विविध >> प्रबंधन के गुरुमंत्र प्रबंधन के गुरुमंत्रसुरेश कांत
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इसमें प्रबंधन के गुरुमंत्रों का उल्लेख किया गया है.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रबंधन आत्मा-विकास की एक सतत् प्रक्रिया है। अपने को व्यवस्थित-प्रबंधित
किए बिना आदमी दूसरों को व्यवस्थित-प्रबंधित करने में सफल नहीं हो सकता,
चाहे वे दूसरे लोग घर के सदस्य हों या दफ्तर अथवा कारोबार के। इस प्रकार
आत्म-विकास ही घर-दफ्तर, दोनों की उन्नति का मूल है। इस लिहाज से देखें,
तो प्रबंधन का ताल्लुक कम्पनी-जगत के लोगों से ही नहीं, मनुष्य मात्र से
है। वह इंसान को बेहतर इंसान बनाने की कला है, क्योंकि बेहतर इंसान ही
बेहतर कर्मचारी, अधिकारी, प्रबंधक या कारोबारी हो सकता है।
‘प्रबंधन के गुरुमंत्र’ में विद्वान लेखक ‘व्यक्तिगत-विकास’ ‘औद्योगिक सम्बन्ध’ और ‘निर्णयकारिता’ पर विभिन्न आयामों से विचार कर रहे हैं। लेखक के अनुसार अपनी क्षमता की पहचान, अच्छी आदतों का विकास, निरन्तर ज्ञान-बृद्धि और अनुशासन ऐसे मूल्य हैं जिन पर चलकर आप एक सफल प्रबंधक बन सकते हैं। कर्मचारी को प्रतिबद्ध कैसे बनाया जाए, असहमति को कैसे सफलदायक बनाया जा सकता है और अनिर्णय किस तरह घातक हो सकता है, इन बिन्दुओं पर भी इस पुस्तक में विचार किया गया है।
प्रबंधकीय कौशल व क्षमता के विकास हेतु अवश्यमेव पढ़ी जानेवाली पुस्तक।
‘प्रबंधन के गुरुमंत्र’ में विद्वान लेखक ‘व्यक्तिगत-विकास’ ‘औद्योगिक सम्बन्ध’ और ‘निर्णयकारिता’ पर विभिन्न आयामों से विचार कर रहे हैं। लेखक के अनुसार अपनी क्षमता की पहचान, अच्छी आदतों का विकास, निरन्तर ज्ञान-बृद्धि और अनुशासन ऐसे मूल्य हैं जिन पर चलकर आप एक सफल प्रबंधक बन सकते हैं। कर्मचारी को प्रतिबद्ध कैसे बनाया जाए, असहमति को कैसे सफलदायक बनाया जा सकता है और अनिर्णय किस तरह घातक हो सकता है, इन बिन्दुओं पर भी इस पुस्तक में विचार किया गया है।
प्रबंधकीय कौशल व क्षमता के विकास हेतु अवश्यमेव पढ़ी जानेवाली पुस्तक।
भूमिका : क्या, कैसे और किसके लिए
आज से लगभग चार साल पहले बिजनेस-डेली ‘अमर उजाला
कारोबार’ के
प्रकाशन के साथ हिंदी की व्यावसायिक पत्रकारिता के क्षेत्र में एक क्रांति
हुई थी। उसके खूबसूरत कलेवर, पेशेवराना प्रस्तुति और उच्चस्तरीय सामग्री
ने मुझे भी उसके साथ बतौर लेखक जुड़ने के लिए प्रेरित किया। और तब से
उसमें हर मंगलवार को प्रकाशित होनेवाले अपने कॉलम में मैं प्रबंधन के
विभिन्न पहलुओं पर नियमित रूप से लिखता रहा।
एक विषय के रूप में प्रबंधन की ओर मेरा झुकाव रिज़र्व बैंक में अपनी कानपुर-पोस्टिंग के दौरान अपने कार्यालय-अध्यक्ष श्री केवल कृष्ण मुदगिल की प्रेरणा से हुआ। बाद में कानपुर से दिल्ली आने पर दिल्ली-कार्यालय के अध्यक्ष श्री सैय्यद मुहम्मद तक़ी हुसैनी ने मुझे नया कुछ करने की प्रेरणा दी, तो मेरा ध्यान प्रबंधन पर लिखने की तरफ ही गया। हिंदी में इस तरह के लेखन का नितांत अभाव था और ‘हिंदीवाला’ होने के नाते इस अभाव की पूर्ति करना अपना कर्तव्य भी समझता था। लिहाजा मुदगिल जी और हुसैनी साहब जैसे हितैषियों की प्रेरणा, अपने कर्तव्य-बोध और ‘कारोबार’ के प्रकाशन की शुरुआत—इन तीनों ने मुझे इस विषय पर लिखने की राह पर डाल दिया।
प्रबंधन मेरी नजर में आत्म-विकास की सतत प्रक्रिया है। अपने को व्यवस्थित-प्रबंधित किए बिना आदमी दूसरों को व्यवस्थित-प्रबंधित करने में सफल नहीं हो सकता, चाहे वे दूसरे लोग घर के सदस्य हों या दफ्तर या कारोबार के। इस प्रकार आत्म-विकास ही घर-दफ्तर, दोनों की उन्नति का मूल है। इस लिहाज से देखें तो प्रबंधन का ताल्लुक कंपनी-जगत के लोगों से ही नहीं, मनुष्य मात्र से है। वह इंसान को बेहतर इंसान बनाने की कला है, क्योंकि बेहतर इंसान की बेहतर कर्मचारी, अधिकारी, प्रबंधन या कारोबारी हो सकता है। प्रबंधन पर लिखते समय मेरे ध्यान में यह पूरा लक्ष्य-समूह रहता है और मैं अखबार से मिलने वाले फीडबैक तथा पाठकों से सीधे प्राप्त होने वाली प्रतिक्रियाओं के आधार पर कह सकता हूँ कि मैं प्रबंधन को हिंदीभाषी छात्रों, अध्यापकों, शोधार्थियों, कारोबारियों और कर्मचारियों-अधिकारियों-प्रबंधकों के बीच ही नहीं, इस विषय से सीधा संबंध न रखने वाले आम आदमी के बीच भी लोकप्रिय बनाने में कामयाब रहा हूँ।
