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खुशबू

गुलजार

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2772
आईएसबीएन :9788183610056

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फिल्म खुशबू का मंजरनामा लघु और प्रवाहमय है जो पाठकों को अपनी रो मे बहा ले जाने में सक्षम है।

Khusabu

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

साहित्य का मंजरनामा एक मुकम्मिल फॉर्म है। यह एक ऐसी विधा है जिसे पाठक बिना किसी रूकवट के रचना का मूल आस्वाद लेते हुए पढ़ सके। लेकिन मंजरनामा के अंदाजे-बयान अमूमन मूल रचना से अलग हो सकता है या यूँ कहें कि मूल रचना का इण्टरप्रेटेशन हो जाता है।
मंजरनामा पेश करने का एक उद्धेश्य तो यह है कि पाठक इस फॉर्म से रूबरू हो सके और दूसरा यह कि टी. वी. और सिनेमा में दिलचस्पी रखने वाले लोग यहाँ देखे-जान सकें कि कृति को किस तरह मंजरनामे की शक्ल दी जाती है। टी. वी. की आमाद से मंजरनामों की जरूरत से बहुत इफाजा हो गया है।
कथाकार, शायर, गीतकार, पटकथाकार गुलजार ने लीक से हटकर शरतचन्द्र की-सी संवेदनात्मक मार्मिकता, सहानुभूति और करूणा से ओत-प्रोत कई उम्दा फिल्मों का निर्देशन किया जिनमें मेरे अपने, अचानक, परिचय, आँधी, मौसम, खुशबू, मीरा, किनारा, नमकीन, लेकिन, लिबास और माचिस जैसी फिल्में शामिल हैं।
फिल्म खुशबू का मंजरनामा शरतचन्द्र के उपन्यास पंडित मोशाय से प्रेरित है लेकिन पूरी तरह उसी पर आधारित नहीं है। शरतचन्द्र के उपन्यास में प्लाट बहुत लम्बा और पेचिदा है लेकिन फिल्म खुशबू का मंजरनामा लघु और प्रवाहमय है जो पाठकों को अपनी रो मे बहा ले जाने में सक्षम है। इसमें सबसे ज्यादा प्रभावित करता है बृन्दावन और कुसुम का आपसी रिश्ता, जो रवायती कहानियों से काफी अलग है। कुसुम की खुद्दारी से बृन्दावन से अलग रहती है और जोड़े में रखती है, इसलिए कि वह उसका हक है।
पाठक इस मंजरनामे को पढ़कर औपन्यासिक कृति का आस्वाद प्राप्त करेंगे।

 

1

गाँव का माहौल, कुआँ-जिस पर पंडित जी नहाने जा रहे थे, गाँव की औरतें कुएँ से पानी भर रही थीं। गाँव के अन्दर से आता हुआ कुंज, जिसके सिर पर टोकरी है, उसमें हर रंग, हर किस्म का माल था। बच्चों के लिए खिलौने और औरतों के लिए चूड़ियाँ, लाली, परान्दे, मेहँदी और पता नहीं क्या-क्या सामान। आवाज़ भी लगा रहा था :
‘‘मेहँदी, कंघी, शीशा, चूड़ीवाला !’’
रास्ते में पंडित जी मिले, उनसे राम-राम कहा। ‘‘पंडित जी नमस्कार...!’’
‘‘नमस्कार..जीते रहो बेटे....’’
कुंज आगे बढ़ गया। तभी कच्ची सड़क पर से एक लम्बी-सी कार तेज़ी से धूल उड़ाती आई। कुंज धूल की चपेट में आ गया।
‘‘राम....राम...‘‘
कुंज पीछे हटता गया, कार तेज़ी से आगे चली गई।

2

 

 

वही कार एक पुरानी सी हवेली के अहाते में आकर खड़ी हुई। एक नौजवान लड़का सूट-बूट में, कार से निकला और हवेली के दरवाज़े पे जाकर ‘डोरबेल’ खोजने लगा। फिर कुछ सोचकर हाथ से थपथपाया। अन्दर से कोई खोलने नहीं आया, कई बार खटखटाने से बाद। फिर कुछ सोचकर पास के गमले से एक पत्थर उठाया और उससे दरवाज़े पे आवाज़ की। घर के अन्दर से एक नौकर सुनकर दरवाज़े पर आया और उस नौजवान आवाज़ को पहचान कर कहा :
‘‘अरे छोटे साहब आप ?....न चिट्ठी, न पतरी और आप....’’
‘‘माँ कहाँ है ?....’’
‘‘ऊपर उन्हीं के कमरे में...गाड़ी से सामान निकाल लाई...?’’
‘‘पीछे डिकी में है...’’
‘डिकी’ नौकर समझ नहीं पाया।
‘‘गाड़ीमाँ नहीं है न का ?’’
गुस्से से सुधीर बोला :
‘‘स्टूपिड, गाड़ी के पीछे डिकी में...’’
‘‘हम समझ गए, आप चलो हम लेकर आते हैं।’’
सुधीर माँ के कमरे की तरफ़ चला गया।

