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आधे अधूरे (सजिल्द)

मोहन राकेश

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2771
आईएसबीएन :9788171199051

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स्त्री-पुरुष के बीच के लगाव और तनाव का दस्तावेज.....

Aadhe Adhoore -A Hindi Book by Mohan Rakesh - आधे अधूरे - मोहन राकेश

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आधे-अधूरे आज के जीवन के एक गहन अनुभव खण्ड को मूर्त करता है। इसके लिए हिन्दी के जीवन्त मुहावरे को पकड़ने की सार्थक प्रभावशाली कोशिश की गयी है।...इस नाटक की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विशेषता इसकी भाषा है। इसमें वह सामर्थ्य है जो समकालीन जीवन के तनाव को पकड़ सके। शब्दों का चयन उनका क्रम उनका संयोजन सब कुछ ऐसा है, जो बहुत सम्पूर्णता से अभिप्रेत को अभिव्यक्त करता है। लिखित शब्द की यह शक्ति और उच्चारित ध्वनिसमूह का यही बल है जिसके कारण, यह नाट्य रचना बन्द और खुले दोनों प्रकार के मंचों पर अपना सम्मोहन बनाये रख सकी।

यह नाट्यालेख एक स्तर पर स्त्री-पुरुष के लगाव और तनाव का दस्तावेज़ है। दूसरे स्तर पर पारिवारिक विघटन की गाथा है। एक अन्य स्तर पर यह नाट्य रचना मानवीय सन्तोष के अधूरेपन का रेखांकन है। जो लोग जिन्दगी से बहुत कुछ चाहते हैं, उनकी तृप्ति अधूरी रहती है।

एक ही अभिनेता द्वारा पाँच पृथक भूमिका निभाये जाने की दिलचस्प रंग-युक्ति का सहारा इस नाटक की एक और विशेषता है।
संक्षेप में कहें तो आधे अधूरे समकालीन ज़िन्दगी का पहला सार्थक हिन्दी नाटक है। इसका गठन सुदृढ़ एवं रंगोपयुक्त है। पूरे नाटक की अवधारणा के पीछे सूक्ष्म रंगचेतना निहित है।


 

‘आधे-अधूरे’ का पहला मंचन दिल्ली में ‘दिशान्तर’ द्वारा श्री ओम शिवपुरी के निर्देशन में फरवरी, 1969 में हुआ। निम्नलिखित कलाकारों ने निम्न पात्रों की भूमिका निभाई :

 

काले सूट वाला आदमी : ओम शिवपुरी
स्त्री : सुधा शिवपुरी
पुरुष-एक : ओम शिवपुरी
बड़ी-लड़की : अनुराधा कपूर
छोटी लड़की : ऋचा व्यास
लड़का : दिनेश ठाकुर
पुरुष-दो : ओम शिवपुरी
पुरुष-तीन : ओम शिवपुरी
पुरुष-चार : ओम शिवपुरी

 

‘भूमिका’ के बहाने.....

 

मोहन राकेश का नाटक ‘आधे-अधूरे’ पहले पहल 19 एवं 26 जनवरी तथा 2 फरवरी, 1969 के तीन अंकों में ‘धर्मयुग’ में क्रमशः छपा और 2 मार्च, 1969 को दिल्ली की नाट्य-संस्था ‘दिशान्तर’ ने इसे ओम शिवपुरी के निर्देशन में अभिमंचित भी कर दिया। नाटक ने तीखी और व्यापक प्रतिक्रिया पैदा की। हिन्दी के नाट्य समीक्षकों और पत्रकारों को यह ऐसा सतही एवं खोखला नाटक लगा जो अपनी व्यावसायिकता को क्रान्तिकारी लिबास में छिपाने की कोशिश करता है। कथानक की घटनाहीनता, प्रस्तावना की निरर्थकता, अनुभव-क्षेत्र की संकीर्णता, एक है अभिनेता द्वारा पाँच भूमिकाएँ निभाने को चौंकाने वाली फिज़ूल रंग-युक्ति, चरित्रों के इकहरेपन, संघर्ष के आभाव, भविष्यहीन नियतिवाद और आयातित जीवन-दृष्टि पर आधारित एक अतिनाटकीय सृष्टि जैसे अनेक आरोप लगाकर इस नाटक को साधारण और महत्त्वहीन सिद्ध करने के भरपूर प्रयत्न किए गए। इसे अनीता राकेश की किसी पूर्व प्रकाशित कहानी का नाट्य-रूपान्तर तक कहकर इसकी मौलिकता एवं रचनात्मकता को भी नकारने की कोशिश हुई।