इस व्यापक लक्ष्य-समूह को मद्देनजर रखते हुए और साथ ही प्रबंधन की विभिन्न अवधाराणाओं को समझने में हो सकने वाली गफलत की आशंका को दूर करने के उद्देश्य से भी, मैंने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी के शब्दों का भी बहुतायत से प्रयोग किया है और इसके लिए ‘यानी’ वाली शैली अपनाई है, जैसे अंतःक्रिया यानी इंटरएक्शन, प्रत्यायोजन यानी डेलीगेशन, कल्पना यानी विजन आदि। जहाँ हिन्दी के शब्द अप्रचलित और क्लिष्ट लगे। वहाँ मैंने केवल अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने से भी परहेज नहीं किया। शुद्धतावादी इससे कुछ परेशान हो सकते हैं, पर हिंदी को जीवन्त और रवाँ बनाए रखने के लिए यह जरूरी था। मैं शुद्धतावादियों का खयाल रखता या अपने पाठकों और अपनी हिंदी का ? शुद्धतावादियों की जानकारी के लिए बता दूँ कि खुद ‘हिंदी’ शब्द विदेशी है। और भी ऐसे अनेक शब्द जिनके बारे में सोच नहीं सकते कि वे हिंदी के नहीं होंगे, हिंदी के नहीं हैं। कागज कलम, पेन, कमीज, कुर्ता, पाजामा, पैंट, चाकू, कुर्सी, चाय मेज, बस, कार, रेल, रिक्शा, चेक ड्राफ्ट, कामरेड, दफ्तर, फाइल, बैंक आदि में से कोई अंग्रेजी का शब्द है, तो कोई अरबी, फारसी, तुर्की, रूसी, जापानी आदि में से किसी का। और ऐसे शब्दों की एक लम्बी सूची है। असल में यह हिंदी की ताकत है, कमजोरी नहीं।
लेखों में अनेक देशी-विदेशी प्रबंधन-गुरुओं, विद्वानों, शास्त्रियों, व्यावसायिक सलाहकारों, कार्यपालकों आदि के उद्धरण मिलेंगे; यह ज्ञान बघारने या बोझ से मारने के लिए नहीं।
बात को स्पष्ट करने और प्रामाणिक बनाने के लिए है।
अशोक महेश्वरी जी ने जब मुझे पत्र लिखकर सूचित किया कि वे ‘कारोबार’ में मेरे लेख नियमित रूप से पढ़ रहे हैं और उनसे उन्हें भी बहुत लाभ पहुँचा है, तो मेरे उत्साह की कोई सीमा न रही। अब वे उन्हें पुस्तक-रूप में छापने का दायित्व भी उठा रहे हैं। हरीश आनन्द जी ने भी अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव देकर मेरी सहायता की है। उनके द्वारा सुनाया गया किस्सा मुझे अब तक याद है और वह यह कि एक व्यक्ति ने अपने हाथों में पकड़े एक पक्षी को पीठ पीछे ले जाते हुए अपने मित्र से पूछा—बताओ, यह पक्षी मरा हुआ है या जिंदा ? मित्र ने झट से कहा—ऑप्शन तुम्हारे पास है, क्योंकि अगर मैं कहूँगा कि जिंदा है, तो तुम पीछे ही इसकी गर्दन मरोड़कर मुझे दिखा सकते हो, और मैं कहूँ तो मरा हुआ है तो जिंदा तो तुम इसे दिखा ही दोगे। इसी की तर्ज पर मैं भी यही कहना चाहता हूं कि प्रबंधन एक ऐसी विद्या है, जिसके द्वारा हम अपने व्यक्तित्व, घर-परिवार, दफ्तर और कोराबार—सबकी काया पलट सकते हैं और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। हम ऐसा करें या नहीं, यह विकल्प हमारे अपने हाथ में है।
अंत में, जिस-जिससे भी मुझे अपने इस प्रयास में सहायता मिली, उन सबके प्रति मैं शायर के इन शब्दों में आभार व्यक्त करता हूँ :
एक विषय के रूप में प्रबंधन की ओर मेरा झुकाव रिज़र्व बैंक में अपनी कानपुर-पोस्टिंग के दौरान अपने कार्यालय-अध्यक्ष श्री केवल कृष्ण मुदगिल की प्रेरणा से हुआ। बाद में कानपुर से दिल्ली आने पर दिल्ली-कार्यालय के अध्यक्ष श्री सैय्यद मुहम्मद तक़ी हुसैनी ने मुझे नया कुछ करने की प्रेरणा दी, तो मेरा ध्यान प्रबंधन पर लिखने की तरफ ही गया। हिंदी में इस तरह के लेखन का नितांत अभाव था और ‘हिंदीवाला’ होने के नाते इस अभाव की पूर्ति करना अपना कर्तव्य भी समझता था। लिहाजा मुदगिल जी और हुसैनी साहब जैसे हितैषियों की प्रेरणा, अपने कर्तव्य-बोध और ‘कारोबार’ के प्रकाशन की शुरुआत—इन तीनों ने मुझे इस विषय पर लिखने की राह पर डाल दिया।