3

 

 

एक बूढ़ी-सी औरत बिस्तर पर लेटी थी। कुछ बीमार-सी लग रही थी। उसने सीढ़ियों की तरफ देखा और ख़ुश हो गई।
‘‘अरे बेटे तू आ गया।’’
सुधीर क़रीब आया, उनके पैर छुए और पास ही बिस्तर पर बैठ गया।
‘‘माँ...माँ तुम भी हद करती हो, कब से बीमार पड़ी हो, और अब जाकर ख़बर दी...?’’
‘‘कब कहाँ ? अबहीं कुछ दिन से तो बीमार पड़ी हूँ...’’
‘‘ओहो माँ, कम-से-कम मुझसे तो पूरबी मत बोला करो।...’’
‘‘नौकर-चाकरों से बात करते-करते आदत-सी पड़ गयी है।’’
‘‘अच्छा एक काम करो...अपना सारा सामान बाँधो और चलो मेरे साथ-शहर-वहाँ चलकर मेरे साथ रहो।’’
‘‘न...न, हम न जाब। मैं नहीं जा सकती पुरखों का घर छोड़कर ?’’
‘‘माँ, मैं खूब समझता हूँ, तुम बहुत सख़्त बीमार हो, मुझे इसलिए ख़बर नहीं दी कि मैं तुम्हें शहर न ले जाऊँ।’’
‘‘तुम परेशान मत होवो बेटा।’’
तभी नौकर सामान लेकर आ गया और दरवाज़े पर से ही बोला।
‘‘वहाँ गाड़ी में ही रहा साहब, ढूँढ़ लिया।’’
सुधीर ने नौकर को बुलाया।

‘‘अरे काका...’’
‘‘हाँ साहब...’’
‘‘माँ कब से बीमार है ?’’
‘‘साहब...पिछले मंगल से ताप चढ़ा रहे। सात दिन हुए गवा।’’
‘‘इलाज किसका चल रहा है ?’’
‘‘फ़ज़लू हकीम है, उनका इलाज चल रहा था। अब लोग कहत हैं उनकी नज़र कमज़ोर हो गई है, नाड़ी भी नहीं देख सकते। इस खातिर लेखराज वैद का इलाज चल रहा है।’’
‘‘अरे तुम लोग मार डालोगे माँ को। माँ तुम फौरन मेरे साथ चलो।’’
‘‘शहर-वहर मैं नहीं जा सकती, बेटा। यहीं ठीक हो जाऊँगी।’’
‘‘छोटे साहब-बादल गाँव में एक डॉक्टर आया है। उसकी बड़ी तारीफ़ सुनी है।’’
‘‘उसको क्यों नहीं बुलाया ?’’
तभी माँ बोल पड़ी।
‘‘झुम्मन ने कहा तो था। लेकिन मैंने ही मना कर दिया। क्या पता वह आएगा या नहीं !’’
‘‘आएगा क्यों नहीं ?’’
‘‘ऐसा ही सुना था-कि बड़ी भीड़ लगती है उसके दवाखाने में-और वह कहीं आता-जाता भी नहीं।’’
सुधीर ने यह सुनकर नौकर की तरफ़ देखा।
‘‘नाम क्या है ?’’
‘‘बृन्दाबन साहब !’’

4

 

 

बृन्दाबन डॉक्टर सुई लगाने की तैयारी कर रहा था-पास बैठे गाँववाले दो आदमी आपस में बात कर रहे थे :
‘‘अरे भइया, हम भी ठन गए मनूलो के खेत में...’’
‘‘अच्छा !’’
‘‘उसकी मेड़ को तोड़-फोड़कर पानी खोल दिया।’’
‘‘बहुत अच्छा।’’
‘‘और फिर ऊ लाठी और कुल्हाड़ी चली भइया कि ख़ून-ख़ून हो गया।’’
डॉक्टर अपना इंजेक्शन तैयार करके खड़ा उनकी बातें सुनने लगा।
‘‘ई देखें, माथे पर चार इंची का घाव लगा है।’’
डॉक्टर मरीज़ के पास आकर उसके हाथ पर से कपड़ा हटाने लगा।
‘‘कपड़ा हटाओ...’’
‘‘सुई लगाओगे..?’’
घबरा जाता है वह किसान-पास में बैठा दूसरा आदमी सुई लगाते देखकर डर गया।
‘‘बस डॉक्टर, यही बात तुम्हारी भली नहीं लगती।’’
‘‘चार इंच का घाव खा सकते हो कुल्हाड़ी का-इतनी-सी सुई से डरते हो।’’
डॉक्टर सुई लगाने लगा। किसान ने सफ़ाई में कहा :
‘‘कुल्हाड़ी और लाठी की बात जानत हैं, पर ये छोटी-सी सुई ससुरी...’’
डॉक्टर तब तक सुई लगा चुका। पास बैठा एक आदमी यह सब देखकर भाग गया।
‘‘क्यों...दर्द हुआ क्या ?’’