परन्तु आज पैंतीस, वर्ष बाद पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि समय से अधिक ईमानदार, सच्चा और निर्मम मूल्यांकनकर्ता एवं निर्णायक कोई नहीं होता। और यह राकेश और उनके मित्रों की सम्पर्क-शक्ति का परिणाम कतई नहीं है कि तब से अब तक लगातार ‘आधे-अधूरे’ आधुनिक हिन्दी/भारतीय रंग-परिदृश्य का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, लोकप्रिय और समय-सिद्ध सार्थक नाटक माना जाता है। यह हिन्दी का पहला प्रमुख नाटक है जो विवाह-संस्था को एक स्थिर-स्थायी व्यवस्था और घर को एक सुखी परिवार के रूप में स्थापित करनेवाले सदियों पुराने मिथक को तोड़ने का प्रयास करता है।

इस बीच ‘आधे-अधूरे’ ने एक सन्दर्भ-रचना का स्तर प्राप्त कर लिया और राकेश के समकालीन और बाद की पीढ़ी का शायद ही कोई उल्लेखनीय नाटककार हो जिसने इसे एक प्रेरणा-स्रोत या रचनात्मक चुनौती के रूप में स्वीकार न किया हो। सम्भवतः ‘अन्धायुग’ के अलावा ‘आधे-अधूरे’ ही हिन्दी का एक मात्र ऐसा नाटक है जिसने अखिल भारतीय स्तर पर कल्पनाशील निर्देशकों, प्रतिभावान अभिनेताओं, कुशल पार्श्वकर्मियों और प्रबुद्ध प्रेक्षकों-पाठकों को सर्वाधिक आकर्षित और प्रभावित किया है। समय ने ‘आधे-अधूरे’ के बारे में उस वक्त व्यक्त की गईं सभी आशंकाओं और आपत्तियों को निराधार सिद्ध कर दिया है। इस सन्दर्भ में आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि इस नाटक में प्रस्तुत अनुभव की प्रामाणिकता, मनःस्थितियों की सघन विस्फोटकता, भाषा की जीवन्तता, परिवेश की विश्वसनीयता तथा कथ्य और शिल्प की अन्वितिपरक एकाग्रता के प्रति रंगकर्मियों एवं नाट्य-प्रेमियों की ग्रहणशीलता लगातार बढ़ती ही गई है।

‘आधे-अधूरे’ सिर्फ़ एक नाटक ही नहीं है। यह हमारे समाज, परिवार, व्यक्ति और उनके पारस्परिक सम्बन्धों में आए और लगातार आ रहे बदलाव का गम्भीर समाजशास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी है। इक्कीसवीं शताब्दी के आरम्भ में परिवार और विवाह जैसी समय-सिद्ध संस्थाओं के विघटन, मानवीय मूल्यों के पतन तथा सर्वग्रासी महत्वाकांक्षा की अन्धी दौड़ से उपजी जिन अर्थ एवं कामज विकृतियों को आज हम सर्वत्र सार्वजनिक तांडव करते देख रहे हैं। ये भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद और पश्चिमी संस्कृति एवं मीडिया के अदम्य आक्रमण के कारण तेज़ी से उफ़नी ज़रूर हैं, लेकिन अचानक पैदा नहीं हो गई हैं। इनके बीज तो स्वतन्त्रता और विभाजन के बाद हुए मोहभंग के साथ ही हमारी धरती में पड़ गए थे। साठ के दशक से इनका अंकुरना शुरु हुआ। सत्तर के दशक में ये हमारे जीवन और समाज में कुनमुनाने–कसमसाने लगे थे। पहले-पहल इन परिवर्तनों की दबी-घुटी स्पष्ट अभिव्यक्ति महानगर के उच्चमध्यवर्गीय परिवारों में हुई। भीतर ही भीतर इनका क्रमिक विकास और विस्तार होता रहा। बस, परिवेश और परिस्थितियों की अनुकूलता पाकर आज इनका व्यापक विस्फोट हो गया है।