प्रबंधन मेरी नजर में आत्म-विकास की सतत प्रक्रिया है। अपने को व्यवस्थित-प्रबंधित किए बिना आदमी दूसरों को व्यवस्थित-प्रबंधित करने में सफल नहीं हो सकता, चाहे वे दूसरे लोग घर के सदस्य हों या दफ्तर या कारोबार के। इस प्रकार आत्म-विकास ही घर-दफ्तर, दोनों की उन्नति का मूल है। इस लिहाज से देखें तो प्रबंधन का ताल्लुक कंपनी-जगत के लोगों से ही नहीं, मनुष्य मात्र से है। वह इंसान को बेहतर इंसान बनाने की कला है, क्योंकि बेहतर इंसान की बेहतर कर्मचारी, अधिकारी, प्रबंधन या कारोबारी हो सकता है। प्रबंधन पर लिखते समय मेरे ध्यान में यह पूरा लक्ष्य-समूह रहता है और मैं अखबार से मिलने वाले फीडबैक तथा पाठकों से सीधे प्राप्त होने वाली प्रतिक्रियाओं के आधार पर कह सकता हूँ कि मैं प्रबंधन को हिंदीभाषी छात्रों, अध्यापकों, शोधार्थियों, कारोबारियों और कर्मचारियों-अधिकारियों-प्रबंधकों के बीच ही नहीं, इस विषय से सीधा संबंध न रखने वाले आम आदमी के बीच भी लोकप्रिय बनाने में कामयाब रहा हूँ।
इस व्यापक लक्ष्य-समूह को मद्देनजर रखते हुए और साथ ही प्रबंधन की विभिन्न अवधाराणाओं को समझने में हो सकने वाली गफलत की आशंका को दूर करने के उद्देश्य से भी, मैंने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी के शब्दों का भी बहुतायत से प्रयोग किया है और इसके लिए ‘यानी’ वाली शैली अपनाई है, जैसे अंतःक्रिया यानी इंटरएक्शन, प्रत्यायोजन यानी डेलीगेशन, कल्पना यानी विजन आदि। जहाँ हिन्दी के शब्द अप्रचलित और क्लिष्ट लगे। वहाँ मैंने केवल अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने से भी परहेज नहीं किया। शुद्धतावादी इससे कुछ परेशान हो सकते हैं, पर हिंदी को जीवन्त और रवाँ बनाए रखने के लिए यह जरूरी था। मैं शुद्धतावादियों का खयाल रखता या अपने पाठकों और अपनी हिंदी का ? शुद्धतावादियों की जानकारी के लिए बता दूँ कि खुद ‘हिंदी’ शब्द विदेशी है। और भी ऐसे अनेक शब्द जिनके बारे में सोच नहीं सकते कि वे हिंदी के नहीं होंगे, हिंदी के नहीं हैं। कागज कलम, पेन, कमीज, कुर्ता, पाजामा, पैंट, चाकू, कुर्सी, चाय मेज, बस, कार, रेल, रिक्शा, चेक ड्राफ्ट, कामरेड, दफ्तर, फाइल, बैंक आदि में से कोई अंग्रेजी का शब्द है, तो कोई अरबी, फारसी, तुर्की, रूसी, जापानी आदि में से किसी का। और ऐसे शब्दों की एक लम्बी सूची है। असल में यह हिंदी की ताकत है, कमजोरी नहीं।
लेखों में अनेक देशी-विदेशी प्रबंधन-गुरुओं, विद्वानों, शास्त्रियों, व्यावसायिक सलाहकारों, कार्यपालकों आदि के उद्धरण मिलेंगे; यह ज्ञान बघारने या बोझ से मारने के लिए नहीं।
बात को स्पष्ट करने और प्रामाणिक बनाने के लिए है।
अशोक महेश्वरी जी ने जब मुझे पत्र लिखकर सूचित किया कि वे ‘कारोबार’ में मेरे लेख नियमित रूप से पढ़ रहे हैं और उनसे उन्हें भी बहुत लाभ पहुँचा है, तो मेरे उत्साह की कोई सीमा न रही। अब वे उन्हें पुस्तक-रूप में छापने का दायित्व भी उठा रहे हैं। हरीश आनन्द जी ने भी अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव देकर मेरी सहायता की है। उनके द्वारा सुनाया गया किस्सा मुझे अब तक याद है और वह यह कि एक व्यक्ति ने अपने हाथों में पकड़े एक पक्षी को पीठ पीछे ले जाते हुए अपने मित्र से पूछा—बताओ, यह पक्षी मरा हुआ है या जिंदा ? मित्र ने झट से कहा—ऑप्शन तुम्हारे पास है, क्योंकि अगर मैं कहूँगा कि जिंदा है, तो तुम पीछे ही इसकी गर्दन मरोड़कर मुझे दिखा सकते हो, और मैं कहूँ तो मरा हुआ है तो जिंदा तो तुम इसे दिखा ही दोगे। इसी की तर्ज पर मैं भी यही कहना चाहता हूं कि प्रबंधन एक ऐसी विद्या है, जिसके द्वारा हम अपने व्यक्तित्व, घर-परिवार, दफ्तर और कोराबार—सबकी काया पलट सकते हैं और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। हम ऐसा करें या नहीं, यह विकल्प हमारे अपने हाथ में है।
अंत में, जिस-जिससे भी मुझे अपने इस प्रयास में सहायता मिली, उन सबके प्रति मैं शायर के इन शब्दों में आभार व्यक्त करता हूँ :
नशेमन पे मेरे एहसान सारे चमन का है,
कोई तिनका कहीं का है, कोई तिनका कहीं का है।
कोई तिनका कहीं का है, कोई तिनका कहीं का है।
-सुरेश कांत
अपनी क्षमताएँ पहचानिए
आपने उस छोटी चिड़िया की कहानी तो सुनी ही होगी, जो खुद को बदसूरत
मानते-मानते इस कदर आत्मविश्वासहीन हो गयी कि अपनी बोली भी भूल गयी। एक
