लिखा है : ‘यदि हम अपनी दृष्टि उस काल से, जिसका इतिहास पता लग पाया है, अपने युग तक घुमाएँ तो हमें ज्ञात हो जायगा कि मनुष्य अहिंसा की ओर नियमत रूप से प्रगति कर रहा है। हमारे पुरखे मनुजाद थे। फिर एक समय आया कि वे शिकार पर गुजारा करने लगे। इसके बाद कृषि आरम्भ कर दी। धीरे-धीरे ग्रामों और नगरों की स्थापना की और वह परिवार की सदस्य बन गया। ये सब बढ़ती हुई अहिंसा और घटती हुई हिंसा ऐतिहासिक गतिशीलता का प्रमाण है।4
इस प्रकार इतिहास-विकासन मानव-परम्परा है। इस सम्बन्ध में योरोपियन इतिहासकार फिशर ने कहा है: ‘मैं इस बौद्धिक उल्लास से वंचित रह गया हूँ। मुझसे अधिक बुद्धिमान् और विद्वान् पुरुषों ने इतिहास में एक पुष्ट कथा, एक स्वर, एकपूर्व निर्धारित विधान का साक्षात्कार किया है। ये समन्वित स्वरलहरियाँ मुझसे छिपी हुई हैं। मैं तो केवल यह देख पाता हूँ कि एक अवस्था दूसरी के बाद इस प्रकार आती है जैसे एक लहर दूसरी के बाद उमड़ आती है। मुझे केवल एक तथ्य दिखाई देता है कि जिसके विषय में कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता क्योंकि वह एकदम विशिष्ट और अनुपम है। इतिहासकार का स्वरूप सिद्धान्त यही है कि वह मानव भाग्यचक्र के आवर्तन में अदृश्य और आकस्मिक तत्त्वों की क्रीड़ा का दर्शन करे।5
1:3 इतिहास : व्युत्पत्ति एवं अर्थ विकास
‘इतिहास’ शब्द तीन शब्दों :
‘इति’,
‘ह’, ‘आस’ के संयोग से बना है,
जिसका अर्थ है,
‘यह इस प्रकार हुआ’। इसलिए
‘इतिहास’ शब्द का
सामान्य अर्थ हुआ विगत घटनाओं का वृत्तान्त।6 अंग्रेजी में
‘इतिहास’ के लिए ‘हिस्टरी’ शब्द
का प्रयोग होता
है, जो ग्रीक शब्द ‘हिस्तोरिया’ का अंग्रेजीकरण है।7
ग्रीक
भाषा में ‘हिस्तोरिया’ का अर्थ
‘गवेषणा’ है।8
किन्तु अधीन संस्कृत साहित्य में कौटिल्य ने स्पष्ट कहा है कि पुराण,
इतिवृत्त, आख्यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र यह सब इतिहास
है।9 महाभारत के अनुसार धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष से समन्वित पूर्ववृत्त और कथा
ही इतिहास है।10
आजकल ‘इतिहास’ शब्द का प्रयोग प्रायः तीन अर्थों में किया जाता है : प्रथम, इसके अंग्रेजी पर्याय ‘हिस्टरी’, के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ में, जिसका तात्पर्य है गवेषणा, यानी तथ्य का अन्वेषण, अनुसन्धान। तथ्य का वह अन्वेषण मानव या विश्व की किसी भी ऐसी वस्तु से सम्बन्धित हो सकता है जिसमें परिवर्तन की प्रक्रिया की होती है। इतिहास के तथ्य प्राचीन दस्तावेजों, पुरातत्व सम्बन्धी उपलब्धियों, भवनों, चित्रों, मूर्तियों या मानव-स्मृतियों में निहित हैं। नई-नई खोजों के फलस्वरूप इसमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है। द्वितीय, घटनाओं के क्रम को सम्मुख लाने के लिए ‘इतिहास’ शब्द का प्रयोग होता है। जब हम अशोक, अकबर, नेपोलियन आदि को इतिहास का निर्माता कहते हैं तो हमारा मतलब यह नहीं होता कि वे इतिहास लेखक थे वरन् यह कि उन्होंने विश्व के घटना प्रवाह को नई दिशा में मोड़ा था तथा उसे गति दी थी। इसी प्रकार जब हम इतिहास के प्रभाव की बात करते हैं, तो हमारा मतलब ऐतिहासिक ग्रन्थों के प्रभाव से न होकर परिस्थितियों के प्रभाव से होता है।11 तृतीय, विश्व के या उसके कुछ अंशों के घटना-प्रभाव के आलेखन के अर्थ में ‘इतिहास’ शब्द का प्रयोग होता है। इसी अर्थ के अन्तर्गत हम किसी भी देश, काल, विज्ञान, वस्तु के इतिहास की बात कर सकते हैं, जो कालक्रम में विकसित हुई हो और अपने पीछे विकास के पदचिन्ह छोड़ती गई हो।
आजकल ‘इतिहास’ शब्द का प्रयोग प्रायः तीन अर्थों में किया जाता है : प्रथम, इसके अंग्रेजी पर्याय ‘हिस्टरी’, के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ में, जिसका तात्पर्य है गवेषणा, यानी तथ्य का अन्वेषण, अनुसन्धान। तथ्य का वह अन्वेषण मानव या विश्व की किसी भी ऐसी वस्तु से सम्बन्धित हो सकता है जिसमें परिवर्तन की प्रक्रिया की होती है। इतिहास के तथ्य प्राचीन दस्तावेजों, पुरातत्व सम्बन्धी उपलब्धियों, भवनों, चित्रों, मूर्तियों या मानव-स्मृतियों में निहित हैं। नई-नई खोजों के फलस्वरूप इसमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है। द्वितीय, घटनाओं के क्रम को सम्मुख लाने के लिए ‘इतिहास’ शब्द का प्रयोग होता है। जब हम अशोक, अकबर, नेपोलियन आदि को इतिहास का निर्माता कहते हैं तो हमारा मतलब यह नहीं होता कि वे इतिहास लेखक थे वरन् यह कि उन्होंने विश्व के घटना प्रवाह को नई दिशा में मोड़ा था तथा उसे गति दी थी। इसी प्रकार जब हम इतिहास के प्रभाव की बात करते हैं, तो हमारा मतलब ऐतिहासिक ग्रन्थों के प्रभाव से न होकर परिस्थितियों के प्रभाव से होता है।11 तृतीय, विश्व के या उसके कुछ अंशों के घटना-प्रभाव के आलेखन के अर्थ में ‘इतिहास’ शब्द का प्रयोग होता है। इसी अर्थ के अन्तर्गत हम किसी भी देश, काल, विज्ञान, वस्तु के इतिहास की बात कर सकते हैं, जो कालक्रम में विकसित हुई हो और अपने पीछे विकास के पदचिन्ह छोड़ती गई हो।
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