अगर हम गहराई और बारीकी से सातवें दशक का गम्भीर अध्ययन करें तो पाएँगे कि पारम्परिक मूल्यों, मर्यादाओं और सम्बन्धों से बदलते समय का सतत संघर्ष तब भी जारी था। परन्तु हम अपनी सभ्यता, संस्कृति और आदर्शवादिता के चलते उस बदलती वास्तविकता को देखने-मानने में असमर्थ थे। ऐसे में मोहन राकेश के अतिसंवेदनशील मन के राडार ने भारतीय मध्यम वर्गीय जीवन एवं परिवेश तथा पारिवारिक (विशेषतः स्त्री-पुरुष) सम्बन्धों में उथल-पुथल करती समय की दबी-छुपी कारगुज़ारियों को साफ़तौर से पहचान लिया था। यही कारण है कि उस समय जिन लोगों को ‘आधे-अधूरे’ का कथ्य कुछ अविश्वसनीय और आयातित-सा लगता था, आज वे उसे एकदम स्वाभाविक और सच्चा मानकर सहज स्वीकार लेते हैं। तब इसे एक ख़ास घर की कहानी मानने वालों को अब यह नाटक घर-घर की कहानी लगने लगा है। तब का चौंकाने वाला दृश्य आज का सामान्य यथार्थ बन गया है। इस नाटक की सर्वग्राह्यता और समकालीनता का यही रहस्य है।

राकेश के नाटकों के बारे में यह एक दिलचस्प तथ्य है कि ‘लहरों के राजहंस’ को वह पहले से लिख रहे थे, किन्तु ‘अषाढ़ का एक दिन’ बीच में आया और उससे पहले पूरा हो गया। इसी तरह, ‘‘पैर तले की ज़मीन’ के कई शीर्षकों, चरित्रों, दृश्यों के विभाजन तथा कुछेक प्रसंगों के आरम्भिक नोट्स राकेश ने अपनी एक डायरी में 26 जुलाई, 1994 को ही लिख लिए थे। इसके बारे में वह सोच-विचार कर ही रहे थे कि ‘आधे-अधूरे’ बीच में आ गया और लम्बे रचनाकाल के बावजूद ‘पैर तले की ज़मीन’ से पहले पूरा हो गया।

‘आधे-अधूरे’ नामक अपने इस ‘नए-नाटक’ के लेखन के दौरान राकेश ने सुप्रसिद्ध अभिनेता-निर्देशक और मित्र श्यामानन्द जालान से कई बार बातचीत की। कलकत्ता में 3 जुलाई, 1966; दिल्ली में 20 अक्टूबर, 1967 तथा 22 अक्टूबर, 1967 की बातचीतों का तो लिखित उल्लेख स्वयं राकेश ने अपनी डायरी में ही किया है। बहुतों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि हिन्दी नाट्य-भाषा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देनेवाले मोहन राकेश भी, अपने समकालीन कुछ बड़े लेखकों की तरह, अपनी कई रचनाओं का आरम्भिक काम अंग्रेजी में करते थे। उनकी हाल ही में उपलब्ध मार्च, 1968 की एक डायरी न केवल इस तथ्य का प्रमाण प्रस्तुत करती है बल्कि ‘आधे-अधूरे’ की रचना प्रक्रिया पर भी प्रकाश डालती है। इसके 116 पृष्ठों पर राकेश के अंग्रेज़ी हस्तलेख में ‘आधे-अधूरे’ के विस्तृत नोट्स, चरित्रों के नाम, रूपरेखा, कथा-क्रम, संवाद, फ़ेड-आउट और फ़ेड-इन के साथ पात्रों के सुचिन्तित प्रवेश-प्रस्थान भी दर्ज किए गए हैं। इसमें इस नाटक के छह प्रारूप लिखे गए हैं।