दिन अचानक उसने साफ जल में खुद को देखा, तो महसूस किया कि वह अब छोटी
चिड़िया नहीं, बल्कि एक खूबसूरत हंस हो चुकी है। खुद को पहचान कर वह इतनी
खुश हुई कि उसके मुँह से उसकी स्वाभाविक बोली निकल पड़ी। और वह सिंह-शावक,
जो परिस्थितिवश भेड़ों के बीच पला-बढ़ा और खुद को भेड़ का मेमना ही समझने
लगा, उन्हीं की तरह व्यवहार करने लगा ! एक शेर ने जब उसे जबरन पकड़कर नदी
के पानी में उसके अपने रूप का दर्शन कराया, तब कहीं जाकर उसके मुँह से
मिमियाहट के बजाय दहाड़ निकली।
खुद को पहचानिए
कहीं आप तो अपने को उस चिड़िया की तरह नहीं समझते ? उस सिंह-शावक की तरह
अपने असली रूप को भुला तो नहीं बैठे ? अगर हाँ, तो अपने को पहचानने की
कोशिश करें। आपके भीतर भी कोई हंस, कोई सिंह छिपा है, जो बाहर आने को
बेताब है।
कई युवक ऐसे हैं, जो आत्महीनता के शिकार होकर अपना बहुमूल्य समय इसी चिंता में गँवा देते हैं कि वे समझदार नहीं हैं। अगर किसी परीक्षा में अपेक्षित अंक नहीं मिले, तो वे खुद को बेवकूफ मानकर कुंठित होना शुरू कर देते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि कोई पढ़ाई में अच्छा नहीं है, तो इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं कि वह किसी और क्षेत्र में सफल हो ही नहीं सकता। हो सकता है कि उसमें एक सफल राजनीतिज्ञ, व्यापारी, उद्यमी या सैनिक अधिकारी बनने की संभावनाएं छिपी हों ! आपको भी सिर्फ अपने अंदर छिपी संभावनाएँ पहचाननी हैं और फिर उसी क्षेत्र में कुशलता प्राप्त करनी है।
कई युवक ऐसे हैं, जो आत्महीनता के शिकार होकर अपना बहुमूल्य समय इसी चिंता में गँवा देते हैं कि वे समझदार नहीं हैं। अगर किसी परीक्षा में अपेक्षित अंक नहीं मिले, तो वे खुद को बेवकूफ मानकर कुंठित होना शुरू कर देते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि कोई पढ़ाई में अच्छा नहीं है, तो इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं कि वह किसी और क्षेत्र में सफल हो ही नहीं सकता। हो सकता है कि उसमें एक सफल राजनीतिज्ञ, व्यापारी, उद्यमी या सैनिक अधिकारी बनने की संभावनाएं छिपी हों ! आपको भी सिर्फ अपने अंदर छिपी संभावनाएँ पहचाननी हैं और फिर उसी क्षेत्र में कुशलता प्राप्त करनी है।
कार्य में कुशलता ही योग है
गीता में भी कहा गया है कि ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ यानी
अपने
क्षेत्र में कुशलता हासिल करना ही वास्तविक योग है। आपको एक किस्सा बताता
हूं। जब मैं दिल्ली में था, तो दफ्तर जाते समय एक मोची से अपने जूते पॉलिश
कराता था। निरीह सा दिखनेवाला वह मोची मुझसे पूछता, ‘के टेम
होया
हुजूर ?’
एक दिन मेरे साथ मेरे एक मित्र भी थे, जिन्होंने बातचीत के दौरान अपने जूतों की चरमराहट का जिक्र किया। यह सुनकर उस मोची ने उच्च गुणवत्ता के चमड़े और जूते बनाने की प्रक्रिया पर ऐसा भाषण दिया कि हम लोग दंग रह गये। बेचारगी टपकाते उस शख्स के अंदर भी कम से कम एक क्षेत्र में निपुणता का आत्मविश्वास था और फिर किसी भी समाज में एक मोची का भी उतना ही महत्त्व है, जितना एक लुहार का, प्रबंधक या दार्शनिक का। आपको यह कभी नहीं मानना चाहिए कि चूँकि आप किसी क्षेत्र-विशेष में नहीं हैं, इसलिए आप दूसरी श्रेणी के इनसान हैं। हाँ, यदि आपको कभी जूते बनाने का ही काम करना पड़े तो, कोशिश करें कि आपको सड़क के किनारे न बैठना पड़े। इसके लिए आपको सही तरीका भी ढूँढ़ना होगा। अपनी योजना किसी बैंक को सौंपे और यदि आपकी योजना सही हुई तो कोई वजह नहीं कि बैंक आपको अपनी इकाई शुरू करने के लिए ऋण न दे।
संस्कृत का एक श्लोक है :
एक दिन मेरे साथ मेरे एक मित्र भी थे, जिन्होंने बातचीत के दौरान अपने जूतों की चरमराहट का जिक्र किया। यह सुनकर उस मोची ने उच्च गुणवत्ता के चमड़े और जूते बनाने की प्रक्रिया पर ऐसा भाषण दिया कि हम लोग दंग रह गये। बेचारगी टपकाते उस शख्स के अंदर भी कम से कम एक क्षेत्र में निपुणता का आत्मविश्वास था और फिर किसी भी समाज में एक मोची का भी उतना ही महत्त्व है, जितना एक लुहार का, प्रबंधक या दार्शनिक का। आपको यह कभी नहीं मानना चाहिए कि चूँकि आप किसी क्षेत्र-विशेष में नहीं हैं, इसलिए आप दूसरी श्रेणी के इनसान हैं। हाँ, यदि आपको कभी जूते बनाने का ही काम करना पड़े तो, कोशिश करें कि आपको सड़क के किनारे न बैठना पड़े। इसके लिए आपको सही तरीका भी ढूँढ़ना होगा। अपनी योजना किसी बैंक को सौंपे और यदि आपकी योजना सही हुई तो कोई वजह नहीं कि बैंक आपको अपनी इकाई शुरू करने के लिए ऋण न दे।