‘‘नाहीं...हम को मज़ाक करत रहे डॉक्टर साहब!’’ तभी दस-बारह बरस की एक लड़की साड़ी पहने बोलती-बोलती डॉक्टर साहब के पास आई।
‘‘मैं तो यह संसार छोड़ के चली ही जाऊँ तो अच्छा है। काशी जाके बैठूँ तो ही भला।’’
डॉक्टर साहब ने थोड़ा सा मुस्कुराते हुए पूछा।
‘‘अब क्या हुआ माँ....?’’
‘‘कहा था न, आकर पूजा का परसाद ले जाओ ? आख़िर मुझे ही भेजा न बड़ी माँ ने ? कितने सारे काम पड़े हैं-कौन करेगा सब बताओ ?’’
‘‘मेरे भी इतने सारे काम पड़े हैं माँ, कौन करेगा ? तू करेगी ?’’
दरवाज़े पर एक छोटा सा लड़का चार-पाँच बरस का आया-उसने काली को पुकारा।
‘‘ओ माँ-चल न बिल्ली पकड़ेंगे..’’
‘‘ठहर बाबा आती हूँ-एक तो इस लड़के ने मुझे बहुत तंग कर रखा है। लो परसाद लो।’’
डॉक्टर ने थोड़ा-सा प्रसाद लिया। वहीं एक मरीज़ चरन से बोला।
‘‘यह तुम्हारी माँ लगती है ?’’
‘‘चुप...यह तो बाबा की भी माँ लगती है।’’
लोग हँस पड़े। तभी तेज़ी से सुधीर दाख़िल हुआ।
‘‘एक्सक्यूज़ मी डॉक्टर, आप ही डॉक्टर बृन्दाबन हैं ?’’
‘‘जी...’’
‘‘देखिए मैं...सद्दीपुर से आया हूँ-यहाँ आस-पास में कोई टेलीफ़ोन भी तो नहीं है !’’

‘‘कहिए क्या काम है ?’’
‘‘मेरी माँ बहुत सख़्त बीमार है-मैं चाहता हूँ आप इसी वक़्त मेरे साथ चलकर उन्हें देख लें...’’
‘‘चलिए।’’
डॉक्टर यह कहकर अपनी कुर्सी से उठा और अलमारी से कुछ दवाइयाँ निकालने लगा।
‘‘अरे आप तो मान गए...’’
‘‘क्या मतलब...?’’
‘‘कि आप चल रहे हैं न ?...’’
‘‘जी हाँ,..अगर आप कहें...’’
‘‘जी मैं तो कह ही रहा हूँ-लेकिन-वो लोग कह रहे थे कि आप....मैं आपको वापस भी छोड़ दूँगा। मेरे पास गाड़ी है....’’
‘‘बस पाँच मिनट। एक दो मरीज़ हैं उन्हें देख लूँ।’’
सुधीर के चेहरे पर ख़ुशी की चमक आ गई।

5

 

 

एक बड़ी-सी कोठी के बाहर सुधीर की गाड़ी खड़ी थी। डॉ.बृन्दाबन और सुधीर गाड़ी के पास आए तो गाड़ी के बोनट पर चरन लेटा हुआ था।
‘‘क्या कर रहे हैं आप...?’’
‘‘हम भी चलेंगे...’’
‘‘हम काम से जा रहे हैं।’’
‘‘हम भी काम पर जाएँगे।’’
‘‘यह आपका बेटा है..’’
‘‘जी हाँ...बातों से नहीं लगता !’’
डॉक्टर ने अपने बेटे को गाड़ी से उतारा और कुछ पैसे देते हुए कहा :
‘‘चलो...यह लो...पतंग ले लेना....’’
चरन एक तरफ हट गया और डॉ.बृन्दाबन सुधीर के साथ गाड़ी पर बैठ गए।

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