 इनसे दो नई बातें सामने आती हैं। एक तो ये कि अन्तिम प्रारूप तैयार होने से पहले तक इस नाटक का नाम ‘आधे और अधूरे’ था। दूसरी बात यह कि प्रस्तावना के लिए भारतीय नाटकों के परम्परागत पात्र सूत्रधार के लिए नाटककार ने पहले ‘वह कोई एक’ नामक चरित्र के बारे में सोचा था और जल्दी ही उस सोच को ख़ारिज भी कर दिया था। राकेश को दरअसल सूत्राधारनुमा एक ऐसे आधुनिक चरित्र की ज़रूरत थी जो नाटक के शेष पुरुष पात्रों के ऊपर में भी पहचाना जा सके। अर्थात् जो पाँचों पुरुष भूमिकाएँ अभिनीत करे। पहले प्रारूप के बाद ही राकेश ने इसे ‘काले सूटवाला आदमी’ के रूप में लगभग निश्चित कर लिया था। आरम्भिक प्रारूप में सबकी उम्र के उल्लेख के साथ स्त्री का नाम रंजना सचदेव, पुरुष का बालकृष्ण सचदेव और बच्चों के नाम अशोक सचदेव, बीना सचदेव तथा कल्पना सचदेव दिए गए हैं। फिर बीना और कल्पना के नाम के साथ लगे ‘सचदेव’ को काट दिया गया है। एक पात्र मनमोहन गुलाटी को काटकर मनोज गुलाटी किया गया है। शेष पात्रों में चन्द्रकान्त जुनेजा, जगहमोहन कपूर तथा हरीश महेन्द्र के नाम लिखे गए हैं। आगे चलकर ‘काले सूटवाला’, उसकी पत्नी, उसका लड़का, उसकी बड़ी लड़की और उसकी छोटी लड़की—नामक केवल पाँच पात्रों को ही रखा गया है। लेकिन पाँचवें प्रारूप में मंच-सज्जा के जो रेखाचित्र के साथ पात्र-परिचय में काले सूटवाला, पुरुष-I, पुरुष-II, पुरुष-III, पुरुष-VI,  स्त्री, बड़ी लड़की, छोटी लड़की और लड़के का उनकी वेशभूषा के साथ उल्लेख किया गया है। सम्भव है इन नामों वाले व्यक्ति कभी राकेश के परिचय-क्षेत्र में आए हों और उनकी जानी-पहचानी ठोस विशेषताओं के आधार पर उन्होंने इन चरित्रों की परिकल्पना की हो।


बाद में कथ्य को विस्तृत एवं व्यापक बनाने के लिए शायद इन अनुभवगत मूर्त व्यक्ति-चरित्रों को अमूर्त जाति-वाचक पात्र में बदल दिया गया हो। यहाँ आकर शीर्षक को लेकर संशय फिर उभरा है और दो स्थानों पर अलग-अलग ढंग से ‘आधे-अधूरे’ लिखकर देखा गया है। अंग्रेजी में लिखे छठे और मोटे तौर पर अन्तिम प्रारूप को कुल बीस सीक्वैंसों या दृश्यों में बाँटा गया है। इस प्रारूप की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ राकेश ने काले सूटवाले को केवल प्रस्तावना में प्रस्तुत करने के बजाय दो-तीन जगह बीच में और नाटक के अन्त में भी इस्तेमाल किया है। दूसरे प्रारूप का आरम्भ काले सूट वाले आदमी और अन्य कलाकारों द्वारा नाटक के संवाद याद करने या उसकी दूसरी समस्याओं की चर्चा के साथ जैसे पूर्वाभ्यास के से दृश्य के रूप में भी परिकल्पित करके देखा है। इस सन्दर्भ में दिलचस्प तथ्य यह है कि राकेश द्वारा परिकल्पित और रद्दा इन दोनों युक्तियों/विकल्पों का प्रयोग कालान्तर में क्रमशः अमाल अल्लाना और त्रिपुरारी शर्मा ने अपनी प्रस्तुतियों में अपनी मौलिक सोच एवं समझ से किया। इस सारी नेपथ्य-कथा को यहाँ देने का उद्देश्य केवल इतना ही है कि हम यह सत्य समझ सकें कि प्रस्तावना और काले सूटवाले आदमी की विभिन्न भूमिकाओं वाली युक्ति पाठक-दर्शक को चौंकाने या बेवजह प्रभावित करने के लिए न तो आरोपित थी और न ही बाद में जोड़ी गई थी।

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