संस्कृत का एक श्लोक है :
आमंत्रण अक्षरं नास्ति
नास्ति मूलं अनौषधम्
अयोग्य पुरुषो नास्ति
योजका तत्र दुर्लभः।
नास्ति मूलं अनौषधम्
अयोग्य पुरुषो नास्ति
योजका तत्र दुर्लभः।
अर्थात् वर्णमाला में ऐसा कोई अक्षर नहीं, जिसका उपयोग मंत्रोच्चारण में न
हो पाए, न ही कोई ऐसी जड़ी है, जिसमें औषध के गुण न हों। इसी तरह कोई
मनुष्य भी ऐसा नहीं हो सकता, जो अक्षम हो—सिर्फ एक आयोजक मिलना
मुश्किल होता है, जो अक्षर को मंत्र में प्रयुक्त कर ले, जड़ी को औषधि के
रूप में इस्तेमाल कर ले और व्यक्ति विशेष को उसकी क्षमताओं से परिचित करा
दे।
आज के युग में काम की असीम संभावनाएँ हैं, फिर भी युवा वर्ग हतोत्साहित नजर आता है। मैं एक ऐसे युवक को जानता हूँ, जिसे बारहवीं कक्षा में 82 फीसदी अंक लाने के बावजूद मेडिकल में प्रवेश नहीं मिल सका। वह इस कदर निराश हुआ कि उसने एक हफ्ते तक कुछ खाया-पिया नहीं और बस, अपने कमरे में बंद पड़ा रहा। लेकिन फिर वह अपनी निराशा से उबर गया और आज वह एक उद्योगपति है, जो डिस्पोजेबल सीरीज बनाता है। वह न सिर्फ खुश है, बल्कि उसकी आयु कई डॉक्टरों से ज्यादा है।
आज के युग में काम की असीम संभावनाएँ हैं, फिर भी युवा वर्ग हतोत्साहित नजर आता है। मैं एक ऐसे युवक को जानता हूँ, जिसे बारहवीं कक्षा में 82 फीसदी अंक लाने के बावजूद मेडिकल में प्रवेश नहीं मिल सका। वह इस कदर निराश हुआ कि उसने एक हफ्ते तक कुछ खाया-पिया नहीं और बस, अपने कमरे में बंद पड़ा रहा। लेकिन फिर वह अपनी निराशा से उबर गया और आज वह एक उद्योगपति है, जो डिस्पोजेबल सीरीज बनाता है। वह न सिर्फ खुश है, बल्कि उसकी आयु कई डॉक्टरों से ज्यादा है।
परीक्षाएँ व्यक्तित्व की जाँच नहीं कर पातीं
याद रखिए, परिक्षाएँ सिर्फ यह जाँच पाती हैं कि एक छात्र की याद रखने की
क्षमता कितनी है, वह पुस्तकों की सहायता के बिना प्रश्नपत्र में पूछे गये
कितने प्रश्नों के उत्तर दे सकता है। यह सही है कि परीक्षा में अंक
प्राप्त करने के लिए अच्छी याददाश्त का होना जरूरी है, पर यह कहना सही
नहीं है कि सिर्फ अच्छे अंक प्राप्त करनेवाला छात्र ही जिंदगी में सफल हो
सकता है।
थामस अल्वा एडीसन की विधिवत शिक्षा मात्र कुछ महीने ही हो पायी थी और शिक्षक उन्हें ‘कूढ़ मगज’ कहते थे। अल्बर्ट आइंस्टीन दसवीं कक्षा की समकक्ष एक परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गये थे।
येल्लप्रगदा सुब्बाराव भी दसवीं की परीक्षा में दो बार अनुत्तीर्ण हुए थे। इसी बीच उनके पिता की मृत्यु हो गयी। उनकी माता ने उनके हाथ में कुछ पैसे रखते हुए कहा था, ‘सुब्बू’ यह राजमुंदरी जाने का किराया है और परीक्षा की फीस है।’ सुब्बाराव की परीक्षा का केंद्र राजमुंदरी था। आश्चर्य में डूबकर सुब्बाराव ने पूछा कि आखिर ये पैसे आए कहाँ से ? मैंने अपने गहने बेच दिये,’ माँ का जवाब था।
सुब्बाराव आज तक यही समझते आये थे कि उनकी माँ उनके साथ कठोर बर्ताव करती है। जिंदगी में पहली बार उन्होंने माँ का प्यार महसूस किया था। अब वे सिर्फ अपनी माँ की खुशी के लिए उत्तीर्ण होना चाहते थे। तीसरी कोशिश में वे सफल हो भी गये, पर फिर इंटर तक पहुंचते-पहुंचते वे इतनी गरीबी देख चुके कि उन्होंने रामकृष्ण मिशन जाकर संन्यास लेने की मंशा जाहिर की। वहाँ उन्हें लोगों का कष्ट दूर करने के लिए चिकित्सा की पढ़ाई करने का सुझाव दिया गया, जो उन्हें पसन्द आया, परंतु बदकिस्मती से अंतिम परीक्षा में उन्हें शल्य-विज्ञान में अपेक्षित अंक नहीं मिले और एमबीबीएस की डिग्री की जगह उन्हें एलएमएस का प्रमाणपत्र दिया गया। इस बीच उनके भाई की भी ‘ट्रॉपिकल स्प्रू’ नामक बीमारी से मृत्यु हो गयी।
थामस अल्वा एडीसन की विधिवत शिक्षा मात्र कुछ महीने ही हो पायी थी और शिक्षक उन्हें ‘कूढ़ मगज’ कहते थे। अल्बर्ट आइंस्टीन दसवीं कक्षा की समकक्ष एक परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गये थे।
येल्लप्रगदा सुब्बाराव भी दसवीं की परीक्षा में दो बार अनुत्तीर्ण हुए थे। इसी बीच उनके पिता की मृत्यु हो गयी। उनकी माता ने उनके हाथ में कुछ पैसे रखते हुए कहा था, ‘सुब्बू’ यह राजमुंदरी जाने का किराया है और परीक्षा की फीस है।’ सुब्बाराव की परीक्षा का केंद्र राजमुंदरी था। आश्चर्य में डूबकर सुब्बाराव ने पूछा कि आखिर ये पैसे आए कहाँ से ? मैंने अपने गहने बेच दिये,’ माँ का जवाब था।
सुब्बाराव आज तक यही समझते आये थे कि उनकी माँ उनके साथ कठोर बर्ताव करती है। जिंदगी में पहली बार उन्होंने माँ का प्यार महसूस किया था। अब वे सिर्फ अपनी माँ की खुशी के लिए उत्तीर्ण होना चाहते थे। तीसरी कोशिश में वे सफल हो भी गये, पर फिर इंटर तक पहुंचते-पहुंचते वे इतनी गरीबी देख चुके कि उन्होंने रामकृष्ण मिशन जाकर संन्यास लेने की मंशा जाहिर की। वहाँ उन्हें लोगों का कष्ट दूर करने के लिए चिकित्सा की पढ़ाई करने का सुझाव दिया गया, जो उन्हें पसन्द आया, परंतु बदकिस्मती से अंतिम परीक्षा में उन्हें शल्य-विज्ञान में अपेक्षित अंक नहीं मिले और एमबीबीएस की डिग्री की जगह उन्हें एलएमएस का प्रमाणपत्र दिया गया। इस बीच उनके भाई की भी ‘ट्रॉपिकल स्प्रू’ नामक बीमारी से मृत्यु हो गयी।
जो चल पड़ा, सो पहुँच गया
भाई की मृत्यु से वे इतने विचलित हो गये कि उन्होंने इसका इलाज ढूँढ़ने के
लिए कमर कस ली। वर्षों तक अमेरिका में अध्ययन, अनुसंधान करते-करते आखिरकार
उन्होंने इसकी दवा ढूँढ़ ही ली। बाद में सुब्बाराव लेडरले लेबोरेटरीज के
अनुसंधान निदेशक बने। ये सारे उदाहरण क्या दर्शाते हैं ? यही कि एक लक्ष्य
को सामने रखकर काम करने वाला व्यक्ति किस तरह अपनी धुन में चलता हुआ
आखिरकार मंजिल तक पहुँच ही जाता है।
पर हाँ, ऐसा लक्ष्य निर्धारित करने की भूल न करें, जिसे पाना असंभव हो। मसलन, यदि कोई चिड़िया की तरह उड़ने का लक्ष्य निर्धारित कर ले, तो तय है कि वह औंधें मुँह जमीन पर आकर गिरेगा। इसलिए जब लक्ष्य निर्धारित करें तो, पूरी ईमानदारी से खुद से पूछें, ‘क्या मैं अपने लक्ष्य में सफल हो सकता हूँ ?’ यदि जवाब सकारात्मक हो तो फिर देखें कि सफलता पाने के लिए आपकी तैयारी क्या है। ऐसा न हो कि आपने लक्ष्य तो निर्धारित कर लिया, उसे पाने में आप सक्षम भी हैं, पर उसे पाने की दिशा में आपका प्रयास अधूरा रह जाए। यदि प्रयास में कमी है तो इसका साफ मतलब है कि आपकी अपने लक्ष्य में पूरी रुचि नहीं है। वरना कहने को तो छः साल का बच्चा भी कह देता है कि ‘मैं पापा की तरह डॉक्टर बनूँगा’, या ‘चाचा की तरह इंजीनियर बनूँगा।’
जब न्यूटन से पूछा गया कि गुरुत्वाकर्षण के नियम के आविष्कार में उन्हें सफलता कैसे मिली, तो उनका जवाब था, ‘‘मैं हमेशा इसके बारे में ही सोचता था।’
तो फिर तय किया कि आपकी जिंदगी का लक्ष्य क्या होना चाहिए ?
पर हाँ, ऐसा लक्ष्य निर्धारित करने की भूल न करें, जिसे पाना असंभव हो। मसलन, यदि कोई चिड़िया की तरह उड़ने का लक्ष्य निर्धारित कर ले, तो तय है कि वह औंधें मुँह जमीन पर आकर गिरेगा। इसलिए जब लक्ष्य निर्धारित करें तो, पूरी ईमानदारी से खुद से पूछें, ‘क्या मैं अपने लक्ष्य में सफल हो सकता हूँ ?’ यदि जवाब सकारात्मक हो तो फिर देखें कि सफलता पाने के लिए आपकी तैयारी क्या है। ऐसा न हो कि आपने लक्ष्य तो निर्धारित कर लिया, उसे पाने में आप सक्षम भी हैं, पर उसे पाने की दिशा में आपका प्रयास अधूरा रह जाए। यदि प्रयास में कमी है तो इसका साफ मतलब है कि आपकी अपने लक्ष्य में पूरी रुचि नहीं है। वरना कहने को तो छः साल का बच्चा भी कह देता है कि ‘मैं पापा की तरह डॉक्टर बनूँगा’, या ‘चाचा की तरह इंजीनियर बनूँगा।’
जब न्यूटन से पूछा गया कि गुरुत्वाकर्षण के नियम के आविष्कार में उन्हें सफलता कैसे मिली, तो उनका जवाब था, ‘‘मैं हमेशा इसके बारे में ही सोचता था।’
तो फिर तय किया कि आपकी जिंदगी का लक्ष्य क्या होना चाहिए ?
भाग्यशाली बनने के लिए भाग्य के भरोसे न बैठें
पिछले बीस वर्षों से मैंने सैकड़ों स्त्री-पुरुषों से यह बात पूछी होगी कि
भाग्यवान लोग आखिर ऐसा क्या करते हैं, जो अभागे नहीं कर पाते ? उनके
जवाबों से मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि पाँच बातें ऐसी हैं, जो
भाग्यवानों और अभागों में अंतर कर देती हैं। लोग उन बातों को अपनी
रोजमर्रा की जिंदगी में उतार लें तो उनकी किस्मत बदल जाए। ये पाँच बातें
इस प्रकार हैं।
दोस्ती का दायरा बढ़ाइए
आम तौर पर भाग्यशाली लोग वही होते हैं, जिनके बहुत सारे दोस्त हों और
जिनकी अच्छी-खासी जान-पहचान हो। ऐसे लोग बहुत मिलनसार होते हैं। दोस्ती
बनाने और बढ़ाने के लिए तकलीफ उठाने में उन्हें हिचक नहीं होती। वे
अपरिचितों से भी बात कर लेते हैं : सब के साथ हिल-मिल जाना, हँसी-खुशी में
शामिल हो जाना, स्वागत-सत्कार करना उनके सहज गुण होते हैं।
पेंसिलवानिया के मनोचिकित्सक डॉ. स्टीफन बारट की स्पष्ट धारणा है कि भाग्यवान लोग खुद तो दोस्त बनाना-बढ़ाना जानते ही हैं, उनमें यह आकर्षण होता है कि दूसरे खुद-ब-खुद उनसे दोस्ती करने चले आएँ। बारट ने इस गुण को ‘संवाद-क्षेत्र’ नाम दिया है। उनका विश्वास है कि चेहरे के हाव-भाव, आवाज का उतार-चढ़ाव, शब्दों का चुनाव, आँखों की भाषा, अंगों का संचालन आदि सभी कुछ मिलकर इस संवाद-क्षेत्र का निर्माण करते हैं और इन गुणों से सम्पन्न लोग दूसरों की नजर में आसानी से आ जाते हैं। आपकी दोस्ती का दायरा जितना विस्तृत होगा, जिंदगी में स्वर्णिम अवसर हाथ लगने की उतनी ही संभावना रहेगी।
पेंसिलवानिया के मनोचिकित्सक डॉ. स्टीफन बारट की स्पष्ट धारणा है कि भाग्यवान लोग खुद तो दोस्त बनाना-बढ़ाना जानते ही हैं, उनमें यह आकर्षण होता है कि दूसरे खुद-ब-खुद उनसे दोस्ती करने चले आएँ। बारट ने इस गुण को ‘संवाद-क्षेत्र’ नाम दिया है। उनका विश्वास है कि चेहरे के हाव-भाव, आवाज का उतार-चढ़ाव, शब्दों का चुनाव, आँखों की भाषा, अंगों का संचालन आदि सभी कुछ मिलकर इस संवाद-क्षेत्र का निर्माण करते हैं और इन गुणों से सम्पन्न लोग दूसरों की नजर में आसानी से आ जाते हैं। आपकी दोस्ती का दायरा जितना विस्तृत होगा, जिंदगी में स्वर्णिम अवसर हाथ लगने की उतनी ही संभावना रहेगी।
अंतःप्रेरणाओं पर उचित ध्यान दीजिए
आपके मन में अंतःप्रेरणा बेवजह नहीं आतीं। ये मानसिक स्फूर्तियाँ किन्हीं
तथ्यों के आधार पर बनती हैं, जिन्हें आपके मस्तिष्क ने सही ढंग से देखा,
परखा और गुना है और तभी कोई राय कामय की है। इन तथ्यों की ओर आपका ध्यान
प्रकटतः नहीं गया होता है। आपके अवचेतन ने उन्हें देखा, सुना और समझा होता
है।
विश्व के होटल-व्यवसाय का एक दिग्गज नाम है कॉनराड हिलटन। उनकी ऐतिहासिक सफलता का बहुत-कुछ श्रेय उनकी सुदृढ़ अंतःप्रेरणाओं को दिया जा सकता है। एक बार वह शिकागो में एक पुराना होटल खरीदना चाहते थे। होटल के मालिक का कहना था कि जो भी खरीददार सबसे ऊँचे दाम का टेंडर देगा, वह उसी को होटल बेच देगा। सभी ने अपने प्रस्ताव सीलबंद लिफाफों में प्रस्तुत किये। एक निश्चित तिथि को उन्हें खोला जाना था।
हिलटन ने अपने प्रस्ताव में होटल का दाम 1,65,000 डॉलर लगाया था, लेकिन उस रात वह ठीक से सो नहीं सके। बार-बार उन्हें यही लगता रहा कि उन्होंने कोई गलती कर दी है और टेंडर उनके नाम नहीं खुलेगा। बाद में उन्होंने बताया भी, ‘मुझे कुछ जम नहीं रहा था।’ अपनी इस अंतःप्रेरणा के भरोसे उन्होंने दूसरा प्रस्ताव भेजा। इसमें उन्होंने होटल का मूल्य लगाया था 1,80,000 डॉलर। निश्चित तिथि को सभी प्रस्ताव खोले गये। हिलटन का प्रस्ताव सबसे ऊँचा था। होटल उन्हें मिल गया। दूसरे नंबर के खरीददार का प्रस्ताव 1,79,000 डॉलर का या, यानी सिर्फ 1,000 डॉलर कम।
हिलटन की पुरानी धारणा क्यों बदली और कैसे उन्हें नयी का ध्यान आया, इसकी कोई प्रत्यक्ष वजह नहीं हो सकती, लेकिन यह विचार यों ही आ गया हो, ऐसा भी नहीं। मन की परतों में कहीं अनुभवों का खजाना अपना काम करता चल रहा था। अपनी युवावस्था में उन्होंने टेक्सास में पहला होटल खरीदा था, तब से होटल-व्यवसाय संबंधी उनका ज्ञान निरंतर बढ़ रहा था। यही वजह थी कि शिकागोवाले होटल की कीमत लगाते वक्त उनके मन में अपने प्रतिद्वंदियों का ध्यान रहा होगा। कई तरह के तथ्य, जो दिमाग के कोने में पड़े थे, एक जगह आकर जमा हो गये होंगे। दिमाग के अंदर ही अंदर अप्रकट रूप से कम्प्यूटर चलने लगा होगा। इसी अप्रत्यक्ष कम्प्यूटर ने चेतन मस्तिष्क को नतीजा निकालकर दे दिया होगा, ‘‘सावधान ! तुम्हारे अनुमान में बड़ी गलती बाकी रह गयी।’ उन्होंने इस चेतावनी से लाभ उठाया और सभी जानते हैं कि उनका निर्णय कितना सही साबित हुआ।
विश्व के होटल-व्यवसाय का एक दिग्गज नाम है कॉनराड हिलटन। उनकी ऐतिहासिक सफलता का बहुत-कुछ श्रेय उनकी सुदृढ़ अंतःप्रेरणाओं को दिया जा सकता है। एक बार वह शिकागो में एक पुराना होटल खरीदना चाहते थे। होटल के मालिक का कहना था कि जो भी खरीददार सबसे ऊँचे दाम का टेंडर देगा, वह उसी को होटल बेच देगा। सभी ने अपने प्रस्ताव सीलबंद लिफाफों में प्रस्तुत किये। एक निश्चित तिथि को उन्हें खोला जाना था।
हिलटन ने अपने प्रस्ताव में होटल का दाम 1,65,000 डॉलर लगाया था, लेकिन उस रात वह ठीक से सो नहीं सके। बार-बार उन्हें यही लगता रहा कि उन्होंने कोई गलती कर दी है और टेंडर उनके नाम नहीं खुलेगा। बाद में उन्होंने बताया भी, ‘मुझे कुछ जम नहीं रहा था।’ अपनी इस अंतःप्रेरणा के भरोसे उन्होंने दूसरा प्रस्ताव भेजा। इसमें उन्होंने होटल का मूल्य लगाया था 1,80,000 डॉलर। निश्चित तिथि को सभी प्रस्ताव खोले गये। हिलटन का प्रस्ताव सबसे ऊँचा था। होटल उन्हें मिल गया। दूसरे नंबर के खरीददार का प्रस्ताव 1,79,000 डॉलर का या, यानी सिर्फ 1,000 डॉलर कम।
हिलटन की पुरानी धारणा क्यों बदली और कैसे उन्हें नयी का ध्यान आया, इसकी कोई प्रत्यक्ष वजह नहीं हो सकती, लेकिन यह विचार यों ही आ गया हो, ऐसा भी नहीं। मन की परतों में कहीं अनुभवों का खजाना अपना काम करता चल रहा था। अपनी युवावस्था में उन्होंने टेक्सास में पहला होटल खरीदा था, तब से होटल-व्यवसाय संबंधी उनका ज्ञान निरंतर बढ़ रहा था। यही वजह थी कि शिकागोवाले होटल की कीमत लगाते वक्त उनके मन में अपने प्रतिद्वंदियों का ध्यान रहा होगा। कई तरह के तथ्य, जो दिमाग के कोने में पड़े थे, एक जगह आकर जमा हो गये होंगे। दिमाग के अंदर ही अंदर अप्रकट रूप से कम्प्यूटर चलने लगा होगा। इसी अप्रत्यक्ष कम्प्यूटर ने चेतन मस्तिष्क को नतीजा निकालकर दे दिया होगा, ‘‘सावधान ! तुम्हारे अनुमान में बड़ी गलती बाकी रह गयी।’ उन्होंने इस चेतावनी से लाभ उठाया और सभी जानते हैं कि उनका निर्णय कितना सही साबित हुआ।
दिलेर बनिए
भाग्यवान लोग दिलेर होते हैं। अपवाद की बात अगर छोड़ दें तो डरपोकों में
शायद ही कोई भाग्यशाली मिले। संभवतः सौभाग्य के साथ साहस भी स्वतः आ जाता
है, लेकिन साहस सौभाग्य की राह सहज ही खोल सकता है, इसमें संदेह नहीं।
कहावत है कि ‘लीक छोड़ तीनों चले—शायर, सिंह, सपूत’। बंधी-बंधाई लीक छोड़कर नये रास्ते में अपनाने से झिझकिए मत। कभी कोई सुअवसर हाथ आता लगे तो हिम्मत के साथ उसे स्वीकार कीजिए। लेकिन ध्यान रखिए, दिलेरी और दुस्साहस में अंतर है। किसी ऐसी योजना पर अपना सर्वस्व लगा देना, जो भव्य नजर आती हो, पर जिसमें सब कुछ खत्म हो जाने का खतरा भी बना रहे, अविवेक है हठ है। इसके विपरीत आपको किसी महत्त्वपूर्ण पद पर काम मिल रहा है जिससे आप अपरिचित हैं और आप भी उसे स्वीकार करने का साहस करते हैं, तो यह दिलेरी है।
कहावत है कि ‘लीक छोड़ तीनों चले—शायर, सिंह, सपूत’। बंधी-बंधाई लीक छोड़कर नये रास्ते में अपनाने से झिझकिए मत। कभी कोई सुअवसर हाथ आता लगे तो हिम्मत के साथ उसे स्वीकार कीजिए। लेकिन ध्यान रखिए, दिलेरी और दुस्साहस में अंतर है। किसी ऐसी योजना पर अपना सर्वस्व लगा देना, जो भव्य नजर आती हो, पर जिसमें सब कुछ खत्म हो जाने का खतरा भी बना रहे, अविवेक है हठ है। इसके विपरीत आपको किसी महत्त्वपूर्ण पद पर काम मिल रहा है जिससे आप अपरिचित हैं और आप भी उसे स्वीकार करने का साहस करते हैं, तो यह दिलेरी है